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________________ प्रजापति का सृष्टि सर्जन ७३ *#### ##################***************************** इसके बाद पर्वत नगर आदि बनाने का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इसी 'कृष्ण यजुर्वेद तैतरेय ब्राह्मण' में दूसरा क्रम इस प्रकार बतलाया है __ "इदं वा अग्रे नैव किञ्चनासीत्। न धौरासीत्। न पृथिवी। नान्तरिक्षम्। तदस देव सन् मनोऽकुरुतस्यामिति। तदतप्यत। तस्मात्तेपानाख़्मोऽजायत। तद्भूयोऽतप्यत। तस्मात्तेपानादग्निरजायत। तद्भूयोऽतप्यत। तस्मात्ते पानाज्योति रजायत। तद्भूयोऽतप्यत तस्मात्तेपानादर्चिरजायत......1(२-२-९) ___अर्थ - सृष्टि के पूर्व यहाँ कुछ भी नहीं था, न तो स्वर्ग था, न पृथ्वी और न अन्तरिक्ष ही था (असत् ही असत् था)। उस असत् को सत् रूप बनने की इच्छा हुई और उसने तप किया। उस तप करने वाले से धूम्र उत्पन्न हुआ। फिर तप किया और अग्नि उत्पन्न हई। फिर तप किया तो ज्योति उत्पन्न हुई। पुनः तप किया तो ज्वाला उत्पन्न हुई। पुनः तप करने से ज्वाला का प्रकाश फैला। ' इस प्रकार तप करते-करते प्रकाश से बड़ी ज्वाला, फिर वह धुआँ बादल के समान घनरूप बना, जो परमात्मा का वस्तिस्थान (मूत्राशय) बना। उसका भेदन किया गया, तो वह समुद्र बन गया। समुद्र, मूत्राशय से बना, इसलिए उसका पानी कोई नहीं पीता। एक ही शास्त्र में ये दो भिन्न मत व्यक्त हुए। प्रथम मत कहता है कि सृष्टि के पूर्व जल ही जल था और प्रजापति को कमल का पत्ता दिखाई दिया, फिर प्रजापति ने सूअर का रूप बनाकर जल में डूबी हुई पृथ्वी की मिट्टी निकालकर कमल-पत्र पर बिछा दी और वह पृथ्वी बन गई। दूसरा मत कहता है कि - नहीं, जल नहीं था, मात्र असत् ही था। असत् ने तप करके धूम अग्नि आदि उत्पन्न किया। पानी तो प्रजापति के मूत्र रूप में बाद में उत्पन्न हुआ। अब तीसरी मजेदार कल्पना देखिये - . "तद्वा इदमापः सलिलमासीत्। सो रोदित्प्रजापतिः। स कस्माअज्ञि....।२-२-९) अर्थः - अथवा सृष्टि के पूर्व यह जगत् पानी रूप था। यह देखकर प्रजापति रोने लगा। रोने का कारण यह था कि इस पानी से मैं सृष्टि किस प्रकार उत्पन्न करूँगा? .... . प्रजापति के दुःखपूर्ण रुदन से उसकी आँखों से आंसू गिरे। वे आंसू पानी पर जम गए और उससे पृथ्वी बन गई। उपरोक्त मत के अतिरिक्त उपरोक्त शास्त्र में (७-१-५) एक यह मत भी है कि - "आपो वा इदमग्रे सलिलमासीत्। तस्मिन् प्रजापतिर्वायुर्भुत्वाञ्चरत्......। अर्थात् - पहले पानी ही था। प्रजापति वायुरूप से उस पानी पर फिरने लगा। उसने पानी के नीचे पृथ्वी देखी और वराह का रूप बनाकर पानी में से पृथ्वी निकाल लाया। उसके बाद वराह रूप छोड़कर प्रजापति विश्वकर्मा बना। . इसके सिवाय उपरोक्त सूत्र के ५-७-५ में-पानी में प्रजापति के 'अहुति' देखने का उल्लेख है। 'कृष्ण यजुर्वेद' के अतिरिक्त 'शुक्ल यजुर्वेद माध्यंदिनी संहिता' में कुछ अन्य मत ही व्यक्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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