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________________ १०६ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० १ अ० ३ . ** * *********** भावार्थ - गणधर भगवान् सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं - "हे जम्बू! यह अदत्तादान नाम का तीसरा अधर्मद्वार है।" दूसरे की वस्तु का हरण कर लेना, उनके घर, खलिहान आदि जला देना, भयभीत करना, मार डालना आदि पापकर्म के कारण यह अदत्तादान दूसरों के हृदय में क्लेश एवं त्रास उत्पन्न करने वाला है। दूसरे के धन को हरण करने के दुर्ध्यान (रौद्रध्यान) से युक्त लोभ ही इसका मूल है। यह मध्यरात्रि आदि विषम-काल और गहन वन आदि विषम-स्थान की अपेक्षा रखता है। धन-लोभ और उससे उत्पन्न अदत्तादान रूपी पापेच्छा अधोगति की ओर ही बढ़ाने वाली है। उनकी बुद्धि पाप की ओर ही प्रवृत्त रहती है। अदत्तादान, अकीर्ति (निंदा) का कारण है। अनार्यकर्म है। सदा छिद्रगवेषण एवं ताक-झांक की वृत्ति वाला है। दूसरों की विपत्ति, उपद्रव अथवा कठिनाई का योग ढूँढकर (हाथ मारने वाला है) वह विवाह आदि उत्सवों, मेलों और समारोहों में संलग्न, राग-रंग में मदमत्त बने हुए मनुष्यों में. घात लगा कर चोरी करने की इच्छा वाला, नींद में सोये हुए मनुष्यों की वस्तु चुराने वाला घबराहट, व्यग्रता एवं उत्सुकता उत्पन्न करके, अन्यत्र ध्यान लगाकर, अपहरण करने वाला मनुष्यों का जीवन समाप्त कर धन लेने वाला और इस प्रकार के अनेक प्रपंच करके दूसरों का धन-धान्यादि लेने वाला दुष्ट परिणामी होता है। ___यह चौर्यकर्म, अन्य बहुत-से तस्करों द्वारा सम्मत है। चोर के मन में करुणा नहीं होती। चोरों से राज्य के जन-धन की रक्षा करने के लिए राज्य-पुरुष (पुलिस) सदैव तत्पर रहते हैं (अथवा राजपुरुष, जिन पर सदा दृष्टि रखते हैं) चौर्यकर्म, उत्तम पुरुषों द्वारा सदैव निन्दनीय है। चौर्यकर्म अपने इष्ट-मित्र एवं प्रियजनों की प्रीति एवं मैत्री का नाश करने वाला है। राग-द्वेष से भरपूर है। बहुत-से मनुष्यों का विनाश, विग्रह एवं युद्ध का उत्पत्ति स्थान है। भयंकर क्लेश एवं पश्चात्ताप का जनक है। दुर्गति गमन की शक्ति बढ़ाने वाला है। जन्म-मरण से भव-परम्परा बढ़ाने वाला है। यह पाप, संसाररत आत्मा के अनादि परिचित है और सदा साथ रहने वाला है। इस पाप का अन्त आना अत्यन्त कठिन है। यह तीसरा अधर्मद्वार है। - विवेचन - दूसरे अधर्मद्वार का स्वरूप बतलाने के बाद आगमकार क्रमागत अदत्तादान नामक तीसरे अधर्मद्वार का स्वरूप बतलाते हैं। . अदत्तादान - जिस वस्तु का स्वामी कोई दूसरा हो, जो दूसरों के अधिकार की हो, जिसके लेने से न्याय-नीति का उल्लंघन होता हो और किसी जीव को कष्ट होता हो-वह अदत्तादान है। शास्त्रकारों ने अदत्त के चार भेद बतलाए हैं - १. स्वामी-अदत्त २. जीव-अदत्त ३. तीर्थंकर-अदत्त और ४. गुरुअदत्त। १. स्वामी-अदत्त - जिस वस्तु का जो स्वामी हो, उसकी आज्ञा के बिना ही वह वस्तु लेनास्वामी-अदत्त है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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