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________________ अदत्त के तीस नाम १०७ **************************************************************** २. जीव-अदत्त - सजीव वस्तु को ग्रहण करना, काम में लेना, भोगोपभोग करना, सचित्त पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवों की विराधना करना, काटना, तोड़ना, मारना यावत् किंचिंत् भी कष्ट देना-जीव-अदत्त है। उस काय-शरीर के वे जीव स्वामी हैं। उनकी आज्ञा नहीं है कि कोई उन्हें काम में ले। अतएव यह जीव-अदत्त है। . ३. तीर्थकर-अदत्त - जिनेश्वर देव की आज्ञा के विपरीत प्रवृत्ति करना, निषिद्धाचरण करना। . ४. गुरु-अदत्त - गुरु एवं ज्येष्ठ की आज्ञा एवं मर्यादा के विपरीत आचरण करना। गुरु की अनुज्ञा लिए बिना ही स्वच्छन्द प्रवृत्ति करना। अदत्तादान का पाप भी हिंसा और मृषा के समान भयंकर है। इसमें पूर्व के दोनों पापों का भी निवास रहता है। इस पाप का मूल लोभकषाय में है। लोभ से ही तृष्णा बढ़ती है और महामोहनीय कर्म रूप घोर पाप करवा देती है। यह अदत्तग्रहण सामान्य वस्तु से-एक तिनके से लगाकर राष्ट्रव्यापी होता है। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र की भूमि एवं राज्य हड़पने के लिए तत्पर रहता है, भयंकर युद्ध करते हैं और लाखों करोड़ों मनुष्यों का विनाश कर देते हैं। अदत्तादान पाप की भयंकरता सूत्रकार स्वयं बतला रहे हैं। ___ अदत्त के तीस नाम तस्स य णामाणि गोण्णाणि होति तीसं तं जहा-१. चोरिक्कं २. परहडं ३. अदत्तं ४, कूरिकडं ५. परलाभो ६. असंजमो ७. परधणम्मि गेही ८. लोलिक्कं ९. तक्करत्तणं त्ति य १०. अवहारो ११. हत्थलहुत्तणं १२. पावकम्मकरणं १३. तेणिक्कं १४. हरणविप्पणासो १५. आदियणा १६. लुंपणा धंणाणं १७. अप्पच्चओ १८. अवीलो १९. अक्खेवो २०. खंवो २१. विक्खेवो २२. कूडया २३. कुलमसी य २४. कंखा २५. लालप्पणपत्थणाय २६. आससणाय वसणं २७. इच्छामुच्छाय २८. तपहागेही २९. णियडिकम्म ३०. अप्परच्छंति वि य। तस्स एयाणि एवमाईणि णामधेजाणि होंति तीसं अदिण्णादाणस्स पावकलिकलुस-कम्मबहुलस्स अणेगाई। - शब्दार्थ - तस्स - उसके, णामाणि - नाम, गोण्णाणि - गुणनिष्पन्न, होति - हैं, तीसं - तीस, तं जहा - जैसे - १. चोरिक्कं - चौरिक्य-चुराना-चोरी का कार्य करना, २. परहडं - परहृत-दूसरों के द्रव्य का हरण करना, ३. अदत्तं - अदत्त-बिना दिये ही दूसरे की वस्तु लेना, ४. कूरिकडं - क्रूरकृतक्रूरतापूर्ण कार्य, ५. परलाभो - परलाभ-पराये लाभ को अपना बना लेना-पर-द्रव्य को प्राप्त करना, ६. असंजमो - असंयम-दुराचार-सदाचार का नाश, ७. परधणम्मि गेही - परधन गृद्धि-पराये धन में आसक्त, ८. लोलिक्कं - लौल्य-पर-द्रव्य में लोलुपता ९. तक्करत्तां त्ति य - तस्करता, १०. अवहारोअपहार-पराई वस्तु को गुप्त रूप से लेकर अपनी बनाना, ११. हत्थलहुतणं- हस्तलघुत्व-हाथ की सफाई से-चालाकीपूर्वक लूटना, १२. पावकम्मकरणं - पापकर्म करण-पापाचरण करना, १३. तेणिक्कं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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