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________________ 235 सत्य की महिमा ************************************************************** विवेचन - सत्यव्रती, सत्य के आराधक और सत्य के बल से अपनी आत्मा-को बलवान् बनाने वाली भव्यात्मा, प्रथम तो सभी प्रकार की विपत्तियों से सुरक्षित रहती है। यदि पूर्वकर्म के उदय से कभी विपत्ति आ भी जाये, तो वह सत्यव्रती आत्मा का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। उसका सत्यव्रत उसकी इस प्रकार रक्षा करता है, जिस प्रकार किसी देव ने आकर आश्चर्यजनक रूप से रक्षा की हो। सत्यव्रत का पालक, समुद्र के भंवरचक्र, वायुप्रकोप, बड़वानल या किसी भी प्रकार के भयानक उपद्रव से घिर कर भी सुरक्षित रहकर किनारे आ जाता है। उसे दावानल भी नहीं जला सकता और शत्रु सेना भी क्षति नहीं पहुंचा सकती। उस सत्यधर्मी सत्पुरुष को पर्वत-शिखर से गिरा देने पर भी अंग-भंग नहीं होता। वह सभी प्रकार की आपत्ति-विपत्तियों से बचा रहता है। देव भी उसके प्रशंसक और सहायक " होते हैं। कहा भी है कि - "सत्येनाऽग्निर्भवेच्छीतोऽगाधाम्बुधिरपि स्थलम्। नाऽसिः छिनत्ति सत्येन, सत्यान्न दशते फणी।" - सत्यवादी के समक्ष अग्नि भी शीतल हो जाती है। अगाध समुद्र भी स्थल के समान हो जाता है। तलवार की धार भी भोंथरी हो जाती है और सर्प भी नहीं डसता। यह सत्यव्रत की महिमा है। . .. तं सच्चं भगवं तित्थयरसुभासियं दसविहं चोहसपुचीहिं पाहुडत्थविइयं महरिसीण य समयप्पइण्णं देविंदणरिदभासियत्थं वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविजासाहणत्थं चारणगणसमणसिद्धविजं मणुयगणाणं वंदणिजं अमरगणाणं अच्चणिजं असुरगणाणं य पूयणिजं अणेगपासंडिपरिग्गहियं जं तं लोगम्मि सारभूयं, गंभीरयरं महासमुद्दाओ, थिरयरगं मेरुपव्वयाओ, सोमयरगं चंदमंडलाओ, दित्तयरं सूरमंडलाओ विमलयरं सरयणहयलाओ, सुरभियरं गंधमादणाओ जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जवा य विज्जा य जंभगा य अत्थाणि य सत्याणि य सिक्खाओ य आगमा य सव्वाइं वि ताई सच्चे पइट्ठियाई। __शब्दार्थ - तं - यह, सच्चं - सत्य, भगवं - भगवान्, तित्थयरसुभासियं - तीर्थंकरों ने बड़ी उत्तमता के साथ वर्णन किया, दसविहं - दस भेद, चोइसपुचीहिं - चौदह पूर्वधारियों ने, पाहुडत्थविइयंपूर्व के एक विशिष्ट भाग में इसे भली-भांति जाना था, महरिसीण - बड़े-बड़े महर्षियो ने, य - और, समयप्पइण्णं - सिद्धान्त रूप से उपदेश दिया, देविंदणरिंदभासियत्थं - देवेन्द्र तथा नरेन्द्रों ने सत्य भाषण के प्रयोजन का अनुभव किया है, वेमाणियसाहियं - वैमानिक देवों को भी उपादेय, महत्थं - महान् अर्थ वाला, मंतोसहिविज्जासाहणत्थं - मंत्र तथा औषधी और विद्याओं की सिद्धि का साधन, चारणगणसमणसिद्धविजं - चारणगण और श्रमणों को आकाशगमन और वैक्रिय विद्याओं की सिद्धि, मणुयगणाणं - मनुष्यगण का, वंदणिजं - वन्दनीय, अमरगणाणं - देवगण का, अच्चणिजं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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