________________ अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा 211 गाय, भैंस आदि चतुष्पद पशुओं के लिए अटवी भयप्रद होती है, वहाँ सिंह-व्याघ्रादि हिंसक जीव उन्हें अपना भक्ष बना देते हैं। उन हिंसक भक्षकों से बचने के लिए ये पशु अपने आश्रय स्थानों पर आकर निर्भय होते हैं, उसी प्रकार अहिंसा भगवती भी अपने आश्रितों को निर्भय बनाती है। . ___ रोगी अपने रोग से मुक्त होने के लिए औषधि का सेवन करता है। औषधि सेवन से रोग दूर होकर आरोग्य-लाभ होता है, उसी प्रकार अहिंसा रूपी औषधि, हिंसा से उत्पन्न पाप रूपी रोग को नष्ट कर जीव को रोग मुक्त-दुःख-रहित बनाती है। दीर्घ भयानक एवं दुरूह अटवी में भटकने वाले मार्ग-भ्रष्ट मनुष्य का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। यदि उसे कोई मार्ग पर लगा दे, तो वह उस भय से निकल सकता है, उसी प्रकार हिंसा के कुमार्ग में भटके हुए जीवों को अहिंसा का राजमार्ग प्राप्त हो जाये, तो उनका उद्धार हो सकता है। __ आगमकार महर्षि ने भगवती अहिंसा की महिमा उपरोक्त शब्दों में बतलाई, यह महत्त्वपूर्ण है। अहिंसा के आश्रय में सभी प्रकार के सत्यादि धर्म फूलते-फलते हैं। अहिंसा अमृत हैं। .. यों तो अहिंसा की बातें अन्य लोग भी करते हैं, किन्तु निर्दोष सर्वोत्तम एवं विशिष्टतर अहिंसा तो वही है जो पृथिव्यादि स्थावरकाय एवं द्वेन्द्रियादि त्रसकाय के समस्त जीवों का क्षेम करने वाली हो, सभी को अभय रूप शान्ति देने वाली है और विश्व के समस्त जीवों का कल्याण करने वाली है। ... इस विधान से यह भी सिद्ध होता है कि जैन धर्म एवं जिनेश्वरों का मार्ग-"बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय" कहा जाने वाला अजैन सिद्धान्त नहीं है। यह अजैन सिद्धान्त केवल मनुष्यों के लिए ही है, किन्तु जिनेश्वरों का घोष-"सर्वभूत क्षेमकर-" सर्वजीव हिताय रहा है। अहिंसा के विशुद्ध दृष्टा / एसा भगवइ अहिंसा जा सा अपरिमिय-णाणदसणधरेहिं सील-गुण-विणयतव-संयम-णायगेहि तित्थयरेहिं सव्वजगजीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरेहिं (जिणचंदेहि) सदिट्ठा ओहिजिणेहिं विण्णाया उग्जुमइहिं विदिट्ठा विउलमईहिं विविदिआ पुवीरेहि अहीया वेउब्दीहि पतिण्णा आभिणिबोहियणाणीहि सुयणाणीहि मणपज्जवणाणीहि केवलणाणीहि आमोसहिपत्तेहिं खेलोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहि विप्योसहिपत्तेहिं सव्वोसहिपत्तेहिं बीयबुद्धीहिं कुटुबुद्धीहिं पयाणुसारीहिं संभिण्णसोएहिं सुयधरेहिं मणबलिएहिं वयबलिएहिं कायबलिएहिं णाणबलिएहिं दंसणबलिएहिं चरितबलिएहिं खीरासवेहिं महुआसवेहिं सप्पियासवेहिं अक्खीणमहाणसिएहिं चारणेहिं विज्जाहरेहि। शब्दार्थ - एसा - यह, भगवई - भगवती, अहिंसा - अहिंसा, अपरिमियणाणदसणधरेहिं - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org