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________________ 274 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु० 2 अ०४ **************************************************************** शब्दार्थ - तं - वह, इमं - यह, पंचमहव्वयसुव्वयमूलं - पांच महाव्रत रूप सुव्रतों का मूलं, समणमणाइलसाहुसुचिण्णं - शुद्ध भाव वाले साधुओं द्वारा सम्यक् प्रकार से भावपूर्वक सेवन किया गया, वेरविरामणपजवसाणं - वैरभावकी निवृत्ति और अन्त करने वाला, सव्वसमुद्दमहोदहितित्थं - सभी समुद्रों में बड़े ऐसे स्वयम्भूरमण समुद्र के समान दुस्तर-ऐसे संसार समुद्र से तिराने वाला तीर्थ। / भावार्थ - यह ब्रह्मचर्य व्रत, पांच महाव्रत रूपी सुव्रतों का मूल है। उत्तम आचार वालें शुद्ध स्वभावी संतों से सेवित है। वैर-विरोध की निवृत्ति करके शांति करने वाला है और सभी समुद्रों में अत्यन्त विशाल ऐसे स्वयंभूरमण महासमुद्र के समान जो संसार-समुद्र है, उसे पार करने के लिए . ब्रह्मचर्य तीर्थ के समान है। विवेचन - ब्रह्मचर्य का सम्यक् प्रकार से-नियमपूर्वक पालन करने वाले का पुद्गलानन्दीपन छूट जाता है। परिग्रह की लालसा का बड़ा कारण अब्रह्म है। जब स्त्री नहीं तो पुत्र-पौत्रादि भी नहीं, फिर धन की लालसा क्यों हो? वैर-विरोध और झगड़े का बड़ा कारण कनक और कामिनी (स्त्री और धन) होता है। ब्रह्मचारी के ये दोनों कारण नहीं रहते। अतएव वैर-विरोध का कारण भी नहीं रहता। ऐसे उत्तम ब्रह्मचारी के प्रभाव से दूसरों के वैर-विरोध भी नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्मचारी की बलवान् आत्मा अपने आत्म बल से संसार-समुद्र को तिर कर मुक्त हो जाती है। तित्थयरेहि सदेसियमग्गं, णरयतिरिच्छविवज्जियमग्गं। सव्वपवित्तिसुणिम्मियसारं, सिद्धिविमाण अवंगुयदारं॥२॥ ___ शब्दार्थ - तित्थयरेहि - तीर्थंकरों से, सुदेसियमग्गं - उत्तम प्रकार से दिखाया हुआ मार्ग, णरयतिरिच्छविवजियमग्गं - नरक तथा तिर्यंच गति के मार्ग को बन्द करने वाला, सव्वपवित्ति सुणिम्मियसारं - सभी पवित्र अनुष्ठानों को सारयुक्त करने वाला, सिद्धि विमाणअवंगुयदारं - सिद्धि और वैमानिक गति के द्वार को खोलने वाला। भावार्थ - तीर्थंकर भगवंतों ने ब्रह्मचर्य गुप्ति का उत्तम मार्ग बतलाया है। इस लोकोत्तम मार्ग के पथिक के नरक और तिर्यंच गति के मार्ग रुक जाते हैं। इन दुर्गति के मार्गों को रोक कर जीवों को सुखी होने की उत्तम साधना ब्रह्मचर्य है। सभी प्रकार की पवित्र वस्तुओं में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ एवं सार रूप है। इसके पालक के लिए सिद्धगति और वैमानिक देवलोक के द्वार खुले रहते हैं। देव-णरिंद-णमंसियपूयं, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं। दुद्धरिसं गुणणायगमेक्कं, मोक्खपहस्स वडिंसगभूयं // 3 // शब्दार्थ - देवणरिंदणमंसियपूर्य - देवों तथा नरेन्द्रों से नमस्कृत और पूजनीय, सव्वजगुत्तममंगलमग्गं - विश्व के सभी मंगल-मार्गों का प्रधान, दुद्धरिसं - किसी से पराभव नहीं पाने वाला, गुणणायगमेक्कं - अद्वितीय गुणों का एकमात्र नायक, मोक्खपहस्स - मोक्ष मार्ग का, वडिंसगभूयं - शिरोभूषण रूप। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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