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________________ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० २ पर झूठा दोषारोपण करते हैं। धन में लुब्ध बने हुए वे झूठी साक्षी भी देते हैं। महान् अनर्थकारी ऐसे धन के लिए, कन्या के लिए, भूमि सम्बन्धी और गाय, बैल, भैंस आदि के विषय में झूठ बोलते हैं। ये सभी प्रकार के झूठ अधोगति में ले जाने वाले हैं। इसके अतिरिक्त वे जाति, कुल, रूप और शील के विषय में भी लोगों में असत्य प्रचार करते हैं। कोई माया-निपुण है-लोगों को छल से ठगने में कुशल है, चपल है और कोई चुगलखोर है। मिथ्या-भाषण परमार्थ (मोक्ष) मार्ग को नष्ट करने वाला है, विद्वेष उत्पन्न करने वाला है, द्वेष वर्द्धक है, अनर्थकारी है और पापकर्मों का मूल है। असत्यवाद और कुदृष्टियुक्त है। मिथ्या-भाषण तो सुनने के योग्य भी नहीं होता। कूड़ भाषण, समझ में नहीं आने योग्य होता है। मिथ्याभाषी लोग लज्जारहित होते हैं। वे लोक में निन्दनीय होते हैं। असत्य-भाषण का परिणाम दंड, वध, बन्धन (कारागार) और क्लेश की बहुलता वाला होता है। इसके फलस्वरूप जीव जरा, मृत्यु और शोकजनक अवस्था के दुःख भोगता रहता है। मिथ्या-भाषण बुरे परिणाम तथा संक्लेश का कारण है। . विवेचन - पूर्व सूत्र में दूसरों पर मिथ्या दोषारोपण करने वाले मृषावादियों का परिचय दिया गया है। इस सूत्र में लोभवश छल-प्रपंच कर मिथ्या-भाषण करने वालों का उल्लेख है। जो मृषावादी हैं, वे मायाचारी भी होते हैं। जान-बूझकर बोले हुए झूठ में माया छुपी हुई रहती है। वह माया-मृषा, उस कूटभाषी को अधोगति में ले जाती है। ऐसे मायाचारी लोग मोक्ष-मार्ग के नाशक-लोपक और पापमार्ग के पोषक होते हैं। ऐसे माया-निपुण एवं चालाक लोग सीधे-सादे मनुष्यों को भ्रम में डालकर सत्-पथ से वंचित कर देते हैं। इस प्रकार पाप का फल बहत द:खदायक होता है। असत्य से सत्य-शुभ की प्राप्ति नहीं हो सकती। असत्य से अशुभ ही मिलता है और उसका परिणाम भी अशुभ-दुःखदायक होता है। असत्योच्चारण करते समय मन में माया की काली छाया होती है-कुटिलता होती है। वह म.याचारी दूसरों को संक्लेश-हानि पहुंचाने के लिए मन में जाल बुनता है। उसकी वह मानसिक संक्लिश्यता परिपक्व हो जाने पर खुद को संक्लेशमय (क्लेश से परिपूर्ण) बना देती है-गुणित दर गुणित बढ़कर। असत्य-भाषण में असत्य लेखन और असत्य संकेत का भी समावेश हो जाता है। जिस प्रकार असत्य-भाषण पाप और दुःखदायक है, उसी प्रकार असत्य लेखन और असत्य संकेत भी है। इनका समावेश भी असत्य-भाषण में ही हो जाता है। अपनी असत्य बात-मुंह से बोलकर सुनाई जाये, पत्र आदि पर लिखकर या संकेत से बताई जाये। इन सब का आशय अपने भाव दूसरों को समझाना है और यह कार्य भाषण के समान लिपि एवं संकेत से भी हो सकता है। . __अर्थालीक - अर्थ (धन) सोना, चांदी आदि धातु, रुपया-पैसा आदि सिक्का, मणि, मोती, रत्न, आभूषण, वस्त्रादि, भूमि, घर, गाय, भैंस आदि पशु इत्यादि के लिए झूठ बोलना। स्वार्थवश (मतलब गांठने के लिए) झूठ बोलना। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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