________________ 188 प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०४ **************************************************** ******* अस्थि हु - होता, मोक्खोत्ति - छुटकारा, एवमाहंसु - इस प्रकार कहा है, णायकुलणंदणो - ज्ञातृकुल नन्दन, महप्पा - महान् आत्मा, जिणोउ - जिन भगवान् ने, वीरवरणामधिग्जो - वीरवर-महावीर नाम वाले, कहेसी - कहा है, अबंभस्स - अब्रह्मचर्य का, फलविवागो - फलविपाक, एयं - यह, तंयह, अबंभं वि - अब्रह्मचर्य, चउत्थं - चौथा, सदेवमणुयासुरस्स - देव, मनुष्य और असुरों सहित, लोयस्स - लोगों का, पत्थणिज्जं - प्रार्थनीय है, एवं - इस प्रकार, चिर-परिचियमणुगयं - चिरकाल से परिचित और अनुगत, दुरंतं - कठिनाई से अन्त होने वाला, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - यह अब्रह्मचर्य रूपी अधर्म का-इस लौकिक और पारलौकिक फलविपाक है। यह अल्पतम सुख और अधिकतम दुःख से भरपूर है। महाभयानक तथा पाप के अत्यधिक मैल से युक्त है। कर्कश-कठोर है। अशांतिमय है। इसके कटुफल से हजारों वर्षों के बाद छुटकारा होता है। बिना दुःख भोगे छुटकारा नहीं हो सकता। इस प्रकार इस अधर्म का फल-विपाक, ज्ञातृ-कुल-नन्दन, वीरवर (महावीर) नाम वाले महान् आत्मा ने कहा है। यह अब्रह्मचर्य चौथा आस्रव है और देव, मनुष्य और असुर-इन सभी से प्रार्थनीय है। यह मैथुन कर्म जीवों का चिरपरिचित (अनादि काल से परिचित) है और अनादिकाल से जीव के साथ लगा हुआ है। इसका अन्त होना अत्यन्त कठिन है-ऐसा मैं कहता हूँ। यह चौथा अधर्मद्वार समाप्त हुआ। ॥अब्रह्म नामक चौथा अधर्मद्वार संपूर्ण॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org