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________________ .५२ प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ०१ **************************************************************** और द्वेष से बहुत-से कर्मों का संचय करके इस तिर्यंच पंचेन्द्रिय योनि में अत्यन्त दुःखदायक और कर्कश-कठोर कष्टों को प्राप्त होते हैं। विवेचन - नरक में भुगतने योग्य तीव्रतम पाप-कर्मों का फल भोगने के बाद जब वे कर्म हल्के हो जाते हैं-तिर्यंच गति के योग्य रह जाते हैं, तब वे जीव, नरकायु समाप्त होने पर, तिर्यंच गति में आते हैं और दुःखमय जीवन व्यतीत करते हैं। चौरेन्द्रिय जीवों के दुःख भमर-मसग-मच्छिमाइएसु य जाइकुलकोडि-सयसहस्सेहिं प्रावहिं चउरिदियाणं तहिं तहिं चेव जम्मणमरणाणि अणुहवंता कालं संखिजं भमंति.णेरइयसमांणतिव्वदुक्खा फरिसरसण-घाण-चक्खु-सहिया। शब्दार्थ - भमरमसगमच्छिमाइएसु - भ्रमर मशक मक्खी आदि, जाइकुलकोडि - जाति की कुलकोटियाँ, सयसहस्सेहिं - शतसहस्र-लाख, णवहिं - नौ, चउरिदियाणं - चौरेन्द्रिय, तहिं तहिं चेवउन सभी में, जम्मणमरणाणि - जन्म-मरण, अणुहवंता - अनुभव करते हुए, कालं संखिज्जं - संख्यात काल, भमंति - भ्रमण करते हैं, जेरइय-समाण - नैरयिक के समान, तिव्वदुक्खा - तीव्र दुःख, फरिस रसणघाणचक्खुसहिया - स्पर्श, रस, घ्राण और चक्षु सहित होते हैं। भावार्थ - चार इन्द्रिय वाले भ्रमर मशक (मच्छर) और मक्खी आदि जाति के जीवों की कुल कोटियाँ नौ लाख हैं। ये जीव, स्पर्श, रसना, घ्राण और चक्षु-इन चार इन्द्रियों से युक्त होते हैं। उन सभी जाति और कुलों में जन्म-मरण करते हुए वे पापी जीव, संख्यातं काल तक नारक जीवों के समान तीव्र दुःखों का वेदन करते हैं। जाति - उत्पत्ति का वह स्थान जहाँ अनेक प्रकार (कुल) के जीव उत्पन्न होते हैं। चौरेन्द्रिय की जाति दो लाख है। कुल - एक जाति में उत्पन्न विविध प्रकार के जीव जैसे - गोबर, विष्टा आदि अशुचि या गीली मिट्टी में एक ही स्थान पर विविध प्रकार के सम्मूर्छिम जीव उत्पन्न होते हैं। एक ही माता से वर्णादि की भिन्नता लिए हुए सन्तति उत्पन्न होती है, वह विविधता कुल रूप मानी जाती है। आयु-स्थिति - चौरेन्द्रिय जीव की आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट छह माह हैं और कायस्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की बताई है। यह संख्यात काल संख्यात हजार वर्ष का है, ऐसा प्रज्ञापना पद १८ की टीका में लिखा है। तेइन्द्रिय जीवों के दुःख , .. तहेव तेइंदिएसु कुंथु-पिप्पीलिया-अंधिकादिएसु य जाइकुलकोडि-सयसहस्सेहिं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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