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________________ नवम्मा प्रश्नव्याकरण सत्र श्र०२ अ०५ ********** ** *************wwwwwwwwwwwwww पावएसु ण तेसु समणेण रूसियव्वं ण हीलियव्वं ण प्रिंदियव्वं ण खिंसियव्वं ण छिंदियव्वं ण भिंदियव्वं ण वहेयव्वं ण दुगुंछावत्तियाए लब्भा उप्याएर एवं सोइंदियभावणा-भाविओ भवइ अंतरप्पा मणुण्णाऽमणुण्ण सुब्भिदुब्भिराग-दोसप्पणिहियप्पा साहू मणवयणकायगुत्ते संवुडे पणिहिइंदिए चरेज धम्म। शब्दार्थ - पुणरवि - फिर भी, सोइदिएण - श्रोत्रेन्द्रिय से, सोच्चा - सुन कर, सद्दाई - शब्दों कों, अमणुण्णपावगाइं. - अमनोज्ञ और पापकारी, किं ते - वे कौन से हैं, अक्कोसफरुस - आक्रोशकारी और कठोर, खिंसण - निन्दाजनक, अवमाणण - अपमान कारक, तजण - तर्जना रूप, शिब्भंछणनिर्भत्सना रूप, दित्तवयण - दीप्त-वचन, तासण - त्रास उत्पन्न करने वाले, उक्कूजिय - अव्यक्त शब्द, रुण्ण - रुदन का शब्द, रडिय- इष्ट-वियोग से उत्पन्न दीनतायुक्त शब्द, कंदिय - आक्रन्दनकारी शब्द णिग्घुटु - निर्घोष रूप शब्द, रसिय - रसित-सूअर के समान शब्द, कलुण - करुणाजनक, विलयाईविलाप के शब्द, अण्णेसु - दूसरे, एवमाइसु - इसी प्रकार के, सद्देसु - शब्दों को सुन कर, अमणुण्णपावएसु - अमनोज्ञ और पापकारी, तेसु- उनके विषय में, समणेणं- साधु को, ण रूसियव्वंक्रोध नहीं करना चाहिए, ण हीलियव्वं - हीलना नहीं करनी चाहिए, ण णिंदियव्वं - निन्दा नहीं करनी चाहिए, ण खिंसियव्वं - खिसना नहीं करनी चाहिए, ण छिंदियव्वं - छेदन नहीं करना चाहिए, ण भिंदियव्वं - भेदन नहीं करना चाहिए, ण वहेयव्वं - वध नहीं करना चाहिए, ण दुगंछावत्तियाए लब्भा उप्पाएउं - न जुगुप्सा उत्पन्न करना उचित है, एवं - इस प्रकार, सोइंदिय भावणा - यह श्रोत्रेन्द्रिय की भावना है, अंतरप्पा - अंतरात्मा, भाविओ - भावित, भवइ - होता है, मणुण्णामणुण्णसुब्भिदुन्भिरागदोसप्पणिहियप्या - मनोज्ञ और अमनोज्ञ तथा शुभ और अशुभ शब्द को सुन कर आत्मा में रागद्वेष की उत्पत्ति नहीं होने दे, साहू - साधु, मणवयणकायगुत्ते - मन बचन और काया से गुप्त होकर, संवुडे-शुद्ध संयम वाला, पणिहिइंदिए-इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ, चरेजधम्म-धर्म का आचरण करे। ___ भावार्थ - इस प्रकार कानों से अरुचिकर लगने वाले अशुभ शब्द सुनाई दे, तो द्वेष नहीं करे। वे कटु लगने वाले शब्द कैसे हैं ? आक्रोशकारी, कठोर, निन्दायुक्त, अपमानजनक, तर्जन, निर्भर्त्सना, दीप्त (कोपयुक्त) त्रासोत्पादक, अव्यक्त, रुदन (अश्रुपात) रटन (जोर से रोने रूप) आक्रन्दकारी, निर्घोष, रसित (सूअर की बोली के समान) कलुण (करुणाजनक) विलाप के शब्द और इसी प्रकार के अन्य अमनोज्ञ अशुभ शब्द सुनाई देने पर, साधु को रुष्ट नहीं होना चाहिए। ऐसे शब्दों की हीलना, निन्दा, खिंसना भी नहीं करनी चाहिए। ऐसे अप्रिय शब्द,एवं शब्द करने वालों पर घृणा, छेदन, भेदन और वध नहीं करना चाहिए। यह श्रोत्रेन्द्रिय सम्बन्धी भावना है। इस भावना का यथातथ्य पालन करने से अन्तरात्मा प्रभावित होती है। शब्द मनोज्ञ हो या अमनोज्ञ, शुभ हो या अशुभ सुनाई दे, उनके प्रति रागद्वेष नहीं करने वाला संवृत्त साधु, मन, वचन और काया से गुप्त होकर, इन्द्रियों का निग्रह करता हुआ दृढ़तापूर्वक धर्म का आचरण करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004201
Book TitlePrashna Vyakarana Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages354
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_prashnavyakaran
File Size8 MB
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