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छैमासिक
वर्ष २६ : किरण
अप्रैल १९७३
তাকান।
74J
.
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चांदखेडी अतिशय क्षेत्र के जिनभवन में विराजमान
प्राविनाथ जिनेन्द्र की भव्य मूर्ति
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पः
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वीरसेवा मन्दिर का अभिनव
प्रकाशन
विषय-सूची क्र०
विषय १. स्तुतिकर्म २. श्री महावीर स्वामी और हमहीरालाल जैन 'कौशल'
। चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारि३. महाराजाधिराज श्री रामगुप्त --
भाषिक शब्दकोश) का प्रथम भाग छप चुका है। मनोहरलाल दलाल
इसमें लगभग ४०० जैन ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के ४. वर्धमानपुर : एक समस्या--मनोहरलाल दलाल ७|
अनुसार लक्षणों का संकलन किया गया है । लक्षणों ५. मुनि श्री विद्यानन्द : भुजंगी विश्व के बीच
के संकलन में ग्रन्थकारो के कालक्रम को मुख्यता __ चन्दन के विरछ---डा० नेमीचन्द जैन ८
दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थों के ६. चारित्र-चत्र वर्ती प्राचार्य श्री शान्तिसागर महा
लक्षण संग्रहं त उनमें से प्रायः एक प्राचीनतम राज का सौवा जन्म दिन समारोहपूर्वक मनाइये ११
ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में हिन्दी अनु७ चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट -
वाद भी दे दिया गया है। जहा विवक्षित लक्षण में पं० फूलचन्द शास्त्री, वाराणसी
कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहां उन ग्रन्थों के ८. श्रीमती शान्ता भानावत को पी-च. डी की उपाधि
निर्देश के साथ २-४ ग्रन्थों के प्राश्रय से भी अनुवाद ६. भगवान महावीर का समाज-दर्शन -
किया गया है। इस भाग में केवल 'अ से औ' तक डा० कुलभूषण लोखडे
लक्षणों का सवलन किया जा सका है। कुछ थोडे १०. परमात्मप्रकाश टीका के कर्ता व जीवराज
ही समय में इसका दूसरा भाग भी प्रगट हो रहा नही, श्वे० धर्मसी उपाध्याय -
है, वह लगभग तैयार हो चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ अगरचन्द नारा
मशोधकों के लिये तो विशेष उपयोगी है ही, साथ ११. श्रमण जैन प्रचारक मघ
ही हिन्दी अनुवादके रहनेसे वह सर्वसाधारणके लिये १२. दादू थी संत गोबिददास रचित जैन धर्म मबधी अन्य चौबीस गुणस्थान चर्चा-अगरचन्द नाहटा २२
भी उपयोगी है। प्रस्तुत प्रथम भाग बड़े आकार में १३. द्राविड भाषायें और जैन धर्म --५० के० भुज
४०५ पृष्ठों का है । कागज पुष्ट व जिल्द कपड़े को बली शास्त्री
मजबूत है। मूल्य २५-० ० है। यह प्रत्येक १४. जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त
युनिव सटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एव मन्दि गे में डा० कौशल्या वल्ली
सग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार बार नहीं छप सकते। १५. राजषि देवकुमार की कहानी - सुबोधकुमार जैन
समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो १६ वीर निर्वाणोत्सव - तेजपाल सिंह
जाता है।
प्राप्तिस्थान १७. घरौड़ा से प्राप्त चौमुखी जैन प्रतिमा---
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंः कुमारी शीला नागर
दिल्ली-६ १८. आदिपुराणगत ध्यान प्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव -प० बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
सम्पादक-मण्डल १६. बुद्धिमान् पुरुषार्थी
डा० प्रा० ने० उपाध्ये २०. द्रोणगिरि-क्षेत्र--६० बलभद्र जी न्यायतीर्थ
डा. प्रेमसागर जन २१. सुजनता का लक्षण
श्री यशपाल जैन २२. बहोरीवन्द प्रतिमा लेग्य -- डा. कस्तूरचन्द 'सुमन'
मथुरादास जन एम. ए., साहित्याचार्य २३. साहित्य-समीक्षा-बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री ४८ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पाद एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
--व्यवस्था
२१
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* महम
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धनात्यन्षसिम्पुरविषानम् । सकलमयविलासितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
प्रप्रल
वर्ष २६ किरण १
। ।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६६, वि० सं० २०२९
स्तुतिकर्म यद्गर्भस्य महोत्सवे सुरचयराकाशसंपातितनिावर्णधरविचित्रमरिणभिः संछादितं भूतलम् । शुम्भपधरैस्तदीयसुगुण रेजे यथा लाञ्छितं तं वन्दे वृषभं वृषाञ्चितपदं भक्त्या सदा सौख्यदम् ॥१॥ प्रोत्तुङ्गे गिरिराजरम्यशिखरे मोरोवराहत३चञ्चञ्चन्द्रकलाकलापतुलितरम्भोभिरानन्दिताः । जातं यं मुदिताः सुरा रतिधराः संसिक्तवन्तः स्वयं तं वन्दे ह्यजितेश्रं जिनवरं सत्कोतिराकापतिम् ॥२॥
अर्थ-जिनके गर्भकल्याणक के समय देवसमूह के द्वारा प्राकाश से बरसाये हुए रङ्ग-विरङ्गे नाना मणियों से आच्छादित पृथिवीतल ऐसा सुशोभित हो रहा था मानों उन्हीं के शोभायमान गुणों से युक्त हो, इन्द्र के द्वारा पूजित चरणों के धारक एवं सदा वास्तविक सुख प्रदान करने वाले उन वृषभनाथ भगवान को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ॥१॥
मानन्द से युक्त एवं प्रीति को धारण करने वाले देवों ने उत्पन्न होते ही जिनका क्षीरसागर से लाये हुए चन्द्रमा की कलानों के समूह की तुलना करने वाले जल से मेरु पर्वत के उच्चतम शिखर पर स्वयं अभिषेक किया था उन कीतिरूप पूर्णचन्द्र से युक्त प्रजित जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ॥२॥
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श्री महावीर स्वामी और हम
(१)
वे थेविश्व-व्यापी-विकलता विलोक वीर वर्द्धमान,
अस्त-प्राणि-त्राण हेतु हृदय में अधीर थे। लेकर जग से विराग, पंचेन्द्रिय-विषय त्याग,
कर्म दस्यु-दलन बने अविचल सुधीर थे। सर्वसमभावी, सर्वत्यागी, सर्व हितकारी,
सर्व दृष्टिकोणों से विचारक गंभीर थे। प्रात्म-पूर्णता के प्रभावक, प्रकाश-पुंज,
वीतरागी सर्वज्ञाता स्वामी महावीर थे।
और प्राजविश्व को विकलता का भान तो कहां से हो,
देश प्रो समाज का न रंचमात्र ध्यान है। पंचेन्द्रिय विषय त्याग बात बहुत दूर रही,
भक्ष्याभक्ष्य-भक्षण तक का रहा नहीं ज्ञान है ।। सर्व समभावी सर्वत्यागी प्रभु थे परन्तु,
काला धन संचय में आज सम्मान है। खा रहा समाज को दहेज का दानव दुष्ट,
हए अर्थलोलुपो, अहिंसक जवान हैं ।।
तब क्या करें-? वीर की जयंती मनाना है सार्थक तभी,
वीर के जीवन से प्रकाश कुछ पावें हम । खान पान, रहन सहन सात्विक पवित्र होवे,
धार्मिक गृहस्थ जैसा जीवन वितावें हम ।। दीन दुखियों की दशा देख मन होवे द्रवित,
स्वार्थत्याग "कौशल" वात्सल्य अपनावें हम । दूर कर द्वेष दम्भ, दयाहीनता, दहेज, नैतिकता नाव पतवार बन जावें हम ।।
होरालाल जैन 'कौशल'
दीन दुखिया त्याग "कौशाहीनता, दहे
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छठी शताब्दी का प्रज्ञात जैन शासक :
महाराजाधिराज श्री रामगुप्त
मनोहरलाल बलाल
मालवा प्रदेश में जैन वास्तु एवं मूर्ति शिल्प के उदा- पादपीठ पर उत्कीर्ण लेखों से FORT हरण पांचवीं शताब्दी के पूर्व के नहीं मिलते, परन्तु इसके चार्य क्षमा-श्रमण के प्रशिक्षण पश्चात इनकी एक विकास श्रृंखला ज्ञात होती है। जन चेलू क्षमग के उपदेश से महाराज
तोता कि उज्जयिनी एव विदिशा प्रतिमाए स्थापित करवाई थीं। इन लेखों की लिपि गुप्त
तथा पश्चिमी भारत में जैन धर्म के ब्राह्मी है, भतएव इनका निर्माण काल छठी शताब्दी के प्रचार एवं प्रसार का मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र बाद का नहीं हो सकता। इस जैन सम्राट रामगात का सम्प्रति ने योजनाबद्ध प्रयत्न किया था। कालकाचार्य काल एवं राज्य क्षेत्र निर्धारित करना विवादास्पद है। कथानक से उज्जयिनी में जैन धर्म के लोकप्रिय होने का
विदिशा, एयण, उज्जयिनी प्रादि क्षेत्रों में रामगुप्त अवश्य होता है, परन्तु पुरातात्विक प्रमाण नहा के ताम्र-सिक्के भी मिले हैं, जिन पर गुप्त ब्राह्मी में मिलते । गुप्त सम्राट कुमार गुप्त प्रथम के राज्य काल के
__ 'रामगुप्त' लेख है, जिसे इन मूर्तियों के महाराजाधिराज गुप्त संवत् १०६ (४२५ ई.) के उदयगिरि गुहा लेख से की।
श्री रामगुप्त से अभिन्न मानकर गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त विदित होता है कि शंकर नामक व्यक्ति ने सप फणा युक्त विक्रमादित्य का अग्रज मानने का सुझाव दिया जाता श्रेष्ठ पार्श्वनाथ की प्रतिमा गुफा द्वार पर निर्मित करवाई
है', जिसे 'देवीचन्द्र गुप्त' नाटक में उस्लेखित ध्र वदेवी थी, जिसके सर्प फण चिह्र मात्र शेष बचे हैं। बेस नगर
के प्रथम पति एवं समुद्रगुप्त के पुत्र रामगुप्त से सम्बसे एक विशाल तीर्थकर प्रतिमा और मिली थी, जो
न्धित किया जाता हैं। ग्वालियर संग्रहालय मे सुरक्षित है, परन्तु जैन धर्म को
मूर्तियों के प्रकाश में पाने के पूर्व मालवा क्षेत्र में माश्रय देने वाले किसी शासक का बोध नहीं होता।
प्राप्त सिंह तथा गरुड़ प्रकार के ताम्र सिक्कों से ज्ञात विदिशा संग्रहालय मे महाराजाधिराज रामगुप्त के
रामगुप्त का काल एवं राज्य क्षेत्र निर्धारित करने में द्वारा स्थापित तीर्थकर प्रतिमाए पद्मासन मुद्रा में हैं, जिनमें
विद्वानों में मतभेद था। परमेश्वरीलाल गुप्ता, मनम्त एक चन्द्रप्रभ एवं दूसरी पुष्पदन्त भगवान की है, यद्यपि
सदाशिव मल्लेकर' एवं कृष्णदत्त बाजपेयी इस रामगुप्त तृतीय प्रतिमा पहिचानना सम्भव नहीं है। इन तीनों
को साहित्यिक स्रोतों से ज्ञात गुप्त शासक रामगुप्त से प्रतिमानों की पादपीठ पर तिथिविहीन लेख है, जिनका
अभिन्न मानते हैं तथा अपने मत के समर्थन में निम्नमाशय समान है :
लिखित तर्क देते हैं :___"भगवतोहतः चन्द्रप्रभस्य प्रतिमेयं कारिता महाराजा. बिराज श्री रामगुप्तेन उपदेशात् पाणिपात्रिक चन्द्रक्षमा
३. साप्ताहिक हिन्दुस्थान दिनांक ३० मार्च १९६६ चार्य क्षमा-श्रमण प्रशिष्य माचार्य सर्पसेन-क्षमण शिष्यस्य
ई०, पृष्ठ १०। गोलक्यान्त्यसात्पुत्रस्प चेल क्षमणस्येति ।"
४. जर्नल प्राफ दि न्यूमिसमेटिक सोसायटी माफ इंडिया, १. फ्लीट कृत गुप्त अभिलेख पृष्ठ २५८ ।
भाग १२, पृष्ठ ३। . २. जर्नल मॉक भोरियन्टल इंस्टिट्यूट, १८, भाग ३, ५. वहीं पृष्ठ १०६। . पृष्ठ २४७-५१ ।
६. वही, भाग १८, पृष्ठ ३४०.४४
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४,
२६ कि..
अनेक
१. साहित्यिक स्रोतों में जात रामगुप्त एक गुप्त मानना निम्न कारणो से असंगत है :शासक था तथा लिपि से ये सिक्के गुप्त कालीन १. यह क्षासक जैन मतावलम्बी था तथा इसने लु प्रतीत होते हैं।
क्षमण के उपदेशों से प्रभावित होकर ये जिन प्रति२. समुद्रगुप्त ने पूर्वी मालवा विजित कर एरण को माएं स्थापित करवाई थी, जबकि गुप्त शासक प्रान्तीय शासन का केन्द्र बनाया था, सम्भवतः ब्राह्मण मतावलम्बी थे। रामगुप्त को समुद्रगुप्त ने यहाँ का शासक नियुक्त २. रामगुप्त का विरुद महाराजाधिराज है, जिससे किया होगा। कालान्तर में राजकुमार को पूवीं यह स्वतन्त्र शासक विदित होता है। विदिशा मालवा में गवर्नर बनाने की परमरा गुप्त एरण क्षेत्र ५१० ई. तक गप्त साम्राज्य का सम्राटों ने जारी रखी थी यथा-चन्द्रगुप्त अंग था तथा उसके पश्चात् हूण सम्राट तोरमाण विक्रमादित्य ने गोविन्द गुप्त को तथा कुमारगुप्त एवं मिहिर कुल का। प्रथम ने घटोत्कच गप्त को एरण का शासक ३. रामगप्त के सिक्के उज्जयिनी क्षेत्र में भी मिले नियुक्त किया था।
हैं, जबकि इस क्षेत्र को सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त द्वितीय ३. रामगुप्त के सिक्कों पर गरुड़ गप्त सम्राटों का या कुमारगुप्त प्रथम ने जीता था, प्रतएव यह लांच्छन है तथा सिंह मिलने का सम्बन्ध ध्रुवदेवी रामगुप्त चन्द्रगुप्त द्वितीय का पूर्वगामी कैसे हो की वैशाली से प्राप्त मुद्रा के सिंह से जोड़ा जा
सकता है ? सकता है।
४. मालवा में स्थानीय प्रकार के ताम्र सिक्के सर्व४. 'देवी चन्द्र गुप्त' नाटक में उल्लेखित शक शासक
प्रथम चन्द्र गुप्त द्वितीय ने प्रचलित किये थे, से ध्र वदेवी के लिये हुए युद्ध की घटना विदिशा
प्रतएव यह रामगुप्त बाद का है।
५. मूर्तियों के अभिलेखों से रामगुप्त के गुरु चेलुके निकट को होगी, क्योंकि इस क्षेत्र में शक
क्षमण को चक्षनाचार्य क्षमाश्रमण का प्रशिष्य शासकों के सिक्के एवं प्रभिलेख मिले हैं।
कहा गया है, जबकि जन प्राचार्यों में क्षमाश्रमण दिनेशचन्द्र सरकार', ए. के. नारायण' एवं निसार
विरुद सर्वप्रथम बल्लभी संगिति के अध्यक्ष देवएहमद' का विचार है कि सिक्कों से ज्ञात रामगुप्त
घिमणि का मिलता है, जिनका समय ४५३ ई. पांचवीं शताब्दी का मालवा का एक स्थानीय शासक था,
ज्ञात है, अतएव चन्दक्षमाचार्य उनसे परवर्ती हैं । जिसका उत्थान गुप्त साम्राज्य के पतनावस्था में हमा होगा, क्योंकि सिक्कों के प्रकार, वजन, बनावट एवं प्रच
महाराजाधिराज श्री रामगुप्त मालबा क्षेत्र के प्रथम लन से वे स्थानीय प्रतीत होते हैं।
शात जैन शासक थे, जिनके राज्य क्षेत्र में सम्पूर्ण मालवा विदिशा से प्राप्त तीन तीथंकर प्रतिमामों के पाद-क्षत्र सिक्की से विदित होता है. यद्याप पूवा मालवा में पीठ पर उल्लेखित जन शासक महाराजाधिराज श्री इनके सिक्के बड़ी तादाद मे मिले हैं। इस जैन शासक रामगुप्त को सिक्कों से ज्ञात रामगप्त से प्रभिन्न मानना का समय निर्धारित कर स्वतन्त्र शासक के रूप में प्रतिउचित है। क्योंकि सिक्के एवं मूर्तियां मालवा क्षेत्र में ही ष्टित करना काठन है पूर्वी मालवा में गुप्त सम्राटों का मिली है तथा इनके लेखों की लिपि भी गुप्त ब्राह्मी है। शासन प्रभिलेख एवं सिक्कों से बुद्ध गु त तक ज्ञात होता यद्यपि इस रामगुप्त को समुद्रगुप्त के पुत्र से भिन्न है जिनकी तिथि गत संवत १६५ (४८४ ई०) है।' १.जनल माफ इंडियन हिस्ट्री त्रिवेन्द्रम ४०,०५३३ । एरण से प्राप्त भानुगुस्त गोपराज के प्रभिलेख से ११० २. जर्नल माफ दि म्यूमिसमेटिक सोसायटी माफ इंडिया, ३. एपिग्राफिया इडिका-२१, पृष्ठ १२७ एवं फ्लीत भाग १२, पृष्ठ ४१
कत गुप्त मभिरोख, पृष्ठ ८८ । ३. बही, भाग २५, पृ.१.५।
४. पनीट कृत गुप्त अभिलेख, पृष्ठ ६२ ।
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महाराजाधिराज श्री रामगुप्त
ई. तक इस क्षेत्र में गुप्त सत्ता का प्राभास होता है। भी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली होगी। तुनर से
हण शासक तोरमाण के प्रथम राज्यवर्ष का अभिलेख सत्यगुप्त का एवं ताम्रसिक्का मिला है, जिस पर लेख एरण से मिला है, जिसका प्रान्तीय शासक धन्यविष्णु गुप्त ब्राह्मी में है, प्रतएव यह सत्यगत महाराजाधिराज था, जोकि गुप्त सम्राट बुधगुप्त के प्रान्तीय शासक मात. श्री रामगुप्त का उत्तराधिकारी रहा होगा, जिससे कलविष्णु का अनुज था, प्रतएव छठी शताब्दी के प्रारम्भ में चुरि शासक शकरगण ने ५६५ ई० में उन्मयिनी के पूर्वी मालवा के शासक हूण ज्ञात होते हैं। तोरमाण को पास पास का क्षेत्र छीन लिया था। उद्योतनसूरि ने कुवलय माला में जैन कहा है, जिसका महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने मालवा क्षेत्र में पुत्र मिहिरकुल ५३० ई. तक पंतक राज्य का स्वामी जैन धर्म के प्रसार के प्रयत्न अवश्य किये घे क्योंकि छठी विदित होता है। यशोधर्मन विष्णुवर्धन के दशपुर अधि- शताब्दी के बाद से जैन वास्तु एवं मूर्ति शिल्प के उदालेखो से विदित होता है कि उसने मालव संवत् ५८६ हरण मालवा मे बहुसंख्यक मिलते है। इन लेखयुक्त जिन (५३२ ई.) के पूर्व मिहिरकुल को परास्त कर गुप्तों प्रतिमापों से इस अज्ञात जैन सम्राट का नाम एव धर्म एव हूँणों से भी विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था, मात्र ज्ञात होता है । रामगुप्त के महाराजात्रिराज विरद प्रतएव रामगन्त की स्वतन्त्र सत्ता का समय प्रौलिकर एव सिक्कों से इसका राज्य क्षेत्र विस्तृत प्रतीत होता है, सम्राट यशोधर्मन विष्णुवर्धन के बाद ही रखा जा सकता परन्तु अन्य स्रोतों के प्रभाव मे अन्य उपलब्धियां ज्ञात
नही होती । जैन प्राचार्य चन्द्रक्षमाचार्य एव उनकी शिष्य ___ यशोधर्मन की मत्यु सम्भवत: ५४० ई. के पूर्व हो परम्परा चेलक्षमण तक लेख से ज्ञात होता है, सम्भवतः चुकी थी, क्योंकि उसके द्वारा स्थापित साम्राज्य का इनका उपदेश केन्द्र विदिशा या । देवधि क्षमाश्रमण से विघटन इसके बाद प्रारम्भ हो गया। गुप्त साम्राज्य के इनका सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता, यद्यपि लाट एवं मालवा अवशेषों पर गौड़, मोखरि एव परवर्ती गुप्त राजवंशों का जैनाचार्यों के लिये सम्बद्ध प्रचार क्षेत्र थे, मतएव चन्द्रउत्थान एवं प्रतिस्पर्धा अभिलेखों से ज्ञात है, अतएव क्षमाचार्य क्षमाश्रमण को वल्लभी से सम्बन्धित मानना मालवा मे इसी समय करीब ५५० ई० में रामगुप्त ने असगत नहीं होगा। १. फ्लीट कृत गुप्त प्रभिलेख, पृ० १५६ ।
३. इडियन माकियालाजी, १९६७-६८, पृ०६२। २. वही, पृ० १४७ ।
४. एपिग्राफीया इडिका ६, पृ० २६६ ।
अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महंगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। विद्वानों एवं शोधकार्य संलग्न महानुभावों से निवेदन है कि वे योग्य लेखों तथा शोधपूर्ण निबन्धों के संक्षिप्त विवरण पत्र में प्रकाशनार्थ भेजने की कृपा करें।
-व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
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वर्धमानपुर : एक समस्या
मनोहरलाल दलाल
जनाचार्य जिनसेन ने अपने हरिवंश पुराण को शक ही उस समय अवन्ति का शासक था, जिसका हरिवंश
७०५ में वर्द्धमानपुर के शान्तिनाथ चैत्यालय में पुराण में उल्लेख है, इस दृष्टि से कुवलयमाला में उल्लेसमाप्त किया था। इसी बर्द्धमानपुर मे शक संवत् ८५३ खित वत्सराज भिन्न प्रतीत होता है। जो कि प्रतिहारमहरिषेग ने कयाकोष की रचना की थी। डॉ. ए. वंशीय था। पश्चिम के शासक बीर वराह की पहिचान
न. उपाध्ये ने इस वर्द्धमानपुर की पहिचान सौराष्ट्र के राष्ट्रकूट शासक कर्कराज के ताम्र पत्र में उल्लेखित प्रसिद्ध शहर 'बढ़वाण' से की है, परन्तु डा. हीरालाल राष्ट्रकुट सम्राट कृण से पराजित चालुक्य शासक कीति जाने (इण्डियन कल्चर-अप्रैल १६४५) घाट जिला वर्मा महावराह के वशज से की जाती है। ऐसी स्थिति तर्गत नगर बदनावर' से इस वर्द्धमानपुर को अभिन्न में हरिवंश पुराण में उल्लेखित भौगोलिक स्थिति के माना है। ये दोनों ही नगर उज्जयिनी से पश्चिम में मापार पर कोई निष्कर्ष निकालना सम्भव नहीं है, कजिनसेनाचार्य ने वर्द्धमानपुर की जो भोगोलिक स्थिति क्योकि बढवाण एवं बदनावर दोनों स्थलों पर यह बतलाई है वह महत्वपूर्ण है। हरिवंश पुराण के अन्तिम घटित होती है।
पर पद्य मे लेखक ने बतलाया है कि वर्तमान- हरिवंश पुराण की रचना वर्द्धमानपुर की नन्न राज उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में कृष्ण का पुत्र श्री वसनि में की गई थी, जो कि राष्ट्रकूट शासक नन्न राज
प मे अवन्तिराज वत्सराज और पश्चिम में या उसके उत्तराधिकारी द्वारा निर्मित मंदिर रहा होगा। सोनों के प्रधिमण्डल सौराष्ट्र की वीर जयवराह रक्षा मानपुरा के निकट इन्द्रगढ़ से प्राप्त मालव संवत् ७६७ करता था, उस समय यह ग्रन्थ पूर्ण हुआ था।
(शक सक्त् ३२) के अभिलेख में भामन के पुत्र राजा दोनों स्थल (बढवाण एव बदनाबर) से उत्तर में कन्नोज णपणप्य का उल्लेख है, जिसका मालवा पर शासन था, के शासक इन्द्रायध का शासन अभिलेखों से ज्ञात है तथा गसको पहिचान सगलोदा एब मुल्ताई ताम्रपत्रों से दक्षिण में राष्ट्रकूट सम्राट गोबिन्द द्वितीय श्री वल्लभ शात राष्ट्रकूट शासक नन्नराज से की जाती है. जिसकी का शासन था, जिसकी जात तिथि ताम्रपत्र से शक संवत् तिथि शक सबत् ६३३ ज्ञात है। इस दृष्टि से भी नन्नराज
१२ ज्ञात है। पूर्व की मोर के शासक 'प्रवन्ति भूभूत वसति की सम्भावना बढ़वाण एव बदनावर दोनो ही वत्सराज' को नागभद्र द्वितीय के पिता वत्सराज से मभिन्न स्थलों पर हो सकती है। बदनावर में पूर्व मध्यकालीन समझा जाता है, परन्तु उद्योतन सूरि की कुवलयमाला मदिरों एवं मूतियों के अवशेष मिले है, इनमे एक लेख मे नामक प्राकृत कथा में वत्सराज का राज्य शक संवत् ७०० शान्तिनाथ चैत्यालय का उल्लेख भी है। में जावालिपुर पर्थात् जालौर (मारबाड़) में बताया गया वर्द्धमानपुर को पहिचान की दृष्टि से बदनावर से है। अन्य ऐसा कोई प्रमाण नहीं है, जिससे प्रतिहार शासक
३. इण्डियन हिस्टोरिकल क्वाटली, ३१, क्रमांक २ वत्सराज को भवन्तिराज माना जा सके, सम्भवतः महमा
पृ. ६९; एपिग्राफिका इण्डिका जिल्द ३२ पृ० ११२ अभिलेख से ज्ञात मालवा का स्थानीय शासक वत्सराज
४. इण्डियन एण्टिक्वेटी २६, पृ० १०६ । १. एपिमाफिमा इण्डिया, जिल्द-६, पृ० २०६। ५. वही, १८ पृष्ठ २३०; एपिमाफिया इण्डिका ११, २. वही, जिल्द ३७, मंक ११ ।
पृष्ठ २७६ ।
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वर्षमानपुर : एक समस्या
प्राप्त मुनियों वे पादपीठ पर उत्तीर्ण तीन अभिलेखों का स्थापित करवाने वाले व्यक्ति को बवाण का निवासी विशिष्ट महत्व है :
मान लेना उचित नहीं होगा क्यं कि इ.भिलेख संख्या-२ १. सबत् १२६ वैशाख बढी ६ स प्रथ हे वर्ष मे उल्लेखित 'श्री वर्ध पूरान्वय का भी फिर यही अर्थ नापुरे श्री शान्तिनाथ चंन्ये सा. श्री सलन मानना होगा, बी स्थिति में बढ़व ण के मन्वय को सा० गोशल भा०ब्रह्म दि भा० बड़देवादि कुण्ड-बमानपराम्बय और बदनावर के अन्वय का वधनावसुहितेन निजगोत्र देव्या श्री प्रच्छुप्ता: रवि पूरान्वय मानकर दोनों नगरों के भिन्न-भिन्न अन्त्य की कीति कारिता:।
कल्पना करनी होगी। यह लेख प्रवराही देवी के पादपीठ पर है। यह इन लेखों में अभिलेख क्रमांक-१ विक्रम संवत् १२२६ मूर्ति ४१" ऊँचे एदं २६" चौड़े प्रतिमा फलक पर वनी का है जबकि क्रमांक-३ विक्रम संवत् १२१६ का है, है। इसमें नगर का नाम स्पष्ट रूप से वर्षनापुरे लिखा जिनमें केवल १३ वर्ष का अन्तर है, यद्यपि अभिलेख है यद्यपि डा० हीरालाल जैन ने त्रुटि वश इसे वर्धमान. क्रमाक करीब १२ वर्ष बाद का हे विक्रम संवत् १३०८ पुर पढ़ लिया है, जिसकी अोर किसी ने ध्यान ही नहीं का। बढ़वाण से कोई अभिलेख नहीं मिले है, जिनसे उस दिया। यह मूर्ति दिगम्बर जैन संग्रहालय, उज्जैन मे नगर का प्राचीन नाम वर्द्धमानपुर' माना जा सके । रखी है।
मालवा में धार जिले के अन्तर्गत तहसील नगर बद२. संवत् १३०८ वर्षे माघ सुदी ६......श्री वर्षना. नाबर को जैन हरिवंश पुराण एवं कथाकोष में उल्लेखित पुरान्वय पडित रतनुभार्या साधुसुत साइगभार्या वर्द्धमानपूर का गौरब देना उचित प्रतीत होता है जिसका कोड़े पुत्र सा० असिभार्या होन्तू नित्य प्रणमति । प्राचीन नाम पाठवीं शताब्दी में विद्धमानपुर' था, इस प्रभिलेख मे वर्धनापुरान्वय का उल्लेख है, परन्तु कालान्तर में इस नगर को 'वर्धनापुर' कहा जाने परन्तु इससे भी प्रभिलेख संख्या १ के अनुसार ही बद. लगा था। यद्यपि वर्द्धमानपूर नाम भी लोकप्रिय बना नावर का नाम 'वर्धनापुर' ज्ञात होता है, यद्यपि केवल रहा. जिसकी पूष्टि विक्रम सबत् १२२६ एव १२१६ में एकमात्र निम्नलिखित अभिलेख मे 'वर्धमानपुरान्वय' का स्थापित मूर्ति लेखों से होती है। उल्लेख है :
हरिवंश पुराण में उल्लेखित भौगोलिक स्थिति, प्राप्त ३. संवत् १२१६ चैत्र सुदी ५ बुघे रामच द्र प्रणमति मूति लेख, पुरातात्विक अवशेष प्रादि विशाल जैन केन्द्र
वर्षमानपुरान्वय सा० सुमोदित सुत वाला सीपा के रूप मे वदनाबर का प्राचीन गौरव प्रकट करते हैं, भार्या राया सुत विल्लाभार्या वायणि प्रणमति । जिसका मूल्याँकन डा. हीरालाल जैन ने किया था, उपयुक्त उल्लेख को वर्धमानपुर के अन्वय का परन्तु अभिलेखो के मालोचनात्मक अध्ययव के प्रभाव में उल्लेख मात्र मानकर इस अभिलेख युक्त प्रवेश द्वार को विद्वत् समाज ने इसे स्वीकार नही किया था।
विशेष सूचना
वीर सेवा मन्दिर २१ वरियागंज दिल्ली के प्रकाशन विभाग ने कितने ही प्रन्थ रत्नों को प्रकाशित कराया है कुछ ग्रन्थ ऐसे है जो जैन सिद्धान्त के मूल तत्त्वों एव उपदेशों पर सक्षेप मे प्रकाश डालते हैं । ऐसी पुस्तिकाओं द्वारा जैन धर्म और उसके प्रात्म-कल्याणप्रद उपदेशों का प्रचार किया जा सकता है। जो सज्जन इस प्रकार की पुस्तिकामों को खरीद कर प्रचारार्थ वितरण करना चाहें उन्हें मूल्य में कुछ विशेष रियायत प्राप्त हो सकती है। खरीदने के इच्छुक सज्जन कार्यालय में मिलने या पत्र-व्यवहार द्वारा निर्णय लेने की कृपा करें।
वीर सेवा मन्दिर द्वारा प्रकाशित विशेष ग्रन्थों की सूची अनेकान्त के प्रत्येक अंक में होती है।
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मुनि श्री विद्यानन्दः भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ
डा० नेमीचन्द जैन
जिस दिन मुनिश्री विद्यानन्द जी से साक्षात् हुमा, नही है, क्या मित्रो का ध्यान रखना बुरा है।" इस बीच उस दिन सहसा कबीर की याद मन मे मंडराने लगी। उन्होने दूसरा कश भरपूर खीच लिया था। मैने चिकोटी कबीर की कई साखियां मन पर झमाझम बरस पड़ी। लेते पूछा-"पाप सिगरेट तो बडी प्रदा से पीते है। इसके एक साखी-बदली बरसकर कह गयी-'साष कहावन अन्धभक्त है क्या ?" उन्हे उत्तर मिल गया था, मोर वे कठिन है, लम्बा पेड़ खजूर । चड़े तो चाखे प्रेमरस, गिरं प्रब किसी खाम घबराहट में जाना चाहते थे; किन्तु मैने तो चकनाचूर ॥" इसके अर्थगौरव पर मन को मोर नाच- जाते-जाते उनके कान में कबीर की एक गरम-सो साखा नाच उठा; और लगा जैसे मेग ध्यान कमल को पांखरी डाल दी-"जाति न पूछो साधु को, पूछ लीजिए ज्ञान । पर मोती-सी दमकती किसी बूद पर चला गया है। बूद मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।" तलवार दमक रही है पाखु डी पर, पोर पाखुरी पाखरी है। दोनों का मोल करना योद्धा का काम है, कितने है ऐसे रण. साथ, दोनों अलग। ऐसा अभिनव-प्रलौकिक बोध हुमा बाकुरे जो जीवन से मुखातिब है और तलवार की धार उस परम व्यक्तित्व का उस दिन जैसे अनेकान्त ने नवा- का सम्पूर्ण प्रहमास कर रहे है। आज अधिकाश लोग कार ग्रहण किया हो और वह अपनी सम्पूर्ण छटा और म्यान पर झगड रहे है, ज्ञान पर किसी का ध्यान नहीं है । वैभव में मेरी प्रांखों के सामने उपस्थित हो। इतने मे इधर मुनिश्री की पगतली साधना की दुधारी तलवार पर कबीर को दूसरी साखी मन पर पलथी मारने लगी- है और वे ज्ञान की खोज मे प्रतिपल कर्मरत है। उनका परमारथ के कारणे, साधन परा शरीर"। मन मान गया एक क्षण भी क्षीण नहीं है. उसके मुरझने से पहले वे उसके कि मुनिश्री की डगर खांडे की प्रखर घारहै। वे प्रात्मार्थी सौरभ को निचोड़ कर दुनिया को बांट देते है। रोरब हैं, प्रात्मानुसंघानी है; और समाज-हित में भी बड़े चौकस और कौरव के इस जमाने मे सौरभ की वन्दना जो नहीं और अनासक्त वृत्ति से चल रहे है। उनकी मुसकान में कर पाते, उनके प्रभाग्य की कलाना मैं सहज ही कर समाधान है और वाणी में समन्वय का अनाहत नाद । सकता हूँ। उनका हर कदम मानवता की मंगल मुस्कराहट है और प्राज जब पूज्य मुनिश्री ४८ वर्ष के हुए हैं, उनकी हर शब्द जीवन को दिशा-दृष्टि देने वाला है। कहें हम
को दिशा-दृष्टि देने वाला है । कह हम साधना विश्वधर्म की सार्थक परिभाषा घड़ रही है। कि, वे भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ है, अनन्त
उनका तेजोमयव्यक्तित्व, अंगारे सी प्रहनिश दहकती सुवास के स्वामी।
ज्ञान-देह देखकर कोई भी विस्मय-विमुग्ध खड़ा रह जाता एक बार एक सज्जन घर पाये। कहने लगे माप है। एक सहज मुस्कराहट, निद्वन्द्व मुखमडल, विशालमुनिश्री विद्यानन्द जी के अन्धभक्त हैं। मैंने सहज ही भव्य ललाट, ज्ञान के वातायनो से सम्यक्त्व-खोजते नेत्र, कहा- "इस में प्रापको कोई आपत्ति है; भक्ति और जीवन को टटोलती चेहरे की हर मुद्रा देह मे कहीं कोई माराधना तो व्यक्तिगत मुद्दे है।" सिगरेट का कश खीचते शिकन नहीं। परमानन्द की मगलमूर्ति मुनिश्री जब प्रव. हुए बोले-"नही वैसे ही; पापको उनके पास माते-जाते चन की मुद्रा में विशाल जनमेदिनी के सम्मुख उपस्थित देख लिया था ।" मैंने कहा-"यानी पाप मित्रो पर होते हैं, तब ऐसा लगता है जैसे प्राची में कोई सूरज उठ जासूस निगाह रखते हैं।" तड़प कर बोले-"वैसा कुछ रहा है जो मध्याह्न तक पहुँचते-पहुँचते उपस्थित लोक
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मुनि श्री विद्यानन्द: भुजंगी विश्व के बीच बबन बिरछ
मानस को अपूर्व कर्मनिष्ठा से भर देगा, उसे साधना में जीवन बड़ी स्थूल यात्रा कर रहा होता है। किन्तु जब जगा देगा । और यह सर्वथा सत्य भी है कि उनकी वाणी परिभाषा माचरण में अनुगंजित होती है, तब यात्रा अपने मन को उमगाती है, तन को संयम मे जगाती है, और अत्यन्त सूक्ष्म और प्रभावी दौर मैं होती है। मुनिश्री धन को सच्ची राह पर मोड़ देती है। माया को चका- का सम्पूर्ण जीवन इसी तरह की मंगल यात्रा है। उनसे चौंध में, उसकी मृगतृष्णा में बंधे नामालूम कितने लोग प्राप पूछ ही क्यों, उन्हें गौर से देखें कि वे क्या कर रहे मुनिश्री के पास नित्य पहुँचते हैं; किन्तु सब एक अनन्त हैं ! इस देखने में ही आप जैनधर्म के मूल रूप को, तृप्ति और शीतलता लेकर लौटते है। वे हिमालय तक विश्व-धर्म की वर्णमाला को जान जाएंगे। बात यह है कि गये हो, या नहीं (गये हैं) किन्तु दर्शनार्थी उनके दर्शन के जो ऊलजलल सवालों में जीते हैं, उनके मन मैले होते हैं। साथ एक हिमालय अपने भीतर पिघलते देखता है. जो वे किसी बात को ताडने जाते हैं। उनकी नीयत मे खोट उपके जनम-जनम के सौ-सौ ग्रीष्म शान्त कर देता है। होती है। किन्तु जो गंगाजल पीने जाता है, वह अजलिया वन्दना से उसके मन मे कई पावन गगोत्रियां खुल जाती भर-भर उसे सम्पूर्ण निष्ठा और तृप्ति में पीता है, उसका है । इस तरह मुनिश्री के दर्शन जीवन के सर्वोच्च शिखर रसास्वाद लेता है; किन्तु जो पुण्यतोया गगा की जाच के दर्शन है, वे परमानन्द के द्वार पर चत्तारि मंगल की करने जाते हैं, उन्हें उसका कोई स्वाद नहीं मिलता; वक्त वंदनदार हैं।
जाता है, शक्ति डूबती है। मुनि श्री गंगा की पतितपावनी बहुधा लोग सोचते हैं मुनिश्री विद्यानन्द जो दिगम्बर
जलधार है, बिलकुल "गूंगे के गुड" अनुभूतिगम्य । जानना वेशधारी मुनि है, होंगे रूढ़िग्रस्त; शास्त्र जिस तरह
हो तो साधना करो, स्वच्छ बनो और जानो; नहीं जानना वेष्ठन मे बघा होता है, वैसे ही परम्परा के वेष्टन में हो तो गंगा की धार को प्रागे बढ़ने से भला कौन रोक लिपटे कोई व्यक्ति होंगे; किन्तु एक ही क्षण में उनकी सकता है! खों पर से यह धुंध हट जाती है और उन्हें नवनिधियों
मुनिश्री शास्त्र हैं। उन्होंने शास्त्र-सिन्धु का महाका अनन्त कोष मिल जाता है। उसके सम्मुख ज्ञान का,
मंथन किया है। उनके प्रवचन ममतकलश है उस महाशानन्द का एक प्रखूट खजाना खुल जाता है। उसे लगता
मत्थन के । बात-बात में खूब गहरे जाना उनका स्वभाव है जैसे वह किसी माध्यात्मिक कल्पवृक्ष की छाँव में खड़ा
है। मनोविनोद भी मोर जीवन की अतल गहराई भी, है, जहां उसकी हर अभिलाषा सुहागन है। मुनिश्री न
उनके बोलने मौर जीने में देखी जा सकती है । वे शिशु से रूढ़िवादी हैं, न परम्परा-भक्त; वे विशुद्ध सत्यार्थी हैं।
सरल, शिशु से प्रश्नवान, और शिशु से प्रतिपल उत्कण्ठित उनका विश्वास न प्राडम्बर है, न पाखण्ड में; उन्हें
रहते हैं। शैशव का अद्भुत सारस्य उनके व्यक्तित्व का केवलज्ञान, सम्यग्ज्ञान चाहिए। उनकी साधना अनुक्षण
अविभाजी अंग है। उन्हें वृद्धों में वह रस नहीं मिलता उसी पर केन्द्रित हैं; किन्तु उनके चिन्तन की उदारता
जो बच्चों में मिल जाता है। इसलिए वे बच्चों से बतरस व्यक्ति. समाज, मुल्क और सारे संसार को छू लेती है, करते हैं, उनकी सरल-निश्छल मुस्कराहट का स्वयं एक विश्वामिक स्वस्थ वातावरण में कस लेती है। पास्वाद करते हैं, और फिर उपस्थितों पर उस खजाने व्यक्तिधर्म से लेकर लोकधर्म की सारी परिभाषाएँ
को उलीच देते हैं। बच्चों से उन्हें ताजगी मिलती है। मुनिश्री के व्यक्तित्व में समायी हुई हैं। उनसे भेंट का लगता है वे अंग्रेजी की इस कहावत के मर्म को जानते मतलब ही विश्वधर्म से हुई परमपावनी मुलाकात से है। हैं-"चाइड इज द फादर प्राफ मैन"। शास्त्र की यदि आप जानना चाहते हों कि विश्वधर्म क्या है, तो शकता को शिशमलभ सौन्दर्य, सारख्य, निवर मोर मुनिश्री के विचारों का सम्पूर्ण एकाग्रता में प्राचमन नश्छल्य के रस में शराबोर करना मुनिश्री के व्यक्तित्व कीजिए और एक विलक्षण भात्मस्फति में विश्वधर्म की का बड़ा पाकर्षक भाग है। भनुभूति कर लीजिए। जब परिभाषाएँ की जाती हैं तब मुनिश्री एक राष्ट्रीय समन्वय-सेतु हैं। उनका जन्म
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१०, वर्ष २६, कि.१
अनेकान्त
कर्नाटक प्रदेश के वेलगांव जिले के शेडवाल ग्राम में २२ चाहता है। 'सरल रेखाएं-माज के जमाने में कौन अप्रैल, १६२५ को हुना। सुरेन्द्र कुमार से पार्श्वकीति मौर डालेगा भला, खैर लाइये, देखें क्या कुछ किया जा सकता पावकीति से मुनिश्री विद्यानन्द उनकी साधना के सोपान है।" उन्होंने एक कागज उठाया और लगे लिखने एक हैं। ब्रह्मचर्य, क्षुल्लक-जीवन और अब परम दिगम्बर त्व। चित्र । प्राहार-मुद्रा, पिच्छी, कमण्डलु । कम रेखाएँ, कन्नड, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी. मगठी, अग्रेजी अधिकाधिक भावाभिव्यंजन । मैं स्तब्ध रह गया। सोचने
और नाम लम कितनी भाषाम्रो के जानकार वे हैं। उस लगा-ये मुनि हैं, महामनि है। जीवन के चित्रकार है। दिन जब जापानी के कुछ पर्यटक उनसे मिलने आये तो मुक्ति के शिल्पी हैं; मानवता के चितेरे है, प्राखिर है वे जापान के बारे में जानने के लिए बालक से ललक क्या? मुनिश्री सब हैं, कुछ भी नहीं हैं। उनमें वस्तुतः उठे। जापान तो जापान, जापानी की सांस्कृतिक और शन्य की विराटता प्रकट हुई है। कुछ लोग प्राते है। उन्ह धार्मिक शब्दावली तक उन्होने जान ली इस बीच । वे जो अंक से पूर्व रख ले जाते हैं, कुछ उन्हें अंक के बाद रख भी भाषा जानते हैं या सीखते हैं, उनका उद्देश्य मात्र कर दस. सौ, हजार, लाख गुना होकर पाते हैं। मुनिश्रा ज्ञान होता है। वे भाषा द्रोह को मानवता का. राष्ट्रीय हैं. प्राप चाहे जो उनमें से हों। गंगा का तट है, जल का चिन्तन का बहुत उथला तल मानते हैं। माध्यम की स्वाद अलग-अलग अनुभूतियों में अलग-अलग हो सकता अपेक्षा लक्ष्य पर ही उनका ध्यान बना रहता है, किन्तु है। वैसे गंगा की धारा है, उसे पापकी वैयक्तिकता से साधन को भी प्रतिपल निर्मल देखना उनकी साधना का कोई सरोकार नही है। ऐसे है योगेश्वर मुनिश्री विद्यानन्द । उज्ज्वलतम पक्ष है। उनकी मूल्यवान कृति "पिच्छ- संयोगितागंज (इन्दौर) की बात है । तब वे वहाँ के कमण्डलु" इस दृष्टि से उनके विचारों का नवनीत है। मन्दिर में विराजमान थे। मूर्तियों का प्रसंग प्राया, तो वह एक संकलनीय कृति है। ज्ञान से परिपूर्ण, दिशा-दृष्टि वे खड़े हो गये; और मन्दिर की सारी मूर्तियों तक घुमा देने में समर्थ ।
लाये । इस बीच उन्होंने बताया कि मूर्ति कसी होनी मुनिश्री परमार्थ पुरुष हैं। उनमें दक्षिण और उत्तर, चाहिए ? दर्शक को नेत्र मुद्रा और मूर्ति की मुख-मुद्रा में व्यवहार और निश्चय, लोककल्याण और प्रात्मकल्याण, कसा साम्य होना चाहिए ? मूर्तियों की शिल्प-रचना व्यक्ति और विश्व, अनेकान्त और स्याद्वाद, यानी विश्ले- क्या है ? उनके कितने प्रकार है ? इत्पादि । सारी बाते षण और संश्लेषण एक साथ स्पन्दित हैं। इस दृष्टि से और इतने विस्तार से जानकर मै दंग रह गया और मनउनके प्रवचन ज्ञान के प्रतलांत समुद्र है; जहां विद्वान् ही मन कहने लगा "केसव कहि न जाइ का कहिये।" को अधिक विद्वता; और एक औसत प्रादमी को सही मुनि हो तो ऐसा, मन ने महसूस किया, जो भीतर जीवन-दिशा मिल जाती है। वह झूम उठता है मुनिश्री से परम साधक और बाहर से विशुद्ध तपस्वी; के जीवनदायी संकेतों पर । वे धार्मिक हैं, वैश्विक है, माठों याम तपस्वी ; पूर्ण स्व-अर्थो स्वार्थीरेशे भर राष्ट्रीय है; जुदा जुदा और युगपत । आँख चाहिए, वे भी नहीं; परमार्थ ऐसा कि जो हर बार मिल रहे उसके लिए परम दृष्टि हैं; पालोक के लिए प्रालोक, परम स्वाद को निरन्तर अकृपणभाव से बाट रहा है । उज्ज्वलता के लिए उज्ज्वलता, पावनता के लिए पाव- जो इस रहस्य को सतत जान रहा है कि ज्ञान जितना नता के अजस्र स्रोत है मुनिश्री विद्यानन्द ।
बॅटेगा, उतना बढ़ेगा, मंजेगा और निर्मल होगा। इस एक दिन मैं उनके मनोतट पर अपनी नौका लगा तरह मुनिश्री ज्ञान के प्रतल पाराबार है, ज्ञान सुमेरु हैं । बैठा । यही शाम के कोई पाँच बजे होगे । एकान्त था। उनका अध्ययन गहरा है। वे जिस सूत्र को पकड़ते एक बड़ो इमारत, पास-पास चहल पहल ; किन्तु भीतर हैं उसे मन्त तक खोजते है। राम को लें, राम कथा को से बिलकुल शान्त । मैने मुनिश्री से कहा- "तीर्थङ्कर" लें। इसे उन्होंने १८ भाषामों में से जाना है। इसीलिए मे कुछ कम और सीधी-सरल रेखामो बाले चित्र छापना सीता का, राम का जो चरित्र उनके मुह से सुनने को
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मनि श्री विद्यानन्द : भुजंगी विश्व के बीच चन्दन के बिरछ
मिलता है, अन्यत्र दुर्लभ है। चित्त करुणा में प्रवगाह बड़ी प्रात्मीयता से कहा-'नहीं हर व्यक्ति धर्म और उठता है । दक्षिण के राम, उतर के राम, पूरब के राम, अधर्म में फर्क करता है। तुम स्वय भी धर्म को अच्छा पश्चिम के राम; सव भोर की रामता-अभिरामता उनमे मानते हो अधर्म को बुरा।" छात्र ने प्रत्युत्तर मैं कहासमायी हई है। न उन्हें पूरब की बुराइयों का मोह है, "जब मैं वराबर यह कह रहा है कि मेरा धर्म में कोई न पश्चिम की अच्छाइयों से कोई द्रोह। मच्छाई को विश्वास नहीं है फिर आप यह कैसे कहते है ?" मुनिश्री वे जीवन की हर खिड़की से प्राने देना चाहते ने पूछा-“यदि कोई तुम्हारे सिर पर लाठी मारे तो हैं। जहां भी जीवन की रोशनी देनेवाला कोई तत्त्व तुम्हें कैसा लगेगा?" छात्र ने तुरन्त जवाब दियादिखायी देता है, वे उसकी अगवानी में पलक-पावड़े
"वहुन बुरा।" "और यदि फिर कोई तुम्हारी मरहमबिछा देते है, उनके अभिनन्दन मे समाज को प्रेरित करते पट्टी के लिए अस्पताल ले जाए तो?" छात्र ने सहज ही हैं। उनका कर्तृत्व महान है, उनका जीवन समर्पित है
उत्तर दिया-"वह तो अच्छा लगेगा ही।" मुनिश्री ने, प्रात्मा की अनन्त यात्रा मे, और इमी बीच उनकी प्याऊ
सूत्र पकड़कर स्पष्ट किया कि "पहला कृत्य अधर्म है मे जो भी पिपासु पहुँच जाता है, उसे अनन्त तृप्ति का
दूसरा धर्म।" जापानी छात्र-दल धर्म की इस स्वाभावरदान अनायास ही मिल जाता है; जो भी व्यथित
विक परिभाषा को पाथेय के रूप में लेकर लौट गया। तृषित वहा उन तक पहुँचता है, उसके मन के सारे घाव
इस तरह मुनिश्री का एक रूप जीवन के सदों और भर जाते हैं उनकी चन्दन-चर्चा से ।
मूल्यों को नयी व्याख्या देने का भी है। वे वर्तमान के इस लेख का अन्त हम तरुण पत्रकार श्री गजानद प्रति सतर्क भविष्य के प्रति प्राशावान और अतीत के प्रति डेरोलिया के इस ले खांश से करना चाहेगे : "दिल्ली में आस्थावान है। एक बार मुनिश्री के दर्शनों के लिए जापान के छात्रों का इसलिए उनके इस जन्म दिन पर उन जैसे परम एक दल पाया। छात्रो में से एक ने कहा-"हमारे यहाँ योगश्वर को. जो युद्ध-संतप्त विश्व की प्रांखों में अनेकान्त तो धर्म-अधर्म का कोई भेद ही नही है ।" मुनिश्री ने का प्रजन प्रांज रहा है, मेरे कोटि-कोटि प्रणाम !!
चारित्र-चक्रवती प्राचार्य श्री शान्तिसागर महाराज का सीवां जन्म दिन
समारोहपूर्वक मनाइये
भगवान महावीर के २५००वं निर्वाणोत्सब के बनी हुई है। ऐसे नित्य प्रणग्य प्राचार्य श्रेष्ठको जन्म मंगलाचरण की इस पण्य वेला में चारित्र चक्रवर्ती महा- शताब्दी प्राषाढ़ कृष्णा ६ वी०नि०सं०२४६पासात मनि प्राचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की जन्म शताब्दी कृष्णा ५ वी. नि. स. २५०० के मध्य सम्पन्न होगी। का उपस्थित होना एक भाग्यशाली संयोग है। सर्वे इसे पूरे पुरुषार्थ मोर प्रभाव के साथ मनाने की प्रावश्यविदित कि प्राचार्य श्री दिगम्बर श्रमण-परम्परा के कता है ताकि वर्तमान पीढ़ी में मुनि-परम्परा के प्रति एक विशाल कल्पतरु थे. जिन्होंने माधुनिक जीवन की विष- नयी प्रास्था प्रवर्तित हो और जैन समाज को संस्कार की मतानों. प्रसंगतियों और अन्तविरोधों से दिगम्बर जैन एक नयी दिशा मिल सके। प्राचार्य परम्परा का अभिरक्षण किया या मोर युगानुरूप-...- प्राचार्य श्री न केवल एक साधनावान महामुनि थे शिष्य-परम्परा का प्रवर्तन किया था। यही कारण है कि वरन् जैन तस्व-संस्था थे। उन्होंने सम्पूर्ण देश की मंगल. उनकी तेजस्विनी शिष्य-परम्परा माज जैनधर्म की सूत्रधार यात्रा की थी। हम भाग्यशाली है कि प्राचार्य श्री द्वारा
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१२, वर्ष २६, कि..
प्रशाम्त प्रवर्तित शिष्य-परम्परा कई उपसगों मोर विपदामों के प्राचार्य श्री से सम्बन्धित सामग्री भेजना चाहें, मध्य भी साधु-परम्परा को प्रवाघ-मक्षुण्ण बनाये हुए है। मवश्य किन्तु अविलम्ब भेजें)।
प्रतः इस महान् परमपूज्य व्यक्तित्व को श्रद्धांजलि २. प्राचार्य श्री के जीवन-प्रसगों तथा चित्रों पर प्राधाअपित करने के निमित्त निम्नांकित कार्यक्रम मनाने का रित एक विशाल प्रदर्शनी का प्रायोजन होगा। निवेदन है :
प्रदर्शनी के तीन अनुभाव होंगे :१. जहाँ-जहां प्राचार्य श्री ने मंगल विहार किया है, (क) भाचार्य शान्तिसागर जी के चित्र (विविध
या वर्षावास सम्पन्न किया है, वहाँ उनकी पावन. स्थानो से, विविध मुद्रामों में)। पुनीत स्मृति में 'शान्ति-स्तम्भ' निमित किये जाएं।
(जो भी संस्थाए, व्यक्ति, पत्र-पत्रिकाएं प्राचार्य स्तम्भ की शिल्पाकृति (ब्ल्यू प्रिंट) भगले पखवाड़े
श्री के चित्र, उनकी कृतियां, विशेषांक समिति मलग से भेजी जाएगी।
को प्रेषित करेंगी-समिति उनका प्राभार २. भाषाढ़ कृष्ण ६, २२ जून, १९७३, गुरुवार प्राचार्य मानेगी और उन्हें प्रावश्यक डाक व्यय देगी)।
श्री का १००वां जन्म दिन होने के साथ ही तीर्थ- (ख) वर्तमान में जो मुनिगण है उनके चित्रों की ङ्कर वासुपूज्य को गर्भकल्याणक तपा तीर्थङ्कर
प्रदर्शनी (कृपया चित्रों के साथ मुनियों को बिमलनाथ की मोक्ष तिथि भी है अतः इस दिन एक
जन्म तिथि, दीक्षा तिथि तथा जन्म-स्थान विशाल प्रभातफेरी निकाली जाए, जो एक प्रार्थना
अवश्य भेजें )। सभा का रूप ग्रहण कर 'शान्ति-स्तम्म' स्थल पर
(ग) प्राचार्य श्री की कृतियों तथा हस्तलेखों की विसजित हो।
फोटोस्टेट प्रतियों का प्रदर्शन । ३. इस दिन सायंकाल 'शान्ति-सभाएं' की जाएं जिनमें प्राचार्य श्री के व्यक्तित्व और कृतित्व के विषय में
उक्त सदर्भ में समस्त महानुभावों से विनम्र निवेदन
है कि वे हमारे इस वृहत् प्रायोजन मे हमारी सहायता मधिकारी विद्वानों के व्याख्यान रखे जाएं।
करे और प्राचार्य श्री से सम्बन्धित सामग्री, बाबूलाल इन कार्यक्रमों को सारे देश में व्यापक रूप में उत्साह
पाटोदी, मन्त्री, श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, पूर्वक सम्पन्न किया जाए और तत्सम्बन्धी समाचारों को
४८, सीतलामाता बाजार, इन्दौर ४५२ ००२ के पते पर देश के सभी पत्रों में प्रचारित किया जाए। अपने-अपने
२० मई, १६७३ तक प्रवश्य भेजने की कृपा करें। प्रद. क्षेत्रों के प्राकाशवाणी केन्द्रों को भी सपारोह सम्पन्न
शंनीय सामग्री के साथ संकलनकर्ता, फोटोग्राफर तथा होने के सक्षिप्त सवाद भेजे जाएं।
प्रेषक के स्पष्ट नाममते दिये जाएं ताकि उसका यथोऊपरसुझाये गए कार्यक्रमों के अतिरिक्त श्री वीर चित अंकन प्रदर्शन किया जा सके। सामग्री सुरक्षित निर्वाण प्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर के तत्वावधान में लौटायी जा सकेगी। निम्नांकित विशेष प्रायोजन रखे गए हैं :
हमें विश्वास है, उपयुक्त प्रायोजन को सफल बनाने १. श्री वीर निर्वाण विचार सेवा, वर्ष २, अंक ३ के में हमें ससाज के लेखकों, पत्रकारों तथा प्रायोजकों का
मन्तर्गत पाचार्य श्री के व्यक्तित्व, योग और प्राचा. व्यापक हार्दिक सहयोग प्राप्त होगा, तथा सम्पूर्ण राष्ट्र यंव पर लेख वितरित किये जाएंगे, जिन्हें देश की में प्राचार्य श्री की जन्म शताब्दी अभिनव उमग, उल्लास पत्रपत्रिकाएं प्रकाशित करेंगी। (जो भी व्यक्ति मौर उत्साह के साथ मनायी जायेगी।
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चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट
पं० फूलचन्द शास्त्री, वाराणसी
मूलसंघ नन्दि प्राम्नाय की परम्परा में भट्टारक पद्म- यह माना जा सकता है कि इस समय तक ये पट्टधर नहीं नन्दी का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, उनके पट्टधर भट्टा- हुए होंगे। किन्तु मुनि भी भट्टारको के शिष्य होते रहे रक देवेन्द्रकीति का उससे कम महत्त्वपूर्ण स्थान रही है। हैं। इतना ही नहीं, मुनि दीक्षा भी इन्ही के तत्त्वावधान इनका अधिकतर समय गुजरात की अपेक्षा बुन्देलखंड में में दी जाने की प्रथा चल पड़ी थी। मेरा ख्याल है कि और उससे लगे हुए मध्य प्रदेश मे व्यतीत हुप्रा है। वर्तमान में जिस विधि से मुनि दीक्षा देने की परिपाटी चन्देरी पट्ट की स्थापना का क्षेत्र इन्हीं को प्राप्त है। प्रचलित है वह भट्टारक बनने के पूर्व भी मुनि दीक्षा का श्री मूलचन्द किशनदास जी कापड़िया द्वारा प्रकाशित हो रूपान्तर है। इसी से उसमे विशेष रूप से सामाजि. 'सूरत और सूरत जिला दि० जैन मन्दिर लेख संग्रह' कता का समावेश दृष्टिगोचर होता है। सक्षिप्त नाम 'मूति लेख संग्रह' के पृष्ठ ३५ के एक जो कुछ भी हो, उक्त प्रशस्ति से इतना निष्कर्ष तो उल्लेख मे कहा गया है कि 'गंधार की गद्दी टूट जाने से निकाला ही जा सकता है कि सम्भवतः उस समय तक स० १४६१ में भट्टारक देवेन्द्रकीति ने इस गद्दी को रोदेर इन्होंने किसी भट्टारक गद्दी को नहीं सम्हाला होगा। मे स्थापित किया। जिसे स० १५१८ में भट्टारक विद्या. किन्तु 'भट्टारक सम्प्रदाय पृ० १६६ के देवगढ़ (ललितपुर) नदी जी ने सरत मे स्थापित किया।' किन्तु अभी तक से प्राप्त एक प्रतिमा लेख से इतना अवश्य ज्ञात होता है जितने मूर्ति लेख उपलब्ध हुए है उनसे इस तथ्य को पुष्टि कि वे वि० सं० १४९३ के पूर्व भट्टारक पद को प्रल कृत नहीं होती कि श्री देवेन्द्रकीति १४६१ में या इसके पूर्व भट्टारक बन चुके थे। साथ ही उक्त पुस्तक में जितने भी
देवगढ़ बुन्देलखंड में है और चन्देरी के सन्निकट है। मूति लेख प्रकाशित हुए है उनमे केवल इनसे सम्बन्ध साथ ही इनके प्रमुख शिष्य विद्यानन्दी परवार थे। इससे रखने वाला कोई स्वतन्त्र मूर्ति लेख भी उपलब्ध नही ऐसा लगता है कि वि.सं. १४.
ऐसा लगता है कि वि० सं० १४६३ के पूर्व ही धन्वेरीपट्ट
f होता। इसके विपरीत उत्तर भारत मे ऐसे लेख अवश्य स्थापित किया जा चका होगा। फिर भी उनकी । पाये जाते है जिनसे यह ज्ञात होता है कि इनका लगभग में भी पूरी प्रतिष्ठा बनी हई थी भोर जनका गुजरात से पूरा समय उत्तर भारत मे ही व्यतीत हुआ था। यहाँ
सम्बन्ध विच्छिन्न नहीं हुमा था, सूरत पट्ट का प्रारम्भ हम ऐसी एक प्रशस्ति प्रागरा के एक जन मन्दिर में स्थित होना और उस पर उनके शिष्य विद्यानन्दी का अघि. पण्यानब (संस्कृत) हस्त लिखित प्रन्थ से उद्धृत ष्ठित होना तभी सम्भव हो सका होगा। कर रहे हैं। इसमें इन्हें भ० पप्रनन्दि का शिष्य स्वीकार
भट्टारक सम्प्रदाय पुस्तक में चन्दरी पट्ट को जेरहट किया गया है । प्रशस्ति इस प्रकार है
पट्ट कहा गया है। वह ठीक नही है। हो सकता है कि सं० १४७३ वर्षे कातिक सुदी ५ गुरदिने श्री मूल• वह भट्टारकों के ठहरने का मुख्य नगर रहा हो। पर संघे सरस्वतीगच्छे नन्दिसघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक वह कभी भट्टारक गद्दी स्थापित नहीं हुई इतना सनिश्री पप्रनन्दी देवास्तच्छिष्य मुनिश्री देवेन्द्रकीतिदेवाः। श्चित प्रतीत नहीं होता। तेन निजज्ञानावर्णीकर्मक्षया लिषापितं शुभं ।
विद्यानन्दी कब सूरत पट्ट पर अधिष्ठित हुए इसका इस लेख में इन्हें मुनि कहा गया है। इसके अनुसार कोई स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं हमा। 'भट्टारक
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१४, वर्ष २६, कि०१
भनेकान्त
सम्प्रदाय' पुस्तक में वि० सं० १४६६ से लेकर अधिकतर षिक्त हो गये थे। साथ ही यहां जितन, लेखों में से किसी मे इनको देवेन्द्रकीति का शिष्य, किसी सिंहकीति की भी माम्नाय चाल थी यह भी : में दीक्षिताचार्य, किसी में प्राचार्य तथा किसी में गुरु लगता है। पूरा लेख इस प्रकार हैकहा गया है। परन्तु भावनगर के समीप स्थित घोघा संवत् १५२५ वर्ष माघ सूदि १० सोमदिने श्री मलनगर के सं०१५११के एक प्रतिमा लेख में इन्हे भट्टा- संघ भट्टारक श्री जिनचन्द्रदेवस्तत्पद्र भट्रारक श्री सिंहरक अवश्य कहा गया हैं। यह प्रथम लेख है जिसमे सर्व कातिदेव मडलाचार्य त्रिभुवनकीतिदेवा गोलापर्वाम्बये सा० प्रथम ये भटटारक कहे गये है। इससे ऐसा लगता है कि श्री तम तस्य भार्या सघ इति । पटट की स्थापना इसके पूर्व हो गई होगी।
इसके पूर्व बड़ा मन्दिर चदेरी मे भ० त्रिभवनकीति टि हमारा यह अनुमान सही हो तो ऐसा स्वीकार द्वाराप्रतिष्ठित वि० सं० १५२२ की एक चौवीसी पट करने में कोई आपत्ति नहीं कि चन्वेरी पट्ट की स्थापना मोर है। इससे पूर्व के किसी प्रतिमालेख में इनके नाम के बाद ही सरत पट्ट की स्थापना हुई होगी। ऐसा होते का उल्लेख नहीं हुआ है। इससे मालम पERT कि
है बन्देलखड और उसके पास-पास का बह भाग स० १५२२ के आस-पास के काल में ये पदासीन हए सी मंडल कहा जाता था यह उल्लेख वि० सं० १५३२ होगे। यतः भ. देवेन्द्रकीति भी चंदेरीमंडल मंडला.
के किसी प्रतिमा लेख मे दृष्टिगोचर नहीं हुमा। चायं रहे है, प्रतः सर्वप्रथम वे ही चंदेरी पट्र पर पासीन * री मंडलाचार्य देवेन्द्रकीर्ति को स्वीकार किया हुए होगे यह स्पष्ट हो जाता है। वि.स. १५२२ का गया है। यह प्रतिमा लेख हमें विदिशा के बड़े मन्दिर से उक्त प्रतिमा लेख इस प्रकार हैउपलब्ध हुमा है । पूरा लेख इस प्रकार है
स० १५२२ वर्षे फाल्गुन सुदि ७ श्री मूलसघे बलासवत् १५३२ वर्षे वैशाख सुदि १४ गुरौ श्री मूल- कारगणे सरस्वतीगच्छे कंदकंदाचार संघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंदिसंघे कुंदकुदाचार्या- देवेन्द्रकीति त्रिभुवण · ति............ स्वये भ० श्री प्रभाचन्द्रदेव त० श्री पद्मनन्दिदेव त० शुभ- भानुपुरा के बड़े मन्दिर के शास्त्र भंडार में शान्ति.
श्री जिनचन्द्रदेव भ. श्री सिंहकीर्तिदेव चंदेरी नाथ पुराण की एक हस्तलिखित प्रति पाई जाती है। मडलाचार्य श्री देव्य द्रकीतिदेव त० श्री त्रिभुवनकीतिदेव उसके अन्त में जो प्रशस्ति अंकित है उसमें पौरपट्टान्वे अष्टन्वये सारवन पु० समवेतस्य पुत्र रउत पाये
आदि की भट्टारक परम्परा को मालवाधीश कहा गया है। त० पुत्र सा० अर्जुन त० पुत्र सा० नेता पुत्र सा० धीरजु यह भी एक ऐमा प्रमाण है जिससे स्पष्टतः इस त भा. विरजा पु० सघे सघ तु भा.....""संघे......संगे। का समर्थन होता है कि चंदेरी पट के ठीक इसी प्रकार का एक लेख कारंजा के एक
देवेन्द्रकीति ही रहे होगे। इससे मालूम पड़ता है कि मन्दिर में भी उपलब्ध हुआ है। इसके पूर्व जिनमें चदेरी
चंदेरी पट्ट को मालवा पट्ट भी कहा जाता था। उक्त मंडल का उल्लेख है ऐसे दो लेख वि० स० १५३१ के गंज
प्रशस्ति इस प्रकार हैवासौदा मोर गूना मन्दिरों के तथा दो लेख वि० सं० प्रय सवत्सरे ऽस्मिन् नपतिविक्रमादित्य राज्ये पवन १५४२ के भी उपलब्ध हुए हैं। किन्तु froसं० १५३१ माने सं० १६६३ वर्षे चैत्र द्वितीय पक्षे शक्ले पक्षे निती को चंदेरी मंडल की स्थापना की पूर्वावधि नहीं समझनी दिने रविवासरे.............सिरोंजनगरे चन्द्रप्रसार चाहिए। कारण कि ललितपुर के बड़े मन्दिर से प्राप्त श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कंददा. वि. सं. १५२५ के एक प्रतिमा लेख मे त्रिभुवन कीति को चार्यान्वये तत्परंपरायेन मालवादेशाधीश भटटारक श्री श्री मंडलाचार्य कहा गया है। इसमें भ० देवेन्द्र कीर्ति का श्री देवेन्द्रकीतिदेवाः तस्पट्टे भट्टारक श्री त्रिभवनकीतिनामोल्लेख नहीं है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वि० देवाः तत्प? भ० श्री सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पर भ. श्री स. १५२५ के पूर्व ही त्रिभुवनकोति चंदेरी पट्ट पर मभि- पपनन्दिदेवा तस्पट्टे भ. श्री जसकीति नामधेया तापट
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चंदेरी-सिरोंज (परवार) पट्ट
भ. श्री श्री ललितकीतिदेवा: तशिष्य ब्रह्म बालचन्द्रमिदं जो दो लेख संगृहीत किये गये है वे दूसरे सकल कीर्ति ग्रन्थ लिष्यत स्वपठनाथ ।
होने चाहिए। मैने च देरी और सिरोज दोनो नगरो के सिरोंज के टोगका टि. जैन मन्दिर में वि० स० भी दि० जिनमन्दिरों के प्रतिमालेखो का अवलोकन किया १६८८ का एक प्रतिमा लेख है। उसमें चंदेरी पट्ट के है। पर भ. सुरेन्द्र कीर्ति द्वारा प्रतिष्ठापित कोई मूर्ति या सहस्रकीति के स्थान में रलकीति और पद्मनन्दी के स्थान यंत्र मेरे देखने में ही नहीं पाया। हो सकता है इनके में पद्मकीनि यह नाम उपलब्ध होता है । भ० ललितकीति काल में कोई पंचकल्याणक प्रतिष्ठा न हुई हो। के शिष्य भ० रत्तकीति ने प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी।
दोनों नगरों के निगों के लोन से उक्त प्रतिमालेख इस प्रकार है
प्रतीत होता है कि भ० धर्मकीर्ति के दूसरे शिष्य भ. सं० १६८८ वर्षे 'फाल्गुन मुदि ५ बुधे श्री मुलसघे जगत्कीर्ति थे। सम्भवतः सिरोंज पट्ट की स्थापना इन्ही बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुदकंदाचार्यान्वये भ० श्री
के निमित्त हुई होगी। इनका दूसरा नाम यशकीर्ति भी देवेन्द्र कीर्तिदेवास्नत्प? भ. श्री त्रिभुवनकी तिदेवा तत्पट्टे
जान पडता है। इनके पट्टधर त्रिभुवनकीर्ति और उनके श्री रत्न कीति तत्प? भ. श्री पद्मकीर्ति देवा तत्प?
शिष्य भ० नरेन्द्रकीर्ति थे । नरेन्द्रकोति के पट्टाभिषेक का भ० यशकीनिदेवा तत्पटें भ० श्री ललितकीर्ति रत्नकीर्ति- विबरण सिरोंज के एक गुटिका में पाया जाता है। उसका देवा तस्यो......."मालवादेशे सरोजनगरे । गोलाराड- कछ ग्रंश इस प्रकार हैचैत्यालये गोलापून्विये .....तस्यप्रतिष्ठाया प्रतिष्टितं ।।
त । मुनिराज की दिक्ष्याको परभाव । श्रावक सब मिलि यहाँ के दो प्रतिमालेखों में भ० रत्नकोति को मंड.
मानिके जैसो कियो चाउ ॥६॥ धनि नरेन्द्र कीर्ति मुनिलेश्वर और मंडलाचार्य भी कहा गया है। लेख इस ।
राई। भई जग में बहुत बढ़ाई ।। जहाँ पौरपट्ट सुखदाई। प्रकार है--
परबार वंस सोई प्राई । बहुरिया मूर तहाँ साई। स० १६७२ फाल्गुन सु. ३ मूलसघे भ० श्री ललित
धनि मथुरामल्ल पिलाई ॥ माता नाम रजोती कहाई । कीर्ति तत्प? मडलाचार्य श्री रत्न कीयुपदेशात् गोलापूर्वा
जाके है घनश्याम से भाई ॥ तप तेज महामुनि राई : न्वये स० सनेजा..........."
ये कहाँ के महलाचार्य थे यह नहीं ज्ञात होता है। कार्प महिमा वरनी जाई ।। ........................। ये भी भ. ललितकीर्ति के पटधर थे यह 'भट्टारक सम्प्रदाय'
कहा कहों मुनिराज के गुण गण सकल समाज । जो महिमा
१. पुस्तक से भी ज्ञात होता है। इनके पट्टयर चन्द्रकीर्ति
भविजन करै भट्टारक पदराज ॥ भट्टारक पदराज की थे इसके सूचक दो प्रतिमालेख यहाँ भी पाये जाते हैं।
कीरति सकल भाव आई। अलप बुद्धि कवि कहा कहै चंदेरी पट के भटारको की सूची इस प्रकार है- बुधिजन थकित रहाई ॥ विधि अनेक सो सहर सिरोंज में १. देवेन्द्रकीर्ति, २. त्रिभवनकीति, ३. सहस्रकीर्ति, ४. पन- भया पट्ट अपना चारु । सिंघई माधवदास भव नन्दी, ५. यश:कीर्ति, ६. ललितकीर्ति, ७. धर्मकीर्ति, निकसे महा महोच्छव सारु ।। ८. पद्मकीर्ति, ६ सकल कीर्ति और सुरेन्द्र कीर्ति । जान यहाँ से वस्त्राभूषण से सुसज्जित कर चौदा सिंघई के पडता है कि सरेन्टकीर्ति चदेरी पटट के अन्तिम भ०थे। देवालय में ले गयं । वहाँ सब वस्त्राभषण उतारकरा इसके बाद यह पट्ट समाप्त हो गया।
लोंच कर मुनिदीक्षा ली। उस समय १०८ कलश से भट्रारक पप्रकीति का स्वर्गवास वि. स. १७१७ अभिषेक किया। सर्वप्रथम भेलसा के पूरनमल्ल बड़कूर मार्गशीर्ष सुदि १४ बुधवार को हुअा था ऐसा चंदेरी प्रादि ने किया ।.......... खंदार मे स्थित उनके स्मारक से ज्ञात होता है । सम्भवतः जगत्कोति पद उघरन त्रिभुवनकीर्ति मुनिराई। इसके बाद ही इनके पट्ट पर भ. सकल कीर्ति प्रासीन हुए नरेन्द्रकीति तिस पट्ट भये गुलाल ब्रह्म गुन गाई ॥ होंगे। 'भट्टारक सम्प्रदाय' पु. पृ० २०५ मे वि० स० शुभकीर्ति, जयकीर्ति, मुनि । उदयसागर, ब्र० परस १७१२ और बि० सं० १७१३ के लेखों में इनके नाम के राम, भयासागर, रूपसागर, राम श्री प्रायिका, र
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१६, वर्ष २६, कि.१
अनेकान्त
विमोनी, चन्द्रामती, पं० रामदास, पं० जगमनि, पं० धन- मालूम पड़ता है कि चदेरी और सिरोंज भट्टारकश्याम, पं. बिरधी, पं० मानसिंह, पं. जयराम-परगसेनि पट्टों की स्थापना परवार समाज के द्वारा ही की जाती भाई दोनों, १० मकरंद, पं० कपुरे, पं० कल्याणमणि। थी, इस लिए इन पट्टों को परवार पट्ट कहा गया है।
संवत सत्रह से चालिस प्रन इक तह भयो। इस नामकरण से ऐसा भी मालूम पडता है कि इन दोनों उज्वल फागुन मास दसमि सो मह गयो । पट्टों पर परवार समाज के व्यक्ति को ही मट्टारक बना पुनरवसू नक्षत्र सुद्ध दिन सोदयो।
कर मधिष्ठित किया जाता था। सिरोंज के जिस पट्टापुनि नरेन्द्र कीरति मुनिराई सुभग संजम लहो। भिषेक का विवरण हमने प्रस्तुत किया है उससे भी इसी
वि० सं० १७४६ माष सुदि ६ सोमवार को चांद- लक्ष्य की पुष्टि होती है। विदिशा मे कोई स्वतन्त्र भट्टाखेड़ी में हाड़ा माधोसिंह के अमात्य श्री कृष्णदास बघेर. रकगद्दी नही थी। किन्तु वहाँ जाकर भट्टारक महीनों बाल ने पामेर के भट्टारक श्री जगत्कीति के तत्त्वावधान निवास करते थे और वह मुख्यरूप से परवार समाज का में बृहतंच कल्याणक प्रतिष्ठा कराई थी। उसमें चंदेरी ही निवास स्थान रहा चला पा रहा है, इसलिए उक्त पट्ट के भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीति भी सम्मिलित हुए थे। प्रशस्ति में महलपुर (विदिशा) का भी समाबेश किया इस सम्बन्ध की प्रशस्ति चांदखेडी के श्री जिनालय में गया है। प्रदेश द्वार के बाहर वरामदे के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण चंदेरी पट्ट की अपेक्षा उत्तर काल में सिरोंज पट्ट है। उसमे चंदेरी, सिरोंज और विदिशा (भेलसा) पटट को काफी दिनों तक चलता रहा। इसकी पुष्टि त्रिगुना के परवारपट्ट कहा गया है । उसका मुख्य अंश इस प्रकार है- दि० जैन मन्दिर से प्राप्त इस यंत्र लेख से भी होती है।
॥१॥ संवत् १७४६ वर्षे माह सुदि६ षष्ठयां चन्द. यंत्र लेख इस प्रकार हैवासरान्वितायां श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे सं० १८७१ मासोत्तममासे माघमासे शुक्लपक्षे तिथी कुंदकुंदाचार्यान्वये सकलभूमंडलबलयकभूषण सरोजपुरे तथा ११ चन्द्रवासरे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे चेदिपुर भद्दिलपुर...."वतंस परिवारपट्टान्वये भटटारक कंदकंदाचार्यान्वये सिरोंजपट्ट भट्टाकं श्री राजकीर्ति श्री धर्मकीर्तिस्तत्पट्टे भ० श्री पनकीर्तिस्तत्पटटे भ. प्राचार्य देवेन्द्रकीर्ति उपदेशात् ग्याति परिवारि राउल श्री सकलकीर्तिस्तस्पट्टे ततो भट्टारक श्री सुरेन्द्रकीर्ति ईडरीमूरी चौधरी घासीरामेन इद यंत्र करापितं । तदुपदेशात् ..................."
सिरोंजपदु के ये अन्तिम भट्टारक जान पड़ते है। *
श्रीमती शान्ता मानावत को पी. एच. डी. की उपाधि
राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर ने श्रीमती शान्ता भानावत को उनके शोध प्रबन्ध 'ढोला-मारू रा दुहा का अर्थ वैज्ञानिक अध्ययन' पर इस वर्ष पी-एच. डी. की उपाधि प्रदान को है। 'ढोला-मारू रा दूहा' राजस्थान के मध्य युगीन लोक जीवन का प्रतिनिधि काव्य है। इसे जैन कवि कुशललाभ ने चौपाई बद्ध भी किया। श्रीमती भानावत ने अपने शोध प्रबन्ध में 'ढोला मारू रा दूहा' में प्रयुक्त शब्दों के अथं परिवर्तन के कारणों और अर्थ परिवर्तन की दिशामों का ऐतिहासिक, भौगोलिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, सांस्कृतिक और भाषावैज्ञानिक परिपाश्व में विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस ग्रंथ से राजस्थानी के कई विशिष्ठ शब्दों की विकास यात्रा का अच्छा परिचय मिलता है। श्रीमती भानावत राजस्थान विश्वविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक एवं जैन संस्कृति को प्रतिनिधि मासिक पत्रिका 'जिनवाणी' के सम्पादक डा. नरेन्द्र भानावत की धर्मपत्नी हैं। भवदीय :
संजीव भानावत सी-२३५ ए, तिलकनगर, जयपुर-४
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भगवान महावीर का समाज-दर्शन
डा० कुलभूषरग लोख दे
प्राज लोग सत्य चाहते हैं, सत्य की उपासना करते है, सत्य को ये धरते हैं, किन्तु क्या इस कर्म शून्य प्राच रण से वह उपलब्ध हो सकेगा।
भगवान महावीर के धर्म का उद्देश्य दो प्रकार दिखायी देता है : ( १ ) व्यक्ति और समाज की निर्दोष प्रस्थापना (२) मनुष्य की माध्यात्मिक उन्नति का प्रधिष्ठान | इसका अर्थ यह हुआ कि व्यक्ति और समाज का गठन करते हुए उन्होंने व्यवहार-दृष्टि के साथसाथ निश्चय दृष्टि की स्थापना भी की। सारे जैनाचार का प्रयं ही जीवन को स्वच्छ और सबल बनाना है । जब हम समाज के संबंध में सोचते हैं, तब हमें लगता है कि व्यक्ति की प्रवृत्ति सदाचार और नीतिपूर्ण हो भगवान् महावीर ने अपने काल मे व्यक्ति और समाज के धर्म की ऐमी संहिता बनायो कि जिससे मनुष्य उत्तरोत्तर अधिक ईमानदार, सहिष्णु र कर्तव्यनिष्ठ जीवन व्यतीत कर सके इसलिए उन्होंने ऐसी विचारधारा प्रसूत की जिससे प्रत्येक व्यक्ति भोग और स्वार्थ के दृष्टिकोण से कार उठे, फिर वह चाहे व्यापारिक, राजनैतिक, समाज का कोई प्रबुद्ध विद्वान ही क्यों न हो? इस तरह उन्होंने प्रवर्तित किया कि धर्म के शुद्धाचरण के बिना किसी तरह को उन्नति सम्भव नहीं है।
भगवान् महावीर का युग कर्मकांड, मिथ्या भाडम्बर तथा पापाचार से भरपूर था । तब समाज का दृष्टिकोण सही नहीं था। कहा जाता है शास्त्रों का ज्ञाता यदि विवेकहीन हो, धौर व्यक्ति का प्राचरण यदि विषय परायण हो तो समाज को कालिख लगती है । समृद्ध समाज को कालिख लगती है । समृद्ध समाज नीति परायण होता है, इसलिए भगवान् महावीर ने समाज के उत्थान के लिए व्रत की संहिता प्रस्थापित की जिसमे क्षमा, सत्य, शौच, करुणा, मैत्री इत्यादि गुणों के विकास से
व्यक्ति और समाज की उन्नति सम्भव हो ।
भगवान महावीर के सामाजिक सिद्धान्तों के प्रालोडन से यह ज्ञात होगा कि मानव को अहिंसा, सत्य, प्रचयं ब्रह्मवयं और परि की आवश्यकता है। जिस समाज में क्षमा, मार्दवादि दस धर्मों का पालन किया जाता है, उसमें सुदृढता भाती है। व्यक्ति और समाज में सामंजस्य रहे इसलिए भगवान् महावीर ने कहा कि क्रोध को क्षमा से, मान को मार्दव से, माया को भार्जव से, और लोभ को शुचिता से जीतो भगवान् महावीर के समाज मे जाति, भाषा मोर वर्गादि भेद नही थे । वह समाज संप्रदाय की संकीर्णता से मुक्त था । भगवान् महावीर के समाज दर्शन के मूल आधार इस प्रकार हैं
हिसा
जहाँ क्रोध है वहाँ हिंसा है, और हिंसा है सबसे बड़ा पाप । इसलिए सर्वप्राणिमात्र संबंधि दया और समताभाव को अहिंसा कहा गया है। संसार में धर्म एक होता है, दो नहीं । महिसा सत्य का सबसे बड़ा प्राविष्कार है । सत्य एक होता है; उसमें भेद नहीं होते। हिंसा में भेद हैं, अहिंसा में नहीं। ऐसा कौन-सा सत्य है, जो हिंसा से संबंधित है ? वह है प्रेम जहाँ प्रेम है, वहाँ दया है जहाँ द्वेष है, वहाँ क्रूरता है। इसलिए महिला ने मनुष्य में जीने के विश्वास को जन्म दिया। कोई सम्प्रदाय यह नहीं मानता कि हिंसा से शांति प्राप्त होती है । प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते है, "हिसा राग द्वेष है. जहाँ राग-द्वेष है वहाँ समता नही, स्थिरता नहीं"। जीवन को समर्थ बनाने की क्षमता समता में है, क्षमा में है, दया मे है और परोपकार में है ।
प्राज समाज और राष्ट्र का जीवन सर्वत्र प्रशांत एवं विश्वस्त है। अनावश्यक संघर्ष में मृत्यु है, समन्वय मे
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१५,
२६, कि.१
अनेकान्त
जीवन । हिंसाचार मृत्यु का कारण है, अहिंसाचार जीवन
सत्य का। मानव-समाज प्राज युद्धोन्मुख है। यह प्रात्म-प्रवंचना
सत्य जीवन का मूलभूत तत्त्व है। भगवान् महावीर की स्थिति है। प्रात्मा की अटूट शक्ति समत्व है, मोर ने सत्य को केवल भाषण का ही विषय नही बताया,
म विश्वास नहा ह, इसालए बह उन्होंने कहा-'जहाँ विषमता है वहाँ सत्य नही पलता । दुःखी है। भगवान महावीर को 'जिन' कहते है। क्योंकि जहाँ दारिद्रय है वह सत्य नही टिकता। सत्य जीवन है, उन्होंने अहिंसा के शत्रु गग और द्वेष, लोभ प्रौर प्रसयम और जीवन सत्य है। जिस में सत्य नहीं फिर वह चाहे को जीता है। हिंसा एक ऐमी शक्ति हैं जो मानव का व्यक्ति हो या समाज, व्यर्थ है। जहाँ सत्य को मृत्यु हाता विकास करने मे उपकारक है अतः जब तक कोई समाज है. वहां वह एक बोझ बन जाता है। जहाँ वणभद है। अपने दुर्गुणों का त्याग नहीं करता और सद्गुणों की राह जहाँ जाति भेद है, जहाँ ऊँच-नीच है, वहाँ सत्य का नहीं चलता तब तक प्रशान्ति बनी हुई है। हमे चाहिए स्थान कैसे मिले ? पन्थ और सम्प्रदायों ने सत्य को डुबो कि हम अहिंसा के सिद्धान्त पर दृढ श्रद्धा रखे । श्रद्धा के दिया। पन्थ का विचार सत्य नहीं, क्योकि वह रूढ़िवाबिना ज्ञान नही. और ज्ञान के बिना माचरण सार्थक दिता प्रौर दराग्रह की परिणति है। जहाँ अंधश्रद्वा है वहाँ नहीं। इसलिए हिंसा की मूल भावना क्या है। यह धर्म नही टिकता। धर्म का दूसरा नाम सत्य है । भगवान् समझना चाहिए। जीने की दो शैलियाँ सम्भव है-एक महावीर की दष्टि मे सत्य की प्ररूपणा मन, वचन, क्रिया खुद के लिए, और एक दूसरे के लिए। जीना सभी चाहते
द्वारा की जाती है। केवल सत्य भाषण सत्य नहीं है, हैं, मरना कोई नहीं चाहता, चीटी हो, या स्वर्ग का केवल सत्य क्रिया सत्य नही है, केवल सत्य चितवन ही देवता हो। जीने के इस सिद्धान्त से अहिंसा का प्रत्यक्ष
सत्य नही है । जहाँ प्राग्रह है, वहाँ एकान्त है। एक अंग, संबध हैं। कोई यह समझे कि हम तो जियें और दूसरे
जय प्रार दूसर यानी अंगी नहीं; एक प्रश यानी अंशी नही। यदि कोई की चिंता न रखें तो वह अहिंसा का परिपालक नही प्रश को ही सत्य मान ले तो वह मिथ्या या प्रसत्य होगा। कहला सकेगा। जहाँ निर्बल प्राणियों के प्रति दया का सत्य तो सर्वांगीण होता है। वह अनेकान्तात्मक होता है। भाव हैं, वहाँ अहिंसा का प्रारम्भ है। महिंसा के इस किसी हाथी का वर्णन करने में हाथी की पीठ को हाथों सिमान्त में कोई दबाव नहीं है । जहाँ अत्याचार होता है, कहें, या संड को हाथी कहें तो हाथी नहीं जाना जा वहाँ हिंसा अवश्य पाती है। अहिंसा कानून से नहीं पा सकता। वह तो सत्य का एक प्रश मात्र है। सकती, क्योंकि वह प्रात्मा की शक्ति है । कोई यह समझे सत्य केवल प्रागमों मे नही है। किसी ने कहा है, कि दबाव से पहिसा का पालन होगा तो यह सम्भव "धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां"। यह ठीक ही कहा है। नहीं। अहिंसा शरीर का गुण नहीं, प्रात्मा का गुण हैं। धर्म या सत्य केवल गुफा में चला गया है। सत्य को वह अन्तःस्थ शक्ति है। 'जियो और जीने दो' महिंसा का मन्दिरों में रखने से वह साकार होता नहीं। मूति सत्य स्वणिम सूत्र है। इसलिए कहा गया है कि जीव-दया सव नहीं, मतिमान सत्य है-प्रात्मा। सत्य की भी प्रात्मा में श्रेष्ठ है, वह रत्नचितामणि की तरह फल देने वाली होती है। उसका भी प्रास्वाद होता है। पाज लोग सत्य है । पाज के विज्ञान-युग में हिंसा की प्ररूपणा इसलिए चाहते हैं, सत्य की उपासना करते हैं, सत्य को अध्यं देते भावश्यक है, क्योंकि इस युग ने शाश्वत जीवन-मूल्यों को हैं। किन्तु क्या सत्य इस तरह मिलेगा? नहीं। सत्य तो कुचल दिया है। सत्य उसे नहीं दिखायी दे रहा है। सुन्दरता मे है। मन्दिर में मूर्ति रखी जाती है, उसका सत्य तो श्रद्धावान की पारित है; वह दुर्बल का पुरुषार्थ शान्त मौर वैराग्य भाव सत्य है। पत्थर सत्य नहीं हैं, नही है। इसलिए महात्मा गांधी ने उसे एक प्रबल शस्त्र पत्थर तो जगह-जगह विभिन्न प्राकार-प्रकार में हैं, किंतु समझा। स्पष्ट है, सुखी समाज के लिए पहिसानिष्ठ उनमें सत्य नही है। सत्य तो समन्वित है, वह बिखरा जीवन-प्रणाली ही उपादेय होती है।
हुमा नहीं है।
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भगवान महावीर का समाज-दर्शन
भगवान् महावीर ने सत्य को अन्तर्गत कहा है। आचार, विचार और उच्चारण में सत्य हो । जो सत्य बोले उसके द्माचरण में भी सत्य चाहिए। उसके विचार में भी सत्य का होना आवश्यक है। सत्य में सरलता दिखायी देती है, बता नहीं जहाँ मायाचारी हो, वहाँ सत्य नही हो सकता। जिसका वचन एक हो, कृति अलग हो वह मनुष्य, जीवन में सफल नही हो सकता । संसार
में 'वचन' की बड़ी कीमत है । राष्ट्र भी बचन के सामने झुकते है, तो मनुष्य की क्या कथा ? भगवान् महावीर ने सत्य को ऐसा शस्त्र बताया है जिससे कितना भी विरोधी व्यक्ति क्यो न हो, महिसक पद्धति से उसका मुकाबला सभव होता है।
श्रचीर्य
भगवान् महावीर ने चोरी का त्याग बताया है । चोरी एक सामाजिक अपराध है । जहाँ मूलभूत आवश्य ताओं की पूर्ति नहीं है, यहाँ ईमानदारी नहीं रहती। नैतिकता का वह कलंक है। वस्तुतः चोरी समाज की व्यवस्था का प्रतीक है। जहाँ भौतिक साधनो की कमी नहीं वहाँ चोरी की कोई प्राशका नहीं। भाजकल समाज मे जितना भ्रष्टाचार दिखायी दे रहा है, जितना शोषण दिलायी दे रहा है, वह सब चौर्यकर्म है। पोरी मोह की परिणति से होती है। केवल पन की चोरी ही चो नहीं चौर्य है अपितु अपने कर्तव्य मे मालस्य भी चोरी है। चोरी में भय होता है, और भय में मृत्यु छुपी हुई है । निर्भयता जीवन है इसलिए सामाजिक विषमताएं है यहाँ निरन्तर चोरी का भय बना रहता है। इसलिए एक स्वस्थ समाज की रचना के लिए प्रत्येक व्यक्ति को तस्करता, यानी बेईमानी से डरना चाहिए। किसी वस्तु में प्रासक्ति चौर्यकर्म की जननी है । जहाँ सुन्दर वस्तु दिखी कि मन का संयम ढिलमिल हुआ और मन पर पोरी का भूत सवार होता है इसलिए जहाँ मन की । शुचिता है, वहाँ वस्तु का मोह नहीं है अतः मन का संशोधन श्रावश्यक बताया गया है। जो मनुष्य निश्चयी है यह कितने भी सकट पाये, न्याय मार्ग से विचलित नहीं होता । न्याय मार्ग, यानी सदाचार का मार्ग। वहीं मनुष्य
१९
अपनी कमजोरियो से ऊपर उठता है, प्रचर्य व्रत का पालन करता है ।
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह
ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह मे भी भगवान् महावीर ने इन्द्रिय दमन, सयम और त्याग की भावना का महत्व बताया है । भगवान् स्वयं बाल ब्रह्मचारी थे । उन्होंने काम शत्रु को जीता था। वे संसार के समक्ष एक प्रादर्श | ब्रह्मचर्य का अर्थ है, आत्मा मे सुस्थिरता । गृहस्थ और मुनि भी ब्रह्मचारी हैं, बशर्ते उनकी श्रात्मा स्वयं में ओन रहे विवाह बाधा नहीं है। इन्द्रियाधीन न होना ब्रह्मचर्य है, समाज में परस्पर भाई चारा, माता और पिता के समय बहन-भाई के संबंध स्थिर रहें और समाज का नैतिक मूनन हो, इसलिए भगवान् महावीर ने ब्रह्मचर्य का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है । प्रात्मकल्याण की योजना उसमें सन्निहित है। नदी का जल स्वच्छ होता है, किन्तु यदि उसके किनारे पक्के नही है तो तट की मिट्टी नदी की घार में मिल जावेगी। इसी प्रकार संयम श्रौर निग्रह ये दोनो मनुष्य जीवन रूपी नदी के किनारे है। इनसे मनुष्य की, और समाज की आत्माएँ स्वच्छ रहती हैं। सयत जीवन मे झूठमूठ को स्थान नहीं, भौर श्रसंयत जीवन मे सत्य को स्थान नहीं । समाज का मुख स्वच्छ रखना हो तो उसे श्रब्रह्म से बचाना चाहिए, ताकि सही-सालिक प्रतिविम्ब दिखायी दे सके। पश्चिम मे भौतिकता की जो होड चल रही है परन की जो नदी बढ़ रही है. वहाँ भगवान महावीर के सिद्धा न्त भाज भी बड़े उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं । अपरिग्रह का यह अर्थ नहीं कि कोई दिगम्बर हो, या घर द्वार छोड़ दे; परिग्रह से जीवन चलता है, अपरिग्रह से नहीं, फिर भगवान् ने अपरिग्रह की कल्पना क्यों की ? 'अ' का अर्थ 'किचित्' ऐसा होता है, वह निषेधार्थक नहीं है । जहाँ सीमित साधनों से काम चल जाता है, यहा मर्यादा साधनों को जुटाना मूर्खता है। मात्र का युग संग्रहवादी बन गया है, वह शोषणवादी बन गया है । जहाँ संग्रह है, वहाँ शोषण होगा ही, वहीं विषमता होगी ही एक अपरिग्रही है और एक महापरिग्रह है। दोनों ही त्याज्य है। अपरिग्रह से काम नही चलता, पौर
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२०, अनेकान्त वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
महापरिग्रह से काम बिगड़ता है। सही बात तो यह है मौर राजे-महाराजे परिग्रही हो जायेगे। ऐसा नही है। कि परिग्रह के पीछे जो ममकार छिपा हुया है, अधिक से "प्रवचन सार" में कहा गया है कि जहाँ विषय वासना है, मधिक जोड़ने की जो भावना छिपी हुई है, वही दुःख. वहाँ दुःख है, वही परिग्रह है । इच्छा का प्रभाव ही सुख दायक है। अतः ज्यादा परिग्रह, यानी ज्यादा दुःख यह है (प्रव. १७)। निष्कर्ष अनिवार्य नहीं है, या परिग्रह रहित संयमी हो इस प्रकार भगवान महावीर ने समाज मे स्वस्थ पौर यह भी कोई जरूरी नहीं है। घर के सामने पाने वाले शुद्ध परम्परा की स्थापना के लिए पंचशील का सिद्धान्त भिखारी के पास एक समय की रोटी भी नही होती है तो प्रवर्तित किया। उनका यह प्रवर्तन समाज-धर्म है, व्यक्ति. क्या इसी लिए वह सबसे बड़ा अपरिग्रही कहा जाएगा धर्म है।
परमात्म प्रकाश टीका का कर्ता ब्र. जीवराज नहीं, श्वे. धर्मसी उपाध्याय हैं
ले० प्रगरचन्द नाहटा प्राचीन हस्तलिखित प्रतियों को सही समझ बहुत प्रशस्ति को ठीक से पढ़ने पर मूल रचयिता का नाम भी कठिन कार्य है बहुत से व्यक्ति तो उन प्रतियों की भाषा ठीक से स्पष्ट हो जाता है जैसे महावीर तीर्थ क्षेत्र कमेटी लिपि को ठीक से समझ नहीं पाते कुछ प्रशस्तियो के भाव के प्रकाशित प्रशस्ति स ग्रह के पृष्ठ २३३ मे पद्यमजरी प्राशय को ठीक न समझने के कारण भूल भ्रान्तिपा होती पंचविशिका का रचयिता जगतराय बतलाया गया है पर रहती है उनका संशोधन प्रकाशित करना इसलिए प्राव- अन्तिम छप्पये और सोरठे से मालूम होता है कि जगत. श्यक होता है कि प्राजकल के शोध छात्र अनुकरण ही राय ने जमे कही वसे इसकी भाषा पाटक पुण्यहर्ष के अधिक करते हैं । वास्तविक तथ्य तक पहुँचने की गहराई शिष्य अभयकुशल ने स. १७२२ के फागुण सुदी १० को उनमे नही होती। संशोधन करने वाले का अनुभव भी बना दी। पाठक पुष्पहर्ष और शिष्य अभयकुशल श्वे. काफी बढ़ा-चढ़ा होना चाहिए अन्यथा बहुत वार एक
खरतरगच्छ के विद्वान थे। इन दोनों की पोर भी कई गल्ती के सुधारने में दूसरी मन्य कई गल्तियां कर बैठते
रचनाए प्राप्त है । पुण्यहर्ष रचित जिन पालित जिन रक्षित रास सं० १७०९ एक और हरिबल चौ ० स० १७१५
सरसा में रचित उपलब्ध है इनके शिष्य अभयकुशल ने अपने वे० विद्वानों ने दि० साहित्य का समय-समय पर मच्छा अध्ययन किया और उस ग्रन्थ को सरलता से सभी
गुरु पुण्यहर्ष का गीत ७ पद्यों में बनाया उन्होंने ऋषभदत्त लोग समझ सके इसलिए कई दिगम्बर ग्रंथों पर उन्होंने
गुरु चौ० सं० १७३७ महाजन भरतरी हरि शतक बाला सस्कृत और हिन्दी में टीकाए बनाई है और उनके प्राधार
बोध सं० १७५५ पौर विवाह पडल भाषा तथा चमत्कार
चिन्तामणि वृति ये ज्योतिष के भी दो ग्रंथ बनाये है प्रतः से स्वतन्त्र ग्रंथ भी रचे हैं इस सम्बन्ध में पहले मेरा एक
पप्रनन्दि पचविशिका भाषा इन्ही गुरु शिष्यों की रचना लेख प्रकाशित हो चुका है।
होनी चाहिए इस सम्बन्ध मे मैं पहले लिख चुका हूँ इसी तरह कई श्वेताम्बर यतियों पौर मुनियो ने दि० श्रावकों की एक अन्य रचना भट्टारकीय भण्डार अजमेर में प्राप्त के अनुरोष से दि० ग्रंथो की टीकाएं एव पद्यानुवाद बनाए है जिसका विवरण राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की है। उनमे जिन लोगों के अनुरोध से रचनाए की गई अथ सूची पृष्ठ २०५ मे छपा है । इसमे परमात्मा प्रकाश रचयिता के रूप में उन्हीं लोगों का नाम दे दिया है पर टीका का कर्ता ब. जीवराज लिखा है पर प्रशस्ति को
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परमात्म प्रकाश टीका का कर्ता जीवराज नहीं, श्वे० धर्मसी उपाध्याय हैं
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ध्यान से पढ़ने पर मातम होता है कि जीवराज ने बहुत कीर्ति सुंदर था। इन दोनो विद्वान गुरु शिष्यों का ज्ञान प्रादर के साथ कहा कि परमात्मप्रकाश का वातिक विवरण और रचनात्रों की सूची हमारे धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली (वालबोध टीका) बना लें तो धमर्सी उपाध्याय ने सं० में द्रष्टव्य है। कीतिसुंदर की एक रचना वागविलास कथा १७६२ में बना दी । यथा :
संग्रह मे काफी वर्ष पहले वरदा मे प्रकाशित कर चुका है। पुर लो लाही में प्रसिद्ध राजसभा को रूप ।
परमात्म प्रकाश एक बहुत ही सुन्दर प्राध्यात्मिक ग्रन्थ जीवराज जिन धर्म में, समझ प्रात्म रूप ॥३॥
है । खरतरगच्छ के १८वी शताब्दी के कवि धर्म मदिर ने करि प्रादर बहु तिन कह्यो, श्री ध्रमसी उपसाव ।
परमात्म प्रकाश चौगाई नाम का राजस्थानी में पद्यानुवाद परमात्म परकास को, वातिक देह बनाय ॥४॥
स० १७४२ के कार्तिक सुदि ५ को बनाया है। प्राशा है पद्यांश ८वें में कीतिसुंदर नाम पाता है सभवतः वह परमात्म प्रकाश के नये सस्करण मे धर्म मन्दिर और धर्मसी उपाध्याय के शिष्य के नाम का सूचक हो। धर्मसी दोनो की रचनामो का भी उपयोग कर लिया
जायाय धर्मसी इवे. खरतरगच्छ १८वीं शताब्दी जायगा । धर्मसी उपाध्याय के परमात्म प्रकाश वाले बोध के उल्लेखनीय विद्वान थे इनकी लघु रचनाओं का संग्रह टीका की अन्य कोई प्रति किसी दिगम्बर शास्त्र भडार में हमने धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली के नाम से सादूल राजस्थानी हो तो इसके सपादन में सुविधा रहेयी। श्वे. भडारो में रिसर्च इंस्टीटघट बीकानेर से प्रकाशित किया है अापका इसकी प्रति अभी तक देखने को नहीं मिली जबकि दीक्षा नाम धर्मवद्धन रखा गया था। इनके शिष्य कान्हा घमंसी जी की अन्य सभी रचनाएं श्वे. भडारो में जी भी अच्छे कवि और विद्वान थे उनका दीक्षा नाम प्राप्त है।
श्रमण जैन मजन प्रचारक संघ नयो दिल्ली। रविवार ८ अप्रैल, १९७३ को सायं ६ बजे श्री महावीर जयन्ती के पावन पर्व पर 'श्रमण जैन भजन प्रचारक संघ' द्वारा आयोजित सांस्कृतिक सन्ध्या एवं 'श्री वृषभदेव सगीत पुरस्कार' समर्पण समारोह का उद्घाटन करते हुए श्री मोहम्मद शफी कुरेशी उप-मन्त्री रेलवे मन्त्रालय मारत सरकार ने कहा कि
भगवान महावीर का संदेश सूर्य के प्रकाश की तरह समस्त मानव जगत के लिए है, किसी वर्ग विशेष का नहीं, जैन मत की भी सबसे बड़ी विशेषता यही है कि हजारों वर्ष की जरूमी मानवता के लिए उसने मुहब्बत के रिश्ते जगा दिये, हमी ने उनके पैगाम भारत को सीमाओं के भीतर जकड़ रखे हैं।
श्री कुरेशी ने कहा कि तीर्थकर महावीर ने वैशाली में जहां जन्म लिया था, वह भूमि मैंने देखी है, श्रमण संघके नौजवानों को छह वर्ष पूर्व जैन भजनोंके प्रचारके लिए जो प्रेरणा प्राप्त हुई थी उसे वह बड़ो मेहनत से आगे बढ़ा रहे हैं, मुझे पूरी उम्मीद है कि वे इसमें सफल होंगे।
ग्राज के नौजवान पाप म्यूजिक व लम्बे बालों के शौकीन हो गये हैं। आज वे यूरोप के पंगाम हमें सूनाते हैं, हमारे लिए यह पतन का मार्ग है, जिस दिन हम भारतीयों ने अपना सांस्कृतिक मार्ग छोड़ दिया, हमारा पतन हो जायगा।
इस अवसर पर उपमन्त्री श्री मोहम्मद शफ़ी कुरेशी ने 'गीत वीतरागप्रबन्ध' ग्रंथ के लेखक डा. प्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये को 'श्री वृषभदेव संगीत पुरस्कार'का २५००) रुपया एवं पदक भेंट किया।
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दादू पंथी संत गोविंददास रचित जैनधर्म संबंधी ग्रंथ चौबीस गुण स्थान चर्चा
श्री प्रगरचन्द नाहटा राजस्थान गुजरात, और दक्षिण मारत में जैन धर्म प्रारम्भ का काफी प्रभाव रहा है लोक जीवन पर प्राज भी उस गुण छियालीस करि सहित, देव परहंत नमामि ।
नमो पाठ गुण लिये, सिद्ध सब हित के स्वामी ॥ प्रभाव की छाप दिखाई देती है। दक्षिण भारत के सबंध
छतीस गुणांकरि, विमल प्राप प्राचारिज सोहत । में तो मेरी पूरी जानकारी नहीं पर राजस्थान और गुज
नमो जोरि कर ताहि, सुनत बानी मन मोहत ।। रात में तो जै नेतर संत सम्प्रदायों पर जैन धर्म का प्रभाव
पर उपाध्याय पच्चीस गुण सदा बसत अभिराम है। अत्यन्त स्पष्ट है उनके माचार-विचार पौर साहित्य में
गुण पाठ वीस किरि साधु है, नमो पंच सुख धाम है ।। बहुत सी बातें ऐसी पाई जाती हैं । जो जैन धर्म से संब
अन्तिम घित हैं। सन्त सम्प्रदाय मे से भी समन्वयबादी और
संस्कृत गाया कठिन, प्ररथ न समझ्यो जाय। सद विचार प्राचार के पोषक रहे है । प्रतः पास-पास जो ता कारण गोविन्द कवि, भाषा रची बनाय ।। जैन मुनियों और धावको का पाना-जाना व निवास रहा जोया को सीखं सुन, प्ररथ विचार जोय । उससे वे स्वभावतया हो प्रभावित हुए । कई जैन कथा सभा मोह प्रादर लहै, मुरिख कहै न कोय ॥ प्रसंग उन्हें बहुत रोचक लगे । उनके सम्बन्ध मे जैनेतर सन्त अक्षर प्ररथ यामें घटि वढ़ि होय । सम्प्रदायो के कवियो की रचनाएं भी बनाई है। उनमें से बुध जन सर्व सुधार ज्यो, माफ कीजिये सोय ॥
प्रठारासै ऊपरै गन, इक्यासो जबसर प्रसंगको मुनि हजारीमल स्मृति प्रथमे हमने प्रका
पोर ।
फागुण सुदी दशमी सुतिथि शशि वासर शिरमौर ।। शित किया है जो अन्तिम शान्ति मोक्षगामी जम्ब स्वामी
वादू जी को साधु है, नाम जो गोविन्दवास । के चरित सम्बन्धी रचना है इसी तरह १८ नाता और
तान यह भाषा रची, मनमांहि धारि उल्हास ।। बगचल की व था जैन समाज मे काफी प्रसिद्ध है। उसे
नासरदा ही नगर में रच्योज भाषा ग्रंथ। भी सन्त कवियो ने अपना ली है । रामस्नेही सम्प्रदाय के
जो याक सीखें सुणं, लहै जैन मत प्रन्थ ।। कवि रामदास ने अपनी भक्तमाल मे २४ तीर्थ धरों प्रादि
उपरोक्त उद्धरण में ग्रंथ का नाम स्पष्ट रूप से नही का विवरण दिया है अभी राजस्थान के जैन शास्त्र
दिया है। पर अन्त का जो पहला पद्य उद्धत किया गया भंडारो की ग्रंथ सूची भाग पांच से एक विशेष जानकारी
है इससे मालम होता है कि इस विषय के किसी जैन मिली है कि दादूपथी संत गोविन्ददास ने २४ गुण स्थान
संस्कृत ग्रथ के प्राधार से इस ग्रन्थ की रचना हुई है मूल चर्चा नामक जैन धर्म सम्बन्धी हिन्दी मे पद्य वद्ध रचना
संस्कृत ग्रन्थ कौन सा है कब कितने प्रकाशित किया। ये नाशादा नगर मे स० १८८१ के फागुन सुदी दशम सोम.
जानकारी प्रकाश मे पानी चाहिए वैसे गुण स्थान तो १४ वार को बनाई है इसके ८ पत्रों की एक प्रति दिगम्बर
होते है पर इस सूची में २४ गुण, २४ भाषा चर्चा नामक जैन मंदिर नेमिनाथ टोडा रामसिंह (टोंक) के शास्त्र
रचनामों की काफी प्रतियों का विवरण छपा है उनमें से भण्डार मे है । उपरोक्त ग्रथ सूची के पृष्ठ ३४ में इसका
मूल प्राकृत ग्रन्थ प्राचार्य नेमिचन्द्रका है सम्भवतः उसी के विवरण इस प्रकार छपा है ।
प्राधार से अन्य रचनायें बनाई गई हों। सीस गणस्थान चर्चा-गोविन्ददास । पत्र संख्या । .गोविन्ददास की रचना छोटी ही है अत: अनेकान्त वीर०१.४४ इंच । भाषा हिन्दी । विषय गुणस्थानों को वाणी प्रादि पत्रिकामों में उसे प्रकाशित कर दी जानी चर्चा। र०काल स. १८५१ फाल्गुन सुदी १० । ले० बहुत ही अच्छा हो । एक जनेतर कवि ने जैन धर्म संबंधी काल स. १८०० पूर्व वेष्ठन सं० ४३-११९ प्राप्ति रचना की है यह बहुत ही उल्लेखनीय बात है। ऐसी स्थान दि० जैन मंदिर नेमिनाथ टोडररायसिंह (टोंक)। अन्य रचनामों की भी खोज होनी चाहिए।
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द्राविड भाषाएं और जैनधर्म
प्राचार्य पं० के० भुजबलो शास्त्री
कन्नड़ और तमिल भाषा को सर्वोच्च पद पर पहुँ- (गव्य) महाकवि पम्प के कुछ पूर्व का माना जाता है । चाने का प्रमर श्रेय जन प्राचार्य और कवियों को प्राप्त कन्नड जन कवियों मे पा, पोत और रम्न ये ताना है। इनमें से पहले कन्नड भाषा को ही लीजिए। कन्नड रत्नत्रय कहलाते है। वस्तुतः ये तीनों रत्ननाम ही हैं । भाषा के मादि कवि जैन हैं। इस समय उपलब्ध जैन इन महाकवियों के उपरान्त भी चामुण्ड गय, नागवर्म, कवियों में महाकवि पम्म ही प्रादि कवि है और यही शान्तिनाथ, नागचन्द्र, नयसेन, ब्रह्मशिव, कर्णचार्य, नेमिकन्नड़ का प्रादि कवि है।
चन्द्र, अग्गल, प्राचण्ण बन्धुबमं जन्न पाश्वं पण्डित, गुण दक्षिण मे पांच द्राविड़ भाषाएँ प्रचलित है-तमिल, वर्म, प्राण्डक्य, कमलभव, विदयानन्द, उदयादित्य, केशितेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तुलु । इनमें तुलु ग्रान्थिक राज, साल्व, भट्टाकलंक, गुणचन्द्र, सोमनाथ, श्रीधराचाय, भाषण नही है। केवल बोलचाल की भाषा है । हाँ, इधर मंगराज और रत्नाकरवर्णी आदि सैकडो ख्यातिप्राप्त इस भाषा के प्रेमी इस भाषा में भी पुस्तकें लिखने जैन कवियों ने काव्य, व्याकरण, छन्द, अलंकार, काष लगे; मगर कन्नड़ लिपि मे क्योकि इस समय तुलु वैद्य, ज्योतिष, गणित, यक्षगान प्रादि अन्यान्य विषयों पर भाषा की लिपि प्रचार में नहीं है। बल्कि इधर तुलु भाषा सैकड़ों ग्रंथों की रचना की है। र्जन कन्नड़ कवियों ने में चार-पांच फिल्में भी तैयार हुई है। इस भाषा के प्रेमी किसी भी विषय को नहीं छोडा है। उन्होने पाक-शास्त्र, इसे समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्नशील है। इस भाषा गोवव्य, आयुर्वेद मादि अनेक लोकोपयोगी ग्रथो को भी में जैनों की भी दो-चार पुस्तकें हैं । अब रही शेष चार रचा है। कल्याणकारक, खगेन्द्रमणिदर्पण, वैद्यामृत मादि द्राविड भाषाएं । तेलुगु और मल मालम मे भी उल्लेलनीय वैद्य ग्रन्थ, जातकतिलक, जिनेन्द्रमाला प्रादि ज्योतिष ग्रन्थ जैन कृतियाँ नही है। बाकी कन्नड और तमिल दो हिन्दी भाषा में भी अनुवाद करने योग्य है । खगेन्द्रमणि भाषाएं हैं, जिनमें जैन ग्रन्थ भरपूर हैं।
दर्पण मद्रास विश्वविद्यालय की कृपा से, जातकतिलक पम्प-पूर्व के प्रसग, गूणनन्दि तथा गूणवर्म प्रादि मैसूर विश्वविद्धालय की कृपा से प्रकाशित हो चुके है । कई उद्दाम जैन कवियों के नाम और कतिपय पद्य प्रवश्य कल्याणकारक भी प्रकाशित होने वाला है। यह कल्याणमिलते हैं। पर दुर्भाग्य की बात है कि अभी तक उनकी कारक प्राचार्य पूज्यपाद के वैद्य ग्रथ के आधार पर रचित बहुमूल्य रचनाएं नही मिली हैं । बल्कि सातवीं शताब्दी कहा जाता है। उपर्युक्त कन्नड़ कवियों में अधिकांश मे ही तुंबलू राचार्य ने कन्नड मे ९६,००० पद्य परिमित सस्कृत एवं प्राकृत भाषामों के भी पण्डित थे। क्योंकि चड़ामणि नामक एक महत्त्वपूर्ण टीका-ग्रंथ को रचना की भारतीय प्रन्यान्य साहित्यों की तरह कन्नड साहित्य की थी। यह वृहद-टीका तत्वार्थ सूत्र पर की मानी जाती रक्षा और अभिवृद्धि के लिए भी संस्कृत साहित्य है। इसी प्रकार इसी काल के श्यामलकुंदाचार्य ने कन्नड़ ही प्राधार है यहाँ तक है कि भट्टाकलक का कर्णामें प्राभूत नामक एक ग्रंथ की रचना की थी जो एक टकशब्दानुशासन नामक कन्नड़ व्याकरण सस्कृत भाषा शास्त्रीय ग्रन्थ समझा जाता है। परन्तु खेद की बात है में ही रचा गया है। बल्कि उसकी भाषामजरी नामक कि अभी तक वे दोनों महत्वपूर्ण ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुए वृत्ति और मजरीमकरद नाम की व्याख्या भी संस्कृत है। हां, शिवकोट्याचार्य विरचित वड्डाराधना नामक ग्रंथ में ही लिखी गई है।
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२४, वर्ष २६, कि.१
अनेकात
प्रस्तु, अब तमिल भाषा को लीजिए। तमिल भाषा गए चार सौ पद्य हैं। पांड्य राज को धर्म, अर्थ, काम के प्रादि कबि भी जन ही है। तमिल संघकाल की और मोक्ष का उपदेश देने के लिए यह अमर ग्रन्थ रचा रचनाओं मे तिरुक्कुरल ही अन्तिम रचना है। इसके पूर्व गया था। इसकी रचना की कहानी बहुत रोचक है। पर की रचनामो में बहुत कम ग्रन्थ उपलब्ध है। तीसरी उसके उल्लेख से लेख का कलेवर बढ़ जायगा। शताब्दी में तृतीय तमिल सघ नामावशेष हुग्रा। ऐसी परि- जनश्रुति है कि इस ग्रन्थ के रचयिता सभी विद्वान् स्थिति में भी मान्य जैन कवियों ने वात्सल्य एवं गौरव के सर्वसंगपरित्यागी मुनि थे। साथ तमिल भाषा को बढाया। तीसरी शताब्दी से लेकर
___मणिमेखल-यह ग्रन्थ कवि शीतशन्तनार के द्वारा छठवीं शताब्दी तक जन कवियों ने पर्याप्त बहुमूल्य ग्रंथों
रचित एक वृहच्चरित काब्य है । इसकी शैली सुन्दर एवं की रचना की थी। यह सौभाग्य की बात है कि इस समय
गम्भीर है। इसमे बौद्धधर्म का सिद्धान्त एवं प्राकृतिक प्राप्त उन ग्रन्थोंसे भी जैन कवियों का पाण्डित्य एव उनकी
दृश्यो का सुन्दर वर्णन है। यह एक महत्त्वपूर्ण तमिल प्रखर बुद्धि स्पष्ट व्यक्त होती है। कन्नड़ वाङ्मय की ही तरह तमिल वाङ्मय भी जैन कवियों का चिर ऋणी है। "
महाकाव्य है। इस बात को निष्पक्षपाती प्रत्येक साहित्यप्रेमी सादर शिलप्पाधिकार-यह इल गोयडिंगल की रचना है। एवं सहर्ष स्वीकार करते है जिन कतियों में तिसक्करल. यह भी एक महत्त्वपूर्ण चरित-काव्य है। इसकी शैली नाल डियार, मणिमेखल, शिलप्यधिकार और जीवकचिन्ता. चित्ताकर्षक है। विद्वानो की राय है कि यही तमिल मणि ये बहुत ही ख्यातिप्राप्त कृतियां है। इन ग्रन्थों का भाषा का प्रथम काव्य है। इसमे गद्य भी है। यह काव्य संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
उस समय के नाटक के रूप मे रचा गया है। इसमे रग
मंच, नट, गायक, संगीत और नृत्य प्रादि के सुन्दर विवेतिरुक्कुरल : इस कृति को सर्वमान्य कवि तिरुवल्ल.
चन के साथ साथ तत्कालीन रीति, नीति, राजा मादि वरने धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ की प्राप्ति
पर भी यथेष्ट प्रकाश डाला गया है। के लिए रचा था। महाकवि तिरुवल्लवर इस प्रमर रचना से ही कविसावं भौम कहलाया । यद्यपि कुरल प्रथ
जीवकचिन्तामणि - यह काव्य तिरुतक्कदेवर के द्वारा के मंगलाचरण में कवि ने किसी भी भगवान् का नाम
रचा गया है। यह कवि जैन मुनि थे। इस काव्य मे स्पष्ट नही लिया है। फिर भी इसमे कमलगामी, प्रष्ट
जीवन्धर का चरित वणित है। इसकी भाषा शद्ध, गभीर गुणयुक्त प्रादि भगवान के विशेषण रूप से दिये गए जैन एवं सरल है। इसमे चरित्र के साथ-साथ जैन सिद्धान्त पारिभाषिक शब्दों से तिरुवल्ल वर जैन धर्मावलम्बी स्पष्ट तथा सामाजिक कलाओ का भी समावेश है। सिद्ध होता है। स्वर्गीय प्रोफेमर ए. चक्रवर्ती प्रादि
उपयुक्त कृतियों के अतिरिक्त जैन कवियों के चूलामान्य विद्वानों के मत से तिरुक्कुरल एलाचार्य अर्थात् मणि, यशोधरकाब्ध, नागकुमारकाव्य, उदयकुमारकाव्य माचार्य कुन्दकुन्द की अमर रचना है। इस बात को सुदृढ़ आदि काव्य ग्रन्थ, पालमोलिन नुरु बेलाडि, परिने रिचरं पुष्ट प्रमाणों से चक्रवर्तीजी ने सिद्ध किया है। बल्कि प्रादि नीतिग्रन्थ, प्रच्चनन्दिमल प्रादि छन्द पौर मलं. नीलकेशी नामक बौद्ध ग्रंथ के सफल जैन भाष्यकार मूनि कार ग्रन्थ, नन्नुल, नेमिनादं प्रादि व्याकरण ग्रंथ, मेरुसम, समय दिवाकर भी इस तिरुक्कुरल को अपना एक पवित्र दरपुराण, थिरुकुलवरं मादि पुराण सभी ग्रन्थ उपलब्ध ग्रंथ मानते रहे।
हैं। विद्वानों का मत है कि जैन कवियों के द्वारा ही तमिल नालडियार-चार-चार पंक्तियों से निबद्ध पद्यमय भाषा में संस्कृत शब्द नहीं के बराबर लिये गये थे। यह ग्रंथ बहुत ही उच्चकोटि का है। इसमें अन्यान्य चार जैन कवियों के संस्कृत विशेषज्ञ होने के कारण उनकी सो सर्वमान्य कवियों के द्वारा एक-एक के क्रम से रचे तमिल रचनामों में भी संस्कृत का होना स्वाभाविक ही है।
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जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त
डा० कोशल्या बल्लो
जैन दर्शन के अनुमार कर्म सिद्धान्त एक तथ्य है। करता है, एक प्रति गर्म लोहपिण्ड पानी को सब पोर से कम एक ऐसा द्रव्य है जो हमेशा आत्मा के किसी प्रश माकृष्ट करता है, ठीक उसी प्रकार कषाययुक्त मात्मा को प्रावृत करता है । जितनी शीघ्रता से कर्मनाश होता योग के कारण सब दृष्टिकोण से कर्म को ग्रहण करता है। है, उतना ही व्यक्ति के लिए अच्छा है।
कम के सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोणजैनदर्शनानुसार जब तक कोई प्रयोजन न हो तब जन-संस्कृति में प्राचार्य कुन्दकुन्द पुरातन ख्यातिप्राप्त तक कोई कम नहीं होता। अतएव प्रयोजन से सम्बन्धित विद्वान है। जैनदर्शन मे "समयसार"' नामक उनकी किन्ही विशेष परिस्थितियों के अन्तर्गत ही क्रिया शब्द कृति मात्मा, बन्धन और मोक्ष के सम्बन्ध मे एक उत्कृष्ट भौर विचार कर्म कहलाता है।
कृति है। अपनी कृति मे कुन्दकुन्द ने जैनधर्म की विचारजिनमत में कर्म समस्या, दूसरे भारतीय दर्शनों के । धारा पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। पहले दो अध्यायों में समान मात्मा के बन्धन के प्रश्न के साथ सम्बद्ध है।
प्राचार्य ने यह दर्शाने का प्रयास किया है कि जीव पौर जैन विचारकों के अनुसार मात्मा कषाय के कारण पुद- प्रजीव-इन दो का अध्ययन करना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। गल को अपनी मोर प्राषित करता है जो कि कर्म के यह बताया गया है कि यद्यपि शभ और प्रशभ कर्म में अनुरूप है। बन्धन के पांच कारण हैं-१. मिथ्यादर्शन, अन्तर है, फिर भी सत्य तो यह है कि उच्च दृष्टिकोण से यह २. प्रविरति, ३. प्रमाद, ४. कषाय, ५. योग । बन्धन में
अन्तर निरर्थक है, क्योंकि कर्म अपने मे ही बन्धन का कर्म और पुद्गल एक साथ संबद्ध हैं। कर्म भौतिक
कारण है और कर्म का निराकरण ही होना चाहिए । जीवन का कारण है, पर मात्मा का गुण नहीं है । मिथ्या.
उत्कृष्ट सत्य तो परमात्मा या शुद्ध प्रात्मा है जो कि दर्शन के कारण, पुद्गल के सूक्ष्म अणु, मात्मा से उसी
अपने में पूर्ण है। यही परमार्थ है, यही परमतथ्य है। प्रकार मिले हुए हैं जिस प्रकार दूध पोर जल परस्पर
यदि हमें परमात्मा के विषय में प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता तो मिले होते हैं। योग मोर कषाय के प्रभाव से'मात्मा में
सब तपस्या और नियमपालन निरर्थक हैं। विश्वास, भौतिक द्रव्य कर्म का रूप धारण करते हैं। कर्म परिणाम
माधरण और ज्ञान सत्य होने चाहिए, लेकिन यदि वह स्वरूप पुण्य भोर पाप के नाम से पुकारा जाता है।
सत्य नहीं हैं और कम से प्रभावित हैं तो भौतिक जीवन जैन दर्शन में 'योग' शम्ब तथा उसका कर्म पर के दुःख अवश्यम्भावी है। प्राचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार प्रभाव-शरीर, मन पौर वाणी की क्रिया ही योग या भात्मा कर्म द्वारा विभिन्न परिवर्तनों को अपनाता है। प्रास्रा कहलाता है और कर्मोत्पत्ति का कारण है। पांचवें अध्याय में मानव जीव में कर्मागम को लाते हैं। त्रिकोणात्मक क्रिया से कम पात्मा में प्रविष्ट होता है। यह पूनः बतलाया जाता है कि मिथ्यात्व या गलत
का प्रत्येक योग प्रास्रव नही है अथवा यदि वह कम विश्वास, अविरति या पनुशासनहीनता, कषाय या काम को प्राकृष्ट नहीं करता, इसे अनास्रव कहते हैं। जिस और योग अथवा मनोभौतिक प्रवृत्तियां-दो प्रकार के प्रकार एक गीला कपड़ा सब भोर से धूलि को प्राकृष्ट कर्मों को जन्म देते हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म। भावकर्म
मात्मा में रहता है तथा भौतिक कर्म को जन्म देता है। १. तत्त्वार्थसूत्र-८.१. २. तत्वार्थवृत्ति ८.२.
३. समयसार-पाचार्य कुन्दकुन्द ।
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२६ वर्ष २६, कि.१
अनेकान्त
इस सम्बन्ध में प्राचार्य कुन्दकुन्द ने दो प्रावो के नामो बच जाता है। प्रात्मा का उत्थान अवश्यम्भावी है। का उल्लेख किया है-भौतिक और मनोवैज्ञानिक । प्रात्मा की ऊपरी गति ऊपर की ओर जाने वाली अग्नि द्रव्यानव का अर्थ प्रात्मा भौतिक अंशो का प्रागमन है को लो से मेल खाती है। प्रलोकाकाश तक पहुँची हुई जो कि भावानव को जन्म देते हैं, परन्तु एक ऐसे व्यक्ति प्रात्मा के लौटने का प्रश्न नहीं उठता । के सम्बन्ध मे जो कि सम दृष्टि रखना है, द्रग्यक्रम का सम्पूर्ण पूर्णता-प्राप्ति के लिए चौदह गुणस्थानों का मागमन प्रारमा मे नही होता; द्रव्य कर्म न होने से भाव- वर्णन है । पहला गुणस्थान सामान्य मानव की परिस्थिति कम का प्रश्न ही नहीं उठा। इस प्रकार कोई बन्धन को बतलाता है। इस सार पर मिथ्यात्व, अविरति, कषाय सम्भव नहीं है। केवल जब भाव कर्म मात्मा में होते है, और योगयुक्त क्रिया विद्यमान रहती है । यह मूलत: जीव तब पारमा बन्धन में होता है। प्रत्यक्ष जानान्वित मनुष्य _है जिस पर प्राध्यात्मिक जीवन का भवन प्राश्रित है। को न भावास्रव होता है और न द्रव्यामव ।
इस गुणस्थान मे जीव को अंधेरे मे थोडा सा प्रकाश
दिखाई देता है । इस गुणस्थान का नाम 'मिथ्यात्वदृष्टि" ___ इमसे स्पष्ट है कि ज्ञानी कम से प्रछता रहता है, लेकिन यह भी सत्य है कि भूतकाल के जीवन के सब कम
है । यह गुणस्यान सोढी की पहली पीढी है । ग्रन्थि रहित मनुष्य के कर्मशरीर मे निश्चय रहते हैं। इन बुनियादी
पात्माएँ जो थोडी देर के लिए प्राध्यात्मिक दृष्टि से कर्मबीजों का नाश करने के लिए जिनमत के अधिका
युक्त होते है, इस गुणस्थान तक गिर सकते है। ग्रन्थिरियो ने रत्नत्रय का अभ्यास निश्चित किया है । वह
बद्ध पात्मा गहन अन्धकार मे डुबा होता है। पहले गण
स्थान का प्राध्यात्मिक जीवन योगी को मिथ्यात्व से रत्नत्रय है श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र । इस रत्नत्रय के
पूर्णतया छुटकारा पाने की सहायता करता है, जिससे कि दृढ़ाभ्यास न होने पर ही विभिन्न कर्म प्रात्मा को बद्ध करते हैं। समयसार के षष्ठ अध्याय में कुन्दकुन्दाचार्य ने
दूसरे गुणस्थानों में मिथ्यात्व बिल्कुल दृश्यमान नही ।
इसका अभिप्राय है कि प्राध्यात्मिक जीवन की नीव सब संबर का वर्णन किया है । सवर का अर्थ है कर्मागम को
क्षेत्रों में सत्य के व्यावहारिक जीवन पर प्राश्रित है। रोकना। यह सर्व प्रसिद्ध है कि जब तक देहात्मबोध है,
दूसरे गुणस्थान का नाम "सास्वादन सम्यग्दृष्टि" है। तब तक कर्म अवश्यम्भावी है, इसी को भावान व कहते
महान् ऋषियों ने हमें यह बतलाया है कि दूसरे गृणस्थान हैं, इसी का परिणाम द्रव्यास्रव है।
तक साधक पहले गुणस्थान से उत्थान के रूप मे प्रगति जैनदर्शन मे सारी सष्टि को नो प्रकार से विभाजिर
नहीं करता हैं, अपितु उच्च गणस्थान से पतन के कारण किया गया है-जीव (आत्मा), अजीव (पनात्मा),
थोड़े समय के लिए, दूसरे गुणस्थान तक गिरता है । पुण्य, पाप, पलव, संघर (कर्म-रोक), निर्जरा (कर्म
उदाहरणतया पहली बार प्रकाशयुक्त होने पर, संभावना त्याग), बन्थ और मोक्ष । मौलिक दो बातें हैं जीव और
है कि चिरकालीन कामनाएं जग जाएँ, प्रात्मा स्वाभाविअजीव । शेष इन दो की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप है।
कतया प्रात्मदर्शन के पहले अवलोकन से दूसरे गुणस्थान जनदर्शन में पूर्णता प्राप्ति के लिए चौदह गुणस्थान
तक गिरता है । एक बार दूसरे गगस्थान तक प्रवतरित प्रसिद्ध हैं। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग से
होने से, पहले गुणस्थान तक भी गिर जाता है। दूसरे युक्त क्रिया ही कम है। सब कर्मों के नाश होने पर प्रात्मा
गुणस्थान में मिथ्यात्व पूर्णतया अनुपस्थित है लेकिन लोकाकाश तक जाता है । जैनियों के अनुसार, कर्मप्रभाव
प्रविरति, कषाय और योग विद्यमान रहते हैं। के कारण ही, प्रात्मा नीचे के स्तर पर प्राकर सांसारिक
तीसरा गुणस्थान सम्यग्दृष्टि कहलाता है। पहले स्तर पर रहता है, लेकिन कर्मनाश होने पर, मात्मा
प्रकाश के बाद, यदि अनिमल कर्म, दृष्टि को भ्रमयुक्त सम्बन्धहीन होता है, अतएव नीचे के स्तर पर गिरने से
करके दिखाई दे, तो प्रात्मा थोड़ी देर के लिए इस गुण४. तत्त्वार्थवृत्ति ८. २.
स्थान में अवतरित होता है । यह भी सम्भव है कि थोड़ी ५. तत्वार्थवृत्ति।
देर के लिए यह पहले गुणस्थान तक गिर जाए, पर शीघ्र
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जैन दर्शन में कर्मसिद्धान्त
ही पुन. उत्थान का मार्ग अपनाता है। अतएव सम्यग- त्मिक जडना भी वर्तमान रहती है। दृष्टि के अतिरिक्त इस गणस्थान को कतिपय विद्वान् सप्तम गुणस्थान में प्रात्मनुशासन अथवा माध्यामिथ्यादृष्टि के नाम से भी पुकारते है । स्मरण रहे कि त्मिक कुण्ठता की कमी प्रथवा प्रमाद की कमी रहती है। पहले गणस्थान का वर्णन करते समय ऊपर मैंने कहा था इस गुणस्थान का नाम "अप्रमतसम्यक्त्व है। कि पहले गुणस्थान को छोड़ कर अन्य गणस्थानों में माठमें गुणस्थान का नाम अपूर्वकरण है। इस गुणमिथ्यात्व की अनुपलब्धि है और तीसरे गूणस्थान का स्थान मे प्रात्मा इतना पवित्र है कि कम की गहनता नाम सम्यग्दृष्टि के अतिरिक्त मिथ्यादृष्टि भी कहा; पर और स्थिति स्वतः ही कम हो जाती है । इस गुणस्थान में स भवन: यहां यह दुहराने की मावश्यकता पडे कि सम्यग- भात्मा की पवित्रता की स्थिति और गहनता बढ़ जाती दृष्टि मिथ्यादृष्टि में अर्धनिर्मल कर्म के कारण परिणत है। प्रात्मा, इस गुणस्थान मे, पवित्र कार्यों में बहुत होने से, व प्रात्मा के इस गुणस्थान में गिरने के कारण ते जीवाद होता है। इस गुणस्थान में प्रात्मा अत्यधिक ही इसे मिथ्या दृष्टि कहा जाता है।।
काल तक नहीं रहता। चौथे गणस्थान का नाम अविरतसम्यग्दृष्टि है । इस नौवे गुणस्थान का नाम "अनिवृत्तिबावरसपराय" गणस्थान में स्पष्टतया सम्यग्दृष्टि प्राप्त तो हुई है, लेकिन है। इस गुणस्थान में स्थूल इच्छायें प्राक्रमण कर सकती प्राध्यात्मिक बल की कमी है। इस अनियम के कारण, हैं। ज्ञान और इच्छा, निःसन्देह हों, किन्तु तब भी प्रात्मा दसवे गुणस्थान का नाम सूक्ष्मसपराय है । इस गुणगलत मार्ग से जा सकता है । यद्यपि दृष्टि स्थिर है, तब स्थान मे स्थूल वासनाये नहीं रहती, लेकिन सूक्ष्म वासभी प्रात्मा का अनुशासन अनुपस्थित है। इस गुणस्यान । नाये प्रात्मा को प्राकान्त करती है। इस गुणस्थान मे, में सम्यग्दृष्टि के कई कारण हैं। मुख्य कारण यह है कि सब वासनाय नष्ट तो हुई होती है, केवल सूक्ष्म लोभ की दुष्टि भ्रान्त करने वाला कर्म पूर्णतया समाप्त हुया है। विद्यमानता होती है जो कि यथार्थ मे शरीर के साथ इसी का दूसरा नाम उपशम है । यह स्मरणीय बात हैं प्रववेतन-प्रामक्ति के कारण है। कि प्राध्यात्मिक विकास तब तक सम्भव नही है, जब ग्यारहवे गुणस्थान का नाम "उपशान्तकषाय" है। तक दृष्टि, ज्ञान और प्रात्मानुशासन समानरूप से सुदृढ दसवे गुणस्थान मे सूक्ष्म लालच था। इस गणस्थान में न हों। इस परिस्थिति में प्रात्मदमन की पावश्यकता है भी प्रात्मा सम्पूर्ण रूपेण कामिक प्रभाव से रहित नहीं है, यद्यपि ज्ञान और दृष्टि विद्यमान हैं। इस गुगस्थान में प्रतएव इसको छास्य कहा जाता है । यह आसक्ति से सदिच्छा होते हुए भी प्रात्मानुशासन की अावश्यकता है। रहित है- अर्थात् ग्यारहवा गणस्थान बीतराग का गण
पचम गणस्थान देशाविरतसम्यादृष्टि है। इस गण- स्थान माना जाता है । प्रात्मा इस गुणस्थान मे चिर काल स्यान में प्रात्मानुशासन प्रधूरा ही प्राप्त होता है. प्रात्मा तक रह नहीं पाता। का थोड़ा सा उत्थान तो अवश्य होता है, पर किन्ही एक निर्मल पात्मा सीधा ही दसवें से बारहवें गुणकामनामो के रहते हर, नीति रहित कार्यों से प्रात्मा स्थ न तक उन्नत हो सकता है। बारहवें गुणस्थान में पूर्णतया रहित नहीं है। इस गुणस्थान में प्रात्मसंयम वासनापों का नाश होता है। यह गुणस्थान नाश की केवल अपूर्ण रूपेण ही प्राप्त हुआ होता है ।
चरम सीमा तक पहुँचता है। इस गुणस्थान में मारमा षष्ठ गुणस्थान मे निस्सन्देह उन्नति तो होती है, पूर्णरूप से चार प्रकारके घातिकर्मों से मुक्त हो जाता है। किन्तु प्रात्मा में प्रात्मानुशासन की पूर्ण शक्ति नहीं प्रकट बारहवें गुणस्थान को क्षोणकषाय नाम दिया जाता है। होती। इस गुणस्थान का नाम प्रमत्तसम्यक्त्व है। इस तेरहवें गुणस्थान को जैन दर्शन ने सयोगके बली का गुणस्थान में प्रमाद उपस्थित है। दूसरे शब्दों में, यद्यपि नाम दिया है । दूसरे भारतीय दर्शनों में इस गुणस्थान को इस गुणस्थान मे प्रात्मानुशासन वर्तमान है, किन्तु माध्या- जीवनमुक्त का नाम दिया जाता है। इस गुणस्थान में
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२८ वर्ष २६, कि.१
अनेकाल
मिथ्यात्व, प्रविरति भोर कषाय तो नहीं है किन्तु योग तो कर्म कहलाता है जिसके फलस्वरूप मन में भ्रान्ति उत्पन्न रहता है, प्रतएव सयोगकेवली कहलाता है। तीर्थङ्कर होती है, एक सच्चे अन्तर्ज्ञान एवं ज्ञान की कमी प्रतीत होती अथवा जगद्गुरु इसी तेरहवें गुणस्थान मे बनता है। है। अन्तराय मात्मा की उन्नति में बाधक हैं, एवं पात्मा प्रघातिकर्म तो इस गुणस्थान में रहते हैं । यहाँ यह संकेत के विभिन्नपक्षीय विकास मे पातक है। किया जाय कि जाति, प्रायु और भोग के रूपमें, प्रघाति- शेष चार कर्म प्रघाति हैं। ये प्रात्मा के मुख्य गुणों कर्म योगदर्शन के प्रारब्धकर्म का ही पर्याय है।
का पात न करके, उन्हीं घातिया कर्मों की सहायता के जिनमत में प्राध्यात्मिक विकास में उच्चतम पर्णता लिए पारकर के रूप में होते हैं । यथा :का प्रतिनिधित्व अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में होता है। १. वदनायकम-इष्ट भोर मनिष्ट वस्तुमों का इसका नाम प्रयोगकेवली गुणस्थान है। यह ऐसे सिद्ध का संयोग कराता है। गुणस्थान है जो कि सब प्रकार के घाति भोर प्रघाति २. मायुकर्म-मनुष्यादिरूप किसी भी एक शरीर में कर्मों से रहित है, प्रतएव कामिक शरीर से मुक्त है। एक रोककर रखता है। सिद्ध पुरुष, कामिक शरीर से रहित विशुद्ध शरीरधारी है, ३. नामकर्म-शरीर की अनेक प्रकार की प्रवस्थायें एक ऐसा शरीर लिए हुए जो कि पूर्णरूपेण निर्मल है बना देता है। और जिसका कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। वह ४. गोत्रकर्म-विशेष प्रात्मा का विशेष परिस्थिति लोकाकाश में बहुत उच्च स्थान प्राप्त करता है और में एवं विशेष परिवार में जन्म दिलाता है। सिद्धशिला पर विराजमान हो जाता है-वह शिला जो
उपर्युक्त चौदह गुणस्थान प्राध्यात्मिक विकास का कि देश-काल से परे है । सिद्ध पुरुष अत्यन्त विशुद्ध पात्मा
क्रामक विवरण बतलाते हैं। प्रध्यात्म के इस क्रमिक है और नित्य है। सिद्ध शिला लोकाकाश और प्रलोका
विकास में कर्म ही मुख्य विषय है। सम्पूर्ण विश्वसृष्टि काश के बीच की शिला है-एक ऐसा स्थान है जिसका
पौर व्यष्टि मानव शरीर, कर्म के ही कारण हैं। विश्व कि भौतिक जगत् की क्रियानों से कोई सम्बन्ध नहीं है।
पौर मानव तब तक है जब तक कि कर्म है । लेकिन जब
कम गुणस्थानों के विकास से क्रमशः नाश को प्राप्त होता उपर्युक्त गुणस्थानो में मैंने घातिकर्म और प्रघातिकर्म
है, प्रास्मा की सम्पूर्ण विशुद्धि होती है, एवं कर्म पौर का उल्लेख किया है। इस विषय में यहां यह कहना
उसके परिणामों से मुक्त हो जाता है । कर्म के फलस्वरूप पावश्यक हो जाता है कि कर्म सामान्यतया दो प्रकार का
ही शरीर के साथ सम्पर्क, दुःख-सुख की अनुभूति एवं माना जाता है-धाति और प्रघाति ।
प्रायु के कारण समय-पराधीनता रहती है। घाति कर्म चार प्रकार के हैं-१. ज्ञानावरण- चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त हुए सिद्धात्मा को कई ज्ञान को नहीं होने देता, २. दर्शनावरण-देखने नही विद्वान परमात्मा कहते हैं। परमात्मा या ईश्वर यद्यपि देता ३. मोहनीय कर्म-सुख नहीं होने देता, ४. अन्तराय एक ही बात है तो भी कई दर्शनों में ईश्वर विश्वनियन्ता, कर्म-प्रात्मबल नहीं होने देता है। दूसरे शब्दों में मन्त· विश्वरचयिता अथवा जगद्गुरु का स्थान ले लेता है जो जान को ढकने वाला कर्म दर्शनावरणीय कर्म कहलाता है, ज्ञान द्वारा मानवता के कल्याण में लगे होते है। . ज्ञानार्जन की शक्ति को रोकने वाला कर्मशानावरणीय है, मानसिक सन्तुलन को विचलित करने वाला कर्म मोहनीय ६. प्रवचनसार-६०.
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राजर्षि देवकुमार को कहानो
सुबोध कुमार जैन
देवलोक से एक सितारा टूटा। और भारा नगर के उगकी नव-विवाहिता बहू चन्दा बाई भी साथ थी। देखते सुप्रसिद्ध प्रभू परिवार में समय पाकर बाबू चन्द्र कुमार के देखते धर्मकुमार को प्लेग हो गया। सभी पर वज्रपात घर पुत्र-रत्न ने जन्म लिया ।
हुमा। नाम रखा गया देवकुमार ।
बीमारी बढ़ चली और धर्मकुमार को प्रपार कष्ट पिता चन्द्रकुमार की मृत्यु प्रकाल में हो गई । देवकु- था। भैया की गोद में उनका सर था और किसी की मार का हंसमुख गम्भीर हुमा सो हुआ।
आँखो मे नीद नही थी। ये कुशाग्रबुद्धि । नन्हा सा एक भाई था। नाम था
लोगो ने देवकुमार की प्रांखो मे कभी प्रासू नही देखे धर्मकुमार। एक बहिन, नाम नेमसुन्दर । फिर तो बच
थे। उनकी डबडबाई प्रांखों से सभी की हिम्मत टूट चली गई माता । बस इतना ही परिवार था।
थी। धर्मकुमार ने चिन्तायुक्त होकर अपनी नव-विवाहिता घर का हिसाब-किताब देखा तो देवकुमार का
चन्दा की पोर देखा । देवकुमार ने प्रेमसिक्त स्वर मे गम्भीर मुख सोच में पड़ गया।
कहा-चिन्ता छोड़ दो। मैं तो हूँ। धर्मकुमार का मुख एक लाख का कर्ज।
बाल सुलभ लज्जा सा होकर शान्त हो गया। उनका पितामह प्रभूदास ने कोशाम्बी, बनारस और पारा
दातों को मीज कर कष्टो का झेलना एक अद्भुत दृश्य में पांच मन्दिर मौर धर्मशालामों को पूरा कराने के हेतु
था। भाभी अनूपमाला और जीजी नेमसुन्दर नन्हीं चन्दा कुछ कर्ज लिया था वही बढ़ते बढ़ते एक लाख हो गया।
के मुर्भाए मुख को देखकर सुबुक उठीं। परन्तु देवकुमार माता ने एक छोटी सी बात कही-बेटा! खर्च
के नयनों के प्रार्तनाद को देख करके सहम कर रह गई। कम कर देने से कर्ज प्रासानी से चुकता हो जाता है।
तभी १८ वर्ष के धर्मकुमार ने फिर प्रांखे खोली पोर देवकुमार ने वही किया और समय पाकर कर्ज
भैया देवकुमार की भोर भक्ति मौर विनय से भरे नयनों चुकता हो गया।
से देखते हुए टूटते स्वर में कहा :पौर जब एक लाख और इकट्ठा हो गये तो भारतवर्षे के तीर्थों की यात्रा का प्रोग्राम बनाने लगे। पर तभी
"भैया ! अब माज्ञा दो, मैं चलू ! कष्ट बरदाश्त पारा नगर में प्लेग का रोग मा गया। यह महामारी के बाहर है। बहिन नेमसुन्दर को उसके ससुराल में लग गई।
धर्मसुन्दर की मांखों के अनुनय ने देवकुमार को वीर गम्भीर देवकुमार को डर छु नहीं गया था। बिल्कुल द्रवित कर दिया। भाई को कलेजे से लगा कर जबकि लोग प्लेग से बीमार अपनों को छोड़ रहे थे, वे वे भरे हुए कण्ठ से मृदुल प्रवाह में णमोकार मंत्र का पाठ नेमसुन्दर को अपने घर उठा लाए।
करने लगे। सभी की मांखों में मासुपों की पारा थी जब रोग ने नगर में जोर पकड़ा तो परिवार को और पोठों पर चित्कार की जगह मंत्र पाठ। हिचकियों के लेकर अपने बाग में चले गए। फिर सभी को लेकर साथ प्रवाह रूप तब तक चलता रहा जब तक देव तुल्य सम्मेद शिखर की यात्रा को निकल पड़े।
देवकुमार ने लक्ष्मण स्वरूप भाई को जमीन पर नहीं ईसरी में छोटे भाई धर्मकुमार को ज्वर हो पाया। लिटा दिया ।
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३०, वर्ष २६, कि० १
देवकुमार अब सचमुच देवतुल्य हो गए थे । २८-३० वर्ष के नवयुवक की कान्ति श्रात्मज्ञान से प्रोत प्रोत थी । ब्रह्मचर्य का घनी वह युवक जब जब निर्ग्रन्थ मुनि के रूप मे दिगम्बर होकर ध्यान मे निमग्न होता लोग नतमस्तक हो जाते।
अनेकान्त
जप तप का क्रम चलता रहा देवकुमार ने कहा -- भारतवर्ष के चले ।
और तब एक दिवस तीर्थों की यात्रा पर
दक्षिण भारत की उनकी यात्रा अनूठी थी गाडियो का उनका कारवां जहाँ पड़ाव डालता वही पाठशालाये खोलने का कार्यक्रम चल निकलता । जिनवाणी का उद्धार पत्रों एवं हस्तलिखित प्राचीन प्रयों को जहा तहाँ से निकलवा कर, साफ-सुथरा करा कर उनके सदुप योग पठन-पाठन और ग्रन्थागारों में स्थानान्तर करने की प्रेरणा दी जाती।
सारे दक्षिण में इस देवतुल्य युवक के श्रागमन की सूचना फैल गई और अगले गाव वाले गाजे-बाजे के साथ उनके श्रादर-सत्कार मे मीलों तक सोत्साह आगे चले प्रति |
देवकुमार के गुरु वास्तीति महाराज उनके साथ थे और स्वयं दक्षिण भारतवासी होने के कारण उनके आनन्द का ठिकाना न था ।
धर्म के पावन प्रवाह में धर्मकुमार के महाप्रयाण का दु.ख और घुलता जा रहा था। सभी परिवार वाले सीयों की इस अद्भुत यात्रा के सहगामी क्या हुए, वे कृतकृत्य हो गए ।
दक्षिण भारत से बम्बई, मध्य भारत, उत्तर प्रदेश और फिर अपना बिहार - जहाँ पहुँचे उसके पूर्व उनकी कीति वहाँ पहुँची रहती । जहाँ पहुँचते वही शिक्षा-दीक्षा और जिनवाणी उद्धार का कार्यक्रम ऐसा चलता कि नगर में दूसरी कोई बात किसी को भी जुबान पर नहीं रहती ।
आखिर धारा नगर में भी उन्होंने वह किया जिसने उन्हें अमर कर दिया। श्री जैन सिद्धान्त भवन और कन्या पाठशाला की स्थापना । और फिर उनका निश्चय कि
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"जब तक जिनवाणी का उद्धार नहीं हो जाता प्रखंड ब्रह्मचर्य रखूंगा।"
जिसने सुना श्रद्धावनत हो गया ।
दक्षिण भारत की यात्रा में इनकी प्रेरणा पा कर चन्दाबाई ने स्त्री सभाप्रो में समाज और धर्म की सेवा का आन्दोलन प्रारम्भ किया। धर्म ग्रन्थों के अध्ययन के लिए पण्डितों और विद्वानों का सहयोग भी उन्हें मिला । भारतवर्ष के प्राकाश पर एक प्रोर चाँद उभर आया जिसने भागे चलकर "जैन बाला विश्राम" की स्थापना कर सैकड़ों हजारों लाओं को शिक्षित किया, ल दिया, गौरव दिया। जैन महिला परिषद और जैन महिलादर्श द्वारा महिलाओं में क्रान्ति की ।
बहिन नेमसुन्दर का जीवन तो भैया देवकुमार पर सदा निछावर था । उनके लिए प्रादरणीय व्यक्ति दुनिया मे कोई दूसरा न था । वे तो बस भैया के सुख में सुखी, दुख मे दुःखी थी। गौरव गाथा जब भी उनके मुख से निकलती थी- भैया की ।
और छोटे भाई धर्म कुमार की बहू चन्दाबाई के लिए तो वे सदा सब कुछ करने को दौड़ी फिरती । जब जैन बाला विश्राम की स्थापना धर्म कुञ्ज मे हुई तो अपने पति से कहकर बालीशान शिक्षा भवन बना कर उसके ऊपर भव्य जिन मन्दिर की स्थापना, प्रतिष्ठा इस धूमधाम से कराई कि जो जिसने देखा था भूला नही । स्वयं इन्द्राणी बनी और पति इन्द्र ।
इतना ही नहीं । बाहुबली का प्रथम दर्शन जो कि भैया देवकुमार के साथ दक्षिण की यात्रा में हुआ था उसे भूल सकती थी उनकी देवभक्ति गुरुभक्ति और शास्त्रभक्ति अनुपम थी ।
सो घर्मकुञ्ज धारा मे बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना प्रतिष्ठा कर उन्होंने पूर्व पुण्य मोरय प्राप्त किया ।
यह सब हुआ पर राजर्षि देवकुमार यह सब देखने नहीं रहे थे । वे बहुत पहले महाप्रयाण कर चुके थे ।
हाँ, अपने जीवन काल में ही पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णों के एक पैसे के पोस्ट कार्ड के ऊपर उन्होंने बनारस स्थित अपने निवास स्थान और धर्मशाला के भव्य भवन को स्याद्वाद विद्यालय के लिये देकर घरयन्त उत्साहपूर्वक विद्यालय की सफलता के लिये कार्यरत हुए थे।
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राजषि देवकुमार की कहानी
३१
भाई भक्त नेमसुन्दर बतलाती है :
के रूप में थी मैं भूल नहीं सकी थी। पर यह सूचना उन्हें प्रसाधारण बीमारी की दशा मे अन्ततोगत्वा उन्हें देने के लिए मैं हिम्मत कहां से बटोर ।" कलकत्ता उपचार के लिए ले जाया गया। उनके उपचार 'मैने प्रभू को याद किया और फिर निर्भय होकर मे किसी को रुपये की कोई परवाह नही थी। उन्हे तो मै उनके कमरे में पहुंची। उन्हे बिल्कुल चतन्य पाया। किसी प्रकार बचाना ही था। उनके बिना धन किस काम इसके पूर्व कि मै कुछ व हूँ उन्होने सूखे होठों पर मुस्कान का रहता। दोनों बच्चे अभी दश वर्ष के भी तो नहीं लाकर मुझे पास बुलाया और कान मे पूछा-कुछ सुनहुए थे।
कर पाई है ? मैं बिल्कुल हतप्रभ हो गई पर उन्हें देखराजर्षि यह सब देखने और हसकर कहते-अपने
कर मेरी हिम्मत फिर लौट आई । मैने देखा कि वे मन की सब बात निकाल लो पर जो होना है उसे कोई सुनने को तैयार पड़े थे। मैंने सर हिलाकर हामी भरी रोक सकता है क्या? एक लाख रुपये, उस बीमारी के उपचार मे खर्च हो
और फूट फूट कर रो पड़ी। उन्होने मेरे बालों मे हाथ चुके पर बीमारी घटने का नाम न लेती। कलकत्ता का
फेर कर मुझे चुप कराया। तब तक सभी कमरे मे पा
गये थे। उन्होने अपने गुरु चारकोति स्वामी को पास बडा से बड़ा डाक्टर और कविराज अपनी सारी योग्यता
बुलाया और पृथ्वी शंया देने को कहा। तभी भाभी खर्च कर रहा था। स्वनामधन्य छोटेलाल जी जैन ने
अनूपसुन्दर फूट-फूट कर रोने लगी। भैया ने अपनी तेजस्वी बतलाया :
श्रांखो को उठाया, जिसके इशारे सभी समझने लगे थे।" मैं उस समय छोटा था। अपने पिता के साथ सदा
"भाभी को पकड़ कर कमरे के बाहर ले जाया इस धर्मपरायण व्यक्ति के पास जाता था। उन्हें सदा
गया। भैया की मांख फिर उठी और दरवाजे को बन्द चिन्तामुक्त पाया । प्रत्यन्त कृश हो गए थे। बोलते तो
कर दिया गया ताकि अन्दर रोने की आवाज न पाये । थक जाते थे, पर धर्म और सिद्धान्त की बात कहते तो
और प्रन्त में भैया की मांखे और उनकी २१ प्रगुलियो लोग अपलक हो उनकी प्रोर देखते रह जाते । नियम पूर्वक
के इशारे को किसी को नकारने की हिम्मत नहीं हुई। चारुकीति महाराज के साथ एकान्त मे धर्म चर्चा शान्त उन्हे कलपते हृदय से हमने भू-शया दो। होकर श्रवण करते थे। उनकी जुबान को कभी किसी ने
चारुकीति महाराज से उन्होने हाथ जोड़कर मुनि'उफ' करते हुए नहीं देखा । बीमारी तो ऐसी थी कि देखी
व्रत दिलाने को कहा।" नही जा सकती थी। कारबकल !!
९० वर्ष के ऊपर की वृद्धा नेमसुन्दर उस समय की "ऐसी हिम्मत थी, मेरे भैया की। दिगम्बर मुनि माथा विभोर होकर कहती थीं :
का व्रत लेकर मन्त्र को होठो से थीरे-घोरे स्वय कहते हुए "भैया को कभी डर किसी बात का छ नही गया एवं सिद्ध-भक्ति का पाठ सुनते हुए वे सदा के लिए परम था। वे नितान्त निर्भय थे। उसी बीमारी की अन्तिम शान्ति पूर्वक चले गये।" दशा मे मुझसे कहा-मैं तभी तुझे अपनी प्रच्छी बहिन इतना कह कर मेरी पूज्या वृद्धा नेमसुन्दर बूमा समझंगा जब तू मुझे चुपचाप डाक्टर की बात पाकर दादीजी ने अपनी मौखों के मांसू पोच लिए। बता देगी। मै अपना अन्त भी बनाना चाहता हूं। तू मृत्यु के कुछ दिन पूर्व पूज्य दादाजी देवकुमार जी बता देना जब भी डाक्टर से ऐसी कोई बात सुनना ।" ने अपनी जमींदारी का सबसे अच्छा और कीमती गांव
नेमसुन्दर ने कहा--"मैं तो उनकी ऐसी बात सुनकर का एक न्यास किया तथा एक वसीयतनामा लिखा । सन्न रह गई और तब एक दिन मैंने डाक्टर के मह से बह वसीयतनामा भी अपने में अद्भुत था। उसमे वे सुन। कि प्रब २४ घण्टे का समय शेष रह गया है तो मैं अपने सेवकों को भी भूले नहीं थे। बिल्कुल सहम गई। भैया की कही बात, जो कि प्रादेश
अपने मुसलमान वृद्ध पिउन (नोकर) से लेकर उन
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३२, अनेकान्त वर्ष २६, कि० १
भनेकान्त सभी पड़ोसियों और सम्बन्धियों के प्रति ऐसी उदारता हम भौचक्के प्रवाक् देख रहे थे और देखते-देखते पन्य किसी दस्तावेज में देखने को नहीं मिलेगी। सब प्रोझल हो गया। हमने एक दूसरे को देखा। सभी
जन सिद्धान्त भवन प्रादि पारिवारिक संस्थानों के अपनी-अपनी मांखों को मल रहे थे जैसे सपना देखकर लिए समय के हिसाबसे प्रचुर साधन का उन्होंने वसीयत उठ रह हा। कर दिया था।
अविश्वसनीय-फिर भी सच । वृद्धा बूपा दादीजी नेममुन्दर बीबी की बढ़ी मांखें एक बहुत बड़े बंगाली तांत्रिक हमारे घर पाये हुए वर्षों पूर्व विचारों में खो जाती है और फिर अपने पूज्य थे। हम सभी बच्चे बड़े अवकाश होकर सुन रहे थे उनकी भैया की कहानी समाप्त करते हुए वे कहती हैं
कही बातें। पूज्यपाद दादा श्री देवकुमार जी के बारे में "मृत्यु के बाद जैसे ही शव को लेकर लोग गंगा की
उन्होंने कुछ ऐसी बातें बतलाई कि उनके प्रति लोगों का
उन पोर गए, हम सभी औरतें रोते, कलपते हाबड़ा स्टेशन
प्राकर्षण और चढ़ गया। पर चली गई। एक कोने में सभी सिमटी बैठी थीं। भोर
रात में उन्होंने अपनी सिद्धियों का प्रयोग दिख. होने को माया था। हम सब थकान से चूर मन से
लाया। कुछ एक भूत प्रात्मानों के चित्र सादे कागज पर विरक्त गुमसुम पड़ी हुई थीं कि एकाएक भासमान की
पाये। उनके हाथ के लिखे लेख में बातें करवाई और भोर से गाजे-बाजे की ध्वनि कर्णगोचर हई...देवों का फिर पूज्य दादा जी बेवकुमार जी को बुलाते-बुलाते थक एक बड़ा समुदाय तरह-तरह के वाद्यों को बजाता, खशी गए । एक दूसरी माध्यम उनकी सेवक मारमा ने लिखमनाता, नाचता चला जा रहा था पासमान के और भी कर सूचना दीऊपर...और भी ऊपर...पोर बीच में एक सत्री-सजायी वे दूर, बहुत दूर हैं, वहाँ तक हम लोगों का पहुँ। मलौकिक पालकी पर विराजमान थे भैया देवकुमार।" चना नहीं हो सकता।"
वीर निर्वाणोत्सव मनायेंगे निर्वाणोत्सव सोल्लास । करेंगे ब्रह्माण्ड-जीव अलौकिक प्राभास ।। जन जन के स्वान्त में । भारत-भू के प्रान्त प्रान्त में । गूंजेंगे, सत्य, अहिंसा के सन्देश । त्रिरत्न का होगा सर्वत्र अन्तःप्रवेश ।। स्याद्वाद सिद्धान्त से व्यावहारिक बनेगा। परस्पर सद्भाव शाश्वत बढ़ेगा। मानवता की अर्चना में समवेत होगा संसार । विश्व शान्ति और बन्धुता के खिलेंगे पुष्प मपार ॥ वैमनस्य, विसंगति के साथ दूर होंगे विद्रोह । हाँ, सचमुच इसीलिए मनायेंगे यह समारोह।।
-तेजपाल सिंह
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घरौड़ा से प्राप्त चौमुखो जैन प्रतिमा
कुमारी शोला नागर हरियाणा प्रान्त साहित्य संस्कृति मे ही नहीं, अपितु जा सकता है । वे पद्मासन मुद्रा में सर्प पर प्रासोन हैं, उनके पुरातत्व और कलाकी दृष्टि से भी प्रत्यन्त समृद्ध है। इसके कान लम्बे *. गिर भग्न है। फणावली के नीचे दोनों पुराने टीले तथा खण्डहर प्राज भी अपने मे उस की प्राचीन पोर पुष्पाहारी बिद्याधर अंकित है। पौर उनके पीछे कलाको संजोये हैं । यद्यपि ऐतिहासिक सर्वेक्षण करने पर एक छोटी जिन प्रतिमा अन्तर्ध्यान मुद्रा में अंकित की गई पता चलता है कि यहाँ बौद्ध भागवत और बौद्ध थर्मों के है। फणावली के ऊपर जल अभिषेक करते हुए गज साथ-साथ जैन धर्म का विकास भी बहत प्राचीन काल से प्रदर्शित है। माथ के कोष्ठक में ऊँचे उष्णीष वाले ऋषभ ही हुमा है। परन्तु इस धर्मको कलाकृतियों ने यहा उन देव जी है, सिर उनका भी नग्नावस्था में है। उनके सिर प्राचीन रूप में नहीं मिलती। अभी तक उपलब्ध जैन कला- के पीछे कमल का मटर :
के पीछे कमल का सुन्दर प्रभामण्डल हैं। उनके कान लम्बे कृतियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि पूर्व मध्य
है और कन्धों को स्पर्श कर रहे हैं। कन्धों पर जटामों काल में यह प्रदेश जैनधर्म का मुख्य केन्द्र बन चुका था।
का अंकन है जो समय के साथ कुछ मन्द सा पड़ गया है। प्रस्तुत प्रतिमा गुडगांवा जिले के घरोड़ा ग्राम से,
श्रीवत्स का चिह्न यथास्थान अंकित है। इनके पासन से सडक बनाने के लिए जमीन समतल करते समय प्रकाश बल का निशान भी कूळ मिट सा गया है, लेकिन ध्यानमें पाई। यह ग्राम बल्लभगढ से ८ किलोमीटर दूर,
६. पूर्वक देखने से उसकी धुंधली सी प्राकृति दिखाई पड़ती इसके दक्षिण पूर्व में यमुना नदी के पुराने पाट पर स्थित
है। प्रतिमा के शेष दो कोष्ठकों में शायद नेमिनाथ पौर है। प्रव यमुना नदी यहां से लगभग दो किलोमीटर की
महावीर जी थे। उनकी प्रतिमाएं खण्डित होकर बड़ी दूरी पर बहती है। हरे भरे खेतों के बीच पुराने टीले
प्रतिमा से अलग हो चुकी हैं । इस प्रतिमा के कोष्टक पर बसा यह ग्राम प्रत्यन्त रमणीक है। इसके टीले के
स्तम्भों पर तीथंकरों के दोनों प्रोर उनकी सेवा में यक्ष माकार विस्तार को देख कर प्राचीन समय में इस स्थान प्रौर यक्षणी भी प्रदर्शित किये गये है। की महत्ता का अनुमान सहज ही हो जाता है।
प्रतिमा भूरे पत्थर में निर्मित हैं । प्रकृति के दुष्प्रभाव प्रब यह प्रतिमा इस गांव के बाहर घरोडा-तिगांव के कारण इसका पाषाण गल गया है। इसको देखकर सम्पर्क सड़क के किनारे खले प्राकाश के नीचे स्थापित ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि निरन्तर जलप्रवाह के कारण कर दी गई है। वहां के स्थानीय लोगों द्वारा 'खेड़ा देवता'
इसका सौन्दर्य बह गया हो। परन्तु फिर भी कहीं कहीं
मा के नाम से पूजी जाती है. परन्तु पास जाकर इसका निरी
से बहुत चिकनाहट लिये हुए हैं। खण्डित होने पर भी क्षण करने पर पता चला कि यह जैन धर्म की चतुमुखी इसमें अभी भी अध्यात्मिक रस छलकता है । लक्षणों और प्रतिमा है। चौमुखी जन प्रतिमाएं देश के अन्य भागा से लाञ्छनों की सीमा में जकही होने के पश्चात् भी यह भी मिली हैं। परन्तु हरियाणा प्रान्त से पहली बार ही
अपने में अत्यन्त सौन्दर्य समेटे हुए है। तीपंकरों के भरे प्रकाश में पाई है।
गोलाई लिए हुए अंग इतने तरल हैं कि एक दूसरे से घुल प्रतिमा ११५ सैन्टी मीटर लम्बी और ८५ सैन्टी- मिल गये से प्रतीत होते हैं। कलात्मक रूप से अत्यन्त मीटर चौड़ी है। इसकी ऊंची पीठिका पर चार कोष्ठक सराहनीय है। प्रदशित हैं । प्रत्येक कोष्ठक में एक-एक तीर्थङ्कर विराज- सम्भवत: यह प्रतिमा ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के मान है। फणावली के कारण पार्श्वनाथ को पहचाना भास पास निर्मित की गई होगी।
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आदिपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव
पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
राजा श्रेणिक के प्रश्न पर गौतम गणधर ने जो उसके लिए ध्यान का व्याख्यान किया था उसकी चर्चा करते हुए प्रादिपुराण के २१ वें पर्व में ध्यान का विस्तार से निरूपण किया गया है। वहां जिस शैली से ध्यान का विवेचन किया गया है उस पर ध्यानशतक का प्रभाव अधिक रहा दिखता है'। इतना ही नहीं, जैसा कि भागे आप देखेंगे, धादिपुराणगत कुछ श्लोक तो ध्यानाक की गाथाओं के छायानुवाद जैसे दिखते हैं ।
विषयविवेचन की शैली
ध्यानशतक में मंगल के बाद ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जो स्थिर म्रध्यवसान या मन को एकाग्रता है उसका नाम ध्यान है । उसको छोड़कर जो अवस्थित पिस है वह भावना, अनुप्रेक्षा पोर चिन्ता के भेद से तीन प्रकार का है। एक वस्तु मे चित्त के भवस्थानरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है मौर बह छद्मस्थों के होता है। जिनों का सयोग और प्रयोग
१. षट्खण्डागम के ऊपर घवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के समक्ष भी प्रकृत ध्यानशतक रहा है और उन्होंने उसके वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत कर्म-अनुयोगद्वार मे तपःकर्म का व्याख्यान करते हुए यथावसर उसकी ४०-५० गाथाओं को भी उद्धृत किया है (देखिये 'ध्यानशतक : एक परिचय' शीर्षक लेख - अनेकान्त वर्ष २४, किरण ६ १० २७१-७७ ) ; इसलिए यद्यपि यह कहा जा सकता है कि सम्भव है घवला पर से हो ग्रा० जिनसेन स्वामी ने मादिपुराण में उस प्रकार से ध्यान का विवेचन किया हो; फिर भी श्रातं प्रोर रौद्र ध्यानों के विवे चन पर भी, जो धवला में नहीं है, ध्यानशतक का प्रभाव रहा है। यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रा. जिनसेन प्रा. वीरसेन स्वामी के शिष्य रहे है ।
'
देवलियों का ध्यान योगों के निरोधस्वरूप है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात चिन्ता अथवा ध्यानान्तर अनुप्रेक्षा मौर भावनारूप चिन्तन होता है। इस प्रकार से बहुत वस्तुओं में संक्रमण के होने पर ध्यान का प्रवाह चलता रहता है।
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यही बात धादिपुराण में भी बेगिक के प्रश्न के उत्तरस्वरूप गौतम गणधर के द्वारा इस प्रकार कहलायी गई है -- एक वस्तु में एकाग्रता रूप से जो चिन्ता का निरोध होता है उसे ध्यान कहा जाता है और वह जिसके वर्षभनाराचसंहनन होता है उसके काल तक हो होता है । जो स्थिर अध्यवसान है उसका नाम ध्यान है मोर जो चलाचल चित्त है -चित्त की अस्थिरता हैउसका नाम अनुप्रेक्षा, चिन्ता प्रथवा भावना है। पूर्वोक्त लक्षणरूप वह ध्यान छद्यस्थों के होता है तथा विश्वदृश्वासर्वज्ञ जिनों के - योगास्रव का जो निरोष होता है उसे उपचार से ध्यान माना गया है'।
समानता के लिए निम्न पद्य देखिये
जं चिरममबसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्न भावना वा प्रणुपेहा वा ग्रहव चिता ॥
ध्यानशतक २.
स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं यच्चलाचनम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ श्रादिपुराण २१- ६.
ध्यान के भेद पश्चात् ध्यानशतक में ध्यान के प्रातं, रौद्र, धमं मोर शुक्ल इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमे प्रतिम दो ध्यानों को धर्म धौर शुक्ल को निर्वाण का साधक तथा भार्त मोर रोद्र ध्यानों को ससार का कारण बतलाया गया है ।
२. ध्यानशतक २-४. ३. श्रादिपुराण २१, ८-१०. ४. ध्यानशतक ५.
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माविपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतकका प्रभाव
तदनन्तर प्रादिपुराण में सामान्य ध्यान से सम्बद्ध हिंसानन्द मादि चार भेदो का नामनिर्देश करते हुए यह कुछ प्रासंगिक चर्चा करते हुए (११.२६) मागे कहा गया कहा गया है कि वह प्रकृष्टतर तीन दुर्लेश्यापों प्रभाव से है कि ध्यान प्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार वृद्धिगत होकर छठे गुणस्थान से पूर्व पाच गुणस्थानों में का माना गया है, इसका कारण शुभ व अशुभ पभिप्राय
सम्भव है व अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। मनन्तर उसके (चिन्तन) है। उक्त प्रशस्त और मप्रशस्त ध्यानी में उक्त चार भेदों का स्वरूप बतलाकर उसके परिचायक प्रत्येक दो दो प्रकार का है। इस प्रकार से ध्यान चार लिंगों व फल का निर्देश किया गया है। हिसानन्द के प्रकार का कहा गया है-मातं, रोद्र (ये दो मप्रशस्त), प्रसग में उसके लिए सिक्थ्य मत्स्य पोर भरविन्द नामक धर्म और शक्ल (ये दो प्रशस्त)। इनमें मादि के दो- विद्याधर राजा का उदाहरण दिया गया है। प्रार्त और रौद्र-संसारवघंक होने से हेय तथा
माविपुराण में कुछ विशेष कयन अन्तिम दो-धर्म और शुक्ल-योगी जनो के लिए उपा- तदनन्तर यहा यह कहा गया है कि अनादि वासना देय हैं।
के निमित्त से ये दोनों अप्रशस्त ध्यान विना ही प्रयत्न के प्राध्यान
होते हैं। इन दोनों ध्यानों को छोड़कर मुनिजन अन्तिम मागे ध्यानशतक में चार प्रकार के प्रार्तध्यान का दो (धर्म व शुक्ल) ध्यानो का अभ्यास करते है। उत्तम स्वरूप दिखलाते हुए वह किसके होता है, किसके नहीं ध्यान की सिद्धि के लिए यहां सामान्य ध्यान की अपेक्षा होता है, तथा उसका फल क्या है। इसका निर्देश करते उसका कुछ परिकम' (देश, काल एवं मासन मादिरूप हा उसके विषय मे कुछ शका-समाधान भी किया गया कुछ विशेष सामग्री) अभीष्ट बतलाया है। है। तत्पश्चात् उक्त मार्तध्यान मे सम्भव लेश्या, उसके यह परिकर्म का विवेचन यद्यपि यहा सामान्य ध्यान ज्ञापक देत और गुणस्थान के अनुसार स्वामी का भी को लक्ष्य में रखकर किया गया है, फिर भी इस प्रसंग में उल्लेख किया गया है।
कुछ ऐसा भी कथन किया गया है जो ध्यानशतक में इसी प्रकार प्रादिपुराण में भी उक्त चार प्रकार के धर्मध्यान के प्रकरण में उपलब्ध होता है व जिससे वह प्रातध्यान के स्वरूप को प्रगट करते हुए उसके स्वामी, विशेष प्रभावित भी है। उदाहरणार्थ दोनो ग्रन्थो के इन लेश्या, काल, पालम्बन, भाव, फल और परिचायक लिंगो पद्यो का मिलान किया जा सकता हैका निर्देश किया गया है।
निच्च चिय जवा-पसू-नपुसग-कुसोलज्जियं बाणो। रौद्रध्यान
ठाणं वियण भणिय विसेसमो झाणकालमि ॥ प्रार्तध्यान के पश्चात् ध्यानशतक मे रौद्रध्यान के
ध्यानशतक ३५. स्वरूप को बतला कर वह किस प्रकार के जीव के होता स्त्री-पशु-क्लीब-संसक्तरहितं विजनं मुनेः । है, उसके रहते हुए लेश्यायें कौन सी सम्भव हैं, तथा उसके सर्वदेवोचित स्थान ध्यानकाले विशेषतः ।। परिचायक लिंग कौन से है। इसका विवेचन किया गया
घा. पु. २१-७७.
x
जच्चिय वेहावत्या जिया ण झाणोवरोहिणी होह। प्रादिपुराण मे भी रोद्रध्यान का विचार करते हुए
झाइज्जा तववत्यो ठिमो निसष्णो निवण्णो बा। प्रथमत: उसके निस्तार्थ (प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः, तत्र
ध्या. श. ३६. भवं रौद्रम्) को प्रगट किया गया है। तत्पश्चात् उसके
५. मा. पु. २१, ४२-५३. १. प्रादिपुराण २१, ११-२६.
६. ध्यान के परिकर्म का विचार तत्त्वार्थवातिक (8, २. ध्यानशतक ६-१८.
४४) और भगवती पाराषना (१७०६-७) में भी ३. प्रा. पु. २१, ३१-४१.
किया गया है। ४. ध्यानशतक १६-२७.
७. पा.पु. २१,५४-८४.
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३६, वर्ष २६, कि. १
अनेकान्त
बेहावस्था पुनयव न स्यात् ध्यानोपरोधिनी।
भावनामो के स्वरूप का भी यहा पृथक पृथक निर्देश तस्वस्थो मनिायेत् स्थित्वाऽऽसिस्वाषिशय्य वा किया गया है।
प्रा. पु. २१-७५. इस कथन का माधार भी ध्यानशतक रहा है। वहां
धर्मध्यान के बारह अधिकारो मे प्रथम अधिकार भावना सम्बासु वट्टमाणा मुणमो जं देस-काल-चेट्टासु ।
ही है। इस प्रसंग मे निम्न गाथा व श्लोक का मिलान बरकेबलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥
कीजिए
ध्या. श. ४०. पुवकयम्भासो भावणाहि माणस्स जोग्गयमवेद। यह श-काल-चेष्टासु सस्वेव समाहिताः।
साम्रो य णाण-वंसण-चरित्त-बेग्गजणियाम्रो॥ सिया: सिरपन्ति सेत्स्यन्ति नात्र तम्नियमोऽस्स्यतः ।।
ध्या. श. ३०. प्रा. पु. २१-८२. भावनाभिरसमढो मुनिनिस्थिरीभवेत् । मादिपुराणगत इन तीनों श्लोको मे ध्यानशतक की ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ता: ॥ गाथानों का भाव तो पूर्णतया निहित है ही, साथ ही
प्रा. पु. २१-६५. उनके शब्दों के संस्कृत रूपान्तर भी प्रायः जैसे के तैसे इसी प्रसंग मे प्रादिपुराण मे वाचना, पृच्छना, अनुलिए गये हैं।
प्रेक्षण, परिवर्तन और सद्धर्मदेशन इनको ज्ञानभावना इस प्रकार परिकर्म की प्ररूपणा के बाद यहां ध्याता कहा गया है। ध्यानशतककार ने इन्हे धर्मध्यान के का लक्षण, ध्येय, ध्यान और फल; इन चार के कहने की मालम्बनरूप से ग्रहण किया है। प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार प्रागे क्रम से उनकी दिखलाते हुए ध्यानशतक मे यह कहा गया है कि जान प्ररूपणा भी की गई है।
विषय में किया जाने वाला नित्य अभ्यास मन के धारण ध्येय की प्ररूपणा के बाद ध्यान का कथन करते हुए -अशुभ ब्यापार से रोककर उसके प्रवस्थान-को तथा यहां यह कहा गया है कि एक वस्तुविषयक प्रशस्त प्रणि- सूत्र व पर्थ की विशुद्धि को भी करता है। जिसने ज्ञान के धान का नाम ध्यान है, जो धर्म्य पौर शुक्ल के भेद से दो प्राश्रय से जीव-जीवादि सम्बन्धी गुणो की यथार्थता को प्रकार का है। यह प्रशस्त प्रणिधानरूप ध्यान मुक्ति का जान लिया है वह अतिशय स्थिरबुद्धि होकर ध्यान करता कारण है। यह कथन यद्यपि सामान्य ध्यान के पाश्रय से किया
धर्मध्यान गया है, फिर भी जैसा कि पाठक ऊपर देख चुके है, ध्यानशतक मे धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए उस उसमे जो देश, काल और प्रासन प्रादि की प्ररूपणा की पर पारूढ़ होने के पूर्व मुनि को किन-किन बातों का
वह ध्यानशतक के धर्मध्यान प्रकरण से काफी जान लेना आवश्यक है, इसका निर्देश करते हुए इन बारह प्रभावित है।
अधिकारो की सूचना की गई है-१ भावना, २ देश, पूर्वोक्त ध्याता की प्ररूपणा में यहा यह कहा गया है ३ काल, ४ पासनविशेष, ५ मालम्बन, ६ कम या. कि जिन ज्ञान-वैराग्य भावनाओं का पूर्व मे कभी चिन्तन तव्य, ८ ध्याता, ६ अनुप्रेक्षा, १० लेश्या, ११ लिग और नहीं किया है उनका चिन्तन करने वाला मुनि ध्यान मे १२ फल ।
वे भावनाये ये है-ज्ञानभावना, दर्शन- इनमे से पादिपुराण में सामान्य ध्यान के परिकर्म के भाबना, चारित्रभाबना और वैराग्यभावना। इन चारों
३. प्रा. पु. २१, ६४-६६. १. जैसे-ध्याता ८५-१०३, ध्येय १०४-३१, ध्यान ४. प्रा. पु. २१-६६.
१३२, फल-धर्मध्यान १६२-६३, शुक्ल १८६. ५. ध्या. श. ४२. •रमा. पु. २१-१३२०
६. ध्या. श. ३१.
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प्राबिपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव
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प्रसंग में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। देश', जीवादि तत्वो और बी.समो एव वातबलयो पादि काल'.मासनविशेष' और पालम्बन' की प्ररूपणा की गई को चिन्तनीय कहा गया है। साथ ही वहां यह भी कहा है जो ध्यानशतक से बहुत कुछ प्रभावित है।
है कि जीव भेदों एवं उनके गुणों का चिन्तन करते ध्यातव्य की प्ररूपणा करते हा ध्यानशतक में ध्यान राज का जो प्रपने ही पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से ससारके विषयभूत (ध्येयभूत) प्राज्ञा, अपाय, विपाक और समुद्र में परिभ्रमण हो रहा है उसका तथा उससे पार द्रव्यों के लक्षण-संस्थानादि इन चार की प्ररूपणा की होने के उपाय का भी विचार करना चाहिए। तुलना के
रूप में निम्न गाथायें व श्लोक द्रष्टव्य हैध्यातव्य या ध्येय के भेद से जो धर्मध्यान के माज्ञा- खिह-वलय-दीक-सागर करय-विमाण-नपणाइसठाण । विचय, अपायविचय, विपाकविचय और सस्थानविचय ये
निययं लोगट्टिइविहाणं ॥ चार भेद निष्पन्न होते है उनकी प्ररूपणा आदिपुराण मे
ध्या. श. ५४. भी यथाक्रम से की गई है।
द्वीपाब्धि-बलयानद्रीन सरितश्च सरांसि च । ____ ध्यानशतक मे प्राज्ञा को विशेषता को प्रगट करते
विमान-भवन-व्यन्तरावास-नरकक्षितीः ॥ हुए जो अनेक विशेषण दिये गये है उनमें से अनादि
प्रा. पु. २१-१४६. निधना, भूतहिता, अमिता, अजिता (अजय्या) पोर
X महानुभावा; इन विशेषणों का उपयोग प्रादिपुराण में भी
तस्स य सकम्मजणिय जम्माइजल कसाय-पायालं। किया गया है।
वसणसय-सावयमणं मोहावत्त महाभीम ।। ध्यातव्य के चतुर्थ नद (सस्थान) की प्ररूपणा करते
ध्या. श. ५६. हए ध्यानशतक में द्रव्यो के लक्षण, सस्थान, भासन
तेषां स्वकृतकर्मानुभावोत्थमतिदुस्तरम् । (माधार), विधान (भेद) और मान (प्रमाण) को तथा
भवाब्धि व्यसनावतं दोष-यादःकुलाकुलम् ॥ उत्पादादि पर्यायों के साथ पचास्तिकायस्वरूप लोक, तद्
प्रा. पु. २१-१५२. गत पृथिवियों, वातवलयो एव द्वीप-समुद्रादिकों को चिन्त
x नीय (ध्येय) बतलाया है। इसके अतिरिक्त उपयोगादि
कि बहुणा सव्वं चिय जीवाइपयस्थ वित्थरोपेयं । स्वरूप जीव व उसके कर्मजनित ससाररूप समुद्र को
सवनयसमूहमयं माएज्जा समयसम्भाव।। दिखलाते हुए उससे पार होने के उपाय का भी विचार
ध्या. श. ६२. करने की प्रेरणा की गई है।
किमत्र बहुनोक्तेन सर्वोऽप्यागमविस्तरः। इसी प्रकार प्रादिपुराण में भी संस्थानविचय नामक
नयभङ्गशताकीर्णो ध्येयोऽध्यात्मविशुद्धये ॥ चतुर्थ धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए लोक के प्राकार,
मागे प्रादिपुराण मे उक्त धर्मध्यान के काल व स्वामी १. मा. पु. २१, ५७-५८ व ७६.८०.
का निर्देश करते हुए कहा गया है कि उसका प्रवस्थान २. वही २१, २१-८३.
अन्तर्मुहूर्त काल रहता है तथा वह अप्रमत्त दशा का ३. वही २१,५६-७५.
मालम्बन लेकर अप्रमतों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होता ४. वही २१.८७
है। इसके अतिरिक्त उसकी स्थिति मागमपरम्परा के ५. ध्या. श.-प्राज्ञा ४५.४६, अपाय ५०, कर्मविपाक
अनुसार सम्यग्दृष्टियो मे और शेष सयतासंयत व प्रमत्त५१, संस्थान ५२-६०.
संयतों में भी जानना चाहिए। साथ ही उसे प्रकृष्ट शुद्धि ६. प्रा. पु.-प्राज्ञा २१, १३५.४१, अपाय १४१-४२,
को प्राप्त तीन लेश्यामों से वृद्धिंगत बतलाया गया है। विपाक १४३.४७, सस्थान १४८.५४. ७. न्या. श. ४५-४६, मा.पु. २१,१३७-३८.
८. मा. पु. २१, १५५-५६.
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३८, वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
तदनन्तर यहाँ धर्म ध्यान से सम्बद्ध क्षायोपशमिक उठायी गई है कि धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के होता? भाव का निर्देश करते हुए उसके प्रभ्यन्तर और बाह्य इसका निराकरण करते हुए वहां यह कहा गया है कि चिहों की सूचना की गई है। फल इसका पाप कर्मों की ऐसा मानने पर इससे पूर्व के प्रसंयतसम्यग्दृष्टि, संयता. निर्जरा और पूण्योदय से देवसुख की प्राप्ति बतलाया संयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानों में उसके प्रभाव का गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि उसका प्रसंग प्राप्त होगा। भागे पुनः यह दूसरी शंका उठायी साक्षात् फल स्वर्ग की प्राप्ति और पारम्परित मोक्ष की गयी है कि वह उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में प्राप्ति है। इस ध्यान से च्युत होने पर मुनि को अनु- होता है ? इसका भी निराकरण करते हुए वहां कहा प्रेक्षामों के साथ भावनामों का चिन्तन करना चाहिए, गया है कि यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर जिससे संसार का प्रभाव किया जा सके।
उक्त दोनों गुणस्थानों में जो शुक्लध्यान होता है उसके
उक्त दोनों ध्यानशतक मे जिन १२ अधिकारो के द्वारा धर्म. मभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। यदि इन दोनों गुणस्थानो मे ध्यान की प्ररूपणा की गई है उनमे धर्मध्यान के स्वामी, वयं मोर शुक्ल इन दोनों ही ध्यानों को स्वीकार किया लेश्या और फल प्रादि का विवेचन यथावसर किया ही जाय तो यह उचित नहीं होगा, क्योकि पार्ष (भागम) गया है। स्वामी के विषय में प्रकृत दोनों ग्रन्थों में कुछ में धर्म्यध्यान को उपशम मोर क्षपक इन दोनों ही श्रेणियो मतभेद दृष्टिगोचर होता है । यथा
में नहीं माना गया है तथा उसे वहाँ पूर्व के प्रसयतसम्यध्यानशतक मे धर्मध्यान के ध्याता कौन होते है, राष्ट मादि गुणस्थाना म स्वाकार किया गया ह। वह इसका विचार करते हुए कहा गया है कि सब प्रमादो से पार्ष कोनसा रहा है, यह यहाँ स्पष्ट नहीं है। रहित मुनि तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह उसके
शुक्लध्यान ध्याता कहे गये है। उपशान्तमोह मोर क्षीणमोह का शुक्लध्यान का निरूपण करते हुए प्रादिपुराण में अर्थ हरिभद्रसूरि ने उसकी टीका मे उपशामक निर्ग्रन्थ उसके माम्नाय के अनुसार शुक्ल और परमशुक्ल ये दो मौर क्षपक निम्रन्थ किया है। अभिप्राय यह प्रतीत होता भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें छपस्थों के शुक्ल और है कि वह धर्मध्यान सातवें अप्रमत्तसयत गुणस्थान से केवलियों के परमशुक्ल कहा गया है। इन भेदों का बारहवे क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है।
संकेत ध्यानशतक में भी उपलब्ध होता है, पर वहां परम परन्तु आदिपुराण मे, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका शुक्ल से समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नाम का चतुर्थ शुक्ल है, उक्त धर्मध्यान के स्वामित्व का विचार करते हुए उसे ध्यान ही प्रभीष्ट रहा दिखता है। चोथे असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवे अप्रमत्तसयत प्रागे दोनों प्रन्थों मे जो शुक्लध्यान के पृथक्त्व. गुणस्थान तक ही बतलाया गया है।
बितर्क सविचार प्रादि चार भेदों का निरूपण किया गया यह मान्यता तत्त्वार्थवार्तिक का अनुसरण करने वाली है सह बहुत कुछ समानता रखता है। है, तत्त्वार्थवार्तिककार के सामने यह पूर्वोक्त मान्यता रही ध्यानशतक मे शुक्लध्यानविषयक क्रम का निरूपण है कि वह धर्मध्यान प्रप्रमत्तसंयत के तथा उपशान्तमोह करते हए एक उदाहरण यह दिया गया है कि जिस प्रकार मोर क्षीणमोह के होता है। इसीलिए वहां यह शंका सब शरीर में व्याप्त विष को मन्त्र के द्वारा क्रम से हीन १. प्रा. पु. २१, १५७-६४.
करते हुए डकस्थान में रोक दिया जाता है और २. ध्या. श. ६३.
तत्पश्चात् प्रधानतर मन्त्र के योग से उसे डक से भो ३. मा. पु. २१, १५५-५६.
हटा दिया जाता है, उसी प्रकार तीनों लोकों को विषय ४. पाजामाय-विपाक-सस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंय- ५. त. वा. ६, ३६, १३-१५. तस्य । उपशाम्त-क्षीणकषाययोश्च ।
६. प्रा. पु. २१-१६७. त. सू. (श्वे.) ६, ३७-३८. ७. ध्या. श. ८६.
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प्राविपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव
३६
करने वाले मन को ध्यान के बल से क्रमशः हीन करते यद्वद वाताहताः सद्यो बिलीयन्ते धनाधनाः । हुए उसे परमाणु में रोका जाता है और तत्पश्चात् जिन
तस्कर्म-धना यान्ति लयं ध्यानानिलाहताः ॥ रूप वैद्य उसे उस परमाणु से भी हटा कर मन से सर्वथा
पा, पु. २१.२१३ रहित हो जाते हैं।
इस प्रकार दोनों ग्रन्थों को ध्यानविषयक वर्णनशैली ___यही उदाहरण कुछ भिन्न प्रकार से प्रादिपुराण में तथा शब्द, प्रथं पोर भाव की समानता को देखते हुए इसमे भी दिया गया है। यथा-वहां कहा गया है कि जिस सन्देह नहीं रहता कि प्रादिपुराण के अन्तर्गत वह ध्यान प्रकार सब शरीर में व्याप्त विष को मन्त्र के सामर्थ से का वर्णन ध्यानशतक से अत्यधिक प्रभावित है। यहां इस खींचा जाता है उसी प्रकार समस्त कर्मरूपी विष को शका के लिय कोई स्थान नहीं है कि सम्भव है प्रादिध्यान के सामर्थ्य से पृथक किया जाता है।
पुराण का ही प्रभाव ध्यानशतक पर रहा हो। इसका एक अन्य उदाहरण मेघों का भी दोनों ग्रन्थों मे दिया कारण यह है कि ध्यानशतक पर हरिभद्र सूरि द्वारा एक गया है, जिसमें पूर्णतया समानता है । यथा
टीका लिखी गई है, अतः ध्यानशतक की रचना निश्चित जह वा घणसंघाया खणेण पक्षणाहया विलिज्जति । ही हरिभद्र के पूर्व में हो चुकी है तथा टीकाकार हरिभद्र शाणपवणावहूया तह कम्मघणा विलिग्जति ॥ सूरि निश्चित ही प्राचार्य जिनसेन के पूर्ववर्ती हैं। इससे
ध्या. श. १०२ यही समझना चाहिए कि प्रादिपुराण के रचयिता
जिनसेन स्वामी के समक्ष प्रकृत ध्यानशतक रहा है और १. ध्या. श. ७१.
उन्होंने उसमे ध्यान का वर्णन करते हुए उसका पूरा उप२. प्रा. पु २१.२१४ ।
योग भी किया है।
बुद्धिमान् पुरुषार्थी
त्यजति न विधानः कार्यमुद्विज्य धोमान्, खलजनपरिवृत्तेः स्पर्धते किन्तु तेन । किमु न वितनुतेऽर्कः पद्मबोधं प्रबुद्ध
स्तदपहृतिविधायी शोतरश्मिर्यदोह ॥ बुद्धिमान् पुरुषार्थी प्रारम्भ किये हुए कार्य को दुष्टजन की प्रवृत्ति से उद्वेग को प्राप्त होकर छोड़ नहीं देता, किन्तु उससे स्पर्धा करता है-दिखाये गये दोषों से दूर रह क उसे पूरा करने का ही प्रयत्न करता है। सो उचित ही है-सूर्य के द्वारा विकसित किये गये कमलों को यद्यपि चन्द्रस्मा मुकुलित किया करता है, फिर भी उससे खिन्न न होकर सूर्य पुनः उदय को प्राप्त होता हुमा उन्हें विकसित करता है।
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द्रोणगिरि-क्षेत्र
पं० बलभद्र जी न्यायतीर्थ
स्थिति और मार्ग-द्रोणगिरि मध्यप्रदेश के छर- अर्थात् फलहोडी बड़गांव के पश्चिम मे द्रोणगिरि पुर जिले मे विजावर तहमील में स्थित है। द्रोण- पर्वत है। उसके शिखर से गुरुदत्त प्रादि मुनिराज निवाण गिरि क्षेत्र पर्वत पर है। वहाँ पहुँचने के लिए २३२ को प्राप्त हुए। उन्हें मै नमस्कार करता हूँ। सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। सीढ़ियाँ पक्की बनी हुई सस्कृत निर्वाणभक्ति में केवल क्षेत्र का नाम द्रोणीहैं। पर्वत की तलहटी में सेंधपा नामक छोटा-सा गाँव मान दिया है। उसका कोई परिचय अथवा वहाँ से मुक्त है। यहाँ पहुँचने के लिए सेण्ट्रल रेलवे के सागर या होने बाले मुनि का नाम नहीं दिया है। हरपालपुर स्टेशन पर उतरना चाहिए । सुविधा निर्वाणकाण्ड मे द्रोणगिरि की पूर्व दिशा में जिस नुसार मऊ , महोबा या सतना भी उतर सकते हैं। फलहोडी बडगाव का उल्लेख किया है, वह गाँव प्राजकल प्रत्येक स्टेशन से क्षेत्र लगभग १००कि०मी० पडता है। नही मिलता है। इसके निकट सेघपा ग्राम है, जिसका सभी स्थानों से पक्की सडक है। कानपुर-मागर रोड कोई उल्लेख नही है। सम्भव है, यहां प्राचीन काल में प्रथा छतरपुर-सागर रोड पर मलहरा ग्राम है । मनहरा फलहोडी बडगांव रहा हो और वह किसी कारणवश नष्ट से द्रोणगिरि ७ कि. मी. है। पक्की सडक है। सागर
हो गया हो। वास्तव में सेंधपा गाँव विशेष प्राचीन प्रतीत स्टेशन से मलहरा तक बसें चलती हैं। यदि पूरी बस की
नही होता। कहा तो यह जाता है कि जिस भूमि पर यह सवारी हों तो बस क्षेत्र तक चली जाती है। अन्यथा
ग्राम वसा हुआ है वह निकटवर्ती ग्राम की श्मशान भूमि नियमित बसों द्वारा मलहरा पहुँच कर वहां से बैलगाड़ी
थी। वैसे अब भी यहाँ फिसी ग्राम के अवशेष प्राप्त होते द्वारा जा सकते हैं।
हैं और उन अवशेषों मे सैकडों खण्डित जैन मूर्तियां भी सेंधपा ग्राम कठिन और श्यामला नामक नदियों के
विखरी पड़ी है । जनेतर लोग अनेक जैन मूर्तियों को यहाँ बीच बसा हुमा है। निरन्तर प्रवाहित रहने वाली इन
से ले गये हैं और उन्हें जगह-जगह चबूतरो पर विराजनदियों ने इस स्थान की प्राकृतिक सुन्दरता को अत्यन्त
मान करके विभिन्न देवी-देवतानों के नाम से पूजते हैं। माहाददायक बना दिया है। ग्राम में जाते ही मन में
पर्वत की तलहटी में एक प्राचीन जैन चैत्यालय अब भी शान्ति अनुभव होने लगती है। ग्राम से सटा हुमा द्रोण
खडा हुया है, जिसे लोग बंगला कहते हैं। यदि यहाँ गिरि पर्वत है। यहां प्रकृति ने तपोभूमि के उपयुक्त
खुदाई की जाय तो यहां पर पुरातत्त्व की विपुल सामग्री सुषमा का समस्त कोष सुलभ कर दिया है। मघन वृक्षा.
मिलने की सम्भावना है। बली, निर्जन-प्रदेश, वन्य पशु, चन्द्रभागा नदी, पर्वत से
निर्वाणकाण्ड के इल्लेख से यह ज्ञात होता है कि झरते हुए निर्भर से वने दो निर्मल कुण्ड; ये सभी मिल
यहाँ खे न केवल गुरुदत्त मुनि ही मोक्ष पधारे है, अपितु कर इसे तपोभूमि बनाते हैं।
अन्य मुनि भी मुक्त हुए है। वास्तव में तपोभूमि के निर्वाणभूमि-द्रोणगिरि निर्वाण-क्षेत्र है। प्राकृत - निर्वाणकाण्ड मे इस म न मोल १. द्रोणीमति प्रबलकुण्डलमेण्ढ़ के च,
वंभारपर्वततले वरसिद्धकूटे । फलहोडी बडगामे पच्छिमभायम्मि दोणगिरिसिहरे । ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि बलाहके च, गुरुदत्तादिमुणिदा णिवाण गया णमो तेसि ।। विन्ध्ये च पोदनपुरे वषदीपके च ॥२६
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होगगिरि-क्षेत्र
उपयुक्त रमणीयता को देखते हुए प्राचीन काल में यहाँ पर्सन जिसमें घास-फूस भरी हो और उसका मुख नीचे तपस्या के लिए प्राना अधिक सम्भव था और अनेक को प्रोर हो तथा उसके चारों प्रोर भग्नि लगी हो। मुनियों का यहां से निर्वाण प्रगत वरना भी असम्भव अग्नि लगने पर जिस प्रकार भीतर का घास-फूस जलने नहीं था।
लगता है, उसी प्रकार द्रोणिमान् पर्वत के ऊपर गुरुदान द्रोणगिरि नामक एक पर्वत ऋषिकेश से नीली घाटी मुनिराज भी जलकर मुक्त हुए । की मोर जाते हुए १६६ मील दूर जुम्मा से दिखाई पड़ता इसी प्रकार अन्यत्र भी इस घटना का उल्लेख इस है। यह कुमायं में है। इसे दून गिरि भी कहते हैं। प्रकार किया गया हैकिन्तु इस पर्वत के निकट फलहोड़ी नामक कोई ग्राम वास्तव्यो हास्तिने घरो द्रोणीमति महोपरे । कभी रहा था, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते। प्रनयह द्रोण- गुरुदत्तो यतिः स्वार्थ जमाहानलवेष्टितः॥ गिरि गुरुदत्त मादि मुनियों की तपोभूमि रहा हो, ऐसी मर्थात् हस्तिनापुर के निवासी गुरुदत मुनि मे द्रोणीसम्भावना प्रतीत नहीं होती। इतना अवश्य है कि हिन्दू मान पर्वत पर अग्नि लगने से प्रास्मा के प्रयोजन (वय) परम्परा में बाल्मीकि तथा तुलसीकृत रामायणों में लक्ष्मण को सिद्ध किया। के शक्ति लगने पर हनुमान द्वारा जिस द्रोणगिरि पर्वत से पौराणिक माश्याम-भगवती-पाराधना मोर मारासंजीवनी बूटी लाने के उल्लेख मिलते हैं, वह द्रोणगिरि
उल्लख मिलत है, वह दाणागार घनासार नामक शास्त्रों में द्रोणगिरि पर्वत पर गुरुदत हिमालय श्रृंखला में स्थित यही द्रोणगिरि था, ऐसी मुनिराज के ऊपर हुए जिस उपसर्ग की मोर संकेत किया मान्यता प्रचलित है। हिन्दु मान्यता के अनुसार विष्णु ने . उमके सम्बन्ध में हरिषेणकृत कथाकोष में विस्तृत कूर्मावतार यहीं लिया था। कुछ विद्वानों की मान्यता है कथानक दिया गया है जो इस प्रकार हैकि वर्तमान संघपा ग्राम के निकटस्थ द्रोणगिरि ही वह
वह श्रावस्ती नगरी का शासक उपरिचर पद्मावती, पर्वत है, जहाँ से हनुमान संजीवनी बूटी ले गये थे। इन समितप्रमा. सप्रभा और प्रभावती नामक चारो रानिया क विद्वानों की धारणा है कि श्री रामचन्द्र वनवास के
साथ प्रमदवन में बिहार के लिए गया। ये जब सुदर्शन समय मोरछा भी पधारे थे। इसके निकट 'रमन्ना' बावडी मे क्रीडा कर रहे थे, तभी विद्युदंष्ट्र नामक एक (रामारण्य' बन मे ठहरे थे और उस समय वे द्रोणगिरि HRITEर अपनी पत्नी मदनवेगा के साथ विमान पर्वत पर भी माये थे।
प्राकाश में जा रहा था। विद्याधरी जल-क्रीड़ा करते हुए प्राचीन शास्त्रों में द्रोणगिरि का उल्लेख-निर्वाण- राजा और रानियों को देखकर बालाकाण्ड और निर्वाण भक्ति के प्रतिरिक्त द्रोणगिरि या जो अपने पति के साथ जल-क्रीड़ा में भी द्रोणिमान् पर्वत का उल्लेख भगवती-माराधना, भाराधना- के मुख से अन्य पुरुष को प्रशसा सुन
सपना के मुख से अन्य पुरुष की प्रशंसा सुनकर विद्याधर को सार, पाराधनाकथाकोष, हरिषेणकथाकोष प्रादि ग्रन्थों में
काम बड़ा बुरा लगा। गुस्से के मारे वह विमान को लौटा से भी पाया है। भगवती-माराधना में प्राचार्य शिवकोटि मापौर प्रपनी पत्नी को अपने घर छोड़कर वह पुनः इस प्रकार वर्णन करते हैं
उसी बावड़ी के पास माया भोर एक बड़ी मारी शिला हत्थिणपुरगुरुदत्तो सम्मलियाली व दोणिमंतम्मि। से बावडी को ढक दिया। इससे दम घुटकर पाना
उज्झतो अधियासिय पडिवण्णो उत्तम अट्र ॥१५५२॥ मर गये। राजा क्रोध में मरकर सांप बना तथा चारा अर्थात् हस्तिनापुर के निवासी गुरुदत्त मुनिराज द्रोणिमान् रानियां सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्वर्ग में देवियाँ बनी। पर्वत के ऊपर संबलियाली के समान जलते हुए उत्तम वहां प्रवधिज्ञान से पूर्व भव का वृत्तान्त जानकर अपने पूर्व अर्थ को प्राप्त हए । संबलिथाली का अर्थ है-एक भव के पति के जीव को सम्बोषन करने भाई। तभा उस
राजा का पुत्र मनन्तवीर्य उस वन में विहार करने माया। १. Geographical Dictionary of ancient India
वहां उसने एक शिलातल पर विराजमान प्राषिशानी byNandalal Day.
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४२, अनेकान्त वर्ष २६ कि..
सागरसेन नामक मुनिराज को देखा । राजा प्रनम्तवीयं पूर्वोत्तर दिशा में स्थित चन्द्रपुरी नगरीके राजा चन्द्रकीर्ति उनके निकट प्राया और दर्शन वन्दन करके उनके पास बंठ से उसकी छोटी कन्या अभयमती मांगी। किन्तु राजा ने गया। उसने मुनिराज से प्रश्न किपा-भगवन् ! मेरे अपनी कन्या का विवाह गुरुदत्त के साथ करने से इन्कार पिता मरकर किस गति में उत्पन्न हुए हैं ? मुनिराज कर दिया। इससे रुष्ट होकर गुरुदत्त ने चन्द्रकीति पर बोले-वापी में जब तेरा पिता रानियों के साथ जल
प्राक्रमण कर दिया। पन्त में चन्द्रकीर्ति को बाध्य होकर क्रीडा कर रहा था, तभी विद्युदंष्ट्र विद्याधर ने शिला से
अपनी पुत्री का विवाह गुरुदत्त के साथ करना पड़ा। वापी को ढक दिया, जिससे मरकर वह वहीं निकट ही गुरुदत्त कुछ समय वहीं ठहर गया। सांप हुमा है। तू जा पोर उससे कहना-'उपरिचर' तू
एक दिन ग्राम के कुछ लोग गुरुदत्त नरेश के पास साधू के निकट जा। तेरी बात सुनकर वह बिल से बाहर माये और हाथ जोड़कर कहने लगे-"देव ! द्रोणीमान् निकलकर धर्म ग्रहण करेगा।
पर्वत पर एक व्याघ्र ने बड़ा उत्पात कर रखा है। उसने मुनिराज के वचन सुनकर राजा मनम्तवीयं बिल के
हमारे न केवल गोकुल को, भपितु कई मनुष्यो को भी खा निकट आकर मुनिराज के कहे अनुसार बोला। उसकी
लिया है। पाप हमारी रक्षा करें।" प्रजा की करुण बात सुनकर वह सर्प मुनिराज के समीप गया। मुनि ने
पुकार सुनकर राजा गुरुदत्त संनिकों को लेकर द्रोणीमान उसे उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सर्प को जाति-स्मरण
पर्वत पर पहुँचा। सेना के कलकल शब्द से घबडाकर शाम हो गया। उसने अपनी मायु मल्प जानकर हृदय से
वह सिंह एक गुफा में घुस गया। उसके मारने का अन्य धर्म ग्रहण कर लिया और कुछ दिनों बाद अनशन करते
कोई उपाय न देखकर सैनिकों ने गुफा में ईधन इकट्ठा हुए उसकी मृत्यु हो गई। शुभ भावो से मरकर वह
करके उसमें भाग लगा दी। सिंह धुएं और प्राग के नागकुमार जाति का देव हुमा । प्रवधिज्ञान से अपने पूर्व
कारण उसी गुफामें मर गया और मरकर चन्द्रपुरी मे भवभव जानकर वह देव अनन्तवीर्य के पास पाया। देव के वचन सुनकर मनन्तवीर्य को वैराग्य हो गया। वह अपने
धर्म नामक ब्राह्मण के घर में कपिल नामक पुत्र हुमा । सुवासु नामक पुत्र को राज्य देकर सागरसेन मुनि के राजा गुरुदत्त अपनी पत्नी को लेकर सैनिकों के साथ समीप निर्गन्य मुनि बन गया और घोर तपस्या दारा हस्तिनापुर लोट माया पौर राज्य शासन करने लगा। कर्मों का नाश करके मुक्त परमात्मा बन गया। एक बार सात सौ मुनियों के साथ प्राचार्य श्रुतसागर
नागकुमार देव सुमेरु पर्वत मादि पर जाकर जिनालयों नगर के निकट पधारे। उनके उपदेश को सुनकर राजा कीaaaavaran हिसार और रानी दीनों ने दीक्षा ले ली। एक दिन मुनि गुरुदत्त हुए उसे विद्युद्दष्ट्र विद्याधर दिखाई पड़ा। पूर्वजन्म की विहार करते हुए द्रोणीमान् पर्वत के निकटस्थ चन्द्रपुरी घटना का स्मरण पाते ही उसे भयायक कोष माया पौर नगरी के बाहर ध्यान लगाये खड़े थे। कपिल अपनी उसे मय स्त्री के समुद्र में ले जाकर वो दिया। विद्यद. स्त्री से मध्याह्न बेला में भोजन के लिए कहकर खेत दंष्ट्र प्रशभ परिणामों से मरकर प्रथम नरक में नारकी जोतने चला गया। उसी खेत में गुरुदत्त मुनि ध्यानारूढ़ बना । वहाँ से पायु पूर्ण होने पर वह द्रोणगिरि पर सिंह थे। वह खेत पानी से भरा होने के कारण जोतने लायक हमा।
नहीं था। प्रतः वह दूसरे खेत को जोतने चला गया । नागकुमार मरकर हस्तिनापुर-नरेश विजयदत्त की पौर मुनि से कहता गया कि 'स्त्री भोजन लेकर प्रावेगी, विजया रानी से गुरुदत्त नामक पुत्र हमा। जब वह यौवन उसमे कह देना कि मैं दूसरे खेत पर गया है।' उसकी प्रवस्था को प्राप्त हुमा तो पिता गुरुदत्त का राज्याभिषेक स्त्री मध्याह्न में भोजन लेकर पाई मौर वहाँ पति को करके मुनि बन गये। गुरुदत्त मानन्दपूर्वक राज्य शासन न पाकर उसने मुनि से पूछा। किन्तु मुनि ने कोई उत्तर करने लगा। एक बार उसने लाटदेश में द्रोणागिरि को नहीं दिया तो वह घर लौट गई।
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ड्रोन विरि-यक्षेत्र
सन्ध्या तक कपिल भूखा रहा। भूख के मारे गुस्से में मरा हुआ वह घर लौटा और धरनी स्त्री को डाटते हुए कहने लगा- 'दुष्टे ! तुझसे रोटी लाने को कह गया था। तू फिर भी रोटी नहीं लाई । मैं सारे दिन भूखा मरता रहा ।' स्त्री भयाक्रान्त होकर बोली- "मैं तो रोटी लेकर गई थी, किन्तु तुम वहाँ मिले ही नहीं। मैंने वहाँ लड़े नंगे बाबा से भी पूछा, लेकिन उसने भी कोई जवाब नहीं दिया तो मैं क्या करती, लोट प्राई
स्त्री की बात सुनकर प्रज्ञ कपिल को साधु पर क्रोध श्राया और विचारने लगा-सारा दोष उस साधु का है। उसी के कारण मुझे भूखा रहना पड़ा। धतः उसे इसका पाठ पढ़ाना चाहिए। यह विचार कर वह फटे-पुराने कपड़े, तेल और भाग लेकर फिर खेत में पहुँचा। उसने सिर से पैर तक मुनिराज के शरीर पर विष लपेटकर मौर उन पर तेल छिड़क कर भाग लगा दी । प्राग लगते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा। किन्तु वे भात्म ध्यान में लीन थे। उन्हें बाह्य शरीर का लक्ष्य ही नहीं था । वे शुद्ध भावों में लीन रहकर शुक्ल ध्यान में पहुँच गये । तभी उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट हो गया । चारों निकाय के देव गुरुदत्त मुनिराज के केवलज्ञान की पूजा के लिए वहाँ आये। योगीश्वर गुरुदत्त का यह चमत्कार पर प्रभाव देखकर कपिल ब्राह्मण भय से कापता हुआ उनके चरणों में जा गिरा मोर क्षमा-याचना करने लगा। वीतराग भगवान् को न तो उसके अपराध पर रोष हो था और न उसकी क्षमा-याचना पर हर्ष वे तो रोष हर्ष धादि से ऊपर थे। फिर कपिल ने भगवान् केवली के मुख से उपदेश सुनकर जन्म-जन्मान्तरों का र त्याग कर उन्ही के चरणों में दीक्षा ले ली।
विचारणीय प्रश्न - इस कथानक में तीन बातें विचारणीय है । एक तो यह कि गुरुदत्त केवली किस स्थान से मुक्त हुए। इस कथानक में इस बात का कोई उल्लेख नही किया गया। दूसरी यह कि इस कथानक में द्रोणीमान या द्रोणगिरि को ठोनिमा पर्वत कहा है तथा उसका उल्लेख चन्द्रपुरी के सन्दर्भ में इस प्रकार किया गया है
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माटवेशामिषे देथे बादलोक घनान्विते । पूर्वोत्तरविद्याभागे तोणिमभूधरस्य च ॥ ब्रासीद्रपुरी रम्याकुल बहुलोमाको नान्यसमन्विता ।। - हरिषेण-कथाकोश, कथा १३६ श्लोक ४५-४६ । इसमें चन्द्रपुरी का वर्णन करते हुए उसे लाटदेश में और तोणिमान् पर्वत की पूर्वोत्तर दिशा (ईशानकोण) में बताया है। इससे ऐसा मामास मिलता है कि तोणिमान् पर्वत लाटदेश में था ।
इस कथानक से एक नया प्रश्न भी उभरता है। वह यह कि उनको केवलज्ञान भी द्रोणीमान् (तोणीमान्) पर्वत पर नहीं हुआ था, वह चन्द्रपुरी नगरी के बाहर खेतों में हुधा था ।
इन तीन प्रश्नों का समाधान मिलना त्या भगवती प्राराधना से उसका सामंजस्य स्थापित होना अत्यन्त मावश्यक है। भगवती धाराधना के धनुसार द्रोणिमान् पर्वत के ऊपर जलते हुए गुरुदत्त मुनि ने उत्तमार्थ प्राप्त किया। प्राराधनासार मे भी इसी प्राशय की पुष्टि की गई है। इसमें भी द्रोणीमान् पर्वत के ऊपर अग्नि लगने पर उन्होंने धारमप्रयोजन की सिद्धि बताई है। कथाकोश ग्रन्थो में द्रोणीमान् पर्वत के ऊपर तो उपसर्ग होने का प्राय: उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु उस पर्वत के निकट किसी स्थान पर यह भयंकर उपसर्ग हुमा, ऐसा प्रतीत होता है। निर्वाण-काण्ड मे द्रोणगिरि के शिखर से गुरुदत्त मुनि के निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख है। इसमें उपसर्ग होने का कोई उल्लेख नहीं किया गया। इससे स्पष्ट है कि उपसर्ग के तत्काल बाद ही गुरुदत को निर्वाण प्राप्त नहीं हुप्रा । उपसर्ग द्रोणगिरि पर नहीं हुआ। किन्तु उपसर्ग के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान हुआ घोर निर्वाण द्रोणगिरि पर हुम्रा भगवती द्वाराधना और द्वाराधनासार (मा. ५०) में उपसर्ग का उल्लेख करते हुए डोकीमा पर जिस प्रारमार्थ की प्राप्ति या प्रात्मप्रयोजन की सिद्धि का उल्लेख किया गया है, उससे भाषायों का अभिप्राय केवलज्ञान की प्राप्ति के ही है। जैसा कि कथाको ग्रन्थों से भो समर्थन प्राप्त होता है। हरिषेण कथाकोब में पन्द्रपुरी के निकट जिस स्थान पर यह घटना घटो वह लगता है,
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४, बर्ष २६ कि..
द्रोणगिरि के निकट ही था। इसलिए उसे द्रोणगिरि की जिसे सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्यता और जनता की रक्षा उपत्यका न लिखकर द्रोणगिरि ही लिख दिया। निर्वाण प्राप्त है वह तीर्थक्षेत्र तो है ही। विशेषतः उस स्थिति में काण्ड की स्पष्ट सूचना से हरिषेण कयाकोश की प्रधूरी जब कि किसी दूसरे द्रोणगिरि की सम्भावना प्रसिद्ध है। सूचना की पूर्ति हो जाती है। वह यह कि गुरुदत्त की प्रतः वर्तमान द्रोणगिरि ही सिद्धक्षेत्र है, यह मान लेना मुक्ति द्रोणगिरि पर हुई।
पड़ता है। अब सबसे अधिक विचारणीय समस्या रह जाती है
क्षेत्र-वर्शन-द्रोणगिरि की तलहटी में सेंधपा गांव कि द्रोणगिरि कहाँ पर था ? हरिषेण की सूचनानुसार वह
बसा हुमा है। गांव में एक मन्दिर है। जिसमें मादिनाथ लाटदेश में था। यदि तोणीमान को चन्द्रपुरी के निकट भगवान की मूलनायक भव्य प्रतिमा विराजमान है । यहीं न मानकर उससे अत्यधिक दूर खीचने का प्रयत्न करें तो दोमजिली दो जैन धर्मशालायें बनी हुई हैं । धर्मशाला से सहज ही प्रश्न उठ सकता है कि फिर द्रोणगिरि का दक्षिण की ओर दो फलांग दूर पर्वत है। पर्वत के दायें उल्लेख वहाँ करने की मावश्यकता क्या थी? मोर उस भोर बायें बाजू से कठिन मोर श्यामली नदियाँ सदा स्थिति में भगवती मारापना प्रादि ग्रन्थों के वर्णन की प्रवाहित रहती है । ऐसा प्रतीत होता है. मानो ये सदा. संगति किस प्रकार बैठाई जा सकेगी? एक कल्पना यह भी
नीरा पार्वत्य सरिताएं इस सिद्धक्षेत्र के चरणों को पखार हो सकती है कि तोणिमान् पर्वत द्रोणीमान् या द्रोणगिरिसे
रही हों । पर्वत विशेष ऊचा नही है। पर्वत पर जाने के
लिए २३२ पक्की सीढ़ियाँ बनी हुई है। चारों ओर वृक्षों, भिन्न था। किन्तु इस कल्पना के मानने पर गुरुदत्त मुनि दो
वनस्पतियो भौर लता-गुल्मो ने मिलकर क्षेत्र पर सौन्दर्यमानने पड़ेंगे। फिर तोणिमान् पर घटित घटना का उप
राशि विखेर दी है। योग द्रोणीमान् पर्वत के लिए नहीं हो सकेगा। इसलिए
पर्वत के ऊपर कुल २८ जिनालय बने हुए हैं । इनमें यह मानने से कोई हानि नही है कि द्रोणगिरि के कई नाम थे। उसे द्रोणगिरि के अतिरिक्त द्रोणाचल, द्रोणी
तिगोड़ा वालो का मन्दिर सबसे प्राचीन है। इसे ही बहा
मन्दिर कहा जाता है । इसमे भगवान मादिनाथ की एक मान् भोर तोणिमान् भी कहते हैं।
सातिशय प्रतिमा संवत् १५४६ की विराजमान है। किन्तु कठिनाई यह रह जाती है कि लाटदेश (गुज
सम्मेदशिखर जी के समान यहाँ पर भी चन्द्रप्रभ टोंक, रात) में किसी द्रोणगिरि के होने की कोई सूचना नहीं मादिनाथ टोंक प्रादि टोके हैं। यही १३ फुट ऊंची एक है। किसी प्राचीन स्थल-कोश से भी इसका समर्थन नहीं प्रतिमा का भी निर्माण हुप्रा है।। होता । बर्तमान मे जहाँ द्रोणगिरि (छतरपुर के निकट) अन्तिम मन्दिर पाश्र्वनाथ स्वामी का है। नीचे ३ माना जाता है, उसके निकट फसहोड़ी गांव का पता गज ऊँची १॥ गज चौड़ी और ४.५ गज लम्बी एक गुफा सरकारी कागजों से भी नही लगता। फलहोड़ी और बनी हई है। इस गुफा के सम्बन्ध में विचित्र प्रकार की फलीपी की किञ्चित् समानता के कारण फसहोड़ी की विविध किंवदन्तियां प्रचलित हैं। एक किंवदन्ती यह है कि पहचान फलोधी से करके उसको द्रोणगिरि के साथ सेंधपा गांव का रहने वाला एक भील प्रतिदिन इस गुफा सम्बद्ध करना, द्राविडी-प्राणायाम के अतिरिक्त कुछ भी में जाया करता था और कमल का एक सुन्दर फूल लाया नहीं है। किन्तु कुछ शताब्दियों से तो द्रोणमिरि (छतरपुर करता था। उसका कहना था कि गुफा के अन्त मे दीवाल के निकट वाला) तीर्थ क्षेत्र माना ही जाता रहा है। में एक छोटा छिद्र है। उसमें हाथ डालकर वह फूल तोड़ सम्भव है. वहाँ पर मन्दिर बनाने वालों को मान्यता- कर लाता था। उस छिद्र के दूसरी पोर एक विकास विषयक परम्परा का समर्थन मिला हो ।
जलाशय है। उसमें कमल खिले हुए हैं। वही पलोकिक सभी सम्भावनामों और फलितार्यों पर विचार करने प्रभा-पुंज है। बिलकुल इसी प्रकार की किवदन्ती मामी. के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि शताब्दियों से तुंगो क्षेत्र पर भी प्रचलित है।
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द्रोणगिरि-क्षेत्र
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एक दूसरी किंवदन्ती यह है कि यह गुफा १४-१५ नकल हुक्म दरबार विजावर इजलास जनाब येत. मील दूर भीमकुण्ड तक गई है।
माहगम मुंशी शंकरदयाल साहब दीवान रियासत मूसवते इन किंवदन्तियों में तथ्य कितना है, यह जानने का
दास जैन पचान सभा सेधपा जरिये दुलीचन्द वंशाप्रयत्न सम्भवतः माज तक नहीं हमा। क्षेत्र पर लगभग खिया प्रजना सरक्षक जैन सभा मारु जे १२भई मन १३ फुट ऊंचा ४॥ फुट मोटा वर्तुलाकार एक मानस्तम्भ
१९३१ ईसवीय दरख्वास्त फर्माये जाने हुक्म न खेलने बना हुमा है। स्तम्भ के मूल मे दो-दो इच की पद्मासन शिकार क्षेत्र द्रोणगिरि वा मौजा संघपा पर . मूर्तियां उत्कीर्ण है। तथा स्तम्भ के शीर्ष भाग मे तीन इसके कि विला इजाजत जन सभा दीगर कौम के लोग मोर सवा फुट ऊँची खड़गासन मूर्तियां हैं और एक प्रोर क्षेत्र मजकूर पर न जा सके हुक्मी ईजलास खास रकम पद्मासन मूर्ति विराजमान है। प्रत्येक मूनि के ऊपर दो जदे २५ मई सन् १९३१ ईसवीय ऐमाद कराये जाने दोपक्तियों में १२-१२ खड़गासन मूर्तियाँ बनी हुई हैं जो मुक्तहरी कोई शरूस वगैर इजाजत जैन सभा पर्वत पर न प्राय: तीन इंच ऊँची हैं। इन छोटी मूर्तियों में मनेक जाये न शिकार खेले। खण्डित हैं । कुल मूर्तियों की संख्या १०४ है । पर्वत की तलहटी से एक मील मागे जाने पर श्या
हक्म हुमा जरिये परचा मुहकमा जगल भ मुहकमा मली नदी का जलकुण्ड बना हुआ है, जिसे कुण्डी कहते
पुलिस के वास्ते तामील इत्तला दी जावे । तारीख २८ है। वहाँ दो जलकुण्ड पास-पास में बने हुए हैं, जिनमें एक शीतल जल का है और दूसरा उष्ण जल का
मई सन् १९३१ ई.।
. है। यहां चारों मोर हरं, बहेड़ा, प्रांवला पादि वनौष- इस फर्मान द्वारा द्रोणगिरि पर्वत पर जैन समाज धियों का बाहुल्य है। यहाँ का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त का पूरा अधिकार माना गया है तथा जन सभाको पाकर्षक है। इस वन में हरिण, नीलगाय, रोझ प्रादि प्राज्ञा के बिना शिकार खेलने पर पाबन्दी लगा दी गई है। बन्य पक्ष निर्भयतापूर्वक विचरण करते हैं। कभी-कभी शोकजनक घटनाएं-इस शताब्दी में क्षेत्र पर दो सिंह, तेंदुमा या रीछ भी घर जल पीने मा जाते हैं। प्रत्यन्त शोकजनक घटनाएं घटित हुई। एक तो वीर
क्षेत्र पर शिकार-निषेषका राजकीय प्रादेश-विजा- सम्बत् २४२० मे । इस समय एक चरवाहे ने पाश्वनाथ वर नरेश राजा भानुप्रताप (रियासतों के विलीनीकरण मन्दिर में प्रतिमा के हाथों के बीच में लाठी फंसाकर से पूर्व) के समय से इस तीथं पर शिकार मादि खेलना खण्डित कर दिया था। दूसरी घटना वीर सम्वत् २४५७ राज्य की पोर से निषिद्ध है। इससे सम्बन्धित फर्मान, के लगभग हुई। उस समय किसी ने पार्श्वनाथ स्वामी की जो राज्य दरबार से जारी किया गया था, इस प्रकार मूर्ति को नासिका से खण्डित कर दिया था। अपराधी
बाद में पकड़ा गया था मोर उसे दण्ड भी दिया गया था।
*
सुजनता का लक्षण हेत्वन्तरकृतोपेक्षे गुण-दोषप्रवर्तिते । स्यातामादान-हाने चेत् ताव सौजन्यलक्षणम् ॥
-वादीसिंह सत्पुरुष उसे समझना चाहिए जो अन्यान्य कारणों की उपेक्षा कर केवल गुणों के कारण वस्तु को ग्रहण करता है और दोषों के कारण उसे छोड़ता है।
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बहोरोवन्द प्रतिमा लेख
ग० कस्तूरचन्द 'सुमन'
१. स्वस्ति....... [व] दि [भौ] मे श्रीमद गयाकर्ण- सर्वघर हुए हैं। सर्वघर ताकिकों मे श्रेष्ठ श्रीमान् माधवदेव विजय रा
नन्दि से अनुगृहीत थे। सर्वधर का महाभोज नामक पुत्र २. ज्ये राष्ट्रकूट कुलोद्भव महासामंताधिपति श्रीमद- था। महाभोज ने धर्म, दान तथा प्रध्ययन मे रत रहकर गोल्हणदेवस्य प्रवर्द्धमानस्य ।।
इस शान्तिनाथ मन्दिर का निर्माण कराया था। श्रेष्ठी ३. श्रीमद गोल्लापूर्वाम्नाये वेल्लप्रभाटिकायामुरुकुला- विरुद से विभूषित सूत्रधार संजक ने सफेदी कर मन्दिर ___म्नाये तर्कतार्की (कि) चूडामणि श्रीम
का सौन्दर्य बढ़ाया । चन्द्रकराचार्याम्नाय के (देशीगण मे ४. पाषवनंदिनानुगृहि(ही)त: तस्साधु श्री स(व) मे उत्पन्न) भाचार्य सुभद्र द्वारा वदि ६ भोमवार
घर:] तस्य पुत्र[:]महा[भो] ज[:] धर्मदानाध्ययन- के दिन प्रतिष्ठा कराये जाने का उल्लेख है। श्री रतः [1] तेनेदं का
सुभद्र ने अपनी जित विद्या और विनय से विद्वानों ५. रितं रम्यं सां(शांतिनाथस्य मंदिरं (रम्) ॥ स्वलान्य. को मानन्दित किया था। प्रतिष्ठा वेरुलप्रभाटिका में
मसज्जक सूत्रधार [:] श्रे) स्टि (ष्टि) नामा [1] सम्पादित हुई ज्ञात होती है अथवा प्रतिष्ठा कराने वाले वितो(ता)न च महाश्वे
महाभोज वहां के निवासी थे। ६. तं निम्मितमतिसुंदर[रम्]। श्रीमच्चन्द्रकराचार्याम्नाय
मन्य: देसी (शी) ग [णा] न्वये समस्त विद्या विनये (या)
जबलपुर जिले में सिहोरा (तहसील) से १५ मील नंदित
दूर स्थित इस क्षेत्र के नाम के सम्बन्ध में मान्यता है कि जाना: प्रतिष्ठाचार्य श्रीमत सुभद्राश्चिरं पानी के लिए निमित बांधो की बहुलता के कारण इसे ___ जयंतु ॥
यह नाम दिया गया है। कनिंघम ने इसके समीपवर्ती [इन्स्क्रिप्शन्स माफ दि कलचुरि चेदि एरा जि. ४, भा.१ क्षत्र में ४५ बांधों का होना बताया है। प्रोज भी चारों
पृ. ३०६] पोर तालाब विद्यमान हैं। १. सवत १....फाल्गून वदि सोमे श्रीमद् गयाकर्ण- कनिषम ने बताया है कि यहाँ एक बहत बडा नगर देव विजय रा.
था। टूटी हुई इंटों तथा बर्तनों के ऊंचे स्थानों पर उप२. ज्ये राष्ट्रकूट कुलोद्भव महासामन्ताधिपति श्रीमद- लब्ध अवशेष इस तथ्य के साक्षी है। नगर का कोई परगोल्हण देवस्य प्रवर्द्धमानस्य
कोटा न था। कनिंघम ने इसका थोलावन नाम होने की ३. श्रीमद गोल्लपृथी.""मय...
सम्भावना भी अभिव्यक्त की है। नाम के दो शब्दों में शेष प्रपठनीय
थोला का अर्थ सम्भवतः थोड़ा और वन का अर्थ पानी [कनिंघम रिपोर्ट ६, पृ० ३६]
होता है । सम्भवत: थोड़ा पानी रहने के कारण इसे यह हिन्दी भावार्ष
संज्ञा दी गयी हो तथा बाद में प्रयत्न करने पर पानी श्रीमद गयाकर्णदेव के विजय राज्य में प्रवक्ष्मान बहुत मात्रा में प्राप्त हो जाने के कारण इसे बहवन कहा . राष्ट्रकूट कुल में उत्पन्न महासामन्ताधिपति गोल्हणदेव जाने लगा। पानी के बहुरने से भी बहोरीवन नाम रखा के शासनकाल में गोलापूर्व प्राम्नाय में उत्पन्न साधु जाना ज्ञात होता है। गांव में बहुरने का प्रयोग लौटने
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बहोरीबाट निया
प्र में होता है । श्रतः यह सम्भावना तर्कसंगत प्रतीत होती है।
: तिथि निर्णय :
प्रस्तुत लेख सर्वप्रथम श्री कनिंघम ने पढ़कर इस प्रोर अन्य विद्वानों को श्राकर्षित किया था। कनियम के बाद डा० भण्डारकर ने अभिलेख का भावार्थ प्रकाशित कराया था । लेख उन्होंने प्रपठनीय निर्देशित किया था। संवत् सूचक क श्री मिराशी जी भी नहीं समझ सके । उन्हें काल सूचक अंक-स्थल टूटा हुम्रा मिला था ।
श्री कनिंघम ने संवत् १० पढ़ा था । शासक गयाकर्णदेव का संवत् १०२ का एक लेख तेवर (जबलपुर) से मी मिला है। गयाकर्णदेव के पुत्र नरसिंहदेव संबंधी भेड़ाघाट से उपलब्ध सम्वत् ६०७ का तथा भरहुन से उपलब्ध सम्वत् २०६ का लेख भी उल्लेखनीय है ।
तेवर लेख के निम्न पद्य द्रष्टव्य हैगोविल राजचक जिगीषु राजोति देवः । तस्माद्यशः कर्णनरेस्वयंभूतस्यात्मजोऽयं देवः ||३|| प्राकल्प पृथिवों शास्तु श्रीगया कर्णपार्थिवः समतो नरसिंहेन युबराजेन सूनुना ॥ ४ ॥
1
इन पद्यों में गया कर्णदेव का नरसिंह नामक युवराज पुत्र बताया गया है। उसका अपने पिता के साथ शासन करना भी ज्ञात होता हैं। युवराज उल्लेख से गया कर्णदेव का वृद्धस्य भी सूचित है। अतः यह तेवर लेख गाणंदेव की वृद्धावस्था का कहा जा सकता है ।
बहोरो ले गयाकर्णदेव के प्रारम्भिक शासनकाल की सूचना देता है। तेवर, भितरी, भरहुन लेखों में कलचुरि सम्वत व्यवहृत हुधा है। किन्तु इस लेख में शक सम्वत् । शक सम्वत् १०२२ में यदि ईसवी और शक सम्वत् के अन्तर ७७ वर्ष ५ माह को जोड़ दिया जावे तो
४७
सम्वत् १०६६ वर्ष निश्चित होता है। तेवर लेख से यह लेख ५० वर्ष पूर्व का होने से इसे गयाकर्णदेव के प्रारम्भिक शासनकाल में प्रक्ति कराया जाना कहा जा सकता है ।
इस भांति यह लेख शक सम्वत् १०२२ या उससे कुछ ही पूर्व का निश्चित होता है। श्री मिराशी जी का यह कथन भी तवं संग है कि यह लेख या तो दसवीं शती के अन्त का है या ग्यारहवीं शती के प्रारम्भ का । इसमें विक्रम सम्वत् व्यवहुत नहीं हुआ है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो सम्वत् सूचक अक ११ या १२ प्रवश्य होते ।
: धन्य :
श्री कनिंघम को यह १२ फुट २ इंच ऊँची ३ फुट चौड़ी, सगासन मुद्रा में हरिण लाग्छन से युक्त शान्ति नाथ प्रतिमा एक पीपल के वृक्ष के नीचे मिली थी। प्रासन पर ७ पंक्ति का लेख है। सम्प्रति मन्दिर निर्मित हो रहा है।
मुनि कान्तिसागर ने लिखा है कि इस प्रतिमा को लोग 'खनुवादेव' कहकर लातों, जूतों और बुहारियों से पूजते थे ताकि डर के मारे ये सुविधायें देते रहें। प्रतिमा के दर्शनों से मनोकामनाएं भी पूर्ण हुई हैं। ईसवी १९६३ की क्षेत्रीय वार्षिक रिपोर्ट मे तहसीलदार ध्रुवदेवसिंह को पुत्ररत्न की उपलब्धि का उल्लेख है ।
बेलप्रभाटिका
प्रभिलेख में 'वेल्लप्रभाटिका' स्थान का उल्लेख प्राया हैं । यह स्थान बाकल से समीकृत किया जा सकता है । बाकल प्रथम तो गोल्लापूर्व प्राम्नाय के समृद्ध श्रावकों का मावास है । दूसरे बाकल क्षेत्र के समीप है। वहां से दिन में माना जाना सुविधापूर्वक सम्भव है ।
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साहित्य-समीक्षा
महावीर जयन्ती स्मारिका-प्रधान सम्पादक पं. ज्योफो एल० रुड (सेक्रेटरी इण्टर नेशनल वेजीटेरियन भंवरलाल पोल्याका जैनदर्शनाचार्य, साहित्यशास्त्री। यूनियन व द वेजीटेरियन सोसाइटी ग्रेट ब्रिटेन आदि)। प्रकाशक-रतनलाल छाबड़ा मन्त्री राजस्थान जैन सभा, इस समय विदेशों में शाकाहार का प्रचार बढ़ रहा है, जयपुर । मूल्य दो रुपया।
जब कि हमारे भारत की स्थिति उससे विपरीत हो रही
है। जो जीवनतत्त्व मांस में पाये जाते हैं उनसे कई गुने ____ कुछ वर्षों से महावीर जयन्ती के अवसर पर राजस्थान
वे गेहूं, चावल, दाल, शाक-सब्जियों एवं फलों में पाये जाते जैन सभा जयपुर की ओर से यह स्मारिका प्रति वर्ष
है। प्रस्तुत अंक में इसे कुछ तालिकाओं द्वारा प्रमाणित निकाली जा रही है। प्रस्तुत स्मारिका सन् १९७३ की भी किया गया है। स्वास्थ्यप्रद भोज्य पदार्थ कौन से हैं है। यह तीन खण्डों में विभक्त है। प्रथम खण्ड में ऐसे तथा भोजन कब और कितना करना चाहिए इत्यादि बातों लेखों का संकलन है जो अधिकारी विद्वानों के द्वारा धर्म, पर इस अंक में अच्छा प्रकाश डाला गया है। साथ ही दर्शन और समाज के सम्बन्ध में लिखे गये है। द्वितीय मांसाहारियों का स्वभाव कसा कर बन जाता है व बुद्धि खण्ड में कला और साहित्य से सम्बन्ध रखने वाले मह- रित रहती है. इसे भी अनेक लेखों द्वारा स्पष्ट किया त्वपूर्ण लेखो का चयन किया गया है। तीसरे खण्ड मे गया है। इंगलिश मे लिख गये लेखों का संग्रह है। स्मारिका में कछ स्वादलोलुपी अण्डों को विशेष स्बास्थ्यप्रद बतमहावीर जयन्ती समारोह से सम्बन्धित चित्रों के अति
लाते है । पर उनके प्रयोग से कितने रोग हो सकते हैं, रिक्त कितने ही मन्दिर एव मूर्तियो आदि के चित्र भी दे
इसे डा० सरयू देवी लोमा के द्वारा लिखे गये 'शाकाहारी दिये गये है। लेख सभी उपयोगी व पठनीय है। राज
भोजन और प्राकृतिक चिकित्सा' शीर्षक लेख (पृ. २३४ स्थान जैन सभा जयपुर का यह कार्य स्तुत्य है। इस
से २३७) मे बहुत कुछ स्पष्ट किया गया है । लेख में उन महत्वपूर्ण प्रकाशन के लिए प्रधान सम्पादक, सम्पादक
विदेशी डाक्टरों का नामोल्लेख भी किया गया है जिन्होंने मण्डल एवं प्रकाशक आदि को विशेष धन्यवाद देना
खोजकर यह प्रमाणित किया है कि अण्डों के प्रयोग से चाहिए।
अनेक रोग होते है। 'जंन जगत का माहार विशेषांक-सम्पादक-रिषभ- प्रस्तुत "आहार-विशेषांक" के प्रगट करने के लिए दास रांका, प्रकाशक-~भारत जैन महामण्डल, १५ ए सम्पादक व प्रकाशक प्रादि का विशेष आभार मानना हानिमन सर्कल, फोर्ट, बम्बई-१।।
चाहिए। प्रस्तुत विशेषांक में आहारविषयक लगभग ५०-६० राजस्थान के जैन शास्त्रभण्डारों की अन्ध-सूची पंचम लेख संग्रहीत है। वर्तमान में जो मांसाहार का प्रचार भाग-सम्पादक-डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए., उत्तरोत्तर बढ़ रहा है उसे देखते हुए ऐसे विशेषांक की पी-एच. डी. व पं० अनूपचन्द न्यायतीर्थ साहित्यरत्न । बहुत आवश्यकता थी। विशेषांक मे ऐसे कितने ही लख है प्रकाशक-प्रबन्धकारिणी कमेटी दि० जैन प्र० क्षेत्र श्रीजो मांसाहार से होने वाली हानियों का दिग्दर्शन कराते हुए महावीरजी। बड़ा भाकार, पृष्ठ संख्या ४+१३८६, शाकाहार को स्वास्थ्यप्रद प्रमाणित करते हैं। उनमें कुछ मूल्य ४०) । लेख बिदेशी विद्वान् डाक्टरों के द्वारा लिखे गये है-जैसे प्रस्तुत ग्रन्थसूचीमें ४५ शास्त्रभण्डारों की १०६७० फान्स के लगनशील शाकाहारी डा. जीन नुस्तवाम ब पाण्डुलिपियों का परिचय कराया गया हैं। इस परिचय में
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ग्रन्थ, पत्रसख्या, आकार (प्रतिकी लम्बाई-चौडाई), भाषा, अधिक लगती है। यह महान् . कार्य श्री डा कस्तूरचन्द जी लेखनकाल और प्राप्तिम्थान प्रादि की यथासम्भव सूचना कासलीवाल एम ए, पी-एच. डी और पं. अनूपचन्द की गई है । इन पाण्डुलिपियो मे कितने ही ऐसे गूट के भी जी न्यायतीर्थ, साहित्यरत्न के द्वारा सम्पन्न हुया है । इसके है, जिनमे से किसी-किसी मे तो १८० तक छोटी मोटी लिये वे अतिशय अभिनन्दनीय है। साथ ही प्रबन्धकरिणी रचनाये - जैसे पूजा, स्तुति एवं कथाये अादि -- पायी जाती कमेटी श्री दि. जैन अ. क्षेत्र श्रीमहावीरजी व उसके है (जैसे-दि० जन अग्रवाल मन्दिर उदयपुर का गुटका नं० मुयोग्य मत्री श्री सोहनलाल जी सौगाणी को भी धन्यवाद ३, पृ ११३४-४१) । ग्रन्थ की प्रस्तावना मे कुछ शास्त्र- देना चाहिये, जिनकी लगन व प्रेरणा से यह महत्त्वपूर्ण भण्डारो के परिचय के माथ उनमे उपलब्ध हुई अनेक कार्य सम्पन्न हो सका है। यह अन्य सम्पन्न सार्वजनिक ऐसी कृतियो की भी सूचना की गई है, जो प्राय. अभी तक धामिक मस्थानो के लिए अनुकरणीय है । ग्रन्य की छपाई परिचय मे नही पाई थी । ग्रन्थसूची के अन्त मे ग्रन्थानुक्र- ग्रादि भी ठीक है। अन्य को जिल्द भारी हो गई है व मणिका, ग्रन्थ एव ग्रन्थकार तथा ग्राम एवं नगर नामावलि; उसके टूट कर विवर जाने की आशका है। यदि इसे २ इन महत्त्वपूर्ण परिशिष्टो को भी जोड दिया गया है। इससे जिल्दो मे विभक्त कर दिया गया होता तो ठीक रहता, ग्रन्थ का महत्त्व बढ़ गया है व शोध-वोज करने वाले विद्वानो भले ही मूल्य प्रत्येक जिल्द का २५-२५) रुपया रख को बहुत मुविधा हो गई है ।
दिया जाता। मे थममाध्य कार्यों के सम्पन्न करने मे ममय व शक्ति
- बालचन्द्र शास्त्री
निर्वाण महोत्सव के अवसर पर सार्वजनिक, उपयोग के साहित्य का निर्माण
राष्ट्रपति श्री वी० वी० गिरि की मरक्षकता तथा प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाधी की अध्यक्षता मे गठित गष्ट्रीय समिति ने भगवान महावीर के २५गौवें निर्वाण महोत्सव के अवसर पर स्वीकृत कार्यक्रम के अनुसार माहित्य प्रकाशन का दायित्व जिम साहित्य निर्माण समिति को मौपा है उसका कार्यान्वयन समस्त जैन समाज की प्रतिनिधि मम्था भगवान महावीर २५००वा निर्वाण महोत्सव महाममिति के माध्यम से हो रहा है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत एक योजना यह है कि जैन धर्म, दर्शन, कला, माहित्य, प्राचार नीति आदि विषयों पर विभिन्न भाषामो में लघु-पुस्तिकाए प्रकाशित की जाये। यह कार्यक्रम सम्बन्धित समिति के विचाराधीन है। प्रावश्यक है कि अब तक इन विषयो पर जो पुस्तिकाए प्रकाशित हुई है उन्हे भी सामने रखा जाय और विद्वानों तथा लेखकों का चनाव अतिम रूप से विषयो के निर्वाचन के उपरान्त किया जाये।
अन समाज की सभी प्रकाशन सम्थानो, विद्वान लेखको से अनुरोध है कि इस प्रकार की जो पुस्तिकाएं उनक द्वारा या उनके माध्यम से प्रकाशित हुई है उनकी एक-एक प्रति निम्नलिखित पते पर भेज दें।
यदि इन प्रकार की कोई पातलिपिया रही हो तो उनके विषय में भी कृपया सूचना भेजी जाये कि किस विषय की पुस्तक कहा से , कब तक प्रकाशित होने की आशा है । यदि इस प्रकार की पूर्व प्रकाशित पुस्तिकाएं आपके पाम उपलब्ध नहीं भी हो, किन्तु जानकारी हो कि अमक स्थान से अमुक लेखक की पुस्तिका प्रकाशित हुई है तो भी लिखने की कृपा करे ताकि उन्हें उपलब्ध किया जा सके। अगस्त के द्वितीय सप्ताह तक यदि यह सामग्री और मूचनाए भेजी जा मके तो मुविधा होगी। - भारतीय ज्ञानपीठ )
लक्ष्मीचन्द्र जैन बी ४५/४७, कनाट प्लेस
संयोजक, साहित्य निर्माण समिति नई दिल्ली-१
भ० म० २५००वा निर्माण महोत्सव
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R. N. 10391/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
८.००
३-००
पुरातन जनवाक्य-सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों को पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों में उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-बाक्यों का सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डा. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानोके लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक
सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्य, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२-०० स्तुतिविधा : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद मौर श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित।
१.५० पण्यात्मकमलमार्तण्ड : पंचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० पक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुआ था। मुख्तारथी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द ।
१.२५ धोपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ७५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहाम-विषयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, सजिल्द । .
४-०० समाषितन्त्र और इष्टोपवेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४-०० प्रनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दीकी महत्त्वकी रचना, मुख्तार श्री के हिदी पद्यानुवाद और भावार्थ माहित तस्वार्थसत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से पुक्त ।
___२५ श्रवणवलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१.२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य ___ .१६ प्रध्यात्मरहस्य : पं० पाशाघर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद महित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण मंग्रह। पचपन __ग्रन्थ कारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । मं. पं० परमानन्द शास्त्री । मजिल्द। १२०० न्याय-दीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० रा. दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० अन साहित्य और इतिहास पर विशव प्रकाश : पृष्ठ मख्या ७४० सजिल्द कसायपाहसुस : मूल ग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व धी गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
पतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०.०० Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद बडे प्राकार के ३००१. पक्की जिल्द ६.०० जैन निबन्ध-रलावली: श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ।
प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित।
० MH-
५.००
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वर्ष २६ : किरण २
द्वैमासिक
मई-जून १६७३
M
अनेकान्त
M
COR
ARAT
..
....
सप्त मुखधारी चन्द्रप्रभ तीर्थकर । मुनिराज श्री विद्यानन्द जी महाराज का अभिमत है कि तीर्थकर के ये सप्तमुख सप्तभंगी के प्रतीक है। यह अभूतपूर्व मूति
अलबर्ट एण्ड विक्टोरिया म्यूजियम लंदन में सुरक्षित है।
समन्तभद्राश्रम (वीर सेवा मन्दिर) का मुख-पत्र
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विषय-सूची
वीरसेवा मन्दिर का अभिनव
. प्रकाशन
क्र०
विषय
१. शान्तिनाथ-स्तोत्र
चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक | २. भारतीय परम्परा में अरहन्त की प्राचीनता -
शब्दकोष) का प्रथम भाग छप चुका है। इसमें लगभग ___ मुनिराज श्री विद्यानन्द जी महाराज
४०० जैन ग्रन्थों से वर्णानुक्रम के अनुसार लक्षणो का ५०-५२
संकलन किया गया है । लक्षणों के सकलन में ग्रन्थकारों ३. जैन चित्र-कला-डा० वाचम्पति गैरोला ५२
के कालक्रम को मुख्यता दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत ४. स्याद्वाद-दर्शन-साहित्य परामर्षक
जितने ग्रन्थो के लक्षण संग्रहीत है उनमें से प्रायः एक मुनिश्री बुद्धमल जी५३-५६ । प्राचीनतम ग्रन्थ के प्रनमार पोक
५३-५६ । प्राचीनतम ग्रन्थ के अनसार प्रत्येक शब्द के अन्त में ५. राजस्थान के जन कवि और उनकी रचनाये हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है । जहाँ विवक्षित लक्षण __ --डा० गजानन मिश्र एम ए पी-एच. डी ५६-५६ | में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहाँ उन ग्रन्थों के ६. भारतीय दर्शन में योग
निर्देश के साथ २-४ ग्रन्थों के प्राश्रय से भी अनवाद साध्वी श्री अशोकश्री जी
किया गया है। इस भाग मे केवल 'प्र से प्रौ' तक लक्षणों
का संकलन किया जा सका है। कुछ थोड़े ही समय में ७. लंका मे जैनधर्म--श्री महेन्द्रकुमार दिल्ली ६४
इसका दूसरा भाग भी प्रगट हो रहा है, वह लगभग ८. कौशाम्बी-५० बलभद्र जैन
६५-७२
तैयार हो चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधकों के लिए तो ६. नाथ निरंजन पावे--कविवर अानन्दघन
विशेष उपयोगी है ही, साथ ही हिन्दी अनुवाद के रहने से १०. वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा-- सकलनकर्ता
वह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी है। प्रस्तुत प्रथम श्री १० वशीधर शास्त्री एम. ए ७३-८० | भाग बड़े आकार में ४२५ पृष्ठों का है। कागज पुष्ट व ११. कवि वर्द्धमान भट्टारक ----
जिल्द कपड़े को मजबूत है । मूल्य २५-०० रु० है। यह प० परमानन्द शास्त्री
८०-८२
प्रत्येक यूनीवसिटी, सादंजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों मे
संग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार बार नहीं छप सकते। १२. स्मृति-प्रखरता के प्रकार
समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है। मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी प्रथम ८३-८४
प्राप्तिस्थान १३. कलाकार की साधना (कहानी) ..
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, श्री 'ठाकुर' ८५-६१
दिल्ली-६ १४. तीर्थकर और प्रतीक-पूजा--- प० बलभद्र जैन ११ से टा० पृ० ३
सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये डा० प्रमसागर जैन
थी यशपाल जैन अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया
अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा मण्डल उत्तरदायी नहीं है ।
-व्यवस्थापक
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ॐ अहम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २६ किरण २
। ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण मवत् २४६६, वि० स० २०३०
मई-जून
१६७३
शान्तिनाथ-स्तोत्र न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन पादद्वयं ते प्रजाः । हेतुस्तत्र विचित्रदुःख-निचयः संसार-घोरार्णवः ।। अत्यन्त स्फुरदुग्ररश्मि-निकर-व्याकीर्ण-भूमण्डलो ग्रंष्मः कारयतीन्दु-पाद-सलिल-च्छायानुरागं रविः ।
-शान्ति भक्ति, प्राचार्य पूज्यपाद -हे भगवन् ! मनुष्य स्नेहवश आपके चरणों की शरण में नहीं जाते । किन्तु ससार रूप यह भयानक समुद्र नाना प्रकार के दुःखां का आगार है, इसी कारण से मनुष्य अापकी चरण-शरण में जाते है। जिस प्रकार ग्राम ऋतु के सूर्य की भयानक तपती हुई किना से व्याकुल हुया भूमण्डल चन्द्र-किरण, जल और छाया से अनुराग करता है।
अर्थात् मनुप्यो को वस्तुतः जिस प्रकार चन्द्रमा को किरणों, जल और वक्षो को छाया में प्रेम नहीं है, किन्तु मनुष्य जब ग्रीष्म ऋतु म मूर्य को झुलसाने वालो धप मे व्याकुल हो जाते है, तो शान्ति प्राप्त करने के लिए वे कही पेड़ को शीतल छाया में बैठ जाते है अथवा शीतल जल में स्नान करते है अथवा उन्हे चन्द्रमा को शोतल किरणो में शान्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार हे भगवन ! भक्त जनो को आपसे प्रेम नही है, किन्तु ससार में उन्हे नाना प्रकार के दु.ख है, उनगे वे व्याकुल हैं। इसलिए वे आपकी शरण में आते है, जिससे उन्हे शान्ति प्राप्त हो सके। और वास्तव में ही प्रापकी शरण में आने से उन्हें शान्ति प्राप्त होती है।
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भारतीय परम्परा में अरहंत की प्राचीनता
मुनिराज श्री विद्यानन्द जी महाराज
कन्नड़
'अरहत' भारतीय परम्परा में परमाराध्य देव है। मागधी
अलहंत, अलिहत । वर्तमान इतिहास मे इनका जैन धर्मावलम्बियो से अवि
अपभ्रश
अलहतु, अलिहतु। च्छिन्न एवं घनिष्ट सम्बन्ध रह गया है। अनादि निधन
अमहत, अरुह । एव प्राचीन नमस्कार मत्र मे और प्राचीन-अर्वाचीन दल
परहत शब्द का अस्तित्व भारत के प्राचीनतम माने गत धार्मिक ग्रन्थो-वेदो-पुराणो अादि मे अरहतो को
जाने वाले साहित्य में कहाँ-कहाँ उपलब्ध है, इसकी भक्ति-भावपूर्वक स्मरण और नमन किया गया है । अरहत
नालिका तो बहुत बड़ी है, फिर भी यहाँ उसके सकेत का स्मरण मात्र सर्व पापो से निवृत्ति में कारण है और
मात्र हेतु कुछ उद्धरण दिया जाना उपयुक्त है। इसके इमीलिए प्रत्येक प्रबुद्ध मनीषी प्रात में साय तक प्रत्येक
सिवाय जैन वाड्मय तो इसका अमीम भडार है ---उसमे शुभकार्य के प्रारम्भ मे 'णमो अरहताण' प्रभृनि मत्र
तो पदे-पदे अरहत के गुण, उनकी महिमा प्रादि मिलते है। बोलना अपना कर्तव्य समझता है । 'अरहत' शब्द प्रकृति प्रदत्त-प्राकृत है, इमको सस्कृत मे अहंन कहा जाता है
श्रमण-सस्कृति के प्रमग में पृष्ठ ५७ पर प्राचार्य और इसकी निष्पत्ति 'ग्रह प्रशसायाम्' धातु से की जाती विनोबा भावे के उद्गार छपे है। जैन धर्म की प्राचीनता है। पाणिनि के सूत्र 'अर्ह प्रशमायाम्' मे शतृ प्रत्यय और सिद्ध करते हुए उन्होने कहा है-- "ऋग्वेद में भगवान की 'उगिदचा सर्वनाम स्थाने धातो' से नुम् होने पर 'अर्हत्' । प्रार्थना में एक जगह कहा है-- 'अहन् इद दयसे विश्व'अर्हन्त' आदि रूप बनते है।
मम्बम'---२-३३-१० है अर्हन् । तुम इस तुच्छ दुनिया प्राकृत भाषा में शतृ प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय पर दया करते हो। इसमे ग्रहत् और दया दोनो जैनो के होकर अरहत रूप बनता है। कीं-कही 'ह श्री ही क्रीत प्यारे शब्द है। मेरी तो मान्यता है कि जितना हिन्दुधर्म क्लान्त क्लेश ग्लान स्वप्न-म्पर्श हपहिंगपु' हैम सूत्र से प्राचीन है, शायद उतना ही जैन धर्म प्राचीन है।" इकार हो जाता है और कही प्राकृत परम्परा के अनुसार ऋग्वेद का उपर्युक्त अविकल मत्र इस प्रकार है---- प्रकार का आगम हो जाता है इस प्रकार अरिहत और
'प्रहन विभषि सायकानि । अरहत ये दा रूप बनते है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इसका
धन्वाह न्निकं धजतं विश्वरूपम् ॥ एक रूप 'अम्ह' भी प्रयुक्त किया है, यथा--'अरूहासिद्धा
अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्बं । इरिया' [मो० पा० ६।१०४) सभवत यह तमिल भाषा
न वा ओ जीयो रुद्र त्वदन्यदस्ति ।।'--२-३३-१० से प्रभावित है। अन्य भाषाओं में भी इस अरहत शब्द की व्यापकता रही है और उनमें इसके रूपान्तर मिलते
जैन ग्राचार्य श्री नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठा तिलक से उक्त है। यथा--
मत्र की शब्द एव भावावलियाँ पूरा-पूरा मेल खाती है। प्राकृत अरहत, अरिहन ।
प्राचार्य नेमिचन्द्र जी के शब्दो मे उक्त मंत्र का विस्तार गालि ग्ररहन्त।
इस प्रकार है - सम्वृत
'अहन विभषि मोहारि विध्वंसि नय सायकान् । शौसेनी और तमिल माह ।
अनेकान्तयोति निर्बाध प्रमाणोदार धन्य च ।।
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भारतीय-परम्परा में परहंत की प्राचीनता
ततस्त्वमेव देवासि युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक् ।
बागहमिहिर सहिता, योगवासिष्ठ, वायु पुराण तथा दृष्टेष्ट बाधितेष्टाः स्युः सर्वथैकान्तवादिनः ॥ ब्रह्मसूत्र शाकरभाष्य मे भी अर्हत एवं प्राईत मत का अर्हन्निष्कमि वात्मानं बहिरन्तर्मलक्षयम् । उल्लेख मिलता है-- विश्वरूपं च विश्वार्थ वेदिनं लभसे सदा ।।
'दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽहंतां देवः ।'-५ प्रहन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् ।
'वेदान्ताहत सांख्य सौगत गुरू व्यक्षारि सूक्तादशो।" 'न सुरासुर संघातं मोक्ष मार्गोपदेशनात् ।
'ब्राह्म शैवं वैष्णवं च सौरं शाक्तं तथाऽहंतम् ।'ब्रह्मासुरजयी वान्यो देव रुद्रस्त्वदस्ति न ॥'
'शरीर परिगाणो हि जीव इत्याहता मन्यन्ते ।- प्रतिष्ठातिलक ३१७४-७८ शाश्वत कोप तथा शारदीय नाममाला में अर्हत् शब्द --- हे अर्हन् । आप मोह शत्रु को नष्ट करने वाले 'जिन' का पर्यायवाची कहा गया हैनय-रूपी वाों को धारण करत हो तथा अनेकान्त को
'स्यादर्हन जिन पूज्ययोः । प्रकाशित करने वाले निर्वाध प्रमाणरूप विशाल धनप के तीर्थङ्गरी जगन्नाथो जिनोऽहंन भगवान् प्रभुः।-" धारक हो । युक्ति एव शास्त्र में अविरुद्ध वचन होने के
अमर कोपकार ने अर्हत् को मानने वाले लोगो को कारण आप ही हमारे पाराध्य देव हो। मर्वथा एकान्त- पाहक, ग्याद्वादिक तथा पाहत कहा है और हेमचन्द्रावादी हमारे देवता नही हो सकते, क्योकि उनका उपदेश चायं ने यथार्थ वक्ता को परमेश्वर कहा हैप्रत्यक्ष एव अनुमान से बाधित है।
'स्यात् स्याद्वादिक प्राहकः ।'-" हे अर्हन् । आप ऐसी आत्मा को धारण करते हो
'यथास्थितार्थवादी च देवोऽहंन् परमेश्वरः।-२ जो निक अर्थात् याभूपण या रत्न की भाति प्रकाशमान
हनुमन्नाटककार जैन शासन श्रद्धानियो के ईश्वर को है, बाह्य और अन्त मल से रहित है और जो ममस्त
ग्रहन मज्ञा देते है, यथा -- विश्व के पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानती है । हे
'प्रहन्नित्यथ जनशासनरता ।'-" अर्हन् ! आप नर, मुर एव अमुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हो। अत विश्व पर दयाभाव से
बौद्धग्रन्थो मे बुद्ध के लिए भी अरहत शब्द का प्रयोग परिपूर्ण हो। आपसे अन्य कोई और ब्रह्म अथवा असुर
किया गया है । इसमें मुख्य कारण म० बुद्ध का, नीर्थकर को जीतने वाला, बलवान् देवता नहीं है।'
महावीर का ममकालीन होना है क्योकि उस काल में ऋग्वेद में अन्य स्थानो पर भी 'अर्हन्' पद का प्रयोग
जिन धर्म प्रभावक रूप में विद्यमान था और जिन तथा
अरहत दोनो शब्द धर्मोपदेष्टायो- इन्द्रियविजेतानो के मिलता है
लिए प्रयुक्त किये जाने का चलन था। इतना ही क्यो, 'बहन देवान् यक्षि मानुषात पूर्वो अथ ।'
पालि भाषा के बौद्ध अागम - (त्रिपिटक मे) धम्मपद मे 'महन्तो ये सुदानवो नरो उसामि शव सः ।' 'प्रहन्ता चित्पुरोद घंशेष देवावर्वते ।'
५. वागहमिहिर महिता ४५१५८ ऋग्वेद के उपर्युक्त उद्धरणो से सिद्ध होता है कि
६. वाल्मीकि, योगवासिष्ठ ६१७३।३४ ऋग्वेद काल में जैन धर्म विद्यमान था और जैन धर्माव
७. वायुपुगण १०४।१६ लम्बी अर्हन्त की उपासना करते थे।
८ ब्रह्ममूत्र शाकरभाष्य २।२।३३
९. शाश्वतकोप ६४१ १. युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । -प्राप्तमीमासा ६। १० शारदीयाश्व्य नाममाला-हर्पकीर्ति ६ २. ऋग्वेद २।५।२२।४।१
११ अमरकोष (मणिप्रभा) २०७।१८ ३ ऋग्वेद ४।३।९।५२१५
१२. हेमचन्द्र योगशास्त्र २।४ ४. ऋग्येद ६८६०५
१३. हनुमन्नाटक १।३
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५२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
अरहंत वग्गो नामक एक स्वतंत्र प्रकरण भी है। धम्मपद धवला टीका मे अरहंत का 'अरिहननादरहंता..... के अनुसार अपनी जीवन यात्रा के (भावी नय की अपेक्षा) रजोहननाद्वा अरहंता अतिशय पूजार्हत्वाद्वा अरहता।'-. अन्त को प्राप्त, भावी जन्म-मरण-शोकादि रहित- मक्त के रूप मे विवेचन किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द जीव अरहंत संज्ञा को पाते है । तथाहि -
बोधपाहुड मे अरहंत के गुणो का वर्णन करते हुए लिखते 'गतद्धिनो विसोकस्त्य विषयुतस्स सवधि। सव्वगन्ध पहीनस्स परिलाहो न विज्जनि ।'
'जरवाहि जम्म मरणं चउगइगमणं च पुण्ण पावं च । --धम्मपद, अरहंतवग्गो ६० हन्तूण दोष कम्मे हुउ णाणमयं च परहंतो॥'-' 'यत्थारहंतो विहरन्ति तं भूमि रामणेय्यकं ।'
अर्थात् जिन्होने जग, व्याधि, जन्म, मरण, चतुर्गति
~~वही ६८ गमन, पुण्य-पाप, इन दोषों तथा कर्मों का नाश कर दिया --जहाँ कही भी अरहंत विहार करते हे वहाँ रम- है और जो ज्ञानमय हो गये है, वे अरहन है। अरहत की णीक स्थान होता है । म० बुद्ध ने कहा था - 'भिक्षुयो। इन्ही विशेषताओं को पचाध्यायी में इस प्रकार कहा प्राचीनकाल में जो भी अरहत तथा बद्ध हए थे, उनके भी गया है-- ऐसे ही दो मुख्य अनुयायी थे, जैसे मेरे अन्यायी मारिपुत्र 'दिव्यौदारिक देहमयो धौतघातिचतुष्टयः । और मोग्गलायन है। -(गौतम पृ० १७४) ज्ञानदग्वीर्य सौख्याढयः सोऽर्हन् धर्मदेशकः ।।जैन धर्म मे पाच अवस्थाओं मे मपन्न ग्रात्मा मर्वो
उक्त मपर्ण कथन का मागश यह है कि-ममस्त त्कृष्ट एवं पूज्य मानी गई है। इनमे अरहत मर्व प्रथम है।
भारतीय माहित्य में अग्हत शब्द अतिशय पूज्य आत्मा के परहंत किसी व्यक्ति विशेष का नाम नही है। वह ना अर्थ में प्रयक्त हमा है। वेद-कान में लेकर अद्यावधि आध्यात्मिक गुणो के विकास से प्राप्त होने वाला महान्
इम शब्द का महत्व रहा है। जैन धर्म के चतु शरण पाठ मङ्गलमय पद है । जैन आगमो में चार घातिया कर्मों पर
मे अग्हत को ही प्रमुखता दी गई है-- विजय प्राप्त करने वालो और अनन्त चतुष्टय प्राप्त करने वालो को अरहंत नाम से कहा जाता है, ये जीवनमुक्त
चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरहते सरणं पवज्जामि, होते है, ससार की प्राधि-व्याधि और उपाधियो से दूर सिद्ध सरण पवज्जामि, साहू सरण प
सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिऔर बहुत दूर।
पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि।' 'ण? चबुधाइ कम्मो सणसुहणाण वीरिय मईयो। - सुह देह त्यो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ॥' १ नोध पाहुट ३०
---नेमिचन्द्र सिद्धान्त चनवी द्रव्य मग्रह ५० २ पचाध्यायी श६०७
जैन चित्रकला जैन चित्रकला को ऐतिहासिक उपलब्धि ७वीं शताब्दी से है, जिसके प्रमाण सम्राट हर्ष के समकालीन पल्लव राज महेन्द्रवर्मन (७वीं शताब्दी) के समय में निर्मित सित्तन्नवासल गुफा की पांच जिन-मतियाँ हैं। समग्र भारतीय चित्रशलियों में १५वीं सदी से पूर्व जितने भी चित्र प्राप्त हैं, उन सबमें मुख्यता और प्राचीनता जैन चित्रों की है। ये चित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बद्ध है, जिन्हें अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों को चित्रित कराने एव करने का बड़ा शौक था।
----भारतीय चित्रकला, वाचस्पति गरोला, पृ० १३८
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स्याद्वाद-दर्शन
साहित्य परामर्शक मुनि श्री बुद्धमल जी स्याद्वाद, जैन दर्शन के मन्तव्य को भापा मे उतारने लिए तद्बोधक शब्द का प्रयोग करते है और प्रवशिष्ट की पद्धति को कहते है। 'स्याद्वाद' के 'स्यान्' पद का विरोधी तथा अविगेधी समस्त धर्मों के लिए प्रतिनिधि अर्थ है, अपेक्षा या दृष्टिकोण और 'वाद' पद का अर्थ है- स्वरूप 'स्यात्' शब्द का प्रयोग करते है, जिसका भाव सिद्धान्त या प्रतिपादन । दोनो पदो मे मिलकर बने इस होता है कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त और अनेक धर्म भी पद का अर्थ हुश्रा –किमी वस्तु, धर्म, गुण या घटना इम वस्तु में विद्यमान है मही, परन्तु इस ममय उन
आदि का किमी अपेक्षा से कथन करना 'ग्यावाद है। सबकी सूची ही कर सकते है, कथन नही। हमारी इम पदार्थ में जो अनेक प्रापेक्षिक धर्म है, उन सबका यथार्थ मूची मे ज्ञात अवशिष्ट धर्मों को भी कथ्यमान धर्म के ज्ञान तभी सम्भव हो मकता है, जब कि उम अपेक्षा को समान वस्तु का अग समझे, पर साथ ही यह भी समझे सामने रखा जाये । दर्शन-शास्त्र मे नित्य-अनित्य, मन्- कि इस समय हम उसका ध्यान मुख्यतया अमुक कथ्यमान असन, एक-अनक, भिन्न-भिन्न, वाच्य-अवाच्य आदि नथा धर्म की योर ही याकृष्ट करना चाहते है। लोक-व्यवहार मे छोटा-बड़ा, स्थूल-सूक्ष्म, दूर-ममीप, कभी-कभी 'स्यान्' शब्द का प्रयोग किये बिना भी स्वच्छ-मलिन, मूर्ख-विद्वान् आदि अनेक ऐसे धर्म है, जो वस्तु-धर्म का प्रतिपादन किया जाना है, परन्तु वहाँ भी प्रापेक्षिक है । इन तथा इन जैसे अन्य किसी भी कथक के अभिप्राय में कथ्यमान धर्म के अतिरिक्त धर्मो धर्म या गुण का जब हम भाषा के द्वारा कथन का निराकरण करने की बात नही पानी चाहिए, तभी करना चाहते है, तब वह उसी हद तक सार्थक हो सकती वस्तु-सम्बन्धी वास्तविकता का प्रादर किया जा सकता है। है, जहाँ तक हमारी अपेक्षा उसे अनुप्राणित करती है। उपर्युक्त विवरण से यह ज्ञात हो जाता है कि हम जिस अपेक्षा से हम जिस शब्द का प्रयोग करते है, उसी वस्तु का प्रतिपादन करते समय कभी सम्पूर्ण वस्तु के समय उसी पदार्थ के किसी दूसरे धर्म की अपेक्षा से दूसरे विषय मे कहना चाहते है और कभी केवल उसके एक शब्द का प्रयोग भी किया जा सकता है। वह भी उतना अंश मात्र के विषय मे । वाक्य में 'स्यात्' शब्द का प्रयोग ही सत्य होगा, जितना कि पहला। साराश यह कि एक करते समय सम्पूर्ण वस्तु का चित्र हमारे सामने होता है। पदार्थ के विषय मे अनेक ऐसी बातें हमारे ज्ञान में निहित उमी को दूसरे के सामने रखना चाहते है अर्थात् एक होती है, जो एक ही समय मे सारी की सारी समान रूप कथ्यमान धर्म को मुख्य रूप से और शेष धर्मों को 'स्यात' से सत्य होती है। फिर भी वस्तु के इस पूर्ण रूप को के प्रतिनिधित्व मे गीण रूप से कहना चाहते है। इस किसी दूसरे व्यक्ति के सामने रखते समय हम इसे विभक्त प्रकार के कथन को दर्शन-शास्त्र में 'प्रमाण-वाक्य' या करके ही रख सकते है। भाषा की कुण्ठता के कारण 'सकलादेश' कहा जाता है। परन्तु जब हम वस्तु के ऐसा करने के लिए हम बाधित है। कोई एक शब्द वस्तु किसी एक धर्म के विषय में तो कहते है, परन्तु शेष धर्मो के सम्पूर्ण धर्मों को अभिव्यक्त कर सके, ऐसा सम्भव नही के विषय मे न तो किसी प्रतिनिधि शब्द का प्रयोग कर है । अत: भिन्न-भिन्न शब्दो के द्वारा भिन्न-भिन्न धर्मों का समर्थन करते है और न किसी निवारक शब्द का प्रयोग प्रतिपादन कर हम वस्तु सम्बन्धी अपना अभिप्राय दूमरी के कर खण्डन करते हैं, केवल कथ्यमान धर्म को कह कर शेष सामने रखते है । जिस धर्म का प्रतिपादन करते है, उसके के लिए तटस्थ मौनावलम्बी हो जाते है । यह कथन 'नय
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५४, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
वाक्य' या 'विकलादेश' कहलाता है। दूसरे शब्दो मे उसके विषय मे कही जा सकती है और सबकी सब समान उपर्युक्त बात को यो भी कहा जा सकता है- वस्तु रूप से सत्य हो सकती है। इनमें से प्रत्येक कथन वस्त्र सम्बन्धी हमारी सम्पूर्ण दृष्टि प्रमाण और एक दृष्टि या सम्बन्धी कोई न कोई जानकारी देता है। एक वाक्य मे दृष्टिकोण नय कहलाता है।
जो बात कही गई है, दूसरे प्रत्येक वाक्य मे उससे भिन्न प्रमाण-वाक्य कहे चाहे नय-वाक्य, दोनो ही स्थितियो बात कही गई है। फिर भी इनमें परस्पर कोई विरोध मे उद्देश्य यही होता है कि वस्तु-प्रतिपादन में भाषा का नही है । विरोध इसलिए नहीं है कि प्रत्येक की अपेक्षाएं प्रयोग ठीक मे हो और ज्ञाता उमका अभिप्राय ठीक भिन्न है । वह वस्त्र उपादान-कारण की अपेक्षा से रुई का, समझे । प्रतिपाद्य के प्रति किसी भी प्रकार का अन्याय तो सहकारी-कारणो की अपेक्षा से मिल का और स्वामित्व तभी ग्क मकता है, जबकि प्रतिपादक अपने आग्रह और की अपेक्षा से नरेन्द्र का, कार्यक्षमता की अपेक्षा से पहनने एकान्त से विमुख होकर यथावस्थित कथन करे। अयथार्थ का तथा मूल्य की अपेक्षा मे पाच रुपये का है। प्रश्नकथन वैचारिक हिमा है तो यथार्थ कथन अहिमा। प्रमाण- कतयिो की ये जिज्ञामाऐं- यह वस्त्र कई का है या रेशम वाक्य और नय-वाक्यमय स्यादवाद की इम कथन प्रणाली का? मिल का है या हाथ का है ? नरेन्द्र का है या को वैचारिक हिसा का प्रतीक कहा जा सकता है, वीरेन्द्र का ? पहनने का है या प्रोढने का ? कितने मूल्य क्योकि यह प्रणाली ही कथित और कथनावशिष्ट म्वभावो का है ?. उत्तरदाता को भिन्न-भिन्न उत्तर देने के लिए को, यदि वे वस्नु मे प्रमाणित होने है तो ममान रूप मे ही प्रेरित करती है। किमी एक उत्तर मे सारी जिज्ञासाएं म्वीकार करती है । यहाँ तक कि परम्पर विरोधी स्वभावो शान्त नही हो सकती। को भी जिस-जिग अपेक्षा में वे वहाँ प्राप्त होते है, उस- गाधारण लोक-व्यवहार में अपेक्षा-भेद से कथन का उस अपेक्षा से स्वीकार करना हम प्रणाली को अभीष्ट यह प्रकार जितना मौलिक, उचित और सत्य है, उतना है। यदि ऐमा न किया जाये तो दार्शनिक पहलुग्रो का ही दार्शनिक क्षेत्र में भी। उपर्युक्त वस्त्र-सम्बन्धी ज्ञान समाधान तो दूर रहा, साधारण व्यवहार भी नही चल मे एकान्तवादिता सत्य से जितनी दूर ले जा सकती है, सकता।
तत्वज्ञान सम्बन्धी एकान्तवादिता भी उतनी ही दूर ले भिन्न-भिन्न अपेक्षाएं भिन्न-भिन्न जिज्ञासाओं के उत्तर जाती है, अत: दार्शनिक क्षेत्र मे भी 'स्याद्' (अपेक्षावाद) से स्वयं फलित होती है । एक वस्त्र विशेष के लिए पूछने का प्रयोग अादरणीय ही रही, अनिवार्य भी है । वालो को हम उनकी जिज्ञासाग्रो के अनुसार ये भिन्न- ___ जैनेतर दार्शनिको का स्याद्वाद के विषय मे एक भिन्न उत्तर दे सकते है ---
खास तर्क यह रहा है कि यदि पदार्थ 'सत्' है तो 'असत्' १. यह वस्त्र रुई का है।
कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार नित्य-अनित्य, सामान्य२. यह वस्त्र मिल का है।
विशेष, वाच्य-अवाच्य आदि परस्पर विरोधी धर्म एक ही ३. यह वस्त्र नरेन्द्र का है।
समय मे एक पदार्थ मे कैसे टिक सकते है ? इसी तर्क के ४. यह वस्त्र पहनने का है।
आधार पर शंकराचार्य और रामानुजाचार्य जैसे विद्वानों ५. यह वस्त्र पांच रुपये का है।
ने 'स्याद्वाद' को 'पागल का प्रलाप' कहकर इसकी उपेक्षा अब बताइए, यह वस्त्र किस-किस का समझा जाए? की। राहुल साकृत्यायन ने 'दर्शन-दिग्दर्शन' मे बौद्ध दार्शकिसी एक का या पाच का ? इन पाचो कथनो मे से निक धर्मकीर्ति के शब्दों के आधार पर दही, दही भी है कोई भी कथन ऐसा नही, जिसे अप्रमाणित कहा जा सके। और ऊंट भी, तो दही खाने के समय ऊंट खाने को क्यों नहीं पाचों ही बाते भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से उसी एक वस्त्र के दौड़ते ? इस आशय का कथन कर स्याद्वाद का उपहास विपय मे सत्य है। पाँच ही क्यो, दो गज का है, भारत किया है । डा० एस० राधाकृष्णन् ने इसे 'अर्द्ध सत्य' कह का है, सन् १९५५ का है आदि और भी अनेक बाते कर त्याज्य बताया है । इसी प्रकार किसी ने इसे 'छल
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स्थावाब-दर्शन
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और किसी ने 'संशयबाद' बतलाया है। परन्तु यह सब द्रव्य और क्षेत्र के समान ही पदार्थ की सत्ता और तो 'प्रत्येक विभिन्न कथन के साथ विभिन्न अपेक्षा होती असत्ता बताने के लिए काल की भी अपेक्षा है, जैसेहै'-स्याद्वाद के इस सूत्र को हृदयगम न कर सकने के प्राचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत-अान्दोलन का सूत्रपात कारण हुआ है। बद्धमूल धारणा तथा जैनेतर ग्रन्थो मे सवत् २००५ मे किया। इसके अतिरिक्त किसी काल का जैनो के लिए किये गए कथन को सत्य मानकर चलना भी कथन किया जाए तो वह अणुव्रत-आन्दोलन के सम्बन्ध मे इसमें सहायक हुए है। अन्यथा अपेक्षा भेद से 'सत्' अर्थात् सत्यता प्रकट नहीं कर ककता। 'है' 'असत् अर्थात् 'नहीं है' का कथन विरुद्ध मालूम नहीं इसी प्रकार वस्तु को सत्यता में भाव भी अपेक्षित है: देना चाहिए।
जैसे पानी मे तरलता होती है। इसका तात्पर्य यह हमा वस्त्र की दुकान पर किसी ने दुकानदार से पूछा- कि तरलता नामक भाव से ही पानी की सत्ता पहचानी 'यह वस्त्र सूत का है न। दुकानदार ने उत्तर दिया-- जा मकती है, अन्यथा तो वह हिम, वाष्प या कहरा ही 'हा साहब, यह मूत का है।' दूसरे व्यक्ति ने ग्राकर उसी होता, जो कि पानी नही, किन्तु उसके रूपान्तर है। वस्त्र के विषय मे पूछा- 'क्यो साहब, यह वस्त्र रेशम उपर्युक्त प्रकार से हम जान सकते है कि प्रत्येक का है न? दुकानदार बोला- 'नही, यह रेशम का नही पदार्थ की मत्ता स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की है।' यहाँ कथित वस्त्र के लिए 'यह सूत का है', यह बात अपेक्षा से ही है, परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की जितनी सत्य है, उतनी ही 'यह रेशम का नही है' यह भी अपेक्षा से नही। यदि परद्रव्य आदि से भी उसकी सत्ता हो सत्य है। एक ही वस्त्र के विषय मे सूत की अपेक्षा से सकती तो एक ही वस्तु सब वस्तु होती और सब क्षेत्र, सब 'सत्' अर्थात् 'है' और रेशम की अपेक्षा से 'असत्' अर्थात् काल और गुणयुक्त भी होती अर्थात् एक घडा मिट्टी का 'नही है' का कथन किसको अग्खर सकता है ? स्यावाद भी कहा जा सकता और मोने, चादी, लोहे आदि का भी, भी तो यही कहता है। सत् है तो वह असत् कैसे हो कानपुर का भी कहा जा सकता और दिल्ली का भी। सकता है ?' यह शका तो ठीक ऐसी ही है कि 'पुत्र है, मवत् २००५ का भी कहा जा सकता और सवत् २००० तो वह पिता कैसे हो सकता है । इसमें कोई विरुद्धता । का भी। जलाहरण के काम में भी लिया जा सकता नही पा सकती, क्योकि अपेक्षाए भिन्न है।।
और पहनने के काम मे भी। स्याद्वाद के मतानुसार प्रत्येक पदार्थ 'स्व' द्रव्य, परन्तु ऐसा नही हो सकता, क्योकि उसमे स्वधर्मो की क्षेत्र, काल और भाव की अपेशा से 'सत्' है तथा 'पर' सत्ता के समान ही परधर्मो की असत्ता भी विद्यमान है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से 'असत्'। इसे स्वद्रव्यादि की अपेक्षा में घट में 'अस्ति' शब्द का विषय सरलतापूर्वक यो समझा जा सकता है--एक घड़ा स्व- बनने की जितनी योग्यता है, उतनी ही परद्रव्यादि की द्रव्य मिट्टी की अपेक्षा से सत्-अस्तित्व युक्त है, पर अपेक्षा से 'नास्ति' शब्द का विषय बनने की भी। यही द्रव्य-वस्त्रादि इतर वस्तुओ की अपेक्षा से असत् है कारण है कि घड़े का स्वरूप विधि और निषेध दोनो से अर्थात् धड़ा है, वस्त्र नहीं है।
प्रकट होता है। द्रव्य के समान ही किसी बात की सत्यता में क्षेत्र की उपर्युक्त 'सत्-असत् अर्थात् 'अस्ति-नास्ति' अर्थात् अपेक्षा भी रहती है। कोई घटना किसी एक क्षेत्र की विधि-निषेध' के प्रापेक्षिक कथन के समान ही वस्तु मे अपेक्षा से ही सत्य हो सकती है। जैसे-भगवान महावीर सामान्य-विशेष, एक-अनेक आदि विभिन्न धर्मो का मी का निर्वाण 'पावा' मे हुआ। भगवान के निर्वाण की घटना आपेक्षिक अस्तित्व समझना चाहिए। 'पावा क्षेत्र की अपेक्षा से ही सत्य-सत् है, परन्तु यदि स्याद्वाद का सिद्धान्त, जिस वस्तु में जो-जो अपेक्षायें कोई कहे 'भगवान् का निर्वाण राजगृह में हुआ तो यह घटित होती हो, उन्हे ही निर्भीकतापूर्वक स्वीकार करने बात असत्य ही कही जायेगी।
का अनुरोध करता है। इसका यह तात्पर्य कभी नहीं है
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राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाएं
डॉ० गजानन मिश्र एम. ए., पी-एच. डी., प्रार. ई. एस.
गमानीराम भावसा---
लवाल के यहाँ हुआ था। इनका रचनाकाल १७वी शताब्दी ये पडित टोडरमल जी के लघु पुत्र थे। इनका जन्म का उत्तरार्द्ध तथा १८वी शताब्दी का पूर्वार्द्ध है । ये संस्कृत सं० १८१८ के आस-पास हुअा था। ये अच्छे वक्ता तथा ।
तथा न्यायशास्त्र के विद्वान थे। इन्होने तिम्नलिखित ग्रंथ सरल हृदय थे । ये फारसी के भी अच्छे ज्ञाता थे। इन्होने लिखे थे ...... महाराजा प्रतापसिह की आज्ञा से कार्तिक शु० ५ स०
१. श्वेताम्बर पराजय ४, नेमि नरेन्द्र स्तोत्र १८४६ मे 'दीवान हाफिज' का पद्यानुवाद किया था। .
२. जिन स्तोत्र ५. चतुर्विशति सधान स्वोपज्ञ इनके नाम से 'सत्तास्वरूप' नामक रचना तथा अनेक पद
टीका भी लिखते है।
३. कर्मस्वरूप वर्णन ६. सुखेण चरित्र चम्पाराम भांवसा --
___७. सुख निधान ये माधोपुर के निवासी थे। इनके पिता का नाम
टीकमचन्दहीरालाल था। इनकी निम्नलिखित रचनाएं मिलती है.----
ये जयपुर राज्य के किसी कस्बे के निवासी थे। धर्म १ भद्रबाहु चरित्र भाषा (श्रावण शु० १५ स० १८००)।
में इनकी बहुत अधिक श्रद्धा थी। इन्होंने निम्नलिखित २. धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार (१८६८) । रचनाए की .३. चर्चासागर ।
१. चतुर्विशति कथा (पद्य) स० १७१२ । जगन्नाथ पंडित
२. चन्द्रहंस की कथा (१७०८) । इनका जन्म टोडारायसिह के निवासी पौमराज खण्डे- ३. श्रीपाल स्तुति ।
४. अन्य स्तुतियाँ। कि जो अपेक्षाए न हो, उन्हे भी स्याद्वाद के आधार पर टेकचन्द-- माना जाए । अश्वशृंग, आकाश-कुसुम और वन्ध्या-सुत के इनके जन्म, परिवार तथा अन्य परिचयात्मक सामग्री अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए स्याद्वाद की कोई
के लिए अन्त साक्ष्य तथा बहिक्ष्यि मौन है । इनके ग्रन्थो अपेक्षा लगाने की आवश्यकता नहीं है, क्योकि इनकी तो
की सख्या अत्यधिक है । उपलब्ध ग्रंथो के नाम इस प्रकार सत्ता ही प्रसिद्ध है। म्याद्वाद का काम वस्तु को यथार्थ है :- रूप से प्रकट करने का ही है, न कि जैसा हम चाहे, वैसा १. तीन लोक पूजा (१८२८)। वस्तु को बना देने का।
३. सुदृष्टि तरंगिणी वचनिका (१८३२) __भगवान् महावीर ने जगत् को जीवन-क्षेत्र मे अहिसा ३. सूत्र जी की वचनिका (१८३७) । की जितनी बहुमूल्य देन दी है, विचार-क्षेत्र में भी 'स्याद्- ४. कथाकोष भाषा वाद की उतनी ही बहुमूल्य देन दी है। अहिसा जीवन ५. सोलहकारण बड़ी पूजा को उदार और सर्वांगीण बनाती है तो स्यावाद विचारो ६. दश लक्षण बड़ी पूजा को । एकांगी विचार अपूर्ण अोर वास्तविकता से दूर होता ७. कल्याणक पूजा है, जबकि सर्वांगीण विचार पूर्ण और वास्तविक होता है। ८. रत्नत्रय बड़ी पूजा
६. नन्दीश्वर पंचमेस पूजा
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राजस्थान के जैन कवि और उनकी रचनाएं
१०. नन्दीश्वर पंचमेरू पूजा
जब जयपुर मे शान्ति हुई तब वापिस लौट आये। तत्का११. कर्मदहन पूजा
लीन परिस्थितियों का कवि ने स्वरचित काव्यों में यत्र१२. बुधप्रकाश छहडाला।
तत्र चित्रण किया है । आपकी दो रचनाएं उपलब्ध है :डालूराम
१ रत्नकरड श्रावकाचार ( चैत्र कृष्णा ५ सं० ये माधवराजपुरा (जयपुर) के निवासी अग्रवाल जैन १८२१)। थे। ये दीवान अमरचन्द जी के सम्पर्क मे रहे है । आपकी २. सुबुद्धि प्रकाश (फाल्गुन कृ०६ सं० १८४७)। रचनाओं की सख्या १८-१६ है जिनमे पूजा साहित्य देवीसाद गोधा-- अधिक मात्रा में है। पाप दोहा, चौपाई, सवैया, पद्धरि, इनका जन्म बसवा में चिमनीराम गोधा के घर हुमा सोरठा, अडिल्ल एवं कुण्डलिया ग्रादि विविध छन्दो के था। इन्होने (१) सिद्धान्तसार की वचनिका (फाल्गुन शु० प्रयोग मे कुशल है'।
१० स० १८४४), (२) चर्चाग्रन्थ, (३) चिद्विलास तथा रचनामो के नाम ये है -
(४) परमानन्द विलास की रचना की। १. पच परमेष्ठी पूजा (१८६२) १०. शिखर विलास
नेमिचन्द सेठी २. पच परमेष्ठी गुणवर्णन
ये आमेर के निवासी थे। इन्होने देवेन्द्रकीर्ति (माघ
पूजा (१८६५)
११. पचकल्याण पूजा |
शुक्ला ११, सं० १७७०) के गद्दी पर बैठने के अवसर
पर जकडी लिखी। इसमे तत्कालीन दीवान रामचन्द्र एव ३. गुरु उपदेश श्रावकाचार १२ इन्द्रध्वज पूजा
किशनचन्द आदि के नामोल्लेख भी हुए है। जकड़ी के भाषा (१८६७)
१३. पचमेरु पूजा
अलावा इन्होने वैशाख शुक्ला ११, स० १७७१ को ४. श्रीमत् सम्यक् प्रकाश भाषा १४. रत्नत्रय पूजा
प्रीतकर चरित्र पूर्ण किया। (१८७१)
१५ नेमि- पार्श्वनाथ
लोहट-- ५ अढाईद्वीप पूजा (१८७६)
इनका मूल निवास स्थान सॉभर (जयपुर राज्य) ६. अष्टान्हिका पूजा (१८७६) १६ चतुर्दशी कथा
था। इनके पिता का नाम धर्मा था। इनकी निम्नलिखित ७. द्वादशाग पूजा (१८७६) १७. द्वादशानुप्रेक्षा
रचनाये मिलती है - ८. दशलक्षण पुजा (१८८०) १८. पद आदि
१ यशोधर चरित्र (१७२१) ५. पार्श्व पूजा ६. तीन चौबीसी पूजा (१८८२)
२. पट्लेश्यावलि (१७३०) ६ पूजाष्टक थानसिंह ठोलिया
३. चौबीस टाणा (१७३६) ७ द्वादशानुप्रेक्षा इनका निवास स्थान सागानेर था। पिता का नाम
४. अठारह नाता का वर्णन ८. पार्श्वनाथ का गुणमाल
श्रीलाल गगवाल-- मोहनराम था। इनके समय मे राजनैतिक एवं साम्प्रदा
इनका जन्म जयपुर राज्य के डिग्गी कस्बे में हुआ। यिक उपद्रवो के कारण जयपुर का वातावरण प्रशान्त था। जैन समाज भी अपने आपको सुरक्षित नही पा रहा
ये पचेवर गथे जहाँ इनकी साहिबराम से भेट हुई। उन्ही था। ऐसे समय में ये सागानेर छोड़कर भरतपुर चले गये ।
से इनको माहित्य रचना की प्रेरणा मिली। पचेवर से ये
लखा गये और वही १८८१ मे 'बन्ध उदय रत्ता चौपाई' १. हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास
तथा मार्गशीर्ष कृष्णा ६, स० १६०५ मे चौबीसटागा - कामताप्रसाद जैन, पृ० २१७ ।
चौपाई नामक ग्रन्थ की रचना की। २. हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास-नाथूराम सेवाराम शाहप्रेमी, पृ० ८०-८१ ।
ये मांगानेर निवासी बग्वतराम शाह के सुपुत्र थे । ३. हिन्दी जैन साहित्य का परिशीलन-नेमिचन्द्र जैन, घर में इन्हे माहित्यिक वातावरण मिला था। अतः पृ० २३४ ।
प्रारम्भ से ही साहित्य के प्रति रुचि होना स्वाभाविक
पूजा
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·५८ वर्ष २६, कि०३
अनेकान्त
३. शिखर विलास (१८४२) । ४ आगम शतक। ५ सम्यक्त्व कौमुदी । ६. अकृत्रिम चैत्यालय पूजा । ७. इन्द्रध्वज पूजा । ८. पचपरमेष्ठी पूजा ।
६. समवसरण पूजा। १०. त्रिलोकसार पूजा। ११. तेरहद्वीप पूजा। १२. पचकुमार पूजा। १३ पचकल्याण पूजा।
था। उस रुचि को इन्होंने निम्नलिखित ग्रन्थ लिखकर पूर्ण किया
१. चतुर्विशति पूजा भाषा (१८५४) २. धर्मोपदेश सग्रह (१८५८-१८६६) ३. मान-ज्ञान संग्राम
४. अनन्त व्रत पूजा आदि रतनचन्द्र
रतनचन्द्र का जन्म बैशाख सुदि पचमी वि० स० १८३४ मे बडजात्या गोत्रीय खण्डेलवाल परिवार में जयपुर राज्यान्तर्गत 'कुड' नामक ग्राम मे हुआ। इनके पिता का नाम लालचन्द तथा माता का नाम हीरादेवी था। इन्होने स. १८४८ मे लक्ष्मीचन्द मुनि से नागौर मे दीक्षा ग्रहण की । इस समय इनकी आयु लगभग १४ वर्ष की थी। इस प्रकार अल्पायु मे ही मुनि होकर इन्होने जयपुर, जोधपुर, मेवाड़, अजमेर व किशनगढ़ आदि स्थानों का भ्रमण किया। स० १८६२ मे ये प्राचार्य बन गये' । इनकी निम्नलिखित रचनाए उपलब्ध है -
१. चौबीस विनती। २. देवकी ढाल ।
३. पद' (११४)। लालचन्द
पं० लालचन्द सागानेर के निवासी थे। बड़े होने पर ये बयाना जाकर रहने लग गये। इनकी मुख्य रचनाए ये हैं
१. वरॉग चरित्र (माघ शु० ५ स० १८२७) । २. विमलनाथ पुराण भाषा (प्रासौज शु० १० स०
___ लक्ष्मीदास भी सागानेर के निवासी थे। ये देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। कार्तिक शुक्ल ६ स. १७८१ को इन्होने यशोधर चरित्र की रचना की। इस रचना का आधार भट्टारक सकलकीति तथा पद्मनाभ के सस्कृत में रचित यशोधर चरित्र थे। यशो पर चरित्र के कुछ छद दृष्टव्य है ...
कुंद लिता देडिलो मनोज प्रभूत महा, सब जग वासी जीव जे रंक करि राखे है। जाके बस भई भूप नारी रति जैम कांति, कुबेर प्रमान संग भोग अभिलाषे है । बोली सुन बैन तब दूसरी स्वभाव सेती, काम बान ही ते काम ऐसे वाक्य भाषे है । नैन तीर नाहि होइ तो कहा कर सुजाके, मति पास जीव नाना दुख चाख है।
१८३७)। जिनदास--
१. श्री रतनचन्द्र पद मुक्तावली पृ० (क)। २. वही, पृ. (ग)। ३. वही, पृ० (ग)। ४. राजस्थान के जैन शास्त्र भडारो की सूची पृ० ६४६ । ५. वही, पृ० ४४०। ६. इनके पद श्रीरत्नचन्द्र पदमुक्तावली नामक ग्रंथ मे
प्रकाशित हैं। ७. कामताप्रसाद जैन ने तो इनका नाम ही इस प्रकार
लिखा है-लालचन्द सागानेरी । हिन्दी जैन साहित्य का सक्षिप्त इतिहास-पृ० २१६ ।
जिनदास के विषय में केवल मात्र इतना ही ज्ञात हो सका है कि ये जयपुर के जैन कवि थे और इन्होंने अनेक कृतियों की रचना की थी। उनमें से कुछ उपलब्ध कृतियों के नाम ये है -
१. सतगुरु शतक । (चैत्र कृ० ८ सं० १८५२) । २. चेतनगीत।
३. धर्मतरुगीत"। ८. वीरवाणी ।
. शास्त्र भंडार पार्श्वनाथ का मदिर वे० ६०१ । १०. वही।
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राजस्थान के जन कवि और उनकी रचनाएं
પૂર
४. आराधनासार'। ५ मुनीश्वरों की जमाल'। प्रखंराम६. राजुल सज्झाय'। ७. विनती।
प० अखेराम ने आमेर के भट्टारक महेन्द्र कीति के ८. विवेक जकडी'। ६. सरस्वती जयमाल।
गद्दी पर बैठने पर उस उत्सव की "जकडी' की रचना १०. पद।
की है। इसमे तत्कालीन परिस्थितियो का चित्रण है। विजयनाथ माथुर ..
यह समय स० १७६२ के आसपास का था, क्योकि महेन्द्रये टोडा नगर के निवासी थे । इन्होने जयचन्द्र
कीति पौष शुक्ला १० सं० १७६२ में गद्दी पर बैठे थे । छाबड़ा के पुत्र ज्ञानचन्द के कहने से सकलकीति के वर्द्ध
अबराम के नाम से अनेक पद तथा 'शील तरगिणी' मानपुराण का पौष कृष्ण १० स० १८६१ को पद्यानुवाद
नामक एक कथा भी मिलती है। किया।
उदयराम----
उदयराम भट्टारक अनन्तकीर्ति के समय में हुए थे। नेमीचन्द पाटणी---
इन्होंने अनन्तकीति के चातुर्मास का वर्णन दो जकडियों में इनके पिता का नाम रत्नचन्द्र था। ये जयपुर के
किया है। इन जकडियो मे गेयता है और साथ ही ऐतिअलावा अहिपुर अमरावती एवं इन्दौर आदि स्थानों पर
हासिकता भी। जकड़ियों के अलावा इनके कुछ पद भी भी रहे। जयपुर में इनका निवास स्थान अमरचन्द दीवान
उपलब्ध हुए है। मंदिर में था। इनकी निम्नलिखित ३ रचनाए उपलब्ध
किशनसिंह पाटणी
किशनसिंह पाटणी का मूल निवास स्थान बरबाडा १ चतुर्विंशति तीर्थकर पूजा" (भादव। मुदि १० प १८८०) (मवाई माधोपुर) के पास रामपुर नामक गाँव था। २. तीन चौवीसी पूजा (कार्तिक सुदि १४ सं० १८६८) इनके पिता का नाम सुखदेव था। इनका गोत्र पाटणी ३ नोन लोक पूजा'' (स० १६२१)
तथा पद मगी था। कालान्तर मे किशनसिह सागानेर १. राज. के जैन शास्त्र भंडारों की हस्तलिखित पाकर रहने लगे और यही उन्होने ग्रथ रचना की। उप___ खोज - पृ० ७५७ ।
लब्ध इन रचनायो की सख्या लगभग १५ है२. वही, पृ० ६५८ । ३. वही, पृ० ७५० ।
१. णमोकार रास (स० १७६०) ४. वही, पृ० ७७५ । ५. वही, पृ० ७२२ ।
२. चौबीस दडक (१७६४) ६. वही, पृ. ६५८ ।
३. रात्रि भोजन कथा पद्य (१७७३) ७. वही, पृ० ५५८, ५८१ एवं ७६४ आदि ।
४ पुण्याश्रवकथाकोष (१७७२) ८. राजस्थान के हिन्दी साहित्यकार पृ० २६६ ।
५ भद्रबाहु चरित्र (१७८३) ६. साधर्मी जन मघ एक दिवस बैठे सभा।
६. पन क्रियाकोप (१७६४) भाषण को परमग, चर्चा सबै पुरान की।
७. लब्धिविधान कथा (१७८२) भाषा और पुराण की रची छंद के माहि ।
८. निर्वाण कांड (१७८३) वर्द्धमान पुराण की भापा है जू नाहि ॥
६. एकावली व्रत कथा .- वर्द्ध मानपुराण की प्रशस्ति ।
१०. चेतनलोरी १०. वीरवाणी।
११. गुरुभक्ति गीत
१२. जिन भक्ति गीत ११. यह ग्रंथ बाबा दुलीनन्द के भंडार के बे० स० १४४ ।।
१३. चेतनशिक्षा गीत पर है।
१४. चतुर्विशति स्तुति १२. यह ग्रंथ शास्त्र भंडार, बाबा दुलीचन्द भडार के बे० १५. श्रावक मुनी गुण वर्णन गीत । सं० २७५ पर है।
१. हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास-नाथू राम प्रेमी पृ० १३. राजस्थान के हिन्दी साहित्यार पृ० २६६ ।
६८-७१ ।
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भ रतीय दर्शन में योग
साध्वीश्री अशोकश्री जी
भारतीय संस्कृति अध्यात्म प्रधान है। यहाँ के ऋषि- वहाँ अनासक्ति योग का भी वर्णन किया गया है। यहां महषियों ने गिरि कन्दराओं मे बैठ कर आत्म-निदिध्यामन पर एक असामजस्य भी पैदा हो जाता है कि एक ओर से जो अनुपम एवं मौलिक तत्त्व पाये, उन्होने उनको जहाँ कर्म-कुशलता को योग कहा है, वहीं दूसरी पोर विश्व-हित मे वितरित किया था। उन्हें जितना स्व- अनासक्त रहने का उपदेश भी दिया गया है। यह प्रत्यक्ष कल्याण अभिप्रेत था, उतना पर-कल्याण भी अभीष्ट था। बिरोध चिन्तन के लिए विशेष उत्प्रेरित करता है। कार्य आत्मा का साक्षात्कार करने में उन्होने अथक प्रआयाम निपणता के लिए उसमे तल्लीन व तन्मय बनना पडता उठाया था। कठिन से कठिन साधना उन्होने की और है और उसमे बिना तन्मय बने कार्य-दक्षता नहीं मधती उसके आधार पर उन्हे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियां हुई । भावी तथा तल्लीन रहने पर भी इसमे ग्रामक्ति न हो, यह पीढी के लिए उन्होंने उन उपलब्धियो को संजोकर रक्ता, कैसे सम्भव है। पर गीता में इसका मुन्दर ममाधान जो आज हमारे लिए विशेष धरोहर बन गई है। हम दिया गया है, जिससे किसी को विरोधाभास प्रतीत न हो। यदि उसके अनुसार बढते रहे तो माधना के चरम उत्कर्ष
काव्य की भाषा में कहा जा सकता हैको सहज ही प्राप्त कर सकते है।
बांसों को छाया सीढ़ियो को बहार रही है ___ साधना के विभिन्न मार्ग है। योग-सावना भी उनमे परन्तु कोई धली नहीं उठती एक विशिष्ट मार्ग है, जिसे भारत की सभी परम्परागो ने
चन्द्रमा का प्रकाश पानी के तल में अन्तप्रवेश करता है स्वीकार किया है। इस राज-मार्ग पर चलकर व्यक्ति
परन्तु पानी में कोई चिह्न नहीं छोड़ता। स्व-हित और पर-हित दोनो को यथेष्ट रूप से साध अर्थ स्पष्ट ही है। क्रिया को सर्जना में कमल की सकता है। योग-परम्परा के विभिन्न पहलुयो पर विचार तरह निलिप्त रहे। करना प्रस्तुत निवन्ध का अभिप्रेत है ।
गीता मे एक दूसरी परिभाषा और भी आती है परिभाषा:
'योग, समत्वमुच्यते' समताभाव ही योग है। अरविद के योग शब्द युज् धातु के साथ छन् प्रत्यय से निष्पन्न विचारानुसार 'स्वास्थ्य, प्रसन्नता, स्फूर्ति और प्रानन्द हुआ है । युज् धातु दो प्रकार की है ..युज नर योगे और प्राप्त करने की कला का नाम योग है ।" वैसे तो अरविद युज समाधौ । प्रथम का अर्थ है ---जोड़ना और दूसरीका ने सम्पूर्ण जीवन को ही योग माना है। उनका कहना अर्थ है- समाधि (मन-स्थिरता)। विभिन्न प्राचार्यों ने है-"हम जीवन और योग दोनो को ही ठीक प्रकार योग को विभिन्न परिभाषाप्रो मे वाधा है। महर्षि पतजलि से देखे तो सम्पूर्ण जीवन ही सचेतन रूप से या अचेतन ने चित्तवृत्ति के निरोध को योग कहा है। दूसरी परिभाषा रूप से योग है। क्योंकि इस शब्द से हमारा मतलब है की अपेक्षा उन्होने पहली परिभाषा पर अधिक बल दिया कि अपनी सत्ता में प्रसुप्त क्षमतायो के आविर्भाव द्वारा है और उसका ही अपने ग्रन्थ मे आद्योपान्त विवेचन अात्मा की परिपूर्णता की दिशा में व्यक्ति का विधिबद्ध किया है । भगवद्गीता मे 'योग कर्मसु कौशलम्' प्रयत्न और मानव सृष्टि का उस विश्वव्यापी तथा परस्पर मन, वचन और काय के राम्या प्राोग को योग कहा है। के सत्ता के साथ मिलकर, जिसे कि हम मनुष्य में प्रोर १. योगश्चित्तवृत्ति निरोः ।
२. ध्यान सप्रदाय, पृ. ६४ ।
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भारतीय दर्शन में योग
विश्व में अंशतः अभिव्यक्त देखते है। परन्तु जीवन को सम्बन्ध कराये। धर्म मोक्ष का प्रधानतम साधन है; अत. उन प्रतीतियो के पीछे जाकर देखने पर सारा जीवन ही जितने भी धार्मिक व्यापार है, वे सब योग की परिधि में प्रकृति का विशाल योग दिखाई देता है, उस प्रकृति का है। इस व्याख्या का फलित होता है; 'वत्थु सहावो जो अपनी सभाव्य गवितयो के सब वृद्धिशाली प्राविर्भाव धम्मो'--यात्म-रूप वस्तु का स्वभाव- ---धर्म ही योग है। मे पूर्णता साधित करने और अपनी दिव्य वास्तविक सत्ता उपर्युक्त परिभाषाओं में जितना योग शब्द का अर्थ के साथ ।" दूसरे शब्दो मे अरविद का योग मनुष्य जाति जोडना उपयुक्त बैठता है, उतने अन्य अर्थ नहीं । फिर भी मे भगवान् पाना और प्रकट करना है। इस योग सभी परिभापायो में सत्याश अवश्य रहता है। क्योंकि का सागा यही है कि हम अपने आपको भगवान् के अन्तिम लक्ष्य सबका एक है - यात्मस्थित शक्तियो के समक्ष प्रस्तुत कर दे और भगवान् की उत्कृष्ट ज्योति उत्कर्पण एव बाह्य विषयो के अपकर्षण द्वारा मुक्ति व
और पवित्रता को अपने मन मे ले पावें । विवेकानन्द ने शाश्वत शान्ति की मोर अग्रभर होना। इसलिए माराश मानसिक नियमन को योग कहा है।
के रूप मे हम कह सकते है, एक ही मजिल की अनेक व्यास जी ने प्रथम सूत्र की व्याख्या मे लिखा है कि राहे है जैसे कि एक ही वृक्ष की अनेक शाग्वाएं । 'योग समाधि' । वाचस्पति मिश्र ने उसे स्पष्ट किया है
योग का विशाल साहित्य कि यहाँ योग शब्द युजनर् योगे इस धातु से नही बना है,
वेद और उपनिषद् : अपितु युज् समाधों से बना है। किमी महपि ने उद्योग, सयोग और वियोग, इन तीनो के समवापी रूप को गोग
भारतीय दर्शनो की तीन प्रमखनग धागा रही है--- बताया है। अभ्याम उद्योग है, वैगग्य वियोग और पणि
वैदिक, बौद्ध और जैन । तीनाही परम्पराओं में न्यूनाधिक धान सयोग है। अात्माद्वैत वाद में 'ब्रह्म प्राप्ति के मार्ग
मात्रा में योग का विशापण मिलता है। वैदिक माहित्य एव सम्यग् ज्ञान का जो साधन है, वही योग है।
का सबसे प्राचीनतम ग्रन्थ है - ऋग्वेद । ममे योग शब्द 'प्रवृत्तिलक्षणो योग' प्रवृत्तिमात्र योग है, यह परिभाषा
का प्रयोग प्रचर मात्रा में किया गया है, पर उसका अर्थ भी की जाती है।
प्राय जोडना ही अभिप्रेत रहा है, ममाधि व आध्यात्मिक
अर्थ वहां विवक्षित नही है। पर इसके उत्तरवर्ती साहित्य बौद्ध परम्परा में 'कुशल पवित्तीए जोगो'-- -कुशल
--उपनिपदो मे प्राध्यात्मिक अर्थ में भी योग शब्द का प्रवृत्ति को योग कहा है।
प्रयोग है। श्वेताश्वर उपनिषद् में स्पष्ट रूप से योग जैन परम्परा मे हेमचन्द्राचार्य ने योग को निम्नोक्त और योगोचित्त, ग्थान प्रत्याहार धारणादि योगाङ्गो रूप मे अभिव्यजित किया है—"चार वर्गो मे मोक्ष का वर्णन भी मिलता है।" मन्यकालीन एव अर्वाचीन सबसे प्रधान है। योग उसका कारण है। ज्ञान, दर्शन उपनिषद तो केवल योग विषयक ही है, जिनमे योगशास्त्र और चारित्र; इस त्रिवेणी का संगम ही योग है।' की भाति योगाडोका मागोपाग वर्णन है। वे निम्नोक्त आचार्य हरिभद्र के अभिमतानुसार धर्म का व्यापार मात्र योग है अर्थात् योग वह है, जो मोक्ष के माथ साक्षात
४ योगविगिका १
मोक्खेण जोयणाग्रो जोगो सव्वो वि धम्म वावारो १. योग विचार, पृ० १।
परिसुद्धो विन्नेग्रो, ठाणाई गमो विसंसेणं २. आत्माद्वैतवाद ।
५. श्वेताश्वतर उपनिषद्, अ०२ परमार्थब्रह्मप्राप्ति मार्गभूत सम्यग् साधनीभूतो योग । ६. त्रिरून्नत स्थाप्य समं शरीर, ३. योगशास्त्र, पृ० १, श्लो० १५ ।
हृदीन्द्रियाणि मनसा सनिरध्य । चतुर्वर्ग ऽग्रणी मोक्षो योगस्तस्य च कारणम्
ब्रह्मोडुपेन प्रतरेत् विद्वान्, ज्ञान, श्रद्धा चारित्र रूप, त्रयं च स ।
स्त्रोतासि सर्वाणि भयावहानि ॥८॥
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६२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
है-ब्रह्मविद्योपनिषद, ब्रह्म बिदु, योगशिवा, ध्यानबिन्दु, पुराण : तेजबिन्दु, योगतत्त्व, नादबिन्दु और चूलिकोपनिषद् पुराणो मे भागवत मे योग का सुमधुर पद्यो मे वर्णन
आदि। कहना चाहिए, ऋग्वेद मे जो अध्यात्म-चिन्तन आता है । अनेक तान्त्रिक ग्रथो मे भी योग विषयक तथ्य अंकुरित था, वही उपनिवदो मे पल्लविन एवं पुष्पित विवरे पडे है। उनमे महानिर्माण तन्त्र षड्चक्र निरूपण होकर शाखा-प्रशाखाग्रो के मान फनावस्था को प्राप्त आदि मुख्य है। यहाँ पर जीप (गमागे अात्मा), प्रात्मा हमा है। उपनिषद् काल में योग-प्रक्रिया कितनी पल्लवित (मक्त अात्मा) और परमात्मा; इन तीनो को अभेद थी, यह स्पष्ट ही है।
प्रतिपत्ति को योग बताया है।' महाभारत और गीता :
जैमिनी: महाभारत मे भी योग शब्द का प्रयोग अध्यात्म के
पूर्व मीमामा मे जैमिनी ने योग का निदेश तक नही अर्थ मे मिलता है । शान्ति पर्व और अनुशासन पर्व मे
किया है, वह किसी दृष्टि से ठीक भी है, क्योकि उसमे योग की प्रति प्रक्रिया का समचित वर्णन मिलता है ।
मकाम कर्मकाण्ड अर्थात् धूममार्ग की ही मीमांसा है। गीता भी महाभारत का ही एक विशेष अग है । वहाँ पर
उसकी पहुंच भी स्वर्ग तक ही है, उसका साध्य मोक्ष योग अध्यात्म अर्थ में विपुल मात्रा में अभिव्यजित नहीं है। पर योग का उपयोग तो मोक्ष के लिए ही अवश्य है, पर वह भवित, ज्ञान और कर्म इन तीनो से होता है। मंश्लिष्ट होकर ही। गीता के छठे और तेरहवे अध्याय मे सांख्य परम्परा : तो योग के मौलिक सिद्धान्त और योग की मारी प्रक्रियाए साख्य मूत्र में भी योग-प्रप्रिया पर वर्णन करने वाले या जाती है।
कई सूत्र है।" महर्षि वादगयण ने अपने ब्रह्म सूत्र के न्याय:
तीसरे अध्याय का नाम ही साधना अध्याय रक्खा है और न्याय, जिसका प्रमग्य विषय है प्रमाण-पद्धति का उसमे ग्रासन. ध्यानादि योगाङ्गों का समुचित विवेचन विश्लेषण करना, उममे भी महर्षि गौतम ने योग को है। 'योगदर्शन' तो मुख्यतया योग विषयक ही ठहरा, महत्त्व दिया है। महर्षि कणाद ने तो अपने वैशेषिक दर्शन उसमे योग-प्रक्रिया का पाया जाना स्वाभाविक ही है। मे यम-नियमादि योगाङ्गों की विशेष महिमा गाई है। इतना ही नही, वह तो सारे यौगिक ग्रन्थों का उत्तर
दायित्व बहन करने वाला है। अनेक दार्शनिको ने योग प्राणान् प्रयोऽयेह मयुक्त चेष्ट,
पर थोडा मा विवेचन करके विशेष जानकारी के लिए क्षीणे प्राण नामिकयोच्छ्वामीत् ।
'योगदर्शन' को देखने की सूचना दी है। महर्षि पतजलि दुष्टाश्व युक्तमिव वाहमेन,
द्वारा प्रणीत 'पातजल योगदर्शन' भी सर्वांगीण योग-साधना विद्वान् मनो धारयेताप्रमन ।।६।।
का संवाहक सर्वोत्तम ग्रन्थ है। उसका अनुकरण तो प्राय: समे शुचौ शर्करा वह्नि, वालुका विवजिते शब्दजाल श्रयादिभि. ।
दार्शनिकों ने किया ही है। मनोनुकले न तु चक्षुपीडने,
३. महानिर्माण तंत्र, अ. ३, पृ० ८२ ग्रहानि वातश्रयणे प्रयोजयेत् ॥१०॥
ऐक्य जीवात्मनो राहु. योग योग विशारदाः १. शान्तिपर्व १६३, २१७, २४६, २५४ आदि, अनुशा- शिवात्मनोरभेदेन प्रतिपत्ति परे विदु. । सन पर्व ३४, २४६ ।
४. अभिषेचनोपवास ब्रह्मचर्य गुरुकुलवास नाना प्रस्थ २. समाधि विशेषाभ्यासात् ४१२१३८
यज्ञादान प्रेक्षणदिङ् नक्षत्र मन्त्र काल नियमाश्च अरण्य गुहा पुलिनादिषु योगाभ्यासोपदेशः । -४।२।४२ दृष्टयः । ६।२।२। तदर्थ यमनियमाभ्यात्म संस्कारो
प्रयतस्य शुचि भोजनाभ्युदयो न विद्यते नियमाभावाद् योगाच्चात्मध्यात्म विध्युपायै । -४।२।४६ विद्यते नार्थान्तराद् वा यमस्य ।
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भारतीय दर्शन में योग
था।
बौर परम्परा
विकसित थी, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है । बौद्ध परम्परा मे योग के अर्थ मे ध्यान शब्द का जैन दर्शन मे योग शब्द को एक सकीर्ण परिभाषा मे न प्रयोग प्राता है । जैन परम्परा की तरह बौद्ध परम्परा मे बाधकर उसे विशाल अर्थ प्रदान किया है । महर्षि पतजलि भी चार प्रकार के ध्यानो का वर्णन मिलता है, जिनका की तरह उसे न केवल निरोधात्मक ही माना है और न विश्लेषण हम पागे करेंगे । 'बिशुद्धि मग्ग' मे तीन तरह अरविद की तरह विधेयात्मक ही; प्रत्युत दोनों को एक की समाधियो का उल्लेख मिलता है। 'विशुद्धि मग्ग' साथ तोला है। जो भी प्रवृत्ति या निवृत्ति मोक्ष के और 'अभिधम्म कोष', ये दोनों तो मुख्यत ध्यान विषयक अभिमुख ले जाये, उसी प्रवृत्ति एव निवृत्ति का नाम योग ही है। भगवान् महावीर की तरह भगवान् बुद्ध ने भी है। प्रवृत्ति का सूचक शब्द निर्जरा एव निवृत्ति का सूचक बोधि-प्राप्ति के पूर्व ६ वर्ष तक योगाभ्यास किया था। शब्द सवर है। सवर योग और निर्जरा योग, ये दोनों उनके सहस्रों शिष्यों ने भी वही पथ अपनाया था। ध्यान जैन दर्शन के हार्द है । सामान्यतया योग शब्द का फलिसंप्रदाय बौद्ध धर्म की ही एक शाखा है। उपर्युक्त इन ताथ अध्यात्म-विकास हा है। अध्यात्म-विकाम ने जितना सभी तथ्यो से यही निष्कर्ष निकलता है कि बौद्ध परम्परा
जैन दर्शन मे बिकास पाया है, उतना अन्य दर्शनो मे मे भी योग-विद्या विकसित एव पल्लवित थी।
नही । यह पूर्ववर्ती साहित्य का समुल्लेख हुआ। जैन परम्परा:
१. हरिभद्र: जैन परम्परा के पूर्ववर्ती साहित्य मे योग के अर्थ में मध्ययुग मे श्री हरिभद्र सूरि ने तत्कालीन परिस्थितप और सवर शब्द का जितना उपयोग हमा है उतना तियो का अध्ययन करके तथा लोक रुचि के अनुसार योग योग शब्द का नहीं हुआ है। तप के अनशन प्रादि बारह
शब्द की नवीन परिभापा कर योग माहित्य में एक नया भेदों का एव संवर के सम्यक्त्व आदि पाच भेदो का वर्णन अध्याय जोड दिया था। सुव्यवस्थित योग साहित्य की अनेक स्थानो पर मिलता है। वर्णन ही नहीं, बल्कि
जैन परम्परा में जो कमी थी, उसे उन्होंने अपनी बौद्धिक इसका विकास तत्कालीन मुनियो में साक्षात् मूर्तिमान् प्रतिभा से सम्पन्न किया। योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, था। भगवान महावीर की बारह वर्ष की कठोरतम साधना योगविशिका, योगशतक और पोडशक, ये योगप्रक्रिया इसी योगाभ्यास की ज्वलन्त प्रतीक थी। अनेक स्थलो
Ghथी। सोन स्थलों का समस्त व्यौरा देने वाली उनकी अनुपम कृतियाँ है। पर पाता है कि भगवान् महावीर अमुक आसन लिए उनकी प्रतिभा ने केवल जैन योग का वर्णन करके ही हए ध्यान में रत थे। 'तीर्थकर महावीर' पुस्तक में इसी प्रात्मतोष नही माना, प्रत्युत ‘पातंजल योग दर्शन' मे विषय को पुष्ट करते हुए लिखा है-'सानुलट्रिय से भग- प्रतिपादित योग-प्रक्रिया के साथ जैन सकेतो का समन्वय वान ने दृढभूमि की ओर विहार किया और पेढाल गाव भी प्रस्तुत किया है । 'योग दृष्टि समुच्चय' में जिन आठ मे स्थित पेढाल नामक उद्यान मे पोलास नाम के चैत्य में दृष्टियो का वर्णन है, वह सारे योग साहित्य में एक नया जाकर अष्टम तप करके एक भी जीव की विराधना न आलोक है। इनका सविस्तर वर्णन अग्रिम प्रकरणो में हो, इस प्रकार एक शिला पर शरीर को कुछ झकाकर किया जा सकेगा। हाथ लम्बे करके किसी रूक्ष पदार्थ पर दृष्टि स्थिर करके २. हेमचन्द्र : दढ़ मनस्क होकर अनिमेष दृष्टि से भगवान् वहाँ एक हेमचन्द्र सूरि द्वारा रचित 'योगशास्त्र' भी एक रात्रि ध्यान में स्थिर रहे। यह महाप्रतिमा तप कह- अनठा ग्रन्थ है । उसमे पातंजल योगदर्शन मे प्रतिपादित लाता है।'
आठ योगाङ्गो के क्रम से साधु और गृहस्थ जीवन की योग शब्द इस अर्थ मे पागभानुमोदित भले ही न हो,
आचार-प्रक्रिया का जैन सिद्धान्तानुसार सुन्दरतम वर्णन पर योग-प्रक्रिया उस समय भी नितान्त पल्लवित एवं
है। उसमे प्रासन, प्राणायाम, धारणा और ध्यान प्रभृति १. तीर्थकर महावीर, पृ० २२१
के स्वरूपों का वर्णन एवं उनकी महिमा भी बतलाई गई
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६४, वर्ष २६, कि० २
है। इससे यह फलित होता है कि हेमचन्द्र ने राजयोग की तरह हठयोग को भी महत्त्व दिया था । ३. यशोविजय :
अनेकान्त
यशोविजयजी द्वारा रचित योगग्रन्थ भी जैन साहित्य की अनुपम निधियों है । उनका शास्त्राध्ययन, तर्क- कौशल और योगानुभूति अत्यन्त गम्भीर थी। उन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, सटीक बत्तीस बत्तीसियाँ लिखकर योग साहित्य में मानो एक प्रकार की बाढ-सी ला दी । उन्होने जैन सिद्धान्तो की सूक्ष्म मीमासा के साथ अन्य दर्शनों का समन्वय भी किया है। इसके अतिरिक्त उन्होने हरिभद्रसूरि कृत 'योगविशिका' तथा पोडशक ग्रंथो पर टीका लिखकर गूढ तत्त्वों का उद्घाटन भी किया था। उन्होने महर्षि पतजलि कृत योग सूत्र पर भी एक लघुवृत्ति लिखी तथा उसमे जैन परम्परा एव साख्य परम्परा का यथासम्भव समन्वय भी किया है। तटस्थता की झलक उनके प्रत्येक ग्रंथ में रही है । ४. दिगम्बर परम्परा :
रचयिता का परिचय अब तक सुलभ नही हुआ है। योगतारावली, योगवीज और योग कल्पद्रुम आदि ग्रंथ भी महत्त्वपूर्ण है । विक्रम की सत्रहवी शताब्दी मे भवदेव द्वारा रचित 'योग निबन्ध' नामक हस्तलिखित ग्रन्थ भी देखने में पाया है जिसमें विष्णु पुराणादि प्रत्थों के उद्ध रण देकर योग सम्बन्धी प्रत्येक विषय पर विस्तृत विवेचन किया है।
अन्य भाषाओं में :
महाराष्ट्री भाषा मे ज्ञानदेवी द्वारा विरचित गीता की ज्ञानेश्वरी टीका भी दर्शनीय है। इसके छठे अध्याय का वर्णन अत्यन्त सुन्दर एव मनोहर है। निश्चित ही ज्ञानदेवी ने ज्ञानेश्वरी टीका द्वारा अपने अनुभव एव वाणी को अबध्य बनाया है । 'सिद्धान्त सहिता' भी योग विषयक दर्शनीय ग्रन्थ है। कबीर का 'बीजक ग्रन्थ' भी योग साहित्य का एक अंग है । हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली आदि विविध भाषाओ मे पातजल योग शास्त्र का अनुवाद तथा विवेचन मिलता है। विभिन्न भाषाओ मे पानजल योग शास्त्र का अनुवाद योग साहित्य के गौरव को और भी बढ़ा देता है । भारतीय साहित्य मे योग साहित्य भी अपना अनूठा स्थान रखता है, यह अब कोई उलझा हुआ विषय नही रह गया है। ⭑
धर्म
दिगम्बर साहित्य मे ज्ञानार्णव तो प्रसिद्धतम ग्रथ है ही, ध्यानमार और योग प्रदीप ये दोनो भी कम महत्त्व के नही है । वे पद्यात्मक एव लघु परिमाण है । 'योगसार' नामक ग्रथ भी इस विषय मे महत्त्वपूर्ण है । पर इसके लका में जैन
लंका देश में जिस समय बौद्ध भिक्षु गये, उस समय जैन धर्म लंका देश में फैला हुआ था व जैन साधु बड़ी संख्या में विचरण करते थे। हिन्दी साप्ताहिक पत्र "चौराहा" में "जैन और बौद्ध परम्पराओं का मिलन बिन्दु' शीर्षक निम्नलिखित लेख में यह जानकारी प्रकाशित हुई है।
यहाँ बौद्ध साहित्य के गौरव को बढ़ाने वाली एक बात को भी बताना अनुचित न होगा, जिसने जैन धर्म के एक ऐसे गौरवमय साक्ष्य की ओर संकेत किया है जिसका पता स्वयं जैन धर्म को भी नहीं है। प्रशोक के पुत्र श्रौर पुत्री, महेन्द्र और संघमित्रा, जब लका में धर्म प्रचारावं गये तो वहां उन्होंने अपने से पूर्व स्थापित निर्णय संघको देखा । लंका के प्राचीन नगर अनुराधापुर की (जो आज खण्डहर के रूप में पड़ा है) जब स्थापना की गई तो वहाँ महावंश के कथनानुसार तत्कालीन राजा ने निर्ग्रन्थों के लिए भी श्राश्रम बनाए। इतना ही नहीं, पालि ग्रन्थों का साक्ष्य है कि लंका में वौद्ध धर्म की स्थापना होने के बाद भी ४४ ईसवी पूर्व तक निर्ग्रन्थों के श्राश्रम लंका में विद्य मान थे, जिसे ऐतिहासिक तथ्य के रूप में पालि डिक्शनरी ग्राफ प्रापर नेम्स के सम्पादक प्रसिद्ध सिंहली बौद्ध विद्वान् मललसकर ने भी स्वीकार किया है। जैन विद्वानों को अपने प्राचीन विदेशी प्रचार कार्य की खोज करनी चाहिए ।
जैन दर्शन साधना का केन्द्रीय विचार है, वस्तुतः वीतरागता । सम्पूर्ण वीतरागता जंन-दर्शन का लक्ष्य है। हिंसा श्रौर श्रनेकान्त उसके दाएँ-बाएँ स्थित है। यह त्रिविध साधना मानवता के तेज को निखारने वाली है । 'माणुसतं भवे मूर्त' मनुष्यता ही मूल वस्तु है, यह जो कहा गया है, यही वस्तुतः जंन दर्शन की प्रकृत स्थिति है, उसका श्रात्मवाद नहीं । और यहीं पर बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन दोनों मिलते हैं। दोनों का लक्ष्य मानव है, वह मानव जो पूर्ण विमुक्त है, केवली है, महंत है । - महेन्द्रकुमार जैन दिल्ली
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गया है।
कौशाम्बी
पं० बलभद्र जैन स्थिति-इलाहावाद से दक्षिण-पश्चिम मे यमुना के परणेण सुसीमाए कोसंवि पुरवरे जादो ॥४॥५३१ ॥ उत्तरी तट पर ६० किलोमीटर दूर कोसम नामक एक ---पद्मप्रभु तीर्थकर ने कौशाम्बी पुरी मे पिता धरण छोटा सा ग्राम है । वहाँ जाने के लिए इला बाद से मोटर और माता सुसीमा से आसोज कृष्णा त्रयोदशी के दिन मिलती है । इलाहाबाद से सराय अकिल तक ४२ किलो चित्रा नक्षत्र में जन्म लिया। मोटर की पक्की सड़क है। वहाँ से कौशाम्बी का रैस्ट इसका समर्थन प्रा. रविषेष कृत 'पद्मपुराण । हाउस कच्चे मार्ग से १८ किलोमीटर दूर है। यहां तक बस १४५, प्रा० जटासिंह नन्दी कृत 'वराङ्ग-चरित २७१८२, जाती है। रैस्ट हाउस से क्षेत्र ४ किलोमीटर है। प्रा० गुणभद्र कृत 'उत्तर पुराण ५२१३८ में भी किया कच्चा मार्ग है। इलाहाबाद से २३ मील दूर मेन
उस समय कोशाम्बी अत्यन्त समृद्ध महानगरी थी। लाइन पर भरवारी स्टेशन से यह क्षेत्र दक्षिण को
आज तो वह खण्डहरो के रूप मे पड़ी हुई है। कहते है, ओर २० मील है। यहाँ से भी मोटर, इक्का द्वारा
वर्तमान सिहबल, कोसम, पाली, पभोसा ये सब गाव पहले जा सकते है। आजकल प्राचीन वैभवशाली कौशाम्बी के
कौशाम्बी के अन्तर्गत थे । वास्तव में कौशाम्बी में भगवान स्थान पर गढ़वा कोसम इनाम और कोसम खिराज नामक छोटे-छोटे गाँव है जो जमुना के तट पर अवस्थित है।
के गर्भ और जन्म कल्याणक हुए थे और पभोसा में जो क्षेत्र से गढ़वा इनाम गाव १ किलोमीटर है। वहाँ से
कौशाम्बी का उद्यान था, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणक १० किलोमीटर जल मार्ग से पभोसा गिरि है, जहाँ पर
हुए थे, अत. ये दोनों ही स्थान तीर्थ क्षेत्र है। आजकल भगवान पद्मप्रभु की भव्य मूर्ति है । कौशाम्बी की स्थापना
इस वन का नाम अथरवन कहलाता है। चन्द्र वशी राजा कुशाम्बु ने की थी। इसका पोस्ट ग्राफिस .
भगवान के दीक्षा-कल्याणक का विवरण 'तिलोय अकिल सराय है।
पण्णत्ति' में इस प्रकार मिलता है :--.
वेत्तासु किण्हतेरसिधवरण्हे कत्तियस्स णिक्कतो। तीर्थक्षेत्र-इस नगरी की प्रसिद्धि छटवे तीर्थकर पउमापहो जिणिदो तदिए खवणे मणोहरुज्जाणे ॥४॥६४६ भगवान पद्मप्रभु के कारण हुई है। भगवान पद्मप्रभु के --पद्मप्रभ जिनेन्द्र कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के अपगर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक यही पर हुए थे। राण्ह समय मे, चित्रा नक्षत्र में, मनोहर उद्यान मे तृतीय इन कल्याणको को मनाने के लिए इन्द्र और देव, राजा भक्त के साथ दीक्षित हुए। उन्होने दीक्षा लेकर दो दिन
और प्रजा सबका यहाँ प्रागमन हया था और यह नगरी का उपवास किया। वे दो दिन के पश्चात् वर्धमान नगर तब विश्व के आकर्षण का केन्द्र बन गई थी। तबसे यह मे पारणा के निमित्त पधारे । राजा सोमदत्त ने भगवान नगरी लोक विश्रुत तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हो गई। प्रसिद्ध को आहार दान देकर असीम पुण्य का बन्ध किया। देवजैन शास्त्र तिलोय पण्णत्ति मे भगवान पद्मप्रभ की ताओ ने षचाश्चर्य किये। भगवान घोर तप करने लगे। कल्याणक भूमि के रूप में कौशाम्बी का उल्लेख इस प्रकार दीक्षा के छह माह पश्चात् भगवान विहार करते हुए पुनः पाया है :
दीक्षावन में पधारे । यहाँ आप ध्यान लगाकर बैठ गये प्रस्सजुद किण्ह तेरसि दिणम्मि पउमप्पहो प चित्तासु। और इसी मनोहर उद्यान में उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो
( ६५ )
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६६, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
गया। प्राचार्य यतिवृषभ 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रंथ में भगवान भगवान का आहार समाप्त हुआ। देवों ने पाकर के ज्ञान कल्याणक का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहते उसका सम्मान किया। उन्होंने पंचाश्चर्य किये-अाकाश
से रत्न वर्षा हुई, पुष्प वृष्टि हुई, देवों ने दुन्दुभी घोष बहसाह सुक्क बसमी चेतारिक्खे मणोहरुज्जाणे । किये, शीतल सुरभित पबन बहने लगी और आकाश मे प्रवरण्हे उप्पणं पउमप्पह जिणरिदस्स ॥४॥६८३ खड़े हुए देव जयजयकार कर रहे थे, 'धन्य यह दान, धन्य
- पद्मप्रभ जिनेश्वर को वैशाख शुक्ला दसमी के यह पात्र और धन्य यह दाता ।' अपराण्ह काल में चित्रा नक्षत्र के रहते मनोहर उद्यान में प्रभु पाहार के पश्चात् वन की ओर चले गये, भक्त केवलज्ञाम उत्पन्न हुआ।
चन्दना जाते हुए प्रभु को निनिमेष दृष्टि से देखती रही । । उसी समय इन्द्रों और देवों ने प्राकर उनकी पूजा कौशाम्बी के नागरिक आकर चन्दना के पुण्य की सराहना की । कुवेर ने समवसरण की रचना की और भगबान ने कर रहे थे। यह पुण्य-चर्चा राजमहलो मे भी पहुची। इसी बन मे-पभोसा गिरि मे धर्म-चक्र प्रवर्तन किया। कौशाम्बी नरेश शतानीक की पटरानी मृगावती ने सुना
यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना उस समय घटित हुई, तो वह उस महिमामयी भाग्यवती नारी के दर्शन करने जब भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व यहाँ पधारे। के लिए राजकुमार उदयन के साथ स्वय पाई। किन्तु वे पारणा के लिए नगर मे पधारे। संयोगवश उस समय उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्यमिश्रित हर्ष हा कि वह भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली गणराज्य वैशाली के अधि- नारी और कोई नही; उसकी छोटी बहिन है । वह अपनो पति चेटक की पुत्री कुमारी चन्दना (चन्दनवाला) दुर्भाग्य प्रिय बहिन को बडे आदरपूर्वक महलो मे लिवा ले गई। के चक्र मे पडकर सेठ वषभसन की सेठानी द्वारा बधन किन्तु चन्दना अपनी इस अल्प वय मे ही कर्म के जिन कर में पड़ी हुई थी। झूठे सापत्न्य द्वेष से सेठानी ने उसे जजीरो हाथो मे पडकर नाना प्रकार की लाच्छनाप्रो और ब्यमें बाध रक्खा था। चन्दना ने ज्यों ही प्रभु महावीर को थानो का अनुभव कर चुकी थी, उससे उसके मन मे देखा तो उसके सारे बन्धन खुल गये। सेठानी ने उसे संसार के प्रति प्रबल निर्वेद पनप रहा था । उसके बधुजन निराभरण कर रखा था, उसे खाने के लिए काजी मिश्रित पाकर उसे लिवा ले गये। लेकिन उसका वैराग्य पकता कोदो का भात मिट्टी के सकोरे मे दे रक्खा था । भगवान ही गया और एक दिन चन्दना घरबार और राज सुखों के दर्शन करते ही उसका कोमल शरीर बहमूल्य वस्त्रा- का परित्याग करके भगवान महावीर की शरण मे जा भूषणों ने सुशोभित होने लगा । उसके शील के माहात्म्य पहुची और आर्यिका दीक्षा ले ली। अपने तप और कठोर से उसका मिट्टी का सकोरा सोने का हो गया और कोदो __ साधना के बल पर वह भगवान महावीर की ३,६००० का भात शाली चावलों का भात बन गया। किन्तु चदना प्रायिकानो के सघ की सर्वप्रमुख गणिनी के पद पर प्रतिको तो इस सबकी ओर ध्यान देने का अवकाश ही कहाँ ष्ठित हुई। था। वह तो प्रभु की भक्ति में लीन थी। जगद्गुरु भगवान महावीर अपने जीवन काल में कई बार त्रिलोकीनाथ प्रभु उसके द्वार पर आहार के लिए आये कौशाम्बी पधारे और वहाँ उनका समवसरण लगा। थे। उसके हृदय का सम्पूर्ण रस ही भक्ति बन गया था। तत्कालीन इतिहास--जैन ग्रन्थो से ज्ञात होता है कि वह भगवान के चरणों में झुकी और नवधा भक्तिपूर्वक ईसा पूर्व ७वी शताब्दी में जो सोलह बड़े जनाद थे, उनमे उसने भगवान को पड़गाया। आज उसके हृदय में कितना एक वत्स देश भी था, जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। हर्ष था ! वह अपने सारे शोक-सन्तापों को भूल गई। गंगा जी की बाढ़ के कारण जब हस्तिनापूर का विनाश आज उसके हाथों से तीर्थङ्कर भगवान ने आहार लिया हो गया, उसके बाद चन्द्रवंशी नेमिचक्र ने कौशाम्बी को या। इससे बड़ा पुण्य संसार में क्या कोई दूसरा हो अपनी राजधानी बनाया था। उनके वश ने यहाँ वाईस सकता है।
पीढ़ी तक राज्य किया।
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कौशाम्बी
भगवान महावीर के समय में शतानीक वत्स देश का ललित कलापों में उसकी बड़ी रुचि थी। उसके यहाँ राजा था। वैशाली गणतंत्र के अधिपति चेटक की सात एक कुशल चित्रकार था। किसी कारणवश राजा ने उसे पुत्रियाँ थी जिनमे से ज्येष्ठा और चन्दना तो प्रवजित हो निकाल दिया। इससे चित्रकार के मन में प्रतिशोध की गई। शेष पाँच पुत्रियो मे बडी पुत्री प्रियकारिणी-जिन्हे भावना जागृत हुई। वह सीधा अवन्ती नरेश चण्डप्रद्योत त्रिशला भी कहा जाता है--कुण्डलपुर नरेश महाराज के राजदरवार में पहुंचा और उसे मृगावती रानी का चित्र सिद्धार्थ के साथ व्याही गई। मृगावती वत्सनरेश चन्द्रवंशी दिखाया। प्रद्योत चित्र देखते ही मृगावती के ऊपर मोहित सहस्रानीक के पुत्र शतानीक के साथ, सुप्रभा दशार्ण देश हो गया। उसने शतानीक के पास सन्देश भेजा कि या के हेमकच्छ नरेश सूर्यवशी दशरथ के साथ, प्रभावती कच्छ तो महारानी मृगावती को मुझे दे दो या फिर युद्ध के देश की रोरुका नगरी के राजा उदयन के साथ, पांचवी लिए तैयार हो जानो। वीर शतानीक ने युद्ध पसन्द पत्री चेलिनी मगध नरेश शिशुनागवंशी श्रेणिक के साथ किया। अवन्ती नरेश ने प्रबल वेग से कौशाम्बी पर विवाही गई।
आक्रमण कर दिया। किन्तु शतानीक की इस युद्ध के इस प्रकार वत्सराज शतानीक सासारिक सम्बन्ध के दौरान–सम्भवतः विशुचिका रोग से मृत्यु हो गई। कारण महावीर भगवान के मौसा थे और मृगावती उनकी प्रद्योत उस समय वापिस लौट गया। मौसी थी। इस प्रकार उनका इस राजवंश से रक्त सबध मृगावती ने राज्य का शासन-सूत्र सम्भाल लिया। था । किन्तु इससे अधिक उनके पतित पावन व्यक्तित्व के उदयन की अवस्था उस समय ६-७ वर्ष की थी। रानी कारण यह राजवश उनका अनन्य भक्त था ।
जानती थी कि प्रद्योत से युद्ध अवश्यम्भावी है । अतः वह वत्स देश के राजाओं के सम्बन्ध में कहा जाता है कि युद्ध की तैयारी करती रही। उसने एक मजबूत किला वे शिक्षित और सुसस्कृत थे। इनकी राजवशावली इस बनवाया। प्रद्योत ने मृगावती के पास पुनः विवाह का प्रकार बताई जाती है -
प्रस्ताव भेजा। मृगावती ने चतुराई से उदयन के राज्या१. मुतीर्थ
रोहण तक का समय मांग लिया और वह किले-खाइयो २. रच
और युद्ध की अन्य तैयारियो मे जुटी रही । १३-१४ वर्ष ३. चित्राक्ष
की अवस्था में उदयन का राज्याभिषेक हुआ। प्रद्योत ने ४. सुग्वीलाल-सहस्रानीक
पुनः कौशाम्बी पर आक्रमण कर दिया। भयानक युद्ध ५. परंतप शतानीक और जयंती पुत्री
हुआ । अन्त मे समझौता हुआ । प्रद्योत के हाथों से उदयन ६. उदयन और एक पुत्री
का राज्याभिषेक हुआ, मृगावती भगवान महावीर के पास ७. मेधाबिन अथवा मणिप्रभ
दीक्षित हो गई। ८. दण्डपाणि
उदयन भी भगवान महावीर के समकालीन था । ९.क्षेमक ।
वह अपने समय में सारे देश में रूप और गुणों मे सारे शतानीक की बहिन जयन्ती कट्टर जैन धर्मानुयायी राजकुमारों की ईर्ष्या और कुमारियों की कामना का एक थी और महावीर' की भक्त थी। शतानीक वड़ा वीर मात्र प्राधार बन गया था। यह कहा जाता है कि उस
उसने एक बार चम्पानगरा पर आक्रमण करक उस समय की प्रमुख पांच महानगरियों में उदयन के चित्र जीत लिया और उसे अपने राज्य मे मिला लिया।
राजप्रासादों से लेकर नागरिकों और वारांगनामों के
सायं कक्ष में सब कही सम्मोहन के साधन बने हुए थे। 8. The Journel of the Orissa Bihar Re
वह वीणावादन में प्रत्यन्त निपुण था। जब वह अपनी _search Society. Vol.-I २. भरतेश्वर-बाहुबली वृत्ति, (तृतीय संस्करण) पृष्ठ
प्रसिद्ध घोषवती वीणा के तारों पर उँगलियाँ चलाता था ३४१-२ ।
३. भरतेश्वर बाहुबली वृत्ति, पृष्ठ ३२३-५ ।
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.६८, वर्ष २६, कि०२
तो सुनने वाले अपना होश गंवा बैठते थे। अपनी इसी पर्युषण पर्व के दिनों में एक दिन उदयन ने उपवास किया वीणा की बदौलत वह अवन्ति नरेश चण्डप्रद्योत की पुत्री और वह रात में धर्मागार मे ही सोया। वहीं पर वह वंचक बासवदत्ता से प्रणय विवाह करने में सफल हुमा था। साधु और गुरु भी ठहरे हुए थे। रात्रि में जब राजा गहरी बाद में राजनैतिक कारणों से मगध की राजकुमारी पद्मा- नींद में सो रहा था, उस समय वह धूतं चुपचाप उठकर वती तथा अन्य दो राजकुमारियों का भी विवाह उसके साथ राजा के पास पहुँचा और एक चाकू (अथवा कटार) से हुमा था। किन्तु बासवदत्ता के प्रति उसका जो अनुराग राजा की हत्या करके कटार वही फेंक कर भाग गया। था, उसको लेकर अनंगहर्ष, कात्यायन, वररुचि, गुणाढ्य, गुरु की नीद खुली। उन्होंने देवा, राजा निर्जीव पड़ा है, श्रीहर्षदेव, क्षेमेन्द्रदेव आदि अनेकों कवियो ने काव्य चारों ओर रक्त बह रहा है और शिष्य लापता है। वे रचना की है। महाकवि भास ने उदय न-बासवदत्ता के सारी स्थिति समझ गये । उन्होने मोचा कि एक जैन साधु कथानक को लेकर तीन नाटकों की रचना की है। राजा का हत्यारा है, इस अपवाद को सुनने-देखने के लिए
उदयन ने कौशाम्बी को कला केन्द्र बना दिया था। मैं जीवित नही रहना चाहता। उन्होंने उसी कटार से उस समय के जन-जीवन में सौन्दर्य और सुरुचि की आत्मघात कर लिया। भावना का परिष्कार हुआ था । उसके समकालीन नरेशों उदयन की कोई सन्तान नहीं थी। तब बासवदत्ता में इतिहास प्रसिद्ध प्रसेनजित, चण्डप्रद्योत, श्रेणिक बिम्ब- ने अपना भतीजा गोद ले लिया। उसका राज्याभिषेक सार, अजातशत्रु, हस्तिपाल, जितशत्रु, दधिवाहन आदि किया गया। कुछ वर्ष बाद उसने अवन्ती पर भी अधिमुख्य थे जिन्होंने तत्कालीन भारत के इतिहास का निर्माण कार कर लिया। इसके कुछ वर्षों बाद मगध सम्राट नन्दिकिया।
वर्धन ने उससे वत्स राज्य छीन लिया। ____ इस नगरी में कई बार महात्मा बुद्ध भी पधारे थे
प्राचीन साहित्य से यह पता चलता है कि यह नगरी किन्तु जैन धर्म की अपेक्षा बौद्ध धर्म का प्रचार उस समय
उस समय अत्यन्त समृद्ध थी। यातायात की यहाँ सुबियहाँ कम ही हुआ था। भगवान महावीर के प्रभावक
धाएं थी। फलत. देश-देशान्तरो के साथ उसका व्यापाव्यक्तित्व की ओर ही यहाँ की जनता अधिक आकृष्ट
रिक सम्बन्ध था। यह श्रावस्ती से प्रतिष्ठान जाने वाले हई। उदयन भी महावीर का भक्त था। महात्मा बुद्ध
मार्ग पर एक प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र थी। मौर्य, शुग, उदयन के समय जब कौशाम्बी पधारे, तब उदयन
कुपाण और गुप्त काल में भी यह कला और वाणिज्य का उनके पास एक बार भी दर्शनार्थ नहीं पाया। सम्भवतः इससे क्षुब्ध होकर बौद्ध ग्रन्थकारों ने उदयन के चरित्र
केन्द्र रही। को कुछ निम्न ढंग का चित्रित करने का प्रयत्न किया है।
यह शताब्दियो तक मृण्मूर्तियों तथा मनको के निर्माण किन्तु जैन कथा साहित्य में उदयन का चरित्र-चित्रण
का प्रसिद्ध केन्द्र रही। किन्तु मुस्लिम काल मे इसकी भद्र शब्दों में किया गया है।
समृद्धि समाप्त हो गई; कला का विनाश कर दिया गया;
मूर्तियाँ, मन्दिर, स्तूप, शिलालेख तोड़ दिये गये। आज उदयन की मृत्यु स्वाभाविक ढंग से नहीं हुई। उदयन के कोई सन्तान नहीं थी। वह अपना अधिकांश समय
कौशाम्बी का स्वर्णिम अतीत खण्डहरो के रूप मे बिखरा जैन धर्म की क्रियाओं में --धर्माराधना में व्यतीत किया
पुरातत्वे-कौशाम्बी में प्रयाग विश्वविद्यालय की करता था । एक बार उसने एक कर्मचारी को किसी अप- .
ओर से खुदाई हुई थी। फलतः यहाँ से हजारों कलापूर्ण राध पर पृथक् कर दिया। उस कर्मचारी ने उदयन से इसका बदला लेने की प्रतिज्ञा की। वह अवन्ती पहुँचा।।
मृण्मूर्तियां, और मनके प्राप्त हुए, जो प्रयाग संग्रहालय में वहाँ केवल प्रतिशोध के लिए ही वह जैन मुनि बन गया।
सुरक्षित हैं। कुछ समय बाद वह अपने गुरु के साथ कौशाम्बी माया। १. भरतेश्वर-बाहुबली वृत्ति, पृ० ३२५ ।
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कौशाम्बी
पभोसा
कहा जाता है, ढाई हजार वर्ष पहले राजा शतानीक दूसरी वेदी मे एक चैत्य है जिसमें चारों दिशाओं में पद्म का किला चार मील के घेरे में था । उसमे बत्तीस दरवाजे प्रभ भगवान् की प्रतिमा हैं। इस मंदिर का प्रबन्ध थे। उसी के अन्दर कौशाम्बी नगरी बसी हुई थी। इस बाबू निर्मलकुमार जी आरा के परिवार की ओर से किले के अवशेष अब भी है । कई स्थानो पर तो किले को होता है । धर्मशाला के बरामदे में बच्चों की पाठशाला , ध्वस्त दीवाले ३० से ३५ फुट ऊची स्पष्ट दिखाई देती लगती है। है। यहाँ प्राचीन नगर के भग्नावशेष मीलों मे विखरे पड़े है। इनके मध्य सम्राट अशोक का बनवाया हुआ एक स्तम्भ भी खड़ा हुआ है, जो वस्तुतः उसके पौत्र सम्राट
पभोसा क्षेत्र कौशाम्बी से १६ कि०मी० दूर है। मार्ग सम्पत्ति द्वारा निर्मित है। भगवान् पद्मप्रभ का जन्म- कच्चा है । किन्तु इक्के जा सकते है। कौशाम्बी से यमुना स्थान होने के कारण सम्राट सम्प्रति ने यहाँ स्तम्भ निर्मित नदी मे नावों में जाने से मार्ग केवल १० कि० मी० पड़ता कराया था और उसके ऊपर जैन धर्म की उदार शिक्षायें है और सुविधाजनक भी है। कौशाम्बी से पाली होते हुए अंकित कराई थी।
पैदल मार्ग से केवल ८ कि. मी. है। पभोसा यमुना तट यहाँ के खण्डहरो में मैंने सन् १९५८ की शोध-यात्रा पर अवस्थित है। मे अनेक जैन मूर्तियो के खण्डित भाग पडे हुए देखे थे। तीर्थक्षेत्र---छटे तीर्थकर भगवान् पद्मप्रभ अपने राजमुझे अखण्डित जैन प्रतिमा तो नही मिल पाई । किन्तु जो महलों के द्वार पर बघे हुए हाथी को देखकर विचारमग्न खण्डित प्रतिमाएँ मिली, 'उनमे किसी प्रतिमा का शिरो- हो गये, उन्हे अपने पूर्व भवो का स्मरण हो पाया। उन्हें भाग था तो किसी का अधोभाग। मुझे जो शिरोभाग संसार की दशा को देखकर वैराग्य हो गया और कौशाम्बी मिले, वे भावाभिव्यजना और कला की दृष्टि से अत्यन्त के मनोहर उद्यान (पभोसा) में जाकर कार्तिक कृष्णा समुन्नत थे। मुझे सिहासन पीठ और पायागपट्ट के भी त्रयोदशी के दिन दीक्षा ले ली। देवो और इन्द्रो ने भगकुछ भाग उपलब्ध हुए थे। सिहासन पीठ पर धर्मचक्र वान् का दीक्षा कल्याणक महोत्सव मनाया। और पुष्प उत्कीर्ण थे। वे तथा पायागपट्ट के अलकरण भगवान् दीक्षा लेकर तपस्या में लीन हो गये और भी अनिन्द्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण थे।
लगभग छह माह के घोर तप के बाद उन्हे चैत शुक्ला खुदाई मे एक विहार निकला है, जो मंग्वलीपत्र पूर्णमासी को उसी मनोहर उद्यान में केवलज्ञान प्राप्त गोशालक का कहलाता है। कहा जाता है, इस बिहार में हुआ। देवो पोर इन्द्रो ने आकर ज्ञान कल्याणक का गोशालक के सम्प्रदाय के पांच हजार साध रहते थे। महोत्सव मनाया। यही पर भगवान् का प्रथम समवसरण प्रारंभ में गोशालक भगवान् महावीर का शिष्य था। लगा और भगवान् की प्रथम कल्याणी वाणी खिरी । किन्तु बाद में वह भगवान् से द्वेष और स्पर्धा करने लगा। भगवान् के चरणों में बैठकर और उनका उपदेश सुनकर उसने एक नया सम्प्रदाय भी चलाया, जिसका नाम असंख्य प्राणियों को प्रात्म-कल्याण की प्रेरणा मिली। प्राजीवक सम्प्रदाय था। किन्तु अब तो वह केवल ग्रन्थो जिस स्थान पर भगवान् पद्मप्रभ के दीक्षा और ज्ञानमें ही रह गया है।
कल्याणक मनाये गये, वह स्थान पभोसा है । इसीलिए यह जैन मन्दिर-विधि की यह कैसी विडम्बना है कि कल्याणक तीर्थ माना जाता है। जो नगरी कभी जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रही, आज वहाँ यह स्थान प्राचीन काल मे मुनियों की तपोभूमि एक भी जैन का घर नहीं है। केबल लाला प्रभुदास जी रहा है। कालिन्दी का प्रशान्त कूल, सुरम्य पर्वत की पारा वालों का वनवाया हा एक दिगम्बर जैन मन्दिर हरीतिमा और गुहा की एकान्त शान्ति-यह सारा वाताऔर एक जैन धर्मशाला है। मन्दिर में दो वेदियाँ है। वरण मुनियो के ध्यान-अध्ययन के उपयुक्त है। प्राचीन एक मे भगवान् पद्मप्रभ की प्रतिमा और चरण है। तथा साहित्य मे ऐसे उल्लेख मिलते है, जिनसे पता चलता है
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७०, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
कि यहाँ पर मुनि जन तपस्या किया करते थे। ललितघट अनुज को मृत देखकर वे ऐसे मोहाविष्ट हुए कि छह माह प्रादि बत्तीस राजकुमार मुनि बनकर यहाँ आये और तक मृत देह को लिये फिरे । अन्त में एक देव द्वारा समयमुना-तट पर खड़े होकर विविध प्रकार के तप करने झाने पर तुगीगिरि पर जाकर उन्होने दाह सस्कार किया। लगे । एक दिन यमुना में भयंकर बाढ़ आ गई और वे
इस प्रकार इस कल्पकाल के अन्तिम नारायण श्रीसभी मुनि बाढ़ मे बह गये । उनकी स्मृति में यहाँ बत्तीस
कृष्ण के अन्तिम काल का इतिहास पभोमा की मिट्टी मे समाधियाँ बनी हुई थी, जिन पर हिन्दुनों ने अधिकार कर
ही लिखा गया। लिया है।
स्थानीय मन्दिर–यहाँ दिगम्बर जैन धर्मशाला बनी इतिहास--पभोसा कौशाम्बी का ही भाग था। यहाँ हुई है। धर्मशाला में ही एक कमरे मे मन्दिर भी है। उस समय वन था। इसलिए कौशाम्बी मे भिन्न पभोस। उसमे पद्मप्रभु भगवान की मूर्ति के अतिरिक्त भूगर्भ से का अपना कोई स्वतन्त्र इतिहास नहीं है। किन्तु यहाँ निकली हई कुछ प्राचीन जैन मूर्तियाँ भी विराजमान है । तीर्थकर पद्मप्रभ के दो कल्याणको की पूजा और उत्सव के ये मुनियाँ प्रायः हल जोतते हए किसानो को मिली है। बाद बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के काल में एक महत्वपूर्ण धर्मशाला के निकट ही पहाडी है। पहाड़ी छोटी सी घटना घटी। भगवान् नेमिनाथ ने बलराम के पूछने पर
है। पहाड़ी पर जाने के लिए सीढ़ियों बनी हुई है। द्वारका और नारायण श्रीकृष्ण के भविष्य का वर्णन करते
मीढ़ियो की कुल संख्या १६८ है। ऊपर जाकर समतल हए कहा -- प्राज से बारह वर्ष पीछे मद्यपी यादवों द्वारा
चबूतरा मिलता है। वहाँ एक कमरा है जो मन्दिर का उत्तेजित किये गये द्वैपायन मनि के शाप से द्वारका भस्म
काम देता है। पहले यहाँ मन्दिर था किन्तु भाद्रपद वदी होगी। अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बी के वन मे
है वीर स० २४५७ को यकायक पर्वत टूटकर मन्दिर के शयन करेंगे और जरत्कुमार उनकी मृत्यु के कारण बनेंगे।
ऊपर गिर पडा, जिससे मन्दिर तो ममाप्त हो गया, किन्तु भगवान की इस भविष्यवाणी को सुनकर बलराम के प्रतिमा बाल-बाल बच गई। तब प्रतिमा निकाल कर एक मामा (रोहिणी के भाई) द्वैपायन विरक्त होकर मुनि कमरे में विराजमान कर दी गई। कहते है, पहले पहाड़ बन गये और कही दूर वनो में जाकर तप करने लगे। पर तीन मन्दिर थे। उनके नष्ट होने पर इलाहाबाद के इसी प्रकार श्रीकृष्ण के बडे भ्राता जरत्कुमार भी वहाँ से लाला छज्जूमल ने संवत् १८८१ मे यह मन्दिर बनबाया .चले गये और बनों में रहने लगे। तीर्थकर अन्यथावादी था। नहीं होते । दोनो ने ही, लगता था, भवितव्य और तीर्थकर इस कमरे में एक गज ऊँचे चबूतरे पर सब प्रतिमाये वाणी को झुठलाना चाहा। किन्तु भवितव्य होकर ही विगजमान है। इनमे मूलनायक भगवान् पद्मप्रभ की रही। द्वैपायन के क्रोध से द्वारका भस्म हो गई। बलराम प्रतिमा भरे वर्ण की पद्मासन मुद्रा मे है । अवगाहना प्रायः और श्रीकृष्ण वहाँ से चल दिये और कौशाम्बी के इस वन दो हाथ है। प्रतिमा चतुर्थ काल की है, ऐसी मान्यता है। में पहुँचे। श्रीकृष्ण प्यास से व्याकुल हो गये । वे एक पेड प्रतिमा पर गूढ लास्य और वीतराग शान्ति का मामञ्जस्य की छांव में लेट गये । बलराम जल लाने गये। जरत्कुमार अत्यन्त प्रभावक है। उसी वन में घूम रहा था। उसने दूर से कृष्ण के वस्त्र को मन्दिर के ऊपर पहाड़ की एक विशाल शिला मे हिलता हुआ देखकर उसे हिरण ममझा। उमे वाण सन्धान उकेरी हुई चार प्रतिमाये दिखाई पड़ती है जो ध्यानमग्न करते देर न लगी । वाण आकर श्रीकृष्ण के पैर में लगा। मुनियों की है। ऊपर दो गुफाएँ भी है, जिनमें शिलालेख जब जरत्कुमार को तथ्य का पता लगा तो वह आकर पैरो प्राप्त हए है। में पड़ गया। श्रीकृष्ण सम्यग्दृष्टि थे, भावी तीर्थकर थे। इस पहाड़ी के नीचे ही यमुना नदी बहती है। यहाँ उन्होंने बड़े शान्त और समता भाव से प्राण विसर्जन का प्राकृतिक दृश्य अत्यन्त आकर्षक है । ध्यान- सामायिक किये। बलदेव जब लौट कर आये तो अपने प्राणोपम के लिए स्थान अत्यन्त उपयुक्त है।
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कौशाम्बी
किम्बदन्ती-मूलनायक प्रतिमा के सम्बन्ध में एक नरेशो का आधिपत्य यहाँ रहा। इन मित्रवंशी कई किम्बदन्ती है कि लगभग डेढ़ पौने दो सौ वर्ष पहले राजानो के सिक्के और मूर्तियों कौशाम्वी, मथुरा, अहिकौशाम्बी के पुजारी को स्वप्न हा कि मन्दिर के द्वार च्छत्र आदि कई स्थानो पर बहुसंख्या में मिले है। उत्तर पर जो कुत्रा है, उसमें पद्मप्रभ भगबान की प्रतिमा है। पाचाल नरेश आषाढसेन के समय के भी दो लेख पभोसा उसे निकाल कर मन्दिर मे विराजमान करो। प्रातः होते मे पाये गये है । एक लेख मे राजा आषाढसेन को बृहस्पति ही पुजारी ने स्वप्न की चर्चा की। चर्चा प्रयाग तक पहुची। मित्र का मामा बताया है । बृहस्पतिमित्र मथुरा का मित्रबहुत से लोग एकत्रित हुए। कुए से प्रतिमा निकाली वशीय नरेश था । वे लेख इस प्रकार हैगई । खोदते समय भामण्डल मे फावड़ा लग गया, जिससे १. अधियछात्रा राज्ञो शौनकायन पुत्रस्य बंगपालस्य दूध की धार बह निकली। लोगो ने जब बहुत विनम्र पुत्रस्य राशो तेषणीपुत्रस्य भागवतस्य पुत्रेण वैहिवरी स्तुति की, तब वह शान्त हुई । वही प्रतिमा पभोसा के पुत्रेण प्रासादसेनेन कारितं मन्दिर में लाकर विराजमान कर दी गई।
अर्थात् अधिछत्रा के राजा शानकायन के पुत्र राजा देवी अतिशय-मूलनायक प्रतिमा अत्यन्त अतिशय वंगपाल के पुत्र और त्रैवर्ण राजकन्या के पुत्र राजा भगवत सम्पन्न है। जैसा अद्भुत आश्चर्य इस प्रतिमा मे है, के पुत्र तथा वैहिदर राजकन्या के पुत्र प्राषाढसेन ने यह वैसा सभवत. अन्यत्र कही देखने में नहीं आया। प्रतिमा गुफा बनवाई । यद्यपि भूरे पाषाण की है किन्तु सूर्योदय के पश्चात् -- जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृ० १३-१४ इसका रंग बदलने लगता है। ज्यो ज्यो सूर्य आगे बढ़ता डा० फ्यूरर ने शुगकाल के अक्षरो से मिलते-जुलते जाता है, त्यों त्यो प्रतिमा का रंग लाल होता जाता है। अक्षरों के कारण इस शिलालेख का काल द्वितीय या प्रथम लगभग बारह बजे प्रतिमा लोहित वर्ण की हो जाती है। ईसवी पूर्व निश्चित किया है। इस शिलालेख के तथ्य इसके पश्चात् यह वर्ण हलका पड़ने लगता है और लगभग ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। एक तो इस तीन बजे तक यह कत्थई रंग की हो जाती है। पश्चात शिलालेख से यह तथ्य प्रगट होता है कि राजा आषाढ़सेन वह फिर अपने असली वर्ण में आ जाती है। रंग का यह ने इस गुफा का निर्माण कराया । दूसरा इसमे अहिच्छत्र, परिवर्तन किस कारण से है, यह विश्वासपूर्वक नही कहा जो उत्तर पाचाल के प्रतापी राजाओं की राजधानी थी, जा सकता । सभव है, पाषाण की ही ये विशेषताये हो। की राजवंशावली दी गई है। किन्तु सूर्य की किरणें मन्दिर के अन्दर प्रतिमा तक नहीं एक दूसरा शिलालेख इस प्रकार हैपहुच पाती। ऐसी दशा में प्रतिमा का यह रंग-परिवर्तन २. राज्ञो गोपाली पुत्रस बहसतिमित्रस मातुलेन गोपालीया एक देवी चमत्कारु माना जाने लगा है।
वैहिदरी पुत्रेन प्रासाढसेनेन लेनं कारितं उवारस इस प्रकार का एक और भी देवी चमत्कार यहाँ
(?) दसमे सबछरे कश्शपीना परहं (ता) न... देखने को मिलता है। यहाँ हर रात को पर्वत के ऊपर अर्थात् गोपाली के पुत्र राजा बहसतिमित्र (वृहस्पति केशर की वर्षा होती है। प्रातःकाल पहाड़ी के ऊपर जाने मित्र) के मामा तथा गोपाली वैहिदरी अर्थात् वहिदर पर छोटो-छोटी पीली बूदें पड़ी हुई मिलती है और भीनी- राजकन्या के पुत्र प्राषाढसेन ने कश्यपगोत्रीय अरहन्तों... भीनी सुगन्धि चारों ओर वातावरण में भरी हुई रहती है। दसवें वर्ष मे एक गुफा का निर्माण कराया। यहाँ कार्तिक सुदी १३, चैत सुदी १५ को खूब केशर वर्षा
--जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ होती है।
यह शिलालेख भी द्वितीय या प्रथम ईसवी पूर्व का पुरातत्त्व-पभोसा मे शुङ्ग काल (ई० पू० १८५ से माना गया है। १००) के समय के कई शिलालेख प्राप्त हुए है। शुग वश पभोसा में जो प्राचीन मन्दिर और मूर्तियाँ हैं, वे के मन्त के बाद शुंग वंश की ही एक शाखा-मित्र बंशी सभी प्रायः शुंग और मित्रवंशी राजामों के काल की
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७२, वर्ष २६, कि० २
मालूम पड़ती है। यहाँ पर एक पायागपट्ट भी उपलब्ध बन गया है और वह मूर्ति मन्दिर मे रख दी गई है । यह हुना था, जो इस प्रकार पढ़ा गया है
मूर्ति ई० सन् से पूर्व की प्रतीत होती है। सिद्धं राशो शिवमित्रस्य संवघटे... रव माहकिय... इसी प्रकार शहजादपुर में एक जैन मन्दिर है। एक स्थविरस बलदासस निवर्तन श......शिवनंदिस अन्तेवा- अनुश्रुति के अनुसार प्राचीन काल मे यहाँ दो सौ जैन सिस शिवपालित पायागपट्टो थापयति प्ररहत पूजाये। मन्दिर थे। किन्तु अब वहाँ एक भी जन का घर नही
अर्थात् सिद्ध राजा शिवमित्र के राज्य के बारहवें वर्ष रहा । यह स्थान भरवारी से सत्रह मील दूर है। कविवर में स्थविर बलदास के उपदेश से शिवनन्दी के शिष्य शिव- विनोदीलाल इसी स्थान के निवासी थे । वनारसी विलास पालित ने परहन्त पूजा के लिए प्रायागपट्र स्थापित किया। में भी इन कविवर की चर्चा पाई है। इनकी कई रचनाएँ
मासपास के जन मन्दिर-यह क्षेत्र शताब्दियों तक अब तक मिलती है, जैसे तीन लोक का पाठ, नेमिनाथ जेन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। अतः यहाँ अासपास मे का विवाह आदि । जैन पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री और मूर्तियां बहुतायत से दानानगर में भी एक प्राचीन मन्दिर है। मिलती हैं । वर्षा के प्रारम्भ मे खेतो मे हल चलाते समय पाली में एक प्राचीन मन्दिर था। किन्तु यमुना की बहुधा जैन मूर्तियां निकलती है। इसी प्रकार की एक वाढ़ मे वह बह गया। उसके भग्नावशेष बचे है। नया मूर्ति चम्पहा बाजार मे देखी जो एक खेत मे से निकली मन्दिर बन गया है। प्रतिमायें अत्यन्त प्राचीन है। थी। यह मूति खण्डित है। घुटनो के नीचे का भाग टूट वार्षिक मेला--क्षेत्र पर वार्षिक उत्सव चैत सुदी गया है। यह सर्वतोभद्रिका है। अब यहाँ जैन मन्दिर भी पूर्णमासी को होता है।
नाथ निरजन पावे प्रवधु क्या सोवे तन मठ में, जाग विलोकन घट में ॥०॥ तन मठ की परतीत न कोहि परे एक पल में। हलचल मेट खबर ले घट की, चिन्हे रमता जल मे ॥०॥१॥ मठ में पंचभूत का वासा, सासा धूत खवीसा । छिन-छिन तोही छलन कू चाहै, समझे न बौरा सीसा ॥०॥२॥ सिर पर पंच बसे परमेश्वर, घट में सूछम वारी । पाप अभ्यास लख कोई विरला, निरखे धू को तारी ॥०॥३॥ मात्रा मारी प्रासन घर घट में, अजपाजाप जपावे । प्रानन्दघन चेतनमय मरति, नाथ निरंजन पावे ॥१०॥४॥
-मानन्दघन अर्थ-हे अवधूत आत्मन् ! तू इस शरीरसूपी मठ में अभी तक ममत्व निद्रा मे क्यों सो रहा है ? प्रात्मा के शुद्ध उपयोग को जगाकर प्रात्म-स्वरूप को देख । शरीर रूपी यह मठ क्षणिक है, इसका विश्वास मत कर । क्षण भर में यह नष्ट हो जायगा । तू रागवेष के संकल्प-विकल्प छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूप की खबर ले। आत्मा रूप घट मे समतारूप जल भरा हुआ है। इस मठ में पांच भूतो का निवास है और श्वासोच्छ्वास रूप धूर्त घुस कर बैठे है। ये तुम्हें क्षण-क्षण में छलने मे लगे हुए है। इस तथ्य को मूर्ख शिष्य समझ नहीं पा रहा। तेरे सिर पर पंच परमेष्ठी रहते है और तेरे अन्दर पंच परमेष्ठी रूप पात्मा है। किन्तु इस एकत्व विभक्त आत्मा को निरन्तर अभ्यास द्वारा ध्रुवतारे के समान कोई विरला ही अनुभव कर पाता है। जो समस्त इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके घर में स्थिर उपयोग रूप आसन लगा कर प्रात्मा के शुद्धोपयोग का जाप जपता है, उसका अनुभव करता है, मानन्दपन कहते हैं, वह सम्यग्दृष्टि जीव सच्चिदानन्द स्वरूप अपने भीतर के परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
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वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
संकलनकर्ता--श्री पं० वंशीधर शास्त्री 'भनेकान्त' के वर्ष २५ किरण ६ में सात अनुप्रेक्षाएं दी गई थीं। बाबू पानालाल जी अग्रवाल बेहली की कृपा से कुछ अन्य विद्वान् कवियों की अनुप्रेक्षायें उपलब्ध हुई हैं। उन्हें यहाँ साभार दिया जा रहा है। इससे ज्ञात होता है कि जैनों में अनुप्रेक्षा-साहित्य का भण्डार प्रत्यन्त समृद्ध और समुन्नत है। ये अनुप्रेक्षाये प्रसाम्प्रदायिक और लोक-कल्याण की भावना से निबद्ध की गई है। अतः यह साहित्य सार्वजनीन और सार्वत्रिक है। यदि अनुसन्धान किया जाय तो जैन शास्त्र भण्डारों में प्रभो अन्य अनेक कवियों द्वारा विरचित अनुप्रेक्षा-साहित्य उपलब्ध हो सकता है। यह सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित करने की आवश्यकता है।
-संपादक कविवर रूपचन्वकृत बारह भावना (पंचमगल पाठ से) ब्यौहारै परमेठी जाप भव तन भोग विरत्त कदाचित चित्तए
निश्चै सरण प्रापको आप ।। धन जोवन पिय पुत्त कलत्त अनित्त ए।
संसार-सूर कहावै जो सिर देय कोउ न सरन मरन दिन दूख चहँ गति भयौं
खेत तजै सो अपयश लेय । सुख दुख एकहि भोगत जिय विधिवसि पयौं ।
इस अनुसार जगत की रीत पयौं विधिवसि पान चेतन आन जड़ जु कलेवरो।
सब प्रसार सब ही विपरीत ।। तन असुचि परतें होय आस्रव परिहरते सरो। एकत्त्व-तान काल इस त्रिभुवन माहि निर्जरा तप बल होय समकित
जोव सघाती कोई नाहि । बिन सदा त्रिभुवन भम्यो।
एकाको सुख दुख सब सहै दुर्लभ विवेक विना न कबहूँ परम धरम विपं रम्यो॥
पाप पुन्न करनी फल लहै ।।
अन्यत्त्व-जितने जग सजोगी भाव प्राचार्य उमास्वामी कृत तत्वार्थ सूत्र
ते सब जिय सों भिन्न सुभाव । 'स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषह जय-चारित्र ।। निज सजोग नही पर सोय 'अनित्याशरण ससारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवरावर
पुत्र सुजन पर क्यो नहि होय ।। निर्जरा लोक बोधिदुर्लभ धर्म स्वाख्यात तत्त्वानु- अशुचि-अशुचि अस्थि पिजर तन येह चिन्तनमनुप्रेक्षा ।।६७
चाम वसन बेढो घिन गेह ।
चेतन चिरा तहाँ नित रहै कविवर भूधरदासकृत बारह भावना (पार्श्वपुराण से)
सो विन ज्ञान गिलानि न गहै ।। अनित्य-द्रव्य सुभाव विना जग माहि
प्रास्रव-मिथ्या अविरत योग कसाय पर ये रूप कछू थिर नाहि ।
ये प्रास्रव कारण समुदाय । तन धन प्रादिक दीर्षे जेह
आस्रव कर्मबन्ध को हेत काल प्रगन सब ईधन तेह ।।
बन्ध चतुर्गति के दुख देत । प्रशरण-भव वन भमत निरंतर जीव
संवर-समिति गुप्ति अनुपेहा धर्म याहि न कोई सरण सदीव ।
सहन परीषह संजय पर्म ।
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७४, वर्ष २६, कि०२
भनेकान्त
ये संवर कारण निर्दोष
एकत्त्व-अनंत काल गति गति दुख लहौ संवर करै जीव को मोष ।
बाकी काल अनंतौ कही। निर्जरा-तप बल पूर्व कर्म खिर जाहि
सदा अकेलो चेतन एक नए ज्ञान बल आवै नाहिं ।
ते माही गुण बसत अनेक ।।४ यही निर्जरा सुखदातार
अन्यत्त्व-तू न किसी का कोई न तोय भव कारन तारन निर्धार ।
तेरा सुख दुख तोको होय । लोक-स्वयंसिद्ध त्रिभवन चित जान
याते तो को तू उर धार कटि कर धरै पुरुष सठान ।
परद्रव्यन से मोह निवार ।।५ भ्रमत अनादि आत्मा जहाँ ।
अशुचि-हाड़ मांस तन लिपटी चाम समकित बिन शिव होय न तहाँ ।।
रुधिर मूत मल पूरित धाम । बोधिदुर्लभ-दुर्लभ धर्म दशांग पवित्त
सो भी थिर न रहे छय होय सुखदायक सहगामी नित्त।
याको तजै मिल शिवलोय ॥६ दुर्गति परत यही कर यहै
प्रास्रव-हित अनहित तन कुल जन माहि देय स्वर्ग शिव थानक गहै ।
खोटी बान हरो क्यों नाहि । सुलभ जीव को सब सुख सदा
याते पुद्गल करमन याग नौवेयक तॉई मंपदा ।
प्रणव दायक सुख दुख रोग ।।७ बोधि रतन दुर्लभ ससार
सवर-पाचो इन्द्रिय का तज फल भव दरिद्र दुख मेटनहार ।।
चित्त निरोधि लागि शिव गल । ये दस दोय भावना भाय
तुम में तेरी तू कर शैल दिढ़ वैराग भए जिनराय ।
रहयो कहा ह्व कोल्हू बेल ।।८ देहु भोग ससार सरूप
निर्जरा-तज कषाय मन की चल चाल सब असार जानो जगभूप ।।
घ्यावो अपना रूप रसाल । कविवर बुधजन कृत बारह भावना
झर करम बन्धन दुख दान (छहढाला, पहली ढाल से) बहुरि प्रकाशै केवल ज्ञान ॥ अनित्य-आयु घटत तेरी दिन रात
लोक-तेरौ जनम हुओं नहि जहाँ हो निश्चिन्त रहो क्यों भ्रात।
ऐसो खतर हे हि कहाँ । यौवन धन तन किकर नारि ।
याही जनम भूमिका रचो है सब जल बुदबुद उनहारि ॥१॥
चलो निकसि तो विधि से बचो ।।१० प्रशरण-पूरण प्रायू बधै छिन नाहि
बोधिदुर्लभ-सब व्यौहार क्रिया का ज्ञान दिए कोटि धन तीरथ माँहि ।
भयो अनन्ते बार प्रधान । इन्द्र चक्रपति भी कहा करें
निपट कठिन अपनी पहचान आयु अन्त में तेहू मरे ॥२
ताको पावत होत कल्यान ।।११ संसार-यों ससार असार महान
धर्म-धरम सुभाव आप सरधान सार आप में आपा जान ।
धर्म न शील न न्हौन न दान । सुख से दुख दुख से सुख होय
बुधजन गुरु की सीख विचार समता चारों गति नहीं कोय ॥३
गहो धर्म आतम हितकार ॥१२
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वैरान्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
७५
महाकवि अनूप (वर्द्धमान महाकाव्य से) अनित्य-मनुष्य का जीवन मृत्यु से घिरा
युव-अवस्था परिणाम में जरा, शरीर है प्रालय रोग-सर्प का अनित्य है इन्द्रिय सौख्य-सम्पदा ।१ स्वकर्म के ही परिपाक से सदा मनुष्य के कीलित जन्म मृत्यु है, मनुष्य ही क्या सब जीव मात्र में
अनित्यता है, क्षति है, निपात है।२ जगत्रयी की सव मौख्य संपदा विनप्ट होती दिन चार-पाँच में, कही अभी या कल, या परश्व ही समस्त भू की मिटती यथार्थता ।३
मनुष्य से, जिनके निमेष से अशेष होते प्रलयोदयादि हैं, रहे न वे भी इस जीवलोक में
पुनः कथा क्या कृमि कीट की कहे ।४ समुद्र के बुद्बुद तुल्य शीघ्र ही विनष्ट होते जब लक्ष इन्द्र भी, हमें कहाँ जीवन दीर्घ प्राप्त हो खड़ा महा काल समक्ष ही सदा ।५ विनष्ट होती अचला धरा जहाँ विशीर्ण होते हिमवान विन्ध्य भी, विहीन होते जल से समुद्र हैं
पुनः कथा क्या नरदेह की कहे ।६ हमें मही में जितने पिता मिले मिले यहाँ पै जितने स्वबंधु भी, न भूमि में हैं उतने कणांशु या भू-चक्र में है उतने न ऋक्ष भी।७ मनुष्य अव्यक्त स्वजन्म पूर्व में तथैव हैं वे सब व्यक्त मध्य में, पुनश्च अव्यक्त विनाश के परे
अतः वृथा है परिदेवना सभी। सुपुत्र, पत्नी, धन, कीर्ति जीव को प्रमोद देते यह बात सत्य है,
परन्तु हा ! जीवन तो मनुष्य का प्रमत्त-नारी-दगपांग-लोल है।
सहस्र माता, शत कोटि पुत्र भी, पिता असख्यात कलत्र मित्र भी, अनंत उत्पन्न हुए, जिए, मरे, न मैं किसी का, वह भी न मामकी ।१० यथैव भू की हरिता तृणावली स-हर्ष खाते बलि-जीव जन्तु हैं, तथैव भूला यम यातना, अहो ! मनुष्य भारी भ्रम भोग भोगता ।११
प्रसन्न होते मति-मंद द्रव्य से तथैव रोते बन रंक अत में, विवेक द्वारा यदि वे विलोकले, '
अतथ्य सपत्ति, विपत्ति भी वृथा ।१२ समुच्च बातायन गोपुरादि से सुसज्जिता तुग-शिखर हवेलियाँ; बिनष्ट होतो क्षण एक में, तदा कहो, कहें क्या, नरदेह की कथा ।१३ सरोज-पत्रस्थित नीर बुन्द सी मनुष्य की आयु अतीव चंचला, अवश्य ही दंशित व्याधि व्याल से दशा महाशोक हता त्रिलोक की।१४ मनोहरा स्त्री, अनुकूल मित्र भी, महासुधी बांधव योग्य भत्य मी, गजेन्द्र बाजी सव नाशवान हैं नरेन्द्र मंत्री सब ह्रासवान हैं ।१५ इसीलिए जीव सुधी वरण्य जो प्रवृत्त होते जिन-धर्म-मार्ग में, न विश्व में सतत सौख्य लाभ है
अतः विचिन्त्या परमार्थ-साधना ।१६ अशरण-जिस प्रकार फसा हरि दष्ट्र में
अवल बालक युक्ति विहीन हो, उस प्रकार बंधा नर विश्व में शरण पा सकता न अधर्म को ।१७
अतः सुधी मानव को त्रिलोक में शरण्य अर्हन्त पदाब्ज हैं सदा,
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७६, वर्ष २६, कि०२
प्रदेकान्त
जिनेन्द्र-पूजा, तप, दान जाप ही अजस्र रत्नत्रय प्रेय हैं उसे ।१८ जिनेन्द्र के ही उपदेश गेय हैं, मुनीन्द्र के ही पद पद्म ध्येय हैं, जिनेन्द्र सिद्धांत सदैव श्रेय हैं,
अत: धरो ध्यान मुनीन्द्र मार्ग का ।१६ सदैव मोक्षप्रद जैन धर्म है तथैव रत्नत्रय-साध्य मोक्ष है, वितान है मोक्ष अनंत सौख्य का प्रतान है सौख्य अनादि शक्ति का ।२०
मनुष्य जो केवल ज्ञानदेव को विहाय सेते सुर नाम मात्र के, सदैव पाते गति दुर्दशामयी न मुक्त होते भव-रोग-दोष से ।२१ अमोघ रत्नत्रय के प्रभाव से अवाप्त होती वह मुक्ति जीव को, अनंत आनंद समुद्र रूपिणी
प्रसिद्ध है जो जिन धर्म शास्त्र में ।२२ संसार-मनुज को भव दो, मृत एक है
अपर में न तु संभव शक्ति ही, भटकता युग संसृति मध्य में शरण-हीन अनाहत जन्तु-सा ।२३ अनादि है विश्व, अनंत लोक है (सुना गया भव्य-प्रभव्य जीव से) विमूढ को जो सुख-दुःख-पूर्ण है नितान्त दुःखाश्रय विज्ञ मानते ।२४ विमूढ़ पाते सुख भोग में सदा नविज्ञ होते विषयादि लुब्ध हैं, प्रतीति सारे भव-रोग की अहो ! निकृष्ट होती नरकादि हेतु है ।२५ मनुष्य के कर्म शरीर धर्म भी यहाँ न ऐसे जिनको यथार्थ ही, किए नही व्यक्त गहीत जीव ने प्रसिद्ध ऐसा यह द्रव्य लोक है।२६ प्रदेश ऐसा इस लोक में नहीं न जीव उत्पन्न हुए, मरे जहाँ,
सुविज्ञ प्राणी-गण मे इसीलिये प्रसिद्ध प्रामाणिक क्षेत्र लोक है ।२७ न काल ऐसा इह लोक में बचा न जीव उत्पन्न हुए, मरे जहाँ । इसीलिए विज्ञ समाज में यहाँ,
प्रसिद्ध वैज्ञानिक काल लोक है ।२८ न योनि ऐसी इस भूमि में बची जिसे न संप्राप्त हझा स्व जीव हो, अतः जिसे पडित विश्व मानते, प्रसिद्ध भू में भवलोक है वही ।२६
सदैव प्राणी भ्रमते त्रिलोक में स्वकर्म मिथ्यात्त्व समेत पालते, समेटते अजित पाप पुंज हैं,
प्रभावशाली यह भाव लोक है ।३० विमुक्तिदाता जिन-धर्म-श्रेष्ठ है अतः करो पालन यत्न से इसे अनूप रत्नत्रय रूप मोक्ष का
निधान है केवलज्ञान सर्वशः ।३१ एकत्त्व--सुहृद संग सदा रहना हमें
वितरता बल बुद्धि विवेक है, पर असंग-प्रसंग परेश का बिदित प्रात्म समुन्नत हेतु है ।३२ सदैव प्राणी इस मर्त्यलोक मे रहा अकेला, रहता असंग है; रहा करेगा यह संगहीन ही प्रसंग होगा इसका न अन्य से ।३३ असग लेता नर जन्म विश्व में प्रसंग ही है मरता पुनः पुनः, सदा अकेला सुख-दुःख भोगता न अन्य साझी उसका त्रिलोक में ।३४ अ-संग ही सौख्यद भोग भोगता प्रसंग ही दुःखद रोग भोगता, सदैव प्राणी यमराज संग में प्रसंग जाता, फिरता प्रसंग है ।३५
सदा अकेला करता कुकर्म है कुटुम्ब के पालन हेतु विश्व में,
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वैराग्योत्पाविषय अनुप्रेक्षा
इसीलिए पुद्गल-पाप-बंध से
अवश्य पाता नरकाधिकार है।३६ परन्तु जो मानव मुक्त संग हो लगे हुए सम्यक् दर्शनादि में, व्यतीत भू में करते स्वकर्म है, कहे गये केवलज्ञान संयमी ।३७
प्रसंग भू में करते व्रतादि हैं प्रसंग सारे तप जाप साधते, बही महा विज्ञ मनुष्य अंत में,
अतीव पाते सुख पुण्य बंध से ।३८ विभूतियाँ जो सुर-लोक-सिद्ध है महान निःश्रेयस सपदा तथा विशुद्ध कैवल्य-प्रदा त्रिलोक में अवाप्त होती गतियाँ विदग्ध को।३६
मनुष्य रत्न-त्रय से अवश्य ही विनाशता कर्म-अकर्म भावना, सदैव एकत्व प्रधान भाव ही
प्रभावशाली अपवर्ग हेतु है ।४० अन्यत्त्व-मनुज है प्रकृतिस्थ अवश्य, पै
इतर है जग प्रात्म स्वरूप से, जगत है जड़, चेतन जीव है। परम पुद्गल तत्त्व अतत्त्व है।४१
मनुष्य ! तू अन्य समस्त जीव से स्वकर्म से भी अतिरिक्त है सदा, पदार्थ सारे महि-नाक-पाक के सखे ! असबद्ध त्वदीय प्राण से ।४२ सदैव कर्मोदय से मनुष्य को अवाप्त होते जग-जाति-बंधु हैं, पिता तथा पुत्र कलत्र मित्र भी न साथ जाते, रहते न संग में ।४३
शरीर ही, जो निज अंतरंग-सा, न साथ देता जब है। मनुष्य का, कहें कथा क्या बहिरंग-वतिनी कुरूंग-नेत्रा त्रिनता कलत्र की।४४ स्वचित्त, जो पुद्गल-कर्म जन्य है, स्व-चित्त-संकल्प-विकल्प-युक्त जो,
तथैव वाचा युग भाँति की, सखे ! विभिन्न है निश्चय जीव तत्स्व से।४५
मनुष्य के कर्म विभिन्न जीव से, विभिन्न ही हैं परिणाम कर्म के, सभी नरों के सुख-दुःख आदि भी विभिन्न हैं प्रात्म स्वरूप से सभी।४६ विभिन्न है ज्ञान स्वरूप जीव से, स्व-कर्म की साधन मात्र इन्द्रियाँ, विभिन्न है सम्यक् राग द्वेष भी विकर्म सारे अथवा अ-कर्म भी।४७
अतः करो यत्न समेत भावना शरीर द्वारा उस प्रात्म तत्त्व की, अनादि, अक्षय्य अनंत जो सदा
निरीह निर्धारित निविकार जो।४८ अशुचि-अशुचिपूर्ण शरीर मनुष्य का,
विदित जो मल-मूत्र प्रवाल है, अगरु से न तु चदन-लेप से विमलतामय भासित हो सका ।४६
शरीर है निर्मित सप्तधातु से, निधान है जो मल-मूत्र प्रादि का; स-मोह सेवा इसकी प्रकार्य है
सु-बुद्धि-संबोधित ज्ञानवान से १५० यहाँ बुभुक्षा जलती प्रकोप से: यहाँ पिपासा जलती प्रदाह से, विनाशती यौवन अग्नि काम की जरा न जाती जब पाचुकी यहाँ ।५१ शरीर ही है बिल काम सर्प की, यही कुटी निश्चित रागद्वेष की, कुगधिता है स्वयमेव ही नही, वरन बनाती शुचि हीन वस्त्र भी।५२ शरीर चाहे अप्ति हृष्ट पुष्ट हो तथैव हो सुन्दर शौर्यवान या परन्तु होता परिणाम में सदा अभूरि मुष्टिगत-भस्म तुल्य ही।५३ शरीर का पालन रोग मूल है, शरीर का पोषण योग दातृ है,'
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७८, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
इसीलिए क्यों अपवित्र देह से करो न संपन्न स्व-धर्म-साधना ।५४ अनित्य देह स्थित नित्य जीव है करे न निश्रेयस प्राप्ति कार्य क्यों? अवस्थिता केवलज्ञान में सदा
नितान्त ही मुक्ति महा पवित्र है ।५५ प्रास्रव-- सलिल आस्रव हो जिस रूप में
विगत नीर कभी बनता नही; इस प्रकार सकर्म मनुष्य को कब अवाप्त हुई गति निर्जरा? ।५६ स-राग आत्म स्थित राग-भाव से समागता पुद्गल राशि कर्म हो, शरीर में आगत दुःखदायिनी प्रसिद्ध है आस्रव नाम से सदा ।५७
स-छिद्र जैसे जलयान में जभी प्रविष्ट होता जल डूबती तरी; तथैव कर्मागम से मनुष्य का
अवश्य होता विनिपात अत में ।५८ अतः सुनो प्रास्रव-हेतु भी जिन्हे महान ही दुष्कर नाशना हमें; प्रमाद-उत्पन्न अनर्थ मूल जो प्रसिद्ध मिथ्यात्व समस्त भूमि में ।५६
कहा गया पंच प्रकार का वही, प्रधान है आस्रव हेतु कर्म का, प्रसिद्ध जो द्वादश भाँति की यहाँ
अनथिनी घोर विराग-हीनता ।६० प्रमाद जो पंचदशी विभक्ति का तृतीय है हेतु, चतुर्थ और भी-- सभी कषाएं सब दुष्ट योग जो न दूर होते शतशः प्रयत्न से ।६१
उन्हें सदा सम्यक् ज्ञान-हेति से विनाशना ही ध्रुव वीर-धर्म है, सुदीर्घ कर्मास्रवद्वार ज्ञान से . न बंद जो है करता प्रयत्न से।६२ न पाप से मुक्ति मिली कभी उसे न पा सका केवल-ज्ञान-लाभ सो,
मनुष्य कर्मास्रव रोकता तभी
विमुक्ति रत्न-त्रय से समेटता ।६३ संवर - मनुज योग-तपादिक यत्न से
निगम आगम के स्थिर जान से कर निराश्रित प्रास्रव कर्म का
स-मुद रत्नत्रयी फल भोगते ।६४ मुनीश योग-व्रत-गुप्ति आदि में स-यत्न कर्मास्रव द्वार रोकते; वही क्रिया संवर नाम धारिणी विमुक्ति संपादन में अमोघ है।६५
चरित्र जो तेरह भाँति का, तथा स्वधर्म, जो एक-नव प्रकार का प्रसिद्ध जो बारह भावना यहाँ परीषहाघातक हेतु ख्यात जो ।६६ विशुद्ध सामायिक पाँच भाँति का विमर्श जो उत्तम ज्ञान-ध्यान का, यही सभी सत्तम हेतु जानिए अमोघ कर्मास्रव के निरोध में ।६७ मुनीश, जो संवर-दत्त चित्त हैं, प्रकाशिता है जिनकी गुणावली, वही मही के चल धर्म वृक्ष हैं
तथा उन्ही के अवदात ध्यान है।६८ द्विविध कर्म-विनाश-प्रवृत्ति का सुफल है वह सपति-प्राप्ति जो, न मिलती इस भूतल में उसे
कर न जो सकता प्रभु-भक्ति है।६६ निर्जरा--अतीत से संचित कर्म राशि का
विनाश होना अविपाक निर्जरा; कही गयी सिद्ध मुनीन्द्र से सदा अवश्य ही संग्रहणीय साधना ।७० स्वभाव से ही वह, जो मनुष्य के स्वतत्र कर्मोदय-काल में उठे, सदा परित्याग करे स-यत्न सो विकार-युक्ता सविपाक निर्जरा ७१
यथा-यथा योग तपादि यत्न से करे यती नित्य स्व-कर्म निर्जरा,
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वैराग्योत्पाविका अनुप्रेक्षा
तथा-तथाही उसके समीप में
अवश्य पाती शुभ मोक्ष इंदिरा ।७२ सभी सुखों की खनि ख्यात निर्जरा विमुक्ति-योषा-प्रद ज्ञात निर्जरा, विकर्म-यामा-कृत प्रात निर्जरा
सु-ध्यान-भू में अवदात निर्जरा ७३ लोक -सलिल से, महि से, नभ से तथा
अनिल से जग पावक से बना, भुवन सप्त अधोपरि राजते
सदन के सु-मनोहर खंड-से ।७४ यथा अधोलोक, तथैव अध्रि है यथैव है मध्य तथैव नाभि है, यथैव है उर्ध्व तथैव शोर्ष है यथैव ब्रह्माण्ड तथैव पिण्ड है ।७५ त्रिलोक है, या जग सप्तलोक है, अनन्त है ससृति या कि सात है, दिनेश राकापति भी न जानते
समस्त तारे अनभिज्ञ-भेद है।७६ निधान है स्वर्ग अनन्त सौख्य का, विधान है नारक कोटि दुःख का इसीलिए सात्त्विक धर्म ग्रथ में प्रशंसनीया अपवर्ग साधना ७७ सभी नगों की गणना असार है, नदी-नदों का कहना निरर्थ है, अयुक्त है सागर-मंथना अतः
स-सार है केवल ज्ञानभावना ।७८ बोधिदुर्लभ-परम दुर्लभ संभव लोक में,
विदित है नर-योनि सुदुर्लभा, .. अति अलभ्य शुभा गति धर्म की बहु अलभ्य महापद बोधि का ।७६ चतुर्विधा जो गतियाँ कही गई, सुदुर्लभा है प्रथमा दशा उन्हें; प्रसिद्ध जो मानव योनि नाम से
अलभ्य, चिंतामणि ज्यों समुद्र में 1८० सुदुर्लभा भी यह आर्य भूमि है अलभ्य उत्पत्ति मनुष्य की यहाँ,
सुदुर्लभा उत्तम वंश प्राप्ति भी, सुदुर्लभा दीर्घ मनुष्य प्रायु है ।८१
अलभ्य पंचेन्द्रिय-पूर्णता यहाँ, सुदुर्लभा निर्मल बुद्धि प्राप्ति भी; अलभ्य है मंदकषाय भावना सदुर्लभा मुक्ति-प्रदा विभावना।८२ तथा मही-मध्य अलभ्य श्रेष्ठता अलभ्य है धार्मिकता मनुष्य को, अलभ्य है सम्यक दर्श आत्म को विशुद्धि, विज्ञान चरित्र आदि भी।८३
इसीलिए धर्म महान श्रेष्ठ है इसीलिए कर्मप्रधान विश्व भी लगे हुए मानव धर्म-कर्म में विचारते केवल ज्ञान मर्म हैं।८४ विमुक्ति पाना इस जन्म मृत्यु से महान निःश्रेयस ख्यात विश्व में, सदैव श्रेयास स्वधर्म भावना,
तथैव प्रेयांस जिनेन्द्र वदना।८५ धर्म- शिथिल जीव निकाल भवाब्धि से
अमित अर्हत् का पद दे; वही; विदित है प्रभुता प्रभु धर्म की विपुल मुक्ति प्रदायिनि लोक में ८६ क्षमा-दया, सयम, सत्य-शौच से, तपार्जव त्याग-विराग भाव से, कि युक्त जो मार्दव, ब्रह्मचर्य से दशांग शोभी जिन-धर्म रूप है।८७ स्वधर्म धर्मी यदि पालता रहे, अ-कर्म कर्मी यदि घालता रहे, अवश्य ही हो उसको अवाप्त तो विमुक्ति-दात्री सुख-संपदा सदा।८८ स्वधर्म ही श्रेय सभी प्रकार से विधर्म ही हेय मुमुक्षु के लिए, न इन्दिरा ही मिलती उसे, अहो !
अवाप्त होती जिनधर्म संपदा । अलभ्य जो संपति है त्रिलोक में, न भाग्य आमंत्रित जो हुई कभी,
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कवि वर्द्धमान भट्टारक
पं० परमानन्द जी शास्त्री
ये मूल संघ बलात्कार गण और भारती गच्छ के विद्वान् थे । इनकी उपाधि 'परवादि पंचानन' थी । वरांग aft की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है :
स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञे । श्रीभारत्यात्य गच्छे सकलगुणविधिर्वर्द्धमानाभिधानः ॥ प्रासीद् भट्टारकोsit सुचरितमकरोच्छ्रीवराङ्गस्य राशो । भव्यधेसि तम्बद् भुवि चरितमिदं वर्ततामार्कतारम् ॥ - वरांगचरित १३-८७ । वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । उनमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे और 'दशभक्त्यादि महाशास्त्र' के भी कर्ता थे और दूसरे वर्द्धमान हूमच शिलालेख के रचयिता है। इनका समय १५३० ई० के लगभग है। बिजयनगर के शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई० ) में उत्कीर्ण शिलालेख
अवश्य होती वह स्वीय योषिता, जिनेन्द्र के धर्म प्रभाव से सदा ॥६० सदा सवित्री-सविता स्वधर्म है, स्वधर्म भ्राता, स्व-सखा स्वधर्म है, स्वधर्म विद्याधन भी स्वधर्म है स्वधर्म सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ है । ६१ स्वधर्म चिन्तामणि कल्पवृक्ष हैं स्वधर्म संपूजित कामधेनु भी, स्वधर्म ही भूगत स्वर्गलोक में, स्वधर्म ही श्रेय, विधर्म हेय है । ६२ अतः करो पालन नित्य धर्म का पदाब्ज - प्रक्षालन सत्यधर्म का, न प्राप्त होती जिसके बिना कभी · मनुष्य को केवल-ज्ञान- कल्पना ॥६३
भट्टारक धर्म भूषण के पट्टधर और सिंहनन्दी योगीन्द्र के चरणकमलों के अमर वर्द्धमान मुनि थे। उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट
पट्टे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमान मुनीश्वरः । श्रीसिंहनन्दि योगीन्द्रचरणाम्भोज षट्पदः ॥ १२ शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धमं भूषणदेशिकः । भट्टाएक मुनिः श्रीमान् शस्यत्रयविवर्जितः ॥ १३ इनके समय में शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई० ) की फाल्गुन कृष्णा द्वितीया को राजा हरिहर के मन्त्री चैत्र दण्डनायक के पुत्र इरुगप्प ने बिजयनगर में कुन्थुनाथ का मन्दिर बनवाया था ।
दशभक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे । इनका राज्य सम्भवतः सन् १४१८ ई० तक रहा है और द्वितीय देवराज का समय सन् १४१९ से १४४६ ई० तक माना जाता है ।
राजाधिराजपरमेश्वरदेव राय, भूपाल मौलिलसप्रिसरोजयुग्मः । श्रीवर्द्धमानमुनिवल्लभमोदय मुख्यः, श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमात्यः ॥
भट्टारक धर्मभूषण ने व्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में और पुष्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है :--
X
१. तस्य श्री चैत्रदण्डाधिनायकस्योज्जितश्रियः । 'प्रासीदिरुगदण्डेशो नन्दनो लोकनन्दनः ॥ २१ X पुरे चारुशिलामयम् । चैत्यालयमचीकरत् ॥ २८ -- विजय नगर शि० नं० २
X तस्मिन्निरुगवण्डेशः श्री कुम्युजिननाथस्य
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कवि भट्टारक
।
मग मानेशो वर्द्धमानानि श्री परस्नेहसम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायदीपिका ।। -- न्यायदीपिका प्रशस्ति
इन सब उल्लेख से स्पष्ट है कि धर्मभूषण के गुरु वही भट्टारक वर्द्धमान है, जो वराग चरित के कर्ता है ।
बर्द्धमान भट्टारक का समय धर्मभूषण के गुरु होने के कारण ईसा की चौदहवी शताब्दी का उत्तरार्ध है ।
वराग चरित संस्कृत भाषा का लघुकाय ग्रन्थ है । इस काव्य से १३ सर्ग है जिनमे बाईसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ के समकालीन होने वाले राजा राग का चरित वर्णित किया गया है । यह जटिल कवि के वराग चरित का संक्षिप्त रूम है । कवि अर्धमान ने इसमे धार्मिक उपदेशो और कुछ ant को निकाल कर कथानक की रूपरेखा ज्यों की त्यों रहने दी है, ऐसा डा० ए० एन० उपाध्याय ने लिखा है। जैसा कि ग्रन्थ के निम्न पद्य से स्पष्ट है
सविस्तरं पुरः बुद्धि
कविता क्रास बितेका ऋषि वर्द्धमान ने राजा वराग के कथानक में धर्मोपदेश को कम कर दार्शनिक और धार्मिक चर्चाओं को बहुत सक्षिप्त रूप में दिया है। पर जटिल मुनि के वराग चरित का उस पर पूरा प्रभाव है। वराग का चरित इस प्रकार है :
1
विनीत देश मे रम्या नदी के तट पर उत्तमपुर नामक नगर था । उसमे भोज वश का राजा धर्मसेन राज्य करता था, उसकी गुणवती नाम की सुन्दर और रूपवती पटरानी थी। समय पाकर उसके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम वराग रक्खा गया। जब वह युवा हो गया, तब उसका विवाह ललितपुर के राजा देवसेन की पुत्री सुनन्दा, विध्य-पुर के राजा महेन्द्रदत्त की पुत्री वपुष्मती, सिहपुर के राजा · द्विषन्तप की पुत्री यशोमती, इष्टपुरी के राजा सनत्कुमार -की पुत्री वसुन्धरा, मलयदेश के अधिपति मकरध्वज की पुत्री अनन्तसेना, चक्रपुर के राजा समुद्रदत्त की पुत्री प्रियव्रता गिरिवज नगर के राजा बाह्रा की पुत्री सुकेशी, श्री कोशलपुरी के राजा मिसिह की पुत्री विश्वसेना, बराग देश के राजा विनयम्बर की पुत्री प्रियकारिणी और व्यापारी की पुत्री धनदत्ता के साथ होता
.८१
है । बराग इनके साथ सांसारिक सुख का उपभोग करता है। एक दिन अरिष्टनेमि के प्रधान गणधर वरदत्त उत्तमपुर में आये । राजा धर्मसेन मुनि वन्दना को गया । राजा के प्रश्न करने पर उन्होंने आचारादि का उपदेश दिया। बराग के पूछने पर उन्होंने सम्यक्त्व मौर मिथ्यात्व का विवेचन किया । उपदेश से प्रभावित ही बराग ने अणुव्रत धारण किये और उनकी भावनाओ का अभ्यास किया। तथा राज्य सचालन श्रौर अस्त्र-शस्त्र के सचालन में दक्षता प्राप्त की। राजा धर्मसेन वराग के श्रेष्ठ गुणो की प्रशंसा सुनकर प्रभावित हुआ और तीन सौ पुत्रों के रहते हुए राग को युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया । वरॉग के अभ्युदय से उसकी सौतेली माँ सुषेणा तवा सौतेले भाई सुषेण को ईर्ष्या हुई और मन्त्री सुबुद्धि से मिलकर उन्होंने षड्यन्त्र किया। मन्त्री ने एक सुशिक्षित घोडा बराग को दिया । वराग के उस पर बैठते ही वह हवा से वाते करने लगा । वह नदी, सरोवर, वन और अटवी को पार करता हुआ आगे बढता है और वराग का एक कुए में गिरा देता है। बराग किसी तरह कुए से निकलता है और भूख-प्यास से पीड़ित हो आगे बढ़ने पर व्याघ्र मिलता है। हाथी की सहायता से प्राणों की रक्षा करता है और एक यक्षिणी अजगर से उसकी रक्षा करती है और वह उसके स्वदार सन्तोष व्रत की परीक्षा कर सन्तुष्ट हो जाती है। वन मे भटकते हुए बराग को भील बलि के लिए पकड़ कर ले जाते है । किन्तु ग द्वारा दशित मिल्लराज के पुत्र का विष दूर करने से उसे मुक्ति मिल जाती है। बृक्ष पर रात्रि व्यतीत कर प्रात सागरवृद्धि सार्थपति से मिल जाता है। साथ पति के साथ चलने पर मार्ग में बारह हजार डाकू मिलते है। सार्थवाह का उन डाकुओं से युद्ध होता है। सार्थवाह की सेना युद्ध से भागती है। इसमें सागर बुद्धि को बहुत दुख हुआ । सकट के समय वराग ने सार्थसे निवेदन किया कि आप चिन्ता न करें, मैं सब डाकुओ को परास्त करता हूँ । कुमार ने डाकुग्रो को परास्त किया और नागरबुद्धि का प्रिय होकर सार्थवाही का चितवन लितपुर में निवास करने लगता है।
वाह
इधर घोड़े का पीछा करने वाले सैनिक और हाथी-घोड़े लोट आये, वराग का कही पता न चला। उसे धर्मसेन
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१२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
को बड़ी चिन्ता हुई। राजा ने गुप्तचरो को कुमार का परन्तु वह अपनी अयोग्यतायो के कारण शासन में असफल पता लगाने के लिए भेजा। वे कुए में गिरे हुए मृत अश्व हो जाता है। उसकी दुर्बलता और धर्मसेन की वृद्धावस्था को देखकर और कुमार के वस्त्रो को लेकर वापिस लौटे। का अनुचित लाभ उठाकर बकुलाधिपति उत्तमपुर पर उन्हे ढूढने पर भी कुमार का कोई पता न लगा। अत आक्रमण कर देता है। धर्मसेन ललितपुर के राजा से अन्तःपुर में करुण विलाप का समुद्र उमड़ पड़ा।
महायता मांगता है। वराग इस अवसर पर उत्तमपुर मथुरा के राजा इन्द्रसेन का पुत्र उपेन्द्रसेन था। इस जाता है और वकुलाधिपति को पराजित कर देता है। राजा ने एक दिन ललितपर मे देवसेन के पास अपना दूत पिता-पुत्र का मिलन होता है, और प्रजा वराग का स्वागत भेजा और अप्रतिमल्ल नामक हाथी की मांग की। देव- करती है। वह विरोधियो को क्षमा कर राज्य शासन सेन द्वारा हाथी के न दिये जाने पर रुष्ट हो मथगधिपति प्राप्त करता है और पिता की अनुमति से दिग्विजय ने उस पर आक्रमण कर दिया। इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन करने जाता है और अपने नये राज्य की राजधानी सरदोनो की सेना ने बड़ी वीरता से युद्ध किया, जिससे देव- स्वती नदी के किनारे प्रानर्तपुर को बसाता है । सेन की सेना छिन्न-भिन्न होने लगी। कुमार वराग ने वराग ने प्रानर्तपुर में सिद्धायतन नाम का चैत्यालय पाकर देवसेन की सहायता की और इन्द्रसेन पराजित हो निर्माण कराया और विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न गया।
कराई। ललितपुर का राजा देवसेन कुमार के बल और परा- एक दिन ब्राह्ममुहूर्त मे राजा वराग तेल समाप्त होते क्रम से प्रसन्न होकर उसे अपनी पुत्री सुश्री सुनन्दा और हुए दीपक को देखकर देह-भोगो से विरक्त हो जाता है और प्राधा राज्य प्रदान करता है। एक दिन राजा की मनो- दीक्षा लेने का विचार करता है। परिवार के व्यक्तियो ने रमा नाम की पु कुमार के रूप सौन्दर्य को देखकर उसे दीक्षा लेन से रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वह न आसक्त हो जाती है और विरह से जलने लगती है । मनो- माना और वरदत्त केवली के निकट दिगम्धर दीक्षा धारण रमा कूमार क पास अपना दूत भजती है। पर दुराचार की। और तपश्चरण द्वारा आत्म-साधना करता हमा से दूर रहने वाला कुमार इनकार कर देता है। मनोरमा अन्त में तपश्चरण से सर्वार्थ सिद्धि विमान को प्राप्त विरहाग्नि जलने लगती है।
किया। उसकी स्त्रियों ने भी दीक्षा ले ली। उन्होने भी वराग के लुप्त हो जाने पर सुषेण उत्तमपुर के राज्य अपनी शक्ति के अनुसार तपादि का अनुष्ठान किया और कार्य को सम्हालता है।
यथायोग्य गति प्राप्त की।
प्रकाशनों पर विशेष रियायत वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज दिल्ली के प्रकाशन विभाग ने अनेक ग्रन्थ रत्नों को प्रकाशित कराया है। कुछ ग्रन्थ ऐसे है जो जैन सिद्धान्त के मूल तत्त्वों एवं उपदेशो पर संक्षेप में प्रकाश डालते हैं। ऐसी पुस्तिकाओं द्वारा जैन धर्म और उसके प्रात्म-कल्याणप्रद उपदेशों का प्रचार किया जा सकता है। जो सज्जन इस प्रकार को पुस्तकों को खरीद कर उन्हें प्रचारार्थ वितरण करना चाहें, उन्हें मूल्य में विशेष रियायत प्रदान की जायगी। खरीदने के इच्छुक सज्जन कार्यालय में मिलने या पत्र व्यवहार द्वारा निर्णय लेने को कृपा करें।
वीर सेवा मन्दिर द्वारा प्रकाशित विशेष ग्रन्थों की सूची अनेकान्त के प्रत्येक अंक में छपती है।
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स्मृति-प्रखरता के प्रकार
मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी प्रथम
भारतवर्ष के श्रमण-निर्ग्रन्थो व ऋषियों ने योग-साधना से ओझल न हो सके। स्मृत प्रकरण स्वतः ही समय पर पर विशेष बल दिया है। इन्द्रियो का सयम, मन का उद्बोधन का रूप ले लेता है। निग्रह और वाणी के निरोध को अध्यात्म का मुख्य अंग स्मृति की दिलक्षणता में मानसिक एकाग्रता, कल्पना माना है। किन्तु यह अध्यात्म रोमा नहीं है, जो मनुष्य शक्ति की प्रवणता और बुद्धि की स्थिरता अनिवार्य हो को जीवन से उपरत करे। भगवान महावीर ने कहा है : जाती है। महर्षि पतजलि ने चित्त की पाच अवस्थाएं "जे अज्जत्थं जाणई, से वहिया जाणई, जो अध्यात्म को मानी ह. १-क्षिप्त, २-मूढ, ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र जानता है, वह वाह्य को जानता है। इससे यह निष्कर्ष ५-निरुद्ध । क्षिप्त, मूढ और विक्षिप्त ये अवस्थाएं विकृत सहज ही निकलता है कि भारतीय ऋषियो का चिन्तन मन की है । एकाग्र मन तब होता है, जब चिन्तन के लिए केवल पारलौकिक ही नहीं रहा है। उन्होने जीवन के एक ही अवलम्बन होता है। निरुद्ध अवस्था मे मानसिक उभय पक्षो को साथ रखकर ही सोचा, पाया और ममाज स्थिरता के लिए किसी भी प्रकार के अवलम्बन की पावको दिया।
श्यकता नहीं होती। यह प्रत्युत्कृष्ट स्थिति है, जिसे योगअवधान विद्या उस माधना की एक विशेप उपलब्धि निरोधक मुनि ही पा सकते है। एकाग्रता की स्थिति सर्वहै, जो स्मृति के द्वार से प्रविष्ट होकर प्रात्मा तक पहुचती माधारण से लेकर विशिष्ट साधको तक से सम्बन्ध रखती है। पाचो इन्द्रियाँ और मन, ज्ञान के मुग्य माधन है। है। एकाग्रता स्मृति का उपादान बनती है और कल्पना किसी भी पदार्थ के देखने, सुनने, स्पर्श करने, मू घने यौर की पटुता और बुद्धि की महज स्थिरता निमित्त । किन्तु, चखने के साथ ही मन का उममे लगाव होता है, जिसे यह निमित्त भी उपादान के समकक्ष पहुंच जाता है। "ग्रहण" कहा जाता है। प्रात्मा का जब उसके साथ आज के युग मे प्रत्येक व्यक्ति से यह सुना जा सकता घनिष्ट सम्पर्क स्थापित हो जाता है, तब उसे 'धारणा' है कि म्मरण-शक्ति वहत कमजोर हो गई है। प्रात सोचा कहा जाता है। जब वही ज्ञान तत्काल, कुछ समय बाद गया कार्य सायं विम्मृत हो जाता है। इस अभाव को या लम्बे समय वाद दुहराया जाता है, तब वह उद्बोधन पूर्ति के लिए मनुष्य ने अपनी स्मृति को बढाने के लिए होता है। हम प्रतिदिन सैकड़ो वस्तुओ, मनुष्यो और विशेष उपक्रम नहीं किया। केवल एक साधन डायरी का प्राकृतिक दृश्यों को देखते है, परिचित और अपरिचित प्रारम्भ किया। जिस दिन जो कार्य किया जाना है, उसे सैकड़ो शब्द सुनते है, किन्तु स्मृति मे कुछ नहीं रह पाता। उस दिन के कोष्ठक में लिख दिया जाता है। किन्तु इसका तात्पर्य है कि 'ग्रहण' के बाद ज्ञान का धारणा मे ग्राफिस जाते हुए डायरी घर रह जाए और घर जाते हुए परिणमन नहीं हो सका। इस प्रकार धारणा के बिना आफिस मे रह जाए, तो उस स्थिति में क्या बीते ? प्रतिदिन दर्शन और श्रवण होता है और वह अपार्थक ही भुलक्कड़ के लिए यह भी तो एक समस्या होती है कि चला जाता है। विना एकाग्रता के धारणा सम्भव नही वह जहाँ जाए, उससे पहले डायरी को याद रखे। होती। जब कार्यरत एक इन्द्रिय को मन के साथ योजित मनुष्य बहुघन्धी है । उसके पास समय बहुन थोड़ा है कर किसी विशेष स्थान पर केन्द्रित कर देते है, स्वत: ही और काम बहुत अधिक । वह एक साथ बहुत सारे कामों वह ग्रहण के बाद धारणा बन जाता है। किन्तु धारणा में को निपटाने की सोचता है । यही उलभन उसकी विस्मति भी स्थायित्व तब आता है, जब एकाग्रता के माथ हमारी का कारण बनती है । एक कार्य को करते हुए दूसरे कार्य कल्पना शक्ति और अनुस्यूत हो जाती है । अर्थात् ज्ञान के को मस्तिष्क मे न लाया जाये और सम्बन्धित विषय से प्रतिग्रहण के साथ अपने परिचित विचारों या तत्सम अन्य रिक्त और कुछ न सुना जाए, तो कोई कारण नही है कि उपकरणो के साथ ग्रहीत पदार्थ या शब्द का उचित स्मृति में कमजोरी पाए। एक रील पर फोकस ठीक कर संयोजन करना होगा, जो किसी भी परिस्थिति मे स्मृति चुकने पर जब एक ही फोटो खीचा जाता है, तो वह
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चित्र अच्छा पाता है, किन्तु जब एक ही रील पर एक आवश्यकता इन्द्रियों की अन्तम खता की है, जिसे चित्र खीच चुकने पर दूसरा चित्र खीचा जाएगा, तो कोई प्रात्म-संयम कहा जाता है। मन की शिथिलता संयम की भी चित्र ठीक नहीं बन पाएगा। इसी प्रकार यह हमारा घातक होती है। यही धारणा और स्थिरता पर आघात मस्तिष्क है। एक साथ बहुत सारे कार्य सामान्यतया करती है। ऋपियों ने इसके लिए एक व्यवस्थित पद्धति ग्रहण नहीं किए जा सकते। मस्तिष्क की तुलना इसी दी है। उसके अनुसार सबसे पहले अपने मस्तिष्क की विचार प्रकार टेपरिकार्डर से की जा सकती है।
शून्य और चिन्ता-मक्त करने की आवश्यकता होती हैं । अवधान का तात्पर्य है, सावधानीपूर्वक धारण करना। किमी व्यक्ति के प्रति लगाव, शारीरिक तनाव, मानसिक यह अवस्था ग्रहण के बाद की है। धारणा मे यह दुगव, व्यवसाय या कार्यालय के काम को निपटीने का स्वभावतः ही अनुस्यूत रहता है कि ग्रहीत पदार्थ को उतावलापन आदि धारणा और स्थिरता को पूर्ण नहीं कल्पना के ताने-बाने के साथ सम्यक्तया अधिष्ठिन कर होने देते। इस स्थिति को गीताकार ने 'नं किंचिदपि स्थिरता की तिजोरी मे उसे सजा दिया जाए। पारणा चिन्तयेत्' कहा है। अस्वास्थ्य भी इसमें बाधक होता है। के बाद स्थिरता में यदि न्यूनता होती है, तो किसी भी उन्मुक्त और एक स्थान-स्थित नेत्र तथा मुंह में समय विपर्यय या उसकी समाप्ति भी हो सकती है। फिर ममुच्चारित होने वाली पार्ष-मुक्तियाँ मानसिक एकाग्रता वहाँ हाथी और नीबू में कोई अन्तर नही रह जाता।
को विशेष हेतु बनती है। एक आदमी किसी अपरिचित देश मे गया। वहाँ उसने
कि इस युग में संयम का प्रभाव विशेषतः खटकता है। विचार
स्वातन्त्र्य के नाम पर इन्द्रियों को भी इतनी स्वतन्त्रता 'हाथी' और 'नीबू' ये दो चीजे पहली बार देखी। दोनों
मिल गई है कि मन की एकाग्रता समूल ही भंग हो चुकी नामों को उसने अपनी सकेत-पुस्तिका (डायरी) में अकित म कर लिया। बहुत वर्षों के बाद उसके गाव मे हाथी पाया।
है। स्मृति प्रखरता के इच्छुक व्यक्ति को सर्वप्रथम संयम गांव के लोग सैकडो की संख्या में एकत्र होकर उसे
का साधक वनना होगा। प्राचार्य श्री तुलसी ने मन की विस्मयपूर्ण दृष्टि से देखने लगे। उस व्यक्ति ने कहा ---
चंचलता के नियमन के लिए प्रणबत-आन्दोलन का एक यह प्राणी मेरे लिए नया नही है । मैंने पहले भी इसे देखा विशेष मग दिया है। प्राचार्य श्री तुलसी के समक्ष एक और इसका नाम भी मेरी सकेत-पुस्तिका मे अकित है। पार जा
ओर जहाँ शैलेशी-अवस्था प्राप्त ऋषियों का आदर्श है, अज्ञात वस्तु को जानने की उत्कण्ठा सहज होती है। वहीं दूसरी ओर याज के मनुष्य का विक्षिप्त मानस भी लोगो ने पूछा--भाई ! इसका नाम हमे शीघ्र बतायो। है । इसके लिए मैं यह कह सकता हूँ कि महषि जनक के चट से वह संकेत-पुस्तिका लाया। उममे लिखा था-- एक हाथ पर जैसे चन्दन का विलेपन था और दूसरे हाथ 'नीबू; हाथी' । वह असमंजस मे पड़ गया । क्योकि उसकी
पर जली हुई अग्नि, उसी तरह स्वयं समाधिस्थ रहते हैं, बुद्धि स्थिर नही थी। वह मोचने लगा---नीबू कौन-सा
विक्षिप्त-चेता मनुष्य के रोग का निवारण करते जा रहे था और हाथी कौन-सा? लोगो से बोला-बन्यो । है। इमालिए उनका घोष है.-'संयमः खलू जीवनमा इस पशु का नाम या तो नीबू है या हाथी ।
सयम ही जीवन है और असंयम ही मृत्यु । संयम का ह प्रश्न यह है, मनुष्य धारणा और स्थिरता को कम माग जीवन की अनेक समस्यायों का समाधान ta बढाए? इन्द्रियाँ ज्ञान की साधन है और इन्द्रियाँ ही
करता हुआ मनुष्य को स्मृति-प्रगाढ भी बनाता है। अपेक्षा
र विस्मृति की साधन । अन्तर्मुखता और बहिर्मुखता इसमे
यही है, कि संयम जीवन के प्रत्येक व्यवहार का अंग बनें । विशेष सहायक होती है। प्रत्येक व्यक्ति स्मृति प्रगाढ़
सभी महानुभाव यह चाहते ही होंगे कि उनकी स्मृति बनना चाहता है, किन्तु, इन्द्रियों को अन्तर्मुखता की ओर
विशेष प्रखर हो। वकील, पत्रकार और विशेषतः
योजनाओं से सम्बद्ध व्यक्तियों की यह चाहं और अधिक नहीं; अपितु बहिर्मुखता की ओर ही बढ़ाता है। हो सकती है। मेरा इस अंवसर पर वही विशेषतः कहना यहीं से स्मृति नाश का प्रारम्भ हो जाता है । धारणा हैं कि संयम के द्वारा मानसिक एकाग्रता प्राप्त करें और और स्थिरता की शक्ति बढ़ाने के लिए सबसे पहली उसके आधार पर अपनी स्मरण-शक्ति को बढ़ाएं।
पाहाथा।
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कलाकार की साधना
श्री 'ठाकुर'
भारत में कई संस्कृतियां पाई और लुप्त हो गई; अनेक राजवंश उभरे और नष्ट हो गये; अनेक राजसत्तको प्रणालियों का उदय हुन्मा और वे महाकाल के शाप से तिरोहित हो गई। किन्तु अनन्त करुणा के प्रागार प्रभ 'दक्षिण कुक्कुट जिन' गोम्मटेश्वर बाहुबलि दोड्डवेष्ट (इन्द्रगिरि) पर एक हजार वर्ष से अडिग भाव से खड़े हुए स्मित मुद्रा में संसार पर अपनी अनन्त करुणा को वर्षा कर रहे हैं। किन्तु कौन था वह महाभाग शिल्पी, जिसको कुशल उंगलियों के जादू ने कठोर पाषाणों की छाती चोरकर इस सौम्य और जीवित लगने वाले भगवान् का निर्माण किया ? इस कथानक में उसी अमर शिल्पी की साधना का शब्द-चित्र खींचा गया है।
प्रतिभा का जयघोष कर रहे है । जंकणाचार्य ,विड़ और होयसल शिल्पकला के प्राचार्य एक बार उन्होंने एक देव-विग्रह के लिये एक पर्वत थे। भारत ही नहीं; सुदूर द्वीपों के शिल्पी उनके चरणों का चुनाव किया । देश देशान्तरो के शिल्पी वहाँ एकत्रित में बैठकर शिल्प कला की बारीकियों को समझने का थे। जकणाचार्य ने घोषणा की थी कि यह विग्रह अवसर प्राप्त करने के लिए महान प्रयत्न करते रहते थे उनके जीवन की सम्पूर्ण साधना का एक अमृत फल और जिन्हे यह अवसर उपलब्ध हो जाता था, वे इसे होगा। वह विग्रह ऐसा होगा, जिसकी समता संसार में अपने पूर्वजन्म के किसी सकृत का परिणाम मानते थे। कोई मूर्ति न कर सकेगी। आचार्य की इस घोषणा ने उनकी ख्याति सुदूर देशों तक थी। बड़े-बड़े प्रतापी राज- शिल्पी समाज मे उत्सुकता जगा दी और उसका शिल्पवंश प्राचार्य के चरणों में विपुल वैभव वषेर कर भी सौन्दर्य अपनी आंखो से देखने को शिल्पियों का एक उनकी कृपा और अनुग्रह पाने को लालायित रहते थे। विशाल परिकर वहाँ प्राजटा । मभी शिल्पी प्राचार्य के किन्तु प्राचार्य के कुछ अपने सिद्धान्त थे। उनकी हस्त-लाघव को देखना चाहते थे। और जब आचार्य ने मान्यता थी कि कला एक साना है, वह बाजार हाटो में उस विग्रह के लिये शिला का चुनाव किया तो वह विकर्ने वाली चीज नहीं है। कला का मोल सोने और शिल्पी-परिवार प्राचार्य की पसन्दगी पर मुग्ध हो गया। चांदी के बंटखरों से नहीं हो सकती। उनकी सारा जीवन प्राचार्य ने बडे दम्भपूर्ण ढंग से कहा-'बन्धुप्रो ! ही कला के लिये समर्पित था। वे कला की साधना केवल ललित कला का प्राधार निर्दोष शिला है। मैंने अंगणित स्वान्तः सुखाय करते थे, राजामों और धनिकों के मनों- शिलाओं में से जिस शिला का चयन किया है, वह शिल्परंजन के लिये नहीं। उनकी कला के गर्भ से महाकाव्यों शास्त्र की दृष्टि से सभी प्रकार निर्दोष है। एक सफल के नव रसों की सृष्टि हुई थी। जिस पाषाण को उनकी शिल्पकार की दृष्टि कितनी सूक्ष्म होती है, यह आपने उंगलियों ने स्पर्श कर दिया, वह पाषाण मानो बोलने अनुभव किया होगा। मेरी सफलता का रहस्य यही है।' लैंगी। उनके नी-हथौड़े के आगे पाषाण की कठोरता शेष शिल्पियों ने प्राचार्य की बात को स्वीकार किया पिघलने लगती थी और तब वे कठोर पाषाण उनकी और प्रशसात्मक हर्ष किया। किन्तु तभी एक अज्ञात कुलंईच्छी के अनुसार रूप बदलने लगते थे। हले विदु, वेणूर, शील शिल्पी खड़ा हो गया। उसके बड़े होने का ढंग बडा सोमनाथपुरै के कलापूर्ण मन्दिर आज भी उनकी शिल्प- विनयपूर्ण था। उसके मुख पर शालीनता विराजमान
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अनेकान्त
थी। प्राचार्य की दृष्टि उस पर पड़ी। वे बोले-'भद्र ! जकणाचार्य उस युवक शिल्पकार की विनय और कुछ कहना है "
शालीनता से बड़े प्रभावित हए। वे बोले--भद्र ! तुमने युवक बोला-'अविनय क्षमा करें प्राचार्य ! मेरे मेरा दम्भ चूर-चूर कर दिया । शिल्प विधान एक महाविनम्र मत में शिला निर्दोष नही है, इसलिये इससे जो सागर है । मै अपने आपको इस महासागर का पारगामी विग्रह बनेगा, वह शिल्प-विधान के अनुसार निर्दोष नही । तैराक समझता था। किन्तु तुम्हारा ज्ञान विशाल है। सब बन पायगा।'
कोई सुनें । आज से जकण प्राचार्य नही है, अरिहनेमि युवक की बात सुनकर सारे उपस्थित शिल्पी-समाज प्राचार्य है । यदि कभी सुयोग मिला तो प्राचार्य अरिहमें हलका सा कोलाहल होने लगा। सबके मुखों पर नेमि की किसी कृति के चरणों में मैं भी कोई छोटी-मोटी तिरस्कार के भाव उभर आये। प्राचार्य के अपमान से रचना करूंगा, जिससे मेरी आज की घोषणा पर इतिहास कुछ लोग इस दुस्साहसी युवक के प्रति रोषपूर्ण भाषा की मुहर लग जाय ।। भी बोलने लगे। किन्तु प्राचार्य ने संकेत से मवको शान्त सभी शिल्पकारों ने शिल्पाचार्य अरिहनेमि का जयकरते हुए पूछा-'भद्र। इस शिला मे क्या दोष है. नाद किया । क्या तुम बता सकते हो?"
गगवाडी के गगवशीय प्रतापी नरेश राचमल्ल के ___'अवश्य । प्राचार्यपाद ने जिस शिला का चयन किया
सेनापति वीरवर चामुण्डराय चन्द्रगिरि पर्वत पर चिन्ताहै, उसके भीतर एक जीवित मेढक है । इस प्रकार की
__ मग्न बैठे थे। उनके निकट ही उनके दीक्षा गुरु प्राचार्य शिला देव-विग्रह के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । यदि मेरे
अजितसेन और गुरुवर भट्टारक नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कथन मे कोई सन्देह है तो प्राचार्य इसकी परीक्षा कर सकते
बैठे हुए अपने शिष्य के चिन्ताम्लान मुख को देख है' युवक ने अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया।
रहे थे। प्राचार्यद्वय अपने विनीत शिष्य के हृदय में युवक का यह अद्भुत उत्तर सुनकर कुछ क मुख तिर- चिन्ता के उठने वाले तुफान से अपरिचित नहीं थे। तभी स्कार से विकृत हो गये, किसी के मुख पर व्यग्य भरा प्राचार्य अजितसेन बडे वात्सल्य के साथ बोले----'वत्स ! हास्य उभर आया। प्राचाय के मुख पर भा एक क्षण का चिन्ता करने से भगवान बाहबली के दर्शन नही हो सकेंगे।
के औद्धत्य से विकार की रेखायं खिच गइ । किन्तु धर्म की साधना पार्तध्यान से कभी नही होती।' उन्होंने अपने आप पर संयम रक्ग्वा और उस उद्धत युवक
चामुण्डराय ने करुण दृष्टि से गुरु की ओर देखा । को उचित शिक्षा देने के लिए युवक के द्वारा निदिष्ट स्थान
उनकी दृष्टि अत्यन्त म्लान थी। वे बड़े निराशा भरे स्वर पर शिला को भंग किया। किन्तु सभी स्तब्ध रह गये,
मे बोले---'गुरुदेव ! चिन्ता के अतिरिक्त शेष ही क्या बचा जब शिला टूटते ही एक जीवित मेढक फदक कर निकला।
है । इतने दिन गोम्मटेश्वर की तलाश करते हुए बीत गये, अब तिरस्कार और रोष के स्थान पर सबके मुख पर
किन्तु कुछ पता नही चल पाया। मेरी माता गोम्मटेश्वर आश्चर्य के भाव थे और उस जादूगर युवक ने क्षण भर मे
के दर्शनो के बिना ही प्राण त्याग देंगी ! मैं उनकी इस सबका आदर प्राप्त कर लिया था।
एकमात्र इच्छा की पूर्ति न कर सका । मैंने युद्ध में प्रतापी आचार्य भी हैरान थे उसके शिल्प-ज्ञान की गहराई
पल्लववंशी नोलम्बनरेश को परास्त किया। उछंगी के अजेय पर । उन्होने पूछा-'अद्भुत जान पड़ते हो तुम । युवक ! ।
दुर्ग को धराशायी किया। बज्जलदेव ने मेरी तलवार का क्या नाम है तुम्हारा ?'
लोहा माना। वागेपुर के त्रिभुवनवीर को मार कर मैंने प्राचार्य के इस प्रश्न में ममता और आदर के भाव ।
अपने भाई की हत्या का बदला चुकाया। किन्तु आज मेरी ये । युवक ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया-- 'मुझे
भुजाओं की वह शक्ति और मेरे इन दुर्दम वीरों का बल अरिहनेमि कहते है । गुरुपाद का अनुगत शिष्य बनने की
भी मेरी पूज्य माता का आदेश पूरा करने में असफल मेरी कामना है । आर्य मुझ पर प्रसन्न हो।'
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कलाकारको साधना
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यो कह कर वीर मार्तण्ड चामुण्डराय वेदना से कराह स्निग्ध प्रभा विकीर्ण हो रही है । जल, थल सब उस प्रभा उठे । प्राचार्य ने बड़ी ममता से उनके सिर पर हाथ फेरा मे नहा रहे है । दिव्य पुरुष ने पाशीर्वाद की मुद्रा में एक और पाश्वासन भरे स्वर में बोले-'पुत्र ! करुणा सिधु हाथ उठाया और वोला-'भक्तवर | मैं तुझ पर प्रसन्न बाहुबली शक्ति से नही, भक्ति से प्रसन्न होते है। भक्ति हूँ। तू चिन्ता त्याग और स्वर्ण धनुष पर स्वर्ण वाण चढ़ा हो तो वे अवश्य दर्शन देंगे।'
कर सामने दोडवेट्ट पर्वत पर सन्धान कर। वाण जहाँ 'ठीक कह रहे है प्रभु । बिषाद और चिन्ता को
गिरेगा, वही पर महाप्रभु बाहुबली प्रगट होगे। तेरी माता अँधियारी मे मुझे कुछ नहीं सूझ रहा था । आपने मुझे
का प्रण पूरा होगा और तेरी चिन्ता का अन्त होगा।' राह दिखाई है। किन्तु भक्ति के साथ-साथ क्या कोई युक्ति चामुण्डराय की निद्रा भग हुई। उन्होने नेत्र पसार नही, जिससे मुझे इस चिन्ता से मुक्ति मिल सके' प्राश्वा- कर देखा किन्तु वहाँ कोई न था। दिव्य पुरुष अन्तर्धान सन पाकर बडे उत्साह ने सेनापति बोले।
हो गया था। उनके निकट केवल ध्यानलीन गुरु थे। निमित्त ज्ञानी प्राचार्य सुनकर मुम्कराये, मानो कुन्द भक्ति से उन्होने गुरुप्रो को नमस्कार किया। कली पर शुभ्र चाँदनी बिखर गई । वे कहने लगे--'वत्स । उन्ही करुणामय प्रभु का ध्यान करो। युक्ति भी वे ही चामुण्डराय ने राजदूतो को भेजकर देश और विदेश बतायेंगे। वे करुणा के प्रागार है। उनकी करुणा का से प्रख्यात मृतिकारी और शिल्पियो को बुलाया । जकणाकोई अन्त नहीं है। लगता है, अब तुम्हारी चिन्ता का चार्य, प्रादिराजय्य, देवण्णा, नेमिनाथ, ऐण्टोनियो प्रादि अन्त होने वाला है।
कितने ही शिल्पकला में पारगत कलाकार आये । वहाँ चामण्डराय कुछ कह पाते, उससे पूर्व ही प्राचार्यद्वय कलाविदो का मेला लग गया। चामुण्डराय ने उन्हे एकत्रित ध्यानमन्न हो गये । किन्तु गुरुदेव के वचनो से शिष्य का करके अपनी इच्छा व्यक्त की--'विज्ञजनो। आप लोग हृदय आशा और भक्ति मे भर गया। उनके मानस नेत्री शिल्प बिधान के निष्णात प्राचार्य है। अापकी कला मे पोदनपुर के महायोगी बाहुबली का चित्र नाचने लगा। कठोर पाषाणो में मुखरित हुई है । प्रापकी कला ने जीवंत उन्होने भक्ति प्लावित हृदय से उन्हे भाव नमस्कार काव्यो की मृष्टि की है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि इस किया। चिन्ता का ज्वार उतर गया और उनके मन में युग के प्रथम सिद्ध भगवान् बाहुबली की वह मूर्ति पापकी वह रूप उभर आया, जब चक्रवर्ती भरत महामुनि बाहु- दिव्य कला से नि.सृत हो, जिसकी रचना प्रथम चक्रवर्ती बली के चरणो का भक्ति विह्वल नेत्रो से बरसते आसुओ महाभाग भरत ने कराई थी और जिसके दर्शन मुझे भाव से प्रक्षालन कर रहे है और प्रात्मा के सहज प्रानन्द मे लोक में हुए है। राज्य का सम्पूर्ण कोष और समूचे लीन बाहुबली स्वामी के नेत्रो से निकलने वाले प्रानन्दा- साधन इसके लिए प्रस्तुत है। आप लोग अपने मोडल श्रुनो की बूदें चक्रवर्ती के सिर पर गिर कर मानो उनका प्रस्तुत करें। इसके लिए एक सप्ताह का समय निर्धारित राज्याभिषेक कर रही है।
किया जाता है। जिनका मोडल सर्वश्रेष्ठ होगा, उन्हें इस इस भाव धारा मे बहते हए चामुण्डराय को बाह्य विग्रह के निर्माण का भार सौंपा जायगा और निर्माण जगत का बोध ही नहीं रहा। भाव लोक में विचरण होने पर राज्य की ओर से विपुल पुरस्कार और समचित करते हुए उन्हें लगा कि बाहुबली भगवान के चरणो में सम्मान दिया जायगा । सम्राट भरत नही, वे स्वय लोट रहे है और भगवान् उन कलाविदो ने मोडल बनाये एक से एक सुन्दर, किन्तु पर अपनी सहज करुणा का दान कर रहे है। इस भाव
चामुण्डराय के भावलोक की उस दिव्य प्रतिमा के अनुरूप मूर्छा में उन्हे कब निद्रा आ गई, इसका उन्हे पता ही एक भी मौडल नही था । कलाकारो के इस निष्फल प्रयास नहीं चला। किन्तु निद्रित अवस्था में उन्हे स्वप्न में पर वे खिन्न हो गये। उन्होने उस युग के सर्वश्रेष्ठ शिल्पदिखाई पड़ा-कोई दिव्य पुरुष खड़ा है । उसके शरीर से कार जकणाचार्य को बुलाकर बड़े विषादपूर्ण स्वर मे कहा
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थी। प्राचार्य की दृष्टि उस पर पड़ी। वे बोले-'भद्र ! जकणाचार्य उस युवक शिल्पकार की विनय और कुछ कहना है ?'
शालीनता से बड़े प्रभावित हुए। वे बोले-भद्र ! तुमने युवक बोला-'अविनय क्षमा करें आचार्य ! मेरे मेरा दम्भ चूर-चूर कर दिया। शिल्प विधान एक महाविनम्र मत मे शिला निर्दोष नहीं है, इसलिये इससे जो सागर है । मै अपने आपको इस महासागर का पारगामी विग्रह बनेगा, वह शिल्प-विधान के अनुसार निर्दोष नहीं ' तैराक समझता था। किन्तु तुम्हारा ज्ञान विशाल है। सब बन पायगा।'
कोई सुनें । आज से जकण प्राचार्य नहीं है, अरिहनेमि युवक की बात सुनकर सारे उपस्थित शिल्पी-समाज आचार्य है। यदि कभी सुयोग मिला तो प्राचार्य अरिहमें हलका सा कोलाहल होने लगा। सबके मुखो पर नेमि की किसी कृति के चरणो मे मै भी कोई छोटी-मोटी तिरस्कार के भाव उभर पाये। प्राचार्य के अपमान से रचना करूगा, जिससे मेरी आज की घोषणा पर इतिहास कुछ लोग इस दुस्साहसी युवक के प्रति रोषपूर्ण भाषा की मुहर लग जाय ।
किन्त प्राचार्य ने मकेत से सबको शान्त सभी शिल्पकारो ने शिल्पाचार्य अरिहनेमि का जयकरते हुए पूछा-'भद्र ! इस शिला मे क्या दोष है. नाद्र किया।
( २ ) क्या तुम बता सकते हो?'
___ गगवाडी के गगवशीय प्रतापी नरेश राचमल्ल के 'अवश्य । प्राचार्यपाद ने जिम शिला का चयन किया
सेनापति वीरवर चामण्डराय चन्द्रगिरि पर्वत पर चिन्ताहै, उसके भीतर एक जीवित मेढक है । इस प्रकार की
मग्न बैठे थे। उनके निकट ही उनके दीक्षा गुरु प्राचार्य शिला देव-विग्रह के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । यदि मेरे
अजितसेन और गुरुवर भट्टारक नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कथन मे कोई सन्देह है तो प्राचार्य इमकी परीक्षा कर सकते
बैठे हुए अपने शिष्य के चिन्ताम्लान मग्न को देख है' युवक ने अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया ।
रहे थे। प्राचार्यद्वय अपने विनीत शिष्य के हृदय मे युवक का यह अद्भुत उत्तर मुनकर कुछ के मुग्व तिर
चिन्ता के उठने वाले तूफान से अपरिचित नही थे। तभी स्कार से विकृत हो गये, किसी के मुख पर व्यग्य भरा प्राचार्य प्रजितन
आचार्य अजितसेन बड़े वात्सल्य के साथ बोले-'वत्स ! हास्य उभर आया। प्राचार्य के मुख पर भी एक क्षण का चिन्ता करने से भगवान बाहबली के दर्शन नहीं हो सकेंगे। यवक के प्रौढत्य से विकार की रेषायें खिच गई । किन्तु धर्म की साधना पार्तध्यान से कभी नहीं होती।' उन्होने अपने पाप पर सयम रक्ग्वा और उस उद्धत युवक
चामुण्डराय ने करुण दृष्टि से गुरु की पोर देखा। को उचित शिक्षा देने के लिए युवक के द्वारा निदिष्ट स्थान
उनकी दृष्टि अत्यन्त म्लान थी। वे बड़े निराशा भरे स्वर
उनकी दृष्टि अत्यन्त म्लान थी। पर शिला को भंग किया। किन्तु सभी स्तब्ध रह गये,
मे बोले- 'गुरुदेव ! चिन्ता के अतिरिक्त शेष ही क्या बचा जब शिला टूटते ही एक जीवित मेढक फदक कर निकला।
है । इतने दिन गोम्मटेश्वर की तलाश करते हुए बीत गये, अब तिरस्कार और रोष के स्थान पर सबके मुख पर
किन्तु कुछ पता नहीं चल पाया। मेरी माता गोम्मटेश्वर आश्चर्य के भाव थे और उस जादूगर युवक ने क्षण भर मे
के दर्शनों के बिना ही प्राण त्याग देगी ! मैं उनकी इस सबका आदर प्राप्त कर लिया था।
एकमात्र इच्छा की पूर्ति न कर सका । मैंने युद्ध में प्रतापी प्राचार्य भी हैरान थे उसके शिल्प-ज्ञान की गहराई
पल्लववंशी नोलम्बनरेश को परास्त किया। उछंगी के मजेय पर । उन्होंने पूछा-'अद्भुत जान पड़ते हो तुम । युवक !
दुर्ग को धराशायी किया। बज्जलदेव ने मेरी तलवार का क्या नाम है तुम्हारा ?'
लोहा माना । वागेपुर के त्रिभुवनवीर को मार कर मैंने प्राचार्य के इस प्रश्न मे ममता और पादर के भाव
अपने भाई की हत्या का बदला चुकाया। किन्तु आज मेरी ये । युवक ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया- 'मुझे भजामो की वह शक्ति और मेरे इन दुर्दम वीरों का बल अरिहनेमि कहते है । गुरुपाद का अनुगत शिष्य बनने की
भी मेरी पूज्य माता का प्रादेश पूरा करने में असफल मेरी कामना है । आर्य मुझ पर प्रसन्न हों।'
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कलाकार की साधना
१७ यो कह कर वीर मार्तण्ड चामुण्डराय वेदना से कराह स्निग्ध प्रभा विकीर्ण हो रही है। जल, थल सब उस प्रभा उठे । प्राचार्य ने बड़ी ममता से उनके सिर पर हाथ फेरा मे नहा रहे है । दिव्य पुरुष ने पाशीर्वाद की मुद्रा में एक और माश्वासन भरे स्वर मे बोले--'पुत्र | करुणा सिधु हाथ उठाया और वोला-'भक्तवर ! मै तुझ पर प्रसम्न बाहुबली शक्ति से नही, भक्ति से प्रसन्न होते है। भक्ति हूँ। तू चिन्ता त्याग और स्वर्ण धनुष पर स्वर्ण बाण चढ़ा हो तो वे अवश्य दर्शन देंगे।'
कर सामने दोडवेट्ट पर्वत पर सन्धान कर । वाण जहाँ 'ठीक कह रहे है प्रभु ! बिषाद और चिन्ता की।
गिरेगा, वही पर महाप्रभु बाहुबली प्रगट होगे । तेरी माता अँधियारी में मझे कुछ नही सूझ रहा था। आपने मझे का प्रण पूरा होगा और तेरी चिन्ता का अन्त होगा।' राह दिखाई है। किन्तु भक्ति के साथ-साथ क्या कोई युक्ति चामुण्डराय की निद्रा भंग हुई। उन्होंने नेत्र पसार नही, जिससे मुझे इस चिन्ता से मुक्ति मिल सके' प्राश्वा- कर देखा किन्तु वहाँ कोई न था। दिव्य पुरुष अन्तर्धान सन पाकर बड़े उत्साह ने सेनापति बोले ।
हो गया था। उनके निकट केवल ध्यानलीन गुरु थे। निमित्त ज्ञानी प्राचार्य सुनकर मुस्कराये, मानो कुन्द भक्ति से उन्होने गुरुपो को नमस्कार किया। कली पर शुभ्र चाँदनी विखर गई । वे कहने लगे--- 'वत्स । उन्ही करुणामय प्रभु का ध्यान करो । युक्ति भी वे ही चामुण्डराय ने राजदूतो को भेजकर देश और विदेश बतायेंगे। वे करुणा के प्रागार है। उनकी करुणा का से प्रख्यात मूर्तिकारो और शिल्पियो को बुलाया। जकणाकोई अन्त नही है। लगता है, अब तुम्हारी चिन्ता का चार्य, आदिराजय्य, देवण्णा, नेमिनाथ, ऐण्टोनियो प्रादि अन्त होने वाला है।
कितने ही शिल्पकला में पारगत कलाकार आये । वहाँ चामुण्डराय कुछ कह पाते, उससे पूर्व ही प्राचार्यद्वय कलाविदो का मेला लग गया । वामुण्डराय ने उन्हे एकत्रित ध्यानमन्न हो गये। किन्तु गुरुदेव के वचनो से शिष्य का करके अपनी इच्छा व्यक्त की --"विज्ञजनो। आप लोग हृदय प्राशा और भक्ति से भर गया। उनके मानस नेत्रो शिल्प बिधान के निष्णात प्राचार्य है। पापकी कला मे पोदनपुर के महायोगी बाहुबली का चित्र नाचने लगा। कठोर पाषाणो मे मुखरित हुई है । प्रापकी कला ने जीवत उन्होने भक्ति प्लावित हृदय से उन्हें भाव नमस्कार काव्यो की सृष्टि की है। मेरी हादिक इच्छा है कि इस किया। चिन्ता का ज्वार उतर गया और उनके मन मे युग के प्रथम सिद्ध भगवान् बाहुबली की वह मूर्ति प्रापकी वह रूप उभर आया, जब चक्रवर्ती भरत महामुनि बाहु- दिव्य कला से नि:सृत हो, जिसकी रचना प्रथम चक्रवर्ती बली के चरणो का भक्ति विलल नेत्रो से बरसते आसुओ महाभाग भरत ने कराई थी और जिसके दर्शन मुझे भाव से प्रक्षालन कर रहे है और आत्मा के सहज प्रानन्द मे लोक मे हुए है। राज्य का सम्पूर्ण कोष और समूचे लीन बाहुबली स्वामी के नेत्रो से निकलने वाले प्रानन्दा- साधन इसके लिए प्रस्तुत है। आप लोग अपने मोडल श्रमों की बूदे चक्रवर्ती के सिर पर गिर कर मानो उनका प्रस्तुत करें। इसके लिए एक सप्ताह का समय निर्धारित राज्याभिषेक कर रही है।
किया जाता है । जिनका मोडल सर्वश्रेष्ठ होगा, उन्हें इस इस भाव धारा में बहते हुए चामुण्डराय को बाह्य विग्रह के निर्माण का भार सोपा जायगा और निर्माण जगत का बोध ही नही रहा । भाव लोक में विचरण होने पर राज्य की ओर से विपुल पुरस्कार और समचित करते हुए उन्हें लगा कि बाहुबली भगवान् के चरणो मे सम्मान दिया जायगा । सम्राट भरत नही, वे स्वयं लोट रहे है और भगवान् जन
कलाविदो ने मोडल बनाये एक से एक सुन्दर, किन्तु पर अपनी सहज करुणा का दान कर रहे है। इस भाव चामुण्डराय के भावलोक की उस दिव्य प्रतिमा के अनुरूप मूर्छा में उन्हें कब निद्रा पा गई, इसका उन्हें पता ही एक भी मोडल नही था। कलाकारो के इस निष्फल प्रयास नहीं चला। किन्तु निद्रित अवस्था मे उन्हे स्वप्न में पर वे खिन्न हो गये। उन्होने उस युग के सर्वश्रेष्ठ शिल्पदिखाई पड़ा-कोई दिव्य पुरुष खड़ा है। उसके शरीर से कार जकणाचार्य को बुलाकर बड़े विषादपूर्ण स्वर में कहा
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८ वर्ष २६, कि० २
-प्राचार्य । क्या मेरी कामना की वेस यो ही मुर्मा सम से बेसुध । शरीर पर वामी चह गई, वालियों मे सर्प जायगी। पाप पर देश को अभिमान है। प्रापके हाथो प्रा डटे। वे फन फैलाये इस महायोगी को पाश्चर्य मुक्रा की कला युग-युगों तक आपकी कीर्ति-गाथायें कहती हमें निहार रहे है । मिट्टी मे माधवी लतायें जिकमर्न लगी। रहेगी। किन्तु क्या आप भी मेरे भावलोक के उस प्रभु ने नॉषों को लपेटती हुई महाबली की भुजामों को भी को कोई रूप नही दे सकते। क्या मेरा सपना पूर्ण नही लपेट रही है। कामदेव का मनोहर रूम है। मुख पर होगा ? क्या कोई भी प्राशा शेष नहीं है ?'
असीम शाति और सौम्यता है, सहज मुस्कान भी है कितु जकणाचार्य सुनकर चिन्तामन्न हो गये—क्या रूप विराग भी अंकित है। हो सकता है भावलोक की उस प्रतिमा का। किन्तु कोई शिल्पकार भावधारा मे बहने लगा । प्रभु के इस स्पष्ट रूप मन मे न उभर सका। सभी उनके मन में एक त्रिभुबन मोहन रूप के आगे बह लोट गया। भक्ति के 'क्षीण-सा प्रकाश हुना। मुख पर प्रकाश की रेखाये अतिरेक मे उसकी प्रांखो से लाभुधास बहने लगी। वह उभरी । वे विमय से बोले-'देव | मिराश न हो । प्राशा यो कितनी देर मश्रुधारा बहाता रहा, इसकी उसे कुछ सुध की ज्योति प्रभी क्षीण नही हई। एक कलाविद् प्रभी नही । किन्तु जब उसकी तन्द्रा टूटी तो चकित नेत्रों से शेष है, जो आपकी कल्पना को मूर्तिमान कर सकता है।' चारो ओर निहारने लगा-कहाँ हो प्रभु । चामुण्डलय के मन मे आशा का सचार हुआ । वे
तभी उसे अपने दायित्व का स्मरण हुमा और उसने भातुरता से बोले---'कौम है वह महाभाग ?'
एक मोडल तैयार किया । भाव लोक मे प्रभु का जो रूप 'वे है जिनपुर के प्राचार्य अरिहनेमि । वे अवश्य
उभरा था, उसे ही उसने आकार प्रदान किया था। जिस पापकी कामना को साकार कर सकेंगे।'
समय चामुण्खरस्य ने :मोडल देखा तो सर्ष से उन्मत्त होकर अविलम्ब बहुमूल्य उपहारो के साथ राजदूत दौड़ाये
वे चिल्लाये-ये ही थे प्रभु, जिनके दर्शन मैने कल्पना मे गये। उन्होने शिल्पकार अरिहनेमि को राजाज्ञा सुमाई
किये थे । वही रूप, वही सौन्दर्य, नही मधुर मुसकान । और उपहार रखकर बड़े अनुनय के साथ चलने का अनु
आचार्य ! मेरे सपनों को तुमने सही रूप दिया है । तुम्ही रोध किया। अरिहनेमि ने उपहार तो स्वीकार नही
मेरी कामना को साकार कर सकते हो । राजकोष लुटा किये, किन्तु वह राजदूत के साथ चल अबश्य दिया ।
दूगा इसके लिए। तुम्हे रत्न-स्वर्ण से मालामाल कर दूंगा। लौटे हुए उपहार देखकर राज्य के प्रधानामात्य और न जाने हर्ष मे वे क्या-क्या कहते । किन्तु मुक्त ने सेनापति चामण्डराय के मन मे क्षोभ की कड़ाहट फैल बाधा देते हुए कहा---'देव ! संयत हों। अविक्रम सिमा गई। किन्तु सामने खड़े हुए युवक शिल्पकार की विनय हो । जो आपके प्रभु है, वे मेरे भी अराध्य है। उनके और शालीनता देखकर क्षोभ दूर हो गया। उन्होंने सम्- लिये मैं क्या मूल्य लूंगा! चित पादर करके शिल्पकार को अपनी कामना बताई चामुण्डराय संयत होकर बोले-'प्राचार्य ! मूल्य प्रभु मौर भावलोक में देखी हुई मूर्ति का मौडल बनाने का का नही, कला का तो होगा ही।' अनुरोध किया। युवक शिल्पी सुनकर हैरान नही हुअा। 'नही देव ! कला का मूल्य रत्न-स्वर्ग नहीं होता। वह जाकर एकान्त मे बैठ गया। वह मन की सम्पूर्ण कला का वास्तविक मूल्य स्वान्तःसुख है । उसी के लिये एकाग्रता से, भक्तिनिष्ठा से भगवान बाहुबली की उस मैं कला की आराधना करता हूँ। जीवन के लिये काला छवि की कल्पना करने लगा, जो सम्राट् भरत की भक्ति नहीं है, किन्तु कला के लिये ही मेरा जीवन है । वह मेरी ने सृजन की थी। दृश्य उभरा-राज्य से विरक्त वाहु- साधना है और वही मेरी सिद्धि है।' बली धोर तपस्या में लीन है । अंतर्बाह्य परिग्रह से रहित, चामुण्डराय को प्राज एक सच्चे कलाविद् के फर्शन निर्विकार । अर्धोन्मीलित नयन, नासाग्र दृष्टि । दिनों हुये थे। श्रद्धा से उनका मस्तक उस कला तपस्वी के-मागे की क्या गिनती, महीनों बीत गये, किंतु ध्यानलीन खड़े हैं झुक गया।
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कलाकार की साधना
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के आगे प्रभु खडे हुए है । मेरी कामना है कि इस युग के भट्टारक नेमिचन्द्र के तत्वावधान में शुभ लग्न, शुभ प्रथम कामदेव उन प्रभु की मूर्ति उन जैसी त्रिभुवन मोहन मुहूर्त में भूमि-शुद्धि की गई । किन्तु जब शिला के पूजन- हो । वे प्रभु मुझे इसी पर्वत मे से प्रकट होने का आदेश दे विधान का अवसर आया तो एक वाधा आ गई । जकणा- रहे है।' चार्य ने सुझाव दिया कि विग्रह के लिये पहले एक धिशाल शिल्पाचार्य की वाणी मे संकल्प की दृढता थी, भक्ति शिला की खोज होनी चाहिये । उसी का पूजन होना श्रेष्ठ की मुखरता थी और तर्क की तीक्ष्णता थी। उनका मुख रहेगा । अन्य कलाकारो ने भी इस सुझाव का समर्थन एक दिव्य आभा से प्रदीप्त था । ऐसा लगता था, मानो किया। चामुण्डराय ने अरिहनेमि की ओर देखा- स्वप्न लोक का देव पुरुष ही उनके मुख से बोल रहा है। 'प्राचार्य का इस विषय मे क्या अभिमत है ? अरिहनेमि गभीरता से बोले-'आर्य । यह तो
चामुण्डराय को लगा कि स्वप्न मे उन्हे जिस देव निर्णीत विषय है। आपके स्वप्न मे देव पुरुष ने वाण-सधान
पुरुष ने दर्शन देकर आदेश दिया था, वह अन्य कोई नही,
पुरुष न का आदेश दिया था। प्रत वाण जिस स्थान पर गिरा
स्वय शिल्पाचार्य अरिहनेमि ही थे । उनका निर्णय ही
र था, विग्रह वही स्थापित होगा और पूजन-विधान भी उसी देव पुरुष का आदेश था । उन्होने शिल्पाचार्य की बात स्थान का होना चाहिये।
समर्थन किया। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने भी इसे स्वीकार जकणाचार्य बोले-.--'शिल्पिवयं । यह सत्य है कि
किया । अपने युग मे द्रविड और होयसल कला के सर्व पूजन-विधान उस स्थान का होना च हिये । किन्तु विग्रह
श्रेष्ठ शिल्पकार प्राचार्य जकण ने गहराई से इस पर के लिये शिला की खोज होना तो आवश्यक है । विग्रह
विचार किया । अन्त म बोले-'प्राचार्य प्ररिहनेमि ! तैयार होने पर उसकी स्थापना उसी स्थान पर कर दी
प्रापका निर्णय साधु है । देव पुरुप की भी यही इच्छा है। जायगी।' अनुभवी जकणाचार्य की बात तसगत थी। एक बार मापने विग्रह के लिये मेरी पसन्द की हुई शिला सभी ने उसे स्वीकार किया । किन्तु अरिहनेमि के मुख
को सदोप सिद्ध किया था और उसमे एक जीवित मेढक पर असहमति के भाव देखकर सब उनके मन की अोर निकाल कर मूर्ति कला सम्बन्धी मरे ज्ञान के मदको चर. देखने लगे। सब शिल्पाचायं उनके मन के भाव और उनकी चूर किया था, मै तभी से आपको अपना गुरु मानने लगा योजना जानने को उत्सुक थे । क्षण भर विचार करके हूँ। इस युग में इम कला के पाप पारगामी प्राचार्य है। अरिहनेमि बोले-'प्रार्य । वाण जहाँ गिरा प्रभ दर्शन आपकी मूक्ष्म दृष्टि को कोई चुनौती दे सके, ऐमा कलाभी वही देंगे। करुणामय प्रभु इसी पर्वत को भेद कर प्रकट विद् मेरी दृष्टि में नहीं पाया । अापकी योजना निर्दोष होंगे।'
है । मुझे अापका निर्णय स्वीकार है ।' 'तब क्या आपकी योजना सारे पर्वत को तराशने की जब स्वय जकणाचार्य ने अरिहनमि की योजना का है ? यह कार्य तो बड़ा श्रमसाध्य होगा । इसमे समय भी समर्थन कर दिया तब सभी शिल्पका ने उसके आगे अधिक लगेगा । क्यो न कोई पवित्र शिला ही इसके लिये अपना मस्तक झुका दिया। निर्णय सर्वसम्मत था। प्रत तलाश की जाय ?
भट्टारक नेमिचन्द्र के आदेश से जहाँ वाण गिरा था, उसी ___ 'पार्य श्रेष्ठ ! जिस पर्वत पर अनेक श्रमणो ने तपस्या शिला का पूजन किया गया। तभी प्ररिहनेमि प्राचार्य की है. उससे अधिक पवित्र स्थान और कौन सा होगा! नेमिचन्द्र के सन्मुख हाथ जोड़कर खडे हो गये । प्राचार्य फिर विग्रह या विग्रह का ढोल इतने ऊचे पर्वत के ऊपर ने जिज्ञासा से शिल्पाचार्य की ओर देखा। गिल्पाचार्य ले जाना कितना कष्टसाध्य होगा। प्राप यह सोचिये। अत्यन्त विनय से बोले-'प्रभु ! मझे प्रागीर्वाद दें कि मैं अत: इस पर्वत को तराश कर ही महाबाहु बाहुबली स्वामी प्रभु वाहुबली के समान ही उनकी त्रिलोकसुन्दर मूति की मूर्ति का निर्माण करना समुचित होगा । मेरी आखो बनाने में सफल हो सकूँ। भगवान मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दे ।
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१०, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
सिद्धांतचक्रवर्ती प्राचार्य सुनकर अत्यन्त पाल्हादित में अपार वैराग्य उत्पन्न हो रहा है। किन्तु इससे उनके हये । उन्होने आशीर्वाद दिया-'तुमने ब्रह्मचर्य व्रत का मन मे पाकुलता नही, अखण्ड शान्ति विराजमान है और सकल्प करके शास्त्रानुमोदित पद्धति का ही पालन किया वह मुख पर भी स्पष्ट अकित है। है । मूर्ति मे अतिशय तभी प्रगट होता है, जब शिला भगवान् का मुख प्रगट होते ही चामुण्डराय की मां निर्दोष हो, मूर्तिकार ब्रह्मचर्य व्रत पूर्वक और निर्लोभ वृत्ति ने उन्हे नमस्कार दिया। उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी से मूर्ति निर्माण करे, और प्रतिष्ठाकारक एव प्रतिष्ठाचार्य थी। उनके प्राज्ञाकारी पुत्र ने अन्न त्याग करने वाली के मन में अहंकार णौर धन लिप्सा न हो। केवल वाह्य अपनी माता को राजकीय समारोह में भोजन कराकर क्रियाकाण्डो से ही पाषाण भगवान नहीं बनते । बलात् अपने जीवन को कृतकृत्य माना । सारा राज्य उल्लास से भगवान बना भी दें तो उससे जीवो का कल्याण नही विभोर हो उठा। होता। भगवान के बिम्ब मे भगवान् का सा चमत्कार पाता है मूर्तिकार, प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य की प्राचार्य अरिहनेमि मूर्ति-निर्माण मे तन्मय थे । काल तपःपूत साधना और मनःशुद्धि में । तुम जिस बिम्ब का का रथ द्रुतगति से उडा जा रहा था, किन्तु प्राचार्य को निर्माण करना चाहते हो, वह लोक का अप्रतिम, अद्भुत इसका कोई ज्ञान नहीं था। मुख के बाद त्रिपावली वेष्टित और सर्वश्रेष्ठ विम्ब हो, यह मेरा आशीर्वाद है।' ग्रीवा उभरी, श्रीवत्स लाछन मडित विशाल वक्ष और
वातावरण प्रानन्द और उत्साह से भर गया। चन्दन माधवी लता मण्डित पाजानु बाह प्रगट हई।। और नारियल के वक्ष झूम उठे। मलयगिरि की शीतल हथौड़े और छनी के जादू से जघाये दिखाई पड़ी जो पवन ने चारो ओर सुरभि फैला दी । सबके मन जडता और माधवी लतायो से सुशोभित थी। अवसाद से मुक्त होकर उल्लास से तरगित हो गये। ऐसे ज्यो ज्यो विग्रह उभरने लगा, शिल्पाचार्य के नेत्रो मे हर्ष तरंगित वातावरण मे चामुण्डगय भी अपने आपको दिव्य ज्योति प्रस्फुटित होने लगी। वह नित्यप्रति अपने रोक न सके । वे अपने गुरु के चरणों मे झुककर निवेदन आराध्य प्रभु के महिमान्वित रूप के आगे अपनी भक्ति करने लगे-'भगवन् ! मुझे भी ब्रह्मचर्य व्रत का नियम के अाँसुप्रो का अर्घ्य चढाने लगा। वह अहर्निश काम देकर अनुगृहीत करें।' हर्ष से उनके कपोलों पर अश्रुविन्दु करता रहता । जब थक जाता तो प्रभु की छवि निहारने बहने लगे। गुरु ने मयूरपिच्छिका उठाकर उन्हें आशीर्वाद लगता । उसकी पत्नी भोजन लाती और वह भोजन या दिया और शिला का पूजन कराया ।
पत्नी की ओर देखे बिना बायें हाथ से भोजन करता, अरिहनेमि के निर्देशन मे शताधिक शिल्पी पर्वत को किन्तु तब भी उसका दाया हाथ निर्माण में लगा रहता। तराशने में जुट पडे । विस्तृत पर्वत की छाती छिल-छिल पत्नी अपनी इस चिर उपेक्षा के कारण क्षोभ मे भर कर लम्वायमान ढोल बनने लगा। अरिहनेमि के छैनी- उठी । एक दिन उसने चामुण्डराय की पत्नी अजिता देवी हथौडे के जादू से कठोर शिला की पपड़ियाँ उतरने लगीं से शिकायत की--'देवी ! आर्यपुत्र को मेरे प्रति कोई और उममें से आकार उभरने लगा। शीश पर घुधराले स्नेह नहीं रह गया है। इस मूति ने उन्हें मुझसे विलग कुन्तल उभरे । फिर प्रभु का मुख प्रगट हुअा। कामदेव कर दिया है।' ध्यानमुद्रा मे है। नेत्र अर्धनिमीलित है। होठों पर सुनकर अजिता देवी को बड़ा विस्मय हुआ। वे मुसकराहट भी है और कुछ वितृष्णा मिश्रित विराग के बोली- 'भद्रे ! विश्वास नही होता मुझे। अभी प्राचार्यभाव भी है, मानो प्रभु बाहुवली ससारी जनो पर मुस- पाद की अवस्था ही क्या है ?' करा कर अपनी अनन्त कम्णा की वर्षा कर रहे है। अवस्था की बात नही है देवी ! बात उनकी मनोसाथ ही अनादिकाल की अपनी अतृप्त भोगाकाक्षा से दशा की है। आजकल वे दिन में केवल एक बार भोजन वितृष्णा हो रही है और ससार, शरीर एवं भोगो से मन करते हैं । मध्यान्ह मे मैं स्वयं भोजन लेकर उनके पास
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तीर्थंकर और प्रतीक-पूजा
पं० बलभद्र जैन जन-मानस मे तीर्थकरों के लोकोत्तर व्यक्तित्व की प्रतीक दो प्रकार के रहे-अतदाकार और तदाकार। छाप बहुत गहरी रही है। उन्होने जन-जन के कल्याण ये दोनों ही प्रतीक अविद्यमान तीर्थङ्करो की स्मृति का और उपकार के लिए जो कुछ किया, उस अनुग्रह को पुनर्नवीकरण करते थे और जन-मानस में तीर्थवरो के जनता ने बड़ी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया। जब जो आदर्श की प्रेरणा जागृत करते थे। इन दोनो प्रकार के तीर्थङ्कर विद्यमान थे, उनकी भक्ति, पूजा और उपदेश प्रतीको मे भी शायद अतदाकार प्रतीको की मान्यता सर्वश्रवण करने के लिए जनता का प्रत्येक वर्ग उनके चरण- प्रथम प्रचलित हुई। ऐस। विश्वास करने के कुछ प्रबल सान्निध्य मे पहुंचता था और वहाँ जाकर अपने हृदय की कारण है। सर्वप्रथम प्राधार मनोवैज्ञानिक है । मानव की भक्ति का अर्घ्य उनके चरणो मे समर्पित करके अपने बद्धि का विकाम क्रमिक रूप से ही हमा है । प्रतीकों का
आपको धन्य मानता था। किन्तु जब उम तीर्थडर का जो रूप वर्तमान में है, वह सदा काल से नहीं रहा। हम निर्वाण हो गया, तब जनता का मानस उनके प्रभाव को आगे चलकर देखेंगे कि तदाकार मूर्ति-शिल्प में समय, तीव्रता के माथ अनुभव करता और अपनी भक्ति के पप्प बातावरण और वद्धि-विकाम का कितना योगदान रहा ममर्पित करने को प्राकुल हो उठता था। जनता के मानस है। अतदाकार प्रतीक मे ही तदाकार प्रतीक की कल्पना की इसी तीव्र अनुभूति ने प्रतीक-पूजा की पद्धति को जन्म का जन्म सम्भव हो सकता है। दूसरा प्रबल कारण है दिया।
पुरातत्त्विाक साक्ष्य । पुगतात्त्विक साक्ष्य के आधार पर जाती हैं, किन्तु कभी एकबार भी उन्होने मेरी ओर वे अपने प्रतापी पति से भी शिकायत करने पहुंची किन्तु दृष्टि उठाकर नहीं देखा। और तो क्या, भोजन करते- पति ने उत्तर दिया-देवी । जिन्हे अपने भोजन तक की करते भी वे अपने काम में लगे रहते है।'
भी सुघ नही है, बे महान् साधक हे । तुम्हे उनके व्यवहार रानी को प्राचार्य-पत्नी की बात पर विश्वास नही पर विन्न या क्षुब्ब नही होना चाहिए, उस पर तो तुम्हे हो सका और निश्चय हुआ कि कल तुम्हारे स्थान पर मै गर्व होना चाहिए। उनकी साधना से जो कृति निष्पन्न भोजन की थाली लेकर जाऊंगी।
होगी, वह संसार मे अप्रतिम होगी। तुम्हे तो जाकर निश्चयानुसार दूसरे दिन रानी अजिता देवी भोजन अपने क्षोभ के लिए उनसे क्षमा मांगनी चाहिए।' लेकर पहुँची। वे कुछ क्षणों तक वहां खडी रही, फिर अजिता देवी का क्षोभ गल गया। वे श्रद्धा लेकर उन्होंने थाली प्रागे को सरका दी। किन्तु आचार्य ने प्राचार्य के चरणो मे पहुँची। उन्होने जाकर देखाएक बार भी दृष्टि उठाकर न रानी की ओर ही देखा प्राचार्य गोम्मटेश्वर को अपलक निहार रहे है। पाषाण और न भोजन की थाली को ही। रानी इस असह्य के प्रभु के समान आचार्य भी मानो पाषाण हो गये है। उपेक्षा से क्षुब्ध हो गई और मन मे तिक्तता लिये वे सीधे रानी ने निवेदन किया, क्षमा-याचना की, किन्तु आचार्य अपने आवास मे पहुँची। यह अपमान साधारण न था। अपने प्रभु की मोहिनी मे मानो सज्ञाहीन होकर बैठे थे। रहरहकर उनके मन मे अपमान के कॉटें चुभने लगते। करुणामय प्रभु अपने भक्त पर मधुर मुस्कान विखेरते हुए वे किसी प्रकार भी अपने मन को सान्त्वना न दे सकीं। अनन्त करुणा की वर्षा कर रहे थे।
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१२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
माना गया है कि तदाकार प्रतीक के रूप (मन्दिर और मूर्तियों, सिक्कों, मुद्रामो आदि पर देवायतनों का अंकन मूर्ति के रूप मे) बहुत अधिक प्राचीन नहीं है और वे हमे मिलता है । उससे ही ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में मंदिरों ईसा पूर्व की सात-आठ शताब्दियो से पूर्व काल तक नही का रूप अत्यन्त सादा था। कालान्तर में कलात्मक रुचि ले जाते, जबकि अतदाकार प्रतीक इससे पूर्व के भी उप- मे अभिवृद्धि के साथ-साथ देवायतों के स्वरूप में विकास लब्ध होते है। यदि हडप्पा काल की शिरहीन ध्यानमग्न होता गया। मूर्ति स्थापना के स्थान पर गर्भगृह को परिमूर्ति को निर्विवाद रूप से तीर्थङ्कर प्रतिमा होने की स्वी- वेष्टित करने के अतिरिक्त उसके बाहर चारो ओर प्रदकृति हो जातो है तो तदाकार प्रतीक का काल ईसा पूर्व क्षिणा पथ का निर्माण हुआ । गर्भगृह के बाहर आच्छादित तीन सहस्राब्दी स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु प्रवेश द्वार या मुख्य मण्डप का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि उस काल मे गर्भगृह के ऊपर शिखर तथा बाहर मण्डप, अर्धमण्डप, भी तदाकार प्रतीको का बाहुल्य नही था । एक शिरोहीन महामण्डप आदि का विधान हुआ । गुप्त काल में पाकर मूर्ति तथा कुछ मुद्रामो पर प्रकित ध्यानलीन योगी जिन के मन्दिर शिल्प और मूर्ति-शिल्प के शास्त्रों की रचना भी रूपाङ्कन के अतिरिक्त उस काल में विशेष कुछ नही होने लगी, जिनके पाधार पर मन्दिर और मूर्तियो की मिला। ऐसी स्थिति में यह भी विचारणीय है कि हडप्पा रचना सुनियोजित ढग से होने लगी। संस्कृति अथवा सिन्धु सभ्यता के काल से मौर्य काल तक
मन्दिर निर्माण को पृष्ठभूमि के लम्बे अन्तराल मे तदाकार प्रतीक विधा की कोई कला
प्रागैतिहासिक काल के पूर्व पाषाण युग मे, जिसे जैन वस्तु क्यो नही मिली ? इसका एक ही बुद्धिसगत कारण
शास्त्रो में भोगभूमि बताया है, मानव अपनी जीवन-रक्षा हो सकता है कि तदाकार प्रतीक-विधान का विकास तब
के लिये वृक्षो पर निर्भर था। वृक्षो के नीचे रहता था, तक नही हो पाया और उसने पर्याप्त समय लिया।
वृक्षों से ही अपने जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की जैन धर्म के अतदाकार प्रतीको मे स्तूप, त्रिरत्न, चैत्य- पूर्ति करता था। कुलकरों के काल मे मानव की बुद्धि का स्तम्भ, चैत्य वृक्ष, पूर्ण घट, शराब सम्पट, पुष्पमाला, विकास हा और उस काल में मानव को जीवन रक्षा के पुष्प पडलक, आदि मुख्य है। अष्ट मगल द्रब्य-यथा लिये संघर्ष करना पड़ा। अतः जीवन-रक्षा के कुछ उपाय स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, मीन- ढूढने को वाध्य होना पड़ा। छुटपुट रहने के स्थान पर युगल, पद्म और दर्पण-तथा तीर्थ दुरो के लाछन भी कवीलो के रूप में रहने की पद्धति अपनाई गई। किन्तु अतदाकार प्रतीको में माने गये है। अष्ट प्रातिहार्य एवं इस काल में भी वृक्षों की निर्भरता समाप्त नहीं हुई, बल्कि
आयागपट्ट भी महत्त्वपूर्ण प्रतीक माने गये है। कला के प्रार- वृक्षों के कारण कवीलों मे पारस्परिक संघर्ष भी होने म्भिक काल मे इन अतदाकार प्रतीको का पर्याप्त प्रचलन लगे। प्रकृति मे तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। वृक्ष घट
__ रहे थे, मानव की आवश्यकतायें बढ़ रही थी। कुलकरों किन्तु जैसे-जैसे कला-बोध विकसित हुआ, त्यों-त्यो ने वृक्षों का विभाजन और सीमांकन कर दिया। किन्तु प्रतीक की तदाकारता को अधिक महत्त्व मिलने लगा। फल वाले वृक्षों की संख्या कम होते जाने से जीवन-यापन इसी काल मे तीर्थरो की तदाकार मूर्तियों का निर्माण की ममम्या उठ खडी हई। बन्य पशुओं से रक्षा के लिए होने लगा। प्रारम्भ में प्रकृत भूमि से कुछ ऊंचे स्थान पर सुरक्षित आवास की आवश्यकता भी अनुभब की जाने देव-मूर्ति स्थापित की जाती थी। उसके चारो ओर वेदिका लगी। (बाड़े) का निर्माण होता था। धीरे-धीरे वेदिका को तब ऋषभदेव का काल पाया। इसे नागरिक ऊपर से प्रापछादित किया जाने लगा। यही देवायतन, सभ्यता का काल कहा जा सकता है। इस काल में देवालयमा मन्दिर कहे जाने लगे। प्रारम्भ मे देवायतन । तीर्यकर ऋषभदेव ने जीवन-निर्वाह के लिए कर्म करने की सीधे-सादे रूप मे बनाये जाते थे। पुरातत्त्वावशेषो मे कई प्रेरणा दी और मानव समाज को असि, मसि, कृषि, विद्या,
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तीर्थकर और प्रतीत-पूजा
वाणिज्य और शिल्प की शिक्षा दी। इन्द्र ने अयोध्या योढ़ियों में लटकवाये । यह मानवकृत प्रथम प्रतदाकार मगरी की रचना की। ऋषभदेव ने भवन-निर्माण करने प्रतीक स्थापना थी। की विद्या बताई, जिससे भवनो का निर्माण होने लगा। किन्तु इतने से सम्राट भरत के. मन को सन्तुष्टि इस काल मे संघटित जीवन की परम्परा प्रारम्भ हुई, नही हुई। इससे भगवान की पूजा का उनका उद्देश्य पूरा जिसने ग्रामो, पुरो, नगरो को जन्म दिया। जीवन के नही होता था। तब उन्होने इन्द्र द्वारा बनाये हुए जिनाप्रत्येक क्षेत्र में और जीवन की प्रत्येक आवश्यकतापूर्ति के यतनों से प्रेरणा प्राप्त करके कैलाशगिरि पर ७२ जिनालिए ऋषभदेव ने जो विविध प्रयोग करके मानव समाज को यतनो का निर्माण कराया और उनमे अनय रत्नों की बताये और उसे व्यवस्थित नागरिक जीवन बिताने की जो प्रतिमायें विराजमान कराई । मानव के इतिहास में तदाशिक्षा दी, उसके कारण तत्कालीन सम्पूर्ण मानव समाज कार प्रतीक-स्थापना और उसकी पूजा का यह प्रथम ऋषभदेव के प्रति हृदय से कृतज्ञ था। और जब ऋषभ- सफल उद्योग कहलाया। अतः साहित्यिक साध्य के आधार देव ने संसार से विरक्त होकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली तथा पर यह स्वीकार करना असंगत न होगा कि नागरिक दिगम्बर निर्ग्रन्थ मुनि के रूप मे घोर तप करके केवलज्ञान सभ्यता के विकास-काल की उपा-बेला मे ही मन्दिरों, प्राप्त कर लिया, उसके पश्चात् समवसरण में, गन्धकुटी मूर्तियो का निर्माण प्रारम्भ हो गया था। में सिंहासन पर विराजमान होकर उन्होने धर्म-देशना दी। पौराणिक जैन माहित्य मे मन्दिर और मूर्तियों के मानव-समाज के लिए वह धर्मदेशना अश्रुतपूर्व थी, समव- ।
उल्लेख विभिन्न स्थलो पर प्रचुरता में प्राप्त होते है। सरण की बह रचना अदष्टपूर्व थी। उनका उपदेश मगर चक्रवर्ती के माठ हजार पत्रो ने भरत चक्र कल्याणकारक था, हितकारक था, सुखकारक था और बनाये हा इन मन्दिरों की रक्षा के लिए भारी उद्योग शान्तिकारक था। इससे सम्पूर्ण मानव-समाज के मन में किया था और उनके चारों ओर परिखा खोदकर भागीतीर्थकर ऋषभदेव के प्रति श्रद्धा और भक्ति की अजस्र रथी के जल से उसे पर्ण कर दिया था। लंकाधिपति घारा बहने लगी। वे सम्पूर्ण मानव-समाज के प्राराध्य रावण इन मन्दिरो के दर्शन के लिए कई बार पाया था। बन गये और उसके मन मे समवसरण की प्रतिकृति बना लंका मे एक शान्तिनाथ जिनालय था, जिसमे गवण पूजन कर उसमे ऋषभदेव की तदाकार मूर्ति बना कर उसकी किया करता था और लंका-विजय के पश्चात् रामचन्द्र, पूजा करने की ललक जागृत हुई।
लक्ष्मण आदि ने भी उसके दर्शन किये थे।
साहित्य मे ई० पू० ६०० से पहले के मन्दिरो के इन्द्र ने अयोध्या का निर्माण करते समय नगर की
उल्लेख मिलते है। भगवान पार्श्वनाथ के काल मे किसी चारो दिशाओं मे और नगर के मध्य मे पाँच देवालयो या कवेरा देवी ने एक मन्दिर बनवाया था, जो बाद में देवजिनालयों की रचना करके जिनभवनो का निमोण करन निर्मित बोद स्तप कहा जाने लगा। यह सातवे तीर्थङ्कर
और उसमे मूर्ति स्थापना करने का मार्ग प्रशस्त कर सूपाश्र्वनाथ के काल में सोने का बना था। जब लोग दिया था।
इसका सोना निकाल कर ले जाने लगे, तब कुबेरा देवी एक बार जब सम्राट भरत कैलाश गिरि षर भग- ने इसे प्रस्तर खण्डो और ईटो से ढक दिया। (विविध वान ऋषभदेव के दर्शन करके अयोध्या लौटे तो उनका तीर्थकल्प-मथुरापुरीकल्प)। स्थापत्य की इस अनुपम मन भगवान की भक्ति से प्रोत-प्रोत था। उन्होंने भगवान कलाकृति का उल्लेख ककाली टीला (मथुरा) से प्राप्त के दर्शन की उस घटना की स्मृति को सुरक्षित रखने के भगवान मुनिसुव्रत की द्वितीय सदी की प्रतिमा की चरणलिये कैलाश शिखर के आकार के घण्टे बनवाये और उन चौकी पर अंकित मिलता है। पर भगवान ऋषभदेव की मूर्ति का अंकन कराया। ये भगवान पार्श्वनाथ के पश्चात् दन्तिपुर (उडीसा) घण्टे नगर के चतुष्पथो, गोपृरो, राजप्रासाद के द्वारों और नरेश करकण्डु ने तेरापुर गुफामो मे गुहा-मन्दिर (लयण)
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बनवाये और उनमे पार्श्वनाथ तोर्थङ्कर की पाषाण प्रतिमा मूर्तियां मिली है। यह कहा जा सकता है कि मृण्मूर्तियों विराजमान कराई। ये लयण और प्रतिमा अब तक मे तो कला के दर्शन होते है, किन्तु इन प्रारम्भिक यक्ष विद्यमान है । 'करकण्डुचरिउ' आदि प्रन्थों के अनुसार तो प्रतिमानो मे कला नाम की कोई चीज नहीं मिलती। ये लयण और पार्श्वनाथ प्रतिमा करकण्ड नरेश से भी मृणमूर्तियों में कला का विकास शन.-शन हुआ। इसलिए पूर्ववर्ती थे।
पाषाण-मूर्तियों के प्रारम्भिक निर्माण काल में भी मृण्मूर्तियों पावश्यक चूणि, निशीथचणि, वसुदेव हिण्डी, त्रिषष्टि में वैविध्य के दर्शन होते हैं। स्त्री-पुरुषों के अलंकृत केशशलाका पुरुष चरित 'अादि ग्रन्थो मे एक विशेष घटना विन्यास. पश-पक्षियों के रूप पंचार कामदेव विभिन्न का उल्लेख मिलता है जो इस प्रकार है
मुद्रानो मे स्त्रियो के नाना विध रूप इन मृण्मूर्तियों की 'सिन्धु मौवीर के राजा उद्दायन के पास जीवन्त विशेषता है। दूसरी ओर पाषाण-मतियाँ प्रारम्भ में प्रविस्वामी की चन्दन की एक प्रतिमा थी। यह प्रतिमा भग- कसित रूप मे दीख पड़ती है। वान महावीर के जीवन-काल मे ही बनी थी। इसलिए पुरातत्त्ववेत्तात्रों के मत में लोहानीपुर (पटना का उसे जीवन्त स्वामी की मूर्ति कहते थे । उज्जयिनी के राजा एक मुहल्ला) मे नाला खोदते समय जो तीर्थङ्कर-प्रतिमा प्रद्योत ने अपनी एक प्रेमिका दासी के द्वारा यह मूर्ति उपलब्ध हुई है, वह भारत की मूर्तियों में प्राचीनतम है । चोरी से प्राप्त कर ली और उसके स्थान पर तदनुरूप यह आजकल पटना म्यूजियम में सुरक्षित है। इसका सिर काष्ठमूर्ति स्थापित करा दी थी।
नही है । कुहनियों और घुटनो से भी खण्डित है। किन्तु किन्तु यह मूर्ति किमी देवालय में विराजमान थी,
कन्धो और बाहो की मुद्रा से यह खड्गासन सिद्ध होती ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।
है तथा इसकी चमकीली पालिश से मौर्य काल (३२०प्राश्चर्य है कि पूरातत्त्व वेत्तानो ने अभी तक इन १८५ ई०पूर्व) की माना गया है। हड़प्पा मे जो खंडित मन्दिरों और मूर्तियो को स्वीकृति प्रदान नहीं की।
जिन प्रतिमा मिली है, उससे लोहानीपुर की इस जिनमूति-निर्माण का इतिहास
प्रतिमा में एक अद्भुत सादृश्य परिलक्षित होता है और पुरातत्त्ववेत्ताओं की धारणा है कि प्रारम्भ में मूर्तियाँ इसी सादृश्य के आधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष मिट्टी की बनाई जाती थी। बहुत समय तक इन मृण्मूर्तियों निकाला है कि भारतीय मूर्ति-कला का इतिहास वर्तमान का प्रचलन रहा। उत्खनन द्वारा जो पुरातत्त्व सामग्री मान्यता से कही अधिक प्राचीन है । इससे यह भी निष्कर्ष उपलब्ध हुई है उसमें इन मृण्मूर्तियों का बहुत बडा भाग निकाला गया है कि देव-मूर्तियो के निर्माण का प्रारम्भ है। हडप्पा, कौशाम्बी, मथुरा आदि में बहुसंख्या में मृण्मू- जैनो ने किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम तीर्थर मूर्तियों का तियां मिली है। किन्तु मृण्मूर्तियां अधिक चिरस्थायी नही निर्माण करके धार्मिक जगत को एक आदर्श प्रस्तुत किया। रहती थीं । अतः मृणमूर्तियां भी स्थायित्त्व की दृष्टि से उन्ही के अनुकरण पर शिब-मूर्तियों का निर्माण हुआ । असफल रही; तब पाषाण की मूर्तियां निर्मित होने लगीं। विष्णु, बुद्ध आदि की मूर्तियों के निर्माण का इतिहास
प्रारम्भ में पाषाण-मूर्तियां किसी देवता या तीर्थकर की बहुत पश्चात्कालीन है। नहीं बनाई गई, बल्कि यक्षों की पाषाण-मूर्तियां प्रारंभ मे एक अन्य मूर्ति के सम्बन्ध में उदयगिरि की हाथी बनाई गई। इस काल में पाषाण में तक्षण-कला का विकास गुफा में एक शिलालेख मिलता है। इस शिलालेख के नहीं हुआ था। अतः यक्षों की जो प्रारम्भिक पाषाण-मूर्तियाँ अनुसार कलिंग नरेश खारवेल मगध नरेश वहसतिमित्र मिलती है, उनमे सौंदर्य-बोध का प्रायः प्रभाव है। एक को परास्त करके छत्र-भृङ्गारादि के साथ 'कलिग जिन प्रकार से ये मूर्तियां बेडौल हैं, मानों किन्हीं नौसिग्विये ऋषभदेव की वह मूर्ति वापिस कलिंग में लाये थे जिसे नन्द हाथों ने इन्हें गढा हो। मथुरा में कंकाली टीला, परखम सम्राट् कलिंग से पाटलिपुत्र ले गये थे । सम्राट् खारवेल ने मादि स्थानों से इसी प्रकार की विशालकाय बेडौल यक्ष- इस प्राचीन मूर्ति को कुमारी पर्वत पर महत्प्रासाद वनवा
तहास
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तीर्थकर और प्रतीक-पूना
है!
कर विराजमान किया था। इस ऐतिहासिक शिलालेख ङ्कर प्रतिमाओं का अध्ययन करने पर एक वात की ओर की इस सूचना को अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। ध्यान आकृष्ट हुए बिना नही रहता। ईसा की इन प्रथम इसके अनुसार मौर्य काल से पूर्व में भी एक मूर्ति थी, जिसे द्वितीय शताब्दियो में भी आदिनाथ, शान्तिनाथ, मुनि'कलिंग-जिन' कहा जाता था । 'कलिग-जिन' इस नाम से सुव्रतनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर आदि तीर्थङ्करों के समान ही प्रगट होता है कि सम्पूर्ण कलिंगवासी इस मूर्ति को जनता मे नेमिनाथ की भी मान्यता बहुप्रचलित थी। इस अपना पाराध्य देवता मानते थे । नन्द सम्राट् इसे अपने काल की भगवान नेमिनाथ की तीन प्रतिमायें विभिन्न साथ केवल एक ही उद्देश्य से ले गये थे और वह उद्देश्य स्थानो से उपलब्ध हुई है। एक मे नेमिनाथ पद्मासन था कलिग का अपमान । लगभग तीन शताब्दियो तक लगाये ध्यान-मुद्रा मे अवस्थित है और उनके दोनो ओर कलिंगवासी इस अपमान को भूले नही और अपने राष्ट्रीय बलराम और कृष्ण खड़े है। दोनो ही द्विभुजी है। दूसरी अपमान का प्रतीकार कलिग सम्राट् खारवेल ने किया। प्रतिमा में ध्यानमग्न नेमिनाथ के एक ओर शेषनाग के वह मगध की विजय करके अपने साथ अपने इस राष्ट्र- अवतार के रूप में चतुर्भुजी वलराम खडे है। उनके सिर देवता की मूर्ति को वापिस ले गया। किन्तु यह कितने पर शेषनाग का प्रतीक फण-मण्डप है। दूसरी ओर विष्णु पाश्चर्य की बात है कि अब तक एक भी पुरातत्त्व- के अवतार के रूप में चतुर्भुजी कृष्ण खड़े है। उनके हाथों वेत्ता और इतिहासकार ने इस ऐतिहासिक मूर्ति के में चक्र, पन प्रादि सुशोभित है। तीसरी मूर्ति अर्धभग्न सम्बन्ध मे कोई खोज नही की। पाखिर ऐसी ऐतिहा- है । इसमे नेमिनाथ ध्यानावस्थित है। एक पोर बलराम सिक मूर्ति कुमारी पर्वत से कब किस काल में किसने
खडे है। इनका हल-मूसल उनके कन्धे पर विराजित है।
की कहाँ स्थानान्तरित कर दी? यदि यह मूर्ति उपलब्ध हो
इन मूर्तियो की प्राप्ति पुरातत्व की महान उपलब्धि मानी
तो जाय तो इससे लोहानीपुर की मूर्ति को प्राचीनतम मानने जाती है। इससे नारायण कृष्ण की ऐतिहासिकता के वाले पुरातत्ववेताओं के मत को न केवल असत्य स्वीकार
समान उनके चचेरे भाई भगवान नेमिनाथ को ऐतिहाकरना पडेगा, वरन मूर्ति निर्माण का इतिहास और एक- सिक महापुरुष मानने में कोई सन्देह नही रह जाता। दो शताब्दी प्राचीन मानना होगा। कुछ अनुसन्धानकर्ता इस काल मे तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के अतिरिक्त प्रायाविद्वानों की धारणा है कि जगन्नाथपुरी की मूर्ति ही वह गपट. स्तप. यक्ष-यक्षी. अजमख हरिनंगमेशी. सरस्वती. 'कलिग-जिन' मूर्ति है। किन्तु इस सम्बन्ध मे अभी साधि
सर्वतोभद्रिका प्रतिमा, मागलिक चिह्न, धर्मचक्र, चैत्यकार कुछ कहा नहीं जा सकता।
वृक्ष प्रादि जैन कला की विविध कृतियो का भी निर्माण इसके पश्चात् शक-कुषाण काल मे मूर्ति कला का हुआ। इन कलाकृतियो के वैविध्य और प्राचुर्य से प्रभाद्रुत वेग से विकास हुआ। इस काल मे भी सर्वप्रथम वित कुछ विद्वान तो यह भी मानने लगे है कि जैन मूर्तितीर्थङ्कर मुर्तियों का निर्माण प्रारम्भ हुआ। मथुरा इस पूजा का प्रारम्भ ही मथुरा से हुआ है। यद्यपि यह सर्वाकाल में मूर्ति कला का केन्द्र था। तीर्थङ्कर मूर्तियो मे भी शत: सत्य नही क्योकि जैन मूर्तियो और मूर्ति-पूजा के अधिकांशतः पद्मासन ही बनाई जाती थीं। इस काल की प्रमाण इससे पूर्व काल में भी उपलब्ध होते है। इतना तीर्थङ्कर मूर्तियों के वक्ष पर श्रीवत्स लाछन और प्रष्ट अबश्य माना जा सकता है कि जैन धर्म का प्रचार करने प्रातिहार्य का प्रचलन प्रायः नही दीखता। तीर्थङ्कर और उसे लोकप्रिय बनाने में मथुरा की जैन कला का मूर्तियों में अलंकरण का भी प्रभाव था। मूर्तियों की विशेष योगदान रहा है । चरण-चौकी पर अभिलेख अंकित करने की प्रथा का जन्म मथुरा की तीर्थङ्कर मूर्तियो के अध्ययन से एक परिहो चुका था। जिस वोद्व स्तूप की चर्चा ऊपर आ चुकी णाम सहज ही निकाला जा सकता है। दिगम्बर-श्वेताहै, उसकी सूचना भी भगवान मुनिसुव्रतनाथ की चरण- म्बर सम्प्रदाय-भेद यद्यपि ईसा से तीन शताब्दी पूर्व हो चोकी के अभिलेख से ही मिलती है । इस काल की तीर्थ- चुका था, किन्तु उसका कोई प्रभाव मथुरा की तीर्थङ्कर
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मूर्तियों पर नहीं दिखाई पड़ता। यहां तक कि श्वेताम्बरों माओं का निर्माण प्रारम्भ हो गया। इससे पूर्व तक द्वारा प्रतिष्ठित तीर्थङ्कर प्रतिमायें भी दिगम्बर ही बनाई श्वेताम्बर प्रतिमानो का विशेष प्रचलन नहीं मिलता । जाती थी और यह क्रम उत्तर मध्य काल तक चलता सभी जैन प्रतिमायें दिगम्बर रूप में ही बनाई जाती थी। रहा।
इस प्रकार जैन मूर्तियों के रूप, शिल्प-विधान और कुषाणकालीन तीर्थङ्कर प्रतिमानो के साथ यक्ष-यक्षी उनकी सरचना का एक कमबद्ध इतिहास मिलता है। भी प्राप्त नही होते । प्रतिमानो के पाजू-बाजू खड़े चमर- इससे उत्खनन मे प्राप्त जैन मूर्तियो के काल-निर्णय में घारी यक्षों का भी प्रभाव मिलता है। इन यक्षो के बहुत सहायता प्राप्त हो सकती है। स्थान पर इस काल की प्रतिमानो मे दाता उपासक, जैन मन्दिरों की संरचना और उनका क्रमिक विकास उनकी पत्नी, मुनि और आर्यिकापो का अकन मिलता __मन्दिरों का निर्माण कब प्रारम्भ हुआ, इस विषय में है। जिन प्रतिमा के सिंहासन के दोनो कोनो पर एक- विद्वानो मे मतभेद है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों के अनुसार एक सिह और बीच मे धर्मचक्र अकित होता है जिसके जैन मन्दिरो का निर्माण-काल जैन प्रतिमाओं के निर्माणदोनों ओर मुनि, अजिका, श्रावक और श्राविका अंकित काल से प्राचीन प्रतीत नहीं होता। लोहानीपुर, श्रावस्ती, रहते है।
मथुग, मादि मे जैन मन्दिरो के अवशेष उपलब्ध हए है, कुषाण काल के पश्चात् गुप्त काल मे जैन मूर्ति किन्तु अब तक सम्पूर्ण मन्दिर कही पर भी नही मिला। कला का बहुत निखार हुआ। इस काल की मूर्तियों में इसलिए जैन मन्दिरो का प्राचीन रूप क्या था, यह सौन्दर्य पर विशेष ध्यान दिया गया। मूर्ति के अलकरण निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता। पर बल दिया गया। अब मूतियो पर श्रीवत्स, लाछन किन्तु गुहा-मन्दिर और लयण ईसा पूर्व सातवी पाठबी पौर प्रष्ट प्रातिहार्य की योजना भी की जाने लगी। द्वि- शताब्दी तक के मिलते है । तेरापुर के लयण, उदयगिरिमूर्तिकाये, त्रिमूर्तिकायें, सर्वतोभद्रिका, चतुर्विशति तीर्थङ्कर खण्डगिरि के गुफामन्दिर, अजन्ता-ऐलोरा और बादामी प्रतिमायें, तीन-चौबीसी, सहस्रकुट स्तम्भ आदि की संर- की गुफानो में उत्कीर्ण जैन मूर्तियाँ इस बात का प्रमाण चना होने लगी। मूर्तियो के केश-कुतल अत्यन्त कलापूर्ण है कि गुफापो को मन्दिरों का रूप प्रदान कर उनका बने। आदिनाथ के जटा-जूटों के नानाविध रूप उभरे। धार्मिक उपयोग ईसा पूर्व से होने लगा था। इन गुफा इस काल मे तीर्थङ्करो के अतिरिक्त तीर्थङ्कर-माता, तीर्थ- मन्दिरो का विकास भी हुआ। विकास का यह रूप केवल करो के सेवक-सेविका के रूप मे यक्ष-यक्षियो, विद्या इतना ही था कि कहीं कही पर गुफाप्रो मे भित्ति-चित्रो देवियो, पंचपरमेष्ठियो, भरत-बाहुबली की मूर्तियो का का अंकन किया गया । ऐसे कलापूर्ण चित्र सित्तन्न वासल निर्माण भी प्रचुरता से हुआ । इसके अतिरिक्त प्रष्ट मगल आदि गफाओं में अब भी मिलते है। द्रव्य, अष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न, नव ग्रह, नवनिधि, गहा मन्दिरो मे सामान्य मन्दिरों की अपेक्षा मकरमुख, कीर्तिमुख, कीचक, गंगा-यमुना, नाग-नागी स्थायित्व अधिक रहा । इसलिए हम देखते है कि ईसापूर्व आदि के अंकन की परम्परा भी विकसित हुई। इस का कोई मन्दिर प्राज विद्यमान नही है, जबकि गुहा काल में देवी-मूर्तियो के अलंकार और उनकी साज- मन्दिर आज भी मिलते है। लगता है कि उत्तर की सज्जा पर विशेष ध्यान दिया गया। कुछ देवियाँ द्विभुजी, अपेक्षा दक्षिण में मन्दिरों की सुरक्षा और स्थायित्व की चतुर्भुजी, षड्भुजी, दशभुजी, बारहभुजी, विशतिभुजी ओर अधिक ध्यान दिया गया। इसके दो ही कारण हो पौर चतुर्विशतिभुजी भी मिलती हैं । देवगढ़ की बिकसित सकते है। प्रथम तो यह कि दक्षिण को उत्तर की अपेक्षा मूर्ति-कला पर गुप्त कला का प्रभाव है।
मूर्ति-विध्वंसक मुसलिम आक्रान्तामो का कोप कम सहना गुप्त काल के पश्चात् गुर्जर-प्रतिहार काल में तथा पड़ा। दूसरे यह कि दक्षिण में मन्दिरों की भव्यता और कलचुरि काल में श्वेताम्बर परम्परा की तीर्थकर प्रति- विशालता के साथ उसे चिरस्थायी बनाने की भावना भी
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काम करती रही । दक्षिण के अधिकाश मन्दिर राजानो, किन्तु पुरातत्व को ज्ञात जैन मंदिरो का प्रारम्भिक रानियो, राज्याधिकारियो और राज्यश्रेष्ठियो द्वारा निर्मित रूप विधान कैसा था, इममे अवश्य मतभेद दृष्टिगोचर हुए, जबकि उत्तर के मन्दिरों का निर्माण सामान्य जनो होता है। लगता है, प्रारम्भ मे मंदिर सादे बनाये जाते ने कराया । शक कुपाणकान के मथुरा के मूति लेखो से थे । उन पर शिखर का विधान पश्चात्काल मे विकसित प्रकट है कि वहाँ के पायागपट्ट, प्रतिमा और मन्दिर हुअा। शिखर सुमेरु और कैलाश के अनुकरण पर बने । स्वर्णकार, वेश्या आदि ने ही बनवाये थे। ककुभग्राम का अनेक प्राचीन सिक्को पर मदिरो का प्रारम्भिक रूप गुप्तकालीन मानस्तम्भ एक सुनार ने बनवाया था। देखने में आता है। मथुरा की वेदिकाओ पर मदिराअस्तु !
कृतियाँ मिलती है, जिन्हे विद्वानों ने मदिरो का प्रारम्भिक पुरातत्वज्ञो के मतानुसार महावीर काल में जिनायतन ।
रूप माना है। ई०पू० द्वितीय और प्रथम शताब्दी के नहीं थे, बल्कि यक्षायतन और यक्ष-चैत्य थे। श्वेताम्बर । मथुरा जिनालयो में दो विशेषताये दिखाई देती है --- सूत्र-साहित्य में किसी जिनायतन में महावीर के ठहरने प्रथम वेदिका और द्वितीय शिखर । इस सम्बन्ध मे का उल्लेख नहीं प्राप्त होता, बल्कि यक्षायतनो में उनके प्रो० कृष्णदत्त बाजपेयी का अभिमत है कि मदिर के ठहरने के कई उल्लेख मिलते है। इन यक्षायतनो और चयो चारो पोर वृक्षो की वेष्टनी बनाई जाती थी, इसे ही के आदर्श पर जिनायतन या जिन मन्दिरो की रचना की वेदिका कहा जाता था। बाद में यह वेष्टनी प्रस्तर निर्मित गई , यक्ष-मूर्तियो के अनुकरण पर जिन मूर्तियाँ निर्मित होने लगी। हुई और यक्ष एव नाग पूजा पद्धति से जिन मूर्तियो की विभिन्न कालो मे मन्दिरो के रूप और कला मे पूजा प्रभावित हुई।
विभिन्न परिवर्तन होते रहे। कला एक रूप होकर कभी
स्थिर नही रही। ममय के प्रभाव से वह अपने आपको किन्तु दिगम्बर साहित्यिक साक्ष्य के अनुसार कर्मभूमि
मुक्त भी नहीं कर सकी। एक समय था, जब तीर्थकरके प्रारम्भिक काल मे इन्द्र ने अयोध्या मे पाच मन्दिरो
प्रतिमा अष्ट प्रातिहार्ययुक्त बनाई जाती थी। किन्तु आज का निर्माण किया , भरत चक्रवर्ती ने ७२ जिनालय
तो तीथकरो के साथ अष्ट प्रातिहार्य का प्रचलन ही समाप्त बनवाये : शत्रघ्न ने मथुरा में अनेक जिन-मन्दिरों का सा हो गया है. जबकि शास्त्रीय दष्टि से निर्माण कराया। जैन मान्यतानुसार तो तीन लोको की है। रचना मे कृत्रिम और अकृत्रिम दोनों प्रकार के चैत्यालयों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। नन्दीश्वर द्वीप के बाबन अकृत्रिम
१. मन्दिरो के विकास-प्रकरण में प्रो० कृष्णदत्त वाजपेयी चैत्यालयो का पूजा विधान जैन परम्परा मे अब तक
के विभिन्न लेखो और डा० भागचन्द की 'देवगढ़' सुरक्षित है। इसलिए यह माना जा सकता है कि जैन पुस्तक ये महायता ली गई है। इसके लिए दोनो परम्परा मे जिन चैत्यालयो की कल्पना बहुत प्राचीन है। विद्वानों के प्रति हम आभारी है। -लेखक
अनेकान्त के ग्राहक बनिये 'अनेकान्त' जैन समाज की एकमात्र शोध-पत्रिका है। जैन साहित्य, जैन आचार्यो और जैन परम्परा का इतिहास लिखने वाले विद्वान 'अनेकान्त' की ही सहायता लेते है। इसका प्रत्येक लेख पठनीय और प्रत्येक अंक सग्रहणीय होता है। प्रत्येक मन्दिर और वाचनालय में इसे अवश्य मगाना चाहिये । मूल्य केवल ६) रुपया।
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दिल्ली-६
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R. N. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : पाकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्यो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्यो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए , डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० पाप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युस, सजिल्द । स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
...
२.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद पौर श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित। प्रध्यात्मकमलमातंण्ड : पचाध्यायीकार कवि गजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १.५० पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हा था । मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । ... श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व की रत, हिन्दी अनुवादादि सहित ।
७ शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३ ताब्दी की रचना, हिन्दी-मनुवाद सहित ५ समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । .. ३-७. जंन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और प० परमानन्द शास्त्रों की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना ये अलंकृत, सजिल्द । .... समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित पनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित २५ तत्त्वार्यसूत्र: (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्रो के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
'२५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ ।
१-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : १० आशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं.पं० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १२.०० भ्याय-वीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.००
न साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना अाज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... २०.०० Reality : प्रा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद बड़े पाकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
प्रकाशक-बीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित।
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xxx . .
५.००
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द्विमासिक शोध-पत्रिका
424 123
जलाई-अगस्त
१९७३
सम्पादक मण्डल: डॉ० प्रा० ने० उपाध्ये डॉ० प्रेमसागर जैन श्री यशपाल जैन श्री प्रकाशचन्द्र जैन
वीर सेवा मन्दिर, दरियागंज. दिल्ली का मुख-पत्र
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• ॐ महम *
अनेकान्त
परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ।।
वर्ष २६ किरण ३
कार-सवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६
वीर निर्वाण संवत् २४६६. वि० सं० २०३०
जुलाई, अगस्त
१९७३
श्रुत देवता स्तुतिः जयत्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वति त्वत्पदपङ्कजद्वयम् । हृदि स्थितं मजनजाड्यनाशनं रजोविमुक्तं श्रयतीत्यपूर्वताम ।। अपेक्षते यन्न दिनं न यामिनी न चान्तरं नैव बहिश्च भारति । न तापकृज्जाड्यकरं न तन्महः स्तुवे भवत्याः सकलप्रकाशकम् ॥ (१५-१)
-मुनि पद्मनन्दि हे सरस्वती! जो तेरे दोनों चरण कमल हृदि में स्थित होकर लोगों की जड़ता (अज्ञानता) को नष्ट करने वाले तथा रज (पाप रूप धूलि) से रहित होते हुए उस जड़ और धूलि युक्त कमल की अपेक्षा अपूर्वता (विशेषता) को प्राप्त होते हैं वे तेरे दोनों चरण कमल समस्त देवों के मुकुटों से स्पर्शित होते हुए जयवन्त होवें । हे सरस्वती ! तेरा जो तेज न दिन की अपेक्षा करता है और न रात्रि की भी अपेक्षा करता है, न अभ्यन्तर की अपेक्षा करता है और न बाह्य की अपेक्षा करता है तथा न सन्ताप को करता है और न जड़ता को भी करता है, उस समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले तेरे तेज की मैं स्तुति करता हूँ।
-
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विषय-सूची
दानियों के लिए
सुनहरा अवसर
२१ देल-रखम
क्रा विषय
वीर-सेवा मन्दिर, दिल्ली द्वारा कुछ छोटी-मोटी १. श्रुत देवता स्तुतिः-मुनि पद्मनन्दि
पुस्तकें समय समय पर प्रकाशित की गई है। सभी २. क्या चाणक्य जैन था ?
पुस्तकें बड़ी उपयोगी तथा प्रतिप्रित विद्वानो की मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम'
देख-रेख में प्रकाशित हुई है। ३. दीवान हाफिज का पद्यानुवाद
| जो सज्जन इन पुस्तकों को हम से खरीद कर गुमानीराम भांवसा का नहीं है
निःशुल्क वितरण करना चाहते है, उन्हे हमने विशेष ___ श्री अगरबन्द नाहटा
रियायत देने की योजना बनाई है। उन्हे हम ३३३ ४. कल कुरि काल में जैन धर्म की स्थिति
प्रतिशत कमीशन देकर पुस्तके भेज सकते हैं। , प्रो. शिवकुमार नामदेव डिंडौरी (मंडला) १२
आशा है समाज के दानी बन्धु इस अवसर का ५. प्राचीन जैन श्रावक-डॉ. झिनकू यादव
अवश्य लाभ उठावेंगे। ६. महायान बौद्धदर्शन में निर्वाण की
पुस्तके निम्नलिखित है:कल्पना-धर्मचन्द्र जैन,
कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र ७. जैन धर्म में नोति धर्म और साधना
मेरी भावना
१० पैसे रामजीसिंह, एम०ए०
महावीर जिन पूजा (सचित्र) ८. बङ्गाल के जैन पुरातत्त्व की शोध मे
महावीर का सर्वोदय तीर्थ
२० पैसे पांच दिन-भंवरलाल नाहटा
सेवा धर्म
१५ पैसे ६. जैन तीर्थ श्रावस्ती-पं० बलभद्र जैन
समन्तभद्र विचार दीपिका (प्रथम भाग) २० पैसे १०. कवि धनपाल - पं० परमानन्द जैन शास्त्री सरसाधु स्मरण मङ्गल पाठ
५० पसे ११. प्रमेय रत्नालङ्कार एक परिचय
अनेकान्त रस लहरी प्रकाशचन्द्र जैन
श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र
७५ पैसे | सभी पुस्तकें श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' के सम्पादकत्व में छपी हैं। लाभ लेने के इच्छुक सज्जन कृपया निम्न पते पर सम्पर्क स्थापित करें।
मूल्य
२५
२० पैसे
२५ पसे
महासचिव वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली-६
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ऐतिहासिक नई शोध
क्या चाणक्य जैन था ?
-~-मुनि श्री महेन्द्रकुमार जी 'प्रथम
अतीत का आधार:
है। जैन विद्वान् इस छोर उदासीन रहे। इसी बीच प्रतीत श्रुति, स्मृति तथा ग्रन्थों के प्राधार पर जीवित सम्प्रदायवाद का प्रधान
सम्प्रदायवाद को प्रधानता देकर चलने वाले कुछ विद्वानो रहता है। कुछ शताब्दियों तक वह श्रुति और स्मृति का
ने अवसर का लाभ उठाया और जैन इतिहास को स्वरिणम माश्रय पाकर फलता फूलता रहता है और बाद में कर घटनामों को भाण्डागारों की परतों में दबाने में वे सफल प्रबुद्ध चेता उसे ग्रन्थों की परिधि मे डालकर घरोहर के हो गये। रूप में संजो देते है। भविष्य उसका अनुसन्धान करता है
वर्तमान युग जैन विद्वानों में नये मृजन तथा प्रतीत के
वतमान युग जन । और नाना फलितार्थ निकाल कर उसे सजाने सवारने का अनुसन्धान की अपेक्षा रखता है। पर, अपने भनेकान्त काम करता है । इस प्रक्रिया में कभी-कभी यथार्थता परतों
इष्टिकोण को सुरक्षित रखते हुए वे इस दिशा में अग्रसर की तह में दबी रह जाती है और कभी-कभी वह प्रकट भी
हो । साम्प्रदायिक व्यामोह में पड़कर तथ्यों को तोड़ मरोड़
हो । साम्प्रदायक व्या हो जाती है।
कर अभिलषित मजिल को पाने का प्रयत्न उन्हे नही करना श्रुति और स्मृति के आधार पर पलने वाले प्रतीत के
है और न उपलब्ध ठोस प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए कतसन्दर्भ में कई बार वक्ता की कुशलता के परिणामस्वरूप
राने की भी अपेक्षा है। सत्य-प्राप्ति और उसको अनुभूति भी यथार्थता पर सघन वातावरण पड़ जाता है, जिसे दूर
का हमारा लक्ष्य है और उसी भोर चरण-ग्यास पुनीत करने में अत्यन्त श्रम पपेक्षित हो जाता है । वह अपने ।
कर्तव्य है। वाक्-चातुर्य तथा सत्कालीन परिस्थितियो के समावेश से ऐतिहासिक सत्य की समीपता : नया ही रग दे देता है। पूल जहाँ का तहाँ रह जाता है।
इतिहास का विद्यार्थी रहा है, अतः प्रत्येक घटना को कुछ समय बाद वहाँ स्व की मान्यता का रूढ अाग्रह तथ्यों उसी सूक्ष्म दृष्टि से देखने की वृत्ति हो गई है। जब तक को झुठलाता ही जाता है, जो तटस्थता का सर्वथा प्रति- सही निष्कर्ष उपलब्ध नही हो जाता, अनुसंधान की परिरोधी होता है । ऐसा ही कुछ जैन परम्परा के इतिहास के क्रमा चालू ही रहती है। साम्प्रदायिक मान्यताप्रो को साथ हुआ है। भगवान् महावीर से वर्तमान तक अनेक प्रहंमन्यता न देकर यथार्थता पाने को ही सदा सजग रहा शताब्दियाँ ऐसी बीती हैं, जो जैन इतिहास के स्वरिणम पृष्ठों है। प्रस्तुत उपक्रम में भी कुछ ऐसे तथ्यों की पोर विद्वानों की स्वयम्भू साक्षी है, पर उन्हें स्वीकार करने के लिये की हिमाकर्षित करना चाहेंगा, जो अनुसन्धान के परिवर्तमान युग के विद्वान् प्रस्तुत नहीं है। ढाई प्रजार वर्ष वेश में अभी तक समाविष्ट नहीं हो पाये है। मैं केवल की इस अवधि में जैन परम्परा में सैकड़ों-हजारों प्रमावक प्राप्त प्रमाणों को समुद्धत करना ही चाहूँगा और विद्वानों प्राचार्य, मुनि तथा श्रावक हुए हैं, जिन्होंने न केवल पार्मिक से अपेक्षा रखूगा कि वे पक्ष तथा द्विपक्ष में जो भी उस क्षेत्र में, अपितु राजनैतिक, सामाजिक एव शैक्षणिक क्षेत्र प्रमाण हों, प्रस्तुत करने का उपक्रम करे, जिसमे हम में नये कीर्तिमान स्थापित कर इतिहास को नया मोड़ ऐतिहासिक सत्य के समीप पहुँच सकें। दिया है, पर वह सब कुछ समय की परतों में दबता गया सन् ६८-६९ में मेरा चातुर्मास-प्रवास जयपुर में था।
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. अनेकान्त -
उन्ही दिनों "राजस्थान इतिहास कांग्रेस" का तृतीय प्रषि- प्रामाणिकता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। प्रावश्यक वंशन वहाँ हो रहा था। मैंने भी उस समायोजन में रिण को कथावस्तु स्पष्ट है, अतः उसके पाधार पर दृढ़ता 'राजस्थान के जैन साहित्य का एक ऐतिहासिक अवलोकन' से कहा जा सकता है, चाणक्य परम्परागत जैन होने के शीषक से शोध-पत्र पढा । प्रसंगोपरान्त उसमें एक उल्लेख साथ-साथ तत्वज्ञान सम्पन्न तथा परम सन्तोषी श्रावक था, सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। प्रभोत्तर काल में विद्वानों ने था। उसके पिता भी परम श्रावक थे। सक्षेप मे उस सबसे अधिक इसी पहलू कोअपमा केन्द्र बनाया। विचार कथावस्तु का सार इस प्रकार है:-गोल देश में चरणक चर्चा सरसता के साथ कुछ लम्बी हो रही थी, अतः यह ग्राम था। चणी बाह्मण वहाँ का प्रवासी था । वह श्रावक निर्णय रहा, इस पहलू पर कभी स्वतन्त्र रूप से चर्चा की था। उसके घर जन श्रमरण ठहरे। उन्ही दिनों चरणी के जाये । कुछ ही दिनो बाद राजस्थान विश्वविद्यालय के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। उस बालक में विचित्रता इतिहास विभाग की ओर से एक संगोष्ठी का प्रायोजन थी। जन्म से ही उसके दाँत समुदगत थे । चरणो ने बालक हु पा, जिसका विषय रखा गया, "सम्राट् जैन या हिन्दू ?" को श्रमणो के चरणो मे प्रस्तुत करते हुए प्रश्न कियाएक घण्टे के मेरे भाषणोपरान्त डेढ़ घण्टे की सरस प्रभा- 'सदन्त बालक का भविष्य कैसा होगा ?" श्रमण ने कहातरी चली। विषष का पूर्ण मन्थन हुमा । विभागाध्यक्ष “यह बालक के राजा होने की सूचना है।" चरणी का डॉ० जी० सी० पाण्डे ने उपसहार भाषण में कहा- चिन्तन उभरा, राजा को राज्य के सरक्षरण मे अनेक प्रकार "मुनिश्री द्वारा प्रस्तुत तर्कों को खण्डिन करने के लिये तीन के पाप-कार्य करने होते हैं। पापकारी कार्यो का परिणाम चार वर्ष के गहरे अनुसन्धान की अपेक्षा होगी। उसके प्राध्यात्मिक दृष्टि से दुर्गति है । मेरा पुत्र दुर्गतिगामी न हो, अनन्तर भी मुनिश्री के तौ का समाधान हम दे पाने में इस अभिप्राय से उमने दात घिस दिये । चणी ने श्रमण सफल हो पायेगे, यह भी संदिग्ध है।"
से पुनः प्रश्न किया तो थमण ने कहा-"प्रब यह बिम्बामेरा भी अपना पध्ययन चलता रहा। पक्ष विपक्ष के न्तरित राजा होगा।" प्रमाणो पर तटस्थ समीक्षा करता रहा। मन में विश्वास बालक का नाम चाणक्य रखा गया । शंशव की देहली था, सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे, महामात्य चाणक्य जैन नही को पार कर जब उसने किशोरावस्था में प्रवेश किया, था। यह मेरे अध्ययन की धुरी थी। पर, कहना होगा, चौदह प्रकार की विद्याप्रो का प्रध्ययन किया। तत्व-ज्ञान चन्द्रगुप्त के जनत्व को प्रमाणित करने के उपक्रम में चाणक्य मे भी वह प्रवीण हुप्रा । वह श्रावक बना तथा परम भी परम्परागत जैन था, ये प्रमाण भी उपलब्ध होने लगे। सन्तोषी जीवन जीने लगा। मै उन्हें एकत्र करने लगा। अनेक प्रमाणों की उपलब्धि ने इसी सदभं मे चाणक्य की पत्नी के पीहर में अपमान, सहज ही प्रस्तुत निष्पत्ति की मोर अग्रसर कर दिया। राजा नन्व की सभा में चाणक्य का गमन, दासी द्वारा समीक्षणीय दृष्टि से उन्हें प्रस्तुत करते हुए विशेष हर्षानु- अपमान, चाणक्य द्वारा नन्द माम्र ज्य के उन्मूलन को भूति है। इसी के साथ चन्द्रगुप्त, विक्रमादित्य, सातवाहन प्रतिज्ञा. मौर्य सन्निवेश में चन्द्र गुम की माता के चन्द्रपान के प्रादि नरपतियों के जैनत्व के बारे में भी यथासमय तथा दोहद की पूर्ति, चन्द्रगुप्त का अधिग्रहण, राजा पर्वत के यथासंग तर्कणा की जायेगी।
साथ मैत्री, राजा नन्द के साथ युद्ध, नन्द का पतन, परम सन्तोषी तथा तत्वज्ञानी:
मन्द की राजकुमारी का चन्द्रगुप्त के साथ विवाह जैन साहित्य में चाणक्य के जीवन-प्रसंग प्राचीनता १. उमुक्फ बाल मावरण पेद्दस विजाठारणारिण मागमिकी दृष्टि से प्रावश्यक चूणि (पृ. ५६३ से ५६५) प्राप्य याणि, सोषि सावमो संतुट्ठो-पृ० ५६३ हैं। यद्यपि विशेषावश्यक भाष्य में भी उल्लेख है, किन्तु २. चाणक्के गोख विसए चणिग्गामो, तत्थ चरिणम्रो वहाँ जीवन प्रसंगों के प्रभाव में पार्मिक अनुबन्ध के बारे मे माहरणो, सो य सावनो।-पृ० ५६३
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. अनेकान्त -
राजा नन्द के विश्वासपात्र व्यक्तियो का क्रमशः उच्छेद, सम्मोषी धावक था।" कोश को अभिवृद्धि चादि का विस्तृत वर्णन है। प्रत्येक श्रावकत्व तथा निविणता: घटना में चाणक्य को दूरदर्शिता पूर्ण कूटनीति के वहाँ प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने "उपदेशपद" में चाणक्य के स्पष्ट दर्शन होते हैं।
जोवन-प्रसंगों पर विस्तार से अनुचिन्तन किया है। उन्होने
वहाँ प्रत्येक घटना के हार्द को उद्घाटित किया है। वहाँ जेन श्रमणों का चाणक्य के पिता के घर प्रवास!
क घर प्रवासः चाणक्य के पिता चरणी का श्रावक' होना तथा उसके घर करना इस तथ्य की पुष्टि है कि चणा जन धर्म म परम पर समस्त परुष-लक्षणो के विज्ञाता साओ का प्रवासी निष्ठा रखने वाला विशिष्ट श्रावक था। जिस गृहस्थ के होली
होना उल्लिखित है। दन्त-घर्षण की कथा के अनन्तर मकान मे जैन श्रमण प्रवास करते हैं, उसे "शय्यातर" कहा चाणक्य के बारे में उन्होंने अपना अभिमत व्यक्त किया जाता है। शय्पातर का मुपोग श्रावकों में से भी किसी है-"कैशोर्य में प्रविष्ट होते ही वह अध्ययन मे निष्णात विरल व प्रमुख को ही मिलता है। चणी को अपने ग्राम हुपा । श्रावकत्व को स्वीकार किया और निविण्ण हमा। के श्रावको मे अग्रगण्यता से चाणक्य का जैन धर्म में वह परम सन्तुष्ट तथा आनन्दित था। निष्ठर सावध कायों संस्कारित होना नैगिक था।
के परित्याग में वह उत्सुक रहता था।
चारणका का श्रावकत्व, निविण्णता तथा सावध कार्यों चाणक्य में जहाँ धार्मिक संस्कार पैतृक परम्परा से से उपरति की सुचना जैन परम्परा की सबल पोषक है। पाये, वहाँ उसने तत्व-ज्ञान के पर्जन, सरक्षण व संवर्धन प्राचार्य हरिभद्र ने पावश्यक चूरिग की कथावस्तु को से उसमें अभिवृद्धि भी की। वन-धारक थावक का जहाँ समग्रता प्रदान की है। प्रावश्यक चूरिण में चन्द्रगुप्त के महत्व है, वहाँ तत्वज्ञान सम्पन्नता उसकी विशिष्टता को राज्यारोहण तथा प्रव्याबाध राज्य सचालन में चाणक्य की विशेष निखार देती है। चाणक्य श्रावक होने से परम कूटनीतिक सफल घटनामों का ही प्राकलन है। चाणक्य सन्तोगी तथा तत्वज्ञान में पारंगत भी था ।
के कैशोर्य की घटनामो के अतिरिक्त जीवन के अन्य प्रसंगों
में अधिकांशतः मौन हो साधा गया है। किन्तु प्राचार्य पावश्यक मलयगिरि वृत्ति प्रावश्यक चूमिण के प्रति
हरिभद्र सूरि ने इस प्रभाव को भरा है। उन्होंने समग्र पाच को विशेष पुष्ट करती है। वहाँ कथानक की समानता
जीवन पर एक अवलोकन प्रस्तुत किया है। इससे एनेक है. किन्तु चणी के श्रावकत्व को संदशित करने वाला एक नवीन रहस्यों का उदघाटन हो जाता है। विशेषण विशेषतः प्रयुक्त किया गया है। वहाँ कहा गया संघ-पालक तथा संघ-हित-चिन्तक : है-"चणी ब्राह्मण जीव-अजीव प्रादि नव-तत्वों का ज्ञाता प्राचार्य सम्भूत विजय' के समय एक बार भयङ्कर था।"
१. उमुक्त बालमावेण चौदसवि विज्जाठारणारिण प्राग
मियारिण, सोष सावगो संतुट्ठो।-पृ० ५३१ चाणक्य के बारे में वहां कहा गया है-"वह चौदह
२. नामेण चरणी तत्यासि भाहरणो सावगो सोय। प्रकार की विद्यानों एव तत्वज्ञान में निष्णात परम
-पृ० १०६ प्र० १. (क) तस्स घरे साह छिया। -प्रावश्यक चरण.
३. पढ़ियारिण सावगतं परिवन्नो मावनो निवित्रो।
अणुरूवा प्रहमद्दय माहगवंसुग्गया तेरण । पृ० ५३१०
परिणीया एगा कन्नगा य संतुट्ठ मारणसो परिणयं । (ख) नीसेस पुरिसलक्खरण वियारणगा सूरियो घरे तस्स
चिट्ठह निछर सावज परिवजणुज्जुतो।। कहवि बिहारवसानो ठिया सुमो तत्थ सृजाम्रो।
-पृ० १०६० -उपदेश पद, पृ०१०६० ४. चतुर्दशपूर्वी प्राचार्य यशोमा के उत्तरवर्ती तथा प्राचार्य २. तत्थ चरिणतो माहरणों, सो अवगय जीवाजीव उवलद्ध
भद्रबाह के पूर्ववर्ती प्राचार्य सम्भूत विजय से ये मिन्न
हैं। बाचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व में इस प्रसंग पर पुण्ण पावासव संबर निजराहिगरण बन्धपमोक्स
प्राचार्य सुस्थित का उल्लेख किया है। वहाँ कहा गया कुसलो।-पृ० ५३१
है-"प्राचार्यः सुस्थितो नाम चन्द्रगुतपुरेश्वसद।"
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* अनेकान्त - दुष्काल पड़ा। साधुपों को प्राहार-प्राप्ति दुर्लभ हो गई। अपराध को क्षमा करे। प्रब से प्रवचन (संघ) की सारी प्राचार्य सम्भूत विजय वृद्ध थे, अत: वे सुदूरवर्ती प्रदेश की चिन्तामों का निर्वहन मैं करूंगा।" पोर प्रस्थान न कर सके। किन्तु अन्य शिष्यों को उन्होंने ग्राचार्य सम्भत विजय का चाणक्य को संघ-पालक समुद्र के तटवर्ती प्रदेश में भेज दिया, जहाँ कि सुभिक्ष था। के रूप में सम्बोधित करना तथा चाणक्य द्वारा प्रवचन दो बालक साधुमो ने भी अन्यत्र विहार के लिये प्रस्थान (संघ) की सारी चिन्ताओं का भार अपने पर लेना, मात्र किया, किन्तु गुरु-भक्ति से प्रेरित होकर वे वापस पा गये। प्रौपचारिकता का ही सूचक नहीं है, अपितु जैन परम्परा प्राचार्य सम्भूत विजय किसी समय भावी प्राचार्य को मन्त्र- के साथ प्रगाढ़ता की गहरी अभिव्यक्ति है। तन्त्र विद्या का ज्ञान प्रदान कर रहे थे। दूर बठ हुए इगिनी मरण' अनशन : बालक साधुनों ने भी उन्हे सुनकर उनका गुप्त प्रभ्यास कर
कथा के विस्तार में प्राचार्य हरिमद्र ने चाणक्य की लिया । प्राहार की प्राप्ति से खिन्नता होने लगी। प्राचार्य सम्भूत विजय जो भी पाहार मिला, नससे पहले शिशु
अन्तिम जीवन झाँकी की प्रस्तुति भी बहुत रोचकता से की
है। उसमे हे हुए तथ्य चाणक्य के जनत्व की पुष्टि में साधुपो को सन्तर्पित करते । बचा-खुवा स्वय ख ते । पर्याप्त पाहार की प्राप्ति से उनका शरीर क्षीण होने लगा।
विशेष हेतुभूत हो जाते हैं । चाटुकारो तथा चुगलों ने राज
माता की हत्या के कृत्रिम अभियोग द्वारा बिन्दुसार को बालक साधुपों को चिन्ता हुपा । पाहार प्राप्ति का उन्होंने
चाणक्य के प्रति भ्रमित तथा विमुख कर दिया । चाणक्य अन्य प्रकार खोज निकाला। मन्त्र-बल से वे राजा चन्द्रगुप्त
उस समय तक वृद्ध हो चुका था। उपेक्षित तथा अपमानित के यहां पहुँच जाते और उसके लिये परोसे गये भोजन का
जीवन जीना उसको प्रकृति के विरुद्ध था। उसने जीवन गुप्त रीति से सहरण कर लेते। साधु तृप्त हो जाते, किन्तु
की प्राशा और मृत्यु के भय से उपराम लेने का निश्चय राजा चन्द्रगुप्त सदैव भूखा रह जाता। भूख से उसका भी
किया । “सभी स्वजनो से क्षमा याचना कर तथा स्वयं को शरीर कृश होने लगा। एक दिन चाणक्य ने चन्द्रगुप्त से प्रश्न किया तो उसने बताया, मेरे लिये परोसे हए थाल से
जिनेन्द्र धर्म में नियोजित कर वह अरण्यवर्ती गोकुल में
में पहुँचा। वहाँ उसने 'इगिनी मरण' अनशन प्रारम्भ भोजन का सहरण होता है। भूख के कारण कृशता तथा
कर दिया। दुर्बलता बढ़ती जा रही है। चाणक्य ने सूझ-बूझ से काम लिया। उसने रासाय
राजा बिन्दुसार को धाय-माता के द्वारा चाणक्य की निक प्रयोग के माध्यम से साधुनों का छद्म जान लिया। यथार्थता का जब ज्ञान हुमा, उसे बहुत पश्चात्ताप हमा। प्राचार्य सम्भूत विजय को निवेदन करने के अभिनय से वह चाणक्य को पुन: राज्य मे लौटने के लिये तथा पूर्ववत् वह उपाश्रय में पाया। उसने साधुमो को साधिकार उपा- राज्य-धुरा का वहन करने के लिये अनुनय करने के लिये लम्भ दिया। प्राचार्य सम्भूत विजय ने प्रतिवाद मे चाणक्य गोकुल मे पहुँचा। अपने अपराध को क्षमा मांगी तथा को कहा- 'तेरे जैसे संघ-पालक के होते हए भी यदि महामात्य का सम्मानित पद स्वीकार करने के लिये प्राग्रह क्षुधा से पीडित होकर ये साधु धर्मच्युत होते हैं तो यह तेरा करने लगा। चाणक्य ने स्पष्ट शब्दों में कहा-"सब प्रकार ही अपराध है, अन्य किसी का नहीं।"
१-नग्गो पाएसु इमो खामह प्रवराहमेगमेयमे । प्रांजलिपुट होकर चरणो में गिरते हए चाणक्य ने
एतो पमिई तया बिता मे पवपरणस्सावि ।१ पू० ११३ अपना अपराध स्वीकार किया और निवेदन किया- "मेरे
२-चतुर्विष प्राहार के प्रत्याख्यान पूर्वक अनशन के समय १-जात गुरुणा मरिणम्रोता सासरण पालगे सते ।१२६ प्रारक्षित क्षेत्र से बहिर्गमन न करना। ए ए छुहापरता निम्मा होउमेरिसायारा ।
३-खामित्ता सयाजणं जिरिणवषम्मे निमोजिऊरणं च। मोजाया सो सम्बो तवावरा हो म मन्नस्स ।१२७ रणो गोउलठाणे इंगिरिणमरणं पवनो सो ॥ १५१ -पृ० ११३५०
-पृ० ११३५०
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. अनेकान्त .
के सगों से विप्रमुक्त होकर मैंने प्राजीवन अनशन' स्वीकार जिनेश्वर-वाणी को जानते हुए भी मोहरूप महाशल्य से मै कर लिया है। राज्य से मेरा प्रब क्या प्रयोजन ?" बीधा हपा रहा, अत: इस जीवन और भावी जीवन के
चाटुकार और पिशुन अमात्य सुबन्धु के द्वारा अपने विरुद्ध मैंने अनेक प्रवृत्तियां की। मेरा जन्म कैसा बीता ? विरोध में की गई सारी धूर्तता को चाणक्य जानता था, इस जन्म मे तथा अन्य जन्मों में किसी भी प्राणो को उत्तप्त पर उसने उस सम्बन्ध में राजा बिन्दुमार मे कोई उल्लेख किया हो तो वे मुझे क्षमा प्रदान करे। मैं भी उन्हें क्षमा नही किया।
प्रदान करता हूँ। राज्य-संचालन के समय पापाधीन होकर निराश राजा बिन्दुसार राजमहलो मे लौट पाया। मैने जिन अधिकरणो का संग्रह किया है, त्रिकरण तथा उसका मन खिन्न रहने लगा। अमात्य मुबन्धु ने मोचा, त्रिकाग पूर्वक उनका त्याग करता हूँ। राजा का प्राकर्षण चाणक्य के प्रति बढ रहा है। कही अग्नि ज्यो-ज्यो बल पकडती जा रही थी, त्यो त्यो ऐसा न हो जाये कि मेरी कलई खून जाये। उसने भी चाणक्य का शरीर भी उसमें उत्तप्त हो रहा था। साथ ही अवसर का लाभ उठाते हुए राजा से विज्ञप्ति को, यदि साथ उसके कर कर्म भी भस्मीभत हो रहे थे । शुभ भावना पापका प्रादेश हो तो महामात्य चाणक्य को प्रसन्न कर मैं युक्त परमेष्ठि पचक के स्मरण मे अनुरक्त, अविचल, समाधि राजधानी ले पाऊँ । राजा बिन्दुसार ने उसे प्रादेश प्रदान सम्पन्न उसने मृत्यु का वरण किया। स्वर्ग मे वह महद्धिक कर दिया। उसका अन्य षड्यन्त्र भी सफलता की ओर देव हमा।' बढ़ गया। सुबन्धु ने धूप से चाणकप का सम्मान किया भत्तपइण्णा२, सथारग पइन्ना तथा मरण विधि
और उसके चारो ओर फैले उपलो में उसे (धूप को) डाल भी उपरोक्त घटना तथा तथ्य की मुक्त पुष्टि करती हैं। दिया। उपलों ने प्राग पकड़ ली। वे धधकने लगे और चाणक्य का विरत होकर गोकुल मे पहुँचना वहां 'इगिनी चाणक्य के शरीर को परितप्त करने लगे।
मरण' प्रायोपगमन स्वीकार करना तथा मुबन्धु (मुबुद्धि) अन्तिम प्रआत्मालोचन :
द्वारा उसे भस्म करना प्रादि प्रसगो का विशद उल्लेख है। प्राचार्य हरिभद्र सूरि ने उस समय के चाणक्य के चाणक्य की अन्तिम जीवन झाँकी वस्तूत ही बहुत विशुद्ध परिणामो का बहत ही हृदयग्राही विवेचन किया मर्मस्पर्शी है। मगध के एकछत्र महामात्य को जीवन की
प विवेचन मे जैनत्व के गहरे संस्कारा का स्रष्ट १-उपवेशपब, गा० १५३ से १७. के प्राधार पर, पृ० झलक है। उन्होने लिखा है:-"उस समय चाणक्य की
११४ प्र० तथा ब. शुद्ध लेश्या थी। धार्मिक अनुचिन्तन मे वह अनुरक्त था।
२-गुट्टे पायोवगमो सुबंधुणा गोमए पलिविम्मि । वह सर्वथा अचल था। अग्नि मे सुलगते हुए भी उसका
उज्झन्तो चाणक्को पडिवनो उत्तम पढें ॥ मन अनुकम्पा से ओत-प्रोत था। उस समय वह अध्यात्म
-मत्त पइण्णा , गा० १६२ मे पूर्णत: लीन हो रहा था। उसके विचार उभर रहे थे
३-पाडलि पुत्तम्मि पुरे चारणक्को नाम विस्सुमो पासि । वे प्राणो धन्य हैं जिन्होने अनुत्तर मोक्ष स्थान को प्राप्त ।
सव्वारं मनिप्रत्तो इंगिरणी मरण प्रह निवन्नो ॥ किया है। वे किसी प्राणी के लिये दुःखद नही होते । मेरे
प्रणुलोम पूअरगाए ग्रह सा सत्तजनो डहइ बेह । जैसे प्राणी बहुत प्रकार के प्रारम्भ-समारम्भ मे प्रासक्त
सोवि तह डझमारणो पडिवन्नो उत्तमं अट्ठ । रहते हुए अपना जीवन पाप में ही व्यतीत करते है।
गुठटे पायोवगणो सुबन्धुणा गोमए पलिवियम्मि । १-परिवन्नाणसणो ह विमुक्कसंगो य बढामि । १५६ डझन्तो चाणक्को पडिसनों उत्तम अट्ठ -पृ० ११४ ५०
-सथारग पइण्णा , गा० ७३-७५ २- य नाऊण वि सिट्ठं सुबंधुदिवलसियं तया रो। ४-परिणीयताए कोई, प्रग्गि से सम्वत्ये पवेज्जाहि। चाणक्केए पेसुन्नकडुविवाग मुगतेग ॥ १६०
पादोवगए सन्ने, जह चारणकस्सय करोसे । -पृ० ११४ प्र.
-मरण विहि पइण्णा, गा० ५६६
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. भनेकान्त .
सन्ध्या में इतनी कड़वी घूट पीने के लिये विवश होना श्रवण कर उसने सब प्रकार के परिग्रह का परित्याग पडेगा, यह कल्पना से परे का प्रसङ्ग है। किन्तु उत्थान किया। अन्तिम समय में साधु बना। एक बार पांच सौ और पतन की क्रमभाविता का अपवाद चाणक्य भी न हो साधुप्रो के परिवार से दक्षिणापथ में विहरण करता हुआ सका। विवशता को भी मात्म-रति में परिणत करने की एक मरण्य मे पहुँचा। वहाँ गोकुल में कायोत्सर्ग पूर्वक प्रक्रिया जैन साधक जानते थे। ऐसी परिस्थिति में भी ठहरा। गोकुल के पूर्व में कोंचपुर था। सुमित्र वहाँ का जीवन से ऊबकर पलायन करने का मार्ग वे नही सोच राजा था। अमात्य सुबन्धु राजा नन्द को मृत्यु के अनन्तर सकते थे। 'इगिनी मरण' अनशन स्वीकार कर यही राजा सुमित्र की शरण में प्रा गया था। नन्द राज्य के प्रादर्श चाणक्य ने प्रस्तुत किया था। जीवित हो जब दाह पतन से सुबन्धु का चाणक्य के प्रति रोष का उभरना ने घेर लिया, विरोधी के प्रति सम परिणाम, विशुद्ध अध्य- सहज था। वह चाणक्य के पराभव के लिये उसके दुर्बल वसाय तथा प्रात्म-चिन्तन की उच्चता का जो विवेचन स्थानो की खोज मे था। मुनिवर चाणक्य के गोकुल में किया गया है, वह जैन परम्परा की एक उज्ज्वल कड़ी में प्रागमन के सवाद से राजा सुमित्र को प्रसन्नता हुई। वह गजसकुमाल, मेतार्य प्रादि मुनियो के बिरल उदाहरणो को अभिवन्दन के लिये पाया । धार्मिक पर्युपासना के अनन्तर तरह श्रायकों मे चारणक्य का भी विशिष्ट उदाहरण बन राजा नगर में प्रा गया। मुनि चारणक्य ने पादोपगमन गया है। इससे प्रतिभासित होता है, चाणक्य सामान्य अनशन प्रारम्भ कर दिया। मुबन्धु ने वहाँ उपलों को श्रावक न होकर दृढधर्मा, सर्वतः धर्मानुरक्त तथा भाव सगृहीत कर उनमे प्राग लगा दी। संयोग से सुबन्धु भी श्रावक था।
ज्वाला की चपेट में आ गया। उसकी भी वहाँ अन्त्येष्टि दीक्षा-ग्रहण :
हो गई। चाणक्य प्रभृति पांच सौ मुनियों ने शुक्ल ध्यान __वृसत्कथाकोष, कथानक संख्या १४३ में प्राचार्य की साधना करते हुए तथा उपसर्ग को सहन करते हुए हरिषेण ने चाणक्य के जीवन-प्रसगों का विस्तार में उल्लेख पादोपगमन युक्त समाधिमरण का वरण किया।" किया है । यद्यपि प्राचार्य हरिभद्र मूरि पोर प्राचार्य हरि- परिग्रह परित्याग के साथ दीक्षा ग्रहण एवं पादोपगमन पेण द्वारा महब्ध कथावस्तु में कुछ अन्तर पा जाता है, पर अनशन का स्वीकरण चाणक्य के जैनत्व को प्रमाणित चाणक्य के जैनत्व में कोई अन्तर नही पाता। प्राचार्य करने के सबल प्राधार है। हरिषेण के प्रभिमतानुसार तो अपने मान्ध्यकाल में चारणक्य सघ-परूष तथा प्रवचनोपहास-भीरू: भागवती जैनी प्रव्रज्या' स्वीकार करता है तथा पाँच सौ आचार्य हेमचन्द्र ने परिशिष्ट पर्व, अष्टम सर्ग में साधुपो के साथ शुक्र ध्यान में रमण करते हुए पदोपगमन चाणक्य और चन्द्रगुप्त के जीवन वृत्त पर विस्तार मे अनशन पूर्वक देहोत्सर्ग करता है। वृहत्कथा कोष के विमर्षण किया है। उन्होने चाणक्य के पिता चणी' अनुसार वह घटना क्रम इस प्रकार है-"नन्द राजा को ब्राह्मण तथा चाणक्य का थावक' होना म्पतः स्वीकार पराजित करने के अनन्तर चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने पाटलि. किया है। परिशिष्ट पर्व की कथावस्तु का आधार प्राचार्य पुत्र का राज्य अधिगृहीत किया । लम्बे समय तक राज्य । हरिभद्र सूरि का उपदेश ही ज्ञात होता है। अन्तर इतना सचालन के अनन्तर चाणक्य विरक्त हुमा । जैन धम का ही है कि उपदेशपद की भाषा प्राकृत तथा शैली सक्षिप्त १-कृत्वा राज्यं चिरकालं अमिषिच्यात्र तं नरम् । है। परिशिष्ट पर्व की भाषा प्रांजल सस्कृत है तथा शैली
श्रुत्वा जिनोदित धर्म हित्वा सर्व परिग्रहम् ।७२ मे विस्तृति है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने चाणक्य को धावक मतिप्रधान साध्वन्ते मह वैराग्यसंयुत्तः ।
१-बमूव जन्मप्रति भावकत्व चरणश्चरणी। दीक्षा जग्राह चाणक्यो जिनेश्वर निवेदिताम् ।७३
-मष्टम सर्ग, श्लोक १०५ २-चाणक्याख्यो मुनिस्तत्र शिष्यपंचशतः सह ।
२-चाणक्योपि भावको भूत, सर्वविद्याग्धि पारगः । पायोपगमनं कृत्वा शुक्ल ध्यानमुपेयिवान् ।८३
भमरणोपासकत्वेन स सन्तोष पनः सवा ।।
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-* अनेकान्त .
सम्बोधन के साथ २ सघपुरूष' प्रवचनोपहास भीरू विद्वानों की सूक्ष्म दृष्टि से उपयुक्त ग्रन्थों के ये स्पष्ट तथा निझरोद्यत प्रादि शब्दों से भी अभिहित किया है। मुखर अवतरण अब तक कैसे बच पाये, यह महान् पाश्चर्य चन्द्रगुप्त के लिये परोसे हुए थान से भोजन के सहरण को है। .माहार संविभाग बतला कर श्रावक के बारहवें अतिथि चाणक्य के बारे में अनुचिन्तन करते हुए परिव्राजकता संविभाग व्रत की ओर संकेत किया है। इस प्रसङ्ग पर यज्ञोपवीत, कमण्डलु, ब्राह्मणत्व प्रादि को तो पष्टिगत रखा चाणक्य ने प्राचार्य के उपपात मे यह अभिग्रह भी ग्रहण गया, किन्तु अन्य जीवन-प्रसङ्गों को नही । यही कारण हो किया था कि पाज से यथावश्यक प्राहार, पानी, उपकरण सकता है कि अब तक का अनुसन्धान और उससे फलित मादि श्रमण मेरे घर से ग्रण कर मुझे लाभान्वित करे। निष्कर्ष एकागी ही रहे। किसी भी व्यक्ति के गरे मे
संघपुरूष शब्द का प्रयोग सामान्य श्रावक के लिये नही चिन्तन करते समय यदि समग्र पहलुमो का विश्लेषण होता। उसमें धार्मिक योग्यता तथा प्रभाव-सम्पन्नता किया जाता है तो ऐतिहासिक सत्य के समीप सुगमता से अन्तर्भावित होती है। प्रवचन के उपहास से बचना तथा पहुंचा जा सकता है। निर्जरा के लिये उचत रहना धार्मिक सजगता का ज्वलन्त ब्राह्मणत्व, यज्ञोपवीत, परिव्राजकता प्रादि जैन उदाहरण है। पाहार-ग्रहण के लिये अभिग्रहपूर्वक निवेदन परम्परा के कभी भी विरोधी नहीं रहे। कहना चाहिये, ये करना भी जैन श्रमण सघ के साथ एकनिष्ठता का द्योतक सभी जैन परम्परा के अङ्ग बनकर रहे है। जैन विचार
धारा जातीयता में विश्वास नहीं करती। वह मानसिक चन्द्रगुप्त का जैनत्व :
पवित्रता को प्रधानता देती है, अतः वहाँ क्षत्रिय, ब्राह्मण, प्राचार्य हेमचन्द्र के अभिमनानुसार चन्द्रगुप्त को जैन वैश्य, शूद्र प्रादि जातियो का प्रश्न ही व्यर्थ है। विगत में बनाने में चाणक्य का महान् योगदाम था। चाणक्य ने अनेकानेक प्रभावक भाचार्य तथा विद्वान् मुनि ब्र चन्द्रगुप्त का केवल राजनैतिक मार्गदर्शन ही नही किया, से दीक्षित हुए हैं। प्रपितु धार्मिक मार्गदर्शन करके भी उसे पाखण्ड से बचाया मगध में जब से नन्दों का शासन काल प्रारम्भ होता था। चन्द्रगुप्त सहसा धर्म परिवर्तन करना नहीं चाहता
है, प्रथम नन्द की सूझ बूझ सम्पन्न एक महामात्य की था। चाणक्य ने प्रश्रेष्ठ तथा श्रेष्ठ धर्म के प्रत्यक्ष उदाहरण उपेक्षा हुई। कल्पक पर उसकी दृष्टि केन्द्रित हुई । नन्द ने प्रस्तुत किये । चन्द्रगुप्त को जब दृढ प्रत्यय हो गया, पूर्व कल्पक से महामात्य-मुद्रा ग्रहण करने का प्रत्य-त प्राग्रह धर्म का परिहार कर उसने जैन धर्म को स्वीकार किया, किन्तु धार्मिकता मे अग्रणी होने के कारण उस किया।
प्रस्ताव की सर्वथा अवगणना कर वह अपने निवास पर एक अवलोकन:
पा गया । नन्द ने फिर भी अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा। एक पावश्यक चरिण, मावश्यक मलयगिरिवृत्ति, उपदेशपद, विशेष घटना-प्रसङ्ग पर विवश होकर कल्पक को महामात्य वृहस्कथा कोष भतपरिणा, मरण विधि, संथारग पहण्णा मुद्रा स्वीकार करनी पड़ी। कल्पक के पार्मिक अनुबन्ध के
राव पाटि नेकपाचीन पोटाश बारे में चिन्तन करते प्राचार्य हरिभद्र' तथा प्राचार्य स्वर से चाणक्य का जैनत्व स्वीकृत है। अनुसन्धाता हेमचन्द्र ने उनका जेनत्व प्रमाणित किया है। प्राचार्य
हेमचन्द्र ने तो कल्पक का श्रावकत्व उसी तरह का माना १-प्रष्टम सर्ग, इलोक ४११
है, जैसा कि सहोदर हो'। कल्पक के पिता भी जैन २-प्रष्टम सर्म, श्लोक ४०५ ३-मष्टम सर्ग, लोक ४५८
१-उपदेशपर, पृष्ठ ७३ प्र० से ७७० के प्राचार पर ४-उत्पन्न प्रत्ययः साकून गुरुन् मेनेच पार्थिवः
२-समर्भश्रावकत्वेन सदा सन्तोषधारकः । पावडिषु विरतो मूधिववेष्विव योगवित्
नपरिग्रह भूयस्वमनोरथमपि व्यवात् ।। -ब्रटम सर्ग, श्लोक ४३५
- परिशिह पर्व, सप्तम सर्ग, क्लोक २६
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* अनेकान्त .
[
२
श्रावक' थे।
निर्वहन किया तो दूसरी पोर जन-भावना को जानने के नन्द वश में क्रमश: सात नन्द राजा हए । कल्पक की लिये परिव्राजकता के क्रम को भी चालू रखा। वंश-परंपरा में भी अनेक प्रज्ञा-संपन्न व्यक्ति हुए और उन चाणक्य महामात्य होते हुए भी परम सन्तोषी वृत्ति सभी ने महामात्य-मुद्रा ग्रहण की। सप्तम नन्द राजाके में था। प्रावश्यक चूर्णिकार प्राचार्य हेमचन्द्र तथा प्राचार्य समय महामात्य शकडाल हुमा । उसने महामाश्य-पद की हरिभद्र ने श्रावक के विशिष्ट लक्षणो से चाणक्य को उपगरिमा का निर्वहन करते हुए कल्पक से चली पाने वाली लक्षित करते हुए इसी सन्तोष वृत्ति का उल्लेख किया है धार्मिकता का भी सम्यक अनुगमन किया।
और यह वृत्ति जीवन-पर्यन्त तदूप ही रही। मुद्राराक्षस
नाटक में महामान्य-पद पर आसीन चाणक्य को उसी मगध साम्राज्य के महामात्यों को परपरा में ब्राह्मण
सन्तोष वृत्ति का गौरव के साथ समुल्लेख करते हुए लिखा त्व तथा श्रावकत्व अनुस्यूत रहा है। चाणक्य ने कल्पक वंश में जन्म न लेने पर भी श्रावकत्व को अक्षुण्ण रखते
___ गया है:
उपल सकल मेतद् मेवक गोमयानां हुए राज्य व्यवस्थाओं का दूरदर्शिता पूर्ण संचालन किया, उपर्युक्त घटनाये इस तथ्य की विशेष साक्षी हैं।
वटुमिरूपहताना बहिणां स्तोम एवं
शरणमपि समिद्भिः शुष्यमारणामि राभि पौराणिक मान्यता के अनुसार यज्ञोपवीत का प्रचलन
विनमित पठलान्तं दृश्यते जीणं कुइयम् । प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के युग में प्रथम चक्रवर्ती
"कण्डे तोड़ने के लिये एक छोटा सा पत्थर, विद्यार्थियों भरत द्वारा किया गया था। उस समय तथा उसके बाद
द्वरा उपहृत दूर्वा समूह तथा एकत्रित ईन्धन राशि ही सब विशिष्ट श्रावक ही इसका उपयोग करते थे। प्राज भी
कुछ है । झुके हुए छज्जे व टूटी-फूटी दीवार की कुटिया बहुत सारे जैन यज्ञोपवीत का प्रयोग करते हैं। यज्ञोपवीत " वैदिकत्व का ही प्रतीक नहीं है।
चाणक्य के जैनत्व के विरुद्ध एक तर्फ यह भी दिया श्रमण और वैदिक, दोनों ही परंपरागों में परिबाज- जाता है कि उसने जिस अर्थशास्त्र का प्रतिपादन किया है, कता प्रचार तथा कार्य-सुगमता का माध्यम रही है। उसमें वर्णाश्रम व्यवस्था पर विशेष बल दिया गया है। चाणक्य को राजा नन्द से प्रतिशोध लेना था। वह तभी इस सन्दर्भ में भी कुछ तथ्य विमर्षणीय हैं। वधिम सभव था, जबकि जन-सहयोग प्राप्त किया जा सके । परि व्यवस्था सामाजिक स्वस्थता को वृद्धिमत करने की सामव्रजकता इसमें विशेष हेतुभूत हो सकती थी । जन-पहयोग यिक पद्धति थी। युगानुरूप उसमें परिवर्तन तथा परिवर्धन के प्राधार पर ही चाणक्य ने राजा पर्वत को भी मित्र होता रहा है। चाणक्य ने अपने समय में इस व्यवस्था को बनाया तथा उसे नन्द साम्राज्य के विरुद्ध भडकाया। राजा उपयोगी समझा था। अन्य भी समाज व्यवस्थापकों ने पर्वत ने चाणक्य का साथ दिया । चाणक्य अपने उद्देश्य समय समय पर इसका अवलम्बन लिया था। जैन परपरामें सफल हुअा। राज्य-प्रप्ति के बाद भी उसके सुचारू नुसार इस व्यवस्था का प्रारभ भगवान ऋषभदेव के युग वइन के लिये जन-भावना का अकून मावश्यक था । उसके में हो चूका था। आवश्यकतानुसार उसमे उद्वर्तन तथा प्रभाव मे जन-विद्रोह की मी पापाका थी। चाणक्य कूट- अपवर्तन होता रहा है। नीति के माध्यम से हर पहलू के सुदूर तक पहुंचता था। एक तर्क यह भी प्रस्तुत किया जाता है कि चाणक्य उसने एक प्रोर महामात्य-पद के गुरूतर दायित्व का शिखाधारी था। शिखा का प्रचलन जैन समाज में नही हैं, १-बही, श्लोक १३, १४ तथा १८
प्रतः इस परपरा से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता । वर्तमान १-विस्तार के लिए देखें, परिशिष्ट पर्व, प्रथम सर्ग में यह किसी उपेक्षा से सङ्गत कहा जा सकता है । किन्तु, ३-विस्तार के लिये देखें 'मरत-मुक्ति' पुस्तक में लेखक इसके लिये प्राचीन परपरापो का अनुशीलन भी प्रावश्यक
द्वारा लिखित 'मरत मुक्तिः एक अध्ययन' पृ० ६५, ६६ होगा। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव अवजित होने के लिये जब
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. अनेकान्त *
लुचन कर रहे थे, इन्द्र के अनुनय पर उन्होने शिखा का है, कुछ विद्वान् उसे तोड-मरोड़ कर प्रस्तुत किये गये लुचन नहीं किया। जीवन पर्यन्त उनके मस्तक पर वह प्रमालो का करार देकर खिमिचौनी करने का अना. शिखा ज्यों की त्यों रही। बहुत सारी प्राचीन मूर्तियाँ इस बश्यक उपक्रम करते हैं। वे अपने चिन्तनकार को अनुद्. तथ्य की स्पष्ट साक्षी है।।
घाटित रखना ही उपयुक्त समझते हैं। पर इतिहास तो चाणक्य कूटनीतिक क्षेत्र में विख्यात है । कूटनीति के सदैव नई करवट लेता रहता है। हर विद्वान् अपनी तटस्थ साथ छल प्रपंच, विश्वासघात मादि मनुस्यूत रहते हैं। कुछ शोध के माधार पर पूर्व अधीत में कुछ नया जोड़ता है। विद्वान् इसलिये भी चाणक्य को जैन मानने के लिये प्रस्तुत सर्वत्र ग्रन्थों की बहुलता है। उनमें संगुप्त इतिहास की नही हैं कि अहिंसा व्रत का धारक जैन उपासक कूटनीति परतों को जब भेदा जाता है, नये ही तथ्य हस्तगत होते का खुल कर प्रयोग कैसे कर सकता है ? जो करता है, वह हैं। यह क्रिया जैन-प्रजैन किसी भी विद्वान् द्वारा की जा जैन कैसे हो सकता है ? इसका दूसरा पक्ष यह भी हो सकती है। फिर भी उसमें से सम्प्राप्त कुछ तथ्य तो अपनाये सकता है कि क्या वैदिक धर्म में कूटनीतिक दाव-पेंच जायें तथा कुछ झुठलाये जाये, यह कैसे संगत हो सकता सम्मत है ? संभक्त: कोई भी ऐसा धर्म नही है, जो छल- है। सांप्रदायिक अभिनिवेश का बहिष्कार सर्वत्र होना खम को मान्यता दे। फिर भी विगत में हुए बड़े-बड़े राजा, चाहिए, पर किसी भी ऐतिह्य सत्य पर सांप्रदायिकता का सेनापति, महामात्य प्रादि जैन, बौद्ध, वैदिक आदि किसी मुखौटा नहीं लगाना चाहिए। न किसी धर्म से अवश्य सम्बद्ध रहे है। उन्होने बडे से बडे जैन ग्रन्थ अब तक भाण्डागारों में दबे हे प्रतः ऐतियुद्ध लड़े है तथा माक्रमण-प्रत्याक्रमण भी किये हैं। फिर हासिक दृष्टि से उनका अनुशीलन बहुत कम हो पाया। भी उनको धार्मिकता की भोर कोई अंगुली नही उठी। युग की मांग के साथ वे बाहर पा रहे हैं, अत: नये तथ्य उस अवस्था में चाणक्य की कूटनीति उसके जैनत्व में कैसे उजागर हो रहे हैं । कहना चाहिए, ऐतिह्य तथ्य कुछ स्पबाधक हो सकती है? जैन उपासक समाज तथा राष्ट्र से ता तथा ठोस प्राधार लेकर पा रहे हैं। आवश्यकता है, जब सेवर लेते हैं तो वे सेवा के प्रत्यर्पण में कभी पीखे विद्वान इस वास्तविकता को सममें और अपेक्षित हो तो रहने वाले नहीं होते। वे उसे अपना सामाजिक तथा राष्ट्रीय इतिहास को नया परिधान भी दें। चाणक्य से सम्बद्ध जैन कर्तव्य मानकर उस क्षेत्र में भी प्राणी रहते हैं । चाणक्य ग्रन्थों के कुछ प्रमाण समीक्षणीय दृष्टिकोण से मैंने प्रस्तुत भी इसी परपरा का सबल वाहक था।
किये है। आशा है, विद्वान् इनके बलाबन को परखने मे इतिहास में जैन परंपरा की जब कोई नई कड़ी जुड़ती मेरे सहभागी बनेंगे।
प्रेषक : कन्हैयालाल दूगड़
प्रधान मन्त्री श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा ३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१
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अनेकान्त -
दीवान हाफिज का पद्यानुवाद
गुमानीराम भांवसा का नहीं है
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-श्री प्रगरचन्द नाहटा 'अनेकान्त' के मई जून १६७३ के अङ्क मे डॉ० से प्राईने पकवरी की प्रति तो बीकानेर के राजकीय अनूप गजानन्द मिश्र का लेख-'राजस्थान के जैन कवि और संस्कृत लायब्रेरी में मैंने स्वय देखी है। इस ग्रन्थालय के उनकी रचनाएँ' नामक प्रकाशित हुप्रा है । इसमें सर्वप्रथम राजस्थली विभाग को प्रकाशित सूची में प्रति नं० १७६ गुमानीराम भावसा का परिचय देते हुए उनका जन्म १८१८ के विवरण में इस ग्रन्थ का 'कायस्थ गुमानीराम लिखित । के पास-पास बतलाया है, जो कि पं० टोडरमल जी के स० १८५२ में लिखित ।' होने का छपा है। सूची में रचजन्म संवत् एव प्रायु सम्बन्धी पुरानी मान्यता पर प्राधा- यिता का नाम मुशीलाल हीरालाल लिख दिया है, पर रित लगता है। अभी डॉ० हुक्मचन्द भारिल्ल का शोध वास्तव में हीरालाल के कहने पर गुमानीराम कायस्थ ने प्रबन्ध-प० टोडरमल व्यक्तित्व और कृतित्व' नामक ही इसे लिखा था। दीवान हाफिज के पद्यानुवाद की भी प्रकाशित हुप्रा है, उसके अनुसार वह ठीक नहीं लगता। मैंने अपने ग्रन्थालय के लिये नकल करवायी थी, पर अभी नई खोज के अनुसार पं. टोडरमल जा का जन्म सं० वह इधर-उधर रखी होने से मिल नहीं रही है । अतः १७७६-७७ और मृत्यु १८२३ अर्थात् ४७ वर्ष की भायु विशेष विवरण नहीं दे सका। थी। अतः गुमानीराम का जन्म स० १८०० के पास-पास डॉ० गजानंद मिश्र ने सता स्वरूप भी इनकी रचना होना संभव है।
होने का उल्लेख किया है, यह भी मुमानीराम की रचना डॉ. गजानंद मिश्र ने गुमानीराम की रचनाओं के नहीं है । भागचन्द छाजेड़ के नाम से यह रचना हिन्दी में सम्बन्ध में लिखा है कि "ये फारसी भाषा के प्रच्छे ज्ञाता तथा इसका गुजराती अनुवाद सोनगढ में छप चुका है। थे। इन्होने महाराजा सिंह की प्राज्ञा से कार्तिक सु०५ राजस्थान दि०. शास्त्र अण्डारों की सूची में 'सत्ता स्वरूप' स० १८४६ में दीवान हाफिज का पद्यानुवाद किया था। की कई प्रतियों का विवरण है, पर वहां इसके कर्ता का इनके नाम से सत्ता स्वरूप नामक रचना तथा अनेक पद्य नाम नहीं दिया गया है । गुमानीराम के 'पद' अवश्य मिलते भी लिखते (मिलते) है।" पर वास्तव में दीवान हाफिज है। राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की सूची भाग-५ का अनुवाद टोडरमल के पुत्र गुमानीराम भांक्सा रचित पृष्ठ ७३० में गुमानीकृत 'दर्शन पच्चीसी' पत्र ११ का विवनहीं है, वह तो गुमानीराम कायस्थ का किया हुआ है, रण छपा है, पर उसके स्वविता गुमानीराम भांवसा हो थे जिन्होंने बाईन-अकबरी का मी अनुवाद किया था। राज. या अन्य, यह निश्चित कहना बाकी है। स्थान के हिन्दी साहित्यकार नामक ग्रन्थ सबत् २००१ में डॉ. मिश्र ने टेकचन्द का परिचय नहीं दिया पर उसके जयपुर से प्रकाशित हुपा था, उसके पृष्ठ १६१ में महाराजा सम्बन्ध में तो मेरे कई लेख एवं अन्यों के लेख भी प्रकाशित प्रतापसिंह के प्राश्रित और दरवार के लेखकों का विवरण हो चुके हैं। देते हुए लिखा है कि "इन्हीं काव्य-मर्मज्ञ त्या गुणग्राहो डॉ० मिथ ने रत्नचन्द्र की रचनायों का संग्रह रत्नचन्द्र नरेश के राज्य काल में गुमानीराम कायस्थ द्वारा प्रबल- मुक्तावली में प्रकाशित होने का लिखा है। सो इस ग्रन्थ के फजल कृत माईने अकबरी का जयपुरी भाषा मे अनुवाद मिलने का पता मुझे सूचित करने का कष्ट उठावे । किया । दीवान हाफिज का भी ब्रज पञ्चानुवाद हुमा । इनमें
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कलचुरि काल में
जैन धर्म की स्थिति
--प्रो० शिवकुमार नामदेव डिडौरी (मडला)
राजनैतिक दृष्टिकोण से प्राचीन इतिहास में कलचुरि के ताम्रपत्र तथा तामिल भाषा के पेरियपुराणम् से यह नरेश का महत्वपूर्ण योगदान है। ६ वी शताब्दी से लेकर सिद्ध किया है कि ये 'कलभ्र' प्रतापी राजा जैन धर्म के १० वीं शताब्दी तक इन नरेशों ने भारत के उ० प्रथवा पक्के अनुयायी थे। इनके तामिल देश में पहुँचने से जैन द. किसी न किसी भूभाग पर शासन किया।
धर्म की वहाँ बहुत उन्नति हुई । श्री प्रायगर का अनुमान कलचूरि नरेश धामिक दृष्टि से सहिष्ण थे प्रतः अन्य है कि ये 'कल' कलचुरि वंश की ही शाखा के होगे। धर्मों के साथ २ जैन धर्म भी उस काल में पल्लिवित हुआ। मध्यप्रदेश के कलचुरि नरेश जैन धर्म के पोषक थे। इसका कलचुरि काल में जैन धर्म, बौद्ध धर्म की अपेक्षा अधिक एक प्रमाण यह भी है कि उनका राष्ट्रकूटों से घनिष्ठ समृद्ध था। स्व० पूज्य ब्र० शीतलप्रसाद जी ने 'कलचुरि' सम्बन्ध था जो जैन धर्मावलम्बी थे। नाम का अन्वयार्थ उनके जैनत्व का द्योतक बताया था। त्रिपुरी के कलचुरि नरेश एवं जैन धर्म : उनका कथन था कि कलचुरि नरेश जैन मुनिव्रत धारण त्रिपुरी के कलचुरि नरेशो के काल में जैन धर्म का करते और कमों को नष्ट करके शरीर बंधनो से मुक्त होते भी प्रसार हुअा था। बहुगेवंद (जबलपुर) से एक विशाल थे। इसलिये वे कलचुरि कहलाते थे। 'कल' का अर्थ शरीर जैन तीर्थकर भगवान् शातिनाथ की अभिलेख युक्त मूति है जिसे वे चूर मूर (चूरी) कर देते थे। निःसंदेह कलचुरि प्राप्त हुई है। जिससे ज्ञात होता है कि साधु सर्वहार के वंश जैन धर्म का पोषक था। उसके प्रादि पुरुष सहस्ररश्मि पुत्र महाभोज ने शांतिनाथ मन्दिर का निर्माण करवाया कार्तवीर्य ने मुनि होकर कर्मो के नष्ट करने का उद्योग था तथा उस पर सूत्रधार ने श्वेत छत्र का निर्माण कराया ही किया था।'
था। कलचुरि नरेश प्रारभ मे जैन धर्म के पोषक थे। ५ वी
इसके अतिरिक्त त्रिपुरी से प्राप्त ऋषभनाथ की ६वी शताब्दी के अनेक पल्लव एवं पाण्डय लेखों में वरिणत प्रतिमा जबलपुर के हनुमानताल जैन मदिर की ऋषभनाथ' है कि 'कलभ्र' लोगों ने तामिल देश पर आक्रमण कर -का० इ०१०४१ क्रमांक ५६ फलक ४८ पृष्ठ ३१०, सी० चोल चेर एवं पाण्डवो को परास्त कर अपना राज्य स्था
ए. एस० पाई. पार० ग्रन्थ पृष्ठ ४०, पी० पार. पित किया था। प्रो. रामस्वामी प्रायंगर ने बेल्वि कुडी
ए. एस० पाई. डब्ल्यू पाई. १९०३-१९०४ पृष्ठ १-संक्षिप्त जैन इतिहास भाग ३ खण्ड ४ (दक्षिण भारत ५४-५५, एच० टी० एम० पृष्ठ १०७, खण्डहरों का
का मध्यकालीन अंतिम पाद का इतिहास) कामताप्रसाद वैमव पृष्ठ १७३ । जैन पृष्ठ
४-एच. टी. एम. पृष्ठ २०६ । २-स्टेडीज इन साउथ इंडियन जैनिज्म पृ० ५३-५६ । ५-वही पृष्ठ १६६।
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. अनेकान्त *
मूर्ति, पनागर' एव सोहागपुर से प्राप्त प्रबिका को प्रति- हैं। किन्तु जैन धर्म इन अत्याचारो को सहन कर जीवित मानों के अतिरिक्त सम्पूर्ण जबलपुर, दमोह, सागर, रीवा रहा, यह उसके अहिंसा सिद्धात की विशेषता थी। प्रादि जिलो मे इन मूर्तियों के बाहुल्य से जैन धर्म का विज्जलदेव के शासन काल में जैन धर्म उन्नत अवस्था व्यापक प्रभाव सिद्ध होता है।
मे रहा। सम्राट् स्वय धर्म की प्रभावना के लिये अग्रसर
रहते थे। उन्होंने स्वयं कई जैन मन्दिरों का निर्माण प्राचार्य मिराशी का अनुमान है कि सोहागपुर मे जैन
कराया था। उनका अनुकरण उनके सामतों और प्रजा मंदिर थे। सोहागपुर के ठाकुर के महल मे अनेक जैन
ने भी किया। वि० सं०१०८३ ई० में माणिक्य भट्टारक मूर्तियां सरक्षित हैं। इनमें से एक पार्श्वनाथ एव दूसरी
के निमित्त से कन्नडिगे मे एक जिन मन्दिर बना था। सुपाश्वनाथ से सम्बन्धित है।
सवत् १०८४ में कीति सेहने पोन्नति वेलहुगे और वेण्णेदक्षिगा कौशल के कलनुरि नरेश एवं जैन धर्म
यूर में श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर बनवाये थे। कलचुरियों
के शिलालेखो में जिन भगवान् की मूर्ति यक्ष, यक्षणियो दक्षिण कौशल के कलचुरियो के काल के अभिलेखो मे सहित अङ्कित रहती थी।" जैन धर्म का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। परन्तु उस क्षेत्र लिङ्गायतो के बसवपुराण में लिखा है कि विज्जल मे अनेको जैन प्रतिमाये, रतनपुर, धनपूर तथा मल्लार एव के प्रधान बलदेव जैन धर्मानुयायी थे। उनकी मृत्यु के ग्रारङ्ग आदि स्थलो से प्राप्त हुई है जिनके आधार पर इस पश्चात् उनके भांजे बसव की प्रसिद्ध एव सद्गुणो से प्रभाक्षेत्र मे जैन धर्म के प्रसार एव अस्तित्व का बोष होता है। वित हो विज्जल ने उसे अपना सेनापति एवं कोषाध्यक्ष
नियुक्त किया। बसव ने अवसर का लाभ उठाकर अपने कल्याण के कलबुरि नरेश एव जैन धर्म
धर्मप्रचार हेतु राजकोष का खूब धन खर्च किया। इस कल्याण के कलचुरि नरेशों के काल मे भी जैन धर्म प्रकार विज्जल ने हल्लेइज एव मधुवेय्य नामक दो जनमो का अस्तित्व प्रमाणित होता है। इस वंश के प्रमुख नरेश की प्रखि निकलवा ली। यह सुन बसव कल्याणी से भाग बिजल एवं उनके राज्य कर्मचारी जैन धर्म के पोषक थे। गया परन्तु उसके द्वारा भेजे गये जगदेव नामक व्यक्ति ने सन् १२०० ई० में कलचुरि राज्यमंत्री रेचम्पय ने श्रवण ।
विज्जल का अन्त कर दिया। बेलागोला मे शातिनाथ भगवान की प्रतिमा प्रतिष्ठित
यद्यपि कलचुरियो का राज्य कल्याणी में अल्पकालीन
था परन्तु धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था। उनके काल करायी थी। बिजल के काल में जैन धर्म का अस्तित्व घट
मे ही कर्णाटक मे लिङ्गायत संप्रदाय का प्रचार हुप्रा । गया एवं लिगायत सम्प्रदाय का प्राबल्य हुमा । 'सासव
जैनियो को इनके द्वारा बहुत त्रास सहन करना पड़ा परन्तु पुगण' एवं 'विजलवीर चरित' में जैन एवं जैव धर्मा
उस धर्म पर जैन धर्म का भी अत्यधिक प्रभाव पड़े बिना वलम्बी लोगो के मध्य हुए संघर्ष का वर्णन है।
शंवो ने धर्म प्रचार हेतु हठयोग का सहारा लिया । वे चमत्कारिक कृत्यो द्वारा जनता को मुग्ध करने लगे। उनमें एकात रामय्य प्रमुख था। उस समय अझलूर जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। रामय्य ने जैनियों द्वारा विजल से शिका- यत की गई। विज्जल ने रायय्य को समझा कर एव उसके सोमनाथ के मन्दिर को कुछ भेट देकर विदा किया। इस मन्दिर में जैनों पर अत्याचार के चित्र भी उत्कीर्ण ६-खण्डहरों का वैभव पृष्ठ १७४ । ७-एच. टी. एम. पृष्ट १०० ।
-मीडिइवल जैनिज्म-श्री मास्कर प्रानंद पृष्ठ २८१, जैनिज्म एंड कर्नाटक कल्चर-शर्मा १९४० पृष्ठ ३५ एवं मागे, कामताप्रसाद जैन द्वारा सक्षित जैन इतिहास भाग ३ खण्ड ४ के पृष्ठ ११५ पर उद्धत । E-वही पृष्ठ १६। १०-जैम ऐण्टीक्वेरी | पृष्ठ ६७-६८ ११-का०६० इ. ४१-क्रमा ४२ पद्य ३३ ।
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प्राचीन जैन
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प्राचीन जैन परपरा में व्रतधारी गृहस्थ को श्रावक, उपासक प्रथवा भरणुव्रती कहा जाता था। वे श्रद्धा एव भक्ति के साथ अपने भ्रमण गुरुजनों से निर्भय प्रवचन का श्रवण करते थे । अतः उन्हें श्राद्ध या श्रावक कहा जाता था । प्रर्थात् श्रद्धापूर्वक अपने गुरुजनो अथवा श्रमणो से निग्रंथ प्रवचन का श्रमण करने के कारण ब्रतधारी जैन गृहस्थ को श्राद्ध प्रथवा श्रावक कहते थे। उन्हें श्रमणोपाशक भी कहा गया है, क्योंकि वे श्रमरणो की उपासना करते थे। उन्हें धरती, देश विरत देश यमी तथा देश संपति की भी संज्ञा दी गई है। घर-गृहस्थी का त्याग न कर घर पर ही रहने के कारण उन्हें सागार प्रागारी गृहस्थ तथा गृही श्रादि नामो से भी जाना जाता था। श्रमण श्रमणी के प्राचार अनुष्ठान की ही भाँति श्रावकश्राविका के प्रचार अनुष्ठान की भी अनिवार्य अपेक्षा होती बी । श्रावक धर्म की भित्ति जितनी सदाचार पर प्रतिष्ठित होती है, श्रमण धम की नींव उतनी ही अधिक दृढ मानी जाती है ।"
नावकाचार :
श्रावक कुल मे उत्पन्न होने से जिन धर्म प्राप्ति में विश्वास किया जाता था । गृहस्थाश्रम में रहते हुए श्रावक के लिये श्रा (छोटे) व्रतो के पालन का विधान था। जैन परंपरा मे ये प्रव्रत पाँव प्रकार के माने गये हैं,
१- समराहा कहा ३ पृष्ठ २२८ ५ पृ ४७३। २- जैन साहित्य का वृद् इतिहास, भाग १, पृष्ठ २३० । ३-मा कहा ७, पृष्ठ ६, १८ ।
४- ३, पृ २२८ ५ पृ ४७३, ४८० ८ पृष्ठ ८१२१३ ६ ४ ६५३ ।
श्रावक
-डॉ० भिनकू यादव
यथास्थूल प्रतिपात विरमा, स्थूल मृषावाद विरमण स्थूल प्रदत्ता दान विरमण, स्वदार सन्तोष तथा इच्छा परिमारण व्रत। * श्रावकों के प्रचार का प्रतिपादन सूत्र कृताङ्ग पौर उपासक दशांग प्रादि श्रागम ग्रन्थो में बारह व्रतो के प्राधार पर किया गया है। इन बारह व्रतों में क्रमश: पाँच भगुव्रत और शेष सात शिक्षा व्रत है । यहाँ तीन गुरण व्रतों प्रौर चार शिक्षा व्रतों का ही सामूहिक नाम शिक्षा व्रत है ।
समराइच्च कहा में उल्लिखित है कि श्रावक श्रतिचारो से दूर रहता हुआ कुछ उत्तर गुण व्रतो को स्वीकार करता है। ये है दिगुणवत, प्रपोदिगुन तिर्यक श्रादि गुरण व्रत, भोगोपभाग परिणाम लक्षण गुरणव्रत ( उपभोग और उपभोग का कारण स्वर और कर्म का स्वाग), बुरे ध्यान से याचरित विरति गुण व्रत पापकपदेश लक्षण बिरति गुरण बन, अनर्थ दण्ड विरति गुरण व्रत तथा साक्ययोग का परिवर्जन और निवद्ययोग का प्रतिसेवन रूप सामयिक शिक्षा व्रत पोर दिक वन से ग्रहरण किया हुआ दिशा के परिणाम का प्रतिदिन प्रमाणकरण, देशावकाशिक शिक्षा व्रत, शरीर के सत्कार से रहित ब्रह्म५--कैलाशचन्द शास्त्री-जैन धर्म पृष्ठ १८४१६५, हीरालाल जन- भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृष्ठ २५५-६० मेहता जैनाचार, पृष्ठ ८६-१०४ ६२/२३/३ रविरमा प are पोलोव वासेहि बप्पा नावे मारणो एव चरण बिह
७-पाक वशांग, प्रध्याय १. सूक्त १२, १८ पंचा
लियंस सायं वास्तविहंगम् ..." ।
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* अनेकान्त .
पर्य ब्रत का सेवन, व्यापार रहित पौषष शिक्षा व्रत का लेना, राज्य के कानूनों को मड़ करमा, नकली तराजू-बाट मेवन तथा न्यायपूवक अजित एव कल्पनीय अन्न-पान प्रादि रखना, म्यूनाधिक तौलना या इस प्रकार के अन्य पवहार द्रव्यो का वेश, काल, श्रद्धा, सरकार प्रादि से युक्त तथा करना व्यभिचारिणी स्त्री से सम्पर्क स्थापित करना या परम भक्ति से प्रात्म शुद्धि के लिये साधुषों को दान और अविवाहिता स्त्री से संसर्ग करना, काम क्रीड़ा, दूसरे का अतिथि विभाग शिक्षा ब्रत आदि सभी उत्तर गुण के रूप विवाह करना, काम की तीब्राभिलाषा क्षेत्र व वस्तु की सीमा मे स्वीकार किये गये हैं।
का उल्लघन, द्विपद या चतुष्पद के प्रमाण का उल्लंघन, उपासक दशांग में श्रावकों को पांच प्रणबत और सात
मरिण मुक्ता प्रादि के प्रमाणों का उल्लंघन या इस प्रकार शिक्षा ब्रतों का नाम गिनाया गया है। यहाँ तीन गुण
के अन्य कार्य एव पदार्थ जो ससार भ्रमण के निमित्त ब्रतो और चार शिक्षा ब्रतो को ही सामूहिक रूप से शिक्षा
हैं।'१ श्रावक के पांच प्रणु व्रत, तीन गुण व्रत तथा चार
शिक्षा व्रत इन सभी के पांच-पांच अतिचार है.२ जिनका ब्रत कहा गया है।
विवरण निम्रलिखित प्रकार से प्राप्त होता है। समर। इच्ज कहा मे श्रावकाचार के अन्तर्गत पाँच प्रगा
स्थूल अहिमा अथवा स्थूल प्राणातिपात विरमण के ब्रतों के साथ २ तीन गुण व्रतों का भी उल्लेख है।'' इन्हे गुण ब्रत इसलिये कहा गया है कि इनसे प्रणुब्रत रूप
पांच-पांच प्रमुख अतिचार है-बध, बध, छविच्छेव (किसी
भी प्राणी को प्रङ्गोपांग काटना, प्रतिभार तथा अन्न-पान मूल गुणो की रक्षा तथा उसका विकास होता है । धार्मिक
विरोष, स्थूल मृषावाद विरमण के अन्तर्गत-सहसा क्रियाओं में ही दिन व्यतीत करना पौषधोपवास व्रत कहलाता है। इसे गृहस्थ को यथाशक्ति प्रत्येक पक्ष की अष्टमी
अभ्यारूपान, रहस्य अभ्याख्यान, स्वदार पौर म्वपति मंत्रएव चतुर्दशी को करना चाहिए जिससे उसे भूख, प्यास
भेद, मृषा उपदेम और कूट लेखकरण (झूठा लेख तथा प्रादि पर विजय प्राप्त हो। चौथे अपने गृह पर पाये हुए
लेखा-जोखा लिखना, लिखवाना प्रादि); स्थूल अदत्तादान मुनि मादि को दान देना अतिथि संविभाग व्रत है।
के अन्तर्गत-स्तेनात (चोरी का माल लेना), तस्कर
प्रयोग, राज्यादि विरुद्ध कर्म, कूट तौल-माप तथा तत्पतिश्रावक-अतिचार :
रूपक व्यवहार (वस्तुपों में मिलावट करना), स्वदार संतोष समराइच्च कहा मे गृहस्थ श्रावकों के लिये कुछ के अन्तर्गत-इत्वरिक परिगृहीता गमन (यहाँ इत्वर का अतिचारों का नाम गिनाया गया है जिनका पालन करना अर्थ अल्प काल से लगाया गया है अर्थात् पल्प काल के उनके लिये मावश्यक था । सासारिक भ्रमण अथवा सासा- लिये स्वीकार की हुई स्त्री के साथ काम-भ ग का सेवन रिक दुखों के कारणभूत प्रतिकार इस प्रकार हैं-बन्ध, करना), अपरिगृहितागमन (अपने लिये अस्वीकृत स्त्री के बंध, किसो अङ्ग का काटना, जानवरों पर अधिक बोझ साथ काम-भोग का सेवन), अनङ्ग क्रीड़ा, पर विवाह लादना, किसी को भोजन-पानी में बाधा डालना, सभा मे करण तथा काम भोग तीब्राभिलाषा; इच्छा परिमारण के किसी की निन्दा करना या किसी की गुप्त बात को प्रकट अन्तर्गत-क्षेत्र वस्तु परिमाण अतिक्रमण, हिरण्य सुवर्ण करना, अपनी पत्नी की बात दूसरों से कहना, किसी को परिमाण प्रतिक्रमण, धन धान्य परिमारण प्रतिक्रमण, झूठा उपदेश देना, जाली लेख लिखना अथवा चोरी से द्विपद-चतुष्पद परिम ण प्रतिक्रमण तथा कुप्य परिमाण लायी हई वातु खरीदना या चोरों से किसी का धन चुरवा अतिक्रमण प्रादि अतिचार गिनाये गये हैं। इसी प्रकार -समराहच्च कहा १ पृष्ठ ६२।
गुण बनो मे दिशा परिमाण के अतिचार-ऊध्र्व दिशा ६-उपासक दशांग, अध्याय १, सूक्त १२ ५८ ।
परिमाण अतिक्रमण अघोदिशा परिमाण पतिक्रमण, १०-समराइब कहा, पृष्ठ ५७; देखिए-हीरालाल जैन
तिर्यक दिशा परिमाण अतिक्रमण, क्षेत्र वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धा मारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगवान, पृष्ठ २६१- ११-समराइच कहा, १, पृष्ठ ६१-६२। ६२; मोहनलाल मेहता-जमाचार, पृष्ठ १०४.५। १२-मोहनलाल मेहता-जनाचार, पृ८६ से १२४ ।
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* अनेकान्त * (विस्मृति के कारण खुद गया हो अथवा कोई वस्तु प्राप्त और मात्सर्य (श्रद्धापूर्वक दान न देते हुए दूसरे के दान हुई हो तो उसका भी परित्याग करना); उपभोग परिभोग गुण की ईर्ष्या से दान देना) प्रादि प्रतिचार गिनाये गये परिमाण के अन्तर्गत–सचित्ताहार, मचित्तप्रतिबद्धाहार है जिसका पालन करना श्रावको के लिये अति आवश्यक प्रपक्वाहार, दुष्पक्वाहार तथा तुच्छौरुचि भक्षण; अनर्थ बताया गया है। दण्ड विरमण के अन्तर्गत-कन्दपं (विकार वर्धक वचन ऊपर समराडच्च कहा मे उल्लिखित अतिचारों को बोलना या सुनना), कौत्कुच्च (विकार वर्धक चेष्टा करना जैनाचार के अनुसार पाँचो प्ररणवतो के अन्तर्गत ही रखा या देखना), मौखर्य (असम्बद्ध एव अनावश्यक वचन जा सकता है । बन्ध, वध, किसी प्रङ्ग का काटना, जानवरों बोलना), सयुक्त धिकरण (जिन उपकरणो के संयोग से पर अधिक बोझ लादना तथा किसी को भोजन पानी में हिसा की संभावना बढ़ जाती है) और उपभोगपरिभोगा- बाधा पहुँचाना प्रादि अतिचार स्थूल अहिंसा अथवा स्थूल तिरिक्त (पावश्यकता से अधिक उपभोग एव परिभोग की प्राणातिपात विग्मरण के अन्तर्गत गिनाये गये है। इसी सामग्री का सग्रह) प्रादि अनिचार गिनाये गये हैं। शिक्षा प्रकार सभा मे किसी की निन्दा करना, विसी की गुप्त बात ब्रत के अन्तगत गिनाये गये अतिचारों में सामयिक शिक्षा को प्रकट करना, अपनी पत्नी की बात को दूसरों में कहना अत के मनोदुष्परिणवान, बागदुष्पणिधान, कायदुष्परिणधान, किसी को भूठा उपदेश देना तथा जाली लेख लिखना प्रादि स्मृत्यकरण, अनवस्थित करण (समय पुगहए बिना ही स्कूल मृषावाद के अन्तर्गत, घोनी से लयीहई वस्तको सामयिक पूरी कर लेना), देशावकाशिक के अन्तर्गत प्रान- खरीदना, चोरों से किसी का धन चुरवा लेना, राज्य के यन प्रयोग (मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तु लाना या कानून को भङ्ग करना, नकली तराजू-बाट रखना, न्यूनामंगवाना), प्रेषण प्रयोग (मर्यादित क्षेत्र से बाहर वस्तु धिक तौलना या इस प्रकार के अन्य व्यवहार को स्थूल भेजना तथा ले पाना मादि), शब्दानुगात (किसी को निर्धा- अदत्ता दान विरमण के अन्तर्गत, व्यभिचारिणी स्त्रीके रित क्षेत्र से बाहर खड' देखकर शब्द सकेगो से बुलाने को साथ सम्पर्क स्थापित करना, अविवाहिता स्त्री से ससर्ग चेटा करना), रुपानपत (सीमित क्षेत्र के बाहर के लोगो काम क्रोडा, दूसरे का विवाह करना तथा काम की तीन को हाथ, मह, सिर वादि का सबेत कर बुलाना) और अभिलाषा प्रादि म्वदार मतोष के अन्तर्गत; धोत्र और वस्त पुद्गल क्षेप (मर्यादित क्षेत्र से बाहर के व्यक्ति को अपना की मीमा का उल्लघन, द्विपद या चतुष्पद के प्रमागा का अभिप्रय बनाने लिये कागज, डुण प्रादि फेक कर।
उल्लघन और मणि-मुक्ता प्रादि के प्रमाणो का उल्लङ्गन इङ्गित करना); पौषधोपवम के अन्तर्गन अनिलेग्नित
प्रादि अतिचार इच्छा परिमाण ब्रत के अन्तर्गत माने गये दुष्पनिलेखित शय्या-सम्नारक (मकान और बिटौना का
हैं। यहाँ समराइच कहा मे केवल पांचो प्रणब्रतो के ही निरीक्षण ठीक ढड़ से न करना) प्रप्रम जित
हात तिचाश को गिनाया गया है जबकि अन्य प्राचीन जैन शय्या मम्तारक (बिना झाडे पोछे बिस्तर काम में लाना ग्रन्था के प्राधार पर मोहनलाल मेहता ने जैनाचार मे पाँचो प्रप्रति लेखित-दुष्प्रतिलेखित, उच्चार प्रस्रवण भूमि (मल- अणुः
अणुब्रतो के साथ तीन गुण ब्रत तथा चार शिक्षा व्रत के भी मूत्र की भूमि का बिना देखे उपयोग करना) पौर पौषधो. पाँच-पाँच अतिचार की बात कही है। ये प्रतिचार जैन पवास सम्यक् अनुपालनता (प्रात्म पोषक तत्वो का भली
धावकों को उत्तरोत्तर श्रमणत्व की पोर अग्रसित करने का भॉति गेवन न करना) पतिथिसंविभाग के अन्तर्गत
मार्ग प्रशस्त करते थे। इन्ही मार्गों पर चलकर सर्वजीबोसचित्तनिक्षेप (कपट पूर्वक साध को देने योग्य पानि पकारी श्रमरणत्व की सिद्धि तथा माक्ष पद प्राप्त किया जा को सचेतन वनस्पति प्रादि पर रखना)सचिनपिपान सकता था क्योकि श्रावक धर्म श्रमणत्व सिद्धि का प्रथम (पाहार पादिको सचित्त वस्तु मे ढकना), कालातिक्रम,
सोपान माना जाता था। परापदेश (न देने की भावना मे अपनी वस्तु को पगई कहना अथवा पराई वस्तु देकर अपनो बचा लेना प्रादि)
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महायान बौद्धदर्शन
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निर्वाण की कल्पना
बौद्धदर्शन मे निर्वारण की कल्पना का प्रत्यधिक महत्व है। बौद्ध साधक का अन्तिम लक्ष्य भी निर्वाण ही है । महायानी निर्वाण की कल्पना अपने ढङ्ग से ही स्वीकार करते हैं। वे मानते हैं कि हीनयानियो के निर्वाण मे केवल क्लेशावरण का क्षय ही होता है किन्तु वे कहते हैं कि क्लेशाकरण मिटने के बाद ज्ञेयावरण शेष रहता है । चाचार्य वसुबन्धु ने 'विज्ञप्तिमात्रता सिद्धि' में दो नेम्यो का उल्लेख किया है जो हैं - ( १ ) पुदुगलनंस्मय ( २ ) धर्मनैरात्म्य | पुद्गलनेरात्म्य क्लेशावरण का क्षय है। सत्व सत्कायदृष्टि के कारण नाना प्रकुशल कर्मो का उपार्जन करता है। राग द्वेष एव मोह रूप बहुतेरे क्लेशों को करता है तथा दुःखों के भार को उठाता है किन्तु जब सत्त्व बीतराग, वीतष एवं वीतमोह होता है तब उसके क्लेश होण हो जाते हैं । क्लेशों का प्रहीण ही फुगलनेरात्म्य है । २ इसे हीनयानी स्थापना माना गया है।
जब सस्व संसार के सब पदार्थों में शून्यता का ज्ञान प्राप्त करता है तब उसके सच्चे ज्ञान के ऊपर पड़ा हुआ प्रावरण स्वयमेव हट जाता है और वह मुक्ति को प्राप्त करता है। उस मुक्ति में उसे सर्वज्ञता की प्राप्ति होती है । इस प्रकार यह सर्वेशता की प्राप्ति ज्ञेयावरण के हट जाने से
१-३० विमला सिद्धि-विधिका कारिका १० । २- ३-३० डॉ० महेश तिवारी- विज्ञसिपत्र सिद्धि-पूड २७
- धर्मचन्द्र जैन, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र
ही होती है और ज्ञेयावरण सब ज्ञेय पदार्थों के ऊपर ज्ञान की प्रवृत्ति को रोकता है। घतः जब ज्ञेयावरण दूर हो जाता है तब सब पदार्थों में अप्रतिहत ज्ञान प्राप्त होता है मौर इसी से ही सर्वशता की प्राप्ति होती है ।
महाकान के मुख्यतः दो प्रसिद्ध मत हैं-विज्ञानवाद एवं सून्यवाद। इनको योगाचार एवं माध्यमिक मत से की भिहित किया जाता है। इन दोनों मतों में निर्धारण पर सविस्तार विचार किया गया है। अब हम पहले योगाचार मत मे निर्वारण की कल्पना पर संक्षेप में विचार करेंगे । योगाचार मत में निर्वारण :
विज्ञानवाद, जो बौद्ध चिन्तन का एक उत्कर्ष माना जाता है, उसमें जिस प्रकार निर्वारण के स्वरूप, निरूपण एवं स्थापन सम्बन्धी चर्चा की गई है उसे यहाँ कहेंगे । प्रालय विज्ञान की कल्पना योगाचार मत की एक विशेष देन है । 'प्रालय विज्ञान' वह तत्व है जिसमें जमत् के समस्त धर्मों के बीज निहित रहते हैं, उत्पन्न होते हैं तथा पुनः विलीन हो जाते हैं। प्रकरणों में घाता है कि 'श्रालय विज्ञान' के बिना ससार की प्रवृत्ति या निवृत्ति सम्भव नहीं है।" ससार की प्रवृत्ति का अर्थ है अन्यनिक्तवसभाग शरीर की प्रतिसन्धि का बन्ध और निवृत्ति का अर्थ है १. विज्ञानम्सरेण संसार प्रवृत्तिनि तिर्वा कुन्यते - विज्ञप्तिमा० पृष्ठ ८४ (डॉ० महेश तिवारी)
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. अनेकान्त . सोपषि शेष और निरुषि शेष निर्वाणधातु ।' यहाँ पाश्रय विज्ञान की व्यावृत्ति को निर्वाण कहा जाता है।' सर्व का अर्थ है समी धर्मों का बीज मालय विज्ञान । उसकी विज्ञान स्वभाव वासनामय मनोविज्ञान एवं रष्टियुक्त वासपरावृत्ति का पर्ण है द्विविध दोष्ठुल्य वासनापों के अभाव नामों की परावृत्ति ही निर्वाण कहा जाता है। यह वित्त से उसकी निवृत्ति होने पर कर्मण्यता और धर्मकाय स्वभावत: प्रभास्वर है, पर भागन्तुक क्लेशों से उपक्लिष्ट ऐक्यभाव के नाम से परिवर्तन होना। वही पुनः पाश्रय होता है। जिस प्रकार मल सहित वस्त्र मल के दूर हो जाने परावृत्ति है । वह किसके प्रहाण से प्राप्ति होती है ? इसको पर शुद्ध हो जाता है, जिस प्रक र सुवर्णमल के क्षीण हो दर्शाया गया है कि दो प्रकार के दोष्ठुल्य की हानि से । दो जाने पर शुद्ध रूप में स्थित हो जाता है, उसी प्रकार चित्त प्रकार से अभिप्राय है-क्लेशावरण दौष्ठुल्य और ज्ञेयावरण समस्त क्लेशो के प्रहीन होने से अपने परम परिशुद्ध प्रकृत दोष्ठुल्य । पाश्रय की प्रकर्मण्यता को दौण्ठल्य कहते हैं। प्रभास्वर रूप ने परिणत हो जाता है। यही परम परिवही क्लेशावरण एवं ज्ञेयावरण का बीज है।
शुद्ध विकल्परहित चित्त की अवस्था की प्राप्ति निर्वाण की पालय विज्ञान की व्यावृत्ति किस अवस्था में तथा प्राप्ति है। तथता, यून्यता, धर्मघातु मादि इसी के पर्याय कैसी होती है इसकी चर्चा करना उचित है। प्रकरण में हैं। कहा गया है कि इसकी (मालय विज्ञान की) व्यावृत्ति निर्वाण दो प्रकार का बतलाया गया है-सोपधिशेष पहत्व की अवस्था में होती है। क्षयज्ञान तथा अनुत्पत्ति निर्वाण धातु तथा निरुपधिशेष निर्वाण धतु । इनमें सोपभि शान से महत्व की प्राप्ति होती है। उस अवस्था में प्रालय शेष निर्वाण दृष्ट धर्म वेदनीय है तथा निरुपषिशेष निर्वाण विज्ञान स्थित समस्त दौष्ठुल्य का निरवशेष प्रहाण हो मरणोत्तर प्राप्त होता है। जो क्लेशोपक्लेश चित्त ही के जाता है तथा भविष्य में उनकी उत्पत्ति की संभावना नही परिणाम शेष से पथाशक्ति वासनावृत्ति का लाम होने से रह जाती है। यही महत्त्व प्रर्थान् निर्वाण की अवस्था है। प्रवृत्त होते हैं, उनके पालयविज्ञान में स्थित जो बीज हैं, वे
लक्तावतार सूत्र में कहा गया है कि विकल्पमनो- उनके साथ होने वाले क्लेश प्रतिपक्ष मार्ग से नष्ट हो जाते १-तत्र संसारप्रवृत्तिः निकायसमागान्तरेषु प्रतिसन्धि बधः।
-है। बीज के नष्ट होने पर पुनः उस पाश्रय से क्लेशों की निवृत्तिः सोपषिशेषो निस्पषिशेष निर्वाण पातु ।
उत्पत्ति नहीं होती है, अत: सोपधिशेष निव रिण की प्राप्ति
होती है। इसे ही जीवन्मुक्ति कहा जा सकता है। यह २-मायोऽत्र सर्वबीजकमालयविज्ञानम् । तस्य परावृत्ति
पालयविज्ञान का पाश्रय परावृत्तिपूर्वक विमल विज्ञान में रया दोष्ठुल्य व्यवासनामावेन निवृत्ती सत्यां कर्मण्यता
रूपान्तरण या परिणति है। धर्मकायाद्वयज्ञानमावेन परावृत्तिः । सा पुनरामय परावृत्तिः
पुनः पूर्वकों द्वारा पाक्षिप्त जन्म के नष्ट हो जाने से कस्य प्रहाणात प्राप्यते ? प्रत माह-द्विषा गोष्ठुल्य -विकल्पस्य मनोविज्ञानस्य श्यावृत्ति निर्वाणमित्युच्यते।' हानितः।' विति, क्लेशावरण दौष्ठुल्यं ज्ञेयावरण -संकाव. पृष्ठ ५१ गोष्ठुल्यं । दौठुल्यं पापयस्य कर्मण्यता । तत् पुनः २-सर्वविज्ञान स्वमाव वासनालय मनोविज्ञान सृष्टि वासना क्लेश यावरणयोः बीजम् ।'-वही पृट १००
परावृत्ति निर्धारणमित्युच्यते।-बही पृष्ठ ४१ -तस्य व्यावृत्तिरहरवे तवाश्रित्य प्रवर्तते।'–त्रिशि० -वही गायो ७५३-५६ (अध्याय १०) पृष्ठ १५६-५७ का०५
४-विकल्पस्या प्रवृत्तिरनुत्पादो निर्वाणमिति पदामि। ४-'कि पुनरर्हत्त्वं यद्योगावहनियुच्यते ? कस्य पुनर्योगाद
-वही पृ१ हनित्युस्यते ? क्षयज्ञानानुत्पाद जान लामात् । तस्या ५-सयता शून्यताकोटि निर्वाणं धर्मधातुकम् । झवस्थायामालपविज्ञानाधित वौष्ठल्य मिरवशेष प्रहा- कायं मनोमयं चित्रं चित्तमात्रं वदाम्यहम् ॥ बाबालय विज्ञानं व्यावृत्तं भवति सेब चाहंदवल्या। -विज्ञहिमा. पृष्ठ ४४
६-२० विज्ञप्तिमा० पृष्ठ ८७ (गे• तिवारी)
वही
८०
- पुन अयशानामुल्य निया
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. अनेकान्त .
तथा उसके उपरान्त अन्य जन्म का प्रतिसन्धान न होने से है। उनके अनुसार निर्वाण न तो छोड़ा जा सकता है निरूपविशेष निर्वाण की प्राप्ति होती है। इसके साभ से (माहीणम्), न तो प्राप्त किया जा सकता है (असम्प्राप्तम्) भवचक्र की शृङ्खला सदा के लिये बट जाती है अर्थात् यह निर्वाण न उच्छेद है और न शाश्वत है। उनका कहना है जो कहा गया था कि "कर्म वासनायें दो ग्राहों की वासना कि इसका न तो निरोष (अनिरुद्धम्) होता है और न ही से युक्त होकर पूर्व विपाक के क्षीण होने पर अन्य विपाक यह उत्पन्न होता है। को उत्पन्न करती "-वह क्रम यहाँ भाकर समाप्त हो
प्राचार्य चन्द्रकीति ने नागार्जुन की 'माध्यमिकजाता है।"
कारिका' पर 'प्रसन्नपदा' नाम की सुन्दर व्याख्या की है। पर इस पवस्था की प्राप्ति कैसे होती है ? इस सम्बन्ध
इस सम्बन्ध में वह अपनी टीका में पूर्वपक्ष को प्रस्तुत में कहा जाता है कि जब भद्वत लक्षण वाली विज्ञप्तिमत्रिता
करते हुए कहते हैं कि यदि निर्वाण में रागादि के समान में योगी का चिस स्थित हो जाता है तो सारी विकला
(कुछ भी) प्रहाण नही होता और न ही इसमें श्रामण्यफल वासनाये प्रहीण हो जाती है तथा चित्त स्वचित्त धर्मता में
के समान (कुछ भी। प्राप्त होता है और न ही इसमें स्कन्ध स्थित हो जाता है। इस अवस्था में क्लेशावरण तथा
पादि के समान कोई उच्छेद होता है और न ही इसमें ज्ञेयावरण नामक दो दौष्ठुल्य नष्ट हो जाते है तथा इनकी
प्रशून्यत्व के समान कोई नित्यत्व है तथा स्वभाव से वह हानि से प्राश्रय परावृत्ति हो जाती है। यह पाश्रय
प्रनिरुद्ध पनुत्पन्न, सर्वप्रपञ्चों का उपशम कहा गया है तो परावृत्ति ही प्रालय विज्ञान की परम विशुद्ध रूप विमल
ऐसी निष्प्रपञ्च अवस्था में क्लेश कल्पना कैसे की जा सकती विज्ञान में परिणति है। इसी को व्यक्त करते हुए कहा
है जिनका (क्लेशों का) प्रहाण निर्वाण है अथवा वहाँ गया है कि
स्कन्ध कल्पना क्या हो सकती है जिसमें स्कन्धों का निरोष स एवानात्रवो चातुरचिन्त्यः कुशलो ध्र वः ।
हो। जब तक ऐसी कल्पनायें हैं तब तक निर्वाण की प्राप्ति सुखो विमुक्तिकायोऽसौ धर्माख्योऽयं महामुनेः ॥
कैसे हो सकती है क्योंकि सब प्रकार के प्रपञ्चों के दूर पर्यात् वही मनास्रव घातु है जो पचिन्त्य, कुशल धव,
होने से ही उसका अधिगम होता है प्रथवा यदि कोई कहे सुख स्वरूप तथा (बोषिसत्त्व का) विमुक्तिकाय तथा महा
कि यद्यपि निर्वाण में क्लेश या स्कन्ध नहीं है तो भी ये मुनि बुद्ध का धमकाय है। सखार के परित्याग से, क्लशा निर्वाण के पहिले होते हैं इसलिये उनके विनाश से निर्वाण का प्रभाव हो जाने से, सभी धर्मों में विभुत्व की प्राप्ति
होता है। होने से धर्मकाय कहलाता है। संक्षेप में यही योगा. चारियों की निर्वाण या विमुक्ति की कल्पना है।
पाचार्य चन्द्रकीर्ति इसका उत्तर देते हैं कि यह सब माध्यमिक मत में निर्वाण :
मिथ्याग्राह है क्योंकि यदि निर्वाण के पहले स्कन्ध प्रादि पाचार्य नागार्जुन ने, जो माध्यमिक सम्प्रदाय के
स्वभावतः सत्य होते तो उनका न होना (प्रभाव) सम्भव
नही। इसलिए निर्वाण के अभिलाषी को इस प्रकार की अग्रणी प्राचार्य हैं. अपनी प्रसिद्ध कृति 'मध्यमक शास'
कल्पना नहीं करनी चाहिए। वास्तव में निर्वाण और (माध्यमिक-कारिका) में निर्वाण की विशदतया परीक्षा की
संसार जो दो सीमायें (कोटियां) है उन दोनों में सुसूक्ष्म १-बहो पृष्ठ ८८ २-० विशि० का० २८
१-०म० शा प्रकरण २५ ३-वही का० २६ ४-बही का० ३०
२-प्रमहोणमसम्प्राधमनुचित्रमशाश्वतम् । ५-संसारपरित्यागात् पवनुपसंक्लेशत्वात् सर्वधर्मविभुत्व. अनिवड मनुत्पासमेतनिरिणमुख्यते ॥ लामतन धर्मकाय इत्पुण्यते । -विज्ञप्तिमा० पृ.१०२
-म०मा० २५/३
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२०]
अन्तर भी नहीं है।' इसलिये निर्वाण में न तो किसी बीज का प्रहारा होता है और न ही निरोध होता है। वास्तव में निर्वाण कल्पनाओं का पूर्ण रूप से निरवशेष क्षय है। भगवान् ने 'समाधिराजसूत्र' में कहा है कि धर्मो की (द्रव्य सत्की) निवृत्ति नहीं होती और जो धर्म नहीं हैं (द्रव्य) वे कदापि होते ही नहीं है। प्रतः जो पस्ति नास्ति की कल्पना में लगे है उनका दुःख कभी भी शान्त नहीं हो सकता । समाधिराज की इस गाथा का अर्थ श्राचार्यं चन्द्रकीति बतलाते हैं कि निवृत्ति में प्रर्थात् निरु पविशेष निर्धारण में धर्मक्लेश, कर्म, जन्म, लक्षणों वाले धर्मों या स्कन्धों का सर्वथा प्रभाव होने से धर्मों का अस्तित्व प्रसिद्ध होता है। यह सब निकायों का मत है ( एवं च सर्वबादीनामभिमतम् ) और के धर्म निर्वाण में ही नहीं जैसे प्रदीप के जलने पर अन्धकार में रज्जु में प्रतिभासित सर्प का भय दूर हो जाता है । तत्वतः वे वस्तु हैं ही नहीं । उसी प्रकार क्लेश कर्म जन्म वाले धर्म किसी समय इस सांसारिक अवस्था में भी तत्वतः विद्यमान नहीं हैं। अन्धकार भवस्था में भी स्वरूपतः रज्जु में सर्प नहीं है जैसे कि areafter ai at rधकार या प्रकाश में शरीर या चक्षु से ग्रहण किया जाता है उसी प्रकार इसको ग्रहण नही किया गया है ।
यदि कोई पूछे कि तो फिर संसार क्या है तो इसका उत्तर यह है कि सत्-ग्रह से ग्रसित बाल जन को प्रसत् भावों में सत् भाव की प्रतीति ही संसार है, जैसे तैमरिक दोष वाले को असत् केश, मच्छर प्रादि देखने में भाते हैं उसी प्रकार उसे यह संसार नजर धाता है ।
चाचार्य नागार्जुन कहते हैं कि यदि निर्वाण को भाव रूप माना जायेगा तो निर्धारण में जरा मरण का प्रसङ्ग आ जायेगा क्योंकि कोई भी भाव बिना जरामरण लक्षण के नहीं होता है। इस पर प्राचार्य चन्द्रकीर्ति टीका करते हुए निकायान्तरों के मत रखते हैं। कुछ एक भाववादी जो -नियखिस्य च या कोटि कोटि सस्य व न तयोरन्तरं किचित्सूक्ष्ममपि विद्यते ।।
-म. शा. २५/२० पृष्ठ २२८, २३५
अनेकान्त •
२- ३० म. शा. पृष्ठ रएक ३-यही
निर्वाण में माक का अभिनिवेश करते हैं के कहते हैं कि निर्वाण जलप्रवाह के रोकने वाले सेतु की तरह कर्म से उत्पन्नसन्तानप्रवृत्ति का निर्मित रोष (रोकना) करने arer निरोधात्मक पदार्थ है । कोई भी प्रभावात्मक (विद्यमान स्वभाव कामा) धर्म ऐसा काय ( रोष कार्य) करता हुआ दिखाई नही देता । घतः उन निकायों के अनुसार निर्वारण भावरूप है ।
अचार्य चन्द्रकीति इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (सूत्रों में बुद्ध द्वारा) निर्धारण को नन्दोराग सहगत तृष्णा का क्षय बतलाया गया है । अब यह जो लयमात्र है सो 'भाव' कैसे हो सकता है तथा यह भी जो कहा गया है कि "बस की विमुक्ति दीपक के चुभने के समान है" (प्रोत स्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतसः ) " । उसमें दीपक का बुझना (निवृत्ति) भाव नही कहा जा सकता ।
पूर्वपक्ष का कहना है कि यहाँ तृष्णा का अय तृष्णा क्षय नही है किन्तु निर्वाण में तृष्णा का क्षय होता है । प्रदीप का तो केवल दृष्टान्त मात्र दिया गया है। इसमें की जिसके होने पर (तृष्णाक्षय होने पर) चित्त का विमोक्ष होता है, यह जानना चाहिये ।
प्राचार्य मानकदियों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'निर्वाण' भाव हो हो नही सकता क्योकि ऐसा होने पर जरामरण लक्षण का प्रसङ्ग प्रायेगा। जो कुछ भाव है (जो सदुवस्तु है, उत्पन्न है) उसका जरामरण श्रवश्यमाको है। फिर उसका निर्वाण नही हो सकता जैसे विज्ञान ( प्रतिसन्धि जन्म) का जरामरण अवश्यम्भावी है । भाव के साथ जरामरण लक्षरण के प्रव्यभिचारित्व को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि ऐसा कोई भाव नही है जो जरामरण से विरहित हो पोर जरामरस विरहित मान तो प्रकाश कुसुम की तरह होता ही नहीं ।
भाव का निरीक्षण करते हुए कार्य नागार्जुन कहते हैं कि यदि निर्वाण को प्राप भाव मानेंगे तो वह संस्कृत हो जावेगा क्योंकि कोई भी ऐसा भाव नहीं जो संस्कृत है।* १-३० मा. शा. पृष्ठ २२६ २
यदि निर्वाणं निर्वाण संस्कृतं म नासंस्कृतो हि विद्यते
कश्चन M मा. २५/५ पृष्ठ २३०
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• अनेकान्त -
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२१
इसके अतिरिक्त यदि निर्धारण भाव है तो वह अनुपादाय इसलिए यह युक्त नहीं है। कैसे है. (किसी के कार पन् +प्राधित), क्योंकि कोई यदि कोई कहे कि निर्माण पक्षाव है तो वह फिर भाव मनपादाय नहीं होता है। भाववादियों को उत्तर देत अनुपादाय (किसी के ऊपर अन्+प्राश्रित) कैसे हो सकता हए प्राचार्य कहते हैं कि यदि निर्वाण भाव है तो वह है क्योकि कोई भी ऐसा प्रभाव नहीं है जो अनुपादाय उपादाय (द्रव्य) होगा प्रर्षात् वह अपने कारण सामग्री हो। माध्यमिक कहता है कि किसी भी समाचबा मनिपर पाश्रित होगा किन्तु उपादाय निर्वाण की ब त इष्ट नही त्यता की प्रजसि भाव को लेकर होती है। रविवारण (जो है परन्तु अनुपादाय निर्वाण की बात कही जाती है । अतः ही नहीं) उनकी अनित्यता की बात कोई नही कहता यदि निर्वाण एक भाव है तो वह अनुपादाय निर्वाण कैसे है। लक्षण को प्राधित कर लक्ष्य की प्राप्ति होती है। होगा, इसलिए निर्वाण भाव होने के कारण विज्ञान आदि इसलिए प्रभाव की कल्पना भी उपादाय (स पेक्ष) होती की तरह उपादाय होगा, अनुपादाय नहीं। क्योंकि कोई है। यदि निर्वाण सभाब है तो अनुपादाय कैसे हो सकता भाव अनुपादाय नहीं होता। इसका कारण बतलाते हुए है। वह तो उपादाय ही होगा क्योकि बह प्रभाव है, नागार्जुन कहते हैं कि कोई भाव अनुपादाय होता ही मही विनाश धर्म है। इसी से ही प्राचार्य ने कहा है कि कोई नानुपादाय कश्चिद मावो हि विद्यते)।
भी प्रभाव अनुपादाय नहीं हो सकता। पूर्वपक्ष कहता है पूर्वपक्षी पूछता है कि यदि उपरोक्त दोषो के कारण
कि यदि भाव अनुपादाय नही है (वह उपादाय है) तो क्या
बन्ध्या पुत्र प्रादि प्रभाव भी किसी के उपादाय है । पाचार्य निर्वाण भाव नही है तो क्या निर्वाण प्रभाव है जिसमे कनेश जन्म जी निवृत्तिमात्र होती है। प्राचार्य कहते है कि
इसका उत्तर देते हुए कहते है कि बन्ध्या पुत्र प्रादि को यह भी युक्त नही है क्योकि यदि निर्वाण भाव नहीं है तो
प्रभाव किसने कहा है क्योंकि भाव ही यदि नही हैं तो प्रभाव कैसे होगा, चूकि जहां भाव नही है तो वहाँ प्रभाव
प्रभाव सिद्ध ही नहीं होता। भाव के अन्यथा भाव को ही भी नही है।
लोग अभाव कहते हैं। अतः बन्ध्या पुत्र आदि का प्रभाव
तो सिद्ध ही नहीं होता। यदि निर्वाण क्लेश-जन्म का प्रभाव है तो निर्वाण क्लेश जन्म की पनित्यता कहा जायगा। कारण कि मनि- पूर्वपक्ष पूछता है कि यदि निरम माव भी नहीं है, त्यता और कुछ नही क्लेश जन्म का प्रभाव है प्रतः प्रभाव भी नहीं है तो फिर निर्वाण है क्या ? प्राचार्य निर्वाण अनित्यता होगा और यह इष्ट नहीं है क्योंकि नामागुन उत्तर देते हुए कहते हैं कि भगवान् तथागत ने फिर तो बिना यत्न के ही (अर्थात् बिना शील, समाधि, कहा है यह जो ससार, जन्म परम्परा (माजवजनीभाव) प्रज्ञा और भावना के ही) मोक्ष का प्रसङ्ग पा जावेगा। है वह उगदाय (माश्रित) एक प्रतीत्य (सापेक्ष) है किन्तु
-- जो निर्वाण है वह प्रतीत्य एवं अनुपादाय है। चन्द्रकीति १-मावश्न यदि निर्वाणमनुपादाय तत्कथम्
ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि यह जन्म परम्परा निरिणं मानुपावाय कश्रिद मावो हि विद्यते।
(सत्त्वों का गमनागमन भाव) है वह कभी हेतु प्रत्यय -..शा. २५६, पृष्ठ/२३० मामयीनोपाश्रित होकर प्रज्ञाप्त होता है यथा दीर्घ वस्तु २-पवि मावोन निर्वाणममावः कि भविष्यति निर्वावं या मावोन नामावस्ता विद्यते।
१-यचमावत्र निवारणमनुपाबावसकवर -.शा. २५/७ पृष्ठ २३० मिमि घमावोऽस्ति पोऽनुपादाय विद्यते ।। ३-लेशजन्मनोरमावो निर्वाणमिति चेत्, एवं तहि क्लेश
-म. शा. २५/- पृष्ठ २३१ जन्मनोरनित्यता निर्वाणमिति स्यात्। अनित्यतयहि २-य माजवंजवोगाव उपावाय प्रतीत्य वा क्लेशचन्ममोरगावो नाम्पा प्रतः प्रनित्यतंब निरिणं सोप्रतीत्यानुपावाय निर्वालमुपदिश्यते। स्वात।-म. शा. पृष्ठ २३०-३१
-म. शा. २५/६ पृष्ठ २३१
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२२ ]
. अनेकान्त . की प्रज्ञपि ह्रस्व वस्तु के सापेक्ष है। कभी-कभी हेतु जनित है। यदि कोई भाव नाम की वस्तु हो तभी उसके प्रतिप्रज्ञप्त होता है जैसे रोशनी दीपक से, अंकुर बीज से । इस षेध रूप में निर्वाण न भाव की कल्पना की जाय अथवा प्रकार जब कोई वस्तु प्रतीत्य एव उपादाय सिद्ध होती है यदि कोई प्रभावात्मक वस्तु हो जिसके प्रतिषेध के रूप में और इस जन्म-मरण परम्परा की सन्तति जब अप्रतीत्य न प्रभाव निर्वाण की कल्पना की जाय। जब भाव और एवं अनुपादाय या अप्रवृत्त होगी तब हो निर्वाण व्यवस्था- प्रभाव दोनों ही नहीं है तो उन दोनों के प्रतिषेधात्मक तत्व पित होगा किन्तु भाव या प्रभाव की प्रवृत्तिमात्र कल्पना 'न भाव और न अभाव' हो ही नहीं सकते। इसलिये नहीं की जा सकती। इसलिए निर्धारण न भाव है और न निर्वाण को यह कल्पना कि वह 'न भाव' और 'न अभाव' प्रभाव है।
है, नही ठहरती। पौर भगवान् ने तो भव और विभव के प्रहारण को
यदि निर्वाण 'न भाव' और 'न प्रभाव' रूप हो तो भी बात कही है। अतएव निर्वाण न तो भाव है और न
यह न उभयरूप निर्वाण कैमे ग्रहण किया जाता है', क्या प्रभाव है। और यदि यह कहा जाय कि निर्वाण भाव
इसका कोई प्रतिपत्ता (जाना) है । यदि है तो ऐसा होने से
निरिण में भी प्रात्मा होगी जो इष्ट नहीं है क्योकि निर् और प्रभाव है तो फिर भाव भी मोक्ष होगा और अभाव भी मोक्ष होगा। फिर तो सस्कारों का प्रात्म लाभ भी
+उपादान (उपादान रहित) वस्तु कोई प्रात्मा होती ही मोक्ष होगा और संस्कारो का निगम भी मोक्ष होगा।
नही। यदि विज्ञान से ऐसा प्रकाशित होना कहे तो यह
भी युक्त नहीं है क्योकि विज्ञान निमित्तालम्बन होता है लेकिन संस्कारों का होना मोक्ष नही माना जा सकता।
पौर निर्वाण अनिमित्त होता है। प्रतएव निर्वागग विज्ञान अतः यह प्रयुक्त है कि निर्वाण भाव और प्रभाव है।
से भी नहीं जाना जा सकता । ज्ञान से भी यह नहीं जाना यदि निर्वाण दोनो भाव और प्रभाव है तो निर्वाण
जा सकता क्योंकि ज्ञान शून्यतालम्बन होता है और शून्यता मंस्कृत होगा क्योकि वह भाव और प्रभाव संस्कृत माने
अनुत्पाद रूप ही होती है तब उसके प्रविद्यमान स्वरूप से गये हैं। भाव स्वहेतु प्रत्यय सामग्री के कारण सस्कृत है
तथा ज्ञान के सर्वप्रपञ्चासीन होने से न भाव और न और प्रभाव के सापेक्ष (प्रतीत्य) होने के कारण संस्कृत है
प्रभाव रूप निर्वाण कैसे ग्रहण किया जा सकता है। अत: जैसे जरामरण जन्म के प्रतीत्य (शापेक्ष) होने से संस्कृत
निर्वाण 'न भाव' 'न प्रभाव' रूप नही हो सकता।
प्राचार्य नागार्जुन ने निर्वाण की कल्पना में इतना तक यदि यह कहा जाय कि निर्वाण न तो भाव है और
कहा है कि ससार और निर्वाण मे काई अन्तर नहीं है। न प्रभाव है तो जब भाव या प्रभाव की सिद्धि होगी तभी
बुद्ध के होते हुए भी यह कल्पना नहीं की जा सकती कि ता यह सिद्ध होगा कि निर्वाण न भाव है और न प्रभाव
बुद्ध है और उनके परिनिवृत्त होने पर भी यह नहीं कहा १-'स चायमाजवंजवी मावः कदाचिन् हेतु प्रत्यय सामग्री
जा सकता कि वह हैं या नहीं। अत: संसार और निर्वाण माश्रित्य प्रस्तीति प्रज्ञप्यते दीर्घह्रस्ववत् ।'
१-नवा मावो नैव मावो निर्वाणमिति साञ्जना।
-वही पृष्ठ २३१ प्रमावे व भावे च सा सिद्ध सति सिद्धयति । २-प्रहारणं चावीच्छास्ता मवस्य विमवस्य
-मा. शा. २५/१५, पृष्ठ २३३ तस्मान्न मायो नामावो निर्वाणमिति युज्यते ॥
२-नवामावो नेव भावो निर्वाणं यदि विद्यते। -म. शा. २५/१०, पृष्ठ २३२ नेवाभावो नैव माव इति केन तदज्यते ॥ ४-२०-म. शा. २५/११, पृष्ठ २३२
-वही २५/१६, पृष्ठ २३३ ४-भवेदमावो मावश्न निर्वाणमुमयं कथम् ।
३- संसारस्य निर्वाणाटिकचिवस्ति विशेषणम् । प्रसंस्कृतं निर्वाणं भावाभावो च संस्कृती।।
न निर्वाणस्य संसारास्किचिदस्ति विशेषणम् ।। -म. शा. २५/१३ पृष्ठ २३३
-म. शा. २५/१६, पृष्ठ २३३
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• अनेकाम *
में विचार करने पर कोई अन्तर नहीं है । वास्तव में वह वायु में प्रथवा बायुगगन में, गगन में कुछ न होने के कारण एक ही है और इसी को लेकर भगवान् ने कहा है कि हे (गगनस्याकिञ्चनत्वात्) प्राधार रहित (अस्थान योगेन) भिक्षुषों । इस जानि जरामरण ससार का कोई पन्त नहीं स्थित है तब सब निमित्तों के अनुलब्ध होने के कारण कही है । पतः समार और निर्वाण में कोई विशेष प्रनर नहीं बुद्धो ने कही भी मनुष्यों या देवों में या किसी भी मनुष्य है, यह सिद्ध होता है। प्राचार्य और भी कहते है कि या देव को न किसी सांक्लेशिक (क्लेशयुक्त) और न वैयनिर्वाण को कोई चरम सीमा (कोटि) नहीं है, न ही समार वदानिक (विशुद्धि युक्त) धर्म की देशना दी है, ऐसा जानना को कोई सीमा है इसलिए दोनों में सुपूक्ष्म अन्तर भी नही चाहिए। है ।' इसलिए निर्वाण के बाद क्या होता है अयवा ससार जमे कि 'आर्य तथागतगुह्य सूत्र' मे कहा गया है अन्तवान् है या मनन्तवान् है, शाश्वत है या अशाश्वत है कि हे शान्तिमति ! जिस रात्रि मे तथागत ने अनुत्तर इत्यादि पूर्वान्त और अपरान्त को लेकर सब (मिथ्या) सम्यक सम्बोधि का लाभ किया और जिस सात्रि में अनु. प्रिया बतलाई गई है।
पादाय परिनिर्वाण को प्राप्त होगे, इसके बीच तथागत के जब धर्म शून्य है तब उनमे अनन्तवान् पोर पन्तवान् मुख सेन नो एक भी अक्षर निकला है और न निकलेगा। धर्गे की कल्पना कैसे हो सकती है तथा उममे कैसे 'न नाना प्रधिमुक्ति बाले, नाना धातु प्राशय वाले सभी सत्त्व अनन्त' और 'न अन्त' हो धर्म हो सकता है। इसी प्रकार अपने-अपने अनुरूप तथागत के विविध वचनों को समझते उसमे क्या शाश्वत, क्या प्रशाश्वत गौर अगाश्वत तथा न है। अत: उनकी देशना पृथक-पृथक होती है कि भगवान् उभय (नाशाश्वत और न शाश्वन) हो सकते हैं । यहाँ पूर्व ने हमारे लिये यह देशना को है और हम तथागत की पती पूछता है कि यदि इस प्रकार प्राप निर्वाण का प्रति- देशना सुनते हैं । तथागत तो कल्प विकल्प नहीं करते है। पंध करते हैं तो महाकरुणा से युक्त भगवान् ने यह जो हे शान्तिमति, तथागत तो कल्प विकल्पों के जाल वासना सत्वों को अपनी प्रिय सन्तान के समान समझ कर निर्वाण से रहित होते हैं । और भी कहा गया है-'जो धर्मों को प्राप्ति की देशना दी है वह सब व्यर्थ होगी। इसका उत्तर प्रवाच्य, अनक्षर, सर्वशून्य शान्तादि निर्मल रूप जानता है देते हुए प्राचार्य कहते है कि जब कोई धर्म (स्वभावत.) वही कुमार 'बुद्ध' कहा जाता है। हो अथवा धर्म के सुनने वाले हों अथवा धर्म का कोई उप- यहाँ पूर्व पक्षी का कहना है कि यदि कभी किसी को वेश देने वाला भगवान् बुद्ध हो तो यह हो सकता है किन्तु किसी भी धर्म की देशना बुद्ध ने नहीं की है तो ये नाना जो धर्म सब प्रवृत्तियों का उपशम है, जो सब प्रपञ्चो का (बुद्ध) प्रवचन कैसे जाने जाते हैं। प्राचार्य कहते हैंउपशम है, शान्त है. ऐसी अवस्था में बुद्ध द्वारा किसी भी विद्या निद्रा में लीन स्वप्न देखने वाले प्राणियो की तरह धर्म की कही भी, किसी को भी देशना नहीं की गई है। यह स्वविकल्पोत्पत्ति है कि सकलभिभुवन, देवों, प्रसुगे
प्राचार्य चन्द्रकीति कहते है कि जब भगवन् बुद्ध सर्व और मनुष्यो के स्वामी भगवान् (बुद्ध) हम सबके लिये इस प्रपञ्वोशम एव शिवरूप निर्वाण में प्राकाश मे हसरानो धर्म को देशना देते है, जैसे कि भगवान ने कहा हैकी तरह स्वपुण्य ज्ञान सम्भार रूप पखमोचन से उत्पन्न कुशल, अनास्रव धर्म का तथागत प्रतिविम्ब मात्र है। १-३० म. शा. २५/२०, पृष्ठ २३५
न यहाँ तथता है, न तथागत है और सम्पूर्ण लोक मे बिम्ब २-पर निरोधावन्तायाः शाश्वताधाच हव्यः ।
१-० म. शा. पृष्ठ २३६ निर्वाणमारान्तं च पूर्वान्तं च समाश्रिताः ।।
२-वही -म. शा. २५/११, पृष्ठ २३५ ३-वही ३-सर्वोपलम्मोपशमः प्रपञ्चोपशमः शिव ।
४-प्रविद्यानिद्रानुगतानां देहिनां स्वप्नायमानानामिव स्वन क्वचित्कस्यचित्कश्चिद्धर्मो बुद्धन देशितः ॥
विकल्पाभ्युदय एष:-अयं भगवान् सकलत्रिभुवन सुरासुर -म. शा. २५/२४, पृष्ठ २३६ नरनाथः इम धर्ममस्मभ्यं वेशयतीति । -वही
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२४ ।
* अनेकान्त - मात्र ही दिखलाई पड़ते है। और भी “तचागत वाम् मुह्य जो निर्वाण को भाव प में खोजते हैं वे संसार को परिवर्त" में विस्तार से कहा गया है-"निर्वाण के लिये पार नही कर सकते क्योंकि निर्वाण वास्तव में (सर्वनिमित्त धर्मदेशना का ही बन पभाव है तो कहां से धर्मदेशना है सर्वेजित) धर्मों की उपरति (उपशान्ति) है। इसलिये वे तथा निर्वाण का अस्तित्व ही कैसे होगा। प्रतएव निर्धारण सब प्रज्ञानी है जो स्व ख्यात विनय धर्म मे प्रबजित होकर भी नहीं है, यही सिद्ध होता है। भगवान ने कहा भी है- तीर्थकों की मिथ्या दृष्टि मे पडकर निर्माण को भाव रूप में
लोकनाथ (बुद्ध) के द्वारा निर्वाण की प्रनिर्वाण रूप खोजते हैं जैसे तिलों में तेल या दूध में घी। वे अभिमानी में देशना की गई है। प्राकाश द्वारा बनाया गया मुच्छा तीविक हैं जो अत्यन्त परिनिवृत्त धर्मों में निरिण खोजते माकाश द्वारा ही मोचित हुया है।
हैं। सम्यक् प्रतिपन्न योगाचार न तो किसी धर्म का उत्पाद १-तथागतो हि प्रतिबिम्बभूतःकुशलस्य धर्मस्य मनास्लवस्य
करता है और न ही किसी बम का निरोध करता है, न ही नंवत्र तयता न तथागतोऽस्ति बिम्बंच संदृश्यति सर्व
किसी धर्म की प्राप्ति की इच्छा करता है और न ही किसी लोके।--म. शा. पृष्ठ २३६
धर्म के अभिसमय की इच्छा करता है।" २-प्रनिर्वाणं हि निवारणं लोकनायेनदेशितम् माकाशेन कृतो प्रन्धिराकाशेनव मोचितः ।
-म. शा. पृष्ठ २३७ १-मा. शा. पृष्ठ २३७
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अनेकान्त के ग्राहकों से
आपके पास हमारी शोध-पत्रिका 'भनेकान्त' नियमित रूप से पहुँच रही है। कुछ ग्राहकों का इस वर्ष का तथा पिछले वर्ष का चन्दा हमें प्राप्त नहीं हरा है। पत्रिका को आर्थिक सछुट का स न करना पड़े, अतः मापसे अपना चन्दा अविलम्ब भेजने की प्रार्थना है। जिन ग्राहकों का चन्दा हमें इस माह के अन्त तक प्राप्त न हो सकेगा, उनके नाम हमें पत्रिका V.P.P.से भेजने के लिये बाध्य होना पड़ेगा।
भवदीय:
महासचिव, श्री वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६
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जैन धर्म में नीति धर्म और साधना
-रामजीसिह, एम ए०
भारतवर्ष मे नीति धर्म और साधना का जनता के कि संस्कृत का धर्म शब्द नीति नियमों का पर्याय है न कि जीवन से घनिष्ट सम्बन्ध रहा है। यहाँ पर ग्रंशतः श्रुति अग्रेजी 'रिलोजन' शब्द का अर्थ धर्म है। पाश्चात्य 'रिली. की मान्यता के कारण और अंशतः व्यक्तिगत विचारकों जन' शब्द के लिये हिन्दी भाषा में कोई पर्याय नहीं मालूम में मौलिक कहलाने की महत्वाकांक्षा न होने के कारण, पड़ता है। इसलिये वहाँ पर हम नीति धर्म का मथ नीति विभिन्न वादों का या सम्प्रदायों का व्यक्तियों के नाम से नियमो के पालन से लेंगे न कि अंग्रेजी शब्द 'रिलीजन' प्रचार नहीं हुआ। इसी कारण जैन धर्म भी किसी व्यक्ति से। नीति नियमों का तात्पर्य है-जीव को अपने पहले के विशेष के नाम पर नहीं उत्पन्न हुआ। जैन धर्म की प्रमुख स्वाभाविक अवस्था का ज्ञान कराना और जो बन्धन विशेषता उसके व्यावहारिक उपदेश में पाई जाती है। (कषाय) जीव को बांधे हुए है उससे मुक्ति दिलाना । जीव तत्व दर्शन पथवा ज्ञान मीमांसा अथवा किसी भी प्रकार जो बन्धन में पड़ा हुमा है, उसका यह बन्धन नीति धर्म से का ज्ञान वहीं तक उपयोगी है, जहाँ तक कि वह उचित ही दूर हो सकता है। सामान्य रूप से जैन धर्म में बन्धन पाचरण का सहायक होता है। उचित माचरण का परप का भय जन्म ग्रहण करना , लक्ष्य मोक्ष होता है। मोक्ष का पर्थ पास्मा का प्रत्येक भोगना है । बन्धन का अर्थ सभी पास्तिक दार्शनिक यही प्रकार के बन्धनों से मुक्ति पा जाना तथा अपने स्वरूप को समझते हैं । जैन धर्म के अनुमार जीव पूर्ण है, उसके अन्तर पहचान लेना है। 'जिन' शब्द का अर्थ ही होता है-अपने में अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन अनिवार्य है। इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेना। प्रतः जैन शब्द से ही बस, वह दुःखी इस कारण है कि जीव बाह्य कषायों में इस धर्म को व्यावहारिकता स्पष्ट हो जाती है।
फंप गया है । जीव को बन्धन में डालने वाली वासनायेंप्रायः लोग नीति धर्म को अग्रेजी में 'एथिक्स' कहते
क्रोध, मद, मान, माया पौर लोभ मादि जो हैं, उन्हें ही है पोर इसे संस्कृत में नीति-शाम या नीति धर्म के नाम से
कषाय कहते हैं। जब जीव पूर्ण रूप से कषायों में फंस अभिहित किया जाता है। वस्तुत: ऐसा मालूम पड़ता है।
जाता है तो बन्धन कहते हैं।' १-जन दर्शन को जन धर्म कहना प्रषिक उचित मासूम
बन्धन दो प्रकार का होता है-भाव बन्ध और द्रव्य
बन्ध । जीव के मन के अन्दर दूषित भावनाओं का प्रा पड़ता है। क्योंकि यह पार्शनिक समस्यामों की अपेक्षा बीव को कर्म-बन्धन से छुटकारा देना अधिक पाहता २-कवायत्वात नीवः कर्मलो योग्यान पुरगलालू मापत्ते है और यह व्यवहारिक प्रषिक, परमाधिक कम है। सम्बम्ब:-तत्वाधिनमसूत्र, ८.१।
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२६
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* अनेकान्त .
जाना ही भाव बन्ध है। इसको मानसिक बन्ध भी कह ४-वर्शनावरणीय कर्म-हृदय में सत्य ज्ञान का प्रामास सकते हैं; क्योंकि यह केवल मन में होता है। जीव को
नहीं होने देता। पुद्गल कणों से पाक्रान्त हो जाने को द्रव्य बन्ध कहते हैं। ५–वेदनीय कर्म-प्रात्मा के मानन्दस्वरूप का प्राच्छानन इसको कर्मबन्ध भी कह सकते हैं, क्योंकि इसमें जीव अपने
कर सुख दुःख उत्पन्न करते हैं । कर्मो से बन्धन में फंप जाता है। बन्धन की अवस्था में ६-मोहनीय कर्म-जीव को सच्ची श्रया और विश्वास पुद्गल तथा जीव एक दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं । जिस
से रोकते हैं तथा मन को प्रशान्त प्रकार लोहा को अग्नि में रखने पर लोहा में अग्नि पाजानी
रखते हैं। है और उसमें प्राग और लोहा दोनों होता है, उसी प्रकार ७-अन्तराय कर्म-प्रात्मा की उन्नति में बाधा पहुंचाते जीव और पुद्गल एक दूसरे में प्रविष्ट हो जाते हैं ।
अब प्रभ यह उठता है कि जब जीव शुद्ध-बुद्ध-मुक्क है उपयुक्त कर्मों में नं० ३ से न० ६ तक के कर्मों को तो वह कषाय अथवा बन्धन में कैसे पड़ जाता है ? भार- 'धातीय' कर्म कहते है और जो गोत्र कर्म कहा गया है वह तोय दार्शनिक इसका समाधान तीन प्रकार से करते हैं- धामिक न होकर व्यावहारिक है। उस समय की सामाजिक प्रथम यह कि जो ईश्वरवादी हैं वे इसको ईश्वर की लीला व्यवस्था में दलित वर्ग का शोषण और जातिवाद का दुरकहते हैं। दूसरा यह कि जो अनीश्वरवादी है वे इसको भिमान भादि का जो दोष मा गये थे, उनको दूर करने के कर्मवादमापार पर समाधान करते हैं। तीसरा यह कि लिये स्वयं भगवान् महावीर स्वामी ने वर्ण व्यवस्था के कुछ लोग जीव को बन्धन या दुःख को स्वीकार हो नही माघार की स्पष्ट व्याख्या की। उन्होंने कहा:करते । प्रगर दार्शनिक दृष्टि से देखा जाय तो ये सभी "कम्मुरणा बम्हणो होई, कम्मुरणा होई खत्तियो। समाधान उचित नहीं मालूम पड़ते। परन्तु जैन दर्शन वासो कम्मरणा होई, सुद्दो हवहं कम्मुणा ।" समन्वयवादी दर्शन है इसलिये यह सभी का समन्वयवादी पर्थात् मनुष्य का वर्ण वह नहीं होता जो उसने जन्म रष्टिकोण अपनाता है और उचित समाधान प्रस्तुत करता से लिया हो, बल्कि मनुष्य कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म है। जैन धर्म में इसका समाधान यह होगा कि जीव दगल से ही क्षत्री होता है और कर्म से ही वैश्य-शूद्र होता है। से निर्मित होता है और अपने कर्मों या संस्कारो के वशी- यहाँ पर हम देखते हैं कि भगवान् महावीर ने भूत होकर ही शरीर धारण करता है। पूर्वजन्म के कर्मों वर्ण को नीति धर्म अथवा व्यवहार मूलक माना, धर्ममूलक के कारण ही जीव में वासनाओं की उत्पत्ति होती है। नही; जबकि हिन्दू धर्म ने वर्ण व्यवस्था को धर्ममूलक माना वासनायें अपनी तृप्ति चाहती है और इसका परिणाम यह कर्ममूलक नहीं।' जीवन का लक्ष्य कर्म से छुटकारा पाना होता है कि ये पुद्गल को अपनी पोर खीचती हैं, जिससे है और यह छुटकारा पाना साधना द्वारा ही सम्भव है। विशेष प्रकार के शरीर का निर्माण होता है। बिना को जैन धर्म में दो प्रकार की साधना बताई गई है-प्रथम का नाश किये मुक्ति सम्भव नही है। किये हुए कर्मों का गृहस्थ के लिये और दूसरी सन्यासी के लिए । दूसरी को माश नीति धर्म के द्वारा ही हो सकता है। कर्म कई प्रकार पहली से श्रेष्ठ माना गया है। स्वभावतः सन्यासी के नियम के होते हैं:
अधिक कठोर हैं और उन्हें 'महावत' तथा गृहस्थ के नियमों १-मायु कर्म-मायु की लम्बाई जिन कर्मों पर निर्भर
को 'अणुव्रत' कहा गया है। जैन धर्म सन्यास पर अधिक होती है।
बल देता है। जैन साधु अपने पास कुछ नहीं रखते। वे २-गोत्र कर्म-जिससे जीव, जाति व गोत्र में जन्म लेता
मिक्षा के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं। यह कठो
रता केवल सन्यासियों के लिए ही नहीं है, बल्कि गृहस्थ के ३-शानावरणीय कर्म-जो मात्मा के शानमय स्वरूप का
लिए भी निर्धारित साधना अपेक्षाकृत कठोर ही है। तिरोधान करता।
१-० गीता रहस्य-पहला प्रकरण ।
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* अनेकान्त .
[ २७ भारतीय दर्शन में जितनी कठोर साधना जैन धर्म की है ३त्रह्मचर्य-वीर्य स्खलन होना। उतनी कठोर अन्य धर्मों की नही। अनेक दार्शनिकों की ४-प्रस्तेय-मोरी न करना अर्थात किसी की कोई वस्तु शरद जैन दर्शन भी न केवल ज्ञान पर जोर देता है, बल्कि
बिना पूछेन लेना। प्राचरण और ज्ञान दोनों पर ही जोर देता है। इसके ५--प्रपरिग्रह-संसार का त्याग अथवा संसार की वस्तुओं अतिरिक्त य, प्रास्था की आवश्यकता बतलाता है। जैन
में मोहन रखना। धर्म में सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चरित्र को उपरोक्त साधनाये सन्यासियों के लिये हैं, जिनका बड़ी 'विरत्न' अर्थात् जीवन की तीन बहुमूल्य साधना बताया कठोरता के साथ पालन किया जाता है। गृहस्थ के लिये गया है।
भी पाच प्रकार की साधना है:सम्यक वर्शन-जैन तीर्थरों पयवा जैन शाखों और १-अहिंसा-बो पहले कहा गया है।
उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास । २-सत्यसम्यक ज्ञान-जैन धर्म पोर दर्शन का ज्ञान । ३-अस्तेयसम्यक् चरित्र-चो सही जाना जा चुका है और ४-संयम-धर्य प्रयवा अपनी इन्द्रियों को अपने वश में माना जा चुका है, उसको अपने
रखना। चारित्र में परिणत करना। ५-सन्तोष -अपनी प्रावश्यकताबों को कठोरता के साथ इसमें पहला स्थान सम्यक् दर्शन को दिया गया है।
सीमित रखना। क्योकि संशय, जो प्राध्यात्मिक विकास में बाधक होता है, जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता देने में हर वह बिना श्रद्धा के दूर नही हो सकता। गीता में भी कहा अन्य धर्मों से बढ़कर है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और गया है कि साधन रहित मनुष्य के अन्त:करण मे श्रेष्ठ उनके जो फल हैं, उनके बीच कोई हस्तक्षेप नही कर बुद्धि नहीं होती और उस पुरुष के मन्तःकरण में भास्तिक सकता । एक बार कर लिये जाने के बाद कर्म हमारे ईश्वर भाव भी नही होता और बिना मास्तिक भाव वाले पुरुष बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ेगे। मेरा स्वाको शान्ति भी नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित पुरुष को तन्त्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। सुख कैसे प्राप्त हो सकता है।
मैं स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, परन्तु मेरा चुनाव अन्यथा स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं:
नही हो सकता और उसके परिणामों से (कर्मफल से) मैं 'रणारणं पयासमं, सोहम्रो तवो, सयमो यगुत्तिमरो। बच नहीं सकता। इन परिणामों से बचने का एकमात्र
अर्थात् ज्ञान प्रकाशक है, चित्त शोधन करता है और उपाय है-नीति धर्म और साधना। जो हम रे पूर्व कर्म सयम रक्षा करता है। जैन धर्म में कर्म बन्ध को रोकने हैं। उनका फल तो हमे भोगना ही पडेगा, परन्तु अब भी पौर उनको (पूर्व कर्म) नष्ट करने का उपाय शुद्ध पाचरण हम अपने पूर्व कर्मों का नाश करके कर्म बन्धन से छुटसयम और तप है। जैन धर्म में प्राचरण पाँच प्रकार के कारा पा सकते है। जीव जिस तरह अपने कर्मों द्वारा बताये गये हैं:
बन्धन में पड़ा है, उसी प्रकार अपने कर्मों द्वारा मुक्त भी १-अहिंसा-किसी भी प्राणी को मन, कर्म और वाणी हो सकता है। जीव किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? जीव से हानि न पहुँचामा।
इस प्रकार मुक्त हो सकता है:२-सत्य-भूठ न बोलना पर्यात ज्यों का त्यों कह देना।
माधव-कुछ मानसिक हेमों से समीपवर्ती कर्म १-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः तत्वार्य।
पुद्गल का जीव को मोर माना।
बन्ध-कर्म का पूर्ण रूप से बीब के अन्दर प्रवेश हो २-गीता-२/६६
बाना। १-०जन वर्शन का जीवन सूत्र
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२८ ]
* अनेकान्त - संवर-सम्यक् ज्ञान और प्रात्म संयम से नये कर्मो कता है तो जैन धर्म नास्तिक है, परन्तु 'ईश्वर की सत्ता' का प्रवेश रोकमा। .
पस्वीकार करना नास्तिकता नहीं है, क्योकि यदि ऐसा निर्जर-संचित कर्मों का नाश होना अथवा झड़ना। होता तो सांख्य तथा मीमांसा दर्शन षष्ठ दर्शनों के अन्तर
यह संवर के बाद स्वतः होता है, परन्तु गत नही पाते जो कि प्रास्तिक दर्शन कहे जाते है। इसमें भी जीव अपनी साधना द्वारा शीघ्रता ईश्वरवानी दर्शन प्राय: ईश्वर पर मानवस्व का आरोप कर ला सकता है।
देते है । वे ईश्वर को नीचे मनुष्य के 'तर पर ले पाते है। मोक्ष-जीव भोर कर्म के सम्बन्ध का विच्छेव हो इसके विपरीत जैन धर्म मनुष्य (नीर्थङ्कर) को ही तब जाना।
ईश्वर के रूप में देखता है, जब उसकी सहज शक्तियां उसी यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि बन्धकी की साधना द्वारा पूर्ण विकास की अवस्था में होती है। प्रक्रिया में कम स्वत: प्रवृत्त होता है, न कि ईश्वर की यहाँ पर जीव के सर्वोत्तम स्वरूप के लिए ही एक दुसरा इच्छा से-जैसा कि हिन्दू धर्म मानता है। कर्म के द्वारा शब्द है । वह है तीर्थङ्कर । प्रादर्श ही मनुष्य ही मनुष्य का बंधने की यह प्रक्रिया दो प्रकार से होती है:
प्रादर्श है और उसकी सिद्धि की एकमात्र साधना यह है (१) परम सत्य का प्रज्ञान
कि हम पादर्श मनुष्यो को उदाहरण के रूप में अपने सामने (२) मनोवेग
रखे तथा उसी तरह प्रयत्न करे जिस तरह अन्य जीवों ने सर्वप्रथम सन्यासी अपनी योग-साधना के द्वारा नये किया था। ऐसा प्रादर्श हमें पूरी माशा और प्रोत्साहन कर्मों का संवर करता है, तब पूर्व कर्मों का निर्जर अपने देता है; क्योंकि जो एक जीव कर चुका है तो दूसरा जीव प्राप होने लगता है । जब पूर्व कर्मों का पूर्ण रूप से निर्जर भी कर सकता है। साधना का केवल इतना ही महत्त्व हो जाता है, तब जीव मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाता है। नहीं है कि मन, राग-द्वेष, ज्ञानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियों का
कभी कभी लोग जैन धर्म को नास्तिक धर्म कहते है, नियन्त्रण अर्थात् केवल इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध ही नहीं जो उचित नहीं है । जैन धर्म को नास्तिक धर्म कहना एक है, वरन् उनकी कुप्रवृत्तियो का दमन कर उन्हें विवेक के प्रकार से हास्यास्पद सा है। यदि नास्तिक का अर्थ-वह मार्ग पर लगाना भी है। पाधुनिक युग में जो कलह और धर्म या दर्शन जो 'प्रात्मा के अस्तित्व', नैतिक चरित्र, पुन- द्वेष है उसका एकमात्र कारण यह है कि हम अपने जन्म में विश्वास नही करना है तो केवल चार्वाक' नातिक कुप्रवृत्तियों का दमन नहीं कर पा रहे है। इस प्रकार जैन है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म से भी अधिक प्राध्यात्मिक तथा धर्म हमारे सामने एक नया प्रादर्श रखता है, जो प्राज के नैतिक है। यदि 'ईश्वर की सत्ता अस्वीकार करना नास्ति- युग के लिए बहुत कल्याशकारी है।
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बंगाल के जैन पुरातत्त्व की शोध में पाँच दिन
-भंवरलाल नाहटा
बीसो वर्ष से थी ताजमल जी बोथरा के माथ बङ्गाल तीसरे माले में जैनेतर प्रतिमा लगी हई थी। ये दोनो जिन के सराक क्षेत्रो मे पुरातत्त्व शोध के हेतु भ्रमरण करने का प्रतिमाये लगभग हजार-बारह सौ वर्षों जितनी प्र.चीन विचार चल रहा था, परन्तु काल-परिपाक के बिना सभव अवश्य ही थी। इस मन्दिर के ठीक पीछे सड़क के पार न हो सका। पभी जब समय पाया तो न जेठ महीने के एक और मन्दिर था जिसमें भगवान् पाश्र्वनाथ की एक कड़ धूप को और न साधन सामग्री की ही अपेक्षा की गई सप्तफरण मण्डित खङ्गासन प्रतिमा विद्यमान थी। इन क्षेत्रो और निकल पडे एक सीमित समय और क्षेत्र की परिधि में
में जहाँ भी जिन प्रतिमाये हैं, उन्हें कही नेगटेश्वर शिव, भ्रमणार्थ । हमारे साथ थे अग्रेजी 'जैन जर्नल' व बङ्गला कहीं भैरव और कही अन्यान्य नामों से पुकारते है । इन 'श्रवण' के सम्पादक श्री गणेश जी ललवानी। हम सर्व
सभी प्रतिमाओं में मूलनायक तीर्थकर में मूलनायक तीर्थप्रथम ता० २३ मई की रात्रि में रवाना होकर ता० २४
दूर के लांछन एवं परिकर में अन्य प्रतिमाएं उत्कीरिणत के उष काल मे विष्णुपुर पहुंचे। गाड़ियों के लेट चलने से
र चलने से हैं। पहले को दोनों प्रतिमानो के परिकर मे चौबीस तीर्थ हमे काली रात्रि नही, उषाकालीन प्रकाश अनायास ही र उभयपक्ष मे अवस्थित हैं जबकि भगवन् पाश्वनाथ के उपलब्ध हो गया । हुम लोग रिक्शों द्वारा सोधे श्री रामपद परिकर मे महाप्रातिहार्यों के अतिरिक्त विष्गा प्रतिमा मण्डल नामक सराक भाई के यहाँ पहुँचे। शौच स्नानादि निर्माणार्थ दो हाथ और खोद कर बना दिये है। से निवृत्त होकर रिक्शो पर हम लोग द्वारकेश्वर नदी के घर पान स लौटकर हम लोग विष्णुपुर आये और लम्बे कछ र को पार कर घरापात नामक स्थान में पहुँचे। भोजनोपरान्त बस द्वरा भौषा होते हुए पहुँचे । वहाँ उत. मार्ग मे कई शिवालयादि देव मन्दिरो का समूह हागोचर रने के लिये पूछने पर नाम साम्य से भ्रान्न सह यात्रियों के हुमा जो केवल एक गर्भगृह-शिखरी थे और उनके प्रवेश कहने पर हम कई मील आगे चले गये, जहाँ मे एक दूसरे द्वार की चौड़ाई अत्यन्त सङ्करी रखने की प्रथा देखने में गांव 'बेलाग जाने का मार्ग था । रेलवे क्रासिंग पर प्रतीक्षा प्राई । धरागत मे हमे जो मन्दिर देखना अभीष्ट था, देव करते दूमरी गाड़ी पाने पर हम लोग वापस प्रौधा पहुंचे। प्रतिमा से विहीन मोर एक ब्राह्मण ठाकुर (पुजारी। का वहाँ हमें दो रिक्शे मिले जिन्हें मुंहमांगे चौदह रूपयों मे माश्रय-स्थान सा हो रहा था। प्रस्तुत मन्दिर के तीनों भाड़ा करके हम लोग 'बहुलार।' गाँव अ.ये । वृक्षो के झुरमोर ताकों में विशाल प्रतिमाये विराजित थी जिनमें पृष्ठ मुट वाले गांव के बाहर एक बहुत हो ऊँचे शिखर वाले भाग वाली ये भगवान् ऋषभदेव-प्रादिनाथ वामपक्ष से कलापूर्ण मन्दिर के विशाल अहाते मे हम लोग पहुँचे । प्रदक्षिणा करते प्रथम शान्तिनाथ भगवान् मोर अन्त में यहाँ का शिल्प प्रशसनीय है और स्थापत्य शैली को देख कर
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** अनेकात * भुवनेश्वर प्रादि उत्कल प्रान्तीय मन्दिरो की स्मृति ताजी थे, परन्तु इस र समच' स्थान की निर्माण शैली ऐसी हो जाती है। इसके प्रास-पास कभी छोटे-छोटे दूसरे मन्दिर विचित्र है कि इतने विशाल पिरामिड प्राकृति वाले इस भी थे जो पब ध्वस्त हो चुके हैं। नीचे की तरफ कुछ स्थान मे स्तभ बाहुल्य तीन जगती के अन्तराल में सर्वत्र चौरस और गोल चौकियां बनी हुई है जो किन्ही ध्वस्त दशन दुर्लभ होते हैं। इसे सन् १५८७ ई. पास-पास स्तूगो के प्रतीक हो ऐसा अनुमान किया जा सकता है। वीर हमीर नामक मल्ल मजा ने निर्माण करवाया था। इस मन्दिर के चतुर्दिक शिल्पाकृतियाँ उत्कोरिणत है । मन्दिर इस मन्दिर के सामने एक अहाते में दल मादल नामक के मध्य मे शिव मूति है। सामने वेदी पर तीन प्रतिमाये विशालकाय अद्भत तोप रखी। जो सन् १७४२ की बनी हैं। मध्यवर्ती प्रतिमा भगवान् पार्श्वनाथ की है जिसे वहाँ हुई है। इस कमान का वजन ३०० मन है और स ढे बारह वालो ने 'अनन्तदेव' को प्रतिमा बतलाया। मालूम देता है फुट लम्बी है । इसका मुहाना १ फुट का है और बनाने मे कि कभी वहाँ अनन्तदेव गोत्रीय सराको की बस्ती रही एक लाख रुपये लगे थे। सन् १७४२ मे जच मल्ल राज्य होगी। यह पार्श्वनाथ प्रतिमा अष्ट महाप्रातिहार्य और पर मराठो ने पाक्रमण किया तब यही नोप उनकी रक्षा धरणेन्द्र पद्मावती युक्त है। ऊपर सप्तफरण और पृष्ठ भाग मे काम पाती थी। में भी सर्पाकृति है। परिकर में उभयपक्ष मे अष्टग्रह की विष्णुपुर के अनेक मन्दिर बड़े ही सुन्दर शिल्पाकृति प्रतिमायें स्पष्ट निर्मित हैं, बङ्गाल और बिहार की सहखा- वाले बङ्गाल की अद्भुत कला शैली से युक्त हैं। जिस प्रकार न्दि पूर्ववर्ती मूत्तिकला मे सेव ग्रहो के प्राकार स्पष्ट परि- प्राबू के जैन मन्दिरो में प्रस्तर भास्कर्य अपनी सूक्ष्मता की लक्षित होते हैं। राजगृह-वैभारगिरि के खण्डहर स्थित पराकाष्ठा के प्रबल प्रतीक हैं उसी प्रकार यहाँ के मन्दिर प्रतिमा के परिकर में ऐसी ही नवग्रह प्रतिमायें है जिनकी अपने टाली भाँस्कयं निर्माण के लिये बेजोड और अद्भुत वेशभूषा हमें कुषाणकालीन समय तक ले जाकर खडा कर हैं। राधा माधव का मन्दिर मन् १७३७ में राजा कृष्णसिंह देती है, जबकि परिवर्ती काल में पश्चिम भारत मे वे केवल की पत्नी रानी चूडामरिण देवी ने बनवाया था। यहां से सूक्ष्म चिह्न मात्र पच तीथियों में भवशिष्ट रह गये थे। लाल बांध नामक विशाल जलाशय को देखने नये, इसके भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा के निम्न भाग में धरणेन्द्र पास सर्वमङ्गला देवी का मन्दिर है । जब स्वामी रामकृष्ण पद्मावती हैं और मूत्ति-निर्मापक दम्पत्ति-युगल की चैत्य परमहंस यहाँ दर्शन करने प्राये, तब उन्हें भाव समाधि हो वन्दना करती हुई प्रतिमायें तो प्रायः सभी तीर्थकर प्रति- गई थी। लाल बांध से पाते समय एक टेकरी पर 'गुमगढ' मामो में उपलब्ध हैं। यह मन्दिर पुरातत्व विभाग के नामक स्थान दष्टिगोचर हुपा जो गवाक्ष-द्वारादि से बिहीन अधीन है।
विचित्रता युक्त था । कहा जाता है कि मल्ल राजा लोग लूट बहुलारा से वापस पाते पौधा होकर विष्णुपुर पहुँचते का माल इसी स्थान में सुद्धित प्रच्छन्न रखते थे। पहुँचते भगवान् अंशुमाली प्रस्ताचल पर जा खड़े हुए। क्यामराय का मन्दिर सन् १६४०ई० में रधुनावसिंह हमने रात्रि में रामपद मण्डल के घर में विश्राम किया और ने निर्माण कराया था। पाश्चर्य तो यह है कि इतने विशाल प्रातःकाल विष्णुपुर के ऐतिहासिक स्थानों की शोभा देखने मन्दिर में कही इच भर भी जगह शिल्पाकृति से रिक्त नहीं के लिये निकल पड़े।
छोड़ा । जोड़ा शिव मन्दिर-कृष्ण बलराम मन्दिर रघुनाथ विष्णुपुर इस समय बांकुड़ा जिले में है, मध्यकाल में सिंह द्वितीय द्वारा विस्थापित है। जोड़ बङ्गला मन्दिर भी यह स्थान मन्त्रभूमि की राजधानी पी पौर माज भी प्रशस्त कोरणी युक्त है, इसकी छत का निर्माण दो संलग्न दुकानों के साइनबोर्डों तक में अनेकशः यह नाम अभिहित दुबालों वाले बङ्गले की भांति है। राधा श्याम मन्दिर सन् देखा जाता है। हम सर्वप्रथम पुरातत्व विभाग के अधीन १.५८ मे राजा चैतन्यसिंह द्वारा प्रतिष्ठापित है। विभिन्न 'रासमंच' नामक स्थान में गये । कहा जाता है कि रास पौराणिक और अवतार परित्रादि की शिल्प समृद्धि अत्यंत विशेष अवसर पर समस्त मन्दिरों के विग्रह यहाँ लाये जाते प्रेक्षणीय है। सन १६५८ में लाल जी मन्दिर की प्रतिष्ठा
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* अनेकान्त .
राजा श्री वीरसिंह ने करवाई थी।
जिस पर ग्राम्य जन कभी कभार सिन्दूर प्रादिकी टोकी सतरहवी शती के उत्तरार्द्ध में सजा वीरसिंह ने पत्थरों लगा देते होंगे। पर प्राश्चर्य है कि एक दुकानदार ने हमें द्वारा प्रवेशद्वार का निर्माण करवाया, दुर्ग-प्रवेश के लिये जैन मन्दिर बतलाते हुए इस स्थान पर पहुंचा दिया। पूर्वकाल मे यही एक प्रवेश द्वार वा। आगे चलने पर एम बहुलारा वाली प्रतिमा की भाँति इस प्रतिमा के परिकर प्रस्तरमय निमंजिला रथ पाता है। प्रस्तरमय रथ को में अष्टग्रह, महाप्रातिहार्य, धरणेन्द्र पन वती पौर बिम्ब प्रथा बङ्गाल, बिहार, उड़ीसा के अतिरिक्त सुदूर मैसूर निर्माता युगल की सुरुचिपूर्ण कलाभिव्यक्ति प्रेक्षणीय थी। राज्य के हम्पी तक मे पाई जाती है। हमी का रथ बड़ा हाडमासरा से हम लोग जीप मे तत्काल लौट पाये। ही सुन्दर है और इसी प्रकार कोणार्क का भी। रथयात्रा दूसरे दिन ता० २६ को प्रात:काल हम रियो द्वारा की प्रथा एक ऐसी प्राचीन प्रथा है जिससे लोगों को घर बांकुड़ा धर्मशाला से 'इकतेश्वर' महादेव गये। वहाँ इम बैठे भगवान के दर्शन हो जाते थे। वसुदेव हिण्डो नामक की बड़ी ख्याति है। मन्दिर के बाहर नारियल, प्रसाद, प्राचीन महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थ में इसे प्रति प्राचीन काल से मिष्ठान्न की दुकाने हैं और पण्डे लोग खडे रहते हैं। मन्दिर चली आयी परम्परा बतलायी है।
में कुछ सीढियों उतरने पर जमीन पर रहे हए एक स्वाभामदनमोहन मन्दिर की प्रतिष्ठा सन १६६४ में राजा विक त्रिकोण से लम्बे पाषाण खंड के तलघर में दर्शन हा। दुर्जनपिह ने करवाई थी। यह भी बङ्गाल को तत्कालीन कहा जाता है कि यहाँ भगवान् शङ्कर का यही रूप है। टाली की कोरणी (Terracota)का सन्दर नमना है। इस चमत्कारी स्थान पर भक्त लोग 'धरणा' देकर सो मन्ने श्वर शिव मन्दिर का निर्माण भी सन १६२२ में वीर जाते हैं और अपने कार्य सिद्धि का वरदान पाकर ही लौटते हमीरसह ने करवाया था।
है, ऐसा कहा जाता है। विष्णापर में ख-शिल्पियों का काम भी सर जोरों बांका में बस द्वारा हम गौरावाडी गये। वह मे पर है । सैकड़ों घर इसी व्यापार-उद्योग से अपने परिवार कंसावती नदी के तट पर बंधे हुए बांध के पास पारसनाथ का पालन करते है । शख को प्रस्तर शिलानों पर घिस कर नामक गांव था। गाँव के स्थान पर सरकार को प्रोर से अर्ड चन्द्राकार काच (करोड) से अगूठी सांखा चूड़ी प्रादि बाष
बाबा बांध का काम चालू है, इसलिये गाँव वालो के कथनानुसार विविध प्रकार की वस्तुयें तैयार करते हैं। शंख का करोत हमें ग्राषा थी कि वहाँ जाने के लिये सरकारी ट्रकों द्वारा विरहिणी के विरह की भांति जाते प्राते दोनो तरफ काटता जाने माने की सुविधा मिल जायेगो पर जहाँ हम गौराही रहता है । विष्णुपुर के ताँतो लोग वस बुनते हैं, ठठेरे वाड़ी की कालोनी में उतरे, सभी प्राफिस शायद शनिवार कसेरे बर्तन बनाते हैं । यहाँ सराक बन्धुषों के लगभग ३० या अन्य किसी कारण से बन्द थे। हमे एक विद्यार्थी घर होंगे। सराकों के घरों में खड़ियां लगी है और वे सूत और एक महिला का अच्छा साथ मिल गया जो अपने-अपने बमादि का व्यवसाय करते हैं।
गांव जा रहे थे। हम पैदल ही उनके साथ चल पडे । विष्णुपुर से ता० २१ शुक्रवार को हम लोग बस मध्याह्न का समय था, विद्यार्थी ने हमें तीन चार मील साथ द्वारा बांकुड़ा पाये। जिले का मुख्य नगर होने से बांकुडा चलकर जहाँ बांध का सरकारी प्राफिस था, पहुँचा दिया एक बहुत बडा नगर है। सुख सुविधापूर्ण मारवाड़ी धर्म- और उसने अपने गांव का मार्ग पकडा । शाला, नूतनगंज में ठहरे मोर बीकानेर के ही एक अनुभवी बांध के पास पहाड़ी टीले पर सरकारी प्राफिस था । सहृदय व्यास जी के सुप्रबन्ध में दो दिन रहे। भोजनोपरांत पारसनाथ गाँव का तो नाम शेष हो गया पर वहाँ माफिस जीर लेकर यहाँ से हम हाडमासरा गये। वहाँ गांव के के पृष्ठ भाग में हमने एक शिव मूर्ति, नन्दी और कुछ प्रस्तर अन्त में एक पत्थर के शिखरयुक्त छोटा मन्दिर देखा जिसमें खण्ड देखे । इसी पहाड़ी पर भगवान् पार्श्वनाथ की एक बल्मीक के ढेर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। इसके पीछे विशाल प्रतिमा जो दो टुकड़ों में विभक्त थी, वहाँ वालो ने जङ्गल में एक पाश्वनाथ भगवान की प्रतिमा खड़ी थी, हमें बतलाया। यह प्रतिमा परिकर में चौबीसी प्रतिमायें,
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* अनेकान्त . बिम्ब निर्माता-युगल और: घरगेन्द्र पद्यावती युक्त थी। भी पटा था, हमें जल्दी लौटना था अत: अम्बिका नगर सिंहासन के सिह और हस के प्राकार भी परिलक्षित थे। मिष्ठान्न भण्डार से कुछ मिष्ठान्न और जल लेकर हम वहाँ के ग्राफ़िसरों के साथ उस प्रतिमा के फोटो लिये और नदी पार होकर बांकुड़ा जाने वाली बस में आकर बैठ एक मार्ग बताने वाले मजदूर को साथ लेकर हमने अम्बिका गये। ययासमय बांकुड़ा पहुँच कर धर्मशाला में निवास नगर का मार्ग पकड़ा । जाते समय तो हमें कडकडाती धूप किया। में चलते कही क्षणिक बादलों की छाया मिल जाती थी। बांकुडा को धर्मशाला बडी विशाल है. रहने की सब पर लौटते समय सारा प्राकाश मेघाच्छा हो गया और प्रकार की सुविधा है। सोने के लिये खटिपा उपलब्ध हो जोरो से तूफान चलने लगा। हम तूफान की शीतल हवा जाती है, जिसकी ग्रामदनी से पाराप्त-कबूतर लोग दाना का पानन्द लेते हुए शीघ्र गति से चलते रहे पर जब वर्षा
चुगते हुए निर्मातागों, अनुमोदको, ' व्यवस्थापकों की पुण्य प्रारम्भ हुई तो हमें सड़क के पास ही एक ग्राम्य स्कूल का
वृद्धि करते है। धर्मश ला की दीवारों पर सैकडो सुभाषित बरामदे वाला खाली कमरा मिल गया, जिसमे हमने और शिक्षाप्रद दोहे श्लोक लिखे हैं जो बड़ी प्रेरणातत्काल प्राश्रय ग्रहण कर लिया। पांच दस बटोही और दायक सुरुचिपूरण पद्धति है। भी पाकर बैठ गये। यह तो सयोग की ही बात थी। यदि
बाँकुड से दूमरे दिन प्रातःकाल रवाना होकर हम जङ्गल में यह स्थान न मिलता तो बडी दुर्दशा होती,
रेल द्वारा इन्द्रबीला पहुँचे और स्टेशन से अनतिदुर स्थित अस्तु । जब वर्षा तूफान बन्द होकर प्रासमान साफ हो गया
'महाल कोक' नामक गाँव में गये । यहाँ हमारे पूर्व परितो हम लोग कसावती और कुमारी नदी के सङ्गम पर बसे
__चित जयहरि श्रावक का निवास स्थान है। ये सराक भाई अम्बिकानगर मे नदी के पार जा पहुंचे।
सुसस्कृत और जैन शिक्षा-दीक्षा से सुपरिचित होने के साथ अम्विका नगर, अम्बिका देवी के मन्दिर के कारण साथ राजस्थान, बङ्गाल, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात और प्रसिद्ध है । मन्दिर के पुजारी महोदय को हमने बुलवा कर उत्तरप्रदेशादि के सभी जैन तीर्थों में घूमे हुए हैं और जैन मन्दिर खुलवाया। इसके शिलालेख मे विदित हा कि इस के प्रचार कार्य व साधुजन सेवा मे ही इनकी रुचि रही मन्दिर का जीर्णोद्धार सन् १३२० ता० १६ फाल्गुण को रही है। कई वर्ष पूर्व जब यहाँ से निकटवर्ती तालाजुड़ी राजा राइचरण धवल ने रानी लक्ष्मीप्रिया देवी की गाँव मे भगवान आदिनाथ स्वामी की पद्मासनस्थ प्रतिमा स्मृति मे कराया था। वस्त्र परिधान युक्त देवी के स्वरूप तालाब के पाल पर प्रकट हुई थी, उस समय मैं श्री ताज. प्रतिमा लक्षणादि का हम ठीक ठीक प्राकलन न कर सके मल जी साहब वोथरा के लघु भ्राता श्री हनुमानमल जी पर यह खड़ी हुई मूर्ति है और जैन शासनदेवी अम्बिका बोथरा के साथ यहाँ पाया था। पोर इन्ही के यहाँ प्रेममूर्ति से भिन्न कचित् भिन्न शैली को परिलक्षित हुई। पूर्ण वातावरण में ठहर कर ताल जुड़ी जाकर प्रभु दर्शन
अम्बिका नगर मे अम्बिका मन्दिर के पृष्ठ भाग में एक किये । अब यह प्रतिमा श्री ताजमल जी वोथरा एव तत्रस्थ जैन मन्दिर अवस्थित है, जिसमें पोड़ा अन्वेरा पड़ता था सराक बन्धु के प्रयत्न से कलकत्ता प्रा गई मौर बडे मन्दिर पर उस में प्रतिष्ठित-अवस्थित भगवान मादिनाथ, ऋषभदेव में विराजमान है । महाल कोक में कुल ३० घरो की छोटी म्वामी की सपरिकर प्रतिमा अत्यन्त सुन्दर है। प्रभु के पृष्ठ सी साफ सुयरी बस्ती है जिसमें १२ घर सराको के हैं। भाग में तोरण, जो समवशरण के तोरण का प्रतीक है हमने यहाँ एवं इधर के कई गांवों में हिन्दुओं के घरों की और प्रभामण्डल को कलापूर्ण है। भगवान् के मस्तक पर दीवाल पर चारो ओर एक काली सी धारी पट्टी दृष्टिगोचर जटा केशविन्यास अत्यन्त सुन्दर हैं । सिंहासन के नीचे वृषभ होती है जो रोहण मनसा पूजा का प्रतीक बतलाया जाता वाछन स्पष्ट है। प्रभु प्रतिमा पायः करके प्रखण्ड और है। सराक लोग जन धर्माचार विस्मृत होकर बङ्गाल के देवी अत्यन्त मनोज्ञ है । अम्बिका मन्दिर के दाहिनी और चौकी पूजा आदि को मान्य करने लगे हैं पर शताब्दियां बीत गई पर कुछ शिल्पाकृति-गोवर्धन और कुछ लिपि वाला प्रस्तर सम्पर्क छूट गया फिर भी खान-पान में शुद्ध निरामिष
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भोजी संस्कार प्राज भी विद्यमान हैं।
तोरण, भामण्डलादि प्रातिहार्य युक्त है। यहाँ की प्रतिहमारा उद्देश्य था कि भाई जयहरि को साथ लेकर माओं के तोरण उपरि भाग में न होकर प्रभु के पृष्ठ भाग पाकबेडरा प्रादि उधर के प्राचीन जैन खण्डहरादि स्थानों सांची-तोरण की भांति हैं। अम्बिका नगर की ऋषभदेव में घूम कर जैन-अवशेषों का अध्ययन करे पर वे स्वयं उस प्रतिमा का तोरण इसी प्रकार का है। दूसरी प्रतिमा के तरफ गये हप नही थे अतः उन्हें कष्ट न देना उचित समझ परिकर में प्रष्टग्रह प्रतिमाये विद्यमान हैं। अम्बिका देवी हम उनके यहाँ एक दिन एक रात्रि का प्रातिथ्य ग्रहण कर की एक खड़ी हुई प्रतिमा है एवं तीन प्रतिमाएं वृक्ष युक्त रेल द्वारा प्रादा पाये। रेल लेट होने से पू'चा जाने वाली हैं। जिनमें एक में उपरि भाग में जिन प्रतिमा, वृक्ष के बस निकल चुकी थी अतः तीन घण्टों की प्रतीक्षा कर नीचे यक्ष-यक्षिणी और निम्न भाग में सप्त ग्रह मूर्तियां हैं। दूसरी बम मे बारह बजे 'पूचा' गांव पाये । यहाँ से दो दूसरी प्रतिमा के निम्न भाग में सिहासन के नीचे दो कलश ढाई मीन दूर पाकबेडरा है। हमें तो वहाँ जाकर तत्काल बने हुए हैं, जिनकी रचना शैली बङ्गाल के कलशों मे लौटना था, क्योंकि ढाई बजे की बस निकल जाने से हमें अभिन्न है । तीसरी प्रतिमा भी वृक्ष तल मे यक्ष यक्षिणी फिर एक अहोरात्र वही रहना पडता । प्रतः अपना सामान वाली है। एक शांतिनाथ स्वामी की खण्डिन प्रतिमा है वही सुनील ठाकुर नामक सज्जन की दुकान के पास रख जिसमें प्रभु का लांछन हरिण स्पष्ट परिलक्षति है। एक कर शीघ्र गति से हम लोग पाकबेडरा पहुंचे। उस दिन तीर्थकर प्रतिमा और एक चतुर्विशति तीर्थदर प्रतिमा है। वहाँ मेला होने से ग्राम्य जन मकडो को सम्पा मे एकत्र एक चौमुख मन्दिर सर्वतोभद्र और एक चतुर्मुख स्तूप भी थे । मदोन्मत्त स्त्री पुरुषों का समूह अपने गले मे ढोल- इन प्रतिमानों के मध्य में विद्यमान है। ढक्कादि वाजित बजाते हुए नाच रहा था। वे लोग यहाँ मैंने जिन यक्ष-यक्षिणी प्रतिमापो का उल्लेख जिनेश्वर भगवान की प्रतिमामो को भैरव मानकर पूजते किया है वस्तुन; यह निर्णय नहीं कई विद्वानो ने इन्हे थे। पाकबेडरा की मभी प्रतिमाये और भग्नावशेष एकही भगवान के माता-पिता और कइयो ने यक्ष-यक्षिणी माना प्रहाते मे रखे हुए थे, जिसमें प्रविष्ट होने पर मासानी से है पर मेरे विचार मे यह विध। अभी विचारणीय है प्रतः दर्शन किया जा सकता था। इसमें प्रवस्थित मभी जिन स्त्री-पुरुष जोड़ी कह सकते हैं। माता-पिता की प्रतिमा वृक्ष प्रतिमाये अव्यवस्थित ढग से पड़ी थी। ७ फुट ऊंची के नीचे हो भौर वृक्ष पर पहन्त प्रतिमा हो, यह बात तर्कखङ्गासन स्थित श्री पद्म भु स्वामी की प्रतिमा-जिमका सङ्गत नहीं लगती। भगवान् की माताओं की मूनियां परिकर नहीं था, केवल उभय पक्ष में चामरधारी इन्द्र अव- "चतुविशति जिन मातृ पट्टक" बीकानेर, जैसलमेर पाद शिए थे। प्रभूलांछन भी पूजन सामग्री मे ढक जाने से अनेक स्थानो में विद्यमान हैं पर उनमें माता की गोद मे
प्रपथ लुप्त था के दर्शन किये जो ग्राम्य जनों के पूजना बालक भगवान् को दिखाया गया है। लगभग ३१ वर्ष केन्द्र थे।
पूर्व क्षत्रिय कुण्ड लछुवाड़ की धर्मशाला में मैंने एक काली पाकवेडरा के इस स्थान में तीन चार मन्दिर ग्राज पाषाण की लेख सहित पन्द्रह सौ वर्ष से भी प्राचीन भी खडे है पर वे खाली पड़े हैं और प्रखण्डित-खण्डित प्रतिमा त्रिशला माता और गोद मे भगवान् महावीर की सभी अवशेष इमी प्रहाते में लाकर रख लिये गये है। यहाँ देखी थी जो कुछ दिन बाद ही वहां से गायब हो गई। कतिपय विभिन्न शैलो और विधायो की प्रतिमाये टि- शिल्प शास्त्र और मू । विज्ञान के विद्वान् इस पर विशेष गोचर हुई । भगवान् प्रादिदेव, ऋषभ प्रभु की पांच प्रति- प्रकाश डाले । जबू वृक्ष शाल्मलि प्रादि पर शाश्वत जिन माये है, जिनमें दो चौबीस तीर्थकरो को प्रतिमा परिकर बिम्बो का उल्लेख है, जिनके भी श स्त्रों में वर्णन मिलते युक्त है। एक पंचतीर्थी परिकर युक्त और दो खण्डित हैं, हैं। हमारे संग्रह मे एक दो सौ वर्ष प्राचीन सु दर चित्र में जिनमे से एक के तो दो खण्ड हुए पडे है। भगवान् महा. वृक्ष पर पहन्त प्रतिमा और सामने चतुर्विध सघ, पूजोपवीर की दो प्रतिमाय हैं जिनमें एक पचतीर्थी परिकर, करण लिये भक्तादि दिख ये हैं, पर वह भ.व भी किस हेत
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का है, विचारणीय है ।
वस्तुतः बङ्गाल का प्राचीन धर्म ही जैन धर्म था । बङ्गाल में यत्र तत्र सर्वत्र जैन प्रवशेष ही पाये जाते हैं। हमें इन स्थानों में कही भी बौद्ध प्रतिमायें दृष्टिगोचर नही हुई। इन विभिन्न शैली और कलात्मक प्रतिमानों का अध्ययन समय सापेक्ष है। हम तो वहीं केवल पन्द्रह मिनट ही रुके थे। जिन प्रतिमा निर्मारण शैली का प्रवाह सर्वत्र
मै
अनेकान्त
व्याप्त था। ऐसी प्रतिमाये बिहार में भी देखने में आई है।
पाकबेडरा से हम दो बजे पूंचा पहुंच गये और बस में बैठकर सीधे पुलिया स्टेशन प्रा पहुंचे । यद्यपि श्री ताजमल जी साहब और भी स्थानों में चलना चाहते थे और तीर्थाधिराज श्री सम्मेद शिखर जी की यात्रा करने की प्रबल भावना थी पर मोसम और मार्ग प्रतिकूलता ने हमे कलकत्ता लौटने को बाध्य कर दिया ।
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श्री वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली - ६
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जैन तीर्थ श्रावस्ती
-प० बलभद्र जैन
मार्ग-श्रावस्ती उत्तरप्रदेश के बलरामपुर-बहराइच सावित्योए संमवदेवों य निवारिणा सुसेरणाए । रोड पर अवस्थित है। यह सड़क मार्ग से अयोध्या से १०६ मग्गसिर पुणिमाए जेट्टारिक्खम्मि संजावो ॥५२८ कि०मी० है जो इस प्रकार है-अयोध्या से गोंडा ५० पर्यात् श्रावस्तो नगरी में सभवनाथ मगसिर शुक्ला कि०मी० । गोडा से बलरामपुर ४२ कि०मी० । बलरामः पूर्णिमा को ज्येष्ठा नक्षत्र में उत्पन्न हर। उनके पिता का से थावस्ती १७ कि०मी० । यह प्राचीन नगर है किन्तु अब नाम जितारि और माता का नाम सुषेणा था। तो यह खण्डहगे के रूप में बिखरा पड़ा है । इस नगरी के इसी प्रकार पद्म पुराण, नराग चरित, हरिवंश पुराण खण्डहर गोंडा और बहराइच जिलो की सीमा पर 'सहेट- उत्तर पुराण आदि में भी उल्लेख मिलते है। महेट' नाम से बिखरे पड़े हैं। ये अर्धचन्द्राकार स्थिति में संभवकुमार ने अपना बाल्यकाल पोर युवावस्था यहीं एक मील चौडे और सवा तीन मील लम्बे क्षेत्र में बिखरे बिताई। उन्होने राज्य शासन मोर सांसारिक भोगों का हुए है। रेल मार्ग से यहाँ पहुँचने के लिये उत्तर पूर्वी रेलवे भी स्वाद लिया। लेकिन एक दिन जब उन्होंने हवा के के गोंडा-गोरखपुर लाइन के बलरामपुर स्टेशन पर उतरना द्वारा मेघों को गयन में विलीन होते देखा तो उन्हे जीवन चाहिये । यहाँ से क्षेत्र पश्चिम में है। यह बलरामपुर से के समस्त भोगों की क्षणभगुरता का यकायक अनुभव हुआ बहराइच जाने वाली सड़क के किनारे पर है । एक छोटी पोर उन्हे संसार से वैराग्य हो गया । फलत मंगसिर शुक्ला सड़क खण्डहरो तक जाती है । सहेट-महेट पहुँचने का सुगम पूर्णमासी को श्रावस्ती के सहेतुक वन में दीक्षा ले ली। साधन बलरामपुर-बहराइच के बीच चलने वाली सरकारी तब इन्द्रों, देवो और मनुष्यों ने भगवान् का तप कल्याणक बस है । इसके अलावा बलरामपुर से टैक्सी, जीप आदि भी मनाया ।' चौदह वर्ष तक भगवान् ने घोर तप किया और मिलती हैं। यहाँ ठहरने के लिये जैन धर्मशाला बनी हुई जब घातिया कर्म नष्ट करके कार्तिक कृष्णा ४ को केवल
ज्ञान हो गया, तब भी देवो और मनुष्यों ने श्रावस्ती के
सहेतुक बन में बड़े उल्लास के साथ ज्ञान कल्याणक का जैन तीर्थ-श्रावस्ती प्रसिद्ध कल्याणक तीर्थ है ।
पूजन किया। इस प्रकार इस नगरी को भगवान् सभवनाथ तीसरे तीर्थकर भगवान् सभवनाथ के गर्भ, जन्म, तप और
के चार कल्याणक मनाने का सौभाग्य प्राप्त हुप्रा है। इससे केवल ज्ञान कल्याणक यही हुए थे। चारों प्रकार के देवों
यह पवित्र नगरी एक महान् तीर्थ के रूप में मान्य हो गई और उन मनुष्यों ने इन कल्याणकों की पूजा और उत्सव किया था । भगवान् संभवनाथ का प्रथम समवशरण यही हरिवश पुराण (सर्ग २८ श्लोक २६) के अनुसार लगा था और उन्होंने यही पर धर्मचक्र प्रवर्तन किया था। जित शत्रु नरेश के पुत्र मृगध्वज ने श्रावस्ती के उद्यान में __ आर्ष ग्रन्थ तिलोय पण्णत्ति में निम्न प्रकार का १-तिलोयपण्णत्ति-४/६४३, ६४६ उल्लेख मिलता है:
२ , -४/६८१
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मुनि बनकर सिद्ध पद पाया।
इस मुन्दर जिन भवन को सुल्तान अलाउद्दीन ने बहकरकण्डु चरित्र (पृष्ठ १८१) में वर्णन पाया है कि राउच की विजय के समय तोड दिया। श्रावस्ती के प्रसिद्ध सेठ नागदत्त ने स्त्री चरित्र से खिन्न हो इतिहास-पाद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने ५२ जनपदो कर मुनि दीक्षा ले ली और अन्त मे यही से मुक्ति-पद प्राप्त की रचना की थी। उनमे एक कोशल देश भी था। कोशल किया। इस प्रकार श्रावस्ती सिद्ध क्षेत्र भी है।
के दक्षिणी भाग को राजधानी साकेत या प्रयोध्या थी जो यहाँ पर भगवान् महावीर का समवसरण कई बार सरयू के दक्षिण तट पर अवस्थित थी। उनगै कोशल को पाया था और भगवान् का उपदेश सुनकर श्रावस्ती के राजधानी श्रावस्ती यो जो प्रचिगवती (राप्ती) के दक्षिण अधिकांश नागरिक महावीर के भक्त बन गये थे। तट पर स्थित थी। लगता है को गल देश का यह विभा
श्रावस्ती नरेश जयसेन बौद्ध धर्म का उपासक था। जन बहुत पश्चाद्व! काल मे हुमा। क्योकि भगवान् एक बार प्राचार्य यति ऋषभ वहाँ पप रे । राजा प्रजा सभी ऋषभदेव ने दीक्षा लेते समय अपने सौ पुत्रो को जिन देशो उनके दर्शनार्थ गये । उनका उपदेश सुनकर राजा ने जैन का राज्य दिया था, उन देशो मे कोशल देश का ही नाम धर्म धारण कर लिया। शिवगुप्त को इससे बड़ा क्षोभ माया है। चक्रवर्ती भरत की दिग्विजय के प्रसङ्ग में भी हुमा। वह पृथ्वी नरेश सुमति के पास गया, जो शिवगुप्त मध्य देश मे कोशल का नाम मिलता है। परवर्ती काल में का शिष्य था। उसने राजा से शिकायत की। राजा ने कोणल जनपद का नाम कुणाल या कुलाल भी प्रसिद्ध हो एक धूर्त को जयसेन की हत्या करने का कार्य मौंपा। वह गया। धूतं श्रावस्ती पवा। उसने पाचार्य यति वृषभ स मुनि
महावीर से पहले जिन सोलह महाजनपदो की और दीक्षा ले ली। एक दिन राजा जयसेन मन्दिर में मूनि छह महानगरियो की चर्चा प्राचीन साहित्य में मिलती है, वन्दना के लिये गया । जब वह नव दीक्षित मुनि के चरणों उनमें श्रावको का भी नाम है। उस समय कोशल राज्य में झुका तो उस धूर्त ने राजा की हत्या कर दी और भाग बड़ा शक्तिशाली था। काशी पौर साकेत पर भी कोशलो गया । प्राचार्य ने यह देखकर विचार किया कि लोग मेरे का अधिकार था। शाक्य सघ इन्हें अपना अधीश्वर मानता ऊपर हत्या का सन्देह करेगे । अतः उन्होने दीवार पर था। यह महाराज्य दक्षिण में गङ्गा और पूर्व मे गण्डक घटना लिखकर प्रात्महत्या कर ली।
नदी को स्पर्श करता था। इस काल मे श्रावस्ती में एक -हरिसेण कथाकोस कथा १५६ विश्वविद्यालय भी था। पावं परम्परा के मुनि केशी से भ. महावीर के पट्ट महावीर के समय में श्रावस्ती का राजा प्रसेनजित गणधर गौतम स्वाकी की भेंट श्रावस्ती में ही हुई थी। था। यह बडा प्रतापी नरेश था। उसने अपनी बहन का भगवान् महावीर के कई चातुर्मास भी यहां हुए थे। इस विवाह मगध सम्राट् श्रणिक बिम्बसार के साथ कर दिया प्रकार के स्पष्ट उल्लेख श्वेतांबर प्रागमों में मिलते है। छा और काशी की पाय दहेज मे दे दी थी। प्रसेनजित के
प्राचीन काल में यहां पर जैनों के अनेकों मन्दिर और पुत्र विदूडभ अथवा विदूरथ ने राजगृह मे अपने राजनैतिक स्तूर बने हुए थे। भ. समवनाथ का विशाल मन्दिर भी सम्बन्ध सुदृढ़ करने के लिये अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह यहाँ निर्मित हा था। इस मन्दिर के सम्बन्ध में श्री जिन श्रेणिक के पुत्र कुणिक अथवा प्रजातशत्रु के साथ कर दिया प्रभ सूरि ने विविष तीर्थ कल्प में लिखा है-'यहाँ का था। किन्तु काणी के ऊपर दोनों राज्यों का झगड़ा बराबर भगवान् सभवनाथ का विशाल जिन भवन रन निर्मित होता रहा । कोशल नरेश ने एक बार काशी को राजगृह था, जिसकी रक्षा मणिभद्र यक्ष किया करता था। इस १-'भूगोल'-संयुक्त प्रान्ताङ्क पृष्ठ २८६ यक्ष के प्रभाव से मन्दिर के किवाड़ प्रातः होते ही स्वयं २-हरिषेण कथाकोश कथा ८१ खूल जाते थे और सूर्यास्त होते ही बद हो जाया करते थे।' ३-प्राचार्य चतुरसेन शाक्षी-वैशाली की नगरवधू 'भूमि' १-श्रावस्ती नगरी कल्प
पृष्ठ ७६२
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अनेकान्त
के प्रभाव से मुक्त कर लिया था किन्तु अजातशत्रु ने काशी मृत्यु हो गई।' को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया।
विदूरथ अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार शाक्य सघ पर प्रसेनजित के सम्बन्ध मे श्वेताम्बर प्रागमों में कुछ माक्रमण करने तीन बार गया, किन्तु बौद्ध ने तीनो बार उल्लेख मिलता है। यहाँ प्रसेनजित के स्थान पर प्रदेशी उसे रोक दिया। चौथी बार बुद्ध का विहार अन्यत्र हो नाम दिया गया है। उसे पाश्चात्य सम्प्रदाय के केशी का रहा था, उस समय विदूरथ ने शाक्य संघ का विनाश कर अनुयायी बताया गया है। बाद में वह भगवान महावीर दिया। जब उसकी सेना लौट कर एक नदी के किनारे का अनुयायी बन गया।
पड़ाव डाले हुए थी, तभी जोरो की प्रोलावृष्टि हुई । नदी बौद्ध ग्रन्थो में भी प्रसेनजित के स्थान पर पसदि नाम में बाढ़ प्रा गई और सब बह गये। पाया है। बौद्ध ग्रन्थ 'अशोकावदान' मे प्रसेनजित के
भगवान् महावीर ने जब दीक्षा ली, उससे प्रायः पाठ पूर्ववर्ती और पश्चावर्ती वशधी के नाम मिलते है । उसके
माह पहले कुणाला (कोशल) देश में भयङ्कर बाट पा अनुमार व्रत (वक), रत्नमय, सजय, प्रसेनजित, विदूरथ,
गई। उसमे श्रावस्ती को बहुत क्षति पहुँची।' बौद्ध अनु कुमलिक, सुरथ और मुमित्र इस वंश के राजा हुए । सुमित्र
श्रति है कि प्रनाथ पिण्डद सेठ सुदत्त की अठारह करोड़ को महापद्म नन्द ने पराजित करके कोशल को पाटलिपुत्र
मुद्रा चिरावती के किनारे गडी हुई थी। वे भी इस बाढ़
मे बह गई। श्वेताम्बर भागमो के अनुसार यह बाढ कुरुण साम्राज्य मे प्रात्मसात् कर लिया। अशोकवदान की इस वंशावली का समर्थन अन्य सूत्रो से भी होता है।
और उत्कुरुण नामक दो मुनियो के शाप का परिणाम
थी। किन्तु कुछ समय बाद यह नगरी पुनः धनधान्य से भरहुत में जो प्रसेनजित स्तम्भ है, वही इसी प्रसेनजित
परिपूर्ण हो गई। जैन शास्त्रों के अनुसार इस नगर में ऐसे का बताया जाता है।
सेठ भी थे, जिनके भवनों पर स्वर्णमण्डित शिखर थे और प्रसेनजित के साथ शाक्य वंशी क्षत्रियो ने किस प्रकार उन पन छप्पन ध्वजाये फहरातो थीं। जो इस बात की मायाचार किया, उसको कथा अत्यन्त रोचक है । प्रसेनजित प्रतीक थी कि उस सेठ के पास इतने करोड़ स्वर्णमुद्राये ने शाक्य संघ से एक सुन्दर कन्या को याचना की। शाक्य लोग उसे अपनी कन्या नही देना चाहते थे, किन्तु उस
वास्तव में अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण श्रावस्ती प्रबल प्रतापी नरेश को असन्तुष्ट भी नहीं कर सकते थे।
अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। इसका व्य पारिक सम्बन्ध सुदूर प्रतः उन्होंने एक दासी-पुत्री के साथ उसका विवाह कर रही
देशो से था। यहां से एक बड़ी सडक दक्षिण के प्रसिद्ध दिया। इसी दासी पुत्री से विदूरथ का जन्म हुआ था।
नगर प्रतिष्ठान (पैठण, जि. पोरङ्गाबाद) तक जाती थी। एक बार विदूरथ युवराज अवस्था में अपनी ननसाल इस पर साकेत, कौशाम्बी, विदिशा. गोनर्द, उज्जयिनी, कपिलवस्तु गया। वहां उसे शाक्यो के मायाचार का पता माहिष्मती प्रादि नगर थे। एक दूसरी सड़क यहाँ से राजचल गया। उसने शाक्य संघ को नष्ट करने को प्रतिज्ञा गृहीतक जाती थी। इस मार्ग पर सेतब्य, कुशीनारा, की। घर पर पाकर उसने अपने पिता से यह बात कही। पावा, हम्ति ग्राम, मण्डग्राम, वैशाली, पाटलिपुत्र और इस प्रसङ्ग पर दोनों में मतभेद हो गया। नौबत यहाँ तक नालन्दा पड़ते थे। तीसरा मागं गङ्गा के किनारे-किनारे पहुँची कि विदूरथ ने पिता को राज्यच्युत कर दिया। जाता था। पचिरावती नदी से गङ्गा और यमुना में प्रसेनजित महारानी मल्लिका को लेकर राजनैतिक शरण
ण १-Early History of India, by Vincent लेने राजगृह पहुँचे। किन्तु नगर के बाहर ही दोनो की
Smith १-Records of the Western World Part The Hindu History of India, by A.K. 1& JI, by Rev. Beal
Mazamdor २-Chronology of India, by Mrs. M. Duff २-Life in ancient India, P. 256
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नौकाओं द्वारा माल एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँबाया जाता था। ऐसे उल्लेख भी मिलते हैं कि विदेह से गान्धार, मगध से सौवीर, मरुकच्छ से समुद्र के रास्ते दक्षिण पूर्व के देशों से व्यापार होता था ।
1
२
स्वातन्त्र्य सेनानी सुध्वज श्रावस्ती की यह समृद्धि र स्वतन्त्रता १२-१३ वीं शताब्दी तक ही सुरक्षित रह सकी और उसकी सुरक्षा का अन्तिम सफन प्रयत्न श्रावस्ती नरेश ध्वज वा सुहषदेव ने किया नियम तथा स्मिथ ने भी इसका समर्थन किया है। यह राजा जैन था। उस समय महमूद गजनवी भारत के धनेक प्रातो को रौंदता हुआ गजनी लौट गया। उसने अपने भानजे सैयद सालार मसऊदगानी की श्रवध-विजय के लिये मुमलमानों की विशाल सेना के साथ भेजा । लार जितना बहादुर सिपहसालार था, उतना ही कूटनीतिज्ञ भी था । उसने अनेकों हिन्दू राजाभो को फूट डालकर अथवा युद्ध में गायों को प्रागे करके पराजित कर दिया। किन्तु जब वह बहराइच के समीप कौड़ियाला के मैदान में पहुँचा तो उसे बडी जैन नरेश सुहलदेव से मोर्चा लेना पड़ा। इस युद्ध में सन् १०३४ मे संयद सालार और उसके सैनिक राजा सुहलदेव के हाथो मारे गये। इससे श्रावस्ती मी सुरक्षित रही और लगभग दो सौ वर्ष तक अवध भी मानों के घाट से मुक्त रहा। किन्तु इस घटना के कुछ समय पश्चात् किसी देवी विपत्ति के कारण श्रावस्ती का विनाश हो गया। उसके बाद अलाउद्दीन खिलजी ने श्राकर यहाँ के मन्दिरो, बिहारों स्तूपो और मूर्तियो का बुरी तरह विनाश किया। उसके कारण भावस्ती खण्डो के रूप में परिवर्तित हो गई और फिर कभी अपने पूर्व गौरव को प्राप्त न कर सकी १० सर्वे रिपोर्ट ऑफ इण्डिया भाग २
• प्रनेकान्त •
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पृष्ठ ३१६-३२३ २- जर्नल रायल एशियाटिक सोसायटी सन् १९०० पृष्ठ १ ३- प्रदुरहमान चिश्ती कृत 'मोराते मसऊदी'- सुहलदेव ने
उन्हें उनके पड़ाव बहराइच में था घेरा यहां मसऊव रज्जबुल मुरज्जक १८ वीं तारीख को ४२४ हिजरी में (सन् १०३४ ई०) अपनी सारी सेना सहित मारा
गया ।
पुरातत्व नगरी प्रारम्भ से तीर्थ क्षेत्र के रूप मान्य रही है तथा खूप समृद्ध रही है। अतः यहाँ विपुल सख्या में मन्दिरो स्तू पोर बिद्वारो का निर्माण हुआ। मौर्य युग मे सम्राट् अशोक ने कई स्तम्भ प्रोर समाधि स्तूप बनवाये थे। उनके पोत्र सम्राट् सम्पति ने भगवान् सभवनाथ की जन्मभूमि पर स्तूप पर मन्दिरों का निर्माण कराया था । किन्तु पलाउद्दीन खिलजी (१२६६१३१६ ) ने इन कलाकृतियो और धर्मायतनों का विनाश कर दिया। उसके खण्डहर सहेट-महेट ग्राम में मीलों तक बिखरे पड़े हैं। भारत सरकार की ओर से यहाँ सन् १८६३ से पुरातत्ववेत्ता जनरल कनिघम, वेनेट, होय, कागल, दयाराम साहनी, मार्शल आदि की देख-रेख में कई बार खुदाई कराई गई। इस खुदाई के फलस्वरूप जो महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध हुई है, वह लखनऊ और कलकत्ता के म्यूजियमों में सुरक्षित है। इस समय में स्तूपों, मन्दिरो और बिहारो के अवशेष, मूर्तियाँ, ताम्रपत्र, प्रभिलिखित मुहरे प्रावि है । यह सामग्री ई० पू० चौधी शताब्दी से लेकर १२ वी शता ब्दी के अन्त तक की है। एक ताम्रपत्र के अनुमार, जो कन्नौज के राजा गोविन्द चक्र का है, ज्ञात होता है कि सहेट प्राचीन जेतवन (बौद्ध विहार) का स्थान है और महेट प्राचीन श्रावस्ती है। महेट के पश्चिमी भाग में जैन अवशेष प्रचुर मात्रा में मिले हैं। यह भाग इमलिया दरबाजे के निकट है। यही पर भगवान् सभवनाथ का जी शीखं मन्दिर है जो प्रत्र सोमनाथ मन्दिर कहलाता है । सोभनाथ संभवनाथ का ही विकृत रूप है। इस मन्दिर की रचना पर ईरानी जी की छाप है। इसके नीचे प्राचीन जैन मन्दिर के अवशेष हैं। मन्दिर के ऊपर गुम्बद साबुत है किन्तु दो तरफ की दीवारें गिर चुकी हैं। वेदी के स्थान पर एक पाँच फुटी महराबदार अलमारी बनी हुई है । गर्भ गृह १०×१० फूट है। उसर, पूर्व और दक्षिण की पोर द्वार है। दीवार के आसार साढ़े तीन फुट है। गर्भगृह के बाहर एक चबूतरा है। उसके भागे नीचाई में दो भांगन हैं। ऐसा लगता है कि यह मन्दिर तीन करनियों पर बना था। इसका पूर्वी भाग कंकरीले फर्श वाला समचतुर्भुज श्रांगन है जो पूर्व से पश्चिम ५६ फुट और उत्तर से दक्षिण ४६ फुट चौड़ा है। इसके चारों ओर ईटों की दीवार है
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• अनेकान्त .
[ ३६ जिसमें मध्यकालीन मन्दिरो की शैली की घड़ी हुई छोटी और का जङ्गल अवशेषों पर ही है। कुछ लोगों का विश्वास ईंटे लगी हैं । दीवार के अन्दरूनी भाग में वेदियाँ बनी हुई है कि चन्द्रप्रभु भगवान् का जन्म स्थान यहीं था और इन हैं । खुदाई के समय यहाँ बहुत सी जैन मूर्तियां मिली थीं। ध्वस्त मन्दिरो में से कोई था। कहा जाता है, यहाँ चोचीस तीर्थङ्करों की मूर्तियां दी। सोभनाथ मन्दिर के निकट ही दो टीले है एक का इस मन्दिर के उत्तर पश्चिमी कमरे में प्रथम तीर्थङ्कर नाम है पक्की कुटी और दूसरे का नाम है कच्ची कुटो। ऋषभदेव की एक मूर्ति मिली थी। एक शिलापट पर दोनों टीलो पर धनुषाकार दीवार बनी हुई है। दोनों ही पद्मासन मुद्रा में भगवान् विराजमान हैं । पीठासन के दोनो टोलों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि
ओर सामने दो सिंह बैठे हुए हैं। मध्य में ऋषभदेव का यहाँ पर अवश्य ही स्तूप रहे होंगे । लांछन वृषभ है । भगवान् के दोनों प्रोर दो यक्ष खडे है। बौद्ध तीर्थ–सहेट भाग बौद्ध तीर्थ रहा है। म. उनके ऊपर तीन छत्र सुशोभित है । इसके अतिरिक्त शिला बुद्ध के निवास के लिये सेठ सुदत्त ने राजा प्रमेनजित के पट पर तेईस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उकेरी हुई हैं। यह मूर्ति पुत्र राजकुमार जेत से उसका उद्यान 'जेत बन' पठारह बड़ी भव्य है और लगभग एक हजार वर्ष प्राचीन है। करोड़ मुद्रा में खरीद कर एक बिहार का निर्माण कराया
कई मूर्तियों के प्रासन पर शिलालेख उत्कीर्ण है । इन था। सेठानी विशाखा ने भी 'पूर्वाराम' नाम का एक लेखों के अनुसार प्रतिमाओ का प्रतिष्ठा काल वि० संवत् सखाराम बनवाया था। सम्राट अशोक ने एक स्तूप का ११३३, १२३४ है। इनके अलावा यहाँ चैत्यवृक्ष, शासन निर्माण कराया था। म० बुद्ध ने यहां कई चातुर्मास किये देबियों की मूर्तियों आदि भी प्राप्त हुई हैं। ये सब प्रायः थे। इन सब कारणों से बौद्ध लोग भी इसे अपना तीर्थ मध्यकालीन कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।
मानते हैं । देश-विदेश के बौद्ध यहाँ यात्रा करने माते हैं। सोभनाथ मन्दिर के बाहर पुरातत्व विभाग की ओर यहाँ बौद्धों के तीन नवीन मन्दिर भी बन चुके है । वैशाखी से जो परिचय-पद लगा हुआ है, उस पर इसका परिचय पूणिमा को उनका मेला भी भरता है। इस प्रकार लिखा है:
वर्तमान जैन मन्दिर-बलरामपुर से बहराइच जाने ___ "यह एक जैन मन्दिर है। सोभनाथ भगवान् संभव- वाली सड़क के किनारे एक जैन मन्दिर बना हुआ है। नाथ का अपभ्रंश ज्ञात होता है। संभवनाथ तीसरे जैन मन्दिर शिखरबद्ध मन्दिर के बाहर तीन मोर बरामदे बने तीर्थडुर थे और उनकी जन्मभूमि श्रावस्ती थी। यहां से हए हैं। एक हाल मे एक वेदी बनी हुई है। भगवान् कितने ही जैन प्राचार्यों (तीर्थङ्करों) की प्रतिमाये प्राप्त हुई सभवनाथ की श्वेत वर्ण पद्मासन पौने चार फुट अवगाहना हैं। इस मन्दिर के किसी विशेष भाग की कोई निश्चित वाली भव्य प्रतिमा विराजमान है। इसको प्रतिष्ठ' सन् तिथि तय नहीं की जा सकती है। इसके ऊपर का गुम्बद, १९६६ में की गई थी। मूलनायक के अतिरिक्त २ समव. तो उत्तरकालीन भारतीय-अफगान शैली का है, प्राचीन नाय की, १ महावीर स्वामी की तथा १ सिद्ध भगवान् की जैन मन्दिर के शिखर पर बनाया गया है ।
धातु प्रतिमायें भी विराजमान हैं । भगवान् के चरण-युगल पुरातत्ववेत्ताओं (मि. कनिषम प्रादि) की मान्यता है भी अङ्कित है। कि इस मन्दिर के पास-पास १८ जैन मन्दिर प्रौर थे। मन्दिर उद्यान के दांये बाजू में है। सामने यही जैन जिनके अवशेषो पर पेड़ और झाड़ियां उग पाई है। चारों धर्मशाला भी है।
लेखक की 'भारत के जैन तीर्थ' पुस्तक
के प्रथम भाग से साभार
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कवि
कुल
कृवि धनपाल 'वकेटवंश' नामक वैश्य मे उत्पन्न हुआ था। इसके पिता का नाम माएसर और माता का नाम घनसिरि (धन श्री देवी था । प्रस्तुत धर्कट या धक्कड़ वश प्राचीन है। यह वश १ वी शताब्दी से १३ वी शताब्दी तक
,
धनपाल बहुत प्रसिद्ध रहा है और इस वश मे अनेक प्रतिष्ठित श्री सम्पन्न पुरुष और अनेक कवि
हुए हैं। भविष्य दन्त कथा का कर्ता प्रस्तुत धनपाली पावन वश में उत्पन्न हुआ था । जिसका समय १० वीं शताब्दी है। घम परीक्षा (सं० २०४४) के कर्ता हरिपेरण इसी वंश में उत्पन्न हुए थे। जम्बूस्वामि चरित्र के कर्ता वीर कवि (स० १०७६) के समय मालव देश मे षक्कड़ वंश के मधुसूदन के पुत्र तक्खडु श्रेष्ठी का उल्लेख मिलता है । जिनकी प्रेरणा से जम्बूस्वामि चरित्र रचा गया है । २ स० १२८७ के देलवाड़ा के तेजपाल वाले शिलालेख में 'धर्केट' जाति का उल्लेख है। इससे इस वंश की महत्ता और प्रसिद्धि का सहज ही बोध हो जाता है । धनपाल अपभ्रंश भाषा के अच्छे कवि थे और उन्हे सरस्वती का वर प्राप्त था। जैसा कि कवि के निम्न वाक्यों से चितिय
धरण वालि वरिण वरेण, सरसइ बहुलद्ध महावरेण ।' प्रकट है । कवि का सम्प्रदाय दिगम्बर या यह उनके भजि विजेख हियं वारि लायउ (सन्धि ५-२० ) के वाक्य से प्रगट है । इतना ही नहीं किन्तु उन्होने १६ वे स्वर्ग के रूप मे मच्युत स्वयं का नामोल्लेख किया है, यह दिगम्बर मान्यता है। धाचार्य कुन्दकुन्द की मान्यतानुसार सहलेखनाको चतुर्थ शिक्षाव्रत स्वीकार किया है। कवि के मूल गुणों का कथन १० वीं शताब्दी के प्राचार्य प्रमृतचन्द्र के पुरुषार्थ सिध्युपाय के निम्न लिखित पद्य से प्रभावित है:
प० परमानन्द जैन शास्त्री
-
मद्यं मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन ।
हिंसा ब्युपरतिकार्म मोक्तव्यानि प्रथममेव ।। (३-६१) 'ममं पंचुंबराई सतिए जम्मंतर समाई।"
प्राचार्य प्रमृतचन्द्र की इस मान्यता को उत्तरवर्ती विद्वान् प्राचार्यों ने (सोमदेव,
धक्कड
सि माएसर हो समु० मवि ।
सिरिदेवि सुरण विरइउ सरसइ संभविरण |
( अन्तिम प्रशस्ति)
२ -- ग्रहमालयम्मि धरण- करणदरसी, नयरी नामेरा सिंधु वरिसी । तहि स-तिल, यह बस बंद गुसलिलउ रामेण सेट्ठि लक्खवसई, जस पउहु जामु तिहूमरिण रसइ । (vig safer) सहोदुम्बर पञ्चकैः । ग्रहावेते गृहस्थानामुक्ता मूल गुला ( उपासका २२ २७० )
श्रुतौ । महू मज्भुमंत विरईचिता श्री पुरण उंबराता पंचव्हं । मूलगुला हवंति फुड, बेस विरयम्मि योनीमा हिंसामा
मद्य मांस-मधुन्धुज्भेत पंचझीरो फलानि च ।
( वा० २५६)
(सा० २-२ )
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. अनेकान्त
देवदेव, प० अाशाधर ने) अपने ग्रन्थों में अपनाया है । इन ने सच कहा है। जो माली कोदों बोता है वह शाली कहाँ सब प्रमाणों से ज्ञात होता है कि कवि धनपाल दिगम्बर से प्राप्त कर सकता है। सम्प्रदाय के विद्वान थे।
इन सुभाषितों और लोकोक्तियों से ग्रन्थ और भी भविष्यदत्त कथा -
सरस बन गया है। प्रस्तृत कथा अपभ्रंश भाषा की रचना है। प्रस्तुत
ग्रन्थ का कथा भाग तीन भागों में बांटा जा सकता कृति में ३४४ कडवक है। जिनमें श्रत पंचमी के वनका हैं। यथामाहात्म्य बतलाते हए उसके अनुष्ठान करने का निर्देश किया १- व्यापारी पुत्र भविष्यदस की संपत्ति का वर्णन. भविष्य गया है। साथ ही भविष्यदत्त और कमयश्री के चरित्र
दत्त अपने सौतेले भाई बन्धुदत्त से दो बार धोखा चित्रण द्वारा उसे और भी स्पष्ट किया गया है। ग्रन्थ का
खाकर अनेक कष्ट सहता है, किन्तु अन्त में उसे सफकथा भाग तीन भागों में बाँटा जा सकता है । चरित्र घटना
लता मिलती है। बाहुल्य होते हुए भी कथानक सुन्दर बन पडे है। उनमें १-कुरुराज और तक्षशिला मरेशो में युद्ध होता है, साधु-प्रसाधु जीवन वाले व्यक्ति का परिचय स्वाभाविक भविष्यदत उसमे प्रमुख भाग लेता है और उसमें बन पड़ा है। कथानक मे अलौकिक घटनाओं का समो.
विजयी होता है। करण हुप्रा है, परन्तु वस्तु वर्णन मे कवि के हदय ने माथ ३---भविष्यदत्त तथा उसके साथियों का पूर्वजन्म वर्णन । दिया है। प्रतएव नगर, देशादिक और प्राकृतिक वर्णन कथा का संक्षिप्त सार : सरस हो सके है। ग्रन्थ में रस और अलङ्कारों के पुट ने भरत क्षेत्र के कुरु जांगल देश में गजपुर नाम का एक उसे सु-दर और सरस बना दिया है। ग्रन्थ मे जहाँ शृङ्गार सुन्दर और समृद्ध नगर था। उस नगर का शासक भूपाल वीर और शान्त रस का वर्णन है वहाँ उपमा, उत्प्रेक्षा, नाम का राजा था। उसी नगर में धनपाल नाम का नगर स्वाभावाक्ति पीर विरोधाभास प्रल ड्रारों का प्रयोग भी सेठ रहता था। वह अपने गुणों के कारण लोक में प्रसिद्ध दिखाई देता है। भाषा मे लोकोक्तियाँ और वाग्धारामोका था। उसका विवाह हरिबल नाम के सेठ की सुन्दर पूत्री प्रयोग भी मिलता है।
कमलश्री से हुपा था। वह प्रत्यन्त रूपवती और गुणवती __ यथा---कि घिउ होइ विरोलिए पागिए-पानी थी। बहुत दिनों तक उसके कोई सन्तान न हुई प्रतएव के बिलौने से क्या घो हो मकता है?
वह चिन्तित रहती थी । एक दिन उसने अपनी चिन्ता का अग इच्छियड होति जिय दुक्खइं सहसा परि. कारण मुनिवर से निवेदन किया। मुनिवर ने उत्तर में सावनि तिह सोक्खइं। जैसे यच्छया दुख पाते हैं, कहा, तेरे कुछ दिनो मे विनयो, पराक्रमी और गुणवान् वैसे ही सहसा सुख भी प्रते हैं।
पुत्र होगा , और कुछ समय बाद उसके भविष्यदत्त नाम जोवरण वियार रसवस पसरि सो सरउ सो परियउ। का पुत्र हुमा। वह पड़ मिचकर सब कलापो में निष्णात चल मम्मरण ज्याला वहि जो परतिहि खंडियउ॥ हो गया।
(३-१५-६) पनपाम सुरूपा नाम की पुत्री से अपना दूसरा विवाह वही शूरवीर है, वही पण्डित है, जो यौवन के विषय कर लेता है । उसके बन्धुदस नाम का पुत्र हुमा । जब वह विकारो के बढ़ने पर परस्त्रियो के चञ्चल कामोद्दीपक वचनो युचा हुमा, तब बहुत उत्पात मचाने लगा। नगर के मेठों से प्रभा मत नहीं होता।
ने मिलकर विचार किया कि वह युवतियो से छेरखामी बहा जेरण बत्तं तहा तेण यत्तं इमं सुधए सिड लोएण युत्त। करता है, प्रत उसे कंचनपुर जाने के लिये तैगर रहमा सुपायन्नवा कोदवा मत्त माली कह सोमरो पावए तत्य चाहिए। मत्रीजन व्यवसाय के निमित्त बन्धुदत्त को भेजने
सासी । (पृष्ठ ४) के लिये तैयार हो गये। पोर बन्धुदत्त को अपने माथियों ओ जैसा देता है, वैसा ही पाता है, यह शिष्ट लोगो के साथ कचन द्वीप जाते हुए देखकर भविष्यदत्त भी अपनी
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४२ ]
* अनेकान्त . माता के बार-बार रोके जाने पर भी उसके साथ हो लिया। बाद भविष्यदत्त भी एक पक्षी की सहायता से गजपुर पहुँजब सुरूपा को पता चला तो बन्धुदत्त को सिखाकर कहा चता है और अपनी माता मे सब वृत्तान्त कहता है। माता कि तुम भविष्यदत्त को किसी तरह समुद्र में छोड देना। को वह नागमुद्रिका देकर उसे भविष्यानुरूपा के पास भेजता जिममे बन्धु बान्धवो से उसका मिलाप न हो सके । परन्तु है। स्वय अतक प्रकार के रत्नादि लेकर राजा के पास भविष्यदत्त की माता उमे उपदेश देती हुई रहती है कि जाता है और उन्हे राजा को भेट करता है। भविष्यदत्त परधन प्रौर परनारी को स्पर्श न करना । पाँच सौ बरिणको राजा को सब वृत्तान्त सुनाता है। परिजनो के साथ वह के साथ दोनों भाई जहाज में बैठकर चले। कई द्वीपान्तरो राजसभा में जाता है और बन्धुदत्त के विवाह पर प्रापति को पार कर उनका जहाज मदनाग द्वीप के समुद्र तट पर प्रकट करता है । राजा धनवइ को बुलाना है और बन्धुजा लगा। प्रमुख लोग जहाज से उतर कर मदमाग पर्वत दत्त का रहस्य खुनने पर राजा कोषवश दोनो को काराकी शोभा देखने लगे । बन्धुदत्त धोखे से भविष्यदत्त को वही वास का दण्ड देता है, पर भविष्यदत्त दोनों को ड्रडवा देता एक जङ्गल में छोड़कर अपने साथियो के साथ अगे चला है। राजा जयलक्ष्मी और चक्रलेखा नाम की दो दासियो जाता है। बेचारा भविष्यदत्त भटकता हुप्रा उज? हा एक को भविष्यानुरूपा के पास भेजता है। वे जाकर भविष्यासमृद्ध नगर में पहुँचता है । वहाँ पहुँच कर जिन मन्दिर मे नुरूपा से कहती हैं, राजा ने भविष्यदत्त को देश निकाले चन्द्रप्रभु की पूजा करता है। उसी उजडे नगर में वह एक का आदेश दिया है और बन्छ दत्त को सम्मान। अतः अब सुन्दर युवती को देखता है। उसी से भविष्यदत्त को पता तुम बन्धुदत्त के साथ रहो। किन्तु वह भविष्यदत्त मे अपनी चलता है कि वह समृद्ध नगर प्रसुरो द्वारा उजाड़ा गया अनूरक्ति प्रगट करती है। धनवइ नव दम्पत्ति को लेकर है। कुछ समय बाद वह असुर वहाँ पाता है और भविष्य घर पाता है। कमलश्री व्रत का उद्यापन करती है। वह दत्त का उस सुन्दरी से विवाह कर देता है।
जन संघ को जेवनार देती है। वह पिता के घर जाने को इधर पुत्र के चिरकाल तक न लौटने से कमलश्री तयार होती है, पर कचनमाला दासी के कहने पर सेठ सुव्रता नाम की प्राधिका से उसके कल्याणार्थ 'श्रुत पवमी कमश्री से क्षमा मागता है। राजा मुमित्रा के साथ व्रत' का अनुष्ठान करती है। उधर भविष्यदत्त भी माँ का भविष्यदत्त के विवाह का प्रम्त व रखता है । स्मरण होने से सपत्नीक और प्रचूर सम्पत्ति के साथ घर
कुछ समय बाद पांचाल नरेश चित्राग का दूत राजा लोटता है। लौटते हए उनकी बन्धुदत्त से भेट हो जाती भाल के पास प्राता है और कर तथा अपनी कन्या है। जो अपने साथियो के साथ यात्रा में प्रसफत हो विपन्न समित्रा को देने का प्रस्ताव करता है। राजा प्रसमजस में दशा में था। भविष्यदत्त उनका सहर्ष स्वागत करता है। पड़ जाता है। भविष्पदत्त युद्ध के लिये तैयार होता है और किन्तु बन्धुदत्त धोखे से उसकी पत्नी और प्रभूत धनराशि साहस तथा धैर्य के साथ पांचाल नरेश को बन्दी बना लेता को लेकर साथियों के साथ नौका मे सवार हो वहाँ से चल है। राजा सुमित्रा का विवाह भविष्यदत्त के साथ करता देता है।
है और राज्य भी सौप देता है। मार्ग में उसकी नौका पुनः पथभ्रष्ट हो जाती है और कुछ समय के बाद भविष्यानुरूपा के दोहला उत्तन बजम तमे गजपुर पहुंचते हैं। घर पहुँच कर बन्धुदत्त होता है और वह तिलक द्वीप जाने की इच्छा करती है। भविपदत्त की पत्नी को अपनी पत्नी घोषित कर देता भविष्ष दत्त सपरिवार विमान में बैठकर तिलक द्वीप है । उनका विवाह होना निश्चित हो जाता है। कमलश्री पहुंचता है और वहाँ जिन मन्दिर मे चन्द्रप्रभु जिन की लोगों से भविष्यदत्त के विषय मे पूछती है, परन्तु कोई उसे सोत्साह पूजन करता है और चारण मुनि के दर्शन कर स्पष्ट नहीं बतलाता । कमलश्री मुनिराज से पुत्र के सम्बन्ध श्रावक धर्म का स्वरूप सुनते हैं। प्रग्ने मित्र मनोवेग के में पूछती है। मुनिराज ने कहा, तुम्हारा पुत्र जीवित है, पूर्वभव की कथा पूछता है और सभी सकशल गजपुर लौट वह यहाँ पाकर माधा राज्य प्राप्त करेगा। एक महीने के प्राते है । भविष्यदत्त बहुत दिनों तक राज्य करता है।
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भविष्यानुरूपा के चार पुत्र उत्पन्न होते हैं-सुप्रभ, कनक नभ सूर्यप्रभ और सोमप्रम तथा तारा, सुतारा नाम की दो पुत्रियाँ उत्पन्न होती है । सुमित्रा से घरगेन्द्र नाम का पुत्र तथा तारा नाम की पुत्री उत्पन्न होती है।
• अनेकान्त **
कुछ समय बाद विमलबुद्धि मुनिराज गजपुर प्राते हैं। भविष्यदत्त सपरिवार उनकी वन्दना करने के लिये जाता है धौर उनसे अपने पूर्वभव जसकर देह भोगो से विरक्त हो, सुप्रभ को राज्य देकर दीक्षा ले लेता है और तपश्चरण द्वारा वैमानिक देव होता है और अन्त में मुक्ति
का पात्र बनता है ।
रचना काल. -
-
कवि धनवाल ने भविष्यदत्त कथा मे रचना काल नही दिया और न अपनी गुरु परम्परा हो दी। इससे रचना काल के निर्णय मे बड़ी कठिनाई हो रहा है । ग्रन्थ की सबसे प्राचीन प्रतिलिपि स० १३६३ की उपलब्ध है, जैसा कि लिपि प्रशस्ति के निम्न पद प्रकट है:
"संवच्छ रे किरा विकणं, ग्रहो एहितेण वदि तेरह सरणम् । वरिस्सिय प्रवेग सेयम्मि पक्खे, तिहि वारसी सोमि रोहिणी विखे ॥ सुहज्जोइमय रगमो बुद्धपत्तो इमो सुन्दरो सत्यु सुहदिणि समतो ॥'
यह शस्त्रसंवरसर विक्रम तेरह सौ निरानवे मे पोस मास शुद्वादशी सोमवार के दिन रोहिणी नक्षत्र मे शुभ घडी शुभ दिन में लिखकर समाप्त हुप्रा । उस समय दिल्ली में मुहम्मद शाह बिन तुगलक का राज्य था । इस ग्रन्ग की प्रति को लिखकर देने दिल्ली निवासी हिमपाल के पुत्र बाधू साहू थे। जिन्होंने अपनी कीर्ति के लिये प्रन्य अनेक शास्त्र, उपशास्त्र लिखवाये थे। यह भविष्यदत्त कथा उन्होने अपने लिये लिखवाई। इससे यह ग्रन्थ स० १३६३ (सन १३३६६०) से बाद का नहीं हो सकता, किन्तु उससे पूर्व रचा गया है।
डाक्टर देवेन्द्रकुमार ने मूल से इस लिपि प्रशस्ति को श्री बलाल और गुणे द्वारा सम्यादित गायकवाड़ पोरिन्टियल सीरीज प्रत्याङ्क नं० २०, १६५२ ई० में प्रकाशित१- इहते परत सुहायार हेउ, तिरो लिहिम सुत पंचमी हि हेव (अनेकान्त वर्ष २१ रिस)
[ ४३
जो अग्रवाल वंशी साहु वाधू ने लिखवाई थी मूल ग्रन्थकर्ता धनपाल की प्रशरित समझ कर उसका रचना काल सवत् १३६३ (सन् १३३६) निश्चित कर दिया है। यह एक महान भूल है, जिसे उन्होंने सुधारने का प्रयत्न नहीं किया।
जबts डॉ० हर्मन जंकोवी ने इस ग्रन्थ का रचना काल दशवी शताब्दी से पूर्व माना जा सकता है, ऐसा लिखा है। श्री दलाल और गुणे ने भविसयत्त कहा की भूमिका में बतलाया है कि धनपाल की भविसयत्त कहा की भाषा हेमचन्द्र से अधिक प्राचीन है। इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ वि० स० १२ वी शताब्दी से पूर्व की रचना है । फिर भी डाक्टर देवेन्द्रकुमार ने वि० सं० १२२० मे रवी जाने वाली faबुध श्रीधर को भविसयत्त कहा से तुलना कर धनपाल की कथा को अर्वाचीन बतलाने का दुस्साहस किया है। जबकि स्वयं उसके भाषा साहित्य को शिथिल (घटिया दर्जे का) माना है और लिखा है कि इन वनो को देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि काव्य, कवित्व शक्ति से भरपूर है। पर कल्पनात्मक बिम्बार्थ योजना और प्रलङ्करणता तथा सौन्दय नुभूति की जो झलक हमें धनपाल की भविष्यदत्त कथा मे लक्षित होती है, वह इस काव्य (विबुध श्रीधर की कथा ) मे नही है- "विबुध श्रीधर के भविष्य दत्त कथा की भाषा चलती हुई प्रसाद गुण युक्त है।" (देखो भविष्यत्त कथा तथा अपभ्रंश कथा काव्य पृष्ठ १५२ ) जबकि धनपाल की भविष्यत्त कहा की भाषा प्रोढ, प्रल करण और बिम्बार्थ योजना आदि को लिये हुए है । भाषा प्रांजल और प्रसाद गुण से युक्त है ।
कवि धनपाल ने ग्रन्थ मे भ्रष्ट मूल गुणों को बतलाते हुए मद्य, मांस और मधु के साथ पच उदम्बर फलों के त्याग को अमूल गुण बतलाया है ।
यथा-ममं पंच बराई खज्जति सामंतर (भविसयत कहा १६८ )
सयाई ।
दावी शताब्दी से पूर्व मूल गुणों में पच उदम्बर फलो का त्याग शामिल नही था, जैसा कि प्राचार्य समन्त भद्र के निम्न पद्य से प्रकट:
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* अनेकान्त *
मद्य मांस मधु त्यागे सहालु क्त पंचकम् ।
सोमदेवाचार्य के (१०१६) के उपासकाध्ययन में प्रष्ट प्रष्टोमूल गुणाना हिणां धमणोत्तमा । मूग गुणो मे तीन मकारा (मद्य, मांस, मधु) के त्याग के
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४-६६) साथ पञ्च उदम्बर फलो का त्याग भी बतलाया है। प्रोर प्राचार्य जिनसेन के बाद अष्टमूल गुणो में पांच अणू
इनके उत्तरवर्ती विद्व न् अमितगति, देवसन, पद्मनन्दि, व्रतो के स्थान पर पच उदम्बर फनी के त्याग को शामिल माशाधर मादि ने भी स्वीकृत किया है। किया गया है। दशवी शताब्दी के अमृतचन्द्राचार्य के
कवि धनपाल ने प्राचार्य अमृतचन्द्र मे प्रष्ट मूल गुणो पुरुषार्थ सिध्युपाय के निम्न द्य में प्रष्ट मूल गुणों में पच
को ग्रहण किया है । यदि यह मान लिया जाये तो धनपाल उदम्बर फलों का त्याग बतलाया है:
का समय दशवी शताब्दा का अन्तिम चरण अथवा ग्यारमचं मांसं क्षौद्र पञ्चोदुमार फलानि यत्नेन ।
हवी शताब्दी का प्रथम चरण हो सकता है। वे इसके बाद हिसा व्युपरति काम मोक्तव्यानि प्रथममेव ॥
के ग्रन्थकार नहीं है। (पुरुषार्य सिध्युपाय ३-६१)
T
-HREE MixRTISTER
-- - -
-sana
-
Kavinata
UIRE
ARRA
प्राचीन जैन मन्दिर खजुराहो
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प्रमेय रत्नालंकार
एक परिचय
--प्रकाशचन्द्र जैन
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यह छोटी सी पुस्तक जैन दर्शन पर नव्य न्याय की उपलब्ध हैं । पहली टीका तो प्रभाचन्द्र की न्यायकुमुद है। शैली से श्रवण बेल गोला जैन मठ के श्री चारुकोति प्रभाचन्द्र का समय ६ वी शताब्दी का प्रथम चतुर्थाश माना पडिताचार्य स्वामी द्वारा मारिणक्य नन्दी के परीक्षा मुख के जाता है। दूसरी टीका अनन्तवीर्य या लघु अनन्तबीयं के सूत्रो को वस्तृत व्याख्या करने के लिये लिखी गई है। यह द्वारा लिखी गई है। इनका समय ग्यारहवी शताब्दी का कहा जाता है कि मारिणक्य नन्दी ने अपनी तर्कशास्त्र लिखने प्रारम्भ माना जाता है । प्रमाचन्द्र द्वारा रचित टीका प्रमेय की प्रेरणा प्रकलङ्क देव से ग्रहण की थी। प्रकलङ्क देव कमल मार्तण्ड के नाम से विख्यात है तथा प्रनन्तवीर्य की पाठवी शताब्दी के मध्य हुए थे। तस्वार्थ सूत्र के रचयिता टीका प्रमेय रत्नमाला और परीक्षामुख पत्रिका के नाम से उमा स्वामी के पश्चात् जैन दर्शन के सबसे महाम् विद्वान् प्रसिद्ध है। प्रकलङ्क देव ही माने जाते है। प्रकलङ्क देव के सपय तक प्रस्तुत प्रमेय रत्नालङ्कार पुस्तक, परीक्षामुख के सूत्रों जैन दर्शन रचना-प्रणाली में पर्याप्त परिवर्तन आ चुका को टोका, प्रमेय कमल मार्तण्ड को अपना मुख्य माधार था भोर उस समय को रचनायें बड़ी मात्रा में हिन्दू और मानते हुए लिखी गई हैं। जैसा कि प्रारम्भिक परिचयात्मक बौद्ध पद्धतियों से प्रभावित हुई है। तत्त्वार्थ सूत्र से ये रच- इलोको मे मे छठे श्लोक के द्वारा प्रगट होता है। लेखक नाये बहुत ही भिन्न थी। तत्कालीन जैन दर्शन ग्रन्थों में बार-बार उमा स्वामी, मकलङ्क देव. प्रभा चन्द्र और मनन्त प्राप्त प्रत्यक्ष और परोक्ष की परिभाषाएं उमा स्वामी की वीर्य का निर्देश करके अपने विचारों का समर्थन करता है परिभाषामों से एकदम भिन्न हैं तथा हिन्दू तर्क शास्त्रियों तथा सांख्य, न्याय, वैशेषिक भट्ट, प्रभाकर मुरारि मिश्रीय की परिभाषाओं के प्रति सन्निकट है । प्रत्यक्ष ज्ञान की रामानुजीय अध्व पोर अवस भादि भजनो द्वारा प्रतिपापरिभाषा इस समय के ग्रन्थकारो ने यह दी है कि "वह दित सिद्धान्तों का खण्डन करता है। ज्ञान प्रत्यक्ष है जो इन्द्रियो के विषय से सम्बन्ध रखता है प्रमेय रस्नालङ्कार के रचयिता श्री चकीत पंडितातया अप्रत्यक्ष ज्ञान वह है जो इन्द्रियातीत विषयो को चायं मद्रास राज्य के वन्दीवाश तालुका के सतमङ्गमा के ग्रहण करता है।" ठीक इसी प्रकार ज्ञान का वर्गीकरण समीपवर्ती एलादु ग्राम के मूल निवासी थे। वे एक जैन भी उसी प्रकार किया गया है जैसा कि हिन्दू तर्कशास्त्रों में ब्राह्मण थे तथा जिनम्या के नाम से विच त थे। इन्होने किया गया है। उमा स्वामी द्वारा किये गये शान के वर्गी- अपने ग्राम में रहते हुए ही विशेष पण्डितों से व्याकरण करण से उसका तालमेल नही बैठता है।
और साहित्य की शिक्षा प्राप्त की थी। इसके बाद वे उस माणिक्य नन्दी के परीक्षामुख सूत्र की दो टोकाये शिक्षा प्राप्त करने के लिये जैन शिक्षा विद्यापीठ, मैसूर
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* अनेकान्त . राज्य में स्थित श्रवणबेल गोला चले गये। वहां उन्होने स्वरूप की जिज्ञासा मे होता है । यह जिज्ञासा मात्र बौद्धिक तत्कालीन जैन गुरु कम्बय्य स्वामी के चरणो मे बैठकर उत्सुकता के मन्तोष के लिए नही है परन्तु अन्य भारतीय जैन धर्म के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। उन्हें ऐसा दर्शन शास्त्रो की भांति विशेष उद्देश्य लिये हुए है। प्रतीत हुअा कि तर्कशास्त्र के अध्ययन किये बिना इन धर्म यह प्रमाण ही है जिसके द्वारा वास्तविकता के स्वरूप ग्रन्थो पर पूर्ण पधिकार प्राप्त नही किया जा सकता। का ज्ञान होता है और प्रमाण ही वह सच्चा ज्ञान है जो न्याय पढ़ने की उनमें तीव्र उत्कण्ठा थी। ठीक उसी समय प्रज्ञान को दूर करके हमे जीवन चरम उद्देश्य की प्राप्ति मंसूर के एक ब्रह्ममूरि पण्डित नामक विद्वान् जिनका कि की दिशा में ले जाता है। यदि हमें जीवन में सफल होना उस समय के मैसूर के राजा श्रीकृष्ण राजा वोदेयर तृतीय है तथा अपने समस्त कि ग-कलापो का सफल परिणाम पर बहुत प्रभाव था, मठ के स्वामी जी के दर्शनार्थ श्रवण प्राप्त करना है तो प्रमाण के स्वरूप के सम्बन्ध में जिज्ञासा बेल गोला पधारे। स्वामी जी की छत्रछाया में अध्ययन प्रत्यावश्यक है। करते हुए जिनय्या पर ब्रह्मसूरि पण्डित की कृपारष्टि हुई। प्रमाण क्या है ? इसका स्वरूप दर्शनशास्त्र की प्रक वे जिनय्या के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए शाख के द्वारा भिन्न-भिन्न बताया गया है । न्याय, वैशेषिक कि उन्होंने उसे सर जाने की सलाह दे दी। जिनय्या ने मीमासा, सांख्य, बुद्ध और वेदान्त के सिद्धान्तो पर विचार कहा कि यदि उसके लिये तकशास्त्र के अध्यापन का विशेष करने तथा उनका खण्डन करने के बाद लेखक ने जैन प्रबन्ध किया जाये तो वह मैसूर जा सकता है। ब्रह्ममूरि सिद्धान्त स्पष्ट किया है कि प्रमाण वह है जिसके द्वारा न पण्डित ने जिनय्या की इस बात को स्वीकार किया तथा वे जानी गई वस्तुप्रो का निश्चित ज्ञान प्राप्त हो जाये । प्रमाण उसे मैसूर ले प्राये। वहां उन्होंने इसको तर्कशास्त्र की उच्च स्वयं प्रकाशित है तथा यह एक पोर तो दीपक की तरह शिक्षा प्रदान करने का प्रबन्ध कर दिया। कुछ ही दिन स्वय को प्रकाशित करता है, दूसरी ओर यह उपस्थित बीते थे कि श्रवणबेल गोला मठ के स्वामी जी का देहाव. विषयों को भी प्रकाशित करता है । इसकी सत्यता स्वाभा. सान हो गया। ब्रह्ममूरि पण्डित ने यह अनुभव किया कि विक है। इसे अपनी सत्यता सिद्ध करने के लिये किसी जिनय्या ने संस्कृत भाषा को विभिन्न शाखाप्रो में प्रवीणता बाहरी व तु की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह प्राप्त कर ली है प्रतएव यही एकमात्र सुयोग्य व्यक्ति है जो केवल कोई प्रस्तुतीकरण मात्र नहीं है, न ही कोई धु धला श्रवणबेल गोला के मठ की गद्दो को सभाल सकता है। भाव है किन्तु सविकल्पक, व्यवसायात्मक अथवा निश्चायक इसीलिए उन्होने इन्हें श्रवणबेल गोला के मठ की गद्दी के है। यह वस्तु का 'यह' जैसा निश्चित ज्ञान है, 'वह' जैसा लिये चुन लिया तथा महाराजा की प्राज्ञा से उन्हें गद्दी का नही । यह प्रमाण, जो स्वयं तो जाम है, एक दूसरे ज्ञान के प्रधान नियुक्त कर दिया। तभी से जिनय्या मभिनव चारु. अंश प्रमा को भी जन्म देता है। यह प्रमा का जनक प्रमाण कोति पण्डिताचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अनुम न है है, प्रमा का कारण प्रमाण नही है। इसीलिए प्रमाण को कि इनका काल सन् १७६० और १८६० के बीच मे रहा कारण, कारक साकल्प, इन्द्रिय, सन्निकर्ष, इन्द्रियावृत्ति होगा।
अथवा ज्ञात व्यापार मानना ठीक नही है । इस ज्ञान का इनकी प्रस्तुत रचना ६ विभागों में विभक्त है । प्रत्येक विषय न तो विशेष है पोर न सामान्य है बल्कि सामान्य विभाग में किसी एक प्रमुख विषय की विस्तृत व्याख्या की विशिष्टात्मक है। इसकी स्थापना चौथे परिच्छेद मे दूसरे गई है । इन विभागो का नाम इन्होंने परिच्छेद दिया है दर्शनो के विचारो का खण्डन करने के पश्चात की गई है। जैसा कि प्रभाचन्द्र ने अपनी कृति प्रमेय कमल मार्तण्ड में द्वितीय परिच्छेद में भारतीय दर्शन शास्त्रो में प्रतिपाकिया है। परन्तु परीक्षामख सत्र में तथा इसकी टीका दित प्रमाणो की संख्या के विषय मे भनेक विचारो का अनन्तवीर्य की प्रमेय रत्नमाला में इन विभागों का नाम वर्णन किया गया है । चार्वाकों के अनुसार केवल प्रत्यक्ष ममुह श किया गया है। पुस्तक का उद्घाटन प्रमाण के ही एकमात्र प्रमाण है। वोट दर्शन शास्त्री प्रत्यक्ष और
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* अनेकान्त -
[ ४७ मनुमान दो प्रमाण मानते है । रामानुजीय दर्शनशास्त्र वेत्ता किया गया है। जो जान प्रत्यक्ष नहीं है वह परोक्ष कहप्रमाणो की मख्या में प्रागम को और जोड़ते हुए प्रत्यक्ष, लाता है। स्मृति (स्मरण), प्रत्यभिज्ञा (वस्तु की पहिच न) अनुमान और प्रागम इस प्रकार प्रमाण के तीन भेद स्वी. तर्क (विशेष सम्बन्ध का ज्ञान), अनुमान, प्रागम ये सभी कार करते है। नैयायिक चार प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, परोक्ष हैं। भारतीय कुछ दर्शनशासम्मृति को प्रमाण रूप अनुमान, आगम और उपमान । प्रभाकर मतावलम्बी इस मे स्वीकार नही करते परन्तु जैनों के अनुसार स्मृति को सूची में अर्यापत्ति को और जोड कर प्रमाणो की संख्या भी प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि यह भी उतनी यथार्थ पाँच तक पहुंचा देते हैं। भट्ट मिन्तानामारी प्रमाणो की होती है जितने कि दूसरे प्रकार के ज्ञान । स्मृति केवल सरूपा ६ मानते हैं क्योंकि वे ऊपर की सूची में एक नया पूर्वानुभूत्त वस्तु का प्रभाव मात्र नहीं है कि यह पूर्वानुप्रमाण अनुपलब्धि और जोड देते हैं । पौराणिक पाठ भूत वस्तु का ज्ञान है। यह भूतकाल को निश्चित घोषणा प्रमाण मानते है क्योकि वे ऐतिह्य पोर सम्भव को भी है। प्रत्यभिज्ञान या पहिचान की एक प्रकार का प्रामाणिक प्रमाण के अन्तर्गत ही गिनते है। परन्तु जैन सिद्ध न्त के ज्ञान है। यह एक मिला-जुला ज्ञान है। यह न तो पूर्ण, अनुसार प्रमाण दो ही हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष स्मृति है और न पूर्ण ज्ञान है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान और को छोडकर शेष सभी प्रमाण परोक्ष के अन्दर ही मित स्मृति से बना हुआ ऐसा ज्ञान है। यह एक नया शान है हो जाते है।
जिसे ज्ञान या स्मृति मे नही मिलाया जा सकता है। यह प्रत्यक्ष क्या है? यह वह ज्ञान है जो विशद अर्थात वस्तु का स्मृति मोर प्रत्यक्ष जान द्वारा निश्चय है। दवदत्त स्वच्छ होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण बिल्कुल सीधा और तत्काल जो हमारे सामने है, उसे हमने पहले देखे गये पूर्वकाल के वस्तु को जानता है। वह किसी अन्य प्रकार के ज्ञान पर
जा। किसी कार के जान पर स्मरण के द्वारा ही पहिचाना है। इस ज्ञान का रूप, “यह प्राधारित नही होता है। यह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है- वसा है, या यह नहीं है, "यह उससे भिन्न है' "यह उमी (१) मुख्य अर्थात् प्रारम्भिक (२) साव्यावहारिक अर्थात का प्रतिरूप है" भादि, इस प्रकार का होता है। नैयायिक प्रयोगात्मक । पहला अर्थात मुख्य प्रत्यक्ष पूर्णतया इन्द्रियों जिसे उपमान मानते है वह भी एक प्रकार की पहिचान
और मन से स्वतन्त्र होता है, जबकि दूसरा उनकी सहा- ही है। इसलिये जैनियो ने उपमान को प्रलग प्रमाण स्वीयता ग्रहण करता है। यह व्यावहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय कार नही किया है। ग्राह्य ज्ञन और मनोग्राह्य ज्ञान के भेद मे दो प्रकार का तर्क या ऊहा व्याप्ति का ज्ञान है। यह किसी वस्तु की है। इन्द्रिय ग्राह्य ज्ञान ४ प्रकार का है। अवग्रह, ईहा, उपस्थिति या अनुपस्थिति दूसरी वस्तु के सम्बन्ध में इस अवाय और धारणा। सम्भवत: ये भेद ज्ञान के निश्चय के प्रकार का रूप ग्रहण करती है-यदि यह है, वह है यदि चार स्तरो को बताते हैं। अवग्रह ज्ञान वह है जो वस्तु को यह नही सो वह नहीं है। यह सहभाव या कर्मभाव का बिना किसी विशेषता बताये जैसा का तैसा ग्रहण करे। अविनाभाव सम्बन्ध है। यह सहभाव का पविनाभाव ईका ज्ञान व है जो बतु को और विशेष प्रौर निश्चित सम्बन्ध किसी तत्व में और इसकी उपाधियों में, कुछ वरणों रूप से जानने की चेत करे। पवाय वह है जो वतु के मे और कुछ म्वादो मे, मिसपा पौर वृक्ष में पाया जाता प्रतिबिम्ब के द्वारा वस्तु की पूर्णता, अपूरणता, गुण और है। कमभाव का प्रविन भाव सम्बन्ध दिन और रात में, दोषो के स्वरूप को जान ले। धारणा वस्तु को अन्तिम सूर्यास्त और तारो के उदय में, नदी की बाढ पौर वर्षा में, (पूर्ण पहिचान है क्योंकि यह मस्तिष्क में वस्तु के पूर्व कारण और उसके प्रभाव में पाया जाता है।
रूप को मस्तिष्क में जमा देती है। अन्तीन्द्रिय ज्ञान वह अनुमान किसी वस्तु का वह मुख्य ज्ञान कहलाता है • ज्ञान है जो सर्वज्ञ अपने पात्मानुभव के द्वारा बिना किसी जो साधन या कारण के द्वारा होता है। यथार्थ साधन वही वस्तु को सहायता के जानता है ।
समझा जायेगा जो साध्य से अभिन्नता से सम्बद्ध हो । तृतीय परिच्छेद मे परोक्ष ज्ञान के सम्बन्ध में विचार इसके बाद इस परिच्छेद मे साध्य-पक्ष की परिभाषा,
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* अनेकान्त
स्वार्थ पोर परार्थ के भेद से अनुमान का वर्गीकरण, पाँच प्रदान करता है जिसके द्वारा हम यह जान सकते है कि अवयव, भाव साधक और प्रभाव साधक के भेदों मे हेतु कौनसा कार्य हमारे लिये हितकारक और उपादेय है, कोन का वर्गीकरण का वर्णन किया गया है। प्रत्येक को उचित सा अहितकारक और अनुपादेय है तथा कोनसा कार्य न उदाहरणों के द्वारा विस्तार से समझाया गया है। हितकारक है न अहितकारक है बल्कि उपेक्षणीय है।
अन्त में मागम को परिभाषा देते हुए बताया गया है प्रमेय रत्नालङ्कार के अन्तिम प रच्छेत में लेखक ने कि वह पागम ज्ञान है जो प्राप्त अथवा पनासक्त एव प्रमाणामानों को अनेक उदाहरण देकर समझाया है। यथार्थवक्ता पुरुष के द्वारा कहे वाक्यों से उत्पन्न होता है। लेखक ने बताया है कि नय वह पनि है जिसके द्वारा यदि किसी साधारण विश्वस्त व्यक्ति के द्वारा कहे हुए केवल वस्तु को एक रूप ही माना जाता है परन्तु जैनो के वचन हो तो वह लौकिक भागम कहलाता है और जो अनेकान्त सिद्धान्त के द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि प्राप्त और सर्वज्ञ के द्वारा कहा गया है वह शाखीय भागम वस्तु के अनेक रूप और पाभास होते हैं। यहाँ उन सभी कहलाता है।
का विस्तृत वर्णन करना व्यर्य है। इस प्रकार प्रमाण के विभिन्न भेदों की यथार्थ परि- प्रमेय रत्नालङ्कार की तीन पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई भाषा देने के बाद लेखक ने अन्त में ज्ञान के प्रन्तिम लक्ष्य है। एक प्रति तो कागज पर है तथा तीन पाण्डुलिपियाँ का वर्णन किया है। यह पूर्णतया व्यावहारिक है । मोक्ष ताड़पत्रो पर श्रवणबेल गोला के मठ से प्राप्त की गई हैं। प्राप्त करने के लिये ज्ञान प्रावश्यक है। ज्ञान अज्ञानता के श्रवणबेल गोला के मठ से प्राप्त पाण्डुलिपियों ही शुद्ध कही अन्धकार को दूर करता है तथा हमें ऐसा सचा विवेक जा सकती हैं।
पैराडाईज प्रिण्टर्स, सहारनपुर
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वीर सेवा मन्दिर का अभिनव प्रकाशन
जैन लक्षणावली भाग दूसरा
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चिर प्रतीक्षित जैन लक्षताावली (जैन पारिभाषिक शब्दकोष) का द्वितीय भाग भी छप चुका है। इसमें लगभग ४०० जेन ग्रन्यों से वर्णानुक्रम के अनुसार लक्षणों का सङ्कलन किया गया है। लक्षणों के सङ्कलन में ग्रन्थकारों के कालक्रम को मुख्यता दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थों के लक्षण संगृहीत है उनमें से प्राय: एक प्राचीनतम ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है । जहाँ विवक्षित लक्षगण में कुछ भेद या होनाधिकता लिखो है वहां उन ग्रन्थों के निर्देश के साथ २-४ ग्रन्थों के आश्रय से भी अनुवाद किया गया है। इस भाग में केवल 'असे ग्रौ' तक लक्षणों का सङ्कलन किया जा सका है । कुछ थोड़े ही समय में इसका तीसरा भाग भी प्रगट हो रहा है, वह लगभग तैयार हो चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधकों के लिए तो विशेष उपयोगी है ही, साथ हो हिन्दी अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी है। द्वितीय भाग बड़े आकार में ४१८+८+१४...... पृष्ठो का है । कागज पृष्ठ व जिल्द कपड़े की मजबूत है। मूल्य २५-०० रु० है। यह प्रत्येक यूनीवर्सिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों में संग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार-बार नहीं छपते । समाप्त होने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है।
प्राप्ति स्थान वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६
4004-0-0-440
00-00-0+
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R. N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुगतन जैनवाक्य सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुकमणी, जिसके साथ ४८ टोकादि ग्रन्था मे
उद्धृत दूसरे पद्यो को भी अनुक्रमणी लगो हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यो की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी को गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना में अलकृत, डॉ० कालीदास नाग, एम. ए., डा. लिट् के प्रकपन (Foreword) और डॉ० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानों के लिए प्रतीव उपयोगी, बडा साइज, सजिल्द । १५-०० मातपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर
विवेचन को निये हुए, न्याया वार्य प० दरबारीलाल जी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । सायम्मूस्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्य, मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की
गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटोक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर
मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द सहित । अध्यात्मकमलमातंण्ड : पञ्चाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित १-३० युक्त्यनुशासन : तत्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुमा था। मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से प्रलकृत, सजिल्द ।
१-२५ श्रीपुरपावनापत्तोत्र : मावार्य विद्यानन्द रचित, महत्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। " ०-७५ शासनचतुविशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकोति की १३ वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद सहित समीचीन धर्मशान : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगल किशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द ।।
३-०० जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह मा० १: संस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो को प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री को इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द ।
४-०० समाधितन्त्र मोर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री को हिन्दी टीका सहित ।
४-०० अनित्यमावना : प्रा० पद्मनन्दी को महत्व की रचना, मुख्तारश्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ०-२५ तत्त्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रोय) मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
०-६५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ
१-२५ महावीर का सर्वोद । तीयं, समन्त मा विचार-दीपिका, महावीर पूजा, बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य
०-१६ अध्यात्मरहस्य : प. प्राशाधार की सु-दर कृति, मुख्तार जो के हिन्दी अनुवाद सहित । जनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह मा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्यकारो के ऐतिहासिक ग्रन्थ-परिचय और परिशिष्टो सहित । सं.५० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १२-०० न्यायदीपिका : मा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डॉ० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७-०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४० सजिल्द कसायपाहडमुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूरिणसूत्र लिखे। सम्पादक पं० हीरालाल जी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०-०० Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद, बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ, पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
५-००
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R.N. 10591/62 वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन पुरातन जैनवाक्य सूची: प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टोकादि ग्रन्थो में
उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी को गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डॉ० कालीदास नाग, एम. ए., डा. लिट् के प्रावधन (Foreword) और डॉ. ए. एन. उपाध्ये एम.ए., डी.लिट की भूमिका ।
(Introduction) से भूषित है, शोष-खोज के विद्वानों के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५-००. प्रातपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति, प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को निये हुए, न्याया वार्य ५० दरबारीलाल जी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । यम्भूस्तोत्र : समन्तभद्र भारती का अपूर्व ग्रन्य, मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी के हिन्दी अनुवाद तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से मुशोभित ।
" २-०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द सहित ।।
१-५० अध्यात्मकमलमातंण्ड : पञ्चाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी अनुवाद सहित १-३० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हुमा था। मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से पलकृत, सजिल्द ।
१-२५ श्रीपुरपावनायस्तोत्र : प्रा वार्य विद्यानन्द रचित, महत्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ... ०-७५ शासनचतुचशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३ वी शताब्दी की रचना, हिन्दी अनुवाद सहित ०-७५ समीचीन धर्मशास : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्था चार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह मा० १ : सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियो का मगलाचरण
सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । ... ... ... ...
४-०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश: अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित ।
४-०० प्रनित्यमावना : प्रा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तारश्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ०-२५ तत्वार्थसूत्र : (प्रभावन्द्रीय) मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।।
०-६५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ
१-२५ महावीर का सर्वोद तीर्थ, समन्त मन विचार-दीपिका, महावीर पूजा, बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : प. प्राशापार की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनप्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह मा० २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्यकारो के ऐतिहासिक ग्रन्थ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स. प० परमानन्द शास्त्री । सजिल्द । १२-०० भ्यायबीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डॉ० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७-०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ सख्या ७४० सजिल्द कसायपाहुइमुत्त: मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प० हीरालाल जी सिद्वान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी मषिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०-०० Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अग्रेजी मे अनुवाद, बड़े भाकार के ३०० पृष्ठ, पक्की जिल्द जैन निबन्ध-रत्नावली: श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
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पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री सम्मानित
हर्ष का विषय है कि हमारे वीर सेवा मन्दिर के प्रसिद्ध विद्वान् तथा जैन लक्षणावली आदि अनेक ग्रन्थों के सम्पादक पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री को उनकी साहित्य सेवाओं से प्रभावित होकर दिनांक २८-१-१९७४ को मेरठ में २५०० रुपये का पुरस्कार एवं प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया गया है । मुनिवर्य विद्यानन्द जी के तत्त्वावधान मे स्थापित वीर निर्वाण भारती मेरठ ने जैन समाज के प्रसिद्ध साहित्य सेवियों को प्रोत्साहन देने के लिए इस सम्मान समारोह का आयोजन किया था ।
वीर सेवा मंदिर दरियागंज दिल्ली का परिवार पण्डित जी को उक्त सम्मान के लिए हार्दिक बधाई
देता है।
महेन्द्र सेन जैनी महा सचिव
जैन समाज पर अनभ्र वज्रपात
जैन समाज के प्रसिद्ध साहित्य सेवी डा० नेमिचन्द्र जैन शास्त्री के देहावसान का समाचार पाकर महान् शोक हुआ। डा. साहब का वियोग जैन समाज की ऐसी महान् क्षति है जो कभी पूर्ण नहीं हो सकती । डाक्टर नेमीचन्द्र जैन ने जैन साहित्य की महान् सेवा की है । संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी में आपने अनेक मौलिक, पालोचनात्मक ग्रन्थों की रचना की है। शोध के क्षेत्र में आपने जो प्रतिष्ठा प्राप्त की-वह सर्व विदित है।
हम डाक्टर साहब के प्रति श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हैं तथा उनके पारिवारिक जनों को धैर्य धारण करने के लिए क्षमता प्राप्त होने की वीर प्रभु से प्रार्थना करते हैं।
महेन्द्र सेन जन महा सचिव
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दै मासिक शोध पत्रिका
100845
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सम्पादक-मण्डल
डा. प्रा. ने. उपाध्ये
वर्ष २६
डा०प्रेमसागर जैन
किरण ४-५
यशपाल जैन
अक्टूबर १९७३
प्रकाशचन्द्र जैन
दिसम्बर १९७३
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली
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ॐ अहम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २६ । किरण ४-५ ।
वार-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्लो-६ वीर-निर्वाण सवत् २४६६, वि० स० २०३०
5 अक्टूबरदिस. १६७३
ऋषभ स्तोत्रम् जय उसह णाहिणन्दण तिहुवणणिल एक्कदीव तित्थयर । जय सयलजीववच्छल णिम्मलगणरमणणिहि णाह ॥ सयल सुरासुरमणिमउडकिरण कब्बुरिय पायपीढ तुम । धण्णा पेच्छन्ति थुणन्ति जवन्ति झायंति जिणणाह। चम्मच्छिणा वि दिटू तइ तइलोए ण माइ महहरिसो। णाणाच्छिणा उणो जिण ण-याणिमो कि परप्फुरइ॥
-पद्मनन्दि
हे ऋषभ जिनेन्द्र ! नाभि राजा के पूत्र आप तीन लोक रूप गह को प्रकाशित करने के लिए अद्वितीय दीपक के समान है। धर्म तीर्थ के प्रवर्तक हैं। समस्त प्राणियों के विपय में वात्सल्य भाव को धारण करते हैं । तथा निर्मल गुणो रूप रत्नो के स्थान है । आप जयवन्त होवे । नमस्कार करते हए समस्त देवों और असुरों के मणिमय मुकृटों की किरणो से जिनका पादपीठ विचित्र वर्ण का हो रहा है, ऐसे हे ऋषभ जिनेन्द्र ! पुण्यात्मा जीव आपका दर्शन करते हैं, स्तुति करते है और जप करते हैं और ध्यान भी करते हैं। हे जिन चर्ममय नेत्र से भी आपका दर्शन होने पर जो महान् हर्ष उत्पन्न होता है वह तीनों लोकों में नही समाता। फिर ज्ञान रूप नेत्र से आपका दर्शन होने पर कितना आनन्द प्राप्त होगा, यह हम नही जानते हैं ।
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कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव
ले० भंवरलाल नाहटा
मुमुक्ष-भव्यों को समार रूपी अटवी से पार पाने के अवसरो पर चाँदी सोने के रथ में प्रभु को विराजमान लिए दो मार्ग वतलाये गये है, एक ज्ञान मार्ग और दूसरा करके सवारी निकाली जाती है। पुराने संघ वर्णनो मे भक्ति मार्ग । ज्ञानमार्ग दुरूह होने के साथ-साथ अभिमान भगवान को चैत्यालय-रथो में विराजमान कर साथ में आदि आ जाने पर पतन भययुक्त है । परन्तु भक्तिमार्ग में
रखे जान का वर्णन तो मिलता ही है पर ३५० वर्ष पूर्व विनय, लघता और श्रद्धा प्रधान होन स सहन प्ररि थाहरूमाह भणशाली द्वारा निकाले गये मघ के रथ का मगमता से श्रावक अपने साध्य की प्राप्ति कर मकता है दर्शन प्राज भी लौडवपर के प्राचीन मन्दिर में किया जा जैसे ज्ञान मार्ग इंजन की भाँति तो भक्ति मार्ग उसके सकता है । यद्यपि रथ प्राचीन हा गया है पर ऐतिहासिक पीछे लगे डिब्बो की भांति है, जिसमे नवल दृढ़ता से पकड । वस्तु होने मे प्रेक्षणीय है। भारतवर्ष में जगन्नाथपुरी की (श्रद्धा) है और इच्छित स्थान में जा पहुचता है । अष्टा- ग्थयात्रा विशेष प्रसिद्ध है, विद्वानो के अभिमत में वह पद महातीर्थ पर अनन्य भक्ति के योग मे ही रावण जैमे शकराचार्य के पूर्व में जैन मन्दिर ही था, और आश्चर्य नरकगामी जीव ने तीर्थङ्कर नाम कम उपार्जन कर भावी नही कि वहाँ की रथयात्रा किसी प्राचीन जैन परम्परा त्रैलोक्यपूज्य पद की प्राप्ति की थी। भारतीय दर्गनो मे का अनुधावन हो। सर्वप्राचीन जैन दर्शन में भक्ति का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ।
जैन परम्परा में ग्थयात्रा-महोत्मधादि अत्यन्त प्राचीन स्थान है । नंदीश्वरादि शाश्वत अशाश्वत तीर्थों में चागे
काल से प्रचलित है। बीमवे तीर्थङ्कर श्री मनिमत्रत स्वामी निकाय के देव और इन्द्र आदि भी समय-समय पर जाकर
के समय में हस्तिनापुर में पद्मोनर गजा हुए हैं जिनकी अट्ठाईस महोत्सवादि द्वारा अपना सम्यक्व निर्मल कर
गनी ज्वालादेवी ने जिनेश्वर भगवान का महान् ग्थ आत्म कल्याण करते है। जिसका जीवाधिगमसूत्रादि मे
निर्माण करवाया तो ईर्ष्यावश दूमरी गनी लक्ष्मी न उल्लेख पाया जाता है।
ब्रह्मरथ बनवा कर रथयात्रा के प्रसग पर अपना रथ भक्ति सूर्य का उदय होने पर हृदय कमल पूर्ण विक- पहले शहर में निकल इसकी याचना की और इच्छापूति सित हो जाता है और उसकी सौरभ एव प्रकाश मे न होने पर आत्मघात की धमकी दी। इधर ज्वालादेवी प्रज्ञानांधकार व पाप-प-कालुष्य नष्ट होकर भगवान से भी जिनेन्द्र रथ के पहले न चलन पर अनशन करने को उनके गुणो के साथ एकतानता आ जाती है। इस प्रकार प्रस्तुत हो गई। राजा ने ऐसे अवसर पर दानो रथो का के भक्ति साधनों मे रथयात्रा-महोत्सवादि का प्रमुख स्थान निकालना बन्द कर दिया। ज्वालादेवी के पुत्र महापद्म है। इस अवसर्पिणीकाल में भगवान ऋषभदेव से धर्म जिसके हाथ मे राज्य की बागडोर होते हुए भी पिता के प्रवर्तन हुअा और उनके पुत्र भरत चक्रवर्ती ने सर्वप्रथम वचनो का विरोध न कर "स्वतन्त्रतापूर्वक माता के शत्रुजय का संघ निकाल कर तीर्थोद्धार कराया। संघ- जिनेन्द्र रथ को चलाने की प्रतिज्ञापूर्वक रात्रि के समय यात्रा मे तीर्थङ्कर बिव विराजमान किया हुआ रथरूप नगर त्याग कर गया और बहुत वर्षों के बाद छ' खण्ड जिनालय का होना संघ का अनिवार्य अंग है। अत भरत साध कर पाने के वाद नवम चक्रवर्ती महापद्म ने बड़े चकवर्ती के अनुकरण मे असंख्यकाल से यह परम्परा चली भारी समारोह से जिनेश्वर भगवान की रथयात्रा निकाल आ रही है अब भी शत्रुजय पर कात्तिक पूर्णिमा आदि कर माता की इच्छा पूर्ति की। इस उदाहरण से स्पष्ट
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कि जिन शासन की प्रभावना मे रथयात्रा महोसत्व कितना मशिदाबाद से मगवाये जाते थे। इसकी विशिष्ट प्रावमहत्त्वपूर्ण है।
श्यकता अनुभव कर तत्कालीन सघ ने बडा ही मनोज ___ कलिकाल सर्वज्ञ भगवान हेमचन्द्राचार्य ने परिशिष्ट और कलापूर्ण समवशरण भी बनवा लिया जिसका विवरण पर्व मे श्री आर्य मुहस्ति सूरि के प्रवन्ध मे रथयात्रा का प्रा लिया जायगा।। जो विशद वर्णन दिया है और सम्राट अशोक के पौत्र कलकत्ते का कार्तिक-महोत्सव-जैन रथ यात्रा-उत्सव गप्रसिद्ध जैन सम्राट सम्प्रति की अनन्य भक्ति और जिन- भारत विख्यात वार्षिक पर्व है। इस मनोहर और प्रभाशामन की महती प्रभावना का, जनता जनार्दन के उल्लास वोत्पादक उत्मव को प्रत्येक दर्शक आजीवन नही भुला पूर्ण गीतनत्य, वादित्रादि भक्ति का चित्र खीचा है उसको मकता । यो तो कलकत्ता में आये दिन बगाली, सिक्ख, श्रवण करने से ही हृदय की उमियाँ भक्तिगित हो उछलने
क्तिगत हा उछलन मस्लिम, हिन्दू व इतर समाज के नाना प्रकार के जलस
अपने कितने दुष्टकृत्य- निकलते ही रहते है. पर कात्तिक-महोत्सव की विशालता, कल्मष का नाश किया और मम्यग्दर्शन प्राप्त कर मोक्ष
और व्यापकता और सुव्यवस्था अनूठी होने के कारण पथारूढ हुए, इसका महज अनुमान किया जा सकता है।
कोई भी उत्सव इसके समकक्ष नही पा सकते । श्वेताम्बर इसी प्रकार परमाहत महागजा कुमारपाल के द्वाग
और दिगम्बर उभय समाज का मिल कर लगभग एक निर्मित रथयात्रा का वर्णन भी अत्यन्त प्रशस्त और
मील लम्बा जलूस हो जाता है। दर्शको को पहिले से प्रभावोत्पादक है।
प्रवन्ध न करने पर बैठने के लिए स्थानप्राप्ति भी दुर्लभ बगला देश में देवीपूजा का प्रचार बहुत अधिक है। हो जाती है। मडको पर उभय पक्ष के जूलूस में जनता पाये दिन पूजामो का आयोजन होता है और मृत्तिका जनार्दन नदी की भॉति उमड पडती है और घण्टों तक निर्मित नई-नई प्रतिमाएँ पूजा अनुष्ठान के पश्चात् विस- आत्मविभोर होकर निनिमेष दृष्टि से जुलूस का निरीक्षण जित करने के लिए गाजे-बाजे के साथ शोभायात्रा निका- करती रहती है। मकानो की छतें, वरामदे, प्रवेशद्वार, लते है एव जगन्नाथ जी के रथ की सवारी भी छोटे-बड़े गलियो के महाने, गाडियो की छतें, वृक्षो की शाखाएँ सैकड़ो रथो के जलूस निकाले जाते है। लोगो के सामने अोर विद्युत् स्तभ भी दर्शको से लदे हुए प्रतीत होते हैं । जिन-जिन देवी देवतानो की प्रतिमाएँ पाती है उनके धर्म श्री पार्श्वनाथ भगवान् के नाम से प्रसिद्धि प्राप्त श्रीधर्मव जीवनवृत्त प्रादि से जनता परिचित होकर प्रभावित नाथ स्वामी की शोभायात्रा और राय बद्रीदास बहादुर होती है । बंगाल की इस प्रथा के अनुसार हर धर्म वालों द्वारा निर्मापित श्री शीतलनाथ जिनालय के कारण जैनको अपने धर्म की प्रभावना के हेतु अपने पर्व तिथियो मे धर्म को बगाल का बच्चा-बच्चा जानता है। बद्रीदास जी रथयात्रा महोत्सव निकालना आवश्यक था और यहाँ जब के बगीचे के किसी भी समय जाकर देख लीजिए, दर्शको मन्दिर और दादावाडी का निर्माण हो गया तो मघ ने का मेला लगा हा मिलेगा, जिममे फगाली स्त्री-पुरूप तुरन्त इस उत्सव के लिए कात्तिक पूर्णिमा को ही चुना, व बच्चो का ही प्राधिक्य रहता है। यहाँ जैनधर्म और क्योकि चातुर्मास की परिसमाप्ति और श्रमण भगवान अहिसा प्रचार का उपयुक्त क्षेत्र ज्ञात कर जैन भवन के महावीर व उनके श्रमणो के विहार का समय होने से एव तत्त्वावधान में 'जन इन्फोर्मेशन ब्यूरो' खोला गया है। चातुर्मास भर मे किये गये धर्म कार्य रूपी प्रासाद के जहाँ जैनधर्म सम्बन्धी साहित्य और जानकारी की उपशिखर पर कलशारोपण स्वरूप कार्तिक महोत्सव महापर्व लब्धि विदेशी पर्यटकों और स्थानीय जिज्ञसुमों को सुलभ प्रतिवर्ष जैनधर्म की विजय वैजयन्ती फहराता हुआ धर्म हो गयी है। प्रभावना को अत्यधिक प्रसारित करने वाला है । अनुश्रुति चातुर्मास धर्मध्यान का केन्द्र है। निरन्तर अप्रतिबद्ध के अनुसार जब तक यहाँ सवारी की सामग्री का विस्तार विहार करने वाले मुनिराज भी हिसा भगवती की उपानहीं हुआ तब तक भगवान का समवशरण आदि शहर- सना के निमित्त एक स्थान पर वर्षाकाल व्यतीत करते
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अनेकान्त
हैं। अत: गृहस्थो के लिए भी धर्मोपदेश श्रवणादि सामग्री सुलभ होकर धार्मिक प्रवृत्तिया साधन करने का विशेष अवसर उपलब्ध होता है। चातुर्माम का प्रारम्भ आषाढ शुक्ला १४-१५ होकर मिनी कार्तिक शुक्ला १५ को समाप्त होता है। भगवान ऋपभदेव के पौत्र द्रविड, बारिखिल्ल मनि तथा बहुसंख्यक मनिगण इस पुण्य दिवस मे तीर्थाधिराज सिद्धाचल पर मिद्ध गति को प्राप्त हुए है । अत इम दिन पालिताना में एक बड़ा भारी मेला होता है, जिसमे सहस्रो नर-नारी गिरिराज शत्रुजय की यात्रा करने के हेतु एकत्र होते है। वहाँ अत्यन्त उत्साह एवं समारोह पूर्वक रथयात्रादि महोत्सव मनाये जाते है। भारत के अन्य सभी स्थलों पर भी जैन संघ शत्रुञ्जय तीर्थाटन दर्शन-वदन-पर्व-व्याख्यान श्रवण, उपवास, रथयात्रा महोत्सादि द्वारा सोत्साह पर्वाराधन किया जाता है। महोत्सव कीप्राचीनता और इतिहास
श्री श्वेताम्बर जैन पञ्चायती मन्दिर के पुराने बहीग्वाते अनुसन्धान करने पर सवत् १८८३ से ३ ऑकडा बहियां मिली। जिनमे कात्तिक महोत्सव जी की सवारी का खरचा बाद जाकर बची हुई आमदनी का विवरण इस प्रकार मालूम होता है :
सवत् १८८३ मे संवत् ३८८४ मे
१७७ %3D) संवत् १८८५ में
२८५।। -। संवत् १८८६ में
४७६।।) सवत् १८८७ में
२०८1) सबत् १८८८ मे
५१) संवथ् १८८६ में
३८१॥)। संवत् १८६० मे
५१२ %3D)|| संवत् १८९१ मे
११४८11-)| संवत् १८६२ मे
१२५२॥ % ) संवत् १८६३ मे
१३६१)। संवत् १८९४ में
१७८५।।) संवत् १८६५ मे
२३५०।) संवत् १८९६ से १८०७ तक
१२ वर्षों में १७९६० % ) संवत् १९०८ में
१७६७ = )
संवत् १६०६ में
१४६१॥) सवत् १९१० मे
२७६१.।। = )m सवत् १९११ मे
१५१॥) सबत् १९१२ मे
२०४३।) सवत् १९१३ मे
३१३५ % ) सवत् १६१४ में
१६६१ -) संवत् १६१५ मे
२८४६ = ) संवत् १९१६ में
४७७५।। ) सवत् १९१७ मे
५१७६।।। 3 )। मंवत् १९१८ मे
३१८७)॥ मवत् २६१६ मे
२४४८1) सवत् १६२० मे
२६०८ = )। सवत् १९२१ मे
२६६२) सबन् १६२२ मे
२३७२ = )। मवत् १६२३ मे
१६१२।।।%3D) मवत् १६२४ मे
१७६६।।) मवत् १६२५ मे
१३८२१)॥ सवत् १९२६ मे
२०४७।।%3D )। मवत् १६२७ मे
३७२६।।।)। सवत् १९२८ में
२६८६ = )। उपर्युक्त विवरण मे ४६ वर्ष का हिसाब कलकत्ता में श्वे० जनो की सख्यावृद्धि के अनुपात से आमदनी का विकास क्रम उपस्थित करता है। साथ ही साथ यह प्रश्न तो उपस्थित ही रहता है कि इस महोत्सव का प्रारम्भ किस संवत् मे हुआ ? गत १३८ वर्षों से इस रथयात्रा महोत्सव-सवारी के अविच्छिन्नरूप से निकलने के प्रमाण तो है ही पर इससे यह अनुमान होता है कि इससे १०,१२ वर्ष पूर्व अर्थात् मन्दिर-प्रतिष्ठा के साथ-साथ ही महोत्सव का प्रारम्भ हो गया था क्योकि दादा साहब के बगीचे मे गुरुदेवके चरणो की प्रतिष्ठा स. १८६७ मिती प्राषाढ़ शुक्ला को तथा श्री शान्तिनाथ जिनालय (बढ़ा पचामती मन्दिर-नुलापट्टी) की प्रतिष्ठा सं० १८७१ माध शुक्ला ६ को हुई थी, अत पूर्व छेहरासर रूप मे आदिनाथ १. इसमे चैत (1) महोत्सव के खाते श्री रतनविजय
धार्या तारा जीवणदास घांधिया री.......... का ६००) शामिल जमा किया हुआ है।
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कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव
जिनालय विद्यमान था ही । ग्रत इन्हीं संवतों में और स० [१८६३ से पूर्व से महोत्सव की सवारी चालू है।
समवशरण
कार्मिक महोत्सव की सवारी में जो धर्मनाथ स्वामी का भव्य दर्शनीय समवशरण निकलता है, वह सवत् १८९३ मे फनी को बनाने के लिए दिया गया १ था। स० १५६४ मे वह बनकर आया और कुल २२६२ ।। ) । व्यय हुआ। इसमे ३५.३९ ।। ) की चांदी, १३२७) महूरी ५४०) सोना मुजमा, १०० ) काष्ट लोहा, १०६ = ) । छोजन, कुल मिला कर ५६१३ | = ) हुआ। जिसमे चाँदी का बट्टा = ) प्रतिशत से ३३२।।।) बाद जाकर उपर्युक्त १२० १।। ) । रहा, जो मन्दिर जी में स्थित पुराने खाता बहियों मे प्रमाणित है। यह समवशरण १२७ वर्ष पूर्व का बना हुआ होने पर भी इतना भव्य, मनोहर और कलापूर्ण है कि मानो आज ही बनकर तय्यार हुआ हो ! कार्तिक महोत्सव का प्राचीन चित्र
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-IT
जैन समाज के अग्रगण्य सुप्रसिद्ध जौहरी स्वर्गीय राय बद्रीदास बहादुर द्वारा निर्वाचित श्री शीतलनाथ जिनालय - जिसका म० १९२३ मे निर्माण हुआ थाके मण्डपो पर कई जैन तीर्थ, जिनकल्याणक, ऐतिहासिक कथा तथा साहित्यादि के सुन्दर और विशाल चित्र लगे हुए है जिनकी संख्या ४० से न्यून नहीं है । इनका निर्माण सं० १९२५ के आसपास होना सम्भावित है क्योकि इसी वर्ष मे जयपुर के गणेश मुसब्बर ने बड़े मन्दिर जी के सभामण्डप मे लगे विशाल चित्रों को बनाया था, तभी राय साहब ने अपने जिनालय के लिए सुन्द चित्र समृद्धि तय्यार कराई होगी। इन चित्रो मे एक चित्र श्री कार्तिक महोत्सव जी की रथयात्रा का है जो '६२ इंच' लबा और १७ इच चौड़ा है। सौ वर्ष पूर्व यह जुलूम किस प्रकार निकलता था उसका इस चित्र में अच्छा ऐतिहासिक निदर्शन है। पाठकों के परिचयार्थ यहाँ इस चित्र का संक्षिप्त परिचय कराया जाता है।
इस लम्बे चित्र मे सबसे आगे लाल रंग की पोशाक व श्वेत टोपधारी दो व्यक्ति झण्डा लिए चल रहे है । इनके पीछे कई मनुष्यों द्वारा लीचा जाने वाला नौबत
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खाना है, जिसमें बैठे हुए चार व्यक्ति वादित्र बजा रहे है। इसके उभयपक्ष मे श्वेत टोपधारी अश्वारोही चल रहे है । नत्पश्चात् लाल शेरवानी तथा बटदार पगडी वाले चपरासी पताका धारण किये हुए मार्ग के उभयपक्ष मे चल रहे हैं। फिर छडीदारो की पक्ति व तदनुगामी मार्गाविरोधक यष्टिकावाही पछि चित्र के शेष तक चली गई है । रास्ते के मध्य में नौबतखाने के पश्चात् गगनस्वर्थी इन्द्रध्वज (महेन्द्रस्य चलता हुआ "जैन जपति शासनम् " की दिव्य पताकायें फहरा रहा है, फिर इसी का अनुगामी लघु इन्द्रध्वज चल रहा है। पालकी, थाना, सुखासन, कल्पवृक्ष, तीन छत्र घण्टियो वाली शिविका के पास श्री महताबचंद जी व बलदेवदास जी खड़े है । तत्पश्चात वाजे वाले अपने वाद्य यंत्रो को बजाते हुए चल रहे है। इनके उभयपक्ष मे दो अश्वारोही कुमार व दो कुमार वाली बच्चा गाडी मे बैठे हुए है । बाजे के पश्चात् जोहरी साथ, शहरपानी, मारवाडी तथा कच्छी पगड़ी धारण किये हुए श्रावक - समुदाय चल रहा है। सबसे अग्रगामी श्री मन्दिर जी के दृष्टीगण है, जिनके हाथो ने स्वर्णमय छडी सुशोभित है। इनमे से एक महाशय का नाम श्री भैरूदास जी व दूसरे सज्जन भगवानदास जी है। श्री मुरार जो तथा पाण्डे बालमुक्त प्रभु के सम्मुख करबद्ध खड़े है। भगवान के समवशरण जी को उठाने वाले भाग्यशाली धावको में सर्वप्रथम बद्रीदाम जी, कल्लूमल जी तथा शिखरचद जी है, दूसरे भाइयों का नाम नही लिखे गये है । भगवत के समवशरण के पांच शिखर व कई स्तम्भ सुशोभित है। इस स्वर्णमय समवशरण के उपरि भाग में फहराने वाली ध्वजायें भी स्वर्णाभ है। समस्त दर्शको के आशाकेन्द्र श्री धर्मनाथ स्वामी समरगरण में विराजमान है, जिनके मुकुट, कुण्डल, हार, बाजूबंद, श्रीफलादि धनकार सुशोभित है ममवारण के पृष्ठभाग मे पंखा किरणिया व छत्रवाहक लोग चल रहे है । तदुपरान्त लखनऊ गद्दी वाले त्यागमूर्ति खरतरगच्छाचार्य श्री जी थी जिनकल्याण सूरिजी महाराज की दुर्बल किन्तु तेजस्वी देह के दर्शन होते है। सूरि जी के पीछे दो चामरधारी तथा आठ यतियों का समुदाय चल रहा है, दाहिनी ओर पीछे तक धावक समुदाय परि
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१५०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
वेष्टित है।
ऐरावत हाथी सौम्यता व अतुल बल का प्रतीक है। इस कात्तिक महोत्सव की शोभायात्रा में सम्मिलित रजतमय नौबतखाना और उसके ऊपर घूमने वाली पुत्तहोने वाले सभी महानुभावों के मुखमण्डल आनन्दोल्लास- लिकाएँ नत्य नाटकादि का आभास कराती है। मवारी मे पूर्ण एवं हृदय भक्तिमिक्त मालूम देते है। इन सब मे नाना प्रकार के वादित्रो का प्रायोजन रहता है जिनम अधिक मोटे ताजे पाडे बालम्कन है जिनके दूसरे नंबर मे कच्छी जैन युवको तथा वङ्गीय सभ्रान्त युवको की कनिसेठ श्री कल्लमल जी ही कहे जा सकते है। "चित्र मे पय वाद्य मण्डलियां अपन विविध वादित्रो सहित केवल "इन्द्रध्वज" तथा श्रावकगण व प्राचार्य श्री के चित्र पर भक्तिभाव व्यक्तीकरणार्थ उपस्थित होकर वादित्र ध्वनि नाम लिखा हया है। चित्र के उपग्भिाग में निम्नलिखित प्रसारित कर व्योम मण्डल को गुञ्जायमान कर देती है। , शीर्षक है :---
ढक्काओं का निनाद निकटस्थ व्यक्ति की वाणी को भी "श्रीघमनाथ स्वामी का असवारी काता महाच्छव का सुनने मे बाधा देता हया सूदुर गगन मण्डल में परिव्याप्त
इस चित्र मे श्री बद्रीदास जी, कल्लूमल जी, बलदेव- हो जाता है। जैन श्वेताम्बर मित्र मण्डल, जैन सभा, दास जी, शिखरचंद जी, भैरू दास जी व महताबचद जी जैन क्लब, प्रादीश्वर मण्डल, वीरमण्डल, कोचर मण्डली के नाम आये है। बद्रीदाम जी (जन्म मवत् १८८६
दिाम जी (जन्म मवन् १८८६ आदि सगीत टोलियाँ अपने मुमधुर कण्ठध्वनि से भक्ति मौनकादशी, स्वर्गवास स० १६७४) का चित्र तरूणावस्था
और उल्लासपूर्वक भजन गाती हुई दर्शको का ध्यान का है। कल्लमल जी माहब श्री लाभचद जी सेठ के
आकृष्ट करती हुई कर्णमधुरताभिभूत व्यक्तियो द्वारा पितामह थे। भैग्वदास जी जौहरी श्री महाराज बहाहर
अधिक ठहरने का आग्रह कराती है। सवारी में मजावट सिंह टॉक के पूर्वज थे जिनका स० १६३५ मे म्वग्रंवाम
की सामग्री भी बोधदायक एवं भावपूर्ण है। रजतमय हो चुका था। बद्रीदास जी, कल्लमल जी, भग्वदाम जी,
षड्लेश्यावृक्ष, शिविका, मिहासन, फूल घरा, दीपमन्दिर, मुन्नालाल जी और वल्लभदास जी जौहरी म० १६१५
कल्पवृक्ष, चतुर्दश महाम्वन, मुमगिरि, लघु समवशरण मे श्री बड़े मन्दिर जी के ट्रस्टी नियुक्त हो चुके थे ग्रन
नगद नाना अलकरणों में भगवान महावीर के चण्डकौशिक इस चित्र का निर्माण काल (मवत् १९१७-१९६५
माश एवं कानों में कोन ठोकने के उपमग के भाव बीच) संवत् १९२५ के लगभग अनुमानित है। क्योंकि
बगीय मूर्तिकला के मन्दर उदाहरण है। विविध भक्तिश्री शीतलनाथ जिनालय की प्रतिष्ठा वि० स० १६०३
भाव युक्त अलकरणो के पश्चात् अन्त में धर्मनाथ स्वामी मिती फाल्गुन शुक्ला २ के दिन श्री जिनकल्याणमूरि जी
के ममवशरण का दर्शन होता है। इस स्वर्ण रजतमय के करकमलो से सम्पन्न हुई थी, जो इस चित्र में विद्यमान
गुरुतर समवशरण को पाठ भाग्यशाली भक्त अपने कन्धो है। पाडे वालमुकन, पाडे बद्रीनारायण जो वर्तमान
पर वहन करते है । जिस प्रकार प्रान म्मरणीय पूज्यपाद पुजारी है - के फूफा थे ।
श्री भगवंत अष्टकमलो पर पैर रहते हए विचरते थे । कात्तिक महोत्सव जी की सवारी का इतिहास और उसी प्रकार पाठ भव्यात्माग्री के बहन करने का भाव प्राचीन रूप का सक्षिप्त दिग्दर्शन कराने के पश्चान् ठीक भगवान् की विद्यमानता की झाकी भक्तहृदय में पाठको को वर्तमान का परिचय देना भी आवश्यक है। उत्पन्न कर देती है। समवशरण के उभयपक्ष से चामरयह शोभायात्रा भगवान् के विहार का प्रतीक है। जिस युगल, छत्र, किरणियादि वहन किये जाते है। इतने लम्बे प्रकार भगवान् के आगे गगनचुम्बी इन्द्रध्वज चलता हुआ जुलूस की सुव्यवस्था के हेतु लाल व हरे झण्डो का प्रयोग शोभायमान होता था, उसी प्रकार सबसे आगे पचवर्णी सावधानता पूर्वक किया जाता है ताकि मार्ग में सूनापन पताकाओं वाला इन्द्रध्वज सर्वधर्म समन्वय एवं अनेकान्त दृग्गोचर न हो। जुलूस में सम्मिलित होने वाले महानुवाद का अमरपाठ पढाता है। नाना प्रकार के वाद्ययन्त्र भाव प्रभु के प्रति बहुमानार्थ नङ्ग पाव चलते है। बाहरी देवदुन्दुभ्यादि प्रतिहायों के एव विशालकाय इन्द्र का श्वेत भीड़ को भीतर आने से रोकने के लिए डोरी के द्वारा
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कलकत्ते का कातिक महोत्सव
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कतार बद्ध मनुष्यों की पंक्ति एवं दूर तक ध्वजपताका योगदान करना चाहिए। वाहक सैकड़ों व्यक्ति अपने कार्य में सतर्कतापूर्वक संलग्न कात्तिक महोत्सव की रथयात्रा में दिगम्बर समाज रहते है। सवारी के निश्चित मार्ग मे घण्टो तक ट्राभ, की मान्यता भी एक ही है और उनकी सवारी भी माथ बस, ट्रक, गाड़ियाँ, ठेले, मोटर आदि का यातायात ठप्प ही माथ निकलकर बामतला गली की मोड पर पा जाती हो जाता है । ट्रामवे कपनी अपने विद्यन तागे को खोल- है। धर्मनाथ भगवान की सवारी निकल जाने पर दिगम्बर 'कर इन्द्रध्वज का मार्ग उन्मुक्त करने में मलग्न रहती है। समाज की भ० पाखनाथ स्वामी की सवारी भी ग्रा
कार्तिक महोत्सव पर्व भव्य जीवों को सम्यक्त्व प्राप्ति मिलती है । दोनो समाज के व्यक्ति एक दूसरे की सवारी होने में तथा सम्यक्त्व निमल करने का प्रमख साधन है। में प्रेम पूर्वक मम्मिलित होते है और भजन मण्डलियां भी मन्दिर, उपाश्रय में तो चल कर जाने से देवगुरु दर्शनो पारम्परिक योगदान करती है, यह समाज के शुभ लक्षण में व्याख्यान श्रवणादि में लाभ मिलता है पर इस महोत्सव है। द
यो । दान करने के लिए लाखो जनेतर पाते हैं और में तो स्वयं भगवान की बात की जनत गनर, गज्याल यादि शासक वर्ग भी जोड़ा साक राजहै। भक्त हृदय अनायाम ही वीतराग मद्रा दर्शन से झुक
वाडी मे उपस्थित होकर जिनदर्शन से लाभान्वित होत पड़ता है और भावशुद्धि-प्रात्मनिर्मलता पा जाय तो एक
है । बगाल की जनता भावुक है और वह वीतराग जिनेही नमम्कार से बैडा पार है।
श्वर के दर्शन कर अात्मविभोर हो उठती है। भक्ति और
तल्लीनता में तो वह जना से भी दो कदम आगे प्रतीत "इक्कोविणमुक्कारो जिणवर बमहम्प वढमाणम्स,
होती है अत इस महोत्सव के द्वारा कोई भी प्राणी ससार सागरायो तारेइनर व नारि वा ।।"
मम्यक बाब की प्राप्ति करे तो हमारे इस प्रायोजन की जिन प्रतिमा के आकार वाले मत्म्यो को देख कर
मपलना ही समझनी चाहिए। मोह विकल जलचर जन्तुयो तक के बोध पाने के प्रमाण शास्त्रो मे विद्यमान है तब साक्षात् अर्हडिम्ब के दर्शन से
श्वेताम्बर समाज की मवारी माणिकतल्ला स्थित बद्धिशाली मानव प्राग बोध प्राप्त करे इसमे सन्देह को
दादा जी महाराज के बगीचे में जाती है और मार्गशीर्ष स्थान ही कहाँ ? स्वय भगवान की विद्यमानता में भी
कृष्ण • को तुलापट्टी जैन मन्दिर तथा दिगम्बर समाज समवशरण मे तीनो तरफ अर्हत् प्रतिमाये विराजमान
की मवारी भिती मार्गशीर्ष कृष्णा ५ को चावखपट्टी जैन 'रहती है और बारह पपंदाग्रो मे नौ पर्षदानो की तो
मन्दिर मे लोट कर इसी समारोह के माथ आती है।
मार स्थापना तीर्थर के ही दर्शन होते है। जैन शास्त्रानुसार इसी बीच वहा माधमी वात्सल्य-जीमन, पूजा, भजन अादि एव ऐतिहासिक दप्टिकोण में भी जिनप्रतिमा अनादि का प्रायोजन रहता है तथा वापम मन्दिर जी मे प्रवेश 'कालीन सिद्ध है. प्रश्नव्याकरण मूत्रानुसार 'जिन पूजा' होने पर नाना प्रकार की बोलियों द्वारा अपना द्रव्य सफल अहिसा का ही पर्याय है फिर भी बोधिदुर्लभ दुषमकाल करते है। मे अनार्य संस्कृति प्रभावित होकर कोई भक्तिरूपी अमृत- कानिक महोत्सव की सवारी सभी समाजो मे धार्मिक कुण्ड मे सशय विष बिन्दु घोले तो उनके प्रति करुणा भावना को बल देने वाली है। अत इसके माध्यम से और उपेक्षा के अतिरिक्त और उपाय ही क्या हो सकता यदि श्वेताम्बर व दियम्बर सम्प्रदाय दोनो मिलकर ठोस है ? हमारी भक्ति विशुद्ध प्रात्मकल्याण के निमित्त है, कार्य करे तो बगाल में अहिंसा का प्रचार द्वारा पशुवलि किसी का कुछ अहसान या उपकार नहीं, प्रत. अपनी- और मासाहार जमी घृणित प्रथाये बन्द हो नकती है अपनी रुचि एवं भावनानुसार जिन शासन के इस महत्त्व- जिसकी वर्तमान काल मे बहुत बड़ी अावश्यकता है। पूर्ण कार्य में सम्प्रदाय गत भेद भावो को भुलाकर हार्दिक
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अपभ्रंश सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन
डा० ज्योतिप्रसाद जैन, लखनऊ
अपभ्रश भाषा मे रचिन तथा २८ सधियो में ममाप्त ७२) मे ग्रन्थ एवं उसके कर्ता देवसेन का संक्षिप्त परिचय - सुलोयणा चरिउ (सुलोचना चरित्र) की प्रतिया उत्तर दिया है जिसमें यह व्यक्त किया है कि ग्रन्थ की रचना भारत के कई शास्त्र भण्डारों में प्राप्त है। अतएव यद्यपि निबांद्रिदेव के प्रशिष्य और विमलसेन गणधर के प्रशिष्य यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित रहा आया, इसकी जान- गणिदेवसेन ने मम्मलपुरी मे वि० सं० ११३२ में आचार्य । कारी विद्वानो को काफी समय से है। संभवतया प० कुन्दकुन्द के प्राकृत गाथावद्ध सुलोचना चरित को (अपपरमानन्द जी शास्त्री के लेख "सुलोचना चरित्र और भ्रश के) पद्धाडिया आदि छन्दो मे प्राक्कथन (१०३) देवसेन" (अनेकान्त वर्ष ७, किरण ११-१२) ने विद्वानो मे डा० दशरथ शर्मा ने सूचित किया कि देवसेनगणि ने का ध्यान इस ग्रन्थ की ओर विशेष आकर्षित किया। कुन्दकुन्द की प्राकृत कृति को वि० मं० ११३२ मे राजा उक्त लेख मे यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया कि मम्मल के नगर मे अपभ्रश भाषा में अनूदित किया। सुलोचना चरित्र के कर्ता देवमेन दर्शनसार के कर्ता से पाद टिप्पणी न०८ मे डा० शर्मा ने यह शका भी व्यक्त भिन्न है किन्तु भावसग्रह के कर्ता से अभिन्न है, तथा की है कि "क्या यह महामल्ल पल्लव द्वारा स्थापित सम्भवतया वह १२वी या १३वी शताब्दी विक्रमी में होने मम्मलपूरम हो सकता है ?" प० परमानन्द जी यह भी वाले ग्वालियर पट्ट के माथुरसधी भट्टारक देवसेन ही है। समझते प्रतीत होते है कि प्रशस्ति मे उल्लिखित 'रामभद्र' परन्तु डा० हीरालाल जी ने सावधम्म दोहा की भमिका उस चालूक्य राजा का नाम है जिसके राज्य में इस ग्रन्थ मे सुलोचना चरित्र को भी दर्शनमार के कर्ता की ही एक की रचना हुई थी। अन्य कृति अनुमान किया। हमने अपने लेख 'देवसेन नाम इन अनुमानो मे, तथा अन्य विद्वानो की भी तद्विषके ग्रन्थकार' (जन सदेश-शोधाक, १४, पृ० १०६-१०४ यक धारणाग्रो में कई भ्रान्तिया रही ग्राई प्रतीत होती तथा शोधाक १५, पृ० १३६-१४०) मे देवसेन नाम के है। इस प्रशस्ति संग्रह के प्रकाशन से पूर्व ही प्रकाशित लगभग अढाई दजन विभिन्न दिगम्बर जैन-गुरुयो एव शोधाक के अपने पूर्वोक्त लेख में हमने इस विपय पर ' ग्रन्थकारो का शिलालेखो, साहित्यिक उल्लेखो, पावलियो, पर्याप्त प्रकाश डाला हुआ है, तथापि कुछ और स्पष्टीअन्य अनुश्रुतियो आदि के आधार से परिचय दिया तथा करण अपेक्षित है, ऐसा लगता है। तत्सव । ज्ञातव्य का परीक्षण एव गवेषण करके उनमे जो प्रशस्तिगत 'ज गाडावधे पामि उत्त, सिरि कुदकुद ग्रन्थकार है अथवा बहुप्रसिद्ध है उनको चीन्हने का प्रयत्न गणिणा णिरुत्तु, तं एवहि पद्धाडियर्याप करोमि' में जिन किया है।
कुन्दकुन्द का उल्लेख हुआ है वह समयसारादि पाहड ग्रथों वीर सेवा मन्दिर सोसाइटी दिल्ली से प्रकाशित जन १. इस परिचय मे चरित्र नायिका सुलोचना को भूल से ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह, द्वितीय भाग (पृ०१८-२०) मे भी हस्तिनापुर के राजा की पुत्री दिया गया है। वस्तुतः प० परमानन्द जी ने आमेर भण्डार की प्रति के आधार वह काशि के राजा अकम्पन की पुत्री थी और से (जिसे दिल्ली की खडित प्रति से सशोधित किया।) उसके स्वयंवरित पति जयकुमार हरितनापुर के राजसुलोयणा चरिउ के आदि एव अन्त के कुछ भाग प्रशस्ति कुमार थे-हस्तिनापुर सुलोचना का पित्रालय नहीं, रूप से प्रकाशित किये, तथा उसकी प्रस्तावना (पृ०७१- श्वसुराल थी।
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अपभ्रंश सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन
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के सुप्रसिद्ध कर्ता प्राचार्य प्रवर कुन्दकुन्द (प्रथम शती यह राजा सामान्यतया 'लोक्य मल्ल नाम से प्रसिद्ध था, ई०) से नितान्त भिन्न, तन्नाम कोई पर्याप्त उत्तरवर्ती बडा प्रतापी था । दक्षिण भारत का बहुभाग उसके अधीन गुरू है, जो कोई भट्टारक भी हो सकते है। प्रतिष्ठा पाठ- था, मामल्लपुरम् नगर भी उसके राज्य में ही था। प्रतकार जयसेन अपरनाम वस्तुविद के गुरु भी एक कुन्दकुन्द एब, गंडविमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग १०४०मुनि थे जो सम्भवतया कुन्दकुन्द श्रावकाचार, अर्हत्सूत्र- १०७० ई० होना चाहिए, और उनकी तीसरी पीढी में वृत्ति, चतुर्दशी महात्म्य आदि के रचयिता है। किन्तु होने वाले देवसेन उससे लगभग ५० वर्ष उपरान्त तो इनका समय १२०० ई० के लगभग होना चाहिए। हुए होने चाहिए। उन्होंने अपने राज्य की रचना का कुन्दकुन्द नाम के और भी कई मुनि एव भट्टारक हुए है। समय राक्षस सवत्सर की श्रावण शुक्ल १४ बुधवार के हमारा अनुमान है कि प्राकृत सुलोचनाचरित्र के रचयिता दिन की थी, जो एक गणना के अनुसार ११३२ वि० स० 'श्री कुन्दकुन्दगणि' प्राकृित वैद्यगाहा के कर्ता में अभिन्न अर्थात् १०७५ ई० में पड़ता है। जिसे प० परमानन्द जी है जो हवी शती के अन्त के लगभग हए प्रतीत होते है। ने स्वीकार किया है। परन्तु अन्य गणना के अनुसार
'णव मम्मल हो पुरि णिवसते, चारुटाणे गुणगणवते' राक्षस संवत्सर १०६२-६३ ई० ११२२-२३ ई० तथा रूप में रचनास्थान का जो वर्णन किया है वह तमिल
११८२-८३ ई० में पड़ता है। इनमें से प्रथम उनके परउपदश का माम्मलपुरम् नामक नगर ही प्रतीत होता है, दादा गुरु क समय क अत्याधक निकट मार तृताय पयाप्त जिसका निर्माता महामल्ल गल्लव था।
दूर पडती है अतएव ११२२-२३ ई० की तिथि ही अधिक ग्रन्थकर्ता स्वय को 'धर्माधर्म का विशेष जानने वाले
सगत प्रतीत होती है। भविजन-कमल-प्रवोधन-मूर्य गणि देवसेन मनि प्रवर' बताते
यह सभव है कि अपभ्रश के सावयधन दोहा और
संबोधपचाशिका के कर्ता भी यही देवसेन हो, किन्तु है, जो विमलसेन मलघारि के शिप्य और णिवडिदेव
दर्शनमार आदि सारत्रय या पचसार के कर्ता देवसेन से के गुरू के विषय में लिखा है -
वह सर्वथा भिन्न है, और भावसग्रह के कर्ता सभवतया गड विमुक्त सीस तहो केरइ, रायभट्टणाये तकसारउ । चालुक्किय वंस हो निलउल्लंड, होतउ परवइ चार मल्लउ।
इन दोनो से ही भिन्न है। जिमसे स्पष्ट है कि इन गुरू का नाम गडविगक्त
प्रशस्ति मे स्मृति पूर्वकवियो-वाल्मीकि, व्यास, रामभद्र था जो चालुक्य वशी त्रैलोक्य मल्ल नाम के
श्रीहर्ष, कालिदास, वाण मयूर, हनिय, गोविद, चतुर्मुख, नपति द्वारा सम्मानित हा थे। ऊपर यह भी कह पाये
स्वयंभु, पुष्पदत और भूपाल में से अतिम चार के नाम कि यह गडविमुक्त रामभद्र याचार्य प्रवर वीरमेन-जिनसेन
भी कालक्रमानुसार ही है और इनमे से पुष्पदत को की सन्तान परम्परा में होने वाले होटलमुक्त नामक उन
निश्चित तिथि ६५६ ई० है तथा भूपाल कवि भूपालमुनिवर के शिष्य थे जिनके रावण प्रभति अन्य अनेक
चतुर्विशति स्तोत्र के रचयिता गोल्लाचार्य अपरनीम
चतुविशात शिष्य थे । अस्तु इस विषय में कोई सन्देह नही कि प्रस्तुत '
भूपालकवि प्रतीत होते है जो सभवतया १०वी शती के सुलोचना चरिउ के रचयिता सेन सघ के गुरू थे और
अतिम पाद हुए थे। दक्षिणात्य थे। कल्याणि के उत्तरवर्ती चालुक्य वश में
गडविमुक्त आदि उपाधियाँ इन गुरुओं का कर्णाटक
गडावमुक्त। जयसिह प्रथम (१०११-.-.१०४२ ई०) का उत्तराधिकारी देशीय होना सूचित करती है और जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य मल्ल' पाहवमल्ल था जिसका
उल्लेख है वह तत्कालीय नरेश त्रैलोक्यमल्ल का है। शासनकाल लगभग १०४२-१०६६ ई०) था और
उसके आधार से अपभ्रश सुलोचना चइित्र के कर्ता देवजिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भवनकमल्ल सनगा'
सेनगणि का समयादि निर्धारण सरलता से हो जाता है। (१०६८-१०७५ ई.) था। सोमेश्वर प्रथम नामक
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कारीतलाई की अद्वितीय भगवान ऋषभनाथ की प्रतिमाएँ
__शिवकुमार नामदेव
कारीतलाई, मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले मे कटनी भगवान का शासनदेव गोमुख एवं वाम पार्श्व पर उनकी से लगभग २६ मील उ० पू० मे, कैमुर पर्वत की पूर्वी शासनदेवी चक्रेश्वरी ललितासन मे बैठी हुई है। मालाओ में स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थान कर्णपुर इसी स्थल से प्राप्त अन्य प्रतिमाये यद्यपि उपरि वणित के नाम से विख्यात था । कारीतलाई की जिन अग्रलिखित प्रतिमा की ही भाँति है किन्तु इस प्रतिमा का मस्तक प्रतिमाओं का यहाँ उल्लेख किया गया है वे मध्यप्रदेश के वडित नहीं है। प्रतिमा ध्यानस्थ मुद्रा में है। केश घुधयशस्वी एव वैभवशाली वश कलचुग्किाल की है। गले दिखाये गये है। अष्टप्रतिहार्य यक्त इस प्रतिमा के प्रतिमाशास्त्रीय दृष्टिकोण से इन मूर्तियो का काल १०वी एक पार्श्व पर शासन देव गोमुख एव दूसरे छोर पर ११वी सदी ज्ञात होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि शासनदेवी चक्रेश्वरी अपने वाहन गरुड़ पर आसान है। १०वी ११वीं शती के समय यहाँ जैन धर्म अपनी चरमो
सफेद बलुआ पत्थर से निर्मित २'३" एक प्रतिमा त्कर्ष सीमा पर था।
ध्यानस्थ पद्मासनारूढ दिखाई गई है। कधो से लटकने __ कारीतलाई से प्राप्त भगवान तीर्थकर ऋषभनाथ की
हए केशगुच्छ कलाकारो के मधे नपे तुले हाथ के परिये प्रतिमायें सफेद बलुआ पत्थर से निर्मित की गई है।
चायक है। भगवान ऋषभनाथ की इस प्रतिमा के दक्षिण ये सभी प्रतिमायें सम्प्रति मध्यप्रदेश के रायपुर संग्रहालय व वाम पार्श्व मे अन्य तीर्थकरी सी लघु प्रतिमाये अकिन मे संग्रहीत है।
है। दक्षिण पार्श्व मे उत्कीर्ण लघ तीर्थकरी की मूर्तियां प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभनाथ की इस स्थल से पद्यासन मे एवं वाम पाम पार्श्व की प्रतिमाये कायोत्सर्ग प्राप्त एक प्रतिमा ४३ फीट ऊंची है। भगवान आदिनाथ अथवा खडगासन में है। चौकी की झूल पर भगवान का एक उच्च चौंको पर पद्मासन मे ध्यानस्थ बैठे हुए है। लाछन वृषभ अकित है। लाछन के नीचे धर्मचक्र एव उनकी दक्षिण भुजा एवं वाम घुटना खंडित हो गया है। इसके दोनों पार्श्व पर एक-एक सिंहाकृति है। सिहासन के हृदय पर श्री वत्स एवं मस्तक के पृष्ठ भाग मे प्रभामण्डल दाहिने कोने पर गोमुख एवं चक्रेश्वरी उत्कीर्ण है । है। प्रभामण्डल के ऊपर निक्षत्र सौन्दर्यपूर्ण ढंग से बना कारीतलाई की एक अन्य प्रतिमा जो रायपुर संग्रहुया है। जिसके दोनों पार्श्व पर एक-एक महावतयुक्त हालय की निधि है ३'" ऊँची है। इस प्रतिमा में हस्ति उत्कीर्ण है। छत्र के ऊपर दुदभिक एवं हस्तियो के भगवान ऋषभनाथ को पद्मासन मे ध्यानस्थ दिखाया नीचे युगल विद्याधर है जो नभ मार्ग से पुष्प वृष्टि कर गया है। कला की दष्टि से कारीतलाई में प्राप्त जैनधर्म रहे हैं । विद्याधरों के नीचे दोनों पार्श्व पर भगवान के की प्रतिमाओं में यह प्रतिमा कलात्मक सौन्दर्य मे सर्वश्रेष्ठ परिचारक सौधर्मेन्द्र एव ईशानेन्द्र अपने हाथों मे चवर है। कलाकारो की तीक्ष्ण छेनियो के आघातो से निर्मित लिए हुए खड़े है।
भगवान की अद्वितीय इस प्रतिमा की विशेषता यह है कि प्रतिमा की अलंकृत चौकी की पड़ी भूल पर भगवान इसके सिंहासन पर सिहो के जोड़े के साथ हस्तियो का ऋषभनाथ का लांछन वृषभ चित्रित है। वृषभ के नीचे भी एक जोडा दिखलाया गया है। चौकी के ठीक मध्य मे धर्मचक्र अंकित है जिसके दोनों कलचुरि कालीन १०-११वी सदी मे निर्मित उपर्युक्त ओर एक-एक सिह है। सिहासन के दाहिने पार्श्व पर प्रतिमाओ की कारीतलाई से प्राप्ति इस ओर इंगित करती
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धर्म और राजसंरक्षण
तेजपाल सिंह
धर्म व्यक्ति के प्रान्तरिक पक्ष का आलोक है जो राजनैतिक पृष्ठभूमि को भी मजबूत बनाने में सर्वतः सहबाह्य के साथ समन्वय स्थापित कर 'धर्म चर' का सुन्दर योग दे । जो अधिकाश जन-मानस में मंरक्षणदाता राज्य स्वरूप धारण करता है जिसमे समाज का व्यापक समुदाय के लिए अहितकारक नीतियों को पनपने न दे तथा मार्ग पाकर लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होता है। 'धर्मो धार- भावात्मक दृष्टि से राज्य के प्रभाव की वृद्धि मे योगदान यति प्रजा" का प्रवचन इस सदुद्देश्य के समर्थन में ही करे । वस्तुत ऐसा ही धर्म राजसरक्षण प्राप्त करने मे कहा गया है। धर्म प्रजा अर्थात् मानव समाज को तभी सक्षम रहा है इसमें आध्यात्मिकता को भौतिकवादी घारण करता है जबकि धर्म स्वत पुष्ट और प्रबल हो। समाज के हित में उपयोग करने का अवसर मिलता है। महान् राजसरक्षण भी उसी धर्म को सुलभ होता है जो महान मनीषी, मनि विद्वान अपने संचित धर्म का उपयोग अपनी सामर्थ्य से समाज पर अपना प्रभाव स्थापित कर तब अधिक अच्छी तरह कर पाते है जब उन्हे राजसंरक्षण चुका हो।
मिल जाता है। विश्व इतिहास का पटाक्षेप करने से पता राजसंरक्षण कोई सरल उपलब्धि नही है। जो चलता है कि जगदव्यापी ईशाई मिशनरी और भगवान मामान्य धर्म को भी प्राप्त हो जाय । राजसंरक्षण उसी बुद्ध के सन्देश राजसंरक्षण के बलबूते पर ही अधिकाश धर्म को प्राप्त होता है मो मानव-ममाज के लिए संस्कृति जन-मन का पालाकित कर सक है पार विश्व पर कवल साहित्य, कला और दर्शन-चिन्तन की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण
वर्ग अपने धर्म विशेष का ही नही, वरन् राजविशेष की हो, साथ ही राजसरक्षण प्रदान करने वाले राज्य की सस्कृति, कला, साहित्य और विचार-दर्शन का सशक्त एवं
शाश्वत प्रभाव छोड़ गये है। है कि कलचुरि नरेशो के काल मे जैन धर्म का अत्यधिक प्रसार हुआ था।
भारतवर्ष मे धर्म को राजसंरक्षण प्रारम्भ से ही प्रतीकात्मक दष्टिकोण से भगवान ऋषभनाथ के मिलता रहा है । वैदिक धर्म आर्यों का पूर्ण संरक्षित धर्म हृदय पर अकित श्री वत्स अर्थात चक्र चिन्ह धर्म का रहा। उपनिषद-काल के साथ-साथ धर्म की विभिन्न प्रतीक माना जाता है। इसी भाँति इनका लाछन वृषभ
धारायें बन गई थीं। ब्राह्मण-धर्म का व्यापक विरोध भी धर्स का प्रतीक है । भगवान जिस पद्मासन पर विद्य
प्रारम्भ हो गया था। जिसका प्रथम प्रकाश जैनधर्म के मान दिखाये जाते है वह सृष्टि का प्रतीक एव मस्तक के
रूप मे प्रत्यक्ष हुआ। महान् राजकुल मे उत्पन्न भगवान् पीछे लगा हुमा धर्मचक्र, प्रभामण्डल के रूप मे वेद का महावार न अन्याय, हिसा व रूढ़िवादिता का अस्वार
समाज को नयी दिशा प्रदान की। समाज के साथ-साथ शक्ति के हाथों मे है और जिन तथा बद्ध से सम्बद्ध है। राजवंशों ने जैनधर्म को उच्च स्तर पर स्वीकार करना भगवान के मस्तक पर स्थित त्रिछत्र. त्रिशक्ति के प्रतीक प्रारम्भ कर दिया। मल्ल वंश के राजामों ने जैनधर्म को मात्र है। जो शिव और बुद्ध का त्रिशल तथा दुर्गा का सर्वाधिक संरक्षण प्रदान किया। यह जैन-धर्म के पुष्पित त्रिकोण है। धर्मचक्र एवं त्रिशक्ति के दोनों पार्श्व पर दो होने एवं उसके व्यापक वर्ग पर प्रभाव का प्रथम समय गज प्राध्यात्मिक गौरव और वैभव के प्रतीक हैं।
था। इसी से वौद्ध धर्म को इसकी सुनियमित पृष्ठभूमि मिली। और वह विश्व-धर्म बन गया। यद्यपि चन्द्रगुप्त
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१५६, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
मौर्य ने जैन-धर्म का व्यापक समर्थन किया था यहाँ तक कदम्बवश के महाराज अविनीत के द्वारा संरक्षण देने का कि स्वयं भी वह दक्षिण भारत में जन-धर्म का प्रचार उल्लेख उनके दानपात्र मे है। महाराजा ने चन्द्रनन्दि करने गया था। परन्तु उसके पौत्र महान अशोक के समय भट्टारक को जैन मन्दिर के लिए ग्राम दान किया था। बौद्ध-धर्म को पूर्णत मरक्षण मिना, पुष्ट पृष्ठभूमि, वस्तुत जैनधर्म की समन्वयवादी अहिमात्मक प्रवृत्ति ने व्यापक मानववाद के सिद्धान्त और महान् सम्राट् के व्यापक राजसरक्षण प्राप्त किया। जैन-मनि व माधुग्रो संरक्षण के कारण बौद्ध धर्म की विश्व मे तूनी बोलने का प्राचार ज्ञान व उपदेश ग्राह्य एवं आकर्षक माने जाते लगी। मध्य एशिया, लका और दक्षिण-पूर्व एशिया में न रहे । जैन-प्राचार्यों की सायना एव मस्कृति के प्रति केवल अशोक के प्रतिनिधि; वरन् स्वय मम्राट् और प्राथा ने गप्टकट राजामों में जैन धर्म के प्रनि प्राकृष्ट उसके पारिवारिक जन इस धर्म का सन्देश पहुचाने कर लिया था तभी तो राष्ट्रकूटो के संरक्षण मे उनकी गये। इसी का प्रभाव है कि आज विश्व की एक तिहाई राजधानी मान्यखेड एक अच्छा जैन केन्द्र बन गया था । जनसंख्या बौद्ध धर्मानुयायी है।
चालुक्य वश जैन-धर्म का महान् सरक्षण रहा। उसके धर्म के राजसंरक्षण से तात्पर्य लोगो पर धर्म का साहाय्य से दक्षिण मे जैन धर्म का बहुत प्रचार हा । बलान् धारोपण नही है अपितु मानव-समाज के साथ धर्म होयसलो के साहाय्य व सरक्षण मे जैन मन्दिर तथा अन्य का तन्मयी करण है। जब समाज-विशेष किसी धर्म की धार्मिक सस्भाएं खूब फैली। भारतीय संस्कृति के अक्षुण्ण उपयोगिता को समझकर इसे एक बार ग्रहण कर लेता है तत्त्व-साहित्य, वस्तुकला एव कालानुकल भाषाएँ जैनधर्म तो वह उसके लिए शाश्वत धर्म बन जाता है। शुङ्गो व को राजभरक्षण मिलने से ही तो स्थायी एव उपयोगी सातवाहनो के द्वारा प्रतिपादित धर्म की अस्थिरता का बन पायी है । वस्तुत. जैनधर्म को प्राप्त राजसरक्षण ही यही कारण था। उन्होने कठोर ब्राह्मण धर्म के अनुसार वर्तमान में भारत की भावात्मक एकता का निदेशक बन अनेक नीति-निर्देश व कुष्ठाग्रस्त कानुन बना डाले और सकता है। धर्म व्यक्ति की चित्तवृत्ति का बहिः प्रदर्शन उन्हे जनता पर थोपना चाहा। फलत' शक, कम्बोज व तभी कर पाता है जब वह समाज की व्यापक भाव से अन्य विदेशी जातियां कनिष्क के काल में सरल बौद्ध धर्म सेवा कर सके, उनके अन्दर अध्यात्म-चिन्तन व उसके को अपनाने लगी। क्योंकि इस धर्म को ऐसा राजसरक्षण व्यावहारिक उपयोग की प्रवृत्ति पैदा कर सके। यही प्राप्त था जिसमें धर्म के बलात् ग्रहण का अवसर ही नही धर्म की वास्तविक उपयोगिता है ऐसे धर्म का शाश्वत था सभी जातियो के योग्य व्यक्ति उच्च श्रमण पद प्राप्त सरक्षण होना उचित है। करने के अधिकारी थे, विभिन्न वर्गों से श्रमणो के आने से
यूरोप व पश्चिमी एशियाई देशो में भी धर्म को बौद्ध धर्म का वाहुल्येन अंगीकरण स्वाभाविक था।
राजसंरक्षण प्राप्त रहा है; और यूरोप मे तो धर्म ने चूकि इतिहास बतलाता है कि धर्म राजसंरक्षण से शैक्षणिक व सास्कृतिक स्तर पर धर्म-प्रचार की दृष्टि से फूला-फला है। अत: स्वाभाविक था कि कनिष्क के कार्य भी किया है। साथ ही धर्म के राजसरक्षण का पश्चात् बौद्ध धर्म को पूर्ण सरक्षण न मिलने से उसका दुरुपयोग भी किया। जब एथेंस, रोम और योरोपीय ह्रास प्रारम्भ हो गया । गुप्त-काल मे अन्य धर्मों के साथ नगरों मे ईसाई-चर्च के सर्वेसर्वा पोप पाल का वचन हिन्दू-धर्म को व्यापक सरक्षण प्राप्त हुआ, जिसकी नीव ईश्वर-आदेश माना जाता था और उनकी आज्ञा का इतनी मजबूत थी कि यह धर्म सत्तरह सौ साल से अनेक उल्लंघन व बाइबिल के उपदेशो का तिरस्कार करने पर झझावातो को शमन करता हुआ द्रुत गति से समय के 'मृत्यु दण्ड' मिलता था तब ईसाई-धर्म को भी प्रज्ञानान्ध साथ चल रहा है। गुप्तो के दो सौ वर्ष के व्यापक एवं राजाओं का संरक्षण प्राप्त था तभी तो महान् दार्पनिक दढ़ राजसरक्षण के कारण ही यह सम्भव हो सका। सुकरात को सत्य कहने से रोका जाता था और गैलीलियों
दक्षिण भारत मे ५वी शताब्दी मे जैन-धर्म को को तो सत्य को गले के नीचे ही रखना पड़ा था । धर्म
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धर्म और राजसंरक्षण
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को राजसरक्षण प्राप्त हो या न हो; परन्तु राजसरक्षण के इतिहास पर कलक के रूप में अंकित है। कारण यदि धर्म ऐसे क्रूर और कृतघ्न तत्वों को बढ़ावा प्रजातन्त्र-राष्ट्रों में 'धर्म-निरपेक्ष-राज्य' का सिद्धान्त दे तो ऐसे राजस रक्षण की कोई अावश्यकता नहीं। मान्य हुया है अर्थात् राज्य धर्म की ओर से निरपेक्ष है इस्लाम स्थिर धर्म है। समय के अनुसार उसमें
उसे कोई सरक्षण प्राप्त नहीं होगा। भारत में धर्म के व्यापक माहित्य, मम्कार व विचारों का विकास इलथ
सम्बन्ध में स्वतन्त्रता के पश्चात् का दृष्टिकोण यह रहा गति से हरा है. उमलिए इसके संरक्षणदाता बादशाह है कि प्रत्येक वर्ग को धर्मविशेष के प्रचार-प्रसार का काजियो के कथनानमार इस धर्म को मरक्षण प्रदान कर अधिकार है वशर्ते कि धर्म राष्ट्र के प्रहित में कोई कार्य पोमाता के माधक बादशाह इस्लाम न करे। वैसे तो भारत मे बौद्ध धर्म को स्वतन्त्रता के धर्म की वद्धि व अन्य धर्मों के क्षय में विशेष मचि रखते पश्चात् भी मरक्षण मिला है बौद्धग्रहो का पुनर्निर्माण हमा रहे। इम्लाम को भारत मे मगल साम्राज्य में भिन्न-भिन्न है, बद्ध जयन्ती व बद्ध-उपवन के लिए वित्त-न्यवस्था की रूपेण सरक्षण मिला। इसी समय कुछ लोगों ने धर्म परि- गई है । भगवान महावीर-निर्वाणोत्सव के लिए सरकार वर्तन भी किया। किन्तु यह अकबर के काल में व्यक्ति व्यय करने को तत्पर है परन्तु इन सब का उद्देश्य मानवकी इच्छा और प्रदत्त लोभो पर निर्भर रहा। धर्म के मात्र का कल्याण ही है। राजमरक्षण का विशेष प्रभाव इस पर नहीं पड़ा । पश्चात् मम्प्रति विश्व के अधिकाश देशों में प्रजातन्त्र है। औरगजेब ने भी इस्लाम को राजमरक्षण प्रदान किया। प्रजातन्त्र राष्ट्र में कोई भी धर्म तभी मरक्षण प्राप्त करता उसने अपनी शक्ति से भारत में इस्लाम के व्यापक प्रचार है जब वह सम्पूर्ण समाज के हित की बात कहे, वह लोकमत की सोची थी परन्तु यह राजसरक्षण-इस्लाम धर्म और के अनुकूल हो; उसमे मानवता के मन्देश भरे हो; वह औरंगजेब-दोनो के लिए महगा पड़ा।
मत्य का प्रत्येक प्रात्मा में मन्धान कर सके। धर्म को राजसरक्षण का ही कुपरिणाम था कि समाज-सगठन-प्रवृति धर्म की ओर दृष्टि लगाये ब्रिटिश शासन भारत में तीन सौ वर्ष तक चलता रहा। हुए है। लोक-ममुदाय ऐसे धर्म की खोज मे है जो चिरन्तन उन्होने अपनी भेद-नीति के कारण हिन्दू व मुसलमानो को मय का मार्गप्रदर्शन करे और युगधर्म का महयोगी बन खमो मे विभक्त कर भारत के प्रशासन व राजनीति में कर वर्तमान विभीषिकायो से त्राण देकर शीतल शान्ति सघर्ष का बीज बो दिया, जिसके फलस्वरूप भारत दो सलिल का आचमन करा मके। ऐसे मानवतावादी धर्म राष्ट्रो मे विभक्त हुआ। धर्म को यह गुप्त-राजसरक्षण को ही प्रजातन्त्र मे सरक्षण मिलना सम्भव है। ऐसे धर्म भारतीय उपमहाद्वीप में अशान्ति का वातावरण बनाकर के विषय मे ही यह सूकि है-"धर्मो रक्षति रक्षितः।"
अनेकान्त के ग्राहक बनिये 'अनेकान्त' जैन समाज की एकमात्र शोध-पत्रिका है। जैन साहित्य, जैन प्राचार्यों और जैन परम्परा का इतिहास लिखने वाले विद्वान् 'अनेकान्त' की ही सहायता लेते है। इसका प्रत्येक लेख पठनीय और प्रत्येक अंक संग्रहणीय होता है। प्रत्येक मन्दिर और वाचनालय में इसे अवश्य मगाना चाहिये । मूल्य केवल ६) रुपया।
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६
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णमोकार मंत्र का प्रारम्भिक रूप क्या है ?
श्री प्रताप चन्द्र जैन, आगरा
मंत्र वह है जिसके द्वारा निजानुभव का ज्ञान हो। नही है और साहूणं पाठ इस बात का द्योतक है कि यह जैनागम (श्रमण संस्कृति) मे णमोकार मन्त्र एक महान मन्त्र अनादि नही है।" शान्तिदायक और सुखकारी मत्र है। विद्वान लेखक डाक्टर साहब का यह कहना तो ठीक है कि साधु ज्योतिषाचार्य डाक्टर नेमिचन्द जी ने अपनी खोजपूर्ण भी परम्परागत अनादि है परन्तु इस आधार पर महामन्त्र पुस्तक "मंगल-मंत्र णमोकार-एक अनुचिन्तन" के प्रामुग्व के पेतीस अक्षरो वाले इस प्रचलित रूप को अनादि मान मे लिखा है कि "यह नमस्कार मन्त्र है। इसमें ममम्त लेना विनयपूर्वक गले नहीं उतरता क्योकि उस दशा में पाप मल और दुष्कर्मों को भस्म करने की शक्ति है। एक शका तो यह होती है कि क्या ऊचे पदधारी प्राचार्य णमोकारमन्त्र मे उच्चरित ध्वनियों से प्रात्मा मे धन और अपने से लघु पद वाले उपाध्यायों और साधुनो को ऋणात्मक दोनों प्रकार की विद्युत् शक्तियों उत्पन्न होती नमस्कार करेंगे और क्या उपाध्याय अपने से नीचे पद है, जिससे कम कलङ्क भस्म हो जाता है। यही कारण है. वाले साधुनो को नमस्कार करेगे ? यदि नही तो यह मत्र कि तीर्थकर भगवान भी विरक्त होते ममय सर्व प्रथम हम रूप में न प्राचार्यों के लिए हो सकता है और न इसी महामंत्र का उच्चारण करते है तथा वैराग्यभाव की उपाध्यायो के लिए। इगके अतिरिक्त क्या कोई प्राचार्य, वद्धि के लिये पाये हुए लौकान्तिक देव भी इसी महामन्त्र उपाध्याय और साधु स्वय को भी नमस्कार करेगा क्यो का उच्चारण करते है । यह अनादि है। प्रत्येक तीर्थयार कि सब मे तो वह स्वय भी आ जाता है। हाँ अन्य सभी के कल्पकाल मे इसका अस्तित्व रहता है।"
जीवो के लिए हो सकता है। प्रचलित णमोकार मन्त्र में निम्नलिखित पनीम कलिग सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित हाथी-गुम्फा अक्षर है जिनमें अरिहंत मे लेकर समस्त साधुओं तक को पर जो लेख है और जो पुरातत्त्व तथा इतिहास की दष्टि भी नमस्कार करने का विधान है।
से बहुत महत्त्वपूर्ण है उसकी प्रथम पंक्ति में यह मन्त्र णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो पाइरियाण। केवल निम्नलिखित चौदह अक्षरों मे अकित है :णमो उवज्झायाण, णमो लोए सव्व साहूण ।।
नमो अरिहंतानं (१) नमो सत सिधानं ॥ आदरणीय डाक्टर साहब ने इस अनुचिन्तन में बड़े
(देग्विये जैन सदेश का छठा शोधाक) ही विद्वत्तापूर्ण ढंग से सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शिला लेख में इसके लेखन की तिथि नही मिलती पेतीस अक्षरो वाला यह णमोकार मन्त्र समस्त द्वादशाग है। हो सकता है कि कुछ अक्षरो की भाति वह भी भग्न जिनवाणी का सार है, इसमे समस्त श्रुतज्ञान की अक्षर हो गई हो परन्तु इस लेख से यह तो स्पष्ट है कि वह संख्या निहित है । जैन दर्शन के तत्त्व, पदार्थ, द्रव्य, गुण, शिला लेख ईसापूर्व चौथी शताब्दी का है। मानो आज से पर्याय, नय, निक्षेप, प्रास्रव और बन्ध आदि भी इस मन्त्र दो हजार तीन सौ बर्ष से भी अधिक प्राचीन । इस मन्त्र मे विद्यमान हैं। विद्वान डाक्टर साहब ने इस मन्त्र को का इससे पुराना लेख शायद ही अन्यत्र कही उपलब्ध हो । इसी रूप में अनादि बताया है परन्तु आगे चलकर उन्होंने और यह रूप है भी ऐसा जो अनादि हो सकता है। इस यह भी लिखा है कि "कुछ ऐतिहासिक विद्वानों का अभि- रूप में प्राचार्य और उपाध्याय सहित सभी जीव इसका मत है कि साधु शब्द का प्रयोग साहित्य में अधिक पुराना उच्चारण कर सकते हैं।
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कषाय मामृत, चूर्ण और त्रिलोक-प्रज्ञप्ति संबधी महत्वपूर्ण और नई विचारणा
ले० श्री अगरचन्द नाहटा
जैन-धर्म का कर्म-सिद्धान्त बहुत ही महत्वपूर्ण और सप्रदायों में प्राप्त है। कर्म मबंधी मूल और टीका के अनोखा है। कर्मों के सबध में जितना विचार और विव- रूप मे वर्तमान जो दोनो सप्रदायो का साहित्य उपलब्ध ग्ण जैन विद्वानो ने किया व लिखा है उतना विश्व के है, वह कई लाख श्लोक परिमित है। प्राचीन जैन आगमों किमी भी धर्म के विद्रानो ने नही किया। मौखिक रहने मे कर्मों मबधी विवरण बीज रूप मे मक्षिप्त मिलता है। के कारण कम सबधी जो बहत बडा पूर्व नामक ग्रन्थ स्वतत्र ग्रन्थो मे 'कपाय प्राभूत' आदि ग्रन्थ प्राप्त व था वह तो काफी र.मय पहले ही लुप्त हो गया पर उसके प्रसिद्ध है। कपाय-प्राभत और महावंध तथा उनकी प्राधार मे लिम्बे हा कई ग्रन्थ श्वे० और दि० दोनो टीका दक्षिण भारत के दि० शास्त्र भडारो मे ताडपत्रीय
प्रतियो के रूप में प्राप्त थी, वह सारा साहित्य अब प्रकाऐसा लगता है कि कालान्तर में कभी इसे वर्तमान
शिन हो चका है। श्वे० कर्म प्रकृति, पच सग्रह कमंग्रथ प्रचलित रूप दे दिया गया हो। एक समय ऐमा प्राया
ग्रादि अनेको ग्रथ और उनकी टीकायें प्रकाशित हो ही भी था जब कि कालदोष के कारण म्मृति क्षीण होने में श्रुत जन का धीरे-धीरे लोप होने लगा था और तब
चकी है। इस विशाल कर्म-माहित्य का अध्ययन और केवल एक अग के ज्ञाता प्राचार्य धर मेन ने प्राचार्य श्री
पालोहन करके ममम्न प्राप्त माहित्य के प्राधार से नये पुष्पदन्त और भूतवलि द्वारा लिपिबद्ध करा कर उसका
कर्म मबबी ग्रथ तार करने की योजना स्वर्गीय श्वे. उद्धार हुआ था। हो सकता है कि इस प्रक्रिया में इस
आचार्य विजय प्रम मूरि जी ने बनाई थी। वे स्वय जैन महामन्त्र मे प्राचार्य, उपाध्याय और सब साधुप्रो को
कर्म माहिग के सबसे बड़े विद्वान थे ही पर उन्होंने अपने जोडकर वर्तमान सशोधित रूप दे दिया गया हो।
शिष्य प्रमिप्यों को भी कम माहित्य के मर्मज बनाने का तत्कालीन रचित षटवण्डागम के प्रथम खण्ड में यह महा
महज प्रयत्न किया। इसके फलस्वरूप प्राचार्य विजयजब मत्र मगलाचरण के रूप में प्रचलित पेंतीस अक्षरो मे है
मूरि जी, भवनमान मूरि जी तथा जयघोष विजय जी भी । स्व० डा. हीगलाल जी जैन ने भी एक स्थान पर
धर्मानन्द विजय जी, हेमचन्द्र विजय जी, गुणरत्न विजय श्री पुष्पदन्ताचार्य को इस महामन्त्र का आदि कर्ता
जी अादि १०-१५ मे विशिष्ट विद्वान तैयार किये, बताया है।
जिन्होंने विजय प्रेम मूरि जी की भावना को मूर्तरूप भले ही मन्त्र का वर्तमान प्रचलित रूप अनादि न
देकर सफल बना दिया है।
. हा परन्तु हम कृतज्ञ हाना चाहिए उन आचार्यों का कि उपरोक्त मनियो ने समस्त जैन कर्म माहित्य को १७ उन्होने उसका यह मशोधन ऐसा अद्भुत और चमत्कृत बडे-बड़े भागो में (करीब २।।-३ लाख श्लोक परिमित करने वाला किया है कि वह केवल मन्त्र न रहकर । प्राकृत सग्कृत मे) तैयार करके प्रकाशित करने की योजना द्वादशाङ्गरूप एव भाषा विज्ञान का आधार बन गया है, बनाई । कूछ मनि तो प्राकृत गाथाये बनाते है, कुछ उन जैसा कि आदरणीय ज्योतिषाचार्य जी ने अपनी अनूठी पर विस्तृत सस्कृत टीकाएँ लिखते है। कुछ मशोधन और खोजपूर्ण पुस्तक "मङ्गल मन्त्र णमोकार-एक आदि कार्य करते है इस तरह एक पूरा मण्डल ही इम अनुचिन्तन" मे बड़ी खूबी के साथ सिद्ध किया है। फिर भागीरथ कार्य में जुटा हुआ है । उक्त १७ भागो मे स ६ भी यह अनुसन्धान का विषय है।
भाग तो गत ८ वर्षों में प्रकाशित भी हो चुके है। इन
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१६० वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
महान् ग्रन्थो के प्रकाशनार्थ राजस्थानवर्ती पिडवाडा में ही पढ़कर अपने विचार प्रकाश में लाने चाहिएं। क्योंकि भारतीय प्राच्य तत्व प्रकाशन समिति नामक संस्था और इन विद्वानो ने कषाय प्राभूतादि एवं उनकी टीकायें और ज्ञानोदय प्रिटिग प्रेस की स्थापना की गई है।
त्रिलोक प्रज्ञप्ति आदि के सपादन, अनुवाद और प्रस्तावना इस नये कर्म साहित्य को तैयार करने वाले कुछ आदि लिखने मे बड़ा परिश्रम किया है। उनको इस नई मुनियो का दर्शन मैंने गत मार्च मे अहमदाबाद में किया जानकारी पर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है। और उनकी लगन, निष्टा और परिश्रम को देखकर उनके
मुनि जी हेमचन्द्र विजय जी ने प्रस्तावना मे लिखा प्रति सहज ही भक्ति भाव उमड पड़ा। जब इस नये कम है कि कपाय प्राभत और उसकी चणि दिगम्बर और साहित्य के ४ बडे ग्रन्थ मुझे पहले प्राप्त हुए थे तो मैने खेल के अलगाव होने से पहले के है और दोनो सप्रदायो उनका परिचय जन जनता विद्वानो को मिल सके, इमलिए
मे ये मान्य रहे है। उनमें दी हुई मान्यतायें श्वे० सप्रदाय लेख लिखकर "जैन सदेश" में प्रकाशित करवाया था,
से अनुमोदित है और श्वे० कर्म साहित्य में उनका उल्लेख अब इस नये कर्म साहित्य के कुल ६ भाग मुझे प्राप्त हो
व उद्धरण भी मिलता है । आर्य मग और नाराहस्ती श्वे० चुके है, १०-११वाँ छप रहा है। प्रत इस महान् कार्य
नंदी सूतस्थ में उल्लेखित है। दि. साहित्य में उनका की ओर जैन विद्वानो और समाज का ध्यान पुन. पाक
विवरण नहीं मिलता। नाग हस्ती के शिष्य यति वृषभ, पित कर रहा हूं।
चणि के कर्ता है । कपाय प्राभूत मूल के कर्ता गुणधर भी उपरोक्त नये कर्म साहित्य का प्रथम भाग खवग-मेठी वाचक वंश के है, जिस वाचक वश का उल्लेख और संवत् २०२२ प्रकाशित हुआ था उसके प्रस्तावना, मूल परपरा श्वे० स्थविरावली मे ही उल्लेग्वित है। कपाय गाथाये सस्कृत छाया और गुर्जर भाषानुवाद वाला ग्रथ ।
प्राभत चणि का रचनाकाल वीर सवत् ४६८ के लाभ अलग में भी प्रकाशित किया गया था । अत स्वोपज्ञ वृत्ति
का है अर्थान् अब तक दिगम्बर विद्वानी ने जो काल वाले बड़े सस्करण का मूल्य २१) ० है उसे जो नहीं।
माना था, उसमें काफी पहले का है। त्रिलोक प्रज्ञप्ति खरीद सके, वे इस छोटे ग्रन्थ को खरीद सकते है इसीलिए
यति वृपभ के रचित नही है, न उननी प्राचीन ही है। इसका मूल्य २१) ही रत्रा गया है।
यद्यगि त्रिलोक प्रज्ञप्ति नामक एक प्राचीन ग्रथ भी रहा 'खवग-सेठी की प्रस्तावना मुनि हेमचन्द्र विजय जी ने है पर वह अब उपलब्ध नही है। उसके प्राधार से जो ८ पेजी ५४ पृष्ठो की लिखी है उसमे पृष्ट १३ से ४८ त्रिलोक प्रज्ञप्ति रची गई, वही प्रकाशित हुई है । इस तक मे कपायप्राभृत मूल, चूणि और विशोक प्रज्ञप्ति के तरह श्वे. साहित्य के नये प्रमाणो के आधार से मुनि रचयिता और रचनाकाल के सम्बन्ध मे विस्तार से और हेमचन्द्र विजय जी ने जो विचारणा की है वह दि० नया प्रकाश डाला है । उसे तो दि० विद्वान प० हीरालाल विद्वानो को अवश्य ही पढकर अपने विचार प्रकट करने भी शास्त्री, प० कैलाशचन्द जी, प० बालचन्द जी, प० चाहिए। नये कर्म साहित्य के प्रकाशित भागो व जैन फूलचन्द जी, डा० आदिनाथ उपाध्याय आदि को अवश्य ग्रन्थावलियो में अवश्य रखने चाहिये।
वर्णी-वचनामृत वास्तव में धर्म को प्रभावना प्राचरण से होती है। यदि हमारी प्रवृति परोपकार-मय है तो लोग अनायास ही हमारे धर्म की प्रशंसा करेंगे और यदि हमारी प्रवृति और प्राचार मलिन हैं तो किसी की भी श्रद्धा हमारे धर्म में नहीं हो सकती।
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जैनधर्म का नीतिवाद
डा० राजबलीजी पाण्डेय एम० ए० डी० लिट्
प्रत्येक धर्म धौर सम्प्रदाय में जीवन का एक पन्तिम लक्ष्य माना गया है और उसकी प्राप्ति केलिए साधन बतलाये गये है । सभी भारतीय धर्मों में जिनमें जैन-धर्म की भी गणना है यह बात पायी जाती है। जैन-धर्म में चरम लक्ष्य की प्राप्ति का मुख्य साधन नीति-मार्ग है । जैन धर्म मे नीतिवाद का प्राधान्य कब और कैसे हुआ, इस बात को जानने के लिए आवश्यक है कि हम देखें कि भारतवर्ष में धर्म के अन्तिम लक्ष्य और साधन में क्रमशः विकास कैसे हुआ? ऐतिहासिक क्रम मे सबसे प्राचीन धर्म वैदिक धर्म है। वैदिक सहिताओ के अध्ययन से मालूम होता है कि उस समय का धर्म 'देववाद' था जीवन का अन्तिम लक्ष्य ऐहिक सुखवाद था। पुत्र, कलत्र, स्वास्थ्य, दीर्घायु, धन, सम्पत्ति और ऐश्वर्य को लोग कामना करते थे और विश्वास करते थे कि देवताओं को प्रसन्नता से ही ये पदार्थ मिल सकते है । श्रत. देवताओ की प्रशसा मे और उनकी गुष्टि के लिए ऋक् और साम-वंदिक ऋचाओं
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की रचना की गई थी। भारतवर्ष के इस प्राथमिक युग मे आत्म-जिज्ञासा पीर मुक्ति की कल्पना का जन्म ही नही हुआ था । भारतवर्ष मे धर्म के विकास में दूसरा चरण, ब्राह्मण ग्रन्थो मे पाया जाता है । ब्राह्मण-युग के धर्म को हम 'वेदवाद' कह सकते है। इस युग में भी जीवन का अन्तिम लक्ष्य इस लोक मे पार्थिव सुख और परलोक मे स्वर्ग की प्राप्ति थी, जहा पर पृथ्वी के अपूर्ण सुखो की पराकाष्ठा सभव थी। इसके लिए यज्ञ साधन थे और अनेक प्रकार के यज्ञों ने वेद-मन्त्रों के बल से देवताओं को वाछित पदार्थ देने के लिए विवश किया जाता था । भारतीय धर्म का तीसरा चरण उपनिषदों में दिखाई पडता है । इस समय मनुष्य बाह्य जगत् के प्राश्वयों और आकर्षणों से हटकर अन्तर्मुख होने लगा। धात्म-जिज्ञासा और मुक्ति की कल्पना का उदय हुआ। उपनिषदों का धर्म 'ब्रह्मवाद'
था । ब्रह्म-प्राप्ति का साधक प्रात्म-ज्ञान अथवा ज्ञान था, यज्ञ और वेदमन्त्र की श्रावृत्ति नही । फिर भी अपनी समन्वय की नीति के कारण उपनिषद् ब्राह्मणों के कर्म-काण्डीय प्रभाव से अपने को मुक्त न कर सकी। भारतीय धर्म के उपर्युक्त विकास क्रम में जीवन के अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति मे साधन रूप से नैतिक आचरण का कोई महत्वपूर्ण स्थान नही दिखाई पड़ता, यद्यपि कही कही उसकी ओर संकेत मिलता है । श्रागे चलकर भारतवर्ष मे बौद्ध और जैनधर्म का उदय हुआ । इन धर्मो ने उपनिषद् के मुक्ति - आदर्श को स्वीकार किया, किन्तु वैदिक और ब्राह्मण धर्म के चरम लक्ष्य ऐहिक तथा पारलौकिक सुखवाद और उसकी प्राप्ति के साधन मन्त्रपाठ श्रीर यज्ञ का पूर्णत परित्याग किया। उन्होने मानव जीवन के उत्थान और चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नैतिक आचरण को प्रमुख स्थान दिया । इन दोनो मे भी बौद्ध धर्म 'बुद्धिवाद' पर अधिक जोर देता रहा; नैतिक श्राचरण की प्रखरता मे वह जैन-धर्म का साथ न दे सका। इस प्रकार नीतिवाद का समर्थक जैन-धर्म ही हुआ, यद्यपि गौणरूप से इसको उपयोगिता अन्य धर्म भी मानते रहे ।
नीतिमार्ग के अवलम्बन का अर्थ है अपने दायित्व का बोध, स्वावलम्बन और स्वातन्त्र्य । इसमे बाहरी विधि ( अथवा चोदना प्रेरणा अथवा धाज्ञा ), दूसरो की सहायता और दया, तथा प्रलोभन प्रादि का स्थान नही है । इस मार्ग पर चलने के लिए जैन-धर्म को कई प्राचीन रूडियो और परम्परा का सामना करना पड़ा | सबसे पहले वेदी के प्रमाणवाद का सामना करना पड़ा । वेदवाद वेदो को अपौरुषेय मानकर उनको प्रति मानुष महत्त्व दे रखा था । वेदवादियों ने समझ लिया था कि किसी प्रतिमानुष सत्ता ने मानव जाति की समस्याओं को सदा के लिए सोच लिया है और उनके हल के लिए एक विधि-शास्त्र
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१६२, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
वेदो के रूप मे छोड़ दिया है। मनुष्य वेदों की विधि वाले-नैतिक आचरण पर जोर दिया और मानव के अथबा चोदना के विरुद्ध नही जा सकता, उसको अपने चरम विकास का इसको साधन बतलाया । लिए सोचने की आवश्यकता भी नहीं । इस प्रमाणवाद के मुक्ति अथवा कैवल्य की प्राप्ति के लिए जहां सम्यग् नीचे मनुष्य की बुद्धि कुण्ठित हो रही थी जब मनुष्य को दर्शन और सम्यग्ज्ञान की प्रावश्यकता, उपनिषद् और अपने कर्म के विषय मे सोचने की स्वतन्त्रता नहीं तो कर्म बौद्ध धर्म की भाति, जैनधर्म ने स्वीकार की है, वहां के परिणाम का उसके ऊपर दायित्व ही कैसे हो सकता 'सम्यक् चरित्र' को सबसे अधिक प्रधानता दी है । औपहै ? इसलिए यह वाद मनुष्य की नैतिक चेतना को भी निषद्, बौद्ध, ईसाई आदि धर्म भी शील और चारित्र को क्षीण कर रहा था । दूसरी रूढि जिसका सामना जन-धर्म जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति का साधन मानते है । को करना पड़ा वह 'देववाद' अथवा ईश्वरवाद' था। परन्तु जिस निष्ठा के साथ जैनधर्म ने इस साधन का अवकिसी अलौकिक अतिमानुष सत्ता को कर्तृत्व और निय- लम्बन किया है वह ससार के इतिहास में दुर्लभ है । जैन न्त्रण सौप कर मानव उसके हाथ की कठपुतली और धर्म के अनुसार वासनामूलक सकाम कर्म ही पाप और उसकी दया का भिखारी हो गया था। इस कल्पित 'महा- बन्ध का कारण है। अत. सम्यक् चारित्र (रागद्वेष से मानव' के व्यक्तित्व के भार से बिचारे मानव का व्यक्तित्व रहित प्राचरण) से ही कर्म के प्रबाह को रोका जा सकता संकुचित और निष्प्रभ हो रहा था । जैनधर्म ने 'वेदवाद' है। इसी मार्ग से कर्म को उसको बाधनेवाली शक्ति से
और 'देववाद' दोनो का विरोध किया। उसने इस बात रहित करना संभव है। मानव-स्वभाव के मस्कार का यही पर जोर दिया कि मनुष्य का कर्म किसी बाहरी विधि से पथ है। प्रेरित नही हो सकता; कर्म-निर्णय का एकमात्र साधन
मम्यक् चारित्र के आधारभूत महाव्रत, जैनधर्म के उसकी बुद्धि और अनुभव है और अपने कर्मों का दायित्व
तेईसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ के अनुसार चार थे - (१) उसको उठाना पड़ेगा । इस दायित्व के बोध से ही उसका ।
अहिसा (२) सत्य (३) अस्तेय और (४) अपरिग्रह । पूर्ण बौद्धिक विकास सभव है । जैनधर्म ने इस तथ्य का ।
चौबीसवे तीर्थकर महावीर ये पाचौं महाव्रत ब्रह्मचर्य भी प्रतिपादन किया कि सृष्टि का कत्ती या नियन्ता कोई भी इनके साथ जोड दिया। जो लोग जैनधर्म को पलायनबाहरी सत्ता नही, मनुष्य स्वयसिद्ध और अपने भाग्य का वादी और एकागीण समझते है वे देखेंगे कि पाच महाव्रतो निर्माण करने वाला है, वह किसी की दया और सहायता के पालन का उद्देश्य केवल व्यक्ति का मस्कार और मुक्ति का भिग्वारी नही, मनुष्य अपने चरित्र और तपोबल से नही, किन्तु मसार का कल्याण और मुक्ति है। प्रथम ऐश्वर्य (ईश्वर) की प्राप्ति कर सकता है। स्वावलम्बन महाव्रत का अर्थ है जीव मात्र को मनसा वाचा कर्मणा
और स्वातन्त्र्य मनुष्य मे सहज है, इसके लिए किसी के किसी प्रकार का कष्ट न देना। अन्ततोगत्वा यह व्रत सामने आवेदन-पत्र देने और हाथ पसारने की आवश्यकता जीवमात्र की ममता और सभी जीवधारियो के ममान नही । तीसरी रूढ़ि जिसके विरोध मे जैन-धर्म को उठाना अधिकार समान सुख की भावना पर अवलम्बित है। पड़ा वह मीमासकों का कर्म-काण्ड था। यज्ञ बहुत ही कष्ट किसी को प्रिय नही। यदि कोई जीवधारी चाहता विस्तृत, दुरूह, खर्चीले और फिर प्राय. हिसा प्रधान हो है कि उसको कष्ट न हो तो उसको दूसरो को कष्ट देने चले थे। इस बाह्याडम्बर में न तो कहीं मनुष्य के से अपने को रोकना पड़ेगा। अतः अहिंसा विश्व को व्यक्तित्व और नैतिक दायित्व का पता था और न तो शान्तिपूर्ण स्थिति के लिए जीवमात्र का पारस्परिक धर्म धर्म की मूल भावना का अस्तित्व । बाहरी क्रियाकलाप है। दूसरा महाव्रत सत्य है। इसका सीधा अर्थ है जो मे मानव अपने को खो गया था। सारा कर्म-काण्ड सुख- वस्तु जैसी मालूम हो उसको वैसी ही कहना और झूठ से वाद से प्रेरित और अन्धश्रद्धा पर अवलम्बित था। इसके बचना । परन्तु जैनधर्म ने सत्य की इस परिभाषा मे स्थान पर जैनधर्म ने दृष्ट-मानव-व्यवहार मे दिखाई पड़ने थोड़ा संशोधन किया। उसके अनुसार सत्य केवल 'ठीक'
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जैनधर्म का नीतिवाद
ही नहीं, अपितु कल्याणकारी और प्रिय भी होना चाहिग। यौन-इन्द्रिय के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों का भी संयम इसीलिए सत्य को सुनत भी कहा गया है। केवल ठीक आवश्यक है। अत: ब्रह्मचर्य से प्रयोजन वाह्य और अन्तः, सत्य मे अहकार, वाचालता, अश्लीलता आदि पा जाते । प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सभी प्रकार के काम और कामवासना है। शिव और सुन्दर सत्य बोलने के लिए काम, क्रोध, का परित्याग है। और महाव्रतों के समान ब्रह्मचर्य भी मद, लोभ का सवरण करना प्राबश्यक है। तीसरा महा- केवल व्यक्तिगत व्रत नही, किन्तु सामाजिक सयम है। व्रत अस्तेय है। इसका अर्थ है किसी की वस्तु को उसके इसके पालन करने से जीवमात्र केवल हमारी वासना की दिये बिना ग्रहण न करना। इस महाव्रत मे जीवमात्र तृप्ति के साधन न रह कर समता, पवित्रता और आदर के अस्तित्व की पवित्रता के समान ही उनकी व्यक्तिगत के पात्र हो जाते है। सम्पत्ति की पवित्रता भी स्वीकार की गई है। किन्तु यहा 'द्रव्य संग्रह' नामक पुस्तक मे व्रतों की संख्या और व्यक्तिगत सम्पत्ति से मतलब अनियन्त्रित रूप से बल आर बढा कर दी गयी है, परन्तु उन सब का अन्तर्भाव इन्ही छल से उपाजित सम्पत्ति नही। सम्पत्ति के सचय मे भी मल पाच मदावतो हो जाता। दसरे के सत्य का ध्यान रखना आवश्यक है। मनुष्य का उपर्यक्त पांच महाव्रत नतिक आचरण की प्राचार अपने परिश्रम के बदले में ईमानदारी के साथ पारिश्रमिक शिला है। दना
रिश्रामक शिला है। इनको कार्यान्वित करने के लिये 'तप' की मात्र लेने का अधिकार है। इससे अधिक ग्रहण करना व्यवस्था की गयी थी। तप का अर्थ, धर्म के पथ मे श्रम स्तेय अथवा चोर कर्म है। चौथा महाव्रत अपरिग्रह है।
करना है। इसको करके ही मनुष्य 'श्रमण' हो सकता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ग्रहण न करना। आचारान सूत्र तप दो प्रकार का बतलाया गया है- (१) बाह्म और मे इसकी और स्पप्ट परिभाषा को गई है।
(२) प्राभ्यन्तर । बाह्य में (१) अनशन (२) अव'सभी इन्द्रिगम्य पदार्थों मे अनासक्ति अपरिग्रह है। मोदरिका (चान्द्रायण व्रत) (३) भिक्षाचयाँ (४) रसअपने इन्द्रियसुख के लिये आवश्यकता से अधिक पदार्थों का परित्याग (५) काय-क्लेश और (६) सलीनता सम्मिलित सग्रह करना सामाजिक कलह और संघर्षका कारण है। है। प्राभ्यान्तर तप मे (१) प्रायश्चित (२) विनय अनियत्रित सम्पति-सचय और पूजीवाद परिग्रह के परिणाम (३) वयावृत्य (सेवा) (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान और है। अल्प सग्रह और व्ययसे ही समाज में आर्थिक समता (६) व्युत्सर्ग (विशिष्ट त्याग-शरीर त्याग) की गणना
और सुख स्थापति हो सकते है । परिग्रह के पाप का प्राय- है । प्राभ्यन्तर तप संख्या (३) के अनुसार (१) प्राचार्य श्चित चौरकर्म से सचित की हुई सम्पत्तिका दान नहीं हो (२) उपाध्याय (३) स्थविर (४) तपस्वी (५) ग्लान सकता । व्यक्तिगत और सामाजिक कल्याण के लिये इस (रोगी) (६) शैक्ष और (७) सार्मिक सेव्य माने गये पाप से बचना होगा और इसका उपाय है परिग्रह (सचय) है। इनके अतिरिक्त (१) कुल (२) गण और (३) संघ को प्रवृत्ति का त्याग ।
भी सेवास्पद बतलाये गये है। तप के प्रकारो मे कुछ तो अन्तिम महाव्रत ब्रह्मचर्य है। सर्वसाधारण में इसका केवल भिक्षुओं और श्रमणो के लिये ही संभव है, किन्तु प्रचलित अर्थ यौन-सम्बन्ध से विरत होना है। परन्तु जैन अधिकाश सभी के लिये साध्य है। तप मे सेवा का एक धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य का अर्थ सभी प्रकार की काम- विशिष्ट स्थान है और उसका सामाजिक महत्त्व भी। वासना का परित्याग है। यह संभव है कि मनुष्य स्थूल जैन-धर्म अपने इस नीति-मार्ग के ऊपर अपना एकायौन सम्बन्ध से अपने को बचा ले, किन्तु इतने से ही वह धिकार नहीं मानता और न इस बात को मानता है कि ब्रह्मचारी नही हो सकता; उसका मन भीतर से विषय में कोई जैन धर्म की साम्प्रदायिक दीक्षा लेने से ही इस मार्ग आसक्त रह सकता है और वह अपने वचन, चेष्टा और से लाभ उठाकर कैवल्य प्राप्त कर सकता है। बिना इंगित से विषय का रसास्वादन कर सकता है। इसके साम्प्रदायिक भक्ति के ही संसार के कोई भी व्यक्ति अतिरिक्त विषय का अधिष्ठान सभी इन्द्रियो में है अतः इस मार्ग पर चल लाभ उठा सकता है। ईश्वर के स्थान
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अनेकान्त
पर सम्प्रदाय और गुरुको रख दिया गया तो फिर मनुष्य अपनी आधुनिक बाह्य रूपरेखा की प्रतिक्रिया से मुझको का स्वातन्त्र्य कहाँ ? वह तो फिर ईश्वर के बदले एक छोटे भी जैनधर्म कुछ ऐसा ही दिखाई पड़ता था। परन्तु आज ईश्वर मनुष्य का दास हो गया। इसीलिये रत्नशेखरने बल-पूर्वक कह सकता हूँ कि उपर्युक्त आलोचना जैनधर्म अपने ग्रन्थ 'सम्बोध-सत्तरी मे' लिखा है,-"चाहे कोई की मूल भावना के सम्बन्ध मे अज्ञान का परिणाम है। श्वेताम्बर हो या दिगम्बर, बौद्ध हो या अन्य किसी भी जिसको श्री हापकिन्स महोदय जैनधर्म की दुर्बलता समझते धर्म सम्प्रदायका अनुयायी हो, यदि उसको आत्मा की है, मैं उसको जैनधर्म की शक्ति मानता हूँ। वास्तव मे समानता का बोध हो गया है-और व्यवहार मे सभी जिसकी ससार मे राजनैतिक, धार्मिक या बौद्धिक साम्राज्य जीवो को समान समझा है-तो बह कैवल्यका अधिकारी की स्थापना करना है उसको महा-मानव (सुपरमैन) है।" इस धर्म को मानने के लिये आत्मबल और सयम अथवा ईश्वर की आवश्यकता होगी, क्योकि उसकी कल्पना की आवश्यकता है। जिनमें ये साधन है वह सर्वत्र जिन- भी तो देवाधिपति या विश्वपति के रूप मे है, जिसे ससार विजयी हो सकता है।
के असख्य मनुष्यों को लघु-मानव (सब ह्य मन) अथवा जैन-धर्म के नीतवादका केन्द्र मानव और उसकी पशु या यन्त्र समझ कर उनका शोषण और सत्त्वापहरण अभिव्यक्ति समस्त प्राणिमात्र में समदष्टि से प्रेरित जीव- करना है उनके लिये मानव और मानव पूजा का क्या दया है। इस धर्म के कुछ एकागीण पथिको को देख कर महत्त्व ? और जिनके उदर कोटि-कोटि जीवधारियो के कतिपय विद्वानों में इस धर्म के सम्बन्धों में भ्रम उत्पन्न शरीर के लिये नित्य कव्रगाह और श्मशान बन रहे है हो जाता है। प्रसिद्ध प्राच्यविद्या-विशारद श्री हापकिन्स ने उनके सामने जीव-दया की क्या उपयोगिता? परन्तु जैन अपने ग्रन्थ 'रेलिजन्स् आफ इण्डिया' (पृ. २६७) में धर्म तो धर्म और श्रेयका मार्ग है; प्रेम, सङ्कर्ष, कलह, लिखा है, "जैनधर्म एक ऐसा धर्म है जिसके मुख्य सिद्धान्त युद्ध और इनसे उत्पन्न दुःखका प्रवर्तक नही । यदि मनुष्य जिन पर विशेष बल दिया गया है, ये हैं-(१) ईश्वर में को एक तरफ देवत्व और दूसरी तरक दानवत्व छोड़कर अविश्वास, (२) मानव पूजा और (३) कीड़ों मकोड़ों 'मानव' बनना है तो उसको जन-धर्म की उपयोगिता का पोषण ।" ये शब्द व्यंग में लिखे गये है। मैंने इस स्पष्ट दिखाई पड़ेगी। पुस्तक को प्रथम प्राज से अठारह वर्ष पहले पढा था।
स्त्रियों का आदर
हमारे देश में जब उन्नति हो रही थी तब स्त्रियों का खूब मादर था और वे शिक्षित थीं। किन्तु जबसे उनका पावर कम हुमा, शिक्षा भी कम हो गई है तभी से अवनति ने यहां प्रवेश किया है। इसलिए यह कहना ही ठीक बचता है कि प्रशिक्षण के रिवार पर लात मार कर स्त्रियों को खूब शिक्षित करना हमारे लिए पथ्य है । दूसरा कोई भी मार्ग हमारे कल्याण का नहीं है। बहुत पुराने जमाने को जाने दीजिए, महावीर के जन्म का केवल ढाई हजार बर्ष ही बोते हैं। उनके पिता अपनी पत्नी का सामावर करते थे?
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मुकवि खेता और उनकी रचनाएँ
ले० श्री अगरचन्द नाहटा
१८वी शताब्दी में राजस्थानी साहित्य का निर्माण से लेकर सवत १९५० तक में खरतरगच्छ की भद्रारक बहुत अधिक हुआ है। जैन कवियो ने भी इस शताब्दी मे शाखा में कौन कौन यति कब दीक्षित हा इसकी महत्त्वकाफी साहित्य सृजन किया है। और उनके सम्बन्ध मे पूर्ण सूचना मिल जाती है।
वसन्तलाल शर्मा पिलानी वालों ने शोधप्रबन्ध भी उपर्युक्त दफ्तर बही के अनुसार मुकवि खेता का लिखा है जो अभी तक अप्रकाशित है। राजस्थान मे पुरा और घरेल नाम 'खेतमी था। मंवत् १७४१ के खरतरगच्छ का बहुत अाधक प्रचार व प्रभाव रहा। अत. फाल्गुण वदी ११ गुरुवार को केरिया ग्राम मे खरतर राजस्थानी भाषा में सर्वाधिक साहित्य खरतरगच्छ के गच्छाचार्य जिन चन्द्र सूरि जी ने इन्हें दीक्षित किया था। कवियो का ही मिलता है। इनमे से महाकवि जिनह इनका दीक्षा का परिवर्तित नाम दयासुन्दर रखा गया। के सम्बन्ध मे तो डा० ईश्वरानन्द शर्मा शोधप्रबन्ध लिख
इनके गुरू दयावल्लभ गणि थे। यद्यपि इनके जन्मस्थान चुके है। कविवर धर्मवर्द्धन, विनयचन्द्र और जिनहर्ष की
का निश्चित उल्लेख नहीं मिलता पर चित्तौड़ की गजल रचनाओ का संग्रह हमने सम्पादित करके प्रकाशित कर मवत १७४२ सावन में बनाई गई है और उद दिया है। उपाध्याय लक्ष्मी वल्लभ और जिनसमुद्र सूरि
गजल १७५७ मे । इन दोनो स्थानों का जो विवरण कवि के सम्बन्ध में मेरा एक लेख राजस्थानी पत्रिका में प्रका
ने इन गजलों में दिया है उससे मालूम होता है कि कवि शित हो चुका है और धर्मवर्द्धन आदि कई कवियो और
को इन स्थानों के सम्बन्ध मे बहत अच्छी जानकारी थी । उनकी रचनामों सम्बन्धी लेख अन्य पत्रिकाओं में छप इससे कवि का मेवाड निवासी होना विशेष सम्भव है चुके है। प्रस्तुत लेख में सुकवि खेता या या खेतल और
कवि की पहली रचना संवत १७४३ की प्राप्त है इससे उनकी रचनायो का सक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है।
कवि वहीं उसमें ही दीक्षित हुअा होगा। क्योकि सवत सुकवि खेता ने हिन्दी और राजस्थानी दोनो भाषाओं १७४० मे दीक्षा ली और दो वर्ष के अन्दर ही काव्य में थोड़ी और छोटी होने पर भी उल्लेखनीय रचनाये बनाने लगा तो इसकी योग्यता के विकास में यदि बाल्याबनायी हैं। उनके द्वारा रचित चित्तौड़ और उदयपुर गजल वस्था मे दीक्षा ली भी होती तो कुछ वर्ष तो लग ही तो प्रकाशित भी हो चुकी है। जिनमे इन दोनों स्थानों का जाते । वैसे अनुमान तो यह होता है कि वह खरतर बहुत ही सुन्दर व ऐतिहासिक वर्णन प्राप्त है।
गच्छीय सुप्रसिद्ध कवि आचार्य श्री जिनराज सूरि जी के खरतरगच्छ की ऐतिहासिक परम्परा में जिन जिनको शिष्य दयावल्लभ गणि की वृद्धावस्था में छोटी उम्र में ही यति दीक्षा दी जाती थी, उनका विवरण श्री पूज्यो की खेतसी उनके पास आ गया हो और योग्यवय और योग्यता दफ्तर बही मे लिखा जाता था । इससे किस प्राप्त होने पर कई वर्षों बाद दीक्षा ली गई हो । उदयपुर सवत व तिथि को किस स्थान में किसे दीक्षित किया और चित्तौड़ गजल को ध्यान पूर्वक पढ़ने से एक अनुमान गया, उनका बोल-चाल का अर्थात् घरेलू नाम क्या था, और भी निकाला जा सकता है कि उसका जन्म जैन घराने दीक्षा का नाम क्या रखा गया और उनके गुरू का नाम नहीं हुमा हो, वैष्णव शंव या शक्ति का आसक उसका क्या था, इसका विवरण लिखा जाता था । ऐसी ही एक घराना रहा होगा। इससे कवि ने इन दोनों गजलों में दफ्तर बहीं की नकल हमने की है। उससे संवत १७०१ जैन मन्दिर प्रादि का वर्णन इतना नहीं किया जितना
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१६६ वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
कि अन्य स्थानों और अन्य देवी देवताओं के मन्दिर का नवग्रह छंद सं० १७४४ जेठ वदी १० से सं० १७४८ किया है। कवि की एक रचना हिंगलाज भवानी छन्द श्रा० व० १२ की कवि की चौथी रचना हिन्दी चित्तौड़ भी हमारे संग्रह मे है इसे भी शक्ति या देवी उपासना की गजल है। इसके प्रारम्भ मे चतुरभुज के चरण को चित्त मे ओर विशेष आकर्षण या झकाव प्रतीत होता है जो बहुत लाकर चित्तौड़गढ़ का वर्णन करने को लिखा है। बासठ सम्भव है इसके घरेलू पूर्व सस्कारो के कारण हो। पद्यों की इस रचना की कई प्रतियाँ हमारे संग्रह में है। रचनाएँ:
इसके अन्तिम पद्यो मे कवि ने अपना गच्छ नाम और कवि की दो रचनाएँ सवत १७४३ की रची हुयी रच
रचना काल का उल्लेख करते हुए लिखा है :प्राप्त है जिनमे से १ प्रथम है-चौबीस तीर्थङ्करो के 'खरतर' जाति कवि 'खेताक', पाखें भोज्यं एताक । स्तवनरूप-'चौबीसी'। इसकी प्रति कोटा भण्डार मे है संबत संतर से अड़ताल, श्रावणमास ऋतु वरसात । और नकल महो० विनयसागर जी के संग्रह मे है । सवत विधि परव वारमी तेरीक, कोनी गजल पठीयो ठोकि ॥६१ १७४३ मे हीरवास में इसकी प्रति लिखी हुयी है। इस
यह गजल स्वर्गीय मुनि श्री कातिसागर जी ने रचना मे कवि ने अपना दीक्षित नाम 'दया सुन्दर' का ही फारबस गजराती साहित्य सभा बम्बई के त्रैमासिक पत्र प्रयोग किया है। जब कि अन्य रचनाओं में खेता खेतल में तीस वर्ष पहले प्रकाशित की थी। इसके बाद नगर या 'खेतसी' इन गृहस्थावस्था के नामो का प्रयोग किया
वर्णनात्मक हिन्दी पद्य संग्रह मे उन्होने फिर प्रकाशित गया है। इससे मेरा यह भी अनुमान है कि सवत १७४३
की। इस चित्तौड़ और उदयपुर गजल इन दो की ही के आस-पास ही कवि के वृद्ध गुरू 'दयावल्लभ' गणि
कवि रचनायो मे अधिक प्रसिद्धि रही है। इनकी भाषा स्वर्गवासी हो गये थे। अतः पीछे कवि सम्भवत' कुछ
राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली है। प्रारम्भ के दो पद्य स्वच्छन्दी हो गये हो; जिससे अपने दीक्षित नाम को
नीचे दिये जा रहे है । जिससे इसकी भाषा और शैली का प्रधानता न देकर पूर्वावस्था के प्रसिद्ध नाम को महत्व
पाठको को आभास मिल जायगा। देता गया।
गढ़ चित्तौड़ है वंका कि, मान समंद मै लंका कि। ___ कवि की दूसरी रचना 'बावनी' संज्ञक हमारे संग्रह
वेडच्छ पूर तल वहतीक पर गंभीर भीरहती क ।२ में है। इसमे ६४ पद्य है। वह भी मंगसिर मुदी ६ शुक्र
अल्ला देत अल्लादीन फुल्ला बड़ बधी परवीन । वार को दहरवास ग्राम मे चौमासा करते हुए रची गयी
गैबी पोर हैं गाजीक अकबर अवलीया राजीक ।३ है। इसके पद्यो मे कही खेता कहीं खेतल नाम के साथ
पांचवी भी हिन्दी रचना 'उदयपुर गजल' संवत कवि और सुकवि विशेषणों का भी प्रयोग किया है।
१७५७ मे रची गयी है। इसके प्रारम्भ में भी एक लिंग इसमे कवि अपने को उस समय अच्छा कवि मानने लग
और नाथ द्वारे के नाथ को स्मरण किया गया है। अस्सी गया था। वावनी के अन्तिम पद्य मे कवि ने अपनी गुरु
पद्यों की इस गजल को मुनि जिनविजय जी ने भारतीय परम्परा, रचनाकाल, रचना स्थान का उल्लेख करते हुए विद्या वर्ष १ क ४ के पृष्ठ ४३० से ४३५ में तीस वर्ष लिखा है :
पहले प्रकाशित की थी। साथ ही उन्होंने इस गजल का सम्बत सत्तर याल, मास सुदि पक्ष मगसिर,
सारांश भी पृष्ठ ४२० से ४२४ तक मे दे दिया था। तिथि पूनिम शुक्रवार, थई बावन्नी सुथिर, उन्हे प्राप्त प्रति में इस गजल के रचनाकाल वाला पद्य बारखरो हो बंध, कवित्त चौसठ कथन गति, नहीं था। पर इसमे महाराणा अमरसिंह और ढेबर के बहरवास चौमास में, सिणि रह्या सुखी प्रति, पास के जयसमुद्र का उल्लेख मिलने से इसका रचनाकाल श्री जनराज सुरिसवर, दयावल्लभ गणि ताससिव, संवत १७५५ से १७६७ के बीच का बतलाया था। पर सुप्रसाद तासश्वेल सुकवि लहि जोडि पुस्तकलिखि ६४ हमारे संग्रह मे इस गजल की कई प्रतियां है उनमें रचना.
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नह'
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सुकवि खेता और उनकी रचनाएँ
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काल सूचक पद्य भी पाया जाता है। जिससे इसकी रचना सम्भव है कवि ने लम्बी आयु नही पायी हो और संवत संवत १७५७ के मंगसिर वदी मे हुई सिद्ध होता है। और संवत १७६० के बाद ही उनका निधन हो गया हो । संवत सत्तर सतावन्न, मगसिर मास धुरि परव धन्न। अत. कवि का जन्म संवत १७२० और निधन सवत १७६० कोती गजल ऋतु वसज लायक सुनत प्राज गुणमात्र। के करीब तो माना जा सकता है।
छठी रचना 'जिन चन्द्र मूरि छन्द' हमारे संग्रह में मेवाड़ मे १८वी शताब्दी के अन्त में तपागच्छीय है। और रचना हिंगलाज भवानी छंद की भी एकमात्र कवि दलेप या दौलत विजय कवि हुआ जिसने खुमाण प्रति हमारे संग्रह में है। इसकी पद्य सख्या २५ है । प्रति रासो बनाया और विजयगच्छीय कवि मान ने राजविलास के एक बोर्डर पर दीमक लग जाने से प्रथम पद्य के कुछ और बिहारी सतसई की टीका बनाई। ये मेवाड़ के १८वीं शब्द नष्ट हो गये है । यह प्रति १६वी शताब्दी की लिखी शताब्दी के उल्लेखनीय कवि थे। हई है। उपरोक्त 'जिनचन्द्र मूरि छन्द' की भी अन्य कोई
डा. ब्रजमोहन जावलिया का एक विस्तृत और प्रति कही प्राप्त नही हुई, हमारी प्रति अठारहवी शताब्दी शोधपूर्ण लेख-'मेवाड का जैन साहित्य' प्रताप शोध की लिखित है।
प्रतिष्ठान, उदयपुर की 'मझमिका' नामक पत्रिका में 'खेता' नाम का इसी समय में एक और जैन कवि प्रथम अङ्क मे सन् १९७१ में प्रकाशित हया है। यद्यपि हो गया है जिसकी रचना धन्नारास का विवरण जैन इस लेख में काफी गलतियाँ रह गई है फिर भी मेवाड के गुर्जर कवियो भाग २ पृष्ठ २६६-७७ मे प्रकाशित हो जैन साहित्यकारी और उनकी रचनायो का काफी विवचुका है। यह रास सवत १७३२ मे मेवाड के वैराढ गाव रण मिल जाता है, अत: बहुत ही उपयोगी है। में रचा गया है। पर इसके रचयिता ग्येता कवियो का
इस लेख में खेतरमिह नामक एक और रचयिता का गच्छ के पूज्य दामोदर के शिष्य थे। अत. प्रस्तुत खरतर विवरण दिया गया है। यह विवरण एक नई सूचना देता गच्छीय मूकवि खेता से भिन्न ही है। मुनि जिनविजय जी लिए यहाँ 723 ने उदयपुर गजल का साराश देते हए लिखा था कि इस
'करूणोदधि और खेतसी'- ये कौन और कहां के थे इत गजल का कर्ता जती खेतानामक है जो अपने को
इस विषय में कोई सूचना नहीं मिलती। 'वित्रमी शम्योखरतर गच्छ का कहता है। इसने अपने गुरु वगैरह का
द्वार' नामक खेतमी कृत ग्रन्थ में वह अपने को 'पृथ्वीराज कोई नाम निर्देश नही किया जिससे यह नहीं जाना जाता
रासो' का उद्धारक बताता है। उसने अपने गुरू का नाम कि वह कहां और कब हुआ। सम्भव है यह कवि मेवाड़
'करुणोदधि' दिया है । पृथ्वीराज रासो के वृहद् मस्करणों का ही हो क्योकि इसकी भाषा मे मेवाड़ी की झलक
की अन्तिम पुष्पिकानो मे 'करुणोदधि' स्वयं को पृथ्वीराज स्पष्ट दिखाई दे रही है।
रासो का महागणा अमरसिंह प्रथम के आदेश से उद्धार मनि जिनविजय जी को कवि खेता के सम्बन्ध मे
करने वाला बताता है । पृथ्वीराज रामो पर शोध खोज विशेष जानकारी नही थी इसलिए ही मैने यह शोधपूर्ण
करने वाले सभी विद्वान पुष्पिका में 'करुणोदधि' नाम को लेख लिखना आवश्यक समझा।
नही समझ कर व्यर्थ की अनेक ऊहापोह कर गये है। खरतर गच्छीय कवि खेता की सबत १७५७ के बाद
खेतसी राजसिह के पुत्र राजसिंह ? के आश्रित था। की कोई संवत लेख वाली रचना नही मिलती। २-३ और भी फुटकर रचनायें मिलती है उनमे एक अश्लील सम्भव है करुणोदधि विशेषण हो। यह खेतसी भी भी है। इसमे कवि की रसिक वृत्ति का पता चलता है। जैन लगता है।
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जैन तत्त्वज्ञान लेखक-पं० श्री सुखलाल जी संघवी
व्याख्या
__ में आगे बढ़ता है। यही बात मनुष्य जाति के विषय में . विश्वके बाह्य और प्रान्तरिक स्वरूप के सम्बन्ध मे भी है। मनुष्य-जाति की भी बाल्य अादि क्रमिक अवस्थाएँ तथा उसके सामान्य एव व्यापक नियमों के सम्बन्धों में अपेक्षा-विशेष से होती है। उनका जीवन व्यक्ति के जीवन जो तात्त्विक दृष्टि से विचार किये जाते है उनका नाम की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बा और विशाल होता है। . तत्त्वज्ञान है। ऐसे विचार किमी एक ही देश, एक ही अतएव उसकी बाल्य आदि अवस्थाओ का समय भी उतना जाति, या एक ही प्रजा में उद्भूत होते है और क्रमश. ही अधिक लम्बा हो यह स्वाभाविक है। मनुष्य जाति विकसित होते है, ऐमा नहीं है। परन्तु इस प्रकार के जब प्रकृति की गोद मे आई और उमने पहले बाह्य विश्व विचार करना यह मनुष्यत्वका विशिष्ट स्वरूप है, अतएव को अोर अाख खोली तब उसके सामने अद्भुत और जल्दी या देरी से प्रत्येक देश में निवाम करने वाली प्रत्येक चमत्कारी वस्तुएँ तथा घटनाएं उपस्थित हुई। एक अोर प्रकार की मानव-प्रजा मे ये विचार अल्प या अधिक अंश सूर्य, चन्द्र और अगणित तारामण्डल और दूसरी ओर मे उद्भूत होते है। और ऐसे विचार विभिन्न प्रजानो से समुद्र, पर्वत, विशाल नदोप्रवाह, मेघगर्जनाए” और विद्युत् पारस्पारिक सम्बन्ध के कारण और किसी समय बिलकुल चमत्कारोने उमका ध्यान आकर्षित किया। मनुष्यका स्वतन्त्ररूप से भी विशेष विकसित होते है तथा सामान्य मानस इन सब स्थूल पदार्थों के सूक्ष्म चितन में प्रवृत्त भूमिका से पागे बढ़ कर वे अनेक जुदे-जुदे प्रवाह रूप से हुअा ओर उसके हृदय मे इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न फैलते है।
उद्भूत हुए। जिस प्रकार मनुष्य के मस्तिष्क में बाह्य __पहले से आजतक मनुष्य जाति ने भूखण्ड के ऊपर जो
विश्व के गूढ और अतिमूक्ष्म स्वरूप के विषय में उसके तात्त्विक विचार किये है वे सब प्राज उपस्थित नहीं है, सामान्य
र सामान्य नियमो के विषय में विविध प्रश्न उद्भूत हुए, उसो तथा उन सब विचारो का ऋमिक इतिहास भी पूर्णरूप से प्रकार प्रान्तरिक विश्व के गढ़ और अतिसूक्ष्म स्वरूप के हमारे सामने नही है, फिर भी इस समय इस विषय मे जो विषय में भी उनके मनमे विविध प्रश्न उठे। इन प्रश्नो कुछ थोडा बहुत हम जानते है उस परसे इतना तो निवि- की उत्पत्ति ही तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिका प्रथम सोपान है। वाद रूप से कह सकते है कि तत्त्वचितन की भिन्न-भिन्न ये प्रश्न चाहे जितने हों और कालक्रम से उसमे से दूसरे
और परस्पर विरोधी दिखाई देने वाली चाहे जितनी मुख्य और उपप्रश्न भी चाहे जितने पैदा हो फिर भी उन धाराये हों फिर मी इन सब विचार-धाराग्रो का सामान्य सब प्रश्नो को सक्षेप मे निम्नप्रकार मे सकलित कर सकते स्वरूप एक है । और वह यह है कि विश्व के बाह्य तथा है। अान्तरिक स्वरूप के सामान्य और व्यापक नियमो का
तात्त्विक प्रश्न रहस्य ढढ निकालना।
प्रत्यक्षरूप से सतत परिवर्तनशील यह बाह्य विश्व कब तत्त्वज्ञान की उत्पत्तिका मूल
उत्पन्न हुआ होगा ? किसमे से उत्पन्न हुआ होगा स्वयं कोई एक मनुष्य पहले से ही पूर्ण नही होता परन्तु उत्पन्न हुआ होगा या किसी ने उत्पन्न किया होगा? वह बाल्य अादि विभिन्न अवस्थाओं मे से गुजरने के साथ और उत्पन्न नहीं हुआ हो तो क्या यह विश्व ऐसे ही था ही अपने अनुभवों को बढ़ा करके क्रमशः पूर्णताकी दिशा और है ? यदि उसके कारण हो तो वे स्वयं परिवर्तन
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जैन तत्त्वज्ञान
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विहीन नित्य ही होने चाहिए या परिवर्तनशील होने
उत्तरों का संक्षिप्त वर्गीकरण चाहिश ? ये कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होगे या नमग्र आर्य विचारको के द्वारा एक-एक प्रश्न के सम्बन्ध में बाह्य विश्वका कारण केवल एक रूप ही होगा? उन दिने भिन्न-भिन्न उत्तर और उनके विषय में भी मत विश्व की व्यवस्थित पोर नियमबद्ध जो मचालना और भेद की भावाये अभार है। परन्तु सामान्य नीति में हम रचना दष्टिगोचर होती है वह बुद्धिपुर्वक होनी चाहिए या मर्थप मे उन उत्तरी का वर्गीकरण करे तो इस प्रकार कर यंत्रवत् अनादिसिद्ध होनी चाहिए ? यदि वद्धिपूर्वक विश्व
सकते है। एक विचार प्रवाह ऐसा प्रारम्भ हुअा कि वह व्यवस्था हो तो वह किमकी बुद्धिजी आभारी है? क्या
बाह्य विश्व को जन्य मानता था । परन्तु वह विश्व किमी वह बद्धिमान तत्त्व म्वय तटस्थ रह करके विश्वका नियमन
कारण में मे विनकुल नया ही—पहले हो ही नही, वैगे करता है या वह स्वय ही विश्वका से परिणमता है या
उत्पन्न होने का निषेध करता था और यह कहता था कि
न ग्राभासित मात्र होता है ?
जिस प्रकार दूध मे मक्वन छिपा रहता है और कभी उपयुक्त प्रणाली के अनुसार आन्तरिक विश्वके सम्बन्ध
केवल आविर्भाव होता रहता है उसी प्रकार यह मारा मे भी प्रश्न हा कि जो यह बाह्य विश्वका उपभोग करता स्थन विश्व किमी मूक्ष्म कारण में से केवल प्राविर्भाव है या जो वाद्य विश्व के विषय में और अपने विषय विचार होता रहता है और यह मूल कारण तो स्वतः अनादि करता है यह तत्त्व क्या है ? क्या यह अहरूपमे भापित मिद्ध है। होने वाला तत्व वाह्य विश्व जैसी ही प्रकृतिवाला है या दूसरा विचार प्रवाह यह मानता था कि बाह्य विश्व किनी भिन्न स्वभाव वाला है ? यह अान्तरिक तत्त्व किमी एक कारण मे से उत्पन्न नही हुया हे परन्तु स्वभाव अनादि हे या वह भी कभी किसी अन्य कारणमे से उत्पन्न मे ही विभिन्न ऐसे उसके अनेक कारण है, और इन कारणों हया हे ? अहरूप में भासित होने वाले अनेक तत्त्व में भी विश्व दुध में मक्खन की तरफ छिपा रहता नहीं वस्तत भिन्न ही है या किसी एक मूल तत्व की परन्तु भिन्न-भिन्न काष्ठखण्डो के सयोग से जैम एक गाडी निमितियाँ है? ये सभी सजीव तत्त्व वस्तृत भिन्न ही नवीन ही तैयार होती है उमी प्रकार उन भिन्न-भिन्न है तो क्या वे परिवर्तनशील है' या मात्र कूटस्थ है। प्रकार के मूल कारणो के मल कारणों के सश्लेषण-विश्लेषण इन मब तत्त्वो का कभी अन्त पाने वाला है या वे काल
मे से यह बाह्य विश्व बिलकुल नवीन ही उत्पन्न होता की दृष्टि से अन्तरहिन ही है ? इसी प्रकार ये मय देह
है। पहला परिणामवादी है और दूसरा कार्यवादी । ये मर्यादित तत्त्व वस्तुत. देश की दृष्टि से व्यापक है या गोजिर जाति या उत्पत्ति मर्यादित है?
के सम्बन्ध में मतभेद रखते होने पर भी प्रान्तरिक विश्व ये और उनके जैसे दूसरे बहुत से प्रश्न तत्त्वचितन के
के स्वरूप के सम्बन्ध मे मामान्य रूप से एकमत थे । दोनो प्रदेश में उपस्थित हुए। इन मब प्रदनो का या इनमे में
यह मानते थे कि यह नामक पात्मतत्त्व अनादि है। वह कुछ का उत्तर हम विभिन्न प्रजापो के तात्त्विक चितन
न तो किमी का परिणाम है और किसी कारण मे से के इतिहास में अनेक प्रकार से देखते है। ग्रीन जिारको
उत्पन्न हया है। जिस प्रकार वह प्रात्मतन्त्र अनादि है ने बहत प्राचीन काल गे इन प्रानी की ओर दृष्टिपात
उगी प्रकार देश और काल दोनो दप्टिो से अनन्त भी करना प्रारम्भ किया। उनका चितन अनेक प्रकार से
है । और वह आत्मतत्व देहभेद से भिन्न-भिन्न है, वास्तविकसित हुआ जिसका कि पारचात्य वन्यज्ञान में महत्त्व
विक रीति से एक नही है। पूर्ण भाग है। पार्यावर्त के विचारको ने नो ग्रीक चितकों के पूर्व हजारो वर्ष पहले से इन प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने तीमग विचार प्रवाह ऐसा भी था कि जो बाह्य के लिए विविध प्रयत्न किये जिनका इतिहास हमारे मामने विश्व और प्रान्तरिक जीव जगत् दोनों को किसी एक स्पष्ट है।
अखण्ड सत् तत्त्व का परिणाम मानता और मूल मे बाह्य
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१७०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
या पान्तरिक जगत् की प्रकृति अथवा कारण मे किसी भी छिपा नही रहता है जैसे कि तिल मे तैल होता है । परन्तु प्रकार का भेद नही मानता था।
घोड़ा बनाने वाले बढई की बुद्धि में वह कल्पनारूप से जैन विचारप्रवाह का स्वरूप
होता है और वह काष्ठखण्डो के द्वारा मूर्तरूप धारण ऊपर के तीनो विचारप्रवाहों को क्रमशः हम यहाँ करता है। यदि बढई चाहता तो इन्ही काष्टखण्डों से प्रकृतिवादी, परमाणुवादी और ब्रह्मवादी के नाम से घोड़ा नहीं बना करके गाय, गाडी या दूसरी वैसी वस्तु पहचानेंगे । इनमे से पहले के दो विचारप्रवाहो से विशेष बना सकता था । तिल मे से तेल निकालने की बात इससे मिलता-जुलता और फिर भी उससे भिन्न ऐसा एक चौथा
बिलकुल भिन्न है। कोई तेली चाहे जितना विचार करे
१ विचार प्रवाह भी साथ साथ मे प्रवत्त था। यह विचार या इच्छा करे फिर भी वह तिल मे से घी या मक्खन तो प्रवाह था तो परमाणुवादी, परन्तु वह दूसरे विचारप्रवाह नहीं निकाल सकता है। इस प्रकार चतुर्थ विचार प्रवाह की तरह बाह्य विश्व के कारणभूत परमाणुगो को मूल से परमाणुवाद होने पर भी एक अोर परिणाम और आविही भिन्न भिन्न प्रकार के मानने की तरफदारी नही करता र्भाव मानने की बाबत मे प्रकृतिवादी विचार प्रबाह के था; परन्तु मूल मे सभी परमाणु एक समान प्रकृति के है साथ मिलता था और दूसरी ओर कार्य तथा उत्पत्ति की यह मानता था और परमाणुवाद स्वीकार करने पर भी बाबत मे परमाणुवादी दूसरे विचार-प्रवाह से मिलता था। उसमे से केवल विश्व उत्पन्न होता है यह नही मानता यह तो बाह्य विश्व के सम्बन्ध में चतुर्थ विचार था । वह प्रकृतिवादी की तरह परिणाम और आविर्भाव
प्रवाह की मान्यता हुई। परन्तु आत्मतत्त्व के सम्बन्ध में मानता था, इसलिए वह यह कहता था कि परमाणुपुञ्ज तो इसकी मान्यता ऊपर के तीनो विचारप्रवाहो की अपेक्षा मे से वाह्य विश्व अपने आप परिणमता है इस प्रकार
भिन्न थी। वह मानता था कि देह भेद से प्रात्मा भिन्न इस चौथे विचार प्रवाह का झुकाव परमाणुवादी की भूमि है। परन्तु ये सब प्रात्माएँ देशदृष्टि से व्यापक नहीं है का के ऊपर प्रकृतिवाद के परिणाम की मान्यता की तथा केवल तटस्थ भी नही है। वह यह मानता था ओर था।
कि जिस प्रकार बाह्य विश्व परिवर्तनशील है उसी प्रकार उसकी एक विशेषता यह भी थी कि वह समग्र बाह्य आत्माएं भी परिवर्तनशील है और प्रात्मतत्त्व सकोचविश्व को प्राविर्भाव वाला न मान करके उसमे के कितने विस्तारशील है । इसलिये यह देहप्रमाण है। ही कार्यों को उत्त्पत्तिशील भी मानता था। वह यह कहता यह चतुर्थ विचार प्रवाह ही जैन तत्त्वज्ञान का प्राचीन था कि बाह्य विश्व मे कितनी ही वस्तुएं ऐसी है कि जो मूल है। भगवान महावीर से बहुत समय पहले से यह किसी पुरुष के सिवाय अपने परमाणुरूप कारणो मे से विचार प्रवाह चला आता था और वह अपने ढग से विकउत्पन्न होती है। वैसी वस्तुएं तिलमे से तैल की तरह सित होता तथा स्थिर होता जाता था। आज इस चतुर्थ अपने कारण मे से केवल आविर्भूत होती है। परन्तु विचार प्रवाह का जो स्पष्ट विकसित और स्थिर रूप बिलकुल नवीन उत्पन्न नही है । जव कि बाह्य विश्व मे हमको प्राचीन या अर्वाचीन उपलब्ध जैनशास्त्रों मे दृष्टि बहुत सी वस्तुएं ऐसी भी है जो अपने जड़ कारणो मे से गोचर होता है वह अधिक अंश में भगवान महावीर के उत्पन्न होती है परन्तु अपनी उत्पति में किसी पुरुष के चिन्तन का प्राभारी है। जैन मत की श्वेताम्बर और प्रयत्न की अपेक्षा रखती है। जो वस्तुए पुरुष के प्रयत्न दिगम्बर दो मुख्य शाखाएं है। दोनो का साहित्य भिन्नकी सहायता से जन्म लेती है, वे वस्तुएं जड़ कारणो मे भिन्न है; परन्तु जैन तत्त्वज्ञान का जो स्वरूप स्थिर हुआ तिल मे तेल की तरह छिपी हुई नही रहती है परन्तु वे है वह दोनो शाखाओं मे थोड़े से फेरफार के सिवाय एक तो विलकुल नवीन ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार कोई समान है। यहाँ एक बात खास अङ्कित करने योग्य है और बढ़ई विभिन्न काष्ठखण्डो को एकत्रित करके उनसे एक वह यह कि वैदिक तथा बौद्धमत के छोटे बड़े अनेक फिरके घोड़े का निर्माण करता है तब वह घोड़ा काष्ठखण्डो में है। उनमे से कितने ही तो एक दूसरे से बिलकुल विरोधी
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जैन तत्त्वज्ञान
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मन्तव्य भी रखनेवाले है। इन सभी फिरकों के बीच में है और जीवनशोधन की प्रक्रिया दिखला करके विश्रान्ति विशेषता यह है जब वैदिक और बौद्धमत के सभी फिरके लेता है। इसलिये हम प्रत्येक प्रायं दर्शन के मूल ग्रन्थ में
आचार विषयक मतभेद के अतिरिक्त तत्त्वचिन्तनकी दृष्टि प्रारम्भ मे मोक्षका उद्देश और अन्त मे उसका ही उपसंहार से भी कुछ मतभेद रखते है तब जनमत के तमाम फिरके देखते है। इसी कारण से सांख्य जिस प्रकार अपना केवल प्राचार भेद के ऊपर अवलम्बित है। उनमे तत्त्व- विशिष्ट योग रखता और वह योगदर्शन से अभिन्न है। चिन्तनकी दष्टि से कोई मौलिक भेद हो तो वह अभी इसी प्रकार न्याय-वैशेषिक और वेदान्त दर्शन मे भी योग तक अंकित नही है। मानवीय तत्त्वचितन का प्रवाह के मूल सिद्धान्त हैं। बौद्ध दर्शन में भी उसकी विशिष्ट मौलिक रूप से अखण्डित ही रहा हो।
योगप्रक्रिया ने खास स्थान रोक रखा है। इसी प्रकार जैन पूर्वीय और पश्चिमीय तत्त्वज्ञान की प्रकृति की तुलना दर्शन भी योगप्रक्रिया के विषय में पूरे विचार रखता है।
तत्त्वज्ञान पूर्वीय हो या पश्चिमीय हो परन्तु सभी जीवनशोधन के मौलिक प्रश्नों को एकता तत्त्वज्ञान के इतिहास में हम देखते है कि तत्त्वज्ञान केवल इस प्रकार हमने देखा कि जनदर्शन के मुख्य दो भाग जगत्, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चितन मे ही पूर्ण नहीं है। एक तत्त्वचितन का और दूसरा जीवनशोधन का। होता; परन्तु वह अपने प्रदेश में चारित्र का प्रश्न भी हाथ यहाँ एक बात खास प्रद्भित करने योग्य है और वह यह मे लेता है । अल्प या अधिक प्रश मे, एक या दूसरी रीति है कि वैदिकदर्शन की कोई भी परम्परा लो या बौद्ध दर्शन से, प्रत्येक तत्त्वज्ञान अपने मे जीवन-शोधन की मीमामा की कोई परम्परा लो और उसकी जैनदर्शन की परम्पराके का समावेश करता है। अलबत्ता, पूर्वीय और पश्चिमीय साथ तुलना करो तो एक तो एक वस्तु स्पष्ट प्रतीत होगी तत्त्व-ज्ञान के विकास मे हम थोड़ी भिन्नता भी देखते है। कि इन सब परम्पराओं में जो भेद है वह दो बातों में है ग्रीक तत्त्वचिन्तन की शुरूवात केवल विश्व के स्वरूप एक तों जगत, जीव और ईश्वर के स्वरूप-चिंतन के सम्बन्धी प्रश्नो मे से होती है और आगे जाने पर क्रिश्चि- सम्बन्ध मे और दूसरा प्राचार के स्थूल तथा बाह्य बिधियानिटी के साथ में इसका सम्बन्ध होने पर इसमे जीवन विधान और स्थूल रहन-सहन के सम्बन्ध में । परन्तु प्रार्यशोधन का भी प्रश्न समाविष्ट होता है। और पीछे इस दर्शन की प्रत्येक परम्परा में जीवनशोधन से सम्बन्ध रखने पश्चिमीय तत्त्वचितन की एक शाखा में जीवन शोधन की वाले मौलिक प्रश्न और उनके उत्तरों में बिलकुल भी भेद मीमासा महत्त्वपूर्ण भाग लेती है । अर्वाचीन समय तक भी नही है । कोई ईश्वर को माने या नही, कोई प्रकृतिवादी रोमन केथोलिक मप्रदाय में हम तत्त्वचितन को जीवन- हो या परमाणवादी, कोई प्रात्मभेद स्वीकार करे या शोधन के विचार के साथ सकलित देखते है। परन्तु आर्य आत्माका एकत्व स्वीकार करे, कोई प्रात्मा को व्यापक तत्त्वज्ञान के इतिहास मे हम एक खास विशेषता देखते और नित्य माने या कोई उससे विपरीत माने, इसी प्रकार है, और वह यह कि मानो पार्य तत्त्वज्ञान का प्रारम्भ ही कोई यज्ञयाग द्वारा भक्ति के ऊपर भार देता हो, या कोई जीवनशोधन के प्रश्न मे से हुआ हो ऐसा प्रतीत होता है। ब्रह्मसाक्षात्कर के ऊपर भार देता हो, कोई मध्यममार्ग क्योकि आर्य तत्त्वज्ञान की वैदिक, बौद्ध और जैन इन तीन स्वीकार करके अनगारधर्म और भिक्षाजीवन के ऊपर भार मख्य शाखाओं मे एक समान रीति से विश्वचिंतन के साथ दे; या कोई अधिक कठोर नियमो का अवलम्बन करके ही जीवनशोघन का चिंतन संकलित है। पावित्तं का त्याग के ऊपर भार दे; परन्तु प्रत्येक परम्परा में इतने कोई भी दर्शन ऐसा नहीं है कि जो केवल विश्वचिन्तन प्रश्न एक समान है-दुख है या नही ? यदि है तो करके सतोष धारण करता हो । परन्तु उसमे विपरीत हम उसका कारण क्या है ? उस कारण का नाश शक्य है ? यह देखते है कि प्रत्येक मुख्य या उसका शाखारूप दर्शन यदि शक्य है तो वह किस प्रकार? अंतिम साध्य जगत्, जीव और ईश्वर सम्बन्धी अपने विष्टि विचार क्या होना चाहिए ? इन प्रश्नों के उत्तर प्रत्येक दिखला करके अन्त में जीवनशोधन के प्रश्न को ही लेता परम्परा मे एक ही है। चाहे शब्द-भेद हो, संक्षेप या
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अनेकान्त
पाहा
विस्तार हो; पर प्रत्येक का उत्तर यह है कि अविद्या और होने पर भी उसमे अन्तर से निवृत्ति का तत्त्व होता है। तृप्णा ये दुख के कारण है । इनका नाश संभव है। विद्यारो दूसरी भूमिका के कितने ही सोपानो का अतिक्रमण करने और तृष्णाछेद के द्वारा दु ख के कारणो का नाश होते ही के बाद प्रात्मा परमात्मा की दशा को प्राप्त होता है । दुख अपने पाप नष्ट हो जाता है और यही जीवनका यह जीवनशोधन की अन्तिम पोर पूर्ण भूमिका है। जैनमुख्य नाध्य है। पार्यदर्शनो की प्रत्येक परम्परा जीवन- दर्शन कहता है कि इस भूमिका पर पहुंचने के बाद शोधन के मौलिक विचार के विषय मे और उनके नियमों पुनर्जन्म का चक्र सदा के लिए बिलकुल बन्द हो जाता है। के विषय में बिलकुल एकमत है। इसलिये यहां जनदर्शन हम कार के सक्षिप्त वर्णन में यह देख सकते है कि के विषय मे कुछ भी कहते समय मुख्यरूप से उसको अविवेक (मिथ्यादृष्टि) और मोह (तृष्णा) ये दो ही जीवनशोधन की मीमासा का ही संक्षेप मे कथन करना समार है अथवा ससार के कारण है। इसके विपरीत अधिक प्रासगिक है।
विवेक (सम्यग्दर्शन) और बीतगगत्व यही मोक्ष है । यही जीवन-शोधन की जन प्रक्रिया
जीवनशोधन की मक्षिप्स जैनमीमामा अनेक जैन ग्रन्थों मे, जैनदर्शन कहता है कि ग्रात्मा स्वाभाविक रीति से अनेक रीति से, मक्षेप या विस्तार मे, विभिन्न परिभाषाओं काद्ध और सच्चिदानन्दरूप है । इसमे जो अशुद्धि, विकार मे वणित है और यही जीवनमीमासा वैदिक तथा बौद्ध या दुःखरूपता दृष्टिगोचर होती है वह अज्ञान और मोहके दर्शनो मे जगह-जगह अक्षरशः दष्टिगोचर होती है। अनादि कारण से है । अज्ञान को कम करने और बिल्कुल
कुछ विशेष तुलना नष्ट करने के लिये तथा मोहके विलय करने के लिये जैन
ऊपर तत्वज्ञान की मौलिक जैन विचारसरणी और दर्शन एक अोर विवेक शक्ति को विकसित करने के लिये प्राध्यात्मिक विकासक्रम की जैन विचारसरणी का बहुत कहता है और दूसरी ओर वह रागद्वेष के संस्कारों को नष्ट ही सक्षेप में निर्देश किया है। इस सक्षिप्त लेख मे उसके करने के लिये कहता है। जैनदर्शन प्रात्मा को तीन भूमि- अति विस्तार को स्थान नही, फिर भी इसी विचार को कानों में विभाजित करता है। जब अज्ञान और मोह के अधिक स्पष्ट करने के लिए यहाँ भारतीय दूसरे दर्शनों के प्रबल प्रावल्य के कारण प्रात्मा वास्तविक तत्त्वका विचार विचारो के साथ तुलना करना योग्य है। नहीं कर सके तथा सत्य और स्थायी सुख की दिशा में (क) जैनदर्शन जगत् को मायावादी की तरह केवल एक भी कदम उठाने की इच्छा नहीं कर सके तब वह भास या केवल काल्पनिक नहीं मानता है। परन्तु वह बहिरात्मा कहलाता है। यह जीवको प्रथम भूमिका हुई।
जगत् को सत्य मानता है। फिर भी जैनदर्शन सम्मत सत् यह भमिका जब तक चलती रहती है तब तक पुनजन्म के चाबक की तरह केवल जड़ अर्थात सहज चैतन्य रहित चक्र के बंध होने की कोई संभावना नहीं तथा लौकिक नही है। इसी प्रकार जैनदर्शन सम्मत मत् तत्त्व शाकरदृष्टि में चाहे जितना विकास दिखाई देता हो फिर भी
वेदान्तानुसार केवल चैतन्य मात्र भी नही है, परन्तु जिस भारतविक रीति से वह आत्मा अविकसित ही होता है। प्रकार साख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्वमीमासा और
जब विवेकशक्ति का प्रादुर्भाव होता है और जब राग- बौद्धदर्शन सत् तत्त्व को बिलकुल स्वतन्त्र तथा परम्पर देप के मस्कारो का बल कम होने लगता है तब दूसरी भिन्न ऐसे जड और चेतन दो भागो में विभाजित कर भूमिका प्रारम्भ होती है। इसको जैनदर्शन अन्तरात्मा डालते है, उसी प्रकार जैनदर्शन भी सत् तत्त्व की कहता है । यद्यपि इस भूमिका के समय देहधारण के लिए अनादिसिद्ध जड़ तथा चेतन ऐसी दो प्रकृति स्वीकार उपयोगी सभी सासारिक प्रवृत्ति अल्प या अधिक अंश में करता है जो कि देश और काल के प्रवाह मे साथ रहने चलती रहती है, फिर भी विवेक शक्ति के विकास के पर भी मूल में बिलकुल स्वतन्त्र हैं। जिस प्रकार न्याय. प्रमाण में और रागद्वेष की मन्दता के प्रमाण में यह प्रवृत्ति वैशेषिक ओर योगदर्शन प्रादि यह स्वीकार करते है कि मनासक्तिवाली होती है। इस दूसरी भूमिका में प्रवृत्ति इस जगत् का विशिष्ट कार्यस्वरूप चाहे जड़ और चेतन
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जन तत्वज्ञान
इन दो पदार्थों से बनता हो फिर भी इस कार्म के पीछे की तरह परिणामिनित्य है। जैनदर्शन ईश्वर जैमी किसी किसी अनादिसिद्ध, समर्थ चेतनशक्ति का हाथ है, इस व्यक्ति को बिलकुल स्वतन्त्ररूप से नही मानता फिर भी ईश्वरीय हाथ के सिवाय एसे अद्भुत कार्म का सम्भव वह ईश्वर के समग्र गुणो को जीवमात्र में स्वीकार करता नही हो सकता है। जैनदर्शन इस प्रकार से नही मानता है। इसलिए जैनदर्शनानुमार प्रत्येक जीव में ईश्वरत्व की है। वह प्राचीन साख्य, पूर्वमीमासा और बौद्ध आदि की शक्ति है। चाहे वह शक्ति प्रावरण से दबी हुई हो, तन्ह मानता है कि जड और चेतन ये दो सत् प्रवाह परन्तु जीव योग्य दिशा में प्रयत्न करे तो वह अपने मे धपने पाप किसी तृतीय विशिष्ट शक्ति के हस्तक्षेप के रही हुई ईश्वरीय शक्ति का पूर्णरूप से विकाम करके सिवाय ही चलते रहते है। इमलिए वह इस जगत् की स्वयं ही ईश्वर बनाता है। इस प्रकार जैन मान्यतानुभार उत्पत्ति या व्यवस्था के लिए ईश्वर जैसी स्वतन्त्र अनादि- ईश्वर तत्त्व को भिन्न स्थान नहीं होने परीवर मिद्ध व्यक्ति स्वीकार नहीं करता है। यद्यपि जैनदर्शन तत्त्व की मान्यता रखता है और उसकी उपासना भी न्याय, वैशेषिक, बौद्ध प्रादि की तरह जड सत् तत्व को स्वीकार करता है। जो जो जीवात्माये कनवागनानी से अनादि सिद्ध अनन्त व्यक्तिम्प स्वीकार करता है और पूर्णरूप से मुक्त हुई है वे सभी ममान भाव में ईश्वर है। साग्य की तरह एक व्यक्तिरूप नही स्वीकार करता, फिर उनका श्रादर्श सामने रख करके अपने में रही हई पर्णभी वह माख्य के प्रकृतिगामी सहज परिणामवाद को शक्ति को प्रकट करना यह जैन उपासना का ध्येय है। अनन्त परमाणु नामक जड सत् तत्त्वो मे स्थान देता है। जिस प्रकार गाकर वेदान्त मानता है कि जीव म्वय ही
. ब्रह्म है है, उसी प्रकार जनदर्शन कहता है कि जीव स्वय इस प्रकार जैन मान्यता के अनुसार जगत् का परि- श्र वर्तन प्रवाह अपने आप ही चलता रहता है। फिर भी
ईश्वर या परमात्मा है। वेदान्त दर्शनानुसार जीव का जैनदर्शन इतना तो स्पष्ट कहता है कि विश्व की जो-जो
ब्रह्मभाव अविद्या से प्रावृत है और अविद्या के दूर होते घटनाये किसी की बद्धि और प्रयत्न की प्राभारी होती है
ही वह अनुभव मे पाता है। उसी प्रकार जनदर्शनानुसार उन घटनायो के पीछे ईश्वर का नही परन्तु उन घटनायो
जीव का परमात्मभाव कर्म से श्रावृत है उस प्रावरण के के परिणाम में भागीदार होने वाले ससारी जीव का हाथ
दूर होते ही वह पूर्णरूप से अनुभव में पाता है। इस
सम्बन्ध में वस्तुत: जैन और वेदान्त के बीच मे व्यक्तिरहता है अर्थात् वैमी घटनायें जानमे या अनजान में किसी न किसी ससारी जीव की बुद्धि और प्रयत्न की प्राभारी
__ बहुत्व के सिवाय कुछ भी भेद नहीं। होती है । इस सम्बन्ध मे प्राचीन साख्य और बौद्ध दर्शन (ख) जैनशास्त्र में जिन सात तत्त्वो का उल्लेख है जैनदर्शन जैसे ही विचार रखने है।
उनमे से मूल जीव और अजीव इन दो तत्त्वो की ऊपर
न को तुलना की है। अब वस्तुत. पांच में से चार ही तत्त्व या अखण्ड नहीं मानता है; परन्तु साख्य, योग, न्याय, अवशिष्ट रहते हैं। ये चार तत्त्व जीवनशोधन से सम्बन्ध वैगेपिक तथा बौद्ध प्रादि की तरह वह सचेतन तत्त्व को रखन वाल अथा। आध्यात्मिक विकामक्रम में सम्बन्ध अनेक व्यक्तिरूप मानता है। फिर भी इन दर्शनो के साथ रखने वाले है, जिनको चारित्रीय तत्त्व भी कह सकते है। जैनदर्शन का थोड़ा मतभेद है और वह यह है कि जैन- बध, प्रास्रव, सवर और मोक्ष ये चार तत्त्व है। ये तत्त्व दर्शन की मान्यतानुसार सचेतन तत्त्व बौद्ध मान्यता की बौद्धशास्त्रों में क्रमश. दुख, दुखहेत, निर्वाणमार्ग और तरह केवल परिवर्तन प्रवाह नही है तथा साख्य, न्याय निर्वाण इन चार आयसत्यों के नाम से वणित है। मान आदि की तरह केवल कूटस्थ भी नहीं है। किन्तु जैन- और योगशास्त्र मे इनको ही हेय, हेयहेत, हीनोपाय और दर्शन कहता है कि मूल मे सचेतन तत्त्व ध्रुव तथा अनादि हान कह करके इनका चतुर्व्यहरूप से वर्णन है। न्याय और अनंत होने पर भी वह देश काल की धारण किये बिना वैशेषिक दर्शन में भी इसी वस्तु का ससार, मिथ्याज्ञान नही रह सकता। इसलिए जैन मतानुसार जीव भी जड़ तत्त्वज्ञान और अपवर्ग के नाम से वर्णन है। वेदान्तदर्शन
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अनेकान्त
में संसार, अविद्या, ब्रह्मभावना और ब्रह्मसाक्षात्कार के काशी जाकर गङ्गा स्नान और विश्वनाथ के दर्शन में नाम से यही वस्तु दिखलाई गई है।
पवित्रता माने, कोई बुद्ध गया और सारनाथ जाकर कृतजैनदर्शन मे बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा कृत्यता माने, कोई शत्रुजय की यात्रा में सफलता माने, की तीन सक्षिप्त भूमिकामो का कुछ विस्तार से चौदह कोई मक्का और कोई जेरुसलेम जाकर धन्यता माने । भूमिकाओं के रूप से भी वर्णन किया गया है, जो जैन- इसी प्रकार कोई एकादशी के तप और उपवास को पवित्र परम्परा में गुणस्थान के नाम से प्रसिद्ध है। योगवाशिष्ट गिने, दूसरा कोई अष्टमी और चतुर्दशी के व्रत को महत्त्व जैसे वेदान्त के ग्रन्थो मे भी सात अज्ञान की और सात को प्रदान करे, कोई तप के ऊपर बहुत भार नहीं देकर ज्ञान की चौदह आत्मिक भूमिकामो का वर्णन है। साख्य- के दान के ऊपर भार दे, दूसरा कोई तप के ऊपर भी योगदर्शन की क्षिप्त, मूढ, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध ये बहुत भार दे, इस प्रकार परम्परागत भिन्न-भिन्न संस्कारों पाँच चित्तभूमिकाये भी इन्ही चौदह भूमिकाओं का संक्षिप्त का पोषण पोर रुचिमेद का मानसिक वातावरण अनिवार्य वर्गीकरण मात्र है। बौद्धदर्शन में भी इसी प्राध्यात्मिक होने से बाह्याचार और प्रवृत्ति का भेद कभी मिटने वाला विकासक्रम को पथग्जन, सोतापन्न आदि रूप से पांच नहीं है । भेद की उत्पादक और पोषक इतनी अधिक भूमिकाओं में विभाजित करके वर्णन किया गया है। इस वस्तुयें होने पर भी सत्य ऐसा है कि वह वस्तुतः खण्डित प्रकार जब हम सभी भारतीय दर्शनों मे ससार से मोक्ष नही होता है। इसीलिए हम ऊपर की प्राध्यात्मिक तक की स्थिति, उसके क्रम और उसके कारणों के विषय विकासक्रम से सम्बन्ध रखने वाली तुलना मे देखते है कि में एक मत और एक विचार पढते है तब प्रश्न होता है चाहे जिस रीति से, चाहे जिस भाषा मे और चाहे जिस कि जब सभी दर्शनो के विचारो मे मौलिक एकता है तब रूप में जीवन का सत्य एक समान ही सभी अनुभवी पंथ-पंथ के बीच मे कभी भी मेल नहीं हो ऐना और इतना तत्त्वज्ञों के अनुभव मे प्रकट हुआ है। अधिक भेद क्यो दिखाई देता है ?
प्रस्तुत वक्तव्य को पूर्ण करने के पहले जैनदर्शन की इसका उत्तर स्पष्ट है। पंथ की भिन्नता मे मुख्य दो सर्वमान्य दो विशेषताओं का उल्लेख करना उचित है। वस्तुयें कारण है। तत्वज्ञान की भिन्नता और बाह्य आचार- अनेकान्त और अहिसा इन दो मुद्दो की चर्चा पर ही बिचार की भिन्नता। कितने ही पंथ तो ऐसे भी है कि सम्पूर्ण जनसाहित्यका निर्माण है। जैन आचार और जिनके बाह्य आचार-विचार में भिन्नता होने के अतिरिक्त सम्प्रदाय की विशेषता इन दो विषयो से ही बतलाई जा तत्त्वज्ञान की विचारसारणी में भी अमुक भेद होता है। सकती है। सत्य वस्तुत एक ही होता है; परन्तु मनुष्य की जैसे कि वेदान्त, बौद्ध और जैन आदि पंथ । कितने ही दृष्टि उसको एक रूप से ग्रहण नहीं कर सकती है। पंथ या उनकी शाखायें ऐसी भी होती है कि जिनकी इसलिये सत्यदर्शन के लिये मनुष्य को अपनी दृष्टिमर्यादा तत्त्वज्ञान विषयक विचारसारणी मे खास भेद नहीं होता विकसित करनी चाहिये और उसमे सत्यग्रहण की संभावित है । उसका भेद मुख्यरूप से बाह्य प्राचार का अवलम्बन सभी दृष्टियों को स्थान होना चाहिए। इस उदात्त और लेकर उपस्थित और पोषित होता है। उदाहरण के तौर विशाल भावना में से अनेकान्त विचारसरणीका जन्म हुआ पर जैनदर्शन की श्वेताम्बर, दिगम्बर और स्थानकवासी हे। इस विचार सरणी की योजना किसी वाद-विवाद में इन तीन शाखाओं को गिना सकते है ।
जय प्राप्त करने के लिये या वितण्डावाद की साठमारीआत्मा को कोई एक माने या अनेक माने, कोई चक्रव्यूह या दावपेच खेलने के लिये या शब्दछलकी शतरंज ईश्वर को माने या कोई नहीं माने-इत्यादि तात्त्विक खेलने के लिये नहीं हुई है। परन्तु इसकी योजना तो विचारणा का भेद बुद्धि के तरतम भाव के ऊपर निर्भर जीवनशोधन के एक भाग स्वरूप विवेकशक्ति को विकसित है। इसी प्रकार बाह्य प्राचार और नियमों के भेद बुद्धि, करने के लिये और सत्यदर्शन की दिशा में आगे बढ़ने के रुचि तथा परिस्थिति के भेद मे से उत्पन्न होते हैं। कोई लिये हई है। इसलिये अनेकान्त विचारसरणीका सच्चा
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जैन तत्त्वज्ञान
१७५ अर्थ यह है कि सत्यदर्शन को लक्ष्य में रख करके उसके आध्यात्मिक नाम प्रदान करो, परन्तु वह घस्तुतः अहिसा सभी अंशों और भागों को विशाल मानस वर्तुल मे योग्य ही है। और जैनदर्शन यह कहता है कि अहिसा केवल रीति से स्थान देना।
आचार नहीं है; परन्तु वह शुद्ध विचार के परिपाक रूपसे जैसे-जैसे मनुष्य की विवेकशक्ति बढ़ती है वैसे-वैसे अवतरित जीवनोत्कर्ष का आचार है। उसकी दृष्टिमर्यादा बढ़ने के कारण उसको अपने भीतर ऊपर वर्णन किये गये अहिमा के सूक्ष्म और वास्तविक रही हुई संकुचितताप्रो और वासनाओं के दबावो के रूप मे से कोई भी बाह्याचार उत्पन्न हुआ हो अथवा इस सामने होना पड़ता है जब तक मनुष्य सकुचिततायो और सूक्ष्म रूप की पुष्टि के लिये किसी आचारक निर्माण हा वासनाप्रो के साथ विग्रह नही करता तब तक वह अपने हो तो उसका जैन तत्त्वज्ञान मे अहिसा के रूप में स्थान जीवन में अनेकान्त को वास्तविक स्थान तही दे सकता है। है। इसके विपरीत, ऊपर-ऊपर से दिखाई देने वाले अहिइसलिये अनेकान्त विचार की रक्षा और वृद्धि के प्रश्न मे सामय चाहे जिस आचार या व्यवहार के मूल मे यदि से ही अहिसा का प्रश्न आता है। जैन अहिसा केवल ऊपर कळ अहिसा तत्वका सम्वन
ऊपर कुछ अहिसा तत्त्वका सम्वन्ध नही हो तो वह प्राचार चुपचाप बैठे रहने मे, या उद्योग-धंधा छोड़ देने में अथवा । और वह ब्यवहार जैन दृष्टि से अहिंसा है या अहिंसा का काष्ठ जैसी निश्चेष्ट स्थिति सिद्धि करने मे ही पूर्ण नही पोषक है यह नहीं कह सकते है। होती; परन्तु वह अहिसा वास्तविक पात्मिक बलकी
यहाँ जैन तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाले विचार मे अपेक्षा रखती है। कोई भी विचार उद्भूत हुआ, किसी प्रमेयचर्चाका जान-बूझ कर विस्तार नही किया है। इस वासनाने सिर ऊंचा किया अथवा कोई सकुचितता मन मे विषय की जैन विचारसरणी का केवल सकेत किया है। प्रज्वलित हो उठी वहाँ जैन अहिसा यह कहती है कि-'तू प्राचार के विषय मे बाह्या नियमों और विधानो सम्बन्धी इन विकारो, इन वासनाओं और इन सकुचितताबो से चर्चा जान बूझ कर छोड़ दी गई है। परन्तु प्राचार के हनन को प्राप्त मत हो, पराभव प्राप्त न कर और इनकी मूलतत्वो की जीवन शोधन के रूप में सहज चर्चा की है, मना प्रकीकार न कर. त इनका बलपूर्वक सामना कर जिनकी कि जैन परिभाषा में पाश्रव, सवर, बन्ध, मोक्ष और इन विरोधी बलों को जीत ।' प्राध्यात्मिक जय प्राप्त आदि तत्त्व कहते है। आशा है कि यह सक्षिप्त वर्णन करने के लिये यह प्रयत्न ही मुख्य जैन अहिसा है। इसको जैन दर्शन की विशेप जिज्ञासा उत्पन्न करने में सहायक फिर संयम कहो, तप कहो, ध्यान कहो या कोई भी वैसा होगा।
जीवन-चरखा चरखा चलता नाही, चरखा हुमा पुराना। पग खूटे द्वय पालन लागे, उर मदरा खखराना। छीदी हुई पांखड़ी पसली, फिर नहीं मनमाना । रसना तकली ने बल खाया, सो अब कैसे खूटे । सबद सूत सूधा नहिं निकस, घड़ी घड़ी पल ? । प्रायु माल का नहीं भरोसा, अंग चलाचल सारे । रोग इलाज मरम्मत चाहै, वैद बढ़ई हारे। नया चरखला रंगा-चगा, सबका चित्त चुरावै। पलटा बरन, गए गुन अगले, प्रब देख नहिं भाव । माटो नहीं कातकर भाई, कर अपना सुरझेरा। अन्त प्राग में इंधन होगा, 'भूधर' समझ सबेरा॥
-कविवर भूधरदास
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कविवर वादीभसिंह सरि और उनकी बारह भावनाएँ
प्रकाश चन्द्र जैन
कविवर वादीभ सिह सूरि विरचित क्षत्रचूडामणि लिया। उपर्युक्त घटना को देखकर जीवन्धर स्वामी को एक बहुत ही सुन्दर, नीतिशिक्षक, धार्मिक एव साहित्यिक वैगग्य उत्पन्न हो गहा, इसलिए वे निम्न प्रकार बारह सौन्दर्य से समन्वित महाकाव्य है। इसमे जीवन्धर स्वामी भाबनायो का चिन्तवन करने लगे। की जीवन कथा को साहित्य के ढाँचे में ढालकर कविवर
अनित्यानुप्रेक्षा ने बहुत ही रोचक और उपदेशक बना दिया है। यह महाकाव्य नीति का एक विशाल सागर है। शायद ही
मद्यते वनपालोऽयं काष्ठाङ्गारायते हरिः ।
राज्यं फलायते तस्मान्मयैव त्याज्यमेवतत् ॥ कोई ऐमा उपयुक्त स्थल हो जहा कविवर ने नीतिवर्णन के प्रति उपेक्षा दिखाई हो।
महागज जीवन्धर विचार करते है कि जिस प्रकार
इस बन्दर ने कटहर के फल को तोड कर वानरी को जैनधर्म में बारह भावनामो का बहुत महत्त्व है । ये
दिया, परन्तु वनरक्षक ने शीघ्र ही उमे ताडते हुए फल भावनाये अात्मानुशासन एव वैराग्य वर्द्धन मे बहुत महा
वापिस छीन लिया, ठीक इसी प्रकार पहिले काष्ठाङ्गार यक होती है। इस महत्त्वपूर्ण विषय को नीतिवर्णन में
ने येन केन प्रकारेण मेरे पिता महाराज सत्यन्धर से कटिबद्ध कविवर वादीसिह कैसे स्पर्श न करते ? क्षत्र
राज्य प्राप्त किया था, परन्तु मैने इस योग्य बनकर चडामणि के ग्यारहवे लम्ब मे इन बारह भावनायो का
काष्ठाङ्गार का हनन कर उमसे वश परम्परागत अपना बहुत ही विस्तार में वर्णन हुआ । अनेकान्त के पाठको की
राज्य वापिस छीन लिया है। अतएव मै तो वनपाल के मानस तुष्टि के लिए उस वर्णन का मूलाश हिन्दी रूपान्तर
समान हु, तथा काष्टाङ्गार बन्दर के समान है और राज्य के साथ प्रस्तुत किया जा हहा है।
इस फल के समान है। अत मुझे ही इस राज्य को अवश्य महाराज जीवन्धर जब क्रीड़ा करते-करते थक छोड देना चाहिए। गये तो समीपवर्ती किसी बगीचे मे जाकर वन्दरो की क्रीडा
जाताः पुष्टाः पुनर्नष्टाः, इति प्राणभृतां प्रयाः। देख कर मनोरञ्जन करने लगे। उस बगीचे में जीवन्धर
न स्थिता इति तत्कुर्याः, स्थायिन्यात्मपदेमतिम् ।। महाराज ने देखा कि किसी एक बन्दर ने किसी दूसरी बन्दरी के साथ सभोग किया, जिससे कि उसकी वन्दरी
इस मंसार मे जितने प्राणी उत्पन्न होते है वे सब उससे नाराज हो गई। उस समय बन्दर ने उसे प्रसन्न
थोडे समय तक रहकर अवश्य ही नष्ट हो जाते हैकरने के लिए बहुत उपाय किये, पर वह असफल ही रहा ।
कोई भी स्थिर नहीं रहता, अतएव बुद्धिमान् प्राणी का
कर्तव्य है कि वह जगत की समस्त वस्तुप्रो को नश्वर तब बन्दर मरे हुए के समान बनकर जमीन पर लेट
जानकर अविनश्वर मोक्ष को प्राप्त करने की चेष्टा करे । गया। उस समय बन्दरी उसे मरा हुआ समझ कर भयभीत हुई और उल्टी वन्दर की शामद करने लगी।
स्थायोति क्षणमात्रं वा ज्ञायते नहि जीवितम् । जैसे ही बन्दरी की खुशामद से प्रसन्न हुए बन्दर ने अपने
कोटेरप्यधिकं हन्त, जन्तूनां हि मनीषितम् ।। कपटी वेश को छोडकर बन्दरी को एक कटहल का फल इम जीवन के क्षण भर भी स्थिर रहने का विश्वास प्रेपित किया, वैसे ही बनमाली ने बन्दर और बन्दरी दोनो नहीं, परन्तु प्राणियो की इच्छा करोड़ों से भी अधिक है। की एक डण्डे से खवर ली और वह फल बन्दरी से छीन ऐमी हालत में उनका पूर्ण हो सकना बिलकुल असम्भव है।
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कविवर वादीभसिंह सूरि धौर उनकी बारह भावनाएं
अवश्यं यदि नश्यन्ति, स्थित्वापि विषयाश्चिरम् । स्वयं त्याज्यास्तथा हि स्यान्मुक्तिः संसृतिरन्यथा ॥ पंचेन्द्रिय सम्बन्धी विषय प्राणी को क्षणिक सुख देकर एक न एक समय नष्ट अवश्य हो जात है। ऐसी हालत मे जो मनुष्य विचार पूर्वक उनका त्याग कर देता है, वह तो पापबन्ध से रहित हो जाता है । किन्तु इससे विपरीत विषय ही यदि जीव का सम्बन्ध छोड़कर नष्ट हो जाते है और मनुष्य उन्हे स्वयं ही नहीं त्यागता है तो उसके ससार परिभ्रमण का कारण पाप का बन्ध होता ही रहता है।
अनश्वर-सुखावाप्तौ सत्यां नश्वरकामतः । कि पूर्ववनयस्यात्म क्षणं वा सफलं नय ॥ जब कि इस नश्वर - मनुष्य शरीर से अविनश्वर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, तब विवेकियो को अपना समय व्यर्थ खोना उचित नहीं, मोक्षप्राप्ति के यत्न में ही उसे खर्च करना लाभदायक है ।
अशरण अनुप्रेक्षा
पयोधी नष्टateस्य परियते ।
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सत्यपाये शरण्यं न तत्स्वारथ्ये हि सहस्रया ॥ हे धारमन् | जिस प्रकार समुद्र के बीच मे नौका से रहित हुए पक्षी का कोई रक्षक नहीं होता, अधिक न उड़ सकने के कारण उसका जीवन वही समाप्त हो जाता है। उसी प्रकार आपत्ति के आ जाने पर प्राणी का कोई भी रक्षक नही होता । श्रई हुई विपत्ति का सामना केवल उसे ही करना पड़ता है । किन्तु इसके विपरीत कुशलता के होने पर अपरिचित जन भी मित्रता करने लगते है।
श्रायुषीयंरति स्निग्धै- बंन्धुभिश्चाभिसम्वृतः । जन्तुः संरक्ष्यमाणोऽपि पश्यतामेव नश्यति ॥ जब प्राणी की मृत्यु का समय श्रा जाता है, तब उसे बडे-बडे शस्त्रधारी योद्धा और निजी बन्धुजन भी क्यों न घेरे रहे, परन्तु फिर भी वह काल के ग्रास से नही बच सकता । उसके प्राण पखेरू देखने वालो के सामने ही उड़ जाते है।
मंत्र तत्रादयो ऽप्यात्मन् स्वतन्त्र शरणं न ते । किंतु सत्येव पुण्ये हि नोचेत्के नाम तैः स्थिताः ॥ इस संसार में मृत्युजय यादिक मंत्र और तरह-तरह
के तंत्र पुण्य का उदय रहने पर ही सहायक रहते हैं। पुण्य क्षीण होने पर नहीं यदि पुष्पोदय न होने पर भी ये मषादिक प्राणरक्षण मे स्वतन्त्र सहायक हो सकते तो अनेक मात्रिक, वैद्य और डाक्टरों द्वारा चिकित्सा करने पर भी प्राणियों की मृत्यु क्यो होती है ?
संसार अनुप्रेक्षा
नटवन्नक वेषेण भ्रमस्यात्मन् स्वकर्मणा । तिरदिव निश्ये पाचाद् दिवि पुष्याद्द्यान्नरे ।।
१७७
जिस प्रकार कोई नट अपने कर्म के निमित्त से तरहतरह के वेशो को बदल कर जगह-जगह घूमा करता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी अपने द्वारा किये गये पुष्प धौर पाप कर्म के उदय से ग्राठो कर्मों के नाश होने तक योग्यतानुसार चारो गतियों मे घूमा करता है।
पञ्चानन इवामोक्षादसिपञ्जर प्राहितः । tosपि दुःसहे देहे देहि-हन्त कथं वसेः ॥
हे आत्मन् ! जैसे लोहे के पिजड़े मे बन्द किया गया कोई शेर विवश होकर उसमे रहता है, उसी प्रकार क्षण मात्र भी न सहन करने योग्य इस देह रूपी पिजरे मे स्थित रहना तेरे लिए भी उचित नहीं, तुझे भी मुक्ति के उपाय का अन्वेषण करना चाहिए ।
तन्नास्ति बन्नैव भुक्तं, पुद् गलेषु मुहुस्त्वया । तल्लेशस्तव किये बिन्दु पीताम्बुधेरिव ॥
1
हे धात्मन् इस संसार मे अनन्त पुद्गल ( कार्माण वर्गणा ) है उनको यह जीव अनेक बार भोग चुका है । अतएव जैसे समुद्र भर पानी पीने के इच्छुक व्यक्ति को एक बूद जल के पीने से कभी सन्तोष नही होता, उसी प्रकार पुद्गल के कुछ अशो के सेवन से तुझे भी कभी सन्तोष नही हो सकता ।
भुक्तोभितं तदुच्छिष्टं भोक्तुमेयोत्सुकायसे । प्रभुक्तं मुक्तिसौख्यं त्व-मतुच्छं हन्त नेच्छसि ॥
हे श्रात्मन् ! तू जिन वस्तुनो को अनेक बार भोगकर उच्छिष्ट कर चुका है, उन्हीं को बार-बार भोगने के लिए उत्सुक होता है, परन्तु खेद है कि जिस अविनश्वर और आनन्दप्रद मोक्ष सुख का तुझे एक बार भी स्वाद नही मिला है, उसके पाने की कभी चेष्टा भी नहीं करता ।
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१७५, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
मंसृती कर्मरागाद्यस्ततः कायान्तरं गतः।
रखने वाला शरीर भी अन्त समय मे प्राणी का साथ इन्द्रियाणीन्द्रियद्वारा रागाद्यश्चक्रकं पुनः॥ नही देता, तब प्रत्यक्ष भिन्न रहने वाले स्त्री, पुत्र, मित्र
इस संसार मे, रागद्वेषादिक भावों के कर्मबन्ध, आदि से क्या प्राशा की जा सकती है। से शरीरान्तर की प्राप्ति, शरीगन्तर से इन्द्रियो
त्वमेव कर्मणां भोक्ता, भोक्ता च फलसन्ततेः । की उत्पत्ति और इन्द्रियो से राग द्वेषादि सदा ही होते भोक्ता च तात कि मुक्ती स्वाधीनायां न चेष्टसे । रहते है। इस प्रकार यह ससार-चक्र अनादिकाल से हे आत्मन । शुर्भाशुभ कर्मो का कर्ता, उनके फलो घूमता हुआ चला पा रहा है। और जब तक मोक्ष की का भोक्ना और उनका नाशक एक तू ही है, अतएव प्राप्ति न होगी धूमता रहेगा।
जबकि तुझमे कर्मों के नाश करने की शक्ति मौजद है तब सत्यनादौ प्रबन्धेऽस्मिन्, कार्यकारणरूपके। तेरा कर्तव्य है कि तू जिसकी प्राप्ति तेरे अधीन है उम मेन दुःखायसे नित्यमद्यवात्मविमुञ्चतत् ॥ मुक्ति को प्राप्त करने की चेष्टा कर।
हे पात्मन् । जबकि अनादिकाल से चली आई प्रज्ञातं कर्मणवात्मन् स्वाधीनेऽपि सुखोदये। उपर्युक्त रागादिक की परिपाटी तुझे दुःखित कर रही है, नेहसे तदुपायेपु, यससे दुःखसाधने । तो तेरा कर्तव्य है कि उसका शीघ्र ही अन्त कर दे।
हे आत्मन् । तू कर्म के वशीभूत हो अज्ञानी होकर एकत्व अनुप्रेक्षा
स्वाधीन मोक्ष सुख और उसके उपायों मे तो चेष्टा नहीं त्यक्तोपासशरीरादिः स्वकर्मानगुणं भ्रमन् ।
करता है, किन्तु इसके विपरीत दु.खो के कारणभूत त्वमात्मन्नेकएवासि, जनने मरणेऽपिच ॥
सांसारिक कार्यों के करने मे मग्न हो रहा है। हे पात्मन् । तू अकेला ही पैदा होता है और अकेला
अन्यत्वानुप्रेक्षा ही मरता है । तेरे द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों के फल
देहात्मकोऽहमित्यात्मजातु चेतसिमाकृथाः। को भोगने में कोई भी तेरा साथी नही होता।
कर्मतो ह्यपृथक्त्वं ते, त्वं निचोलासिसन्निभः ॥ बन्धवो हि श्मशनान्ता, गृह एवाजितं धनम् ।
हे आत्मन् ! तू मै शरीर रूप हू, ऐसा विचार अपने भस्मने गात्रमेकं त्वां, धर्म एव न मुञ्चति ॥
मन मे कभी मत कर। क्योकि यद्यपि कर्मबन्ध से तू इस ससार मे धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जो परभव
और तेरा शरीर एकमेक हो रहे है, तो भी जैसे म्यान में भी जीव के साथ जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य
मे रखी हुई तलवार म्यान में जदी ही रहती है. उसी सब वस्तुए उसी पर्याय मे नाता तोड देती है। जैसे
प्रकार शरीर में रहते हुए भी तू शरीर से अलग है। बन्धुमात्र तो श्मशान तक ही साथ देते है, धन घर मे
अध्रुवत्वादमेध्यत्वादचित्त्वाच्चान्यदङ्गकम् । ही पड़ा रह जाता है और शरीर चिता की भस्म बन
चित्त्वनित्यत्वमेध्यत्व-रात्मन्नन्योऽसि कायतः ।। जाता है।
हे आत्मन् ! जबकि शरीर अचेतन, अनित्य, और पुत्र मित्रकलत्राधमन्यदप्यन्तरालजम् ।
अपवित्र है, किन्तु तू सचेतन, नित्य और पवित्र है, तब नानुभातीति नाश्चयं नन्वङ्ग सहजं तथा । तुम दोनो में अभेद कैसे हो सकता है।
जीवन मे समय समय पर प्राप्त होने वाली वाह्य हेये स्वयं सतीवुद्धियंत्नेनाप्यसती शुभे । वस्तुए पुत्र, मित्र, स्त्री, धन और धान्यादि कोई भी पर- तद्धेतु कर्म तद्वन्त-मात्मानमपि साधयेत् ॥ भव मे जीव के साथ नही जाती । इसमे कुछ भी बुद्धि के खोटे कार्य मे स्वत. प्रवृत्त होने और अच्छे आश्चर्य की बात नहीं है किन्तु जो शरीर नवीन पर्याय कार्य मे कोशिश करने पर भी प्रवृत्त न होने के कारणके प्रारम्भ में प्राणी के साथ ही पैदा होता है, वह भी भूत पापकर्म, प्रात्मा को खोटे कार्य में प्रवृत्त करने वाला परभव में उसके साथ नहीं जाता यह महान् आश्चर्य की और करणीय कार्यों मे प्रवृत्ति न करने वाला बना बान है। अबषा जबकि मात्मा के साथ घनिष्ट सम्बन्ध देता है।
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कविवर वादोभसिंह भूरि भोर उनको बारह भावनाएँ
१७६
प्रशुचित्वानुप्रेक्षा
हे प्रात्मन् ! तेरे मे प्रतिसमय पुछ गलमय कर्मों का मेध्यानामपि वस्तूनां, यत्सम्पर्कादमध्यता ।
प्रागमन हो रहा है। जैसे किसी नौका मे अब छिद्र द्वारा तद् गात्रमशुचीत्येतत् किं नात्मन्मल सम्भवम् ॥
जल पाता है, तब वह क्रमशः नीचे जल मे डूबती जाती जिस शरीर के सम्पर्क से पवित्र वस्तएं भी अपवित्र है, उसी प्रकार तू भी उस कर्मानब के कारण अधोगति हो जाती है तथा जो रज और वीर्य प्रादि मलों से उत्पन्न ।
को प्राप्त होता जा रहा है। होता है वह शरीर पवित्र कैसे हो सकता है ? किन्तु
तन्निदानं तवैवात्मन् ! योगभावो सबा समो।
तो विद्धि सपरिस्पन्दं परिणाममशुभाशुभम् ।। कभी नही। अस्पष्टं दृष्टमन हि सामर्थ्यात्कर्म शिल्पिनः ।
प्रात्मा के साथ अनादि काल से सम्बद्ध योग और रम्यमहे किमन्यत्स्यान्मलमांसास्थिमज्जतः ॥ कषाय ही इस आस्रव के कारण है। इनमे से मन, बचन, नाम कर्म जन्म सौन्दर्य आदि के कारण यद्यपि यह
और काय के निमित्त से होने वाली प्रात्मा के प्रदेशों को शरीर ऊपर से देखने में सुन्दर मालूम होता है परन्तु चंचलता को योग तथा शुभ और अशुभ प्रात्मा के परिवास्तव में इसके भीतर मल, मांस, हसी और चर्बी प्रादि णामों को कषाय कहते है। के सिवाय और कोई अच्छी वस्तु नहीं है।
प्रास्त्रवोऽयममष्येति, ज्ञात्वात्मन्कर्म कारणे। देहादन्तः स्वरूपं चेद् बहिर्वेहस्य किम्परः।
तत्तन्निमित्तवेधुर्यादथ बाह्मोवंगो भव ।। प्रास्तामनुभवेच्छेय मात्मन को नाम पश्यति ।।
हे प्रात्मन् ! अमुक कर्म के आने का अमुक कारण
है, इस प्रकार कर्म और उसके कारणो को जान कर उन्हे यदि किसी प्रकार इस शरीर का भीतरी भाग बाहर
अपने से अलग कर दे, जिससे तुझे शीघ्र ही मोक्ष की दिखने लगे तो इसके भोग की तो बात ही क्या ? मनुष्य
प्राप्ति हो जाए। इस पर नजर डालने में भी घृणा करेगे।
__ संवरानुप्रेक्षा एवं मिशित पिण्डस्य क्षापिणोऽक्षयशंकृतः ।
संरक्ष्य समिति गुप्ति-मनुप्रेक्षापरायणः । गात्रस्मात्मन्क्षयात्पूर्व तत्फलं प्राप्य तत्त्यज ॥
तपः संयम धर्मात्मा, त्वं स्या जित परीषहः ।। यद्यपि मांस के पिण्डरूप यह मनुष्य शरीर नश्वर है,
प्रास्रव अर्थात् आते हुए नवीन कर्मों का रुकना संवर तथापि वह मोक्ष प्राप्ति का कारण है, अर्थात् इससे धर्म को ममिति गप्ति ग्रनप्रेक्षा. ता. धर्म और प साधन कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। प्रतएव है सब के सब इसी सवर के कारण है। प्रतएव हे प्रात्मन् ! आत्मन ! जब तक यह नष्ट नहीं होता है तब तक इससे त उस संवर के निमित्त इन सब का पालन कर । मोक्ष प्राप्ति के साधनों को एकत्रित कर लेना चाहिए। एवं च त्वयि सत्यात्मन् कर्मास्रब निरोधनात् । प्रात्तसारं वपुः कुर्या-स्तथात्मंस्तत्क्षभेऽप्येभीः ।
नीरन्ध्रपोतवद् भूयाः निरपायो भवाम्बुधौ। प्रात्तसारेचदाहेऽपि, नहि शोचन्ति मानवाः ॥
जैसा नौका के भीतर जल आने का छिद्र रुक जाने जैसे मनुष्य ईख से सार के निकाल लेने पर, उसके पर वह जलाशय मे खतरा रहित हो जाती है, उसी जलाने में रज नही करता, उसी प्रकार हे प्रात्मन् ! तेरा प्रकार प्रात्मा मे कर्मों के प्रागमन का द्वार रुक जाने पर भी कर्तव्य है, कि तू भी इस मनुष्य शरीर से मोक्ष के इसे भी ससार सागर मे फंमने का डर नही रहता। साधनो को प्राप्त कर उसे निःसार बना, जिससे इसके विकयादिवियुक्तस्त्वमात्म-भावनपाउन्धिताः । नाश होने मे तुझे रज भी न हो।
त्यक्त बाह्यस्पृहो भूया, गुप्ताद्यास्ते करस्थिताः। प्रास्त्रवानुप्रेक्षा
हे पात्मन् ! तेरा कर्तव्य है कि तू पात्मध्यानी बन मजनमानवन्त्यात्मन् ! दुर्मोचाः कर्म पुद् गलाः। विकथा और कषाय आदि प्रमादो से रहित होकर धन जैः पूर्णस्त्वमषोऽधः स्या, जलपूर्णो यथा लयः॥ मान्यादिक बाह्य पदार्थों से ममता को छोड़ दे। ऐसा
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१८०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
करने से तुझे पूर्वोक्त, गुप्ति, समिति और तप आदिक जाएगा, तब तेरे लिए रत्नत्रय की पूर्ति का होना भी स्वयमेव ही प्राप्त हो जायेंगे।
कठिन नही रहेगा। एवमक्लेश गम्येऽस्मिन्नात्माधीनतया सदा।
परिणाम विशुद्धयर्थ तपो बाह्य विधीयते । श्रेयो मार्गे मति कुर्याः किं बाह्ये तापकारिणि ॥ नहि तन्दुलपाक: स्यात् पावकादि परिक्षये ॥
हे पात्मन् ! सांसारिक कार्यों मे बुद्धि लगाने से हे आत्मन् ! जैसे चावल और जल के मौजूद रहने आत्मोद्धार नही हो सकता। इसलिए मोक्ष मार्ग मे पर भी बाह्य कारण अग्नि और बटलोई आदिक न होने प्रवृत्ति करना ही सर्वथा उचित है । यह मोक्ष मार्ग स्वा- पर भी भात नहीं बन सकता, उसी प्रकार परिणामों की धीन है, अतएव अनायास साध्य भी है ।
विशुद्धि भी बाह्य तप के बिना नही हो सकती । इसलिए शुष्क निर्बन्धतो बाहो, मुह्यतस्तव हृद्व्यथा। परिणामों की विशुद्धि के लिए बाह्य तप करना आवप्रत्यक्षितंव नन्वात्मन् ! प्रत्यक्षनिरयोचिता ॥ श्यक है। हे पात्मन् । पर पदार्थो मे मोह करने से तुझे जो
परिणाम विशुद्धिश्च, ब्राह्म स्यानिस्पृहस्यते । मानसिक पीडा होती है, वह नरक प्राप्त कराने वाली
निस्पृहत्वं तु सौख्यं तद् बाह्ये मुह्यसिकि मुधा। प्रत्यक्ष ही दृष्टिगोचर हो रही है।
हे आत्मन् ! बाह्य पदार्थों से इच्छा या ममत्व हटने निर्जरानुप्रेक्षा
से ही परिणामों की विशुद्धि होती है। और पर पदार्था रत्नत्रय प्रकर्षण, बद्धकर्मक्षयोऽपिते ।
मे इच्छा का हट जाना ही सच्चा सुख है । इमलिए बाह्य अध्मातः कथमप्यग्निा
पदार्थों से मोह करना उचित नहीं है। किं वावशेषयेत् ॥
गुप्तेद्रियः क्षणं वा यन्नात्मन्यात्मनमात्मना। प्रज्ज्वलित हुई अग्नि सभी दाह्य वस्तुनो को भस्म
भावयन्पश्य तत्सोरव्यमास्तां निःश्रेयसादिकम् ॥ कर देती है किसी को भी नहीं छोडती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र पूर्व सचित समस्त
हे आत्मन् । इन्द्रिय विजयी बनकर आत्मा में प्रात्मा कर्मों को निश्चय ही नष्ट कर देते है।
के द्वारा प्रात्मा का ध्याप करने में बह निस्पृहत्व मुख क्षयादनास्त्रवाच्चात्मन, कर्मणामसि केवली।
महज ही प्राप्त किया जा सकता है और इसी से मोक्षानिर्गमे चाप्रवेशे च, धाराबन्धे कुतो जलम् ।।
दिक भी क्रमश. प्राप्त किये जा सकते है। जैसे किसी जलाशय का पूर्व सचित जल तो निकाल
अनन्तं सौख्य मात्मोत्थ मस्तीत्यत्र हि साप्रमा। दिया जावे और नवीन जल उसमे नही पा सके तो वह
शान्तस्वातन्तस्य या प्रीतिः स्वसंवेदन गोचरा ।। जल किसी समय निर्जल अवश्य हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्य जब कुछ समय के लिए अपने चित्त को वश आत्मा मे जब सविपाक और अविपाक निर्जरा के द्वारा मे करके निराकुल हो जाता है तब उसे उस समय अपने पूर्व संचित कर्मों का नाश और संवर के द्वारा नवीन कर्मो ही अनुभव में आने वाला जो अनुपम प्रानन्द प्राप्त होता का निरोध ही जाता है तब यह भी केवली बन जाता है है, उससे निश्चय ही यह सिद्ध होता है कि प्रात्म मात्र अर्थात् कर्म रहित हो जाता है।
की अपेक्षा से प्रगट होने वाला सुख अवश्य ही अनन्त है। रत्नत्रयस्य पूर्तिश्च त्वमान्मन्सुलभव सा। मोह क्षोभ विहीनस्य परिणामो हि निर्मलः ।।
___ लोकानुप्रेक्षा जहाँ तक मोहनीय कर्म का उदय रहता है वही तक
प्रसारिता घ्रिणा लोकः कटि निक्षिप्त पाणिना। आत्मा के परिणामो मे मलिनता रहती है किन्तु मोह के तुल्यः पुंसोर्ध्वमध्ययोः विभागस्त्रि मरुववृत्तः॥ नष्ट हो जाने पर वे परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाता है। हे आत्मन् ! यह षड्द्रव्य मय लोक पैरो को फैलाए इसलिए हे आत्मन् ! जब तू मोहनीय कर्म से रहित हो तथा कमर पर हाथ रखे हुए पुरुष के प्राकार का है।
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कविवर वादीभसिंह सूरि और उनकी बारह भावनाएँ
इसके ऊर्ध्व-मध्य और अघ' तीन भेद है। यह घनोदधि तो उनका पाना भी व्यर्थ है। जैसे खेत वगैरह अच्छे भी वातवलय, धनवातवलय और तनुवातवलय से वेष्टित है। रहें पर उनमें बीज बोने पर अनाज की उत्पत्ति न हो तो जन्म मृत्योः पदे ह्यात्मन्नसंख्यात प्रदेशके ।
उनकी अच्छाई से क्या लाभ । लोके नायं प्रदेशोऽस्ति यस्मिन्नाभूरनन्तशः॥
तदात्मन्दुर्लभं गात्रं धर्मार्थ मूढ ! कल्प्यताम् । हे पात्मन् । यह लोक असख्यात प्रदेशी है, इसका
भस्मने दहतो रत्नं, मूढः कः स्यात्परो जनः ।। कोई ऐसा प्रदेश बाकी नही है, जिसमे प्राणी ने अनन्त
हे पात्मन् ! जैसे भस्म के लिए बहुमूल्य रत्न को बार जन्म मरण धारण न किया हो ।
जलाने वाला मनुष्य अत्यन्त मूर्ख समझा जात है, उसी सत्यज्ञाने पुनश्चात्मन् ! पूर्ववत्संसरिष्यति । प्रकार केवल सासारिक सुखो के हेतु भोगोपभोग मे शरीर कारणे जन्मभावेऽपि नहि कार्य परिक्षयः॥
को नष्ट कर देने वाला मनुष्य भी महान् मूर्ख है। इसहे आत्मन् । स्व पर का यदि विज्ञान न होने पर ।
लिए धार्मिक कार्य करके नर देह को सफल बनाता चाहिए। तू हमेशा की तरह इस मंसार में परिभ्रमण करेगा।
भव्यस्या बाह्यचित्तस्य सर्व सत्वानुकम्पिनः । क्योकि कार्य उत्पादक सामग्री के रहने पर कार्य का प्रा
करणत्रय शुद्धस्य तवात्मन् बोधिरेताम् ॥ दुर्भाव अवश्य ही होता है। इसलिए तु स्व-पर के भेद हे प्रात्मन् ' भव्य बाह्य, पदार्थों से उदासीन, अहिंता विज्ञान को प्राप्त कर, जिससे संसार के दुःखो से मुक्त प्रेमी और अध करण अपूर्व करण तथा अनिवृत्ति करण रूप हो सके।
परिणामो से निर्मल तेरे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और यतस्व तत्तपस्यात्मन्, मुक्त्वा मुग्धोचितं सुखम् । मम्यक्चारित्र की वृद्धि होवे । चिर स्थाय्यन्धकारोऽपि प्रकाशे हि विनश्यति ॥
धर्मानुप्रेक्षा हे पात्मन् ! जैसे प्रकाश के होने पर चिरकाल
देवता भविता श्वापि, देवः श्वा धर्म पापतः । स्थित रहने वाला अन्धकार भी कूच कर जाता है उसी तं धर्म दुर्लभं कुर्या, धर्मो हि भुवि कामतः ॥ प्रकार तप के करने से प्राणी का मसार परिभ्रमण भी
है अात्मन् । पाप के प्रभाव से देव भी कुत्ता हो नष्ट हो जाता है । अतएव मसार से नाता तोड़ने के लिए
जाता है और धर्म के प्रभाव में कुना भी देव हो जाता तुझे तप करना उचित है ।
है इसलिए ऐसे दुर्लभ धर्म को धारण करना प्राणिमात्र बोधि दुर्लभानुप्रेक्षा
का कर्तव्य है। धर्म करने से निश्चय ही सर्व मनोरथ पूर्ण भव्यत्वं कर्मभूजन्म मानुष्यं स्वङ्गवश्यता। हो जाते है । दुर्लभं ते क्रमादारगन् ! समवायस्तु किम्पुनः॥ पश्यात्म-धर्म माहात्म्य, धर्मकृत्यो न शोचति । हे आत्मन् । रत्नत्रय के आविर्भावजनक शक्तिरूप,
विश्वविश्वस्यते चित्र सहि लोक द्वये सुखी ॥ भव्यपाना, कर्मभूमि में जन्म, मनुष्यपर्याय मुन्दर शरीर और उत्तम कुल में उत्पत्ति। इन पाँचो मे से एक-एक वाला मनुष्य शोक और अविश्वास का भाजन नहीं होता को प्राप्ति होना भी कठिन है, तब एक साथ पांचो का इस भव और पर भव में सुख एव शान्ति प्राप्त करता है। मिलना तो अत्यन्त कठिन वात है।
तवात्मन्नात्मनीनेऽस्मिन् जनयतिनिमले। व्यर्थः सः समवायोऽपि तवात्मन्धर्मधीनचेत् ।
स्थवीयसी रुचिः स्यादामुक्तेर्मुक्तिदायिनी॥ कणि शोद्गम वैधुर्ये केदारादि गुणेन किम् ॥
हे पात्मन् । जबकि धर्मादिक कार्यों के करने से हे आत्मन् । कदाचित् भव्यत्व आदि पाँचो की एक आत्मलाभ प्रत्यक्ष स्पष्ट है, तब इस पवित्र और मुक्तिसाथ प्राप्ति भी हो जावे पर यदि धर्म में रुचि नही हो दायक जैनधर्म में मुक्ति प्राप्ति पर्यन्त मेरा अटल प्रेम रहे।
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एक सामाजिक कथा
राखी
श्री विष्णु प्रभाकर
रक्षाबन्धन का पर्व होने पर भी उस दिन विश्वनाथ उठा । दृष्टि उठा कर देखा कहीं कोई नहीं है। पर का चित्त बहुत प्रशान्त था। इसका क्या कारण था यह उसका हाथ रुक गया उसने राखी को बड़े ध्यान से देखा। भी बह स्पष्ट नहीं जानता था। वह सवेरे से किसी वस्तु स्मृति के पन्ने बड़ी तेजी से हवा में उड़े। उन पन्नों में की तलाश में था पर वह उसे नही मिल रही थी। उसने अनेक सुन्दर और रहस्यमय चित्र थे। उन चित्रो में मादअलमारी, बक्स, सूटकेश, मेज की दराजें सभी कुछ देख कता थी सजीवता थी और था एक सन्देश... डाला, पर उसकी इच्छित वस्तु नही मिली। वह सोचने
बहुत पुरानी बात थी। विश्वनाथ तब अविवास्ति लगा उसकी स्मृति इतनी दुर्बल क्यो हो गई है कि सहमा ।
था । पर विवाह की बात चल रही थी। कहीं पक्की हो उसे याद आया "कुछ लेख और पत्र अटैची मे भी तो
चुकी थी। तभी उसके सहपाठी नरेश का पत्र पाया. रखे है। बस उसने अटेची को ढूंढ निकाला और व्यग्रता परिस्थियो ने हमे एक दूसरे से बहुत दूर फेंक दिया है। से उसका सामान टटोलने लगा। टटोलते-टटोलते उसके डाकघर इस सीमा को कब तक छोटा करता रहेगा। कभी हाथ में एक लिफाफा पा गया । बह जैसे हर्ष से भर कभी तम्हे आना ही चाहिए। बड़ा अच्छा अवसर है। उठा ''यह लिफाफा।.... "इसमे क्या है...""क्या है...? साहित्य सम्मेलन, संगीत सम्मेलन, इतिहास परिषद आदि जैसे वह उसे पहचान रहा था, जैसे उसे कुछ याद आ रहा कई परिषदें हो रही है। तुम्हे इनमें रुचि है। नीरजा था.....। यह सब पलक मारते जितने समय में हो गया सगीत सम्मेलन मे सरोद ट्यून में भाग ले रही है। तुम था क्योंकि दूसरे ही क्षण उसने खोल लिया था। और भी तो सितार के प्रेमी हो। इसलिए सोचो मत, चले उसके हाथ में तिरंगे खद्दर की एक राखी थी....। प्रायो ।
यह राखी....."जैसे वह एक इतिहास की पुस्तक और वह चला गया। उसने पाशा के प्रतिकूल सगीत थी। उसके पृष्ठ इतनी तेजी से खुलने शुरू हुए कि सम्मेलन में पूरा भाग लिया। उसने सितार पर ही संगीत विश्वनाथ काप उठा। झंझलाया सा वह बोला""क्या का प्रदर्शन नही किया बल्कि सरोद इयूट मे नीरजा के वाहियात बात है। मनुष्य इतना मोहग्रस्त क्यों है ? क्यों साथ भाग लिया। यह आश्चर्य जनक बात थी कि वे मैंने इस राखी को माज तक संजोकर रखा हुआ है ? इतनी जल्दी एक दूसरे को समझ गये थे। विश्वनाथ बसे नहीं, नही, मैं इसे नही रखूगा। एक बात थी जो हो गई। तो कई बार नीरजा के साथ नरोद बजा चुका था पर वह हमेशा मुझे क्यो जकड़े रहे। मुझे अपंग क्यों बनाये उन बातों को बहुत वर्ष बीत चुके थे। तब वह सीम हा
रही थी पर आज उसकी प्रगति को देख कर विश्वनाथ और यह सोचते-सोचते उसने चाहा वह उस राखी प्रशंसा से भर उठा। जिस बात ने उसे विशेष प्रभावित को उठाकर रद्दी की टोकरी में फेंक दे कि सहसा उसे किया था वह था उसका पात्म विश्वास । तीन बार सरोद लगा. 'कोई कमरे में आ गया है और धीमे मधुर स्वर मे का तार ट्टा और सहस्रों व्यक्तियो की सभा में नीरजा ने कह रहा है। यह राखी मैं इसलिए नहीं बांध रही कि मै उसे परम शान्ति से ठीक किया और संगीत के रस को तुमसे रक्षा की याचना करती हूँ बल्कि इसलिए बांध रही भंग नहीं होने दिया। एक बार तो विश्वनाथ उसे देखता हूँ कि तुम अपनी रक्षा कर सको...। विश्वनाथ कांप ही रह गया था। बह तन्मयता, वह प्रात्मविभोरता, और
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राखो
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वह मात्मविश्वास ......
...जी हाँ समझी। क्या समझी ? इसी संगीत समीक्षा में एक सप्ताह के स्थान पर एक जो तुमने अपनी कहानी 'मुक्ता' में लिखा है यानी माह बीत चला था पर विश्वनाथ दिल्ली लौट ही नही प्रेम पूजी सहेजता नहीं बखेरता है। पा रहा था। कभी वे पिकनिक पर जाते, कभी गोष्ठियों
बेशक । मे, कभी किमी मित्र परिवार मे और कभी एकान्त क्षणों मुझे वह स्वीकार है। से नरेश को लायब्ररी उनका विश्राम स्थल बन जाती।
फिर भी तुम कह सकती हो तुम मुझे प्रेम करती हो। वहीं बैठ कर वे सगीत को भूलकर कभी कभी जीवन की
नीरजा क्षण भर के लिए झिझकी फिर बोली, आज वातें करते थे। वे दोनो निर्भीक और स्पष्ट वक्ता थे। तो ऐसा ही लगता है। दोनों गुत्थियो मे विश्वास नही करते थे। दोनो के पास और कल कैमा लगेगा? कही कुछ छिपाने को नही था। वे इतने स्पष्ट थे कि कल पाने पर जानूगी। कभी-कभी तो नरेश को चकित रह जाना पड़ता था। तो उसे पा लेने दो । नव तक के लिए अच्छा है हम विश्वनाथ को याद है कि एक दिन जब वह जाने की चर्चा उसकी बात न करें। भर रहा था नीरजा ने उससे पूछा क्या अब नही रुक
नीरजा ने दृढ स्वर मे कहा ''पाप ठीक कहते है। सकोगे?
मुझे अभी बहुत मे कल देखने है। उसके बाद ही मैं प्रेम नही नीरु।
को परख मकूगी। बिल्कुल ।
प्रभावित होकर विश्वनाथ बोला' 'नीरु । मच कहता हाँ, नीरु।
हूँ मुझे भी तुमसे प्रेम होता जान पड़ रहा है पर उसे तो जाओ।
प्रकट करने का समय अभी दूर है। प्रेम की अग्नि परीक्षा नीरु।
आसान नहीं होती, नीरु ।..... कहो। दुख होता है।
तब दोनो हँस पड़े थे, पर आज विश्वनाथ को वह होता है।
घटना स्वप्नवत् लग रही है, क्योकि उसके दो दिन बाद क्यों?
रक्षाबन्धन का त्योहार था और उसी दिन नीरु ने विश्व
नाथ के हाथ में गखी बांधी थी। बात ऐसे हुई कि जब क्योकि मै तुम्हे प्रेम करनी लगी हूँ।
नीरु नरेश के हाथ में राखी बांध रही थी तब विश्वनाथ नीरु।
के मुंह से निकल गया 'काश कि मेरे भी एक बहिन नीरु झूठ नहीं बोलती।
होती। फिर कई क्षण तक जैसे वहाँ सन्नाटा छाया रहा था। पास ही नीरु ती माँ खड़ी थी बोली 'अरे तो इसमें स्पष्टवादी बहधा अपनी ही स्पष्टता से अप्रतिभ हो जाते क्या है ? नीरु तेरी बहिन है। ला तो नीरु एक राखी। है । कई क्षण बाद विश्वनाथ ने उसी शान्त स्वर में कहा दोनो के हृदय धक-धक कर उठे। विश्वनाथ ने यद्यपि ''एक बात बतायोगी?
यह बात जान बूझ कर कही थी तो भी वह अपने को ही पूछो।
चकित करता हुआ कॉप उठा था। नीरु भी कॉपी थी, विश्वनाथ ने पूछा "तुम मुझसे प्रेम करती हो या निष्प्रभ भी हई धी पर गवी लेकर आगे बढी । बोली... अपने से?
हाथ बढायो । प्रकट में वह बिल्कुल नही झिझकी। कसा अजीब प्रश्न है? नीरजा चकित सी देखने
स्वाभाविक अल्हड़ता भरे स्वर में विश्वनाथ ने कहा लागी । विश्वनाथ ने मुस्करा कर कहा ''नही समझी ?
.."हाथ बढ़ा सकता हूँ पर एक शर्त के साथ । जैसे तभी बिजली कौंधी। नीर विजय से मुस्कराई
क्या?
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१८४ वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
मैं तुम्हारी रक्षा नहीं करूंगा। मैं किसी की रक्षा विश्वनाथ के ठीक याद है.'पत्र पढ़कर उसके अन्तर करने में विश्वास नहीं करता। यह दूसरे को छोटा और में पहिली प्रतिक्रिया एक कसक के रूप में हुई थी पर दुर्बल समझने की भावना को जन्म देता है।
प्रकट मे उसने नीरु को तार द्वारा वधाई भेजी थी। वह नीरु ने उसी क्षण कहा 'तुमनेयह कैसे समझा कि बिवाह मे गया था और पूरी ईमानदारी के साय उसने मैं तुमसे अपनी रक्षा करवाना चाहती हूँ। यह राखी तो नीरु को बता दिया था वह उस पर गर्व करता है और इस बात की निशानी है कि तुम अपनी रक्षा कर सको। सदा करता रहेगा। क्या मतलव ?
नीरु ने हँसकर कहा था 'सदा की बात क्यों करते मतलव स्पष्ट है, जो उदात्त विचार तुम्हारे आज है, हो ? जिन स्वप्नो का तुम निर्माण कर रहे हो तुम उनको जीतने ठीक है। मै मानता हूँ। मुझे वर्तमान मे रहना की शक्ति पा सको।
चाहिए, पर नीरु, इस दृष्टि से तो तुम्हारा प्रेम सच्चा था। ___ क्षण भर के लिए वे सब चकित रह गये । दूसरे क्षण
उस क्षण था। नरेश ने खिलखिला कर कहा 'शाबाश ! नीरु तुमने
विश्वनाथ हँसा कैसा रहस्य है । एक क्षण का सत्य विश्वनाथ को खूब छकाया । जनाब बड़े हाजिरजवाब
दूसरे क्षण का असत्य बन जाता है। बनते थे। विश्वनाथ हारकर भी मुक्त हेंसी हँसा था। आज भी
___ अनजाने ही यह कठोर व्यग्य उसके मुंह से निकल सोचते-सोचते विश्वनाथ हँस पड़ा पर वह मुक्त हँसी नही
गया था। उस क्षण भी उन्होने उसे हँसी मे उडा दिया थी, जैसे उसमे थकान भर गई हो। उसने मुट्ठी खोलकर
था। आज भी विश्वनाथ ने हँसना चाहा पर कहानी आगे राखी को देखा और फिर एक बार बही थकी हुई हँसी।
बढती चली गई। नीरु का विवाह हुआ। सगीत के क्षेत्र उसके कुछ दिन बाद, जब वह वहाँ से चला आया, उसे
मे उसकी ख्याति वढी पर वह कला और पति दोनो को नीरु का पत्र मिला था। उसमे लिखा था...
प्रसन्न न कर सकी। कला आगे बढी तो पति पीछे रह ___... ' 'तुम्हारी बात ठीक निकली। आज मै समझ
गया और जब वह पीछे रह गया था तो उसने उसे अपना सकी हूँ कि उस दिन तुम्हारे रहते मैंने तुमसे जो प्रेम करने
अपमान समझ कर नीरु पर हमला किया। नीम ने चारो की बात कही थी वह नितान्त सत्य नही थी। आज
ओर देखा ''उस तूफान में केवल विश्वनाथ ही चट्टान की तुम्हारे स्थान पर एक और व्यक्ति प्रा बैठा है । क्यो ऐसा
तरह खडा था। हुआ यह बताना अनावश्यक है पर हुअा एक तथ्य है।
वह दौड़ी हुई आई बोली क्या करू विश्वनाथ । तथ्य सत्य नहीं होता पर बहुधा हम उस तथ्य के शिकार
तलाक। हो जाते है। वैसे तो सत्य भी स्वय अखड नही है । पर विश्वनाथ । नीरु कॉप उठी। मैं इस उलझन को बढाना नही चाहती। मै तुम्हारा सीधा रास्ता यही है, नीरु । प्रेम दूसरे मार्ग पर नही आदर करती हूँ पर प्रेम विनोद को करती हूँ । वह तुम्हारी जा सकती। तरह बुद्धिमान नहीं है। बात करना भी उसे कम आता फिर क्या करूंगी। है पर उसे जो कुछ प्राता है वह करना आता है वह मुझसे वर्तमान मे जियो । फिर भविष्य का प्रतीक है । उसे विवाह का वचन ले गया है। तुम उसे जानते होगे। उस आने दो देखा जायेगा। जैसी बाँसुरी कम लोग बजा पाते है।
और यही हुआ था। नीरु फिर श्रीमती नीरजा शुक्ला हम लोग अगले मास की पाँच तारीख को सिविल से कूमारी नीरजा गुप्ता बन गई। कई दिन तक तो वह की सिबिल मैरिज एक्ट के अधीन विवाह कर रहे हैं। दृढता से जीवन की गाड़ी को खीचती रही पर अब रहतुम्हें आना तो है ही......
रह कर उसे लगता था जैसे वह अकेली है। एक दिन
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राखी
१८५
उसने विश्वनाथ से यही बात कही भी मुझे लगता है विश्वनाथ ने फिर मट्री खोलकर राखी को देखा और जमे मुझे कुछ चाहिए।
से हॅम पड़ा। बोला .. हाय रे दुर्वल मानव । तेरी विश्वनाथ हंसा..'यही, यही तो आपत्ति का मूल है। दुर्बलता ने ही तो ससार को रहस्यमय बना दिया है।।
बिना सुने नीरु वोली सुनो विश्वनाथ । क्या मै उसने उठना चाहा पर कहानी पूरी होने से कुछ देर तुम्हारे पास आ सकती हूँ।
थी। नीरजा की सगीत भारती एक बार फिर विवाह के ___ क्यो नही । पा सकती हो, पर तुम्हे मेरी पत्नी से मंत्रो से गंज उठी उसने लिखा . . .' इस बार बिवाह आज्ञा लेनी होगी। घर उसका है।
अचानक ही हो गया। मैने उसे स्वीकार कर लिया है । नीरु ने झिझकते हुए कहा 'समझती हूँ। काम ठीक चल रहा है। किसी दिन सपरिवार आयो
फिर कई क्षण वे दोनो चुप बैठे रहे थे। बाद में न? . . . .' नीरज ने ही उस मौन को भंग किया था बोली...अब यही सब सोचकर विश्वनाथ को लगा मनुष्य कुछ भी क्या करूं?
हो, सहारा चाहता है। उसके बिना खडा होने की शक्ति जो मन मे पाये।
पाने में उसे अभी बहुत मजिल तय करनी है । वह नही हो सकता।
और तब उसका हाथ फिर ढीला पड़ गया। उसने क्या क्या है वह ?
उसने राखी को फेकने का विचार छोड दिया और वह मैं तुमसे प्रेम करना चाहती हैं, पर क्या कर सकती।
उमे फिर अपने स्थान पर रखने चला कि तभी कमरे के
किवाड खुले, देखा नीरु है। शान्त, प्रसन्न, विश्वास से विश्वनाथ ने वृष्टि उठा कर नीरजा को देखा फिर पूर्ण । चकित विस्मित वह बोल उठा, नीरु । धीरे से कहा: "सच पूछो तो प्रेम करने का अवसर ही नीरु हंसी। हाँ मै ही है। तुम तो आये नही, मुझे अब मिला है।
ही आना पड़ा। क्या?
____ क्या बताये । प्रा नही सका। कोई विशेष बात भी ठीक कहता हूँ। अब तुम मझे पाने की लालसा के नहीं थी। बिना प्रेम कर सकती हो । जहाँ स्वार्थ नही है, वही प्रेम है। हाँ, विशेप तो कुछ ही नहीं थी। राखी मै डाक से
मुनकर नीरजा के नयन भर पाये। कई क्षण मौन भी भज सकती थी पर मुझे लगा चलना चाहिए, सो मूर्तिवत् चित्रकार की तुलिका-सी भावो से भरी वह बठी चली पाई। रही फिर चली गई। पत्र द्वारा उसने अपना निश्चय और फिर बोली · · · लो हाथ बढ़ायो । विश्वनाथ को लिख भेजा...
विश्वनाथ ने बिना कुछ कहे हाथ बढ़ा दिया। मुट्ठी ... . . मै अब अपने नगर मे सगीत भवन खोल रही में वही राखी थी। देखकर नीफ बोली · · · यह किसकी हूँ। मैने देश के लिए जीने का निश्चय कर लिया है। राखी है ? मेरा देश असीम है । दीवारें उसकी सीमा नहीं है। कल तुम्हारी । क्या होगा मै नही जानती, जानना भी नहीं चाहती। मेरी?
मन करे तो कभी-कभी पाना। नरेश मझसे रूठ हाँ, पहिली बार माँ के कहने पर जो राखी तुमने गया है, तुम भी रूठ सकते हो पर अब मझे किसी की बाँधी थी वही है। चिन्ता नही है।
नीरजा मुस्करा पड़ी · · · इसे क्यों रख छोड़ा है ? पुनश्च करके लिखा था.. परसों श्रावणी पूर्णिमा है। तुमने ? तुम तो मोह को पाप समझते हो। राखी भेज रही हूँ।
विश्वनाथ के मुंह पर यह करारा तमाचा था। वह हतप्रभ-सा हो गया पर साहस करके बोला · · · नीरु !
बस....
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चाणक्य के धर्म पर कथित शोध नई नहीं है
रमाकान्त जैन, वी० ए० साहित्य रत्न
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता के प्रधानमन्त्री श्री कन्हैया लाल दुगड द्वारा प्रचारित तथा मुनि महेन्द्रकुमार प्रथम द्वारा रचित लेख ऐतिहासिक नई शोध- क्या चाणक्य जैन था ? ' की साइक्लोस्टाइल प्रति देखने को मिली। जनभारती, श्वेताम्बर जैन वीर वाणी आदि पत्रो मे भी वह लेख प्रकाशित हुआ है ।
इस लेख मे मुनि जी ने यह दावा किया है कि चाणक्य के जैन होने की बात और उसे प्रमाणित करके जैन साहित्यिक साधन सामग्री की ओर ध्यान आकर्षित करने का कार्य सर्वप्रथम उन्होंने किया है, अन्य किसी जैन
अभी-अभी मुझे भी ऐसा लगा था पर तुम जानती हो यह मेरा रक्षाकवच है ।
अब नीरु के निष्प्रभ होने की बारी थी । पर वह मुस्कराती हुई बोली इतने दिन बाद एक सशोधन की बात मुझे सूझती है । क्या ?
यही कि यह रक्षाकवच नही है । तो ।
स्नेहकवच |
विश्वनाथ एक बार तो जैसे नीरु को देखता ही रह गया। कुछ सूझा ही नही। तब तक नीरु ने उसके हाथ के राखी बांध दी और पुरानो राखी लेकर बोली यह मै रखूंगी। तुम ठहरै निर्मोही । तुम्हे भूत भविष्यत से क्या काम ?
और कहकर नीरु खिलखिला पड़ी। तभी उसके पति और विश्वनाथ की पत्नी ने यहाँ प्रवेश किया । पत्नी बोलो ननद जी । क्या मिला है ?
अमूल्य रत्न ।
और तब धूप सी खिलती हुई नीरु ने हाच धागे बढ़ा कर वह राखी दिखा दी ।
विद्वान की दृष्टि इस ओर तक अभी नही गई, अतएव यह उनकी ही नई शोध है । इस सम्बन्ध में मै मुनि जी तथा उनके लेख के पाठको का ध्यान इस तथ्य की ओर ग्राकपित करना चाहूंगा कि गत चालीस वर्षों में कई प्रसिद्ध इतिहास विद्वान इसी प्रसंग पर पर्याप्त प्रकाश पहले हो डाल चुके है, यथा - मुनि श्री न्याय विजय जी अनेकात (वर्ष २, किरण, नवम्बर, १९३८, पू० १०५ - ११५ ) में प्रकाशित अपने लेख 'चाणक्य और उसका धर्म' मे, प्रो० सी० टी० चटजी ने बी० मी० साहा बाल्यूम में प्रकाशित अपने लेख 'अर्ली लाइफ ग्राफ चन्द्रगुप्त मौर्य मे डा० ज्योति प्रसाद जैन ने जैन सिद्धान्त भास्कर, ( भा० १५, कि० १ जुलाई १९४५ ५० १७-२४) में प्रकाशित अपने लेख 'चन्द्रगुप्त चाणक्य इतिवृत्त के जैन साधार में तथा अपनी पुस्तक 'भारतीय इतिहास एक दृष्टि' (भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी से प्रकाशित प्रथम मस्करण १६६१, द्वितीय संस्करण १९६६, पृ० ७६ ६० और वा० कामना प्रसाद जैन ने १९६४ में (विग्य जैन मिशन लीग टा से) प्रकाशित अपनी पुस्तक 'दि रिलीजन ग्राफ तीर्थकराज' ( पृ० १३३ ) मे – सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के राजनीति गुरु एव मन्त्री तथा सुप्रसिद्ध 'अर्थशास्त्र' के रचयिता चाणक्य के धर्म तथा उसके सम्पूर्ण इतिवृत्त पर श्वेताम्बर एव दिगम्बर साहित्य मे निवद्ध अनुश्रुतियो के आधार से प्रभूत प्रकाश पहले ही डाला हुआ है। मुनि श्री महेन्द्र कुमार जी ने भी प्रायः उन्ही सब स्रोतो के आधार से प्रायः उन्ही तथ्यो का निरुपण किया है।
+
सम्भव है, मुनि श्री की दृष्टि में इस विषय पर उनसे पूर्व अत्यन्त विद्वानों द्वारा किया गया कार्य नहीं था पाया। शायद इसीलिए उन्होंने उसका उल्लेख नहीं किया और उसे अपना ही आविष्कार एवं 'नई सोध' समझकर प्रचारित किया है।
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एक ऐतिहासिक खण्ड काव्य
अंजना-पवनञ्जय
भंवरलाल सेठी
(१
अतिशय उज्ज्वल, अतिशय सुन्दर,
परम रम्य है गिरि कैलाश । एक समय उस पर बैठे थे,
नृप महेन्द्र सद्गुण आवास ।।
बोले मंत्री एक एक कर,
अपनी अपनी मति अनुसार। इन्द्रजीत, विद्युत्प्रभ, आदिक, गिना गये बहु राजकुमार ॥
(८) पर प्रधानमंत्री ने सव में,
चुन चुन दूषण लगा दिये। कहा किसी को, है वह मानी,
वह क्रोधी, वह द्वेष लिये।
इनके आसपास मन्त्री सब,
बैठे थे चातुर्य-निधान। नीतिनिपुण, हितचिन्तक, कोविद,
सूक्ष्म-दप्टि, अच्छे मतिमान् ।।
महिप 'महेन्द्र' महेन्द्र पुरी के
मंत्री-मडल में भाये। मानों ताराओं के बिच है,
पूर्णचन्द्र छवि छिटकाये ।।
विद्युत्प्रभ के लिए कहा "वह,
है यद्यपि रमणीय महान् । रूपवान्, तो भी वह त्यागीहोगा जल्दी छोड़ जहान ।।
(१०) इसी लिए हे भूप शिरोमणि,
विनय ध्यान देसुन लीजे। बाई का सम्बन्ध सोचकर,
सर्वोत्तम वर से कीजे ।।
सोच रहे थे नृपवर मन में,
दुहिता हुई सयानी है। किसी योग्यतम राज-तनय को,
इसे शीघ्र परणानी है ।।
इतने में दोनों कर जोड़े,
बोले मंत्री, "श्री महाराज ! सोच रहे हैं क्या प्रमु मन में ?
जो चाहे फरमावें काज" ||
भूपरत्न आदित्यनगर के,
है 'प्रह्लाद' जगद्विख्यात । उनके तनय मनोज्ञ 'पवनजय',
रूपराशि है, है दृढ़ गात ।
कहा नृपति ने "तुम सब मिलकर,
वर बतलायो गुण की खान । राजकुमार अंजना-लायक,
जिसको दं मैं कन्यादान" ||
बुद्धिमान हैं श्रुतसागर,
नीति निपुण हैं, हैं बलवान् । सकल कलाओं में सकुशल हैं, तेजस्वी हैं, हैं गुणवान् ।
(१३) इनके से इस समय नहीं हैं,
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१८८, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
भूमंडल में राजकुमार। राजन इन्हें अंजना देकर,
सुख पावेगे आप अपार"।
सुन प्रधान मंत्री की वाणी।
नरपति का मन मुदित हुअा। सुता पवनंजय को ही दूंगा,
ऐसा दृढ़ संकल्प हुा ।।
सुने पवनजय के गुण गौरव,
हुई अजना खुश मन में । देख कल्पनादृग से उनको,
बिठा लिया हृदयासन में ।
गये वहाँ से फिर सारे जन,
दर्शन करने श्री जी के । भक्ति भाव से बड़े चाव से,
निर्मल करने दग ही के ।।
शास्त्र सभा में बैठ पास ही, दोनों शास्त्र लगे सूनने ।।
(२१) दोनों रम्य शंल की शोभा,
साथ देखने जाते थे। एक दूसरे का गुण देखे, ___ मन में खूब लुभाते थे।
(२२) नृप प्रह्लाद चाहता था यह,
"होय अजना साथ विवाह । मेरे सूनु पवनंजय का तो, मुझको होवे बड़ा उछाह" ।
(२३) रानी भी इसमे राजी है,
राजी है सारा परिवार । और सुना है सच्चे दिल से, __ इसे चाहता राजकुमार ॥
(२४) स्वयं अंजना बड़ी सुशीला,
सारे सद्गुण वाली है। शील शिरोमणि मान पिता ने, शुभ शिक्षा दे पाली है।।
(२५) इतने में ही नप महेन्द्र ने,
अवसर पाय किया प्रस्ताव । "राजकुमार पवनंजय को मम, कन्या देने के है भाव" ।।
(२६) यह महेन्द्र नरपति की वाणी,
आदितपति के मन भाई। 'मेरा भी था यही मनोरथ,' कह प्रसन्नता दिखलाई ।।
(२७) बड़े ठाट से शुभ बेला में,
हुई सगाई यह सानद।
"सपरिवार आदित्यपुरी के,
आये है नृप भी प्रह्लाद । यात्रा को कैलाशधाम की"
सुना मार्ग में यह संवाद ।।
विधि से श्रीजिनवर के दर्शन,
नप महेन्द्र इत कर आये। उधर भूप प्रह्लाद दरस पा, अपने डेरे पर आये ।।
(१६) दोनों भूपति ने आपस में,
मिलने का सकल्प किया। राजरीति से मिले, मधुरतम ;
बातें कर मन मुदित किया ।।
दोनों जाने लगे साथ ही,
श्री जी के दर्शन करने ।
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पाणिग्रहण मुहूरत ठहरा, तीसरे दिन का हो सुखकंद ॥ ( २८ )
बाजे बजने लगे मनोहर, होने लगा मंगलाचार । नहीं समावे मन में ऐसा, सब पर छाया हर्प अपार ॥ (२६) व्योमयान में बैठ शाम को,
सैर प्रवनंजय करते थे । अपने प्रिय प्रहस्त को भी वे, लिये साथ ही फिरते थे । (३०) इतने में हो इनके मन में,
उठा मनोरम एक विचार । "चलो चले छुपकर चल देख,
प्रिया कर रही क्या व्यापार ॥ (३१) "प्यारी प्यारी सखियों के संग, वह बातें करती होगी । मीठी मीठी बड़ी रसीली, मिश्री सी घुलती होगी" ॥ (३२) यो विचार, तज व्योमयान को, चले बड़े चतुराई से । लता वृक्ष की छुपे ओट में, खड़े रहे सुधराई से । (३३) लगे देखने जिधर प्रजना,
बैठी थी सखियों के सग । था नख से शिख तक साँचे में,
ढला हुआ सा उसका अग ॥ (३४) छिटक रही थी रम्य चॉदनी, कुसुम खिले थे रंग विरग । मन्द मन्द मारुत बहता था,
अंजना
उठती थी मन माहि उमंग ॥ (३५)
देख अजना का मुख - सुन्दर, मन में चंद्र लजाता है । इसी लिए क्या वादल भीतर, बार बार छुप जाता है ॥ (३३)
नख से शिख तक इसका जग में, कही नही मिलता उपमान । इससे बस इसकी सी है यह, किये पवनजय ने अनुमान ॥ (४७)
सखी अजना से कहती थी, इसने सुना लगाकर कान । तभी सुन पड़ा "सखी अजना,
बड़ा पवनजय हे गुणवान् " ॥ (३८)
"धन्य धन्य है भाग्य आप के,
मिला मनोहर वर ऐसा । देवाङ्गना विठा ले जिसको,
अपनी आँखो में ऐसा " ॥ ( ३९ ) सुन सुन ऐसे वचन पवनजय,
प्रमुदित होता जाता था ।
रूप-सुधारस रूपवती का,
पीते नही अघाता था ॥ (60) लगी 'मिश्रकेशी' यो कहने,
इतने में ही वात वनाय । " वसन्तमाला ! तू क्या जाने, पुरुष परीक्षा के सदुपाय " || ( ४१ ) भला पवनजय के भीतर कह,
क्या क्या गुण तू पाती है । झूठी बातें बना बनाकर,
बाई को बहकाती है ।
१८६
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१६०, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
(४२) विद्युत्प्रभ को ब्याही जाती,
तो बाई यह सुख पाती। उसके संग मिलन होता तो,
धन्य धन्य यह कहलाती" ।
रचा गया मंडप सुविशाल । उसमें पाणिग्रहण रीति से,
हुआ, हुआ जब शुद्ध सु-काल ॥
ऐसी अपनी निन्दा सुनकर,
हमा पवनंजय क्रुद्ध महान् । और अंजना का दग मूंदे, लख आपे में जरा रेहा न ।।
(४४) कहने लगा और मन ही मन,
___ "दुष्टा निन्दा सुनती है। विषरस भरे कनक घट की सी,
मुझको तो यह दिखती है ।
आनंद हर्ष मनायासबने,
रडे वहाँ फिर दिन दो चार । गये सभी फिर निज निज घर को, ___ कर अपना लौकिक व्यवहार ।।
(५२) अपनी सुता अंजना को भी,
नप महेन्द्र ने विदा किया । हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर,
माल-खजाना खुव दिया ।।
"इसको सजा मिले सो अच्छा,
उसका है बस यही उपाय" । पर, इसने बिलकुल नहिं सोचा,
"यह तो मुझ पर रही लुभाय" ।।
"प्रथम सखी की वाणी सुनकर,
मेरा ही शुचि ध्यान लगाय । बाह्य विकार रहित हो बैठी, रोक इन्द्रियों का समुदाय ।।
(४८) इससे इसने नही सुने कुछ,
सखी मिश्रकेशी के बेन । ध्यानमग्न योगीसम इसने, ___ मूंद लिये हैं दोनो नन" ।।
(४६) चले वहाँ से गये पवनजय,
चढ़ विमान पर घर आये। सारी रात जागे, भ्रमवश होप्रार्तध्यान कर दुख पाये ।।
(५०) मानसरोवर के तट ऊपर,
साथ अंजना पवनजय को,
लेके घर आये प्रह्लाद । मगल बाजे बजे मनोरम, घर घर हुए हर्प के नाद ।।
(५४) थोड़े दिन तक तो परिजन ने,
पाया नही यही संवाद । नही अजना को छूता है,
पवनकुमार धार सुविषाद ।।
(५५) पर धीरे धीरे यह सबको,
जान पड़ा दुख है भारी। सब सुखयारी समझे जिसको,
वही अजना दुखियारी ॥
(५६) रहती रात दिवस चिन्ता में,
कब देगे दर्शन स्वामी। कव होगी पूरी अभिलाषा,
कब पाऊंगी सुख नामी ॥
(५७) रोती कभी कभी दुख पाती,
लेती कभी दीर्घ निश्वास ।
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अंजना
पछताती पछताती दुखिया,
तज देती थी जीवन-आश ॥
(५८) बरसों बीत गये दुखिया को,
पाये नहि पीके दर्शन। छलिया कपटिन पगली कहते,
झुका पवनजय का नहि मन ॥
(६५) ऐसे विनती कर प्राज्ञा ले,
सजा सैन्य चढ़ चला कुमार। मूर्तिमान जा रहा वीररस,
मानों लिए ढाल तलवार ।
लाख लाख तकलीफ उठाती,
तरुणी हा हा खाती थी। नही पवनंजय के मन को वह,
तो भी पिघला पाती थी।
लेकर मंगल द्रव्य मनोरम
पतिव्रता सन्मुख पाई। सती अजना, पर वह पति से,
तिरस्कार भारी पाई ॥
मन था या अनघड पत्थर था,
लोहा था या वज्जर था। प्रेम भिखाग्नि परम सन्दरी,
नारी को न जहां स्थल था ।
चली गई दुखिया महलों में,
व्याकुल करने लगी विचार । देखे जय पाकर पाते हैं,
कब तक मेरे प्राणाधार ।।
(६८) दिन भर चल सेना जा ठहरी,
मानसरोवर के शुचि तीर । लगे टहलने ले प्रहस्त को,
तीरों तीर पवनजय वीर ।।
बरसों बीत गये ऐसे ही,
स्त्री को दुख पाते पाते । तो भी रुके न पति के जी में,
दुष्ट भाव आते आते ॥
(६२) इतने में प्रह्लाद भूप पर,
पत्र लकपति का प्राया। सैन्यसहित सज रण में शामिल,
होने को था बुलवाया।
वहाँ नजर आया चकवे को,
झपट ले गया पक्षी बाज । चकवी तड़प तड़प जी देती,
करती हुई आर्त आवाज ।।
कहा पवनजय ने पढ उसको,
पूज्य पिता मै जाऊँगा। क्षत्रियसुत कैसे होते हैं,
रण में यह दिखलाऊँगा।
(६४) नृप रावण के सब रिपुत्रों को,
दल दल मार भगाऊँगा। अपना अपने कुल का गौरव ।
जग में पूर्ण जगाऊँगा।
उड़ती कभी कभी भूतल पर,
गिरती पड़ती चलती थी। अपनी छाया को जल में लख,
चकवा जान लपकती थी।
(७१) चकवा कहाँ कहाँ चकवी थी,
चकवा तो तज गया जहान । चकवी का दुख लखा न जावे,
थी संकट में उसकी जान ।
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१९२, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
(७२) इस घटनासे पवनजयके,
दिलपर असर पड़ा भारी। लगा कोसने अपने को ही,
मैं हूँ दुष्ट बड़ा भारी॥
मेरे हो प्रभु प्राणाधार । जीवन धन हो आनंदघन हो, सरबस हो मेरे सरदार ॥
(८०) भूल चूक अपराध हुए हों,
" मुझसे उन्हें क्षमा करिए। हूँ अबला अनजान मूढ़ में,
मेरे दोष न हिय धरिए॥
मम वियोगमें मेरी प्यारी
क्या क्या दुख न उठाती है। इस चकवीसे भी वह ज्यादा,
बार बार बिलखाती है।
हूँ हत्यारा, हूँ मैं पापी,
बड़ा घातकी हूँ मैं कर। जो अबला को दुग्ब देने को, रहता हूँ उससे अति दूर ।।
(७५) औरों से बाते करता हूँ,
घुल घुल कर प्यारी प्यारी। पर अपनी सच्ची प्यारी को,
___ कहता हूँ दुष्टा नारी ॥
निज को धिक धिक कह पछताता,
चला गया प्यारी के पास । लगा मॉगने क्षमा दीन हो,
मन में होता हुआ उदास ॥
सुनी अंजना की मृदु वाणी,
हा पवनजय बड़ा प्रसन्न । हँसी खुशी में समय बिताया,
मा बापों से रह प्रच्छन्न ।
(८२) वीर वेश में सजा हुअा था,
जाना था रण को चढ़कर। पीछे जाने लगा सैन्य में,
तभी अजना ने नमकर-॥
(८३) 'स्वामी की जय हो जय हो' कह,
जय-कंकण बाँधा कर में । "तेज नाथ का ग्रहण किया है,
और कहा-"अपने उर में" ॥
(८४) "इसी लिए स्वामी विनती है,
निज मुद्रा मुझको दीजे । रिपु को जीत नाम पा जल्दी,
दासी की फिर सुध लीजे ॥"
(८५) दासी नही सुन्दरी तू है,
मेरे प्राणों की प्यारी। चिन्ता न कर शीघ्र आता हूँ, रिपुबल मर्दन कर प्यारी॥
(८६) यों कह निज मुद्रा दे खुश हो,
गया पवनंजय निज दल में । इधर अंजना खुशी हुई अति,
पति प्रेम पाकर दिल में ॥
चरणो में गिर पड़ी अजना,
मेरे जीवन, मेरे प्रान । मेरे कर्मों का दूषण था,
नही आपका दोष सुजान ।
..
..
मेरे मोती, मेरे माणिक,
चन्दा हो मेरे प्रभु आप । मेरे सब शृगार आप हो,
मेरे सब भूषण हो आप ॥
(७६) मैं इन चरणों की दासी हूँ,
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अंजना
१६३
दुखिया पापों की मारी। अपने माता पिता के घर पर, तिरस्कार पाई भारी॥
(६५) पा अपमान चली जंगल में,
निराधार दुखिया वाला। दुख-सुख-संगातिन थी सँग में,
प्यारी सखि वसन्तमाला ।।
(८७) थोड़े दिन ही भीतर बाते,
लगी फैलने चारों ओर । हुई अजना गर्भवती है, पाप किया इसने अति घोर ॥
(८८) कोई कहने लगा "अंजना,
बड़ी सती थी कहलाती। पर, ऐसी है, इसी लिए तो,
नही पवनंजय को भाती॥"
(८६) कहा किसी ने "वाह वाह जी,
क्या ऐसा हो सकता है ? वड़ी सुशील है वह, उसके लिए व्यर्थ जग बकता है।"
(६०) "तुम हो भोले भाले भाई,
त्रियाचरित तुम क्यों जानो। जो छल कपट अंजना करती,
कहो उन्हे तुम क्या जानो।"
धीरे धीरे ऐसी बात
पहुँची राजा रानी को। उनको हुआ बड़ा भारी दुग्व,
हो दुख क्यो नहि मानी को!
(६२) रानी केतुमती झट पाई,
अपनी पुत्रवधू के पास । गर्भवती जब उसको देखी,
लगी डालने तब निश्वास ।।
(६३) कोप अजना पर कर भारी,
उसको दिया तुरन्त निकाल । तथ्य कथन, मुद्रा दिखलाना,
उसको इसने माना जाल ।।
प्रथम भिणी, फिर वह वन-महि,
चला न कुछ भी जाता था। कठिनाई से राम राम कर,
कुछ कुछ पद उठ पाता था ।।
(६७) धीरे-धीरे गल-गुफा तक,
पहुंची, पहुँची मुनि के पास । कुशल पूछ वचनामृत सुनकर,
मन मे बंधा इसे विश्वास ।।
(६८) चैत्र शुक्ल अष्टमी तिथि को,
बीती जब थी आधी रात । हुना अजना के बलशाली,
तेजस्वी बालक दृढगात ।।
(86) इतने में ही सिंहगर्जना,
एकाएक हुई भारी। प्रतिधुनि से सारे जगल में,
कोलाहल छाया भारी ।।
(१००) चिल्ला उठी अंजना इससे,
भय खाकर अपने मन में। इतने में ही व्योमयान इक,
आया इसके ढिंग पल में ।।
(१०१) उससे उतरे नृप प्रतिसूरज,
पूछा उनने इसका हाल ।
(६४)
गई कोसती हुई गर्भ को,
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१६४, वर्ष २६, कि० ४-५
बातें कर जाना यह तो है, सती अंजना मेरी बाल ॥
(१०२)
अपना परिचय देकर बोले,
तमामा प्रतिसूरज हूँ । बेटी, घर को चलो, चले अब, चलने को मैं उद्यत हूँ ।। (१०३)
'अच्छा चलिए' कह सब बैठे,
जल्दी चलने लगा विमान । रास्ते के भीतर हाथों से,
छिटक पड़ा बालक बलवान ॥ ( १०४ ) हा हा कर सब नीचे आये,
देखा तो खुश था बालक । चोट न उसको कुछ आई थी,
फुट गया गिरि पत्थर तक ॥ (१०५) बच्चे को कर प्यार साथ ले,
प्रतिसूरज निज घर आया । सती अजना ने निज शिशु का,
यहाँ प्राय आनद पाया ॥ ( १०६) आनंद मना रही थी कुछ कुछ,
पर यह क्या श्राया सवाद । जिसको सुन हो गई अजना,
मूर्च्छित मन में पाय विषाद ॥ ( १०७) "विजयश्री को पाकर श्राये,
वीर पवनजय निज घर पर ।
नही अजना को जब पाई,
चले गये वन, घर तजकर ॥" (१०८) अपनी भगिनी की तनया को, प्रतिसूरज ने किया सचेत ।
अनेकान्त
कहा प्रजना मत घवरा तू,
जाता हूँ मै खोजन हेत ॥ (१०) होंगे जहाँ वहाँ से उनको, ले आऊँगा तेरे पास । चिन्ता न कर जरा भी मन में,
प्रभु पर पूरा रख विश्वास ॥ ( ११० ) यों कहकर प्रतिसूरज नृप ने,
प्रादितपुर को किया प्रयाण । केतुमती प्रह्लाद भूप को,
समाचार जा दिये महान् ॥ ( १११)
सती अंजना मेरे घर है,
हुआ पुत्र उसके शुचिगात । पर वह पति के दर्शन को है,
कुलाती रहती दिन रात ॥ ( ११२) दीनवदन राजा रानी ने,
कहा. आपका है उपकार । भ्रम में पड हमने ही उसका,
किया बड़ा ही है अपकार ॥ ( ११३ )
जीती है, पुत्र हुआ है,
अच्छे है सब, अच्छा है । मिल जावे व पवन हमारा, तब यह जीवन अच्छा है || ( ११४) बार बार ऐसा कह कह कर,
पछताते थे नृप प्रह्लाद । केतुमती प्रसू बरसाती,
रोती थी कर बातें याद ।। ( ११५ ) हाय शुद्धशीला को हमने,
घर के बाहर दिया निकाल ।
वह
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अंजना
१९५
अपने पैरों आप कुल्हाड़ी,
मारी किसको कहिए हाल ।
समझा बुझा इन्हें प्रतिमूरज,
कहने लगा करो मत देर । खोज लगावे भली भाँति से,
लाव शीघ्र पवन को हेर ॥
(११७) सभी चले नप महेन्द्र को भी,
अपने सँग में बुलवाया। खोजा जहाँ तहाँ अाखिर में,
सघन गहन वन में पाया।
ध्यान लगाकर उस जगल में,
बैठा था निश्चल होकर । प्रिये प्रिये मन में रटता था,
दिखता था कोरा पजर ।।
मामी-ससुरा भी देखा। देखा सब कुछ पर न प्रिया को,
इधर उधर झोंका देखा ।।
(१२२) प्रतिसूरज ने कहा “कृपाकर,
सब मेरे घर को चलिए। वहाँ अंजना बाट देखती
होगी, उसका दुग्व हरिए ।”
(१२३) हनुद्वीप को सभी गये तव,
हुअा वहाँ पर मॅगलाचार। मिली अंजना निज स्वामी से,
सुखी हुआ सारा परिवार ॥
(१२४) बेटा पुत्रवधू पोते को,
पाकर केतुमती-प्रह्लाद । कवि की कलम न कह सकती है,
कैसा हुआ उन्हें प्राह्लाद ।।
(१२५) प्रतिसूरज त्यों महेन्द्र नृप के,
अानद का कुछ रहा न पार । सती अंजना के सतीत्व को,
मान गया सारा ससार।
(१२६) प्रानदमंगल छाया सब में,
हा प्रशसित शीलसिगार। सती अजना का अति सुदर,
छाया जग में जयजयकार ॥
कहा पिता ने प्यारे वेटा,
उठो उठो वया करते हो। माता पिता श्वसुर सब जनका,
दुख क्यो नहि उठ हरते हो ।
(१२०) "प्यारी-प्यारी प्रिये अजना,
आ. मिल,' सहसा बोल उठा। पर जब देखा पुज्य पिता को..
सकुचाया नत होय उठा ।।
(१२१) माता देखी ससुरा देखा,
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नैतिक-कथा
उत्थान-पतन
-श्री ठाकुर
(१)
भर उठा वह, अंग अंग ऐंठने लगे उसके और आवेग में बुद्धिषेणा ने जब लेटे ही लेटे अगडाई ली तो मानो उसने बुद्धि को अपने भुजपाश मे जकड़ लिया। बद्धि ने कक्ष की छाती फाड़कर एक बिजली की रेखा खिच गई। इसका कोई विरोध नहीं किया, वह सर्वान्त करण से मोम श्रेष्ठी रामभद्र ने जाने कितनी देर से तृषित नेत्रो से के अंक मे लिपट गई। उसकी ओर देख रहा था। बुद्धिषणा ने मञ्जुल हास्य भवन भास्कर ललचाए से देखते रहे, पवन बुद्धि के बिखेरते हुए उसकी ओर देखा । गवाक्ष में लटकी मोतियों आँचल से सिर धुनता रहा । की माला में अरुणिमा झाक रही थी। सोम को आज इस तभी मोम पूछ बैठा-देवी ! तुम अभी क्या मोच अरुणिमा में एक नयापन अनुभव हुअा अपूर्व और उन्माद रही थी? कारी। उसे स्मरण हो पाया-आज तो मदनपर्व है। आर्य ! मैं सोच रही थी, क्या किसी के प्रति प्रामक्ति तभी बासन्ती बयार ने गवाक्ष के रास्ते से चुपके से प्रवेश ही जीवन का चरम लक्ष्य है ? उसने मुस्कराते हुए उनर किया और बुद्धिषणा की लटो से खेलने लगी।
दिया। सोम ने बधाई दी-देवी। अाज मदनपर्व है। मेरी तो तुम किस निष्कर्ष पर पहच सकी देवी बधाई स्वीकार करें।
मै तो जीवन में जिस एक निर्णय पर पहची है, वह बुद्धि गर्व मे भर उठी। नगर की वह सर्वश्रेठ सुन्दरी यही है जो अब है । मै जीवन का अर्थ समझती हु वासना है, नगर बधू का उसे सम्मानपूर्ण पद प्राप्त है। अयोध्या अतृप्ति, आसक्ति और मदिग। मै सोच भी नहीं पाती, के सारे युवक उसकी एक मुस्कुराहट के लिए लालायित क्या इनके सिवाय भी कोई जीवन है ? रहते है। राजकुल के रसिक भौरे उसकी रूप सुगन्धि से किन्तु जीवन की रिक्तताए क्या केवल वासना और आकर्षित होकर रसपान के लिए मंडराया करते है । पाँच मदिरा से ही भर सकती है ? क्या यही एक दिन वितृष्णा वर्ष से वह नगर की हृदयेश्वरी बनी हुई है। उसके न बन जाएगी, सोम ने बुद्धि को टटोलते हुए पूछा। मन जीवन में अनेको ने स्थान बनाना चाहा और निराश होकर की प्राशका का प्रश्न बन कर-फूट पड़ी। चले गये । किन्तु
किन्तु इस प्रश्न ने बुद्धि को चचल कर दिया। वह सोचने लगी-श्रेष्ठी सोमभद्र के प्रति मेरे मन मे ।
उसने सोम को जोर से जकडते हुए कहा-आर्य पुत्र जो एक लगाव, एक मोह जाग उठा है, उसने मुझे चारो।
वितृष्णा की बात न करे। इस अक मे स्थान पाकर अोर से जकड़ लिया है। सचमुच क्या यह प्रासक्ति ही वितष्णा कैसी? जनम जनम की साध के बाद ही मुझे जीवन का चरम लक्ष्य है ? ।
मेरे काम देव मिले है। तब अपने कामदेव से रति को बह उठी, मदिरा पात्र से रत्न चषक में मदिरा उडेल वितृष्णा हो जाए। यह क्या कभी सम्भव हो सकेगा? कर अपने पोठो से लगाई और मुस्कराकर सोम के मुख और उसने पडे-पडे ही मदिरा पात्र से चषक में फिर मदिरा में लगा दी। सोन की बधाई का ही उत्तर था यह। उड़ेंल कर सोम के मुंह से लगा दी और सोमने भी अांखों सोम के प्यासे अधर मधुपान से तृप्त न हो सके। वह मे कामना भरकर अपने हाथों से बुद्धि को एक चपक पान अतृप्ति एक आकांक्षा बन कर पुकार उठी। उन्माद मे करा दिया।
वितणाव मिले
म के म
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उत्थान-पतन
१९७
मदिर न ले जा सकी। और तभी उसने आदेश दिया--रथ ग्राज वसन्तोत्मव है। अयोध्या के राजपथ और बन की ओर चलेगा । कामी युवको के मन पर यह आदेश वीथियाँ नर-नारियो से मकुल है। बुद्धिपणा के प्रासाद ने उल्का पात बनकर टूटा। किन्तु आदेश का पालन किया प्रकोष्ठ में और बाहर अमख्य युवक मल्लिका और यूथिका गया । देवी एक योद्धा की तरह युद्ध विजय की लालमा की मालाएं लिए खड़े है। वे देवी की प्रतिक्षा में अधीर मन में छिपाए बढ रही थी असीम विश्वास के साथ । होर रहे है। वे देवी के दर्शनो के लिए प्राकुल है।
जब देवी बुद्धिपणा सम्पूर्ण शृगार के साथ अपने शिलातल पर एक दिगम्बर मनि विराजमान थे। स्वर्णरथ की पोर वढी तो युवक दल ने उस पर पुष्प उनके नेत्री से अनन्त करुणा प्रवाहित हो रही थी। मख बरसाये । पुष्प मालायो से उसका रत्नहार ढक गया। पर बीतरागिता का लावण्य विखर रहा था और एक फलो की मालानो मे वह ऐसी लग रही थी मानो कोई दिव्यप्रभा मण्डल प्रभासित था। जिमसे दूसरे के मन में वाग्देवी ही अवतरित हुई हो।
अानक नहीं, किन्तु आश्वासन मिलता था। अमख्य श्रोता युवक-दल में रथ खीचने के लिए स्पर्धा सी हो गयी। जन श्रद्धा के माथ उसकी अमृतवाणी का प्रास्वादन कर मार्ग में लोग देवी का अभिवादन करते और देवी मम्कुग रहे थे । कर उसे ग्रहण करती । और यो देवी का रथ राजपथो पर रूप गविता बुद्धिपणा का विश्वास था कि उसके होकर मदन मदिर की ओर जा रहा था।
पहुंचते ही सारे नागरिक सम्मान के माथ उठ खड़े होगे किन्तु नगर के बाहर मदनोद्यान में बने मदन मदिर पीर वह माधु तो-। की ओर जाने की बजाय, उस मार्ग पर अधिक भीड़ जा किन्तु जब वह पहुची तो वहाँ कोई चचलता न दीख रही थी, जो वन की ओर गया था। देवी को बडा कौतूहल पड़ी। सब कुछ शान्त था । श्रोताओं ने उसकी ओर लक्ष्य हुअा। आज उसके विजयोल्लाम का दिन है। आज वह तक न दिया। इमसे उमका अभिमान मर्माहित हो उठा। फिर एक बार नगर की सभी ललनामों पर अनिन्द्य मौन्दवं वह उद्धतभाव से अपने गौरव का स्मरण कर मबसे के कारण विजय प्राप्त करेगी। युवक-वर्ग एक बार फिर
आगे जा बैठी। एक अोर सबको प्रशकित करता उच्छ ग्खल उसकी मुस्कराहट पर लोट-पोट होगा। राजन्यवर्ग उसके
बरसाती नाला बह रहा था और दूसरी पोर गुरु गम्भीर मादक नृत्य से फिर एक बार झूम उठेगा किन्तु वह कौनसा
ममद्र गबको अभिभूत कर रहा था। वासना का ऊट आकर्षण है। जिससे प्रेरित होकर ये नरनारी उसके उत्सव
बीतरागता के पहाड़ के नीचे आकर अपनी ऊँचाई नापने को टकराकर निर्जन नीरम बन की ओर अभिमुख हो रहे में लगा था। है। उसके मन पर ईर्ष्या की एक गहरी रेखा विच गई। मनिराज उपदेश दे रहे थे--मानव जीवन का लक्ष्य इस रहस्य को सुलझाए बिना उको चैन न मिलेगा। क्या है? ग्रापने कहा-मानव जीवन मनभ ग्रऔर गरज
उसने अपनी परिचारिका मदन लेखा से इसका कारण प्राप्य नही है। इमलिए इसका अधिक से अधिक मुन्दर जानना चाहा तो मदन लेखा ने ससभ्रम उत्तर दिया- उपयोग करना है। इसका उपयोग वासना में नही करना देवी ! प्रीतंकर नाम के एक दिगम्बर जैन मुनि वन प्रान्त भोगो मे नही करना है। इनमे तो मानव जीवन का सारा मे विराजमान है। उसके दर्शन-उपदेश के लिए ही सारा रस ही सूख जाएगा । राज परिवार और नागरिक जन उधर जा रहे है।
बुद्धिषेणा ने समझा-यह मेरे ऊपर व्यंग्य है। वह बुद्धिपणा के रूप को यह चुनौती थी। उसका पाहत अपना आवेग न रोक मकी और बोली-लेकिन वामना गर्व फुकार उठा-प्रोह ! नगटे साधु को मेरे साथ स्पर्धा मे तो स्पष्ट सुख है। प्रत्यक्ष सुख को छोड़कर अप्रत्यक्ष करने की धोस । बुद्धिपणा की सारी रूपराशि व्यर्थ हो मुख की कल्पना में कष्ट उठाना तो बुद्धि मानी नहीं है। जाएगी, यहि वह इस नंगटे को अपने वश में करके मदन श्रोताओं के मुख विकृति से सिकुड़ गए।
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१६८, र्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
मुनिराज के सहज शान्ति के साथ उत्तर दिया- एक पतली-सी रेखा दिखाई पड़ने लगी और उस रेखा भद्रे ! तुम भ्रम मे हो । जिसमे अतृप्ति हो, आकुलता हो के आलोक मे ही वह अपने को भी देख सकी है । पहिले उसमे सुख कहाँ ? वासना से क्या कभी किसी को तृप्ति वह विलास के नीचे भी नि सत्व थी और आज ! उस मिल सकी है ? वासना खाज को खुजाते समय सुख स्तूप को ठुकराकर भी वह वैभव सम्पन्न हो गई है । अब मालूम पड़ता है किन्तु क्या वह वास्तिविक सुख है ? सुख उसने जो पाया है, वह तो जन्म-जन्मान्तर का संचित कोष वह जिसका परिणाम सुख हो, जिसमे शान्ति हो, सुख हो। है । अब इस कोप ने मिलकर उसके रूप को प्रभासित क्या वासना का सुख ऐसा ही है ?
कर दिया है। किन्तु रूप की इस प्रभा में आज स्निग्धता बुद्धिषणा की मूर्खता पर यह करारा तमाचा लगा। नही, अपितु अातंक व्याप्त हो गया है। अब रूप लुब्ध वह तिलमला उठी। उसने अपना अन्तिम तीर निकाला। युवक उसके चारों ओर नही मडराते । अब उसके प्रासाद विलास और उल्लास सहज प्राप्य नहीं है तो उनका भोग मे पायलो की झनक और मुद्रामो की खनक नही सुनाई ही तो मानव जीवन की चरितार्थता है। इस अवसर को पड़ती। अब उसने स्वेच्छा से नगर बध का गौरव त्याग गवाकर ही तो मानव जीवन, का रस सूख जाता है। दिया है। किन्तु विचित्रमति मदन की पुकार को न ठुकरा मानव जीवन मे तब रह ही क्या जाता है। इस लिए सके । वे आज बुद्धिपेणा के रूप की अग्नि में शलम बनजीवन के जो क्षण विलास और वासना मे बीत जाए। कर कूद पडग। उनको ही मै धन्य समझती हूँ।
यह रूप । आह ! मुनि के हृदय से एक नि श्वास मुनिराज बोले-भद्रे ! गलत समझी हो। वे क्षण
निकल गई। सत्य नही । जीवन की यही सबसे बड़ी बिडम्बना है। वे अमर नही, स्थायी नही, क्षण भगुर है। जिम रूप और
आकस्मिक रूप से आए हुए मुनिराज को देखकर यौवन पर मनुष्य को गर्व है, वह क्षणिक है । किन्तु मानव
बुद्धिपेणा चकग गई । उसने श्रद्धा से विनत होकर निवेजीवन का सत्य क्षणिक सुख नही, अनन्त सुख है। वह
दन किया- मेरे अहो भाग्य है । अाज धर्म अप्रत्याशित वासना के राजपथ से नही। त्याग के विपम मार्ग से चल रूप से मेरे द्वार पर पाया है। विराजिए धर्म राज । कर ही मिल सकेगा?
किन्तु मोहान्ध विचित्रमति पर इसका कोई प्रभाव __बुद्धिपणा का गर्व नष्ट हो गया। मुनिराज ने उसकी
नही पडा । वे बोले–मै भिक्षुक हूं। क्या यह भिक्षा आखो में उंगली डालकर उसे सत्य के दर्शन करा दिए थे। ।
भिक्षा मझे मिल सकेगी। और जब वह वापिस लौटी तो उसकी देह पर प्राभूषण
बुद्धिपणा इस अकल्पित उत्तर पर सहसा विश्वास न का चिह्न तक न रह गया था। आज उमने जो पाया था,
कर सकी-एक मुनिराज ने मुझे नरक से निकालकर-- वह अपूर्व था और उस पर उसे सन्तोष था।
यहा खड़ा किया था और आप मुझे यहा से धकेलकर फिर
नरक मे डालना चाहते है । क्या हमारे जीवन का एकमुनिराज विचित्रमति चर्या के लिए नगर में जा रहे
मात्र लक्ष्य नरक ही है ?
विचित्रमति ने सुना। वे चौक पड़े-क्या कहा, एक थे । यकायक उसकी दृष्टि बुद्धिषेणा पर जा टिकी। वह खड़ी-खड़ी अपने विराट जीवन का अवलोकन कर रही ।
मुनिराज ने तुम्हें नरक से निकाला ? कौन थे वे मुनि
राज? थी। उसने पाया कि उसके सारे जीवन मे कालिमा-केवल उनका पवित्र नाम प्रीतकर मनिराज है। कहतेकालिमा ही पुती हुई है। उसके जीवन का लक्ष्य ही उस कहते बद्धिषेणा ने श्रद्धा से हाथ जोड़कर परोक्ष प्रणाम कालिमा को समेटना रहा है । जब से उसने मुनिराज से किया। सुना कि वासना जीवन का चरम सत्य नही है चरम सत्य क्या कहा, प्रीतंकर मुनिराज ! मेरे गुरु ! मुनि के है त्याग, तबसे उसके अन्वकारपूर्ण जीवन में प्रकाश की मुख पर कालिमा पुत गई । पश्चात्ताप से उनका हृदय
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अहिच्छत्र श्री बलिभद्र जैन
स्थिति-अहिच्छत्र उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की की ओर देखा। पार्श्वनाथ के हाथों हए अपमान का आँवला तहसील में स्थित है। दिल्ली से अलीगढ़ १२६ प्रतिशोध लेने को आतुर हो उठा और अनेक प्रकार के कि० मी० तथा अलीगढ से बरेली लाइन पर (चन्दौसी भयानक उपद्रव करके उन्हे त्रास देने का प्रयत्न करने से आगे) आवला स्टेशन १३५ कि. मी० है । प्रावला लगा। किन्तु स्वात्मलीन पार्श्वनाथ पर इन उपद्रवो का स्टेशन से अहिच्छत्र क्षेत्र १८ कि० मी० सड़क द्वारा है। रचमात्र भी प्रभाव नही पड़ा । न वे ध्यान में चल-विचल आवला से अहिच्छत्र तक पक्की सडक है । स्टेशन पर हा और न उनके मन में पानतायी के प्रति दुर्भाव ही तागे मिलते है। इसके अतिरिक्त इसी रेलवे लाइन पर पाया । तभी नागकुमार देवो के इन्द्र धरणेन्द्र और उसकी करेंगी स्टेशन मे ८ कि० मी० तथा रेवती बहोड़ा खेडा इन्द्राणी पद्मावती के पासन कम्पित हए। वे पूर्वजन्म मे स्टेशन से ५ कि० मी० दिना मे पटता है । विन्तु सुविधा नाग-नागिन थे । मवर देव वाम तप-वी था। पार्श्वनाथ पावला स्टेशन से अधिक है। इसका पोस्ट ग्राफिग गम- उस समय राजमार थे । जब पावकुमार मोलह वर्ष के नगर है।
किशोर थे, तब गङ्गा-तट पर सेना के साथ हाथी पर चढ ____ कल्याणक क्षेत्र-अहिच्छत्र आजकल रामनगर गाव कर वे भ्रमण के लिए निकले । उन्होंने एक तपस्वी को का एक भाग है । इसको प्राचीन काल मे सख्यावली नगरी देवा, जो पचाग्नि तप तप रहा था । कुमार पार्श्वनाथ कहा जाता था। एक बार भगवान पार्श्वनाथ मनि-दशा अपने अवधिज्ञान के नेत्र से उसके विडम्बनापूर्ण तप को मे विहार करते हुए सख्यावली नगरी के बाहर उद्यान में ।
देछ रहे थे । इम तपस्वी का नाम महीपाल था पीर यह पधारे और वहा प्रतिभा योग धारण करके ध्यानलीन हो पावकुमार का नाना था। पावकुमार ने उसे नमस्कार गए सयोगवश सवर नामक एक देव विमान द्वारा आकाश-. नही किया। इससे तपस्वी मन में बहुत क्षुब्ध था। उसने मार्ग से जा रहा था। ज्योही विमान पार्श्वनाथ के ऊपर लकड़ी काटने के लिए अपना फरमा उठाया ही था कि से गुजरा कि वह वही रुक गया। उग्रतपस्वी ऋद्धिधारी भगवान पार्श्वनाथ ने मना किया 'इसे मत काटो, इसमे मनि को कोई सचेतन या अचेतन वस्तू लांघकर नही जा जीव है।' किन्तु उनके मना करने पर भी उसने लकड़ी सकती । संवर देव ने इसका कारण जानने के लिए नीचे काट डाली। इससे लकडी के भीतर रहनेवाले मर्प और
- - सपिणी के दो टुकड़े हो गए । परम करुणाशील पाच प्रभु उच्छ्वसित हो उठा-देवी मै राहभ्रष्ट हो गया था, ते अपने अमह्य वेदना मे तडपते हुए उन सर्प-मपिणी को तुमने मुझे राह बता दी। मां ! क्षमा करो मुझे । आज को णमोकार मन्त्र मनाया । मन्त्र मुनकर वे अत्यन्त शांत कंचन के मोल काच खरीदने चला था । तुमने मुझे बचा भावा के माथ मरे और नागकुमार देवो के इन्द्र और लिया। मुझे क्षमा करो कहते हुए विचित्रमणि तेजी मे इन्द्राणी के रूप मे धरणेंद्र और पद्मावती हुए महीपाल । निकल गए।
अपनी सार्वजनिक अप्रतिष्ठा की ग्लानि मे अत्यन्त कुत्सित बुद्धिषणा गौरव से भर उठी। वह सोचने लगी- भावो के माथ मरा और ज्योतिष्क जाति का देव बना। जीवन के इस उत्थान-पतन का एकबार फिर उसका भूत- उसका नाम अव सम्बर था । उसी देव ने अब मुनि पार्श्वकालीन जीवन चित्रपट की भाति उसकी आखो मे फिरने नाथ में अपने पूर्व वैर का बदला लिया एव धरणेद्र और लगा।
पद्मावती ने पाकर प्रभु के चरणों मे नमस्कार किया ।
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२००, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
धरणेंद्र ने सर्प का रूप धारण करके पार्श्वनाथ को ऊपर मृत्यु के सम्बन्ध में पूछा। गुरु बोले-महिला के निमित्त उठा लिया और सहस्र फण का मण्डप बनाकर उनके ऊपर से तुम्हारी मृत्यु होगी। यह सनकर शिवशर्मा एकन्त वन तान दिया। देवी पद्माहती भक्ति के उल्लास में वज्रमय में जाकर तपस्या करने लगा। वनदेवियाँ उन्हे याहार छत्र तानकर खड़ी हो गई। इससे सवर देव पार्श्वनाथ के देती थी। साथ-साध धरणेद्र और पद्मावती के ऊपर भी क्षुब्ध हो एक दिन गगादेव नट अपनी पुत्री मदनवेगा और उठा । उसने उनके ऊपर भी नाना प्रकार के ककश वचना साथियों के साथ उसी वन में प्राकर कराया से प्रहार किया। इतना ही नहीं, प्रॉधी, जल, यर्षा, उपल दुष्टि मदनवेगा पर पड़ी। वह देखते ही उस पर मोहित वर्षा प्रादि द्वारा भी चोर उपद्रव करने लगा।
हो गया। मदनवेगा की भी यही दशा हुई। नट ने दोनों किन्त पार्श्वनाथ तो इन उपद्रवों, रक्षा प्रयत्नो अोर का विवाह कर दिया । अब शिवशर्मा नट मण्डली के साथ क्षमा-प्रसगो से निलिप्त रहकर आत्म-ध्यान मे लीन थे। रहने लगा। उन्हे तभी केवल ज्ञान उत्पन्न हो गया। तब चैत्र कृष्णा एक बार नट-मण्डली भ्रमण करती हुई अहिच्छत्रपुर चतुर्थी का दिन था। इन्द्रो और देवो ने आकर भगवान पाई। सयोग से शिवशर्मा की भेट अपने पूर्व गुरु मनि के ज्ञान कल्याणक की पूजा की । जब इन्द्र ने वहां अपार दभवर से हो गई। उन्होने उसे समझाया और जो अनुजल देखा तो उसने इसके कारण पर विचार किया। वह
चित कृत्य किया है, उसके त्याग का उपदेश दिया। गुरु सवर देव पर अति ऋद्ध हया । सवर देव भय के मारे
का उपदेश सुनकर उसे भी अपने कृत्य पर पश्चाताप कांपने लगा । इन्द्र ने कहा-तेरी रक्षा का एक ही उपाय
हा । वह प्रायश्चित लेकर पुन मनि बन गया। घोर है कि तू प्रभु से क्षमा याचना कर । सबर प्रभु के चरणो
तप किया । और बराड देश की वेत्तातट पुरी में जाकर में जा गिरा। तत्पश्चात, इन्द्र की आज्ञा से धनपनि कुवेर
उसे मोक्ष हो गया। ने वही पर समवसरण की रचना की और भगवान पाश्व
अतिशय क्षेत्र-भगवान पार्श्वनाथ के सिर पर धरणेद्र नाथ का वहाँ पर प्रथम जगत्कल्याणकारी उपदेश हुमा।
द्वारा सर्प-फण लगाने और भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न नागेद्र द्वारा भगवान के ऊपर छत्र लगाया गया था,
होने के पश्चात्, लगता है, तहाँ की मिट्टी में ही कुछ अलौइस कारण इस स्थान का नाम सख्यावती के स्थान पर
किक अतिशय आ गया । यहाँ पर पश्चाद्वर्ती काल में अहिच्छत्र हो गया । और भगवान के केवल ज्ञान कल्याणक
अनेको ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाये घटित होने का वर्णन की भूमि होने के कारण यह पवित्र तीर्थक्षेत्र हो गया।
जैन साहित्य मे अथवा अनुथतियो मे उपलब्ध होता है । -मुनि श्रीचन्द कृत 'कहकोस' नामक अपभ्रश कथा
इन घटनाग्रो मे आचाय पात्रकेशरी की घटना तो सचमच कोष (सन्धि ३३ कडवक १ से ५, पृष्ठ ३३३ से ३३५)
ही विस्मयकारी है । प्राचार्य पात्रकेशरी का समय छठवी, मे यहा के एक व्यक्ति की कथा अाती है, वह इस प्रकार सातवी शताब्दी माना जाता है। (स्व० पं० जुगलकिशोर
मुख्तार और स्व० प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य के मताअहिछत्रपुर नगर मे शिवभूति विप्र रहता था। उसके
नुमार आचार्य पात्रकेशरी का आनुमानिक समय छठी दो पुष थे-सोमशर्मा और शिवशर्मा । छोटे पुत्र का मन
शताब्दी का अन्तिम अथवा सातबी शताब्दी का प्रारभिक पढ़ने मे नही लगता था। इससे पिता उसे कोडो से पीटा
काल है।) वे इसी पावन नगरी के निवासी थे। उस समय था। और उसका नाम नारन्तक रख दिया था। नगर के शासक अवनिपाल थे । उनके दरबार में पाच सौ शिवशर्मा को इससे इतनी मानसिक ग्लानि हुई कि वह ब्राह्मण विद्वान थे, जो प्रायः तात्विक गोष्ठी किया करते घर से निकल गया और दमवर मनि के पास निम्रन्थ
थे। पात्रकेशरी इनमे सर्वप्रमुख थे । एक दिन यहां के दिगम्बर मुनि बन गया । एक दिन गुरु से उसने अपनी
पाश्र्वनाथ मन्दिर मे ये विद्वान गोष्ठी के निमित्त गये । वहा एक मुनि-जिनका नाम चारित्रभूषण था-प्राचार्य
१. पासनाह चरित
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पहिच्छत्र
समन्तभद्र विरचित देवागम स्तोत्र का पाठ कर रहे थे । पाजकेशरी ध्यानपूर्वक उसे सुन रहे थे। उनके मन की अनेक शंकायों का समाधान स्वत होता गया । उन्होने पाठ समाप्त होने पर मुनिराज से स्तोत्र दुबारा पढने का अनुरोध किया। मुनिराज ने दुबारा स्तोत्र पढा । पात्रकेशरी उसे सुनकर अपने घर चले गये और गहराई में तत्व- चिन्तन करने लगे। उन्हें अन्य दर्शनो की अपेक्षा जैनदर्शन सत्य लगा । किन्तु अनुमान प्रमाण के सम्बन्ध मे उन्हे अपनी शका का समाधान नही मिल पा रहा था । इससे उनके चित्त में कुछ उद्विग्नता थी ।
तभी पद्मावती देवी प्रगट हुई और बोली - "विप्रवर्य ! तुम्हे अपनी शका का उत्तर कल प्रातः पार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा द्वारा प्राप्त हो जायेगा।" दूसरे दिन पात्रकेशरी पार्श्वनाथ मन्दिर मे पहुचे । जब उन्होने प्रभु की मूर्ति की ओर देखा तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा । पार्श्वनाथ प्रतिमा के फण पर निम्नलिखित कारिका लिखी हुई थी
अन्यथानुपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यचानुपन्नत्व यत्र तत्र प्रयेण किम् ॥
इस कारिका को पढ़ते ही उनकी शका का समाधान हो गया । उन्होने जैन धर्म को सत्य धर्म स्वीकार करके अङ्गीकार कर लिया। तत्पश्चात् वे जैन मुनि बन गये। अपनी प्रकाण्ड प्रतिभा के कारण जैन दार्शनिक परम्परा के प्रमुख माचायों मे उनकी गणना की जाती है।
- आराधना कथाकोश कथा - १ पामकेशरी के पश्चात सभी दार्शनिक जैन माचायों ने अपने ग्रन्थों में और जैन राजाओं ने शिलालेखो मे इस घटना का बड़े चादर पूर्वक उल्लेख किया है। वादिराज सूरि ने 'न्यायविनिश्चयकार' नामक अपने भाष्य मे उक्त कारिका के सम्बन्ध मे लिखा है -- उक्त श्लोक पद्मायती देवी ने तीर्थङ्कर सीमन्धर स्वामी के समवशरण में जाकर गणधरदेव के प्रसाद से प्राप्त किया था ।
श्रवण बेलगोला 'मल्लिषेण प्रशस्ति' नामक शिलालेख में (०५४/६७) जो एक सं० १०५० का है, लिखा 爱
महिमा सपात्र केसरि गुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् ।
२०१
पद्मावती सहाया त्रिलक्षण - कदर्थनं कर्तुम् ॥ -उन पात्र केशरी गुरु का बड़ा माहात्म्य है जिनकी भक्ति के वश होकर पद्मावती देवी ने 'त्रिलक्षण कदर्थन' की रचना में उनकी सहायता की ।
यह ज्ञातव्य है कि उपर्युक्त कारिका के आधार पर ही प्राचार्य पात्रकेशरी ने 'त्रिलक्षण कदर्थन' नामक महत्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ की रचना की थी ।
- इसी प्रकार की एक दूसरी चमत्कार पूर्ण घटना का उल्लेख 'आराधना सार कथाकोप' (कथा ६० में उपलब्ध होता है ।
उस समय इस नगर का शासक वसुपाल था । उसकी रानी का नाम वसुमति था। राजा ने एक बार महिन्छ नगर मे बड़ा मनोज सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण कराया और उसमे पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा विराजमान कराई। राजा की श्राज्ञा से एक लेपकार मूर्ति के ऊपर लेप लगाने को नियुक्त हुआ । लेपकार माम भक्षी था। वह दिन मे लेप लगाता था किन्तु रात मे लेप गिर पड़ता था। इस प्रकार कई दिन बीत गये। लेपकार के ऊपर राजा अत्यंत क्रुद्ध हुआ और उसने लेपकार को मार-पीट कर भगा दिया। एक दिन अन्य लेपकार आया उसके मन मे स्वतः भावना हुई और उसने किन्ही मुनि के निकट जाकर कुछ नियम लिए, पूजा रचाई। दूसरे दिन से उसने जो लेप लगाया, वह फिर मानो व बन गया।
यहाँ क्षेत्र पर एक प्राचीन शिखरबन्ध मन्दिर है। उसमे एक वेदी तिरवाल वाले बाबा की है। इस वेदी में भगवान पार्श्वनाथ की हरित पन्ना की एक मूर्ति है तथा भगवान के चरण विराजमान है। इस तिरवाल के सम्बन्ध मे बहुत प्राचीन काल से एक किम्बदन्ती प्रचलित है । यह कहा जाता है कि जब इस मन्दिर का निर्माण हो रहा था, उन दिनों एक रात को लोगों को ऐसा लगा कि मन्दिर के भीतर चिनाई का कोई काम हो रहा है। ईटो के काटने छांटने की आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। लोगों के मन मे दुःकार्य होने लगी और उन्होंने उसी समय मन्दिर खोलकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था ।
१. मुनि श्री चन्द्रकृत कहकोषु संधि ६ कडवक भ, पृ. ६६
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अनेकान्त
२०२, वर्ष २६, कि० ४-५
अलबत्ता एक आश्चर्य उनकी दृष्टि से छिपा नहीं रह सका। वहाँ एक नई दीवाल बन चुकी है, जो सन्ध्या तक नही थी और उसमें एक तिरवाल बना हुआ है। अवश्य ही किन्ही धदृश्य हाथों द्वारा यह रचना हुई थी तभी से लोगों ने इस वेदी के भगवान का नाम तिरवाल वाले बाबा' रख दिया। कहते है, जिनके अदृश्य हाथों ने मिनटों में एक दीवार खड़ी करके भगवान के लिए तिरवाल बना दिया, वे ही अपने धाराध्य प्रभु के भक्तों की प्रभु के दरबार में हाजिर होने पर मनोकामना भी पूरी करते है ।
1
जिस क्षेत्र पर देवी चमत्कार होते हैं, वहाँ कब, क्या, किसे कितने चमत्कारों के दर्शन हुए, इस सब का कोई लेखा जोखा नहीं होता । यहाँ के कुएँ में भी बड़ा चमत्कार है। इसके जल से अनेकों रोग शान्त हो जाते हैं। प्राचीन काल में आसपास के राजा और नवाब इस कुएं का जल मगाकर काम मे लाते थे ।
आचार्य जिन प्रभ सूरि ने 'विविध तीर्थ कल्प' के अहिच्छत्र कल्प मे लिखा है- संख्यावती नगरी मे भगवान पार्श्वनाथ कायोत्सर्ग धारण करके खड़े हुए थे। पूर्व खड़े निबद्ध वैर के कारण कमठासुर ने उन्हें नाना प्रकार के उपसर्ग किये। भगवान द्वारा विगत जन्म मे किये हुए उपकार का स्मरण करके नागराज धरणेन्द्र अपनी अग्रमहिषी के साथ वहाँ आया और महस्र फणमण्डल भगवान के ऊपर उठा लिया। तबसे इस नगरी का नाम 'अहिच्छत्र' पड़ गया । (मप्रो पर तीसे नयरीए अहिच्छत्त ति नामं सजायं । ) वहाँ बने हुए प्राकार मे वह उरग रूपी धरणेन्द्र कुटिल गति से जहाँ से गया, वहाँ ईटों की रचना करता गया । कहीं कही अब भी यहाँ प्राकार मे ईंटों की यह रचना दिखाई पड़ती है। सघ ने वहाँ पार्श्वनाथ स्वामी का एक विशाल मन्दिर बनवाया ।
वहाँ की उत्तरानिघाना वावड़ी के जल में स्नान करने से कुष्ठरोग शांत हो जाता है। इसी प्रकार वहाँ के कुए का जल भी बहुत धारोग्यप्रद बताया है और वहाँ के उपवन मे बनेको बहुमूल्य धौषधियां उत्पन्न होती है-जैसे जयंती, नागदमनी, सहदेवी, मपराजिता सकली,
स्वर्णशिला, मुशली, सोमली, रविभक्ता, निर्विषी, मोर शिखा, विशल्या पादि ।
पुरातत्व एवं इतिहास - यह नगरी भारत की प्राचीनतम नगरियों मे से एक है। भगवान ऋषभ देव ने जिन ५२ जनपदो की रचना की थी, उसमे एक पाचाल भी था । परवर्ती काल में पाचाल जनपद दो भागों में विभक्त हो गया- उत्तर पाचाल और दक्षिण पांचाल । पहले सम्पूर्ण पंचाल की ही राजधानी हिन्छन थी। श्रहिच्छत्र किन्तु विभाजन हो जाने पर उत्तर पचाल की राजधानी अहिच्छत्र रही और दक्षिण पचाल की कम्पिला । जैन साहित्य के इन दो भागो का प्रायः उल्लेख मिलता है। महाभारत काल मे अहिच्छत्र के शासक द्रोण थे और कम्पिला के शासक द्रपद थे। कही कही इस नगरी का नाम संख्यावती और अहिच्छत्रा भी मिलता है। कौशाम्बी के निकट पवोभौसा क्षेत्र की गुफा मे स्थित एक शिलालेख में इसका नाम अधिक्षका भी मिला है। वैदिक साहित्य में इन नामो के अतिरिक्त परिचत्रा, छत्रवती और अहिक्षेत्र भी मिलते है।
सभवत. विभिन्न कालों में वे विभिन्न नाम प्रचलित रहे। किन्तु दूसरी से लगभग छवी शताब्दी तक अहिच्छत्रा नाम अधिक प्रचलित रहा। यहाँ की खुदाई मे दूसरी शताब्दी की एक यक्ष प्रतिमा मिली थी तथा गुप्त काली मिट्टी की मोहर मिली थी, उन दोनो पर ही अहिच्छत्रा नाम मिलता है ।
'अहिच्छत्रा' नगर का यह नाम सर्प द्वारा छत्र लगाने के कारण पड़ा था, इसमे जैन, वैदिक और बौद्ध तीनो ही धर्म सहमत है । किन्तु इन धर्मो ने इस सम्बन्ध मे जो कथानक दिये है, उनमे जैन कथानक अधिक प्रामाणिक प्रतीत होता है । इसके अनेक कारण है । भगवान पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे । उनका प्रभाव तत्कालीन सम्पूर्ण भारत में विशेषतः उत्तर और पूर्व भारत मे अत्यधिक था । वैदिक साहित्य भी उनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा। उनके प्रभाव के कारण वैदिक ऋषियों की चिन्तन धारा बदल गई और उनके चिन्तन की दिशाहिंसामूलक यशो और क्रिया काण्डो से हटकर प्रध्यात्मवादी उपनिषदों को रचना की ओर मुड़ गई।
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पहिच्छत्र
२०३
भगवान पार्श्वनाश सम्बन्धी उपर्युक्त घटना की गूज पार्श्वनाथ सम्बन्धी घटना का एक सांस्कृतिक महत्व उस काल में ही दक्षिण भारत तक पहुची। इस बात का भी है । इस घटना ने जैन कला को विशेषतः जन मूर्ति समर्थन कल्लुर गुड्डु (जिला सीमौगा, मैसूर प्रान्त–सन् कला को बडा प्रभावित किया। पार्श्वनाथ की प्रतिमाओं ११२६) में उपलब्ध उस शिलालेख से भी होता है, का निर्माण इस घटना के कारण ही कुछ भिन्न शैली में जिसमे गंग वंशावली दी गई है। उसमें उल्लेख है कि जब होने लगा। चौबीस तीर्थङ्करों की प्रतिमायें अपने प्रासन, भगवान पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र मे केवलज्ञान की प्राप्ति मुद्रा, ध्यान प्रादि दृष्टि से सभी एक समान होती है। हुई थी, उस समय यहाँ प्रियबन्धु राजा राज्य करता था। उनकी पहचान और अन्तर उनके पासन पर अंकित किये वह राजा भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन करने अहिच्छत्र गये चिन्ह द्वारा ही किया जा सकता है। किन्तु केवल गया ।
पार्श्वनाथ की प्रतिमायें अन्य तीर्थङ्कर-प्रतिमाओं से एक १. हरिवंश केतु नेमीश्वर तीर्थ बतिसुत्तभिरे गङ्गकुलां।
बात मे निराली है। अरहन्त दशा की प्रतिमा होते हुए _वर भानु पुट्टिदं भा-। सुरतेज विष्णुगुप्त नेम्ब नृपालम् ।।
भी उनके सिर पर सर्प-फण रहता है, जो हमें सदा ही पा-धराधिनाथं साम्राज्यपदवियं कैकोण्ड हिच्छत्र-पुरदोलु
कमठ द्वारा घोर उपसर्ग करने पर नागेन्द्र द्वारा पार्श्वनाथ सुखमिर्दु नेमितीर्थङ्कर परमदेव-निर्वाणकालदोल्
के ऊपर सर्प-फण के छत्र तानने का स्मरण दिलाता है। ऐन्द्रध्वजवेम्ब पूजेयं माडे देवेन्द्रनोसेदु
इतना ही नही, अनेको पार्श्व प्रतिमाये इस घटना के अनुपमदरावतमं । मनोनुरागदोले विष्णुगुप्तङ्गित्तम् ।
स्मारक रूप मे धरणेन्द्र-पद्मावति के साथ निर्मित होने लगी जिन-पूजेयिन्दे मुक्तिम् । ननयमं पडेगु मेन्दोलिदुदु पिरिदे॥ आर
सी और इसीलिये जैन साहित्य में इस इन्द्र-दम्पति की ख्याति
पार्श्वनाथ के भक्त यक्ष-यक्षिणी के रूप में विशेष उल्लेख ब-अन्ता-प्रियबन्धु सुख-राज्यं गेय्युत्तमिरे तत्समयादोलु
योग्य हो गई। पार्श्व भट्टारकग्गे केवलज्ञानोत्पत्ति यागे सौधर्मेन्द्रं नन्दु यह घटना अपने रूप में असाधारण थी। मवश्य ही केवलिपूजयं माडे प्रियबन्धु तानु भक्तिमि बन्दु पूजेयं इस घटना के प्रत्यक्षदर्शी व्यक्ति भी वहाँ रहे होंगे। उनके माडलातन भक्तिनिन्द्रं मेच्चि दिव्य वप्पदु-तोडगेगल मुख से जब सत्य घटना जन-जन के कानों में पहुंची होगी, कोट्ट निम्मन्वय दोलु मिथ्यादष्टि गळागलोड अदृश्य- तब उन सबका हृदय निष्काम वीतराग भगवान पार्श्वनाथ ङ्गलक्कुमेन्दु पेळदु विजयपरक्कहिच्छत्रमेम्ब पेसरनिह के चरणो में श्रद्धा प्लावित हो उठा होगा और उनके दिविजेन्द्रं पोपुदु मित्तलु गङ्गन्वयं सम्पूर्ण-चन्द्रनन्ते दर्शनो के लिये वहाँ असंख्य जन-वाहिनी एकत्रित हुई पेच्चिमे बत्तिसुत्तमिरे तदन्वयदोलु कम्प-महीपतिगे होगी। और फिर कैसा अलौकिक संयोग कि तभी भगवान पद्मनाभनेम्न मगं पुट्टि ।
का केवल ज्ञान महोत्सव हुआ। उसे सुनकर प्रथम उपदेश -कल्लुरगुड्डु (शिभोगा परगना) में सिद्धेश्वर को ही सुनकर वे भगवान के उपासक बन गये और जब मन्दिर की पूर्भ दिशा में पड़े हुए पाषाण पर लेख
..........."उनके वंश में प्रियबन्धु हुआ। जिस (शक १०४३-११२१ ई.)
समय वह शान्ति से राज्य कर रहा था, उस समय पार्श्व -जैन शिलालेख संग्रहः भागः द्वितीयः ।
भट्टारक को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इसी अवसर पर माणिकचन्द दिगम्बर जैनग्रन्थमाला समिति पृ. ४०८-६ स्वय प्रियबन्धु ने पाकर केवलज्ञान की पूजा की। उसकी
अर्थ-जब नेमीश्वर का तीर्थ चल रहा था, उस श्रद्धा से प्रसन्न होकर इन्द्र ने पांच प्राभरण उसे दिये। समय राजा विष्णुगुप्त का जन्म हुआ। वह राजा अहि- और कहा-अगर तुम्हारे वंश में कोई मिथ्या मत का च्छत्र पुर राज्य कर रहा था। उसी समय नेमि तीर्थङ्कर मानने वाला उत्पन्न होगा तो ये पाभरण लुप्त हो जायेंगे। का निर्वाण हुअा। उसने ऐन्द्रध्वज पूजा की। देवेन्द्र ने यों कह कर और अहिच्छत्र का विजयपुर नाम रखकर उसे ऐरावत हाथी दिया।
इन्द्र चला गया।
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२०४ वर्ष २६, कि० ४.५
अनेकान्त
भगवान का वहाँ से विहार हो गया, तब सबने मिलकर एक राज्य के रूप में इसका अस्तित्व गुप्त-शासन प्रभु की स्मृति सुरक्षित रखने के लिये वहाँ एक विशाल काल में समाप्त हो गया। उससे पूर्व एक राज्य की मन्दिर का निर्माण कराया।
राजधानी के रूप में इसकी ख्वाति रही। यहाँ अनेक यहाँ क्षेत्र से दो मील दूर एक प्राचीन किला है, जिसे मित्रवशीय राजाओ के सिक्के मिले है। इनमें कई राजा महाभारत कालीन कहा जाता है। इस किले के निकट ही जैनधर्मानुयायी थे। कटारीखेडा नामक टीले से एक प्राचीन स्तम्भ मिला है। किला--यहाँ मीलो मे प्राचीन खण्डहर विखरे पड़े है । उस स्तम्भ पर एक लेख है। इसमे महाचार्य इन्द्रनन्दि के यहां दो टीले विशेष उल्लेखनीय है। एक टीले का नाम शिष्य महादरि के द्वारा पार्श्वपति (पार्श्वनाथ) के मन्दिर ऐचुली-उत्तरिणी है और दूसरा टीलारोंचभा कहलाता है। में दान देने का उल्लंग्व है। यह लेख पार्श्वनाथ मन्दिर के ऐचुभा टीले पर एक विशाल और ऊंची कुर्मी पर भूरे निकट ही मिला है। इस टीले और किले से कई जैन बलुई पाषाण का सात फुट ऊँचा एक पापाण स्तम्भ है। मूर्तियां मिली है और कई मूतियो को ग्रामीण लोग ग्राम नीचे का भाग पौने तीन फूट तक चौकोर है। फिर पौने देवता मानकर अब भी पूजते है । संभव है, वर्तमान मे जो तीन फुट छह पहलू है। इसके ऊपर का भाग गोल है। पार्श्वनाथ-मन्दिर है, यह नवीन मन्दिर हो और जिस कहते है, इसके ऊपर के दो भाग गिर गये है। इसका स्थान पर किले और टीले से प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली ऊपर का भाग देखने से ऐसा लगता है कि यह अवश्य ही हैं, वहां प्राचीन मंदिर रहा हो। यदि यहां के टीलो और टूट कर गिरा होगा। अधिक सभावना ऐसी लगती है कि खण्डहरो की जो मीलो में फैले हए है खुदाई की जाये, तो यह तोड़ा गया हो। ऊपर का भग्न भाग नीचे पडा हा गहराई में पार्श्वनाथ कालीन जैन मन्दिर के चिन्ह और है। इसकी आकृति तथा उमटीले की स्थिति सेसा मूर्तियाँ मिल जाय।
प्रतीत होता है कि यह मानस्तम्भ रहा होगा। जन
साधारण में वहाँ ऐसी भी किम्बदन्ती सुनाई दी कि यहाँ यह मन्दिर गुप्त काल तक तो अवश्य था। शिला
प्राचीन काल में कोई सहस्रऋट चैत्यालय था। इस किम्बलेखो आदि से इसकी पुष्टि होती है। गुप्त काल के
दन्ती में हमे निश्चय ही कुछ तथ्य दिग्बाई पटता है। पश्चाद्वर्ती इतिहास में इसके सम्बन्ध में कोई मूत्र उपलब्ध
यहाँ से अनेक जैन मूर्तिया खुदाई मे उपलब्ध हुई है। नहीं होता। किन्तु यह तो असदिग्ध सत्य है कि परवर्ती काल में भी शताब्दियो तक यह स्थान जैन धर्म का एक
मभवतः यहाँ प्राचीन काल में अनेक जिन मदिर और
स्तूप रहे होगे। विशाल केन्द्र रहा । इस काल में यहां पापाण की अनेको
कुछ लोग अज्ञानतावश इस पापाण-स्तम्भ को 'भीम जन प्रतिमानो का निर्माण हुआ। ऐसी अनेका प्रतिमाये,
की गदा' कहते है। हम प्रकार के प्रति प्राचीन पाषाण स्तूपों के अवशेष, मिट्टी की मतियो और कला की अन्य
स्तम्भो के साथ भीम का सम्बन्ध जोड़ने की एक परम्परा वस्तुएँ प्राप्त हुई है। यहाँ यह उल्लेख याग्य है कि ये
सी पड़ गई है। देवरिया जिले के ककुभ ग्राम (वर्तमान सभी प्रतिमाये दिगम्बर परम्पग की है। यहाँ श्वेताम्बर
कहाऊँ गांव) में गुप्त काल का एक मान स्तम्भ पाषाण परम्परा की एक भी प्रतिमा न मिलने का कारण यही
निर्मित है। उसके अधोभाग में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतीत होता है कि यहां पाश्र्वनाथ-काल में दिगम्बर .
कायोत्सर्गासन प्रतिमा है और शीर्पभाग पर चार तीर्थकर परम्परा की ही मान्यता प्रभाव और प्रचलन रहा है। प्रतिमायें विराजमान है। मध्य भाग में ब्राह्मी लिपि में
प्राचीन अहिच्छत्र एक विशाल नगरी थी उसके एक शिलालेख है, जिसमे इस मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा का भग्नावशेष आज रामनगर के चारो ओर फर्लागो मे उल्लेख है। इतना होने पर भी लोग इसे 'भीम की लाट' बिखरे पड़े हैं । चीनी यात्री ह्वेन्त्सांग के अनुसार इस नगर कहते है। का विस्तार उस समय तीन मील मे था। तथा यहाँ इसी प्रकार ऐचमा टीले के इस पाषाण-स्तम्भ को भनेकों स्तूप भी बने हुए थे।
कुछ लोग 'भीम की गदा' कहते सुने जाते है। इससे
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अहिच्छत्र
२०५
सम्बन्धित एक कहानी भी ग्रामीण जनता में प्रचलित है वेदी के नीचे सामने वाले भाग में सिंह आमने-सामने मख कि अपने अज्ञातवास में पाण्डवों ने इस नगर के एक किये हुए बैठे है। ब्राह्मण के घर वास किया था। उस समय भीम ने अपनी प्रतिमा के आगे चरण विराजमान है। चरणों का यह गदा यहां स्थापित कर दी थी। अस्तु ।
आकार १ फुट'X|| इंच है। चरणों पर निम्नलिखित यहाँ एक जनमूर्ति का सिर भी मिला था जो क्षेत्र लेख उत्कीर्ण हैके फाटक के बाहर विद्यमान है। पहले इस टीले के नीचे श्री मुलस नन्द्याम्नाये बलात्कार गणे कुन्द कुदाशिव गगा नदी बहती थी। अब तो उमकी रेखा मात्र अब चार्यन्वय दिगम्बराम्नाये अहिच्छत्रनगरे श्री पालिन शिष्ट है।
चरणा. प्रतिष्ठापिता । श्रीरस्तु। यह परकोटा तीन मील के घेरे में था। कहा जाता प्रतिमा का निर्माण-काल १०११ वी शताब्दी अनमान है कि अपने वैभव-काल में अहिच्छत्र नगर ४८ मील की किया जाता है। परिधि मे था। आज के प्रावला, वजीरगज, रहतुझ्या इम वेदी के ऊपर लघु शिखर है। जहाँ अनेको प्राचीन मतियाँ और सिक्के प्राप्त हुए है इस बेदी से आगे दाई ओर दूसरे कमरे में वेदी में पहले इमी नगर में सम्मिलित थे। इस नगर का मन्य मूलनायक पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण पदमासन पर दरवाजा पश्चिम में वर्तमान सपनी बताया जाता है। १०इच अवगाहना की अत्यन्त मनोहर प्रतिमा है। यहाँ के भग्नावशेपो मे १८ इंच तक की इंट मिनती प्रतिमा के सिह पर सप्त फणावलि का मण्डल है।
भामण्डल के स्थान पर कमल की सात लम्बायमान पत्तियाँ क्षेत्र-दर्शन-सडक से कुछ फुट की ऊंची चौकी पर
और उनके ऊपर निकली हुई वाई ओर को झुकी पुष्प क्षेत्र का मुख्य द्वार है । फाटक के बाई पोर वाहर उस
कलिका है। पत्तियो और कली का प्रकन जितना कला भग्न मति के सिर के दर्शन होते हैं जो किले से लाकर
पूर्ण है, उतना ही अलकरणमय है । इससे मूर्ति की मज्जा
गत विशेषता मे अभिवृद्धि ही हुई। अलकरण का यह यहाँ दीवार मे एक पाले में रख दिया गया है। फाटक में प्रवेश करने पर चारों ओर विशाल धर्मशाला है। रूप अद्भुत बार अदृष्टपूर्व है। बीच में एक पक्का कुआ है।
मति के नीचे मिहासन पीठ के सामने वाले भाग मे बाई और मन्दिर का द्वार है। द्वार में प्रवेश करते २४ तीर्थकर कर प्रतिमायें उत्कीर्ण है। ही क्षेत्र का कार्यालय मिलता है। फिर खूब लबा चौडा इस प्रतिमा के वाई और श्वेत पाषाण को १० डच सहन है। सामने बाई पोर एक छोटे से गर्भगृह में वेदी ऊंची पद्मामन पार्वनाथ प्रतिमा है। है. जिसमें 'तिखाल वाले वावा' (भगवान पार्श्वनाथ की इसमे आगे दाई और एक गर्भगह में दो देवियाँ है। प्रतिमा) विराजमान है। पार्श्वनाथ की यह मातिशय जिनमे प्राधुनिक प्रतिमायें विराजमान है। उनमें विशेष प्रतिमा हरितपन्ना की पद्मासन मुद्रा में विराज उल्लेख योग्य कोई प्रतिमा नही है। मान है। इसकी अवगाहना ॥ इच है। प्रतिमा अत्यन्त अन्तिम पाँचवी वेदी मे तीन प्रतिमायें विशेष रूप से सौम्य और प्रभावक है। इसके दर्शन करते ही मन में उल्लेखनीय है । लगभग २० वर्ष पहले वूदी (राजस्थान) भक्ति की तरंगें स्वतः प्रस्फुरित होने लगती है। अनेक में भूगर्भ से कुछ प्रतिमायें प्राप्त हुई थी। उनमे से तीन भक्त जन अपनी मनोकामनायें लेकर यहा पाते है और प्रतिमायें लाकर यहाँ विराजमान कर दी गई थीं। इनमे अपने विश्वास के अनुरूप सफल मनोरथ होकर लौटते है। तीनो का रग हल्का कत्थई है और तीनों शिलपट्ट पर इस प्रतिमा के पाद पीठ पर कोई लेख नहीं है। सर्प का उत्कीर्ण है। बायें से दाई ओर को प्रथम शिलाफलक का लांछन अवश्य अंकित है और सिर पर फण-मण्डल है। आकार ३॥ फुट है। बीच मे फणालंकृत पाश्वनाथ तीर्थ
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२०६, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
कर की खड्गासन प्रतिमा है। इसके परिकर में नीचे एक में है। पाद पीठ पर लेख या लांछन भी नहीं है। इस यक्ष और दो यक्षी है जो चरवाहक है। उनके ऊपर प्रकार की शैली गुप्त काल से निकट गुप्तोत्तर काल में कायोत्सर्ग मुद्रा में १० इंच आकार की एक तीर्थंकर प्राप्त होती है । अर्थात चौथी-पांचवीं शताब्दी से आठवींप्रतिमा है । तथा उसके ऊपर ७ इंच अवगाहना की एक नौमी शताब्दी तक मूर्ति-कला की शैली उपर्युक्त प्रकार की पद्मासन प्रतिमा अंकित है। इसी प्रकार दाई और भी रही है। इस आधार पर इन मूर्तियों का अनुमानित दो प्रतिमायें हैं। यह शिलाफलक पंच बालयति का कह- निर्माण काल यही माना जा सकता है। लाता है । पाषाण बलुगाई है लेग या लांछन नहीं है। धर्मशाला के मुख्य द्वार के सामने का मैदान में भी
मध्य में हल्के कत्थई रंग की पद्मासन पार्श्वनाथ सड़क के दूसरी ओर मन्दिर का है। इस सड़क पर कुछ प्रतिमा है ऊपर सर्पफण है। अवगाहना २, फुट है। आगे चलने पर वह विशाल पक्का कुआं या वापिका है, सिंहासन में सामने दो सिंह जिह्वा निकाले हए बैठे है। जिसके जल की ख्याति पूर्व काल में दूर दूर तक थी और जो कर्म शत्रुओं के भयानक रूप के प्रतीक है। किन्तु जिसकी प्रशंसा प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने भी-'विविध चरण तले बैठने का अभिप्राय है कि तीर्थङ्कर ने अपने तीर्थ कल्प' में चौदहवी शताब्दी में की थी। भयानक कर्म शत्रुओं को चरणों के नीचे दबा कर कुचल
मन्दिर के निकट ही रामनगर गांव है। गांव में भी दिया है। यक्षी पद्मावती एक बच्चे को छाती से चिपटाए हुए
एक शिखरबन्द मन्दिर है। इस मन्दिर में फणफण्डित
भगवान पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। है, जो उस देवी के अपार वात्सल्य का सूचक है। भग
इसकी अवगाहना ४ फुट है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। वान के सिरो पार्श्व में दोनों ओर गज उत्कीर्ण है, जो
फणावलि मे 'अन्यथानुपन्नत्वं' श्लोक भी लिखा हुआ है। गज लक्ष्मी के प्रतीक है। उनसे कुछ ऊपर इन्द्र हाथों में
इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वीर सं० २४८१ वैशाख शुक्ला ७ स्वर्ण कलश लिए क्षीरसागर के पावन जल से भगवान का
गुरुवार को श्री महावीर में हुई थी। अभिषेक करते प्रतीत होते है । फण के ऊपर त्रिछत्र है। उसके दोनों ओर शीर्ष कोने पर देव कुलिकायें बनी हुई मूलनायक के अतिरिक्त २ पाषाण की और २ धातु है। अलंकरण साधारण ही है किन्तु इसमें कला की जो की प्रतिमायें है। अभिव्यंजना हुई है, वह दर्शक को वरवस अपनी ओर पहले इस मन्दिर के स्थान पर पद्मावती पुरवाल आकर्षित कर लेती है।
पंचायत की ओर ला. हीरालाल जी सर्राफ एटा तथा अन्तिम प्रतिमा खड्गासन है। अवगाहना ३॥ फूट पं० चंपालाल जी पेंठत निवासी का बनवाया हुआ मन्दिर है। अधोभाग में दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी चमर लिए था। फिर उसके स्थान पर समस्त दिबम्बर समाज की हुए है। मध्य मे यक्ष-यक्षी विनत मुद्रा में बैठे है । मूर्ति ओर से यह मन्दिर बनाया गया। के सिरे के दोनों ओर विमानचारी देव । एक विमान में मन्दिर के बाहर उत्तर की ओर आचार्य पात्रकेशरी देव और देवी है। दूसरे में एक देव है। छत्र के एक प्रोर के चरण बने हए है । चरणों की लम्बाई ११" है। हाथी का अंकन है। भामण्डल और छत्रत्रयी है ।
ऐसा विश्वास है कि प्राचार्य पात्रकेशरी इसी स्थान इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण उस युग में किया पर बने हुए मन्दिर में में देवी पद्मावती द्वारा प्रतिबोध गया लगता है, जब प्रतिमानों में प्रलंकरण और सज्जा पाकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। का विकास प्रारम्भिक दशा में था। यह भी उल्लेख योग्य वार्षिक मेला-क्षेत्र का वार्षिक मेला चैत्र कृष्णा है कि इन प्रतिमानों पर श्रीवत्स लांछन भी लघु आकार अष्टमी से चैत्र कृष्णा त्रयोदशी तक होता है ।
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साहित्य-समीक्षा
१. तीर्थकर वर्धमान-ले. मुनि श्री विद्यानन्द जी, प्रस्तुत पुस्तक में मुण्डिका, सीता, राजुल, चेलना, प्रभावती, प्रकाशक-श्री वीर निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति ४८, अनन्तमती, काललदेवी, नीली और मनोवती इन नौ महिशीतला माता बाजार, इन्दौर-२ (म. प्र., मूल्य तीन रु०। लामों के जीवन सम्बन्धी किसी विशिष्ट प्रसंग को लेकर
प्रस्तुत पुस्तक विद्वान् व कुशल वक्ता श्री मुनि विद्या- रोचक कथामें लिखी गई है । वीर चामुण्डराय की माता नन्द जी के द्वारा गम्भीर अध्ययन व अनुसन्धानपूर्वक काललदेवी को छोड़कर शेष सभी महिलायें पौराणिक है। लिखी गई है। पुस्तक में भगवान् महावीर के जीवन से यद्यपि उन कथाओं का सम्बन्ध पुराणों से है, फिर भी सम्बन्धित जिस महत्त्वपूर्ण सामग्री को उपस्थित किया लेखक ने उन्हें कुछ नया रूप दिया है, इससे वे सभी गया है वह मननीय है, उससे कुछ नवीन तथ्य भी प्रकाश कथाये रोचक बन गई है। बीच बीच में कुछ चित्र भी में आये है। वैदिक साहित्य----जैसे पद्मपुराण, भागवत व दे दिये गये है। सज्जा व छपाई भी ठीक हुई है। इन महाभारत प्रादि-में जो तीर्थङ्करों के नामोल्लेख पूर्वक कथाग्रो के लेखक व प्रकाशक धन्यवादाह है। उनके चरित्र का चित्रण एवं तपश्चरण आदि का वर्णन ३. भारतीय संस्कृति और श्रमण परम्परा-लेखक किया गया है उसका संकलन भी कुछ प्रस्तुत पुस्तक में डा. हरीन्द्रभूषण जैन, विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन, हुआ है। उससे जैन धर्म की प्राचीनता का बोध होता प्रकाशक वीर निर्वाण भारती मेरठ, मूल्य ७५ पैसे। है। पटना पुरातत्त्व संग्रहालय से प्राप्त तीर्थङ्कर की इस छोटी सी पुस्तिका मे लेखक ने श्रमण की निरुक्ति को प्रतिमा के चित्र से जैन धर्म की ऐतिहासिक प्राचीनता प्रगट करते हुए बतलाया है-'श्रममानयति पञ्चेन्द्रियाणि सुनिश्चित है। सुप्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता श्री डा. वासुदेव- मनश्चेति श्रमण., श्राम्यति ससारविषयेषु खिन्नो भवति शरण अग्रवाल के मतानुसार वह प्रतिमा मौर्यकालीन है। तपस्यति वा स श्रमणः' अर्थात् जो इन्द्रियों व मन को इसके अतिरिक्त महावीर कालीन भारत के मानचित्र, श्रान्त करता है, अथवा संसार के विषयो में सेद को जन्मकुण्डली, मौर मास से कालगणना, तीर्थङ्कर महावीर प्राप्त होता है, अथवा तपश्चरण करता है, उसे श्रमण
और महात्माबुद्ध के तुलनात्मक अध्ययन में उपयोगी कहा जाता है। प्राकृत 'ममण' शब्द का वह संस्कृत रूप तालिका तथा अनेकान्त, स्याद्वाद और सप्तभगी आदि से है। समण का रूप जैसे 'श्रमण' होता है वैसे ही उसका सम्बद्ध सुबोध निबन्धों के समावेश से पुस्तक का महत्त्व संस्कृत में शमन और समन भी होता है। शमन का अर्थ बढ़ गया है । जीवन्त स्वामी की प्रतिमा का चित्र भी एक है कषायो को शान्त करने वाला और समन का अर्थ है नवीन विशेषता का सूचक है। इतनी उपयोगी पुस्तक के समस्त प्राणियो मे समता भाव को रखने वाला। ये सब प्रकाशन में जो प्रूफ संशोधन सम्बन्धी अधिक अशुद्धियां साधु की ही विशेषतायें है। निरुक्ति के पश्चात् यहाँ रह गई है वे खटकती है। प्रमाणरूप मे उद्धृत किये प्राकृत आदि १० भाषाओं में थमण के रूपों के संग्रह के गये श्लोक एवं गाथाएं आदि प्राय. सब अशुद्ध है। साथ वैदिक व प्राकृत आदि के प्राश्रय से उसके पर्यायपुस्तक की छपाई आदि और सब उत्तम है। पूज्य वाची शब्दों का भी संकलन किया गया है। स्थानांग में मुनि विद्यानन्द जी की यह कृति स्तुत्य है। वीर श्रमण को सर्प और पर्वत आदि की उपमा दी गई है निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति ने उसे प्रकाशित करके उनका विश्लेषण करते हुए श्रमण के भेद व परम्परा सराहनीय कार्य किया है।
आदि का अच्छा विवेचन किया गया है। इस प्रकार २. नारी पालोक की नौ किरणे-लेखक मिश्रीलाल विद्वान् लेखक ने श्रमण के सम्बन्ध मे सप्रमाण सुन्दर जैन एडवोकेट गुना, प्रकाशक उपर्युक्त, मूल्य ३ रु० । विचार किया है । पुस्तक पठनीय व संग्राह्य है। इस कृति
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२०८, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
के लेखक व प्रकाशक धन्यवाद के पात्र है।
रंगों की पांच पद्रियों से निर्मित है। सबके मध्य में सफेद, ४. तीर्थडर वर्षमान महावीर-लेखक डा. जय- उसके ऊपर पीली और उसके ऊपर लाल तथा नीचे हरी किशन प्रसाद खण्डेलवाल, प्रकाशक पूर्वोक्त, मूल्ब १ रु. और उसके नीचे नीली पट्टियां है। ये पाच रंग पाच पर५० पैसे।
मेष्ठियों के बोधक है-अरहंत का धवल, सिद्ध का लाल, प्रस्तुत पुस्तक में सर्वप्रथम वैशाली अभिनन्दन ग्रन्थ
प्राचार्य का पीला, उपाध्याय का श्याम और साधु का से रामधारी सिंह दिनकर विरचित 'वैशाली' शीर्षक
माती
आकाश के समान नीला रंग माना गया है। इनमे मध्यगत कविता उद्धृत की गई है। पश्चात् तीर्थङ्कर वर्धमान पट्टी पर बीच में स्वस्तिक का चिह्न अकित है। इस महावीर के नाम, जाति एवं गोत्र आदि की निर्देशक एक
. स्वस्तिक के ऊपर तीन बिन्दु और उसके ऊपर अर्घ चन्द्र उपयोगी तालिका दे दी गई है। आगे महावीर के पंच
है। चार कोणो वाला वह स्वास्तिक चार गतियो का कल्याण विषयक एक सस्कृत कविता है। पश्चात् महा
सूचक है। ऊपर के तीन बिन्दुओं से रत्नत्रय अभिप्रेत है। वीर का जो विशेष परिचय प्रादि दिया गया है वह सब
तथा अर्घ चन्द्र से ईपत्प्राग्भार नामक सिद्धक्षेत्र अभिप्रेत प्रायः पूज्य मुनि विद्यानन्द विरचित 'तीर्थङ्कर वर्धमान
है, जो अर्ध चन्द्र या उत्तान धबल छत्र के समान है। के अन्तर्गत है। यहां प्रसिद्ध विद्वान् राहुल साकृत्यायन,
इसका अभिप्राय यह हुआ कि चतुर्गतिमय संसार मे परिडा. राजबली पाण्डेय और डा. योगेन्द्र मिश्र के अभि
भ्रमण करने वाला मुमुक्षु जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मतानुसार सठियांव फाजिलनगर-पावा को भगवान् महा
सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय का आश्रय लेकर उस ससार से वीर की निर्वाणभूमि माना गया है। मुख पृष्ठ पर जो
मुक्ति पा लेता है। इस प्रकार इस झण्डे का उक्त स्वरूप मुक्ति
बहुत विचार-विमर्श के साथ निश्चित किया गया है जो जीवन्त स्वामी की प्रतिमा और दीक्षित महावीर का तिरगा
दिगम्बर, मूर्तिपूजक श्वेताम्बर, स्थानकवासी और तेरापथी चित्र दिया गया है वह विशेष आकर्षक है। इस प्रकार
इन चारों ही जैन सम्प्रदायों के अनुकल है तथा उन सबमें पूर्वोक्त 'तीर्थङ्कर वर्धमान' से इसमें कुछ विशेषतायें भी है। प्रस्तुत पुस्तक के लेखक और प्रकाशक को साधुवाद है।
एकता को स्थापित करने वाला है। पुस्तक का मुद्रण और साज-सज्जा भी सराहनीय है।
प्रस्तुत पुस्तिका में इसी झण्डे के स्वरूप को दिखलाते ५. जैन शासन का ध्वज-सम्पादक डा. जयकिशन- हुए उसके फहराने आदि का भी बिवेचन किया गया है। प्रसाद खण्डेलवाल एम. ए., एम. एल. वी, पी-एच. डी., प्रसंगवश यहां धर्मचक्र का निर्देश करते हुए अन्यत्र उल्लिप्रकाशक वीर निर्वाण भारती मेरठ । मूल्य एक रुपया। खित आदि तीर्थङ्कर ऋषभ देव और भरत चक्रवर्ती के
नाम पर प्रसिद्ध भारत की भी चर्चा की गई है। इस समस्त जैन समाज में अभी तक किसी एक रूप में
प्रकार पुस्तक उपयोगी व पठनीय है। प्रत्येक जैन गह में झण्डे का प्रचलन नही था, वह अनेक रूपो में देखा जाता
उस झण्डे के साथ यह पुस्तक रहना चाहिए। ऐसी उत्तम था। श्री मुनि विद्यानन्द जी, मुनि कान्तिसागर जी, मुनि ।
पुस्तक के लेखक और प्रकाशक का आभार मानना सुशीलकुमार जी और मुनि महेन्द्रकुमार जी इन चारों
चाहिए। सम्प्रदायों के सन्तो ने परस्पर विचार विनिमय के साथ झण्डे की एकरूपता का निर्धारण किया है। यह झण्डा पाच
-बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री
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विषय-सूची
*०
विषय
वीरसेवामन्दिर का अभिनव
प्रकाशन जैन लक्षणावली भाग दूसरा
१५४
१५८
१. ऋषभ स्तोत्रम् २. कलकत्ते का कार्तिक महोत्सव
भंवरलाल नाहटा ३. अपभ्रंश सुलोचना चरित्र के कर्ता देवसेन --डा. ज्योति प्रसाद जैन लखनऊ
१५२ ४. कारी तलाई की अद्वितीय भगवान ऋषभनाथ
की प्रतिमायें-शिवकुमार नामदेव ५. धर्म और राज सरक्षण-तेजपाल सिह १५५ ६. णमोकार मत्र का प्रारम्भिक रूप क्या है ?
-श्री प्रताप चन्द्र जैन अागरा ७. कषायप्राभूत चूर्ण और त्रिलोक-प्रज्ञप्ति सम्बन्धी
महत्त्वपूर्ण और नई विचारणा-श्री अगरचन्द नाहटा
१५६ ८. जैनधर्म का नीतिवाद-डा० राजबली जी
पाण्डेय एम. ए., डी. लिट ६. सुकवि खेता और उनकी रचनायेंश्री अगरचन्द नाहटा
१६५ १०. जैन तत्त्व ज्ञान-प० सुखलाल जी संघवी १६५ ११. कविवर वादीभसिंह सूरि और उनकी बारह
भावनायें-प्रकाश चन्द्र जैन १२. राखी-श्री विष्णु प्रभाकर १३. चाणक्य के धर्म पर कथित शोध नई नही है
-रमाकान्त जैन बी. ए., साहित्यरत्न १४. अंजना-पवनंजय-भवरलाल सेठी १८७ १५. उत्थान-पतन-श्री ठाकुर
१९६ १६. अहिच्छत्र-श्री बलिभद्र जैन
१६६ १०. साहित्य-समीक्षा-बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री २०७
चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक शब्दकोष) का द्वितीय भाग भी छप चुका है। इसमें लगभग ४०० जैन ग्रन्थों से वर्णानक्रम के अनुसार लक्षणों का संकलन किया गया है । लक्षणों के संकलन में ग्रन्थकारों के कालक्रम को मुख्यता दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत जितने ग्रन्थों के लक्षण संगृहीत हैं उनमें से प्रायः एक प्राचीनतम ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है। जहाँ विवक्षित लक्षण में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहाँ उन ग्रन्थों के निर्देश के साथ २-४ ग्रन्थों के प्राश्रय से भी अनुवाद किया गया है। इस भाग में केवल 'क से ' तक लक्षणों का संकलन किया जा सका है। कुछ थोड़े ही समय में इसका दूसरा भाग भी प्रगट हो रहा है, वह लगभग तैयार हो चुका है। प्रस्तुत ग्रन्थ संशोधकों के लिए तो विशेष उपयोगी है ही, साथ ही हिन्दी अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण के लिए भी उपयोगी है। द्वितीय भाग बड़े आकार में ४१८++२२ पृष्ठों का है। कागज पुष्ट व जिल्द कपड़े को मजबूत है। मूल्य २५-०० ० है । यह प्रत्येक यूनीवर्सिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों मे संग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार बार नहीं छप सकते। समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है।
१७६
१८२
प्राप्तिस्थान वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज.
दिल्ली-६
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादन मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
-व्यवस्थापक
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R. N. 10591/62
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थों मे उधत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेपणापूर्ण महत्त्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० माप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द ।
८.०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व
की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने को कला, सटीक, सानुवाद मौर श्री जुगल
किशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित। अध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १-५० युक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान से परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हना था । मुख्तारथी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १२५ श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द ।। जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १: सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण
सहित अपूर्व संग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टों और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य
परिचयात्मक प्रस्तावना से अलंकृत, सजिल्द । ... समाधितन्त्र प्रौर इष्टोपदेश : अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४.०० भनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तारधी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारश्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त । पवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ । महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : पं० पाशाधर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित ।
... १०० जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों को प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण संग्रह। पचपन।
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२-०० न्याय-दीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो. डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा सं० अनु०। ७.०० जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द कसायपाहडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
... २०-०. Reality : मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रेजी में अनुवाद बड़े पाकार के ३०० पृ. पक्की जिल्द ६.०० जैन निबन्ध-रत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया ..
प्रकाशक-वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
6
० ०NM -
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Jai
सम्पादक मण्डल
- प्रा. ने. उपाध्ये
० प्रेमसागर जैन
शिपाल जैन
काशचन्द्र जैन
बन्ध सम्पादक
5213
ओम्प्रकाश जैन (सचिव)
द्वैमासिक शोध पत्रिका
अनेकान्त
प्रकाशक
वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली
वर्ष २६ किरण ६
फरवरी १६७४
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विषय-सूची
क
विषय
| वीरसेवामन्दिर का अभिनव
प्रकाशन जैन लक्षणावली भाग दूसरा
१. सिद्ध स्तुति २. वर्तना की सर्जना . एक अध्ययन
-सन्मतकुमार जैन २१० ॥ चिर प्रतीक्षित जैन लक्षणावली (जैन पारिभाषिक ३. महावीर निर्वाण सवत् – मुनि विद्यानन्द जी २११ | शब्दकोश) का द्वितीय भाग भी छप चुका है। इसमें लगभग
४०० जैन प्रन्यों से वर्णानुक्रम के अनुसार लक्षणों का ४. स्याद्वाद . एक अध्ययन - रामजी एम. ए. २१३
संकलन किया गया है । लक्षणों के संकलन में प्रन्थकारों ५. कलिंग जिन
-~श्रीठाकुर २१६
के कालक्रम को मुख्तया दी गई है। एक शब्द के अन्तर्गत ६. अनेकान्त के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के
जितने ग्रन्थों के लक्षण संग्रहीत हैं उनमें से प्रायः एक विषय मे
२१८ । । प्राचीनतम ग्रन्थ के अनुसार प्रत्येक शब्द के अन्त में ७. शील की प्रतिमूर्ति अनन्तमती
हिन्दी अनुवाद भी दे दिया गया है । जहाँ विवक्षित लक्षण -श्री मिश्रीलाल जैन २१६
में कुछ भेद या होनाधिकता दिखी है वहाँ उन ग्रन्थों के ८. वीतराग की पूजा क्यो ?
निर्देश के साथ २.४ ग्रन्थों के प्राश्रय से भी अनुवाद -प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार २२२
किया गया है । इस भाग में केवल 'क से प' तक लक्षणों ६. दीवान रूपकिशोर जैन को सार्वजनिक
का संकलन किया जा सका है। कुछ थोड़े ही समय में साहित्य सेवा -अगरचन्द नाहटा २२४
इसका तीसरा भाग भी प्रगट हो रहा है। प्रस्तुत
ग्रन्थ संशोधकों के लिए तो विशेष उपयोगी है ही, १०. तत्त्व क्या है ? -प्राचार्य तुलसी २२६
साथ ही हिन्दी अनुवाद के रहने से वह सर्वसाधारण ११. जैन मतानुसार तप की व्याख्या
के लिए भी उपयोगी है। द्वितीय भाग बड़े प्राकार -रिषभदास रॉका २२६ ] में ४१८++२२ पृष्ठों का है । कागज पुष्ट व १२. पुण्य तीर्थ पपौरा (खण्ड काव्य) -सुधेश २३३ | | जिल्द कपड़े को मजबूत है। मूल्य २५-०० रु० है। यह १३. खजुराहो की अद्वितीय प्रतिमाये
प्रत्येक यूनीवसिटी, सार्वजनिक पुस्तकालय एवं मन्दिरों मे -शिवकुमार नामदेव २३५ |
संग्रहणीय है। ऐसे ग्रन्थ बार बार नहीं छप सकते।
समाप्त हो जाने पर फिर मिलना अशक्य हो जाता है। १४. जैन धर्म ससार की दृष्टि मे १५. साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री, प्रकाश
प्राप्तिस्थान चन्द्र, बालचन्द्र सि. शास्त्री २३६ |
वीर सेवा मन्दिर, २१ दरियागंज,
दिल्ली-६
२३७
अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पैसा
अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक | मण्डल उत्तरदायी नहीं है।
--व्यवस्थापक
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अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
-
वर्ष २६
।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण संवत् २४६८, वि० सं० २०३०
फरवरी १६७४
किरण ६
॥
सिद्धस्तुतिः र मत्वादणुदशिनोऽवधिदृशः पश्यन्ति नो यान् परे, यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं खमस्थं भमेकं यथा । सिद्धानामहमप्रमेयमहसां तेषां लघुर्मानसो, मूढात्मा किम् वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वशः॥ निःशेषामरशेखराश्रितमणिश्रेयचिताङ्घ्रिद्वया, वेवास्तेऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम् । सर्वषामुपरि प्रवद्धपरमज्ञानादिभिः क्षायिकः,
युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान् नमामो वयम् ।। सूक्ष्म होने से जिन सिद्धों को परमाणुदर्शी दूसरे भवधिज्ञानी भी नहीं देख पाते हैं तथा जिनके ज्ञान में स्थित तीनों लोक प्राकाश में स्थित एक नक्षत्र के समान स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं उन अपरिमित तेज के धारक सिद्धों का वर्णन क्या मुझ जैसा मूर्ख व हीन मनुष्य कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। फिर भी जो मैं उनका कुछ वर्णन यहां कर रहा हूं वह प्रतिशय भक्ति के वश होकर ही कर रहा हूँ। जिनके दोनों चरण समस्त देवों के मुकुटों में लगे हुए मणियों की पंक्तियों से पूजित हैं । अर्थात् जिनके चरणों में समस्त देव भी नमस्कार करते है, ऐसे वे तीर्थदर जिनदेव भी जिन सिद्धों के उन्नत पद को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न करते हैं। जो सबों के ऊपर वृद्धिंगत होकर अन्य किसी में न पाए जाने वाले ऐसे अतिशय वृद्धिंगत केवल ज्ञानादि स्वरूप क्षायिक भावों से संयुक्त हैं, उन सिद्धों को हम नमस्कार करते हैं।
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वर्तना की सर्जना : एक अध्ययन
सन्मतकुमार जैन
'वर्तना' जैन सिद्धांत का एक पारिभाषिक शब्द है। का एक मात्र कारण यही हो सकता है जैसा कि अकलंक कालके दो भेदों में परमार्थकाल का लक्षण वर्तना बतलाया ने एक तटस्थ प्राचार्य की, जो संभवतः पाणिनि व्याकरण गया हैं। वय॑ते वर्तनमात्रवा वर्तनेति' या वर्तनशीला से सम्बन्धित थे, शङ्का के माध्यम से कहा है कि युट् में वर्तना यह वर्तना का अर्थपरक विभाजन है। V वृत्ति टित् होने से स्त्रीलिंग में डीप् प्रत्यय प्राप्त होता है। 'धातु से कर्म या भाव में 'युट' प्रत्यय करने पर वर्तना डीप प्रत्यय प्राप्त होने पर वर्तना के स्थान पर वर्तसी शब्द बन ता है । ऐसी प्राचार्य पूज्यपाद की मान्यता है परन्तु शब्द बनेगा, जबकि युच् अथवा युक् प्रत्यय मानने पर परवर्ती प्राचार्य प्रकलंक देवके अनुसार युट् प्रत्यय के स्थान ऐसा नही होता तो फिर आचार्य पूज्यपाद का युट् प्रत्यय पर युच् प्रत्यय करके वर्तना शब्द बनता है। प्रत्यय भेद वाला प्रयोग अनुचित सिद्ध होता है ? नही ? प्राचार्य की तीसरी मान्यता प्राचार्य विद्यानन्द की है। इन्होने पूज्यपाद का प्रयोग अनुचित तब होता जब कर्म और भाव 'वृत्ति' धातु से कर्म में 'युक्' प्रत्यय करने पर तथा के स्थान पर करण अथवा प्रधिकरण में युट् प्रत्यय किया तच्छील अर्थ में युच् प्रत्यय करने पर वर्तना की सर्जना जाता और उसका विग्रह वर्ततेऽनया अस्या वा वर्तना मानी है।
हो जाता परन्तु प्राचार्य पूज्यपाद ने ऐसा नहीं किया है। एक ही परम्परा के प्राचायाँ में प्रत्यय भद क्या इस प्रकार अकलंक देव ने यद्यपि प्राचार्य पूज्यपाद हमा १ क्या व्याकरण के ग्रन्थो मे युक्, युच् अथवा युट् का समर्थन करके उनके प्रयोग को स्पष्ट कर दिया है तीनों प्रत्यय वर्तना शब्द की सिद्धि कर सकते है ? क्या तथापि "णिजन्ताद्यचि वर्तना' वार्तिक बनाकर यूट की यक, युच अथवा युट् प्रत्यय हस्तलिखित पुस्तक लिखते समय सशयात्मक वत्ति को सदा के लिए समाप्त भी कर दिया विद्वानों की भूल से परिवर्तित हो गये? सर्वार्थसिद्धि में है। इस प्रकार प्राचार्य पूज्यपाद के परवर्ती अकलंक देव जब प्राचार्य पूज्यपाद युट् प्रत्यय मान चुके थे तब परवर्ती तो 'यट प्रत्यय से परिचित थे, परन्तु उनके परवर्ती प्रकलंक देव और विद्यानन्द ने युटु प्रत्यय क्यों नहीं माना? प्राचार्य विद्यानन्द ने यूट के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं क्या प्रा०पज्यपाद का प्रयोग गलत था? इत्यादि नाना चलाई है तो फिर इन्होंने यक प्रत्यय क्यो माना ? संभप्रश्न मस्तिष्क में अनायास ही उद्भूत हो जाते हैं। वत' 'यूक' प्रत्यय 'युट' प्रत्यय ही होना चाहिए जो कि
उपयुक्त प्रश्नों पर जब गूढ़ दृष्टि डाली जाती है तो हस्तलिखित पस्तक मे किसी विद्वान् की लेखनी से लिख यह तो निश्चित हो जाता है कि युच् प्रत्यय प्रकलंक देव गया होगा क्योंकि 'वर्तनशीला वर्तना' वाले विभाजन में और विद्यानन्द दोनों को मान्य है। युट् प्रत्यय न मानने
मा० विद्यानन्द को यूच् प्रत्यय मान्य है ही। 'युक्' प्रत्यय १. कालो हि द्विविधः परमार्थकालो व्यवहारकालश्च
व्याकरण में होता है या नही तथा इसके द्वारा वर्तना सर्वार्थसि. श२२.
शब्द बनता है या नहीं यह व्याकरण ग्रन्थों में खोज का २. परमार्थकालो वर्तना लक्षणः । वही. ५।२२. विषय है। ३. वृत्तर्णिजन्ताकर्मणि भावे वा युटि स्त्रीलिंगे वर्तनेति यह 'वर्तना' की सर्जना के सम्बन्ध मे एक संक्षेप रूप
भवति वय॑ते वर्तनमात्र वा वर्तना" वही. श२२. अध्ययन है। ४. णिजन्ताधुचि वर्तना रा वार्तिक ५।२।२
६. करणाधिकरणयोर्वर्तनेति चेत्; युटि सति डीप्रसङ्गः" ५. वृत्तयेन्तात्कर्मणि भावे वा युक्त. श्लो. वा. २२२. राजवा. ५।२२।१ भाष्य ।
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महावीर निर्वाण संवत्
मुनि विद्यानन्द जी
भगवान महावीर का निर्वाण कब हुआ, इस सम्बन्ध ६०५ वर्ष ण मास का यही मन्तर दिगम्बरों में भी में जैनों में गणना की एक अभेद्य परम्परा विद्यमान है मान्य है । हम यहां तत्सम्बन्धी कुछ प्रमाण दे रहे हैंऔर वह श्वेताम्बरों तथा दिगम्बरों से समान ही है। (१) पणहस्सयबस्सं पणमासजुव गोयम वीरणिवुइयो। "तित्थो गालीय पन्ना" में निर्वाण काल का उल्लेख करते सगराजो तो कक्की बदुणव-तियमहिय सगमासम् ।। हुए लिखा है
-नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती रचित त्रिलोकसार तं यणि सिदिगमो, परहा तित्थंकरो महावीरो। (२) वर्षाणां षट्शी त्यक्त्वा पंचानो मासं पचकम् ।
यणि भवंतीए, अभिसित्तो पालम्रो शया । ६२० मक्ति गते महावीरे शकराजस्सतोऽभवत् ॥६०-५४६ पालग रणो सट्टी, पुण पण्णसयं वियाणि गंदाणम् ।
-जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराण । मरियाणं सट्रिसयं, पणतीसा पूस मित्ताणं (तस्स)॥६२१ (३) णियाणे जिणे छन्वास सबेसु पंचविरिसेसु । बलमित्त भाणुमित्ता, सट्टा चत्ताय होंति महसेणें ।
पण मासेसु गवेसु संजादो सगणियो महवा ॥ गहन सयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ॥६२१
-तिलोय पण्णत्ति भाग १, पृ० ३४६ पंचय भासा पंच प, बासा छच्चेव होंति वाससया।
(४) पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति बायसया । परि निम्म अस्सऽरिहतो, तो उत्पन्नो (पडिवनो)
सगकालेण य सहिया यावे यवो वदो रासी॥
सगोराया ॥६२३ (जिस रात मे भर्हत् महावीर तीर्थङ्कर का निर्वाण
पवला (जैन सि. भवन पारा) पत्र ५३७
वर्तमान ईस्वी सन् १९७३ में शक संवत् १६६४ है । हमा, उसी रात (दिन) मे भवन्ति में पालव का राज्या
इस प्रकार ईस्वी सन् और शक संवत्सर में ७६ वर्ष का भिषेक हुआ।) ६० वर्ष पालक के, १५६ नन्दों के, १६० मोर्यो के,
अन्तर हुमा । भगवान् महावीर का निर्वाण शक संवत् से ३५ पुष्यमित्र, ६० बलमित्र, भानुमित्र के, ४० नयःसेन
६०५ वर्ष ५ मास पूर्व हुमा । इस प्रकार ६०३ में से ७६ के और १०० वर्ष गर्दै भिल्लों के बीतने पर शक राजा घटा दन पर महावार का निवाण इस्वी पूर्व ५२७ म
सिद्ध होता है। का शासन हुमा। महन् महावीर को निर्वाण हुए ६०५ वर्ष और ५
केवल शक संवत् से ही नहीं, विक्रम संवत् से भी मास बीतने पर शक राजा उत्पन्न हुआ।)
महावीर निर्वाण का अन्तर जैन साहित्य में वर्णित है। यही गणना अन्य जैन ग्रन्थों में भी मिलती हैं। हम
___ तपाच्छ पट्टावलि में पाठ पाता हैउनमें से कुछ नीचे दे रहे हैं :
जंरणि कालगमो, परिहा तिरपंकरो महावीरो। १..श्री बीर निर्वृतः पभिः पंचोत्तरः शतः। सं राण अवणि बई, पहिसित्तो पालयो राया ॥१
शाक संवत्सरस्यषा प्रवृत्तिभरतेऽभवत् ॥ वट्ठी पालय रणो ६०, पणवग्णालयं तु होइनवाणम् ।
मेरु तुगाचार्य रचित विचार श्रेणी (जैन साहित्य अट्ठ सयं मुरियाणं १०८, तीसच्चियं पूसमित्तस्स ३०॥२ संशोधक-खंड २, अंक ३-४१०४।
बलमित्त माणुमित्त सट्टी ६०, बरिसाणी वतन हवाणे। २. छहिं वाताण सएहि पंचहिवासेहि पंच मासेहि। तह गाभिल्लर तेरस १३ बरिस सग्गस्स पाउबरिसा॥
ममणिबाण गयस्सर पाविसह समोराया। श्री विक्रमादित्यश्च प्रतिबोषितस्तद्राज्यं तु श्री वीर नेमिचन्द्र रचित 'महावीर परिचय' श्लो. २१९६ पत्र १४-१ सप्ततिः चतुष्टये ४७० संजातं ।
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२२ वर्ष २६, कि० ६
[६० वर्ष पालक राजा, १५५ वर्ष नवनन्द, १०८ वर्ष मौर्यवंश, ३० वर्ष पुष्यमित्र बलामित्र भानुमित्र ६०, वहपान ४० वर्ष । गर्दभिल्ल १३ वर्ष, शक ४ वर्ष कुल मिला कर ४७० वर्ष बाद हुआ । ]
- तीर्थङ्कर महावीर विजयेन्द्र सूरि । ईसा पूर्व ५२७ वर्ष भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् दिगम्बर श्राम्नायानुसार केवली श्रुतकेवली और दशपूर्वधरों की सूची --
केवली - ३
१ गौतम गणधर
२
सुधर्म
३ जम्बू स्वामी
-
श्रुतकेवली - ५
विष्णु नन्दी
१
२ नन्दिमित्र
३ अपराजित
४ गोवर्धन
५ भद्रबाहु
१२ वर्ष
१२ वर्ष
३२ वर्ष
१४ वर्ष
१६ वर्ष
२२ बर्ष
१६ वर्ष
२६ वर्ष
१६२ वर्ष
दिगम्बर प्राम्नाय के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् श्रुतकवली का लोपमाना गया है( ई० पू० ३६५ )
एकादश गणधर :
इन्द्रभूतिरग्निभूतिर्वायुभूतिः सुधर्मकः । मौर्योऽयो पुत्रमित्रावकम्बन सुनामधृक् ।। ग्रन्धवेल: प्रभासश्च रुद्रसंख्यान् मुनीन् भजे । गौतमं च सुषमं च जम्बूस्वामिन मूर्ध्वगम् । श्रुतharatsive विष्णुनन्द्यपराजितान् । गोवर्धनं भद्रबाहु बशपूर्व परं यजे
- श्राचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ चन्द्रगुप्तमुनिः शीघ्रं प्रथमो दशपूविणाम् । सर्व संधाधिपो जातो विशालाचार्य संज्ञकः ॥
- हरिषेण रचित कथाकोष ३६ । दश पूर्वधरों मे प्रथम चन्द्रगुप्त मुनि शीघ्र ही विशावाचार्य नाम से सर्वसघ अधिपति हुए ।
विशाल प्रोष्ठिल क्षत्रीयजय नाग पुरासरान् ।
अनेकान्त
सिद्धार्थ धुतिषेणाही विजयं बुद्धिवलं तथा ॥ गंगदेवं धर्मसेनमेकादश तु सुश्रुतान् । नक्षत्रं जयपालाख्यं पाण्डुश्च ध्रुवसेनकम् । कंसाचार्य पुरोडीभि ज्ञानार प्रजयेऽन्वहम् । सुभद्रश्च यशोभद्रं यशोबाहुं मुनीश्वरम् । लोहाचार्य पुरा पूर्वज्ञान चत्रषरं नुमः ॥
दश पूर्वघर - ११
१ विशाखाचार्य
२ प्रोष्ठिल
थ क्षत्रिय
४ जयसेन
५ नागसेन
६ सिद्धार्थ
७ घतिषेण
विजय
६ वुद्धिवल्ल
१० गंगदेव
११ धर्मसेन
एकादशांगधारी
१ आचार्य नक्षत्र २ प्राचार्य जयपाल ३ प्राचार्य पाण्डु ४ प्राचार्य ध्रुवसेन ५ कंसाचार्य
प्राचारांग धारी १ प्राचार्य सुभद्र
२ आचार्य यशोभद्र
३ प्राचार्य यशोबाहु ४ प्राचार्य लोहाचार्य
१० वर्ष १६ वर्ष
१७ वर्ष
२२ वर्ष
१५ वर्ष
१७ वर्ष
सम्पूर्ण योग - ६४२ वर्ष
१५ वर्ष
१३ वर्ष
२० वर्ष
१४ वर्ष
१६ वर्ष
१५४ वर्ष
- २२० वर्ष
११२ वर्ष
प्रभावक प्राचार्य
१ प्राचार्य गुणधर ( कषाय पाहुड) विक्रम सं० १६ २ प्राचार्य कुन्दकुन्द ( समयसार ) विक्रम सं. ३५ । ३ प्राचार्य उमास्वामी ( तत्वार्थ सूत्र ) वि. सं० १५० ४ प्राचार्य समन्तभद्र ( रत्नकरण्ड ) वि. स. बीसवीं शती । ५ प्राचार्य सिद्धसेन (सन्मति सूत्र ) वि. सं. पाँचवीं शती ।
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स्याद्वाद एक अध्ययन :
रामजी, एम० ए०
जैन न्याय की सबसे बड़ी देन भारतीय नैयायिक विचार को उनका 'स्याद्वाद' संबंधी सिद्धांत है। उसमें सविकल्प मानवीय ज्ञान की अल्पता की अनुभूति कुट-कूट कर भरी है, साथ ही समन्वयवाद की भी । स्याद्वाद, दो शब्दों के योग से बना है । स्यात् + वादस्याद्वाद । सामान्य अर्थ में स्पात् शब्द का अर्थ शायद, किचित् तथा सम्भावना प्रादि से लिया जाता है। वास्तव मे सम्भावना के शाब्दिक अर्थ के रूप मे स्याद्वाद का प्रयोग नही किया जाता । सम्भावना के द्वारा सन्देहवाद का भी बोध होता है, किन्तु जैन दर्शन को हम सन्देहवादी नही कह सकते; क्योंकि शेष ज्ञान को सिखानेवाला कभी सन्देह को सिखाएगा, यह सम्भव नही है । हमारी समझ मे अशेष ज्ञान केवल ज्ञान को दिखाने का प्रयत्न, इस सिद्धांत में किया गया है। कभी-कभी स्यात् शब्द का अनुवाद 'किस प्रकार किया जाता है जिससे अज्ञेयवाद का बोध होता है, किन्तु यह मत अज्ञेयवादी नहीं है। स्यादवाद शब्द का प्रयोग सापेक्षता के रूप मे किया गया है और स्यादवाद का उचित अनुवाद सापेक्षवाद (Theory of Relativity) ही हो सकता है, इसलिए सापेक्षाबाद भी कहा जाता है। स्वाद्वाद अनेकान्तवाद के ऊपर आधारित है यह एक प्रकार से जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धांत है, जिसके द्वारा जैन दार्शनिकों की उदारता का पता लगता है। प्रत इस सिद्धात का जैन दर्शन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है स्याद्वाद को स्यादवादमन्जरी मे इस प्रकार परिभाषित किया गया है, स्यादवाद नेवान्तवादो नित्यानित्यादयनेकध मंशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति" अर्थात् ग्यादवाद अनेकान्तवाद को कहते है; जिसके अनुसार एक ही वस्तु मे नित्यता मनित्यता आदि नेक धर्मो की उपस्थिति मानी जाती है और प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक मानी जाती है।' The judgement
१. धनन्त धर्मक वस्तु पदर्शनसमुच्चय, पुष्ट-५५४
about an object possessing many characteristics is called Syadvada जैन दार्शनिकों का मत है किं किसी भी यस्तु के पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए, उस वस्तु के सभी सम्बन्धो का ज्ञान प्राप्त करना होगा। सम्बन्ध केवल भावात्कक ही नही होता प्रभावात्मक भी होता है । इसलिए वस्तु के ज्ञान के लिए सभी सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसलिए एक वस्तु को समझने के लिए विश्व की सभी वस्तुओं को भली भांति समझना पड़ेगा |
एकोभावः सर्वया पेन दृष्टः । सर्वभावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ सर्वभावाः सर्वथा येन दृष्टाः । एकोभाव: सर्वथा तेन पृष्टः ॥
अर्थात् जो व्यक्ति एक वस्तु को सभी प्रकार से समझ लेता है, वह सभी वस्तुओं को सभी प्रकार से समझ सकता है | यदि सभी वस्तुनो को समझ लिया गया है। तो, एक वस्तु को भलीभांति समझा जा सकता है ।
इस प्रकार जैन दर्शन का विचार है कि एक वस्तु को देखने की अनेक दृष्टिया हो सकती है, किन्तु सम्पूर्ण सत्य क्या है, इसको देखने के लिए सब दृष्टियो का सश्लेषण आवश्यक है। यही तात्पर्य प्रनेकान्तवाद को 'सम्पूर्ण आदेश' या 'सफल प्रदेश' कहने का है । सब कुछ यहा संसार मे 'विकल' ही विकल देश है, सविकल्पक खण्ड-खण्ड है । सकल प्रदेश यहां एक दृष्टियों के मिलाने से बनता है जिसका अनेकात प्रतीक है। किसी वस्तु की सत्ता या सत्ता के विषय मे हम केवल यही कह सकते $:
अपने
(१) स्पादास्ति प्राक्षिक रूप में पड़ा सत्य है । उपादान, स्थान, समय और स्वरूप के २. भरतसिंह उपाध्याय बीट दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन भाग-२ पुष्ट-८४०,
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२१४ वर्ष २६, कि.
अनेकान्त
दृष्टिकोण से घड़ा विद्यमान है अर्थात् अपना अस्तित्व साथ ही साथ यह मिट्टी का घड़ा है सोने का घड़ा नहीं है रखता है। मिट्टी से बना हुमा घड़ा, इस समय मेरे पास इसका भी प्रतिपादन करते है। विद्यमान है । जो अमुक प्राकार व माप का है।
जैन दार्शनिकों का ऐसा विचार है कि यहां जो सामने (२) स्यान्नास्ति-प्रापेक्षिक रूप में बड़ा असत्य है। काला घड़ा है वह स्थान, समय विशेष स्वरूप व उपादान अपने उत्पादान, स्थान, समय और स्वरूप के दृष्टिकोण विशेष के कारण सत्य है और अपने स्थान विशेष, समयसे घड़ा विद्यमान नही है, अर्थात् वह अपना अस्तित्व विशेष, स्वरूप विशेष व उपादान विशेष के कारण असत्य नहीं रखता है । सोने बना हुमा घड़ा इस समय मेरे भी है । अर्थात् दोनों है इसलिए जब हम घड़ा कहें तो पास विद्यमान नहीं है ; जो अमुक प्राकार व माप का हो। पहले उसमें स्याद् शब्द का प्रयोग करें।
(३) स्यादस्तिनास्ति-प्रापेक्षिक रूप में घड़ा जन दार्शनिकों का कहना है कि विचारों को दोष मत्य है और असत्य है, दोनो है। अपने विशेष अर्थ में रहित बनाने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग घड़ा है, और एक दूसरे विशेष अर्थ में घड़ा नहीं है । हम करना चाहिए। सरल भाषा मे अगर किसी को यहा कह सकते है कि विशेष अर्थ मे घड़ा है और एक काना कहना हो तो, उसको काना कहने की अपेक्षा विशेष अर्थ में घड़ा नहीं है।
"भाई सम्पूर्ण देखने के लिए दो प्रांखों के तेज (४) स्याद् प्रवक्तव्यं-मापेक्षिक रूप में घड़ाप्रवक्त- की आवश्यकता है।" ऐसा कहना ही स्याद्वाद है। व्यनीय है (Indiscribable) जबकि ऊपर हमने कहा जैन दर्शन का स्याद्वाद सभी दार्शनिक सिद्धांतों को कि रतु विशेष के रूप में घड़ा है और वस्तु विशेष के
प म घड़ा ह ार वस्तु विशष क अपने में समेटे हुए है, इसी कारण यह स्याद्वाद का रूप में घड़ा नहीं है, तो यह सब कथन एक साथ करना सिद्धांत सभी दार्शनिकों को मान्य भी है। लेकिन जैन सम्भव नहा ह । इसालए वस्तु प्रवणनाय ह । जबाक घड़ दर्शन का स्याद्याद, जो समन्वयवाद, जो समन्वयात्मक में इसके अपने विशेष रूप मे है और विशेष वस्तु के रूप दष्टि कोण रखता है वह शंकर के अद्वैत वेदान्त के में नही है, तो भी हम से उस वणित नही कर सकते।
समन्वयात्मक दृष्टिकोण से भिन्न है। जैन दर्शन का ५) स्यादस्ति च प्रवक्तव्यं-आपेक्षिक में घड़ा
स्याद्वाद भौतिक समन्वयात्मक है; जबकि शकर सत भी है और प्रवक्तव्यनीय भी है । भावात्मक दृष्टि- का प्रदवंतवाद प्राध्यात्मिक समन्वयात्मक है । जैन दर्शन कोण से वरतु है भोर नही भी है और हम उसका वर्णन
स्याद्वाद की वात तो करता है, लेकिन पूर्णज्ञान को भी नही कर सकते । यहां पर हम उस घड़े की सत्ता और
कौन निर्धारित करेगा, इसके उत्तर में वह सबको समान अनिर्वचनीयता दोनों को एक साथ परिलक्षित करते है। दर्जे पर रखता हैं। जबकि शंकराचार्य उस सामान्य से
(६) स्यान्नास्ति च प्रवक्तव्यं-प्रापेक्षित रूप में जाकर वहा को स्थापित करते है। जैन दार्शनिक यह पडा प्रसत है और प्रवक्तव्यनीय भी है। यहां पर,
प्रांतिक जान को पर्णज्ञान कहते हैं, तो यह प्रभावात्मक वस्तु के दृष्टिकोण से पीर इसके साथ ही धर्मनिष्ठा है। यहीं पर दर्शन के विचार की उदारता साथ वस्तु विशेष केदृष्टिकोण से वह घड़ा नहीं है । यहा
में विश्व में सबसे अधिक मशहर है। सच्चे एवं महान पर हम उस घड़े की प्रसत्ता और अनिर्वचनीयता को
दार्शनिक की परीक्षा अनुयायियों की संख्या के बल पर परिलक्षित करते है।
तथा उदारता पर निर्भर है।' इस संसार कोई भी (७) स्याबस्ति - नास्ति प्रवक्तव्यं-मापेक्षिक तथा
बात झूठी नहीं है, सबको समझने की सच्ची दृष्टि होनी रूप में घड़ा सत्य, असत्य और प्रवक्तव्यनीय है। अपने से विशेष अर्थ में और भावात्मक दृष्टिकोण से मोर साथ
चाहिए, वह झूठी न हो। अगर दृष्टि ही झूठी हो तो
। सृष्टि की कोई भी चीज सच्ची नहीं है।' ही साथ स्थानविशेष व समय विशेष के कारण बड़ा है, नहीं भी है और पनिवंचनीय भी । यहाँ पर हम एक घड़े ३. सूरीश्वर जी, जैन दर्शन की रूप रेखा, पृष्ठ-३३ की अनिर्वचनीयता का प्रतिपादन करते हैं और इसके ४. "
" पृष्ठ-३८
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स्यावाद : एक अध्ययन
२१५
जैन दर्शन में जो विरोध देखने को मिलता है जैसे- विरोध या भेद-भाव उत्पन्न नहीं होगा। यही कार्य पापी और पाप दोनों बिल्कुल भिन्न है । पाप और पापी जैनियों का स्यादवाद करता है। जैन दार्शनिकों का ऐसा दोनों एक ही हैं।
विचार है यह जो सामने काला पडा है वह स्थान विशेष जैन दर्शन में से परस्पर विरोधी बातें बगैर व समय विशेष के कारण सत्य है और स्थान विशेष स्यादवाद के समझ में नहीं पा सकती। जब कोई पापी समय विशेष के कारण असत्य भी है, अर्थात् दोनों है। सामने पाता है तब देखना चाहिए कि पापी और पाप इसलिए केवल अपने मत को सत्य कहना अन्य मत को भिन्न हैं, इसलिए पापी को मारने से क्या ? परन्तु अब असत्य कहना ठीक नहीं है। हमसे कोई पाप का आचरण होता है तो सोचना चाहिए अन्त मे हम यही कह सकते हैं कि जैन दार्शनिको कि मैं और पाप दोनों भिन्न नहीं बल्कि एक ही है। की उदारता का मुख्य स्रोत स्याद्वाद ही रहा है । इस इसलिए जितना ही मैं अधिक कष्ट सहूगा उतना ही मेरे बात को ठीक प्रकार से समझने के लिए हम उनकी पाप का बोझ हल्का होता जाएगा। यहां पर जैन दार्शनिक मान्यतामों को अन्य दार्शनिको की मान्यतामों से करके अपने को अत्यन्त अहिसा की कोटिपर पहुचा देते है देख सकते । जबकि बौद्ध मंज्झिम मार्ग का अनुसरण करते हैं।
(१) किसी भी प्रात्मा में मोक्ष की तीव्र अभिलाषा दर्शन में जो गति और स्थिति, एक और अनेक, उत्पन्न होने पर वह एक दिन अवश्य मोक्ष विस्था को नित्य और अनित्य, द्वैत, और ईश्वरवाद और अनीश्वर- प्राप्त होगा। वाद प्रादि दार्शनिक तत्वों को लेकर जो पचड़े खड़े होते (२) मोक्षावस्था की भावना जैन को ही हो यह है उनका भी समाधान स्याद्वाद से हो जाता है। जैन प्रावश्यक नहीं। परिकल्पना के आधार पर वस्तु के निरूपण की कठिनाई (३) जैन दर्शन से घणा होने पर भी यदि उसमे
योकि हम सिद्धात के अनसार पदार्थ मोक्षेच्छा की तीव्रता हो तो वह अंत में मोक्ष को प्राप्त के रूप में उद्देश्य और विधेय समान है और रूपभेद और होगा। दष्टिभेद के कारण भिन्न दिखलाई पड़ते है । यथार्थ सत्ता
औरणभित दिखलाई पडते । यथार्थ सत्ता (४) मोक्ष प्राप्त करने के लिए, जैनधर्म का ही का गतिशील स्वरूप व स्थिर स्वरूप केवल सापेक्ष और अनुकरण करें यह जरूरी नही। सोपधिक निरूपण के साथ ही मेल खा सकता है। प्रत्येक (५) जैनधर्म को माननेवाला ही स्वर्ग में जाएगा सिद्धांत की स्थापना कुछ विशेष अवस्थामो मे और अन्य नरक में जाएगे; ऐसे जैन दार्शनिकों की मान्यता विशेष काल मे या परिकल्पित रूप मे दी सत्य है और नहीं हैं। असत्य भी है।
(६) जैन कुल मे उत्पन्न होने पर भी यदि पात्र नावाद को लेकर इतने उदार है कि अयोग्य हो तो नर्क में जाएगा, जबकि जैन विरोधी कुल भारतीय दर्शन मे जो घिरोध पाया जाता है कि तप से मे उत्पन्न होने पर भी यदि पात्र योग्य हो तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी, भक्ति से मोक्ष की प्राप्ति होगी. स्वर्ग की प्राप्ति होगी। ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होगी या योग से मोक्ष को प्राप्ति जैन दार्शनिक इतना उदार होते हुए भी जैनियों की होगी और समाज सेवा धर्म है, इन सभी का समन्वय सख्या बहुत कम है, तो इसके लिए कोई पाश्चर्य की बात स्याद्वाद मे हो जाता है। स्याद्वाद को लेकर यहा पर नहीं है । इसके लिए प्राचार्य विनोबा भावेजी के शब्द जैनियों का मत होगा कि इसमे कोई भी तप एव कर्म काफी हैं ..--. झूठा नही है, इतना ही है कि वे परस्पर की बात माने "जैनियों मे दूसरे दार्शनिकों की अपेक्षा संख्या और उसको स्थान विशेष, समय विशेष की दृष्टि से सत्य बहुत कम है । मुझसे लोग पूछते है कि भाज जैनियों या असत्य का निर्णय करें तो उनमें किसी प्रकार का
की सख्या बहुत कम क्यों है ? मैं कहता हूं कि कन
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कलिंग जिन
-श्री ठाकुर
उन्होने जब जो चाहा, मिला-अन्धकार में दीप्ति, निराशा कलिंग प्रजा अपने युवक सम्राट् खारवेल से अत्यन्त में सम्बल, हार में प्रेरणा और विषाद में प्राश्वासन । सन्तुष्ट है। प्रजा रंजन के लिए उन्होंने लक्ष-लक्ष पण वह उनके हृदय में गहरे विश्वास की तरह जम गई थी। लगाकर अनेकों सुख सुविधायें प्रदान की थीं। पैतीस लक्ष
और वही एक मात्र कड़ी थी कि कलिग की ३५ लाख पण से खिविर सागर से एक कुल्या बनवाई । जिससे सारे
प्रजा का एक ही विश्वास और एक ही मार्ग बन गया था। जानपद अति सन्तुष्ट है। ७५ लाख पण लगाकर रत्न
किन्तु विश्वास का वह देवता उनके पास न था। नन्दराज बड़ित चार स्तम्भ बनवाए। महा विजय प्रसाद का ।
कलिग विजय के उपहार के रूप में उस प्रतिमा को उठा सौन्दर्य और कला मानों दर्शको से मौन संलाप करता है।
ने गया था। पराजय के व्रणकाल ने भर दिये थे, किन्तु वहाँ के मदनोद्यान, राजकीयोद्यानादि अनेकों उपवनों में
जब उनके विश्वास का एक मात्र सम्बल ही उनके पास प्रकृति इठलाती फिरती है। प्रजा को खारवेल के रूप मे
न रह गया, छीन लिया गया तो धैर्य और सन्तोष का सौन्दर्य मिला, समृद्धि मिली, कला मिली, न्याय मिला
स्थान भी रिक्त हो गया। लगता था, निरन्तर बढ़ती हुई और सन्तुष्टि मिली।
समृद्धि के प्रति उनकी वितृष्णा दूर न होगी, जब तक मन किन्तु कलिग की प्रजा जब 'जयकलिंग जिन पुकारती ।
__ का वह देवता अपने सूने देवालय मे न प्रान विराजे । तब उसके मन में दबी हुई वेदना उभर पाती। कलिग जिन उसके प्राराध्य देवता थे। उस देवता के चरणों मे उसने धर्म पाया था, आत्म प्रतीति पाई थी, कर्म पाया और सम्राट् खारवेल ? था और जग की सुषमा पाई थी। इस जगत की नश्वरता- उनका कुल देवता छिन गया था। उनके वंश का में सब कुछ ही तो नश्वर था। किन्तु एक मात्र अविनश्वर भारी अपमान हुआ था। कलिग के विद्यापीठ में जब में की वह कलिंग जिन की विमुग्धकारी मूर्ति जो कलिग की उन्होने पढा था कि दक्षिण कौशल से आकर उनका सारी प्रजा के मन में, सम्पूर्ण पात्मा मे ऊँचे आसन पर प्रतापी पूर्व सम्राट महामेघवाहन ने कलिंग में ऐलचेदि न जाने कब मे विराज रही है। उस भव्य प्रतिमा से वंश का प्रभाव स्थापित किया और उसका पराभव मगध संख्या बुद्धिमानी की निशानी है शक्कर मीठी है यह
सम्राट् नन्दराज ने किया, इतना ही नहीं, उनके कुलपानी में घुल मिल जाती है तो अपना अस्तित्व
देवता को भी मानों वह सम्राट् उठा ले गया, तब से ही व्यापक बना देती है । शक्कर के मिल जाने पर लोग
खारवेल खार खाये बैठा था। क्षत्रिय होकर वह अपने कहते है 'जल मीठा है' पर वास्तविक बात तो यह
वंश के पराभव का प्रतिशोध लेना ही कुल देवता की है कि शक्कर की मिठास है। जैन भी अन्यो मे कलिग में पुनः प्रतिष्ठा किए बिना उसका प्रतिशोध धुल कर उनमे चुपचाप मधुरता भरते रहते हैं।"५ निरर्थक होगा। और यों युवक सम्राट् के जीवन की
साधना अपने वंश के अपमान का प्रतिशोध लेने की बजाय स्याद्वाद जैन दर्शन का अजेय किला है; जिसमे वादी
अपने कुल देवता की प्रतिमा को पुनः कलिंग में लाना प्रतिवादी के मायामय गोले प्रविष्ट नहीं हो सकते। . यह हो गई। कलिंग जिनकी वह रत्नमय प्रतिमा केन्द्र ५. प्राचार्य विनोवाभावे, जैन भारती, वर्ष-१५, अंक-१६ बन गई, जिसके चारों भोर अपमान का प्रतिकार, प्रमा
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नि
२१७
का रंजन, साम्राज्य का विस्तार, भौर चक्रवर्ती पद मंड- कभी न होगा। देव प्रतिमाओं का स्थान देवालय ही हैं। राने महराने लगे। भार्य संस्कृति में भाज भी विश्व को देने की क्षमता है। तब वह याचक क्यों बने। भारत की गरिमा प्रक्षुण्ण रहेगी । यवनराज को भारत छोड़ना ही होगा, छोड़ना ही होगा। उसे भारत की महानता को, पवित्रता को कलंकित करने की घुष्टता का फल भोगना ही होगा। और बत्तीस वर्ष के युवक सम्राट् की चतुरंगिणी जब झारखण्ड के मार्ग से होकर मगच पहुंची, पवन-सेना में एक भयंकर भूचाल आ गया। ईमेजिय ने जब सुना कि राजगृही, गोरयगिरि दुर्गों पर खारवेल का पताका फहरा रही है, उस पर भयानक रूप से प्रातंक छा गया। दूसरे क्षण वह और उसकी यवन सेना भारत विजय का स्वप्न छोड़, कठोर सत्य का दर्शन करके न केवल मगध से अपितु भारत की सीमा से निकल गई।
(२)
मगध सम्राट् ब्रहद्रथ को मारकर उनका महामंत्री पुष्यमित्र मग साम्राज्य का भोग और विस्तार कर रहा था । अश्वमेघ यज्ञ करके चक्रवर्ती पद प्राप्त कर लिया
था।
वाल्हीक का पचन नरेश देंमेत्रिय पवर्ती के बनने की महत्त्वाकांक्षा में निरन्तर प्रागे बढ़ता जा रहा था। वह शौरसेन, पांचाल और साकेत विजय करके मगध साम्राज्य को निगलता हुआ पाटलीपुत्र तक पहुच चुका था ।
सम्राट् खारवेल ने गम्भीरता से सोचा- क्या इस अवसर पर यह उचित होगा कि एक आर्य वंश को पराभूत करके अपने अपमान का प्रतिशोध लू। मेरे इस प्रति शोध में भारतमाता की पराधीनता निहित है । प्रपने सम्राट् स्वामी का वध करने वाले पुष्यमित्र का चक्रवर्ती पद उसके बल में नहीं, छल में छिपा है। उस छल का जाल समय पर तोड़ा जा सकेगा। किन्तु यदि यवनराज मैत्रय को मगध पर अधिकार करने का अवसर मिल गया तो भारत की प्रार्य सभ्यता यवन साम्राज्य की ज्वाला में भस्मसात हो जाएगी। तब भारत माता के चरणों को कोटि-कोटि भारतीयों का अच्छे नहीं, वनों की लोह बेड़ियाँ सजायेंगी। क्या मेरा शौर्य, मेरा प्रभाव और मेरी यह विशाल चतुरंगिणी विदेशी यवनों की भाकांक्षापूर्ति का साधन होगी ।
सम्राट् ने सोचा, फिर सोचा। एक ओर वे देख रहे थे- उनकी विजय वैजयन्ती प्रतापशाली सात बाहन वंशी शातकर्ण के प्रासादों पर फहरा रही हैं, मूषिक, राष्ट्रिक, योजक सब राजा छत्र और भिरंगार हीन भूमि पर लोट रहे हैं। सारे दक्षिणपथ में 'जय कलिंग जिन' का नाद हो रहा है। दूसरी ओर उन्होंने देला शौरसेन, पांचाल मौर साकेत के विशाल देवालय भूमिसात् हो रहे हैं। देव प्रतिमाएं सिंहासनों के पाये बन रही है। मायं संस्कृति कन्बार और वाल्हीक की भोर मुंह फाड़े दीन भाव से बेच रही है।
सम्राट् खारवेल अपनी विजय की सुरभि से मगध वासियों को प्राकर्षित करके जब लौटे तो भारत माँ ने उनकी भारती उतारी, देवताओं ने उनके मार्ग फूलों से भर दिए ।
(३)
ठीक चार वर्ष बाद
पुष्पमित्र ने अपने पराभव की वेदना के चिन्ह और परिजनों में ध्यान प्रवहेलना को के लिए दुबारा श्रश्वमेघ यज्ञ किया। विभिन्न राज्यों के राजाओं द्वारा भेंट किवा ग्रहण करके पुनः चक्रवर्ती पद धारण किया । वह अपने राज्य की सुरक्षा की ओर विशेष ध्यान देने लगा । और राज्य का पुनर्गठन करके अपने भाठों पुत्रों को उपरिक बनाकर विभिन्न नगरों का दायित्व सौंप दिया। प्रजाजन को सन्तुष्ट करने के लिए धर्म के नाम पर शासन करने लगा। उसने राज्य की सीमाओं पर चर भेज दिए। धायुक्तकों के अधीन एकएक अक्षौहिणी कर दी। सीमान्त दुर्गों का उद्धार करके भटाश्वपतियों के अधीन कई-कई प्रक्षौहिणी मेज दी। दिन रात युद्धाभ्यास होने लगा । लगता था मानों सारा मगध साम्राज्य एक विशाल युद्ध शिविर बन गया है।
युद्ध कला के मर्मज्ञ सम्राट् खारवेल से विश्वस्त उनके अन्तर से जोरों की हुक उठी-"नहीं, यह चरों द्वारा इन युद्धाभ्यासों और सतर्क तैयारियों का पता
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२१८, वर्ष २६, कि०६
अनेकान्त लग रहा था। वे अब पुष्यमित्र को अधिक अवसर देना कलिंग सेना सुगङ्गप्रासाद को घेरे खड़ी है। विजयी उचित नहीं समझते थे। और एक दिन कूच के ढोल बज सम्राट खारवेल हाथी पर शौर्य और प्रोज की धारा बहाते ही उठे।
से सस्मित मुद्रा में बैठे हैं। पाटलीपुत्र की पावन तोया X
जाह्नवी खारवेल की सेना के हाथियों को मार्ग देती बह के प्रभंजन के वेग से चले। जो सामने आया, वह रही है। और असख्य वाहिनी निरन्तर पाटलीपुत्र में टिक न सका। वे जिस ओर भी गये, राजा भेंट लेकर प्रवेश कर रही है। खडे मिले । समय की तरह दुर्विचार और काल की तरह चक्रवर्ती पुष्यमित्र की कुछ सेना सीमांत पर कलिग दुर्दान्त । कौन था जो उसके सामने पड़ने का साहस की अग्रगामी सेना से जूझ रही है जो सोन के मार्ग से करता। सारा उत्तरा पथ कांप उठा उनके शौर्य से, सारा आई थी और शेष सेना पाटलीपूत्र मे कलिग सेना के उत्तरापथ प्रातंकित हो उठा उनकी रणचातुरी से । सारे समक्ष अपने सारे प्रायुध समर्पण कर चकी है। स्वयं नृप करद माण्डलिक बन गए।
पुष्यमित्र वन में महर्षि पातञ्जलि को अपने पराभव का जब यकायक उन्होंने अपना मार्ग बदल दिया। अग्र
बृत्तान्त सुना रहे है। और इधर पाटलीपुत्र के प्रमुख गामी दल के साथ दो प्रक्षौहिणी को मुख्य मार्ग से मगध
उपचरिक वहसातिमित्र समभ्रम कलिग जिनकी प्रतिमा
उपचरिक मानि समोर भेजा और शेष वाहिनी को लेकर स्वयं हिमालय सम्राट खारवेल को समर्पित कर रहे है। की उपत्यकामों के कठिन किन्तु गुप्त मार्ग से पाटलिपुत्र
जब सम्राट् खारवेल ने अपने कुलदेवता की प्रतिमा की भोर रवाना हुए।
श्रद्धा और सम्मान के साथ ग्रहण की, तो कलिग की और एक दिन पाटलिपुत्र की जनता के उषाकाल में असंख्य वाहिनी के कण्ठ से 'जय कलिंग जिन' का तुमल अत्यन्त विस्मय और भय के साथ देखा
जयघोष निकल पड़ा।
'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में
प्रकाशन का स्थान
'वीर सेवा मन्दिर' भवन, २१, दरियागंज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि
द्वैमासिक मुद्रक का नाम
श्री बालकिशन राष्ट्रीयता
भारतीय पता
रूप वाणी प्रिटिग हाऊस २३, दरियागंज, दिल्ली प्रकाशक का नाम
ओम प्रकाश जैन (सचिव) राष्ट्रीयता
सभी भारतीय पता
वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली सम्पादको का नाम
डा० प्रा० ने० उपाध्ये, कोल्हापुर; डा. प्रेमसागर, बड़ौत;
श्री यशपाल जैन, दिल्ली; प्रकाशचन्द्र जैन, दिल्ली। राष्ट्रीयता
भारतीय पता
मार्फत : वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था
वीर सेवा मन्दिर, २१, दरियागज, दिल्ली मैं मोमप्रकाश जैन घोषित करता हूँ कि उपयुक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १७-२-७४
ह. प्रोमप्रकाश जैन
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प्रादर्शमहिला
शील की प्रतिमूर्ति अनन्तमती
श्री मिश्रीलाल जैन
अयोध्या के एक जिनालय में संस्कृत के सरस एवं महावीर ने अनुग्रह से आपका आश्रय मिल गया, यही पावन श्लोक गूंज रहे थे।।
मेरा अहोभाग्य और परिचय है । भिन्नात्मनमुपास्यव परो भवति तादृशः।
प्रायिका पद्मश्री ने कहा-बेटी यह जैन चैत्यालय वति दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी है। यहाँ भगवान महावीर के चरणों में सभी प्राश्रय
(परमात्मा की उपासना करके उन्ही के समान अहंन्त पाते है। संसार मे ऐसा कौन-सा पाप है, जिसका प्रायसिद्ध स्वरूप परमात्मा हो जाता है जैसे कि दीपक की श्चित्त न हो? तेरी गम्भीर वाणी मुख मण्डल से झांकती बाती से भिन्न होकर भी दीपक की उपासना से दीपक हुई पावनता इस बात का प्रमाण दे रही है कि तुझमें स्वरूप हो जाती है।)
अपूर्व पात्मिक शक्ति का विकास हुया है। स्वर्ण जितना सहसा एक नारी का करुण स्वर सुनाई पड़ा-माँ तपता है, उतना ही निखरता है । भय मुक्त होकर अपनी आश्रय दो! स्वाध्याय रुक गया। गंजता हा श्लोक व्यथा सुना बेटी, अब तू प्रायिका पद्मश्री के संरक्षण मौन पड़ गया । करुण पुकार ने प्रायिका पद्मश्री के हृदय में है। को द्रवित कर दिया। पद्मश्री उठी, देखो द्वार पर एक मां, मैं अनन्तमती हूँ। चम्पापुर नगर-सेठ की इकथकी-हारी युवती खड़ी है। युवती ने पुन: कहा-मां लौती पुत्री। कर्मो के संयोग से इतने कष्ट हुए कि अब आश्रय दो ! और आयिका पद्मश्री का हाथ बरबस युवती जीवन के प्रति कोई ममता शेष नहीं रही है । नारी को के माथे पर चला गया। आर्यिका पद्मश्री ने कहा- भय सौन्दर्य देकर प्रकृति ने सबसे बड़ा छल किया है । सौन्दर्य मुक्त हो बेटी ! क्या कष्ट है तुझे ? किन्तु इतना सब के कारण मैंने इतने कष्ट उठाए है कि सत्य भी स्वप्न सा कुछ मुन पाने की शक्ति उस युवती में कहां थी? यूवती लगता है। कुछ माह पूर्व चम्पापुर के एक उद्यान में अपनी का अचेतन शरीर पृथ्वी पर गिरने लगा। प्रायिका ने सहेलियो के साथ प्रभु नेमिकुमार से सम्बन्धित एक लोक आश्रय दिया। शीतल जल युवती के मुख पर सीचा, तब गीत गा रही थी:कहीं युवती को सुध पायी। चेतना लौटते ही युवती
मोह तनो, ममता तजी, उठी। उसने आर्यिका पद्मश्री की चरण रज मस्तक पर
उनने तजे है सकल परिवार जी। चढ़ायी और कहा-मा नमोऽस्तु । प्रायिका पद्यश्री ने
प्रन व्याही राजुल सजी, युवती के मस्तक पर अपना वरदानी हाथ रखा और
वो तो जाए चढ़े गिरनार जी। शान्त, संयत, गम्भीर स्वर मै कहा-धर्म चिरन्तन प्रास्था किन्तु स्वप्न जल्दी ही बिखर गए । भविष्य अन्धहो, सुखी रहो। कौन हो बेटी तुम? क्या कष्ट है करमय है। होनहार होकर रहती है। उसी समय एक तुम्हे ?
आकाशगामी विमान उतरा और एक बलिष्ठ पुरुष अनेक युवती के दोनो हाथ श्रद्धा से जुड़ गए, मस्तक झुक सहेलियो के बीच से मुझे उठा ले गया। जब सूर्य की गया। उसे ऐसा लगा जैसे प्रकृति ने उसकी रचना मे सब लालिमा प्रस्ताचल में सिमट रही थी, वह मुझे एक निर्जन कुछ लगा दिया है। वह बड़े ही करुण स्वर में बोली-मां वन में छोड़ गया, जाते समय उसने कहा-मैं विद्याधरों मुझ प्रभागन का परिचय जानकर क्या करेंगी ? भगवान के राज्य किन्नरपुर का स्वामी हैं। किन्नरपुर समीप है।
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२२०, वर्ष २६, कि०६
भनेकान्त
राज्य के निवासी, सामन्त परिवार के सभी सदस्य मेरे देगा। मार्ग में मुझे पिता के समान व्यवहार किया और स्वागत की प्रतीक्षा में होंगे। मैं नहीं चाहता कि तू मेरे कहा-बेटी तू चिन्ता न कर । यदि लोकापवाद के कारण मगौरव का कारण बने । मैं शीघ्र ही लौट कर पाऊँगा तेरे माता-पिता तुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो तू मेरी पुत्री और तुझे ले जाऊंगा। और इस तरह मुझे किन्नरपुर के तो है ही। मैं तेरा विवाह किसी उत्तम कुल के युवक से निकट निर्जन वन में छोड़कर चला गया। सम्भव है उसने कर दंगा। सोचा हो, इस निर्जन वन मेंमेरी प्रतीक्षा के अतिरिक्त मैंने कहा-धर्म पिता, मेरे विवाह का प्रश्न ही नही और मार्ग ही क्या हो सकता है ? पर दुःखो की कोई उठता। पुष्पसेन ने पाश्चर्य से कहा-अभी यौवन काल सीमा नहीं होती मां । कुछ समय बाद मैंने एक दैत्याकार का प्रारम्भ है। तुझे जीवन के अनेक यौवन-बसन्त देखने श्यामवर्ण मानव को देखा। वह मृगया के शस्त्रों से लैस हैं। इस वय में विरक्ति ? मैं कुछ समझ नहीं पाया। था। उसके पीछे उसी के आकार जैसे अनेक व्यक्ति थे। मैंने कहा-बाल्यकाल में अष्टाह्निका पर्व के समय चम्पामैं भय से कांपने लगी । भाग भी न सकी । इतने में उसने पुर में एक जैन श्रमण पाये थे । मेरी मां और पिता जी मझे पकड़ लिया और कन्धे पर टांग लिया। किन्तु अन्ध- ने अष्टाह्निका पर्व में ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया । मैंने भी कार में से ही प्रकाश की किरण फूटती है। रात्रि के अनजाने में कहा-पिता जी मैं भी ब्रह्मचर्य लूंगी। पिता पश्चात् भोर होता हैं। वह मुझे अपने गांव ले गया। हंसी मैं वोले---तू ले ले बेटी। मैंने जीवन भर के लिए भील की पत्नी भील से भी भयंकर थी, किन्तु मां उसकी ब्रह्मचर्य स्वीकार कर लिया। बाल्यकाल की स्मृति यौवन भयंकरता के कारण ही मेरी पावनता की रक्षा हो सकी। की देहरी तक पाते-पाते मस्तिष्क पर दृढ़ता से छा चुकी भील पत्नी ने कहा-इस घर में सौत नही रहेगी। उसने मुझे है। मैं प्रति वर्ष अष्टाह्निका पर्व पर अपने बाल्यकाल की सरक्षा में लिया। बहुत स्नेह दिया । भीलनी का व्यवहार स्मृति में इस संकल्प को दोहरा लेती हैं। भगवान महास्नेह देखकर मुझे लगा कि इस श्याम तन पर अनेक वीर और महासती चन्दनबाला के पावन चरित्र मेरे सौन्दर्य न्योछावर किये जा सकते है। भीलों का राजा मस्तिष्क में सदैव गंजते रहते हैं। ये नित नयी प्रेरणा सींगों मादि तथा चन्दन की लकड़ियों का व्यापार करता और शक्ति देते हैं, यदि मझे मेरे माता-पिता स्वीकार न था। एक दिन एक प्रौढ़ व्यक्ति कई सेवकों के साथ लकड़ी करें, तो हे धर्म पिता पाप मेरे जीवन का भार उठाइये । खरीदने पाया। भीलनी ने उसे बुलाकर कहा-यह एक मझे किसी जैन प्रायिका के चरणों में स्थान दिला दीजिये। शीलवती युवती है। इसे कोई निकट की सघन अटवी में पूष्पसेन ने मेरे कथन पर प्रसास किया। हरण करके छोड़ गया है। तुम इसे ले जामो । प्रतिज्ञा
तीन दिन गए। मैंने सोचा था अब मेरे दुःखों का करो कि इसे पुत्री के समान रखोगे तथा सुविधा पाकर
अन्त निकट मा गया है। किन्तु दुर्भाग्य ने पीछा नहीं इसके माता-पिता के पास पहुंचा दोगे।
छोड़ा। जिसे मैं धर्म पिता समझी थी, उसने एक दिन __मैंने उस व्यापारी की भोर देखा। उसके चेहरे के अत्यन्त घृणित प्रस्ताव प्रस्ताव रखा-अनन्तमती धर्म पीछे से झांकती वासना मेरी दृष्टि से छिपी न रह सकी। और शील की बात छोड़ । मैं तुझे अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति मैं भयभीत हई। मैंने कहा-मां मैं तुम्हारे पास ही सुखी की स्वामिनी बना दंगा। मानव जीव बार-बार नहीं है। किन्तु इसके पूर्व भीलनी कुछ कहती, वणिक बोला मिलता। यौवन के सुखद अण फिर नहीं पाते। यौवन
में पुष्पसेन हूँ । मेरी प्रौढ़ावस्था है । तुम्हारी उम्र की का उपभोग करो। यौवन की मादकता का प्रभी तुझे पुत्र-पुत्रियों से मेरा मांगन सदैव गूजता रहता है, मैं भय अनुभव नहीं है। एक बार इन भोगों को प्रारम्भ कर मुक्त हुई और उसके साथ चल दी। मार्ग में पुष्पसेन का दिया था छोड़ने का नाम भी नही लोगी। धर्म की बाते व्यवहार बहुत सुखद रहा। मुझे उसने विश्वास दिलाया निस्सार है। कि वह शीघ्र ही मुझे मेरे माता-पिता के पास पहुँचा मैंने कहा-धर्म पिता, मानव जीवन बार-बार नहीं
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शील की प्रतिमूर्ति मनन्तमती
२२१
मिलता। भोगे हुए भोगों में तृप्ति कहाँ ? मानव जन्म करूं'। प्रत: मैं उस पुरुष के साथ चल दी। गणिका के भनेक भवों में भटकने के बाद मिलता है। यह जीवन भवन के आगे एक सुसज्जित रथ खड़ा था, उसी में मेरी भी संसार के प्रपंचों और विलासिता में बीत गया, तो तन यात्रा प्रारम्भ हुई। रथ एक दुर्ग के मागे रुका और सब कुछ कौड़ी के मोल बिक जाएगा। पुष्पसन ने कहा मझे इसको चारदीवारी में बन्द कर दिया गया। लम्बी
-पगली, ज्ञान की बाते रहने दो। खुशी-खुशी समर्पण यात्रा के कारण मंग-अंग टूट रहे थे। थकान में पलकें नहीं किया, तो मुझे बलपूर्वक अपनी वासना पूर्ति करनी बोझिल थीं। किन्तु प्रकाश की एक किरण सम्बल बन पड़ेगी। मैं तुझे दो दिन की अवधि देता हूं। यदि इस गई। हृदय ने कहा, बाद ने उसका अनुमोदन किया कि वीच तने अपना निर्णय नहीं बदला, तो मुझे बल प्रयोग जिस प्रदश्य शक्ति ने बाल्यकाल में ब्रह्मचर्य अंगीकार करना पड़ेगा।
करने की प्रेरणा दी थी, वही शक्ति मुझे जीवन के लों ___मैंने भगवान महावीर का स्मरण कर अन्न-जल छोड़ से छुटकारा देगी । मैंने वीर प्रभु का स्मरण किवा । दिया और यह प्रण किया कि जब तक इस उपसर्ग का निवारण नहीं हो जाएगा, मैं अन्न-जल ग्रहण नही इस पुनीत स्मरण से मेरा सुषुप्त विश्वास लौट फरूगी। भख-प्यास और मानसिक उत्पीडन से दो दिन प्राया। मुझे लगा जैसे कोई प्रज्ञात अलौकिक शक्ति मेरे में शरीर की कान्ति क्षीण हो गई। मूर्छा पाने लगी। भय को दूर खींच ले गई है। हृदय को शान्ति मिली, दो दिन बाद पुष्पसेन पाया । मेरे शरीर की दशा देखकर साहस मिला। सहसा किसी के आने की पदचाप सुनाई घबराया। बोला-तुझे तेरे पिता के पास भेज दंगा, त
दी। मैंने देखा कि ठही बलिष्ठ राजपुरुष मादकता में अन्न-जल ग्रहण कर ले।
वढ़ा चला आ रहा है । उसके चेहरे पर क्रूर वासना खेल मैं अपने निश्चय पर अडिग रही। तीसरे दिन वह रहा
रही थी। मैंने णमोकार मंत्र का जप प्रारम्भ कर दिया । एक प्रौढ़ा को लेकर पाया और बोला-मैंने तुझे धर मत्र
हा मंत्र का चामत्कारिक प्रभाव हा । उसके बढ़ते हुए कदम भेजने की व्यवस्था कर दी है। तू भोजन कर ले और
रुक गए। उसकी वासना न जाने कहाँ विलीन हो गई। इस महिला के साथ आनन्द पूर्वक अपने घर जा। मैंने
न जाने किस अदृश्य शक्ति ने इतनी जल्दी उसके विचारों कुछ फल-दूध आदि स्वीकार किया। मैं उस महिला के
में परिवर्तन ला दिया। वह बोला--बहिन क्षमा करना।
मैंने अनेक युवतियों के साथ बलात्कार किया है। मेरे इस साथ चल दी। किन्तु दुर्भाग्य से वह एक गणिका थी और पिशाच पुष्पसेन ने मुझे उसके हाथों इसलिए सौंपा था
कक्ष की दीवारे उस पाप की साक्षी है। मेरे कान में कि वह मुझे उसकी वासना पूति के लिए विवश करे ।
उनकी चीत्कारें आज भी गूंज रही है। प्राज के पहले
कभी मेरे हृदय में दया नहीं पायी। आज मैं तुझे सच्चे शाम तक मुझे यह ज्ञान न हो सका कि देवसेना एक गणिका है। किन्तु रात्रि के प्रथम प्रहर में अश्लील गीतों हृदयसे बहिन कह कर पुकार रहा हूँ। मुझे अपने शब्दों का की धुनें, पायलों की झंकारें और अट्टहासों ने मुझे सोचने अपमान करना नहीं पाता है। प्राण भले ही चले जायें, पर विवश कर दिया कि देवसेना एक प्रसिद्ध एवं धनिक पर बहिन तेरी पावनता पर कोई दाग नहीं पाएगा। गणिका है। रात्रि के प्रथम प्रहर मे धरुपो की झंकारें, मैं भागिनी-विहीन हूँ। एक बार मुझे भाई कह कर तबले की था, रात्रि के तीसरे पहर थमी। मैं एक पल पुकार । भी न सो सकी । सुबह-सुबह देवसेना ने एक स्वस्थ धनिक नायास ही मेरे हृदय में निकल पड़ा-भैया! मुझे युवक से मेरा परिचय कराया और कहा कि यह बहुत उसकी बाणी मे प्रायश्चित्त की झलक मिली, किन्तु मैं चरित्रवान् व्यक्ति है। इसका प्राश्रय स्वीकार करो। मैं दूध से जल चुकी थी। मैंने कहा-भैया यदि तुम सच्चे
जानती थी कि मुझे बेचा जा रहा है। किन्तु मैं विवश हृदय से प्रायश्चित्त कर रहे हो, यदि तुम क्षत्रिय हो, तो • थी। मैंने सोचा-पहले इस कुट्टनी के घर से मुक्ति प्राप्त मुझे मार्ग दो ! मुझे इसी समय मुक्त कर दो। वह मार्ग
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वीतराग की पूजा क्यों ?
प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार
जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजन से अशोभन, अपावन मनुष्य के पूजा कर लेने पर वह देव प्रसन्न होता है, और प्रसन्ता के फलस्वरूप पूजा करने नाराज हो जाएगा। और उसकी नाराजगी से उस मनुष्य वाले का कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो तथा समूचे समाज को किसी देवी कोप का भाजन बनना लोक में उसकी पूजा सार्थक समझी जाती है। और पूजा पडेगा; क्योंकि ऐसी शंका करने पर वह देव वीतराग ही से किसी का प्रसन्न होना भी तभी कहा जा सकता है नहीं ठहरेगा-उसके वीतराग होने से इनकार करना जब या तो वह उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उसमें होगा, और उसे भी दूसरे देवी देवतामों की तरह रागी उसकी प्रसन्नता में कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे द्वेषी मानना पडेगा। इसी से अक्सर लोग जैनियों से कहा उसको कोई दूसरे प्रकार का लाभ पहुंचता हो; परन्तु करते हैं कि जब तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा वीतराग देव के विषय में यह सब कुछ भी नहीं कहा जा उपासना की कोई जरूरत नहीं। कर्ता धर्ता न होने से सकता-ये न किसी पर प्रसन्न होते हैं; न अप्रसन्न और किसी को कुछ देता-लेता भी नहीं। तब उसकी पूजा न किसी प्रकार की इच्छा ही रखते हैं, जिसकी पूर्ति- वन्दना क्यो की जाती है ? और उससे क्या नतीजा है। प्रपति पर उनकी प्रसन्नता अप्रसन्नतानिर्भर हो। वे सदा इन सब बातों को लक्ष्य में रखकर स्वामी, समन्तभद्र ही पूर्ण प्रसन्न रहते हैं उनकी प्रसन्नता में किसी भी जो कि वीतराग देवों की सबसे अधिक पूजा के योग्य कारण से कोई कमी या वृद्धि नही हो सकती। और जब समझते थे और स्वयं भी .प्रतेक स्तुति स्तोत्रों के द्वारा पूजा पूजा से वीतराग देव की प्रसन्नता या अप्रसन्नता उनकी पूजा मे हमेशा सावधान एवं तत्पर रहते थे, अपने का कोई सम्बन्ध नहीं। वह उसके द्वारा संभाव्य ही नहीं। स्वयंभू स्तोत्र में लिखते हैंतब यह तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि पूजा कैसे की न पूजार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दयानाथ नितान्त वैरे। जाए, कब की जाय, किन द्रव्यों से की जाय, किन मंत्रों से नया
स तथापि ते पुण्य गुणस्मृतिर्नः पुनाति चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः॥ की जाय, और उसे कौन करे-कौन न करे ? और न
अर्थात हे भगवान् पूजा वन्दना से आपका कोई प्रयोयह शंका हो की जा सकती है कि प्रविधि से पूजा करने
जन नही है, क्योकि आप वीतरागी है-राग का अंश भी पर कोई अनिष्ट घटित हो जागगा । अथवा किसी अधर्म
आपके आत्मा मे विद्यमान नही है, जिसके कारण किसी से हट गया, मैं उसी क्षण चल दी और निरन्तर चलती की पूजा वन्दना से आप प्रसन्न होते। इसी तरह निन्दा हो रही।
से भी आपका कोई प्रयोजन नहीं है। कोई कितना ही यह है मेरी आत्म-कथा मां, मुझे आश्रय दो। आपको बुरा कहे, गालिया दे, परन्तु उस पर आपको जरा संसृति के अपावन कोलाहल ने मेरी शान्ति, मेरी प्रास्था भी क्षोभ नहीं आ सकता, क्योंकि आपकी प्रात्मा से छीन ली है। मुझे भगवान ऋषभ देव की अमृतवाणी का वैरभाव द्वेषांश बिलकुल निकल गया है। वह उसमे विद्यपान कराओं।
मान भी नही है। जिससे क्षोभ तथा प्रसन्नता आदि कार्यों प्रायिका पद्मश्री ने अनन्तमती की अनन्त व्यथा को का उद्भव हो सकता। ऐसी हालत में निन्दा और स्तुति पहिचाना।
दोनों ही आपके लिए समान है। उनमें आपका कुछ भी वह पत्नश्री का प्राश्रय पाकर निहाल हो गई। . बनता या बिगड़ता नहीं है। यह सब ठीक है। परन्तु फिर
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वीतराग की पूजा क्यों
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भी हम जो आपकी पूजा वन्दनादि करते है उसका दूसरा सब संसारी जीव अविकसित अथवा अल्पविकसितादि ही कारण है, वह पूजा वन्दनादि आपके लिए नही- दशाओं में है-वे अपनो आत्मनिधि को प्रायः भूले हुए है आपको प्रसन्न करके आपकी कृपा सम्पादन करना, या सिद्धात्माओं के विकसित गुणों पर से वे प्रात्मगुणों का उसके द्वारा आपको कोई लाभ पहुचाना, यह सब उसका परिचय प्राप्त करते है और फिर उनमें अनुराग बढाकर ध्येय नहीं है। उसका ध्येय है आपके पुण्य गुणों का स्मरण उन्ही साधनों द्वारा उन गुणों की प्राप्ति का यल करते भावपूर्वक अनुचिन्तन---जो हमारे चित्त को-चिप- है, जिनके द्वारा उन सिद्धात्माओं ने किया था। और आत्मा को-पापमलो से छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र इस लिए वे सिद्धात्मा वोतराग देव आत्म-विकास के बनाता है, और इस तरह हम उसके द्वारा अपने आत्मा इच्छुक संसारी आत्माप्रो के लिए आदर्शरूप होते हैं। के विकास की साधना करते हैं। इसी से पद्य के उत्तरार्ध प्रात्मगुणों के परिचयादि मे सहायक होने से उनके उपमें यह सैद्धान्तिक घोषणा की गई है कि आपके पुण्य गुणो कारी होते है और उस वक्त तक के उनके आराध्य रहते का स्मरणहमारे पापमल से मलिन आत्मा को निर्मल है जब तक कि उनके प्रात्मगुण पूर्णरूप से विकसित न करता है-उसके विकास में सचमुच सहायक होता है। हो जाए इसी से स्वामी समन्तभद्र ने "ततः स्वनिःश्रेय
संभावना परैबुंधप्रवेकजिन शीतलेड्यसे। (स्व०५०) यहाँ वीतराग भगवान् के पुण्यगुणों से स्मरण से पाप
इस वाक्य द्वारा उन बुध जन-श्रेष्ठों तक के लिए वीतराग मल से मलिन प्रात्मा के निर्मल होने की जो बात कही
देव की पूजा को प्रावश्यक बतलाया है। जो अपने निःश्रेयस गई है वह बड़ी रहस्यपूर्ण है और उसमें जैनधर्म के प्रात्म
की- प्रात्माविकास की भावना में सदा सावधान रहते वाद और कर्मवाद, विकासवाद और उपासनावाद जैसे
है । और एक दूसरे पद्य 'स्तुतिः स्तोतुः साधोः' (स्व० सिद्धान्तों का बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्म रूपों में सन्निहित ।
११६) मे वीतराग देव की इस पूजा भक्ति को कुशलहै। इस विषय में मैंने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी
परिणामो को हेतु बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्ग का उपासना तत्त्व और सिद्धि सोपान जैसी पुस्तको में किया
सुलभ तथा स्वाधीन होना तक लिखा है। साथ ही, उसी है-स्वयम्भू स्तोत्र की प्रभावना के भक्तियोग और स्तुति
स्तोत्रगत नीचे के एक पद्य में वे योग बल से पाठों पापप्रार्थनादि रहस्य नामक प्रकरण से भी पाठक उसे जान
मलों को दूर करके संसार में न पाए जाने वाले ऐसे परम सकते हैं। यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता
सौख्य प्राप्त हुए सिद्धात्मानों का स्मरण करते हुए अपने हैं कि स्वामी समन्तभद्र ने वीतराग देव के जिन पूण्य
लिए तद्रूप होने की स्पष्ट भावना भी करते है जो कि गुणों के स्मरण की बात कही है वे अनन्तज्ञान, अनन्त
जो कि वीतराग देव की पूजा-उपासना का सच्चा दर्शन, अनन्तराख और अनन्तवीर्यादि प्रात्मा के प्रसाधारण गुण है, जो द्रव्यदृष्टि से सब प्रात्माओं के समान होने पर सबकी समान सम्पत्ति है और सभी भव्य जीव
जो दुरितमलकलंकमष्टकं निरुपमययोगवलेन निर्दहन् । उन्हें प्राप्त कर सकते है। जिन पापमलों ने जत गणों को प्रभववभव-सौल्यवान् भवान्भवतु मयाऽपि भवोपशान्तये।' आच्छादित पर रखा है वे ज्ञानावरणादि पाठ कर्म हैं, स्वामी समन्तभद्र के इन सब विचारों से यह भले योगबल से जिन महात्माओं ने उन कर्म मलों को दग्ध प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वीतराग देव की उपासना करके प्रात्मगुणों का पूर्ण विकास किया है वे ही पूर्ण की जाती है और उसका करना कितना अधिक प्रावविकसित, सिद्धात्मा एवं वीतराग कहे जा सकते हैं। शेष श्यक है।
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दीवान रूपकिशोर जैन की सार्वजनिक साहित्यसेवा
-प्रगरचन्द नाहटा
प्राचीन जैन साहित्यकारों ने जो विविध भाषाओं में स्वतन्त्र विभाग में हो। विद्वान कवि व लेखक गृहस्थ जैन एवं अनेक विषयों का साहित्य रचकर भारतीय साहित्य श्रावक-श्राविकाओं के साहित्य के भी दो विभाग किए जा की समृद्धि में महत्वपूर्ण योग दिया है, उसकी तो कुछ सकते हैं। एक में जैन सम्बन्धी साहित्य और दूसरा जानकारी प्रकाश मे पाई है। पर गत सौ पचास वर्षों सार्वजनिक साहित्य । में भी जो अनेक जैन साहित्यकार हुए हैं, उनकी साहित्य जैन साहित्यकारों ने गत सौ वर्गों में जो भी साहित्य सेवा का परिचायक कोई ग्रन्थ तैयार नही किया गया। निर्माण किया है उनमें से प्रकाशित साहित्य की जानकारी आधुनिक कुछ जैन कवियों की कविताओं का संग्रह तो तो प्राप्त करना सुगम है पर अप्रकाशित साहित्य की भारतीय ज्ञानपीठ से निकला है । यद्यपि वह काफी अपूर्ण जानकारी का पता लगाना अत्यन्त कठिन है। प्रकाशित है फिर भी कुछ प्रतिनिधि कवियों की जानकारी उससे जैन ग्रन्थों की जो-जो उल्लेखनीय सूचियाँ छपी हैं उनसे मिल जाती है। पर गद्य की अनेक विधाओं जैसे- तथा प्रमुख प्रकाशकों और बुकसेलरों के सूची पत्रों से कहानी, उपन्यास, नाटक, निबन्ध आदि भी कई जैन तथा जैन जैनेतर ग्रंथालयों व शास्त्र भण्डारों भादि से जैन लेखकों ने अच्छी सख्या मे रचे है, उनके सम्बन्ध मे हमारी ग्रन्थकारों और उनके रचनामों की सूची तैयार की जानी जानकारी बहुत ही कम है। अत. अावश्यकता है-गत चाहिये। उन ग्रंथकारों का परिचय कुछ तो जैन पत्रसौ वर्षों में जो भी जैन साहित्यकार हुए है उनका संक्षिप्त पत्रिकाओं से एवं कुछ हिन्दी, गुजराती के साहित्यकार परिचय और उनकी रचनायो की सूची वाला एक संग्रह परिचय सम्बन्धी प्रकाशित ग्रन्थों में से संग्रहीत किया जा ग्रन्थ शीघ्र ही तैयार करके प्रकाशित किया जाए।
सकता है। पर यह सब कार्यवाही सामर्थ्य और द्रव्य आधुनिक जैन साहित्यकारों के साहित्य को मुख्य- म साध्य ह फिर भी करने योग्य ही है। तया चार-पांच भागो मे विभक्त किया जा सकता है। अभी-अभी प्रसिद्ध हिन्दी पत्रकार श्री बनारसीदास जैसे साधु-साध्वियों, चाहे ये किसी भी सम्प्रदाय या गच्छ चतुर्वेदी का अभिनन्दन ग्रन्थ जो "प्रेरक-साधक' के नाम के हों तथा अन्य त्यागी वर्ग में से जिन जिन ने उल्लेख- से सस्ता साहित्य मण्डल से प्रकाशित हुअा है, देखने मे नीय रचनाएं की हैं, उनका एक विभाग रखा जा सकता आया। उसमे श्री 'हरिहरस्वरूप विनोद' लिखित दीवानहैं । इसी तरह भाषा की दृष्टि से प्राकृत, संस्कृत गुजराती, रूपकिशोर जैन की साहित्य सेवा सम्बन्धी एक लेख प्रकाहिन्दी, राजस्थानी, मराठी, कन्नड भादि भाषामों में जिन शित हुआ है। उससे दीवान रूपकिशोर जैन ने जो सर्वजिन जैन लेखकों ने साहित्य निर्माण किया है उनका जनोपयोगी ६० पुस्तकों की रचना की है उसका कुछ दूसरा एक विभाग रखा जाय । उसी तरह साहित्य की विवरण ज्ञात हुमा। उसे अन्य जैन बन्धुओं के लिए भी अनेक विधामों जैसे महाकाव्य, प्रबन्ध काव्य, फुटकर उपयोगी समझकर यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। कविता, जीवन चरित्र, प्रवचन व उपदेशिक साहित्य, उनके लेख में दी हई रचनामों की सूची में प्राचीन ग्रन्थों के अनुवाद व टीका विवेचन तथा कथा, जैन सम्बन्धी कोई अन्य नहीं है। हां बीर भादि जैन मानी, एकांकी, नाटक, उपन्यास, निबन्ध, शोध प्रादि पत्रों का सम्पादन उन्होंने अवश्य किया था। १० वर्ष की प्रबन्ध मावि विविध विषयों के साहित्य का परिचय एक मायु में १२ दिसम्बर को उनका देहांत हुमा अतः उनके
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दीवान रूप किशोर जैन को सार्वजनिक साहित्य सेवा
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वंशजों से उनकी अप्रकाशित और जैन सम्बन्धी रचनाओं प्रत्येक भाषा मे उनकी लिखावट बहत सन्दर होती का पता लगाना चाहिए। उनकी जीवनी के सम्बन्ध मे थी। सम्पन्न जमींदार का पुत्र होने के कारण उन्हें सब भी खोज करने पर बहत सी महत्त्वपूर्ण बातें उनके वंशजों प्रकार की सुविधाएं प्राप्त थीं, इसलिए उनका सारा और साथियों से मिल सकती है, उनको भी प्रकाश में जीवन लिखने-पढ़ने में ही बीता। उन्होने १९०६ मे पायलाना चाहिए। अन्तिम दिनो मे वे अपने पुत्रों के पास र्वेद का अध्ययन किया और १७०७ मे फोटोगावी दिल्ली चले पाये और वहीं रहते थे अतः दिल्ली में उनके सीखी। एक प्रकार से वे एक कुशल चित्रकार थे। पायपूत्रों से सम्बन्ध स्थापित करने पर नई और ज्ञातार्थ जान-वंद उन्होंने पीडित वर्ग को औषधि देने के लिए सीखा कारो अवश्य ही सहज रूप से प्राप्त हो सकती है। आशा था। है इस पोर शीघ्र ध्यान दिया जायगा।
दीवान रूपकिशोर का हृदय बडा संवेदनशील था। दोवान रूपकिशोर जैन
कहते हैं कि एक बार एक किसान को बेदखल किया गया। हिन्दी के शैशवकाल मे जिन साहित्यकारों ने उसे क्योंकि उस पर दस हजार रुपया बकाया था। वह अपने जन-जन तक पहुंचाया और अनुवाद एवं मौलिक ग्रन्थों पूरे परिवार के साथ विजयगढ़ पा गया और गिड़गिड़ाने की रचना कर उसे समृद्ध बनाया, उनमें 'अलिफलला' के लगा। दीवानजी ने न केवल उसे माफ ही कर दिया, बल्कि प्रथम हिन्दी अनुवाद दीवान रूपकिशोर का नाम भी एक गाय देकर उसे बिदा किया। उसके बाद उन्होंने उल्लेखनीय है। स्व० दीवान रूपकिशीर, मुशी प्रेमचन्द के किसी किसान पर जोर जबर्दस्ती नहीं की। समकालीन थे। उर्द 'जमाना' पर प्रेमचन्द 'नवाबराय' जमीदारी के कार्य की देखभाल के साथ-साथ उनका उपनाम से लिखते थे। उसी पत्र मे दीवानजी की 'किशोर' माहित्य सजन चलता रहा। उन्होंने कुल मिलाकर ६० नाम से लिखा करते थे। जिस प्रेमचन्द ने उर्दू से हिन्दी पुस्तकों की रचना की। कहानियाँ, नाटक, उपन्यास जगत मे पाकर ख्याति प्राप्त की, उसी प्रकार दीवानजी
सम्बन्धी सभी क्षेत्रो में कलम उठाकर अपनी प्रतिभा का ने भी पहले उर्दू मे और फिर बाद मे हिन्दी मे लिख। परिचय दिया। १९०६ मे उन्होने 'चारुबाला' नामक ओर पाणीवन हिन्दी की सेवा में जुटे रहे।
उपन्यास उर्दू भाषा मे लिखा जो अप्राप्य है। इसी वर्ष दीवान रूपकिशोर का जन्म अलीगढ़ जिले के एक प्रसिद्ध 'गलशन ए किशोर' लिखा। उनके द्वारा हिन्दी भाषा में कस्बे विजयगढ में १३ जून १८८४ को हुआ । उनके पिता १३ उपन्यास बताये जाते है, जो सुनील कन्या (१९१४), दीवान इन्द्रप्रसाद जिले के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे और सूर्यकुमार सम्भव (१९१५), भारतीय वीरांगणा, शील उनकी गणना ताल्लुकेदारों में होती थी। बालक रूप- प्रबोध, अवंति कुमारी. कुदसियर बेगम, घूघट वाली तथा किशोर ने १८६० मे पढ़ना प्रारम्भ किया। उन्हे अरबी श्रीदेवी । फारसी भाषा की प्रसिद्ध पुस्तक जो एक हजार
और फारसी सिखाई गई । १८९७ में उन्होने हिन्दी पढ़ना पृष्ठों की बताई जाती है। 'अलिफ लैला का हिन्दी मे प्रारम्भ किया और कुशाग्र बुद्धि होने के कारण शीघ्र ही अनुवाद किया। यइ अनुवाद काफी लोकप्रिय हुआ। उनमे दक्ष हो गये।
___'बारहमासी' रूपकिशोर नामक काव्य और 'किशोर तत्कालीन परिस्थितियो और उच्च घरानों की पर- पूणिमा' कहानी संग्रह भी उन्हीं की रचनाएं है । उन्होंने म्परा के अनुसार उनकी शिक्षा घर पर ही अधिक हई। कुलल्लु वैद्यराज ( रूपक ) और सब्जपरी, गुलफाम मिडिल पास करने के बाद वे निरन्तर स्वाध्याय में लगे (स्वांग) भी लिखे । ज्योतिष, शरीर विज्ञान प्रादि पर भी रहे और उन्होने अरबी, फारसी तथा हिन्दी का सम्यक उनकी रचनाएं मिलती है। इस प्रकार १९०१ से लेकर जान अजित किया। शरत और टैगोर का अध्ययन करने १९२५ तक उन्होंने लिखना जारी रखा। उनके लेख उस क लिए उन्होंने बंगला भाषा सीखी। इस प्रकार कुल समय की पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाते रहे। मिलाकर वे दस भाषाएँ जानते थे ।
(शेष पृ० २३२ पर)
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तत्त्व क्या है ? . प्राचार्य तुलसी
मानव की आत्मा में अमित प्रकाश है। उसमें अन्वे- योगी साधन सबको सुलभ नहीं। उसी दशा में दूसरों के षण और पथप्रदर्शन की शक्ति है । ज्ञान-विज्ञान का अक्षय लिए अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करना उनका लक्ष्य कोष मानव बुद्धि का सुफल है। मानव की वाणी और है। आध्यात्मिक त्याग का उद्देश्य प्रात्मसंयम है। विश्व विचारों ने साहित्य, दर्शन और विज्ञान को जन्म दिया। का प्रत्येक प्राणी सुख-साधनों से फलीभूत हो, ऐश्वर्य से इसीलिए मानव शक्ति और अभिव्यक्ति का केन्द्र माना दब रहा हो' धन वैभव से लद रहा हो तो भी प्राध्यागया है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों का स्रष्टा त्मिक व्यक्ति अपनी प्रात्मा की शुद्धि के लिए भोगमय मानव है। बाह्य दृष्टियो वाले व्यक्तियो ने चेतन सत्ता सुख-साधनों को ठुकराता हुआ आत्मसंयम के मार्ग पर को भुलाकर जड़ शक्ति में विश्वास किया और आत्मा का अग्रसर होता है। अस्तित्व मानने वाले बाहरी शक्तियो का अनुभव करते भौतिकवाद मे समानता की भावना है। फिर भी हुए भी अन्तरंग अन्वेषण से विमुख न हुए।
उसमे अहिंसा के लिए कोई स्थान नही । समानता भी जीवन क्या है, हम क्या है, संसार क्या है, प्रश्न उठे भौतिकता तक सीमित है। प्रात्मवादी भौतिक समानता और समाहित हुए। समाधान में दोनों वादों ने भाग के उपरान्त भी हिंसा के दोष से बचना चाहता है। इन लिया। भौतिकवादी वर्ग जड़ शक्ति का प्राधान्य मानकर दोनों में क्या और कितना भेद है ? इसका पूर्व दर्शित सब कुछ सुलझाने की चेष्टाएं कर रहा है। आत्मवादियो प्रणाली के अनुसार सरलता से पता लगाया जा सकता का दृष्टि बिन्दु पात्मा पर टिका हुआ रहा है और वे है। उस प्रचेतन प्ररूपी सत्ता के सहारे जटिल गुत्थियाँ सुल- आज का युग विज्ञान के इंगित पर चल रहा है। झाते हैं।
उसकी हाँ की पोर ना कि प्रतिध्वनि में ही लोग अपना भौतिकवाद की जड़ मे वर्तमान जीवन का ही मूल्य श्रेय समझते है । मुझे विज्ञान अप्रिय नहीं और न मैं उसे आंका जाता है अतः वहाँ मुड़कर आगे बढ़कर दृष्टि पणा की दृष्टि से देखता हूं। फिर भी उसमे जो त्रुटि है, दौडाने की प्रावश्यकता नहीं रहती। अध्यात्मवाद की वह तो कहनी ही चाहिए । दोष अन्ततः दोष ही है । भित्ति प्रात्मा है। प्रात्मा के साथ जन्मान्तर, कर्म, स्वर्ग, चाहे वह कहीं भी क्यों न हो ? वर्तमान विज्ञान भौतिकमरक और मोक्ष की कड़ियां जुड़ी हुई है। अतीत के वादी दृष्टिकोण के सहारे पनपा है इसलिए वह जड़ तत्त्वो जीवन भलाए नहीं जा सकते और भविष्य जीवन की अोर की छानवीन में लगा हुमा है । आत्मा अन्वेषण से मांखें नही मूदी जा सकतीं।
से उदासीन है। यदि यह बात न होतो तो आज प्राध्यात्मिक क्षेत्र मे धर्म-कर्म कल्पना की सृष्टि नही, इतना संघर्ष न हुआ होता। भौतिकता स्वार्थमूलक है। वे तात्विक तथ्य है।
स्वार्थ साधना में संघर्ष हुए बिना नही रहते । प्राध्यात्मिमाज के युग का प्रमुख दृष्टिकोण जड़वादी है। कता का लक्ष्य परमार्थ है-इसलिए वहाँ संघर्षों का अन्त उसमें त्याग और संयम की प्रमुखता नहीं है। त्याग का होता है। यह सच है कि संसारी प्राणी पौद्गलिक वस्तुओं प्रयोग किया जाता है पर संयम के लिए नही। भोगों की से पूर्णतया सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकता फिर भी उन वृद्धि के लिए। भोग सामग्री की कमी हो, जीवन के उप- पर नियन्त्रण करना प्रावश्यक है। धर्म के अतिरिक्त अन्य
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तत्त्व क्या है?
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कोई तत्त्व नियन्ता नही हो सकता।
अब भी चेतो। शुष्क बुद्धिवाद में जीवन की बहुमूल्य धर्म विशाल हृदय है। अहिसा उसकी प्रात्मा है- घड़ियाँ यों ही मत खोप्रो। प्राणीमात्र के साथ विरोध न करो, उनको आत्मवत् लोग कहते हैं-यह तर्कवादी युग है। मुझे लगता समझो । हिंसा मृत्यु है मोह बन्धन है, बैर है । जो दूसरे है यह युग अनुकरण प्रेमी है। अनुकरण और तर्क की की हिंसा करता है, वह अपना बंर बढ़ाता है । विज्ञान जोड़ नहीं बनती। भेड़ उक पशु हैं। उसकी अनुकरण के बड़े-बड़े घातक और डरावने अस्त्र-शस्त्र उत्पन्न किए क्रिया क्षम्य हो सकती है। एक भेड़ के पीछे अनेक भेंड़े है। उनसे भय बढ़ा, आतंक बढ़ा और आशंकाएं बढी। बोलें, यह नही प्रखरता। बुद्धिशील मानव बिना सोचेएक समान दूसरे समाज को, एक जाति दूसरी जाति को समझे, किसी की हाँ में हां मिलाये यह प्रखरने जैसी बात
और एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र को संदिग्ध दृष्टि से निहार है। कुछ भौतिकवादियों ने धर्म को अफीम कहा तो बहुत रहा है। हिंसा ने संसार का सारा खाका ही बदल डाला। सारे लोग प्रवाह में बह चले । धर्म अफीम क्यों है ? धर्म सिंह भय के मारे भागा जा रहा है कि कही काले माथे अनावश्यक क्यों है ? यह भी कभी सोचा? यदि सोचा वाला मुझे मार न दे। मनुष्य इस भय से मरा जा रहा तो उसमें अफीम जैसी क्या वस्तु मिली। रोग सोहन के है कि कहीं बाघ मुझे खा न जाये । आज के संसार की
है और इलाज मोहन का किया जाए, यह विफल चेष्टा भी यही मनोदशा है । इस स्थिति मे कौन अभय दे सकता है। धर्म ननोन:
है। धर्म से न तो खून की नदियां बहीं और न लड़ाइयाँ है। आशंका की लपट में झुलसते पाए जगत को कौन
हुई। धर्म ने न तो धन के कोष जमा किये और न गगनउबार सकता है। इस पोर जनता ध्यान दे, सोचे और
चुम्बी अट्टालिकायें खड़ी की। यह सब स्वार्थ की काली समझे।
करतूतें है। स्वाथियों के हथकण्डे हैं। उन्होंने धर्म को सन्तोष धर्म का जीवन है । इच्छा प्राकाश के समान अपनी स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया और उनके नाम पर अनन्त है। उसे सीमित करो । संग्रह भावना मत रक्खो। बडे अन्याय और अत्याचार किए। उनके स्वार्थ सधे धर्म अधिक सग्रह से जीवन अधिक दुखी बनेगा। परिग्रह के ।
बदनाम हुअा। लोगों की उस पर से प्रास्या हटी। धर्म साथ माया, कपट, अभिमान, दण्ड और दुर्भावनाए बढ़ती हिंसा को
हिंसा और परिग्रह का सबसे बड़ा विरोधी है। उससे हमें है। सारे लोक में परिग्रह के समान दूसरी निबिड जंजीर
शान्ति, सद्भावना और विश्व मैत्री का संदेश मिला है। कोई नहीं : अर्थलोलुपता प्राज चरम सीमा पर पहुंची धर्म वाक्यों ने परिग्रह की जितनी भर्त्सना की है, उतनी हई है। दुनिया के बड़े-बड़े मस्तिष्क अर्थोपार्जन की किसी भी बाट ने नहीं की व्यायाम विधि से संलग्न है । एक दूसरे को हड़पना चाहता धर्म को धन की चाह नहीं। धन तुम्हारी रक्षा नही कर है। निगलना चाहता है । भूमि उतनी कृपण नही बनी है, सकता । धन दुख का दाता है, अनर्थ का मूल है । ये वाक्य जितनी मानव की जठराग्नि तेज बनी है। वह अनन्त धार्मिक क्षेत्र के सिवाय और कही भी नही मिल सकते। धनराशि को पचा सकती है। सामग्री अल्प है। भोक्ता धर्म से घणा मत करो-डरो नहीं। धर्म के नाम पर जो अधिक है। संचय की भावना उनसे भी अधिक है । इस विकार फैला हुआ है, उसकी शल्य चिकित्सा कर डालो। लिए तो वर्ग युद्ध छिड रहा है। नये-नये बाद जन्म ले धर्म सोना है, उसे उठा लो । वह उपेक्षा की वस्तु नहीं । रहे है। स्पर्धा और संघर्ष की चिनगारियाँ उछल रही है। पाश्चर्य है, दुनिया इस ओर ध्यान नहीं देती कि परोक्ष रूप से धर्म का स्वरूप कई बार पा च का है। धन केवल जीवन निर्वाह का साधन है। साध्य नहीं। प्रत्यक्षतः उसका पारिमाणिक रूप जान लेना चाहिए। साध्य तो कुछ और ही है। सब प्राणी सुख चाहते है। "प्रात्मशुद्धि साधनं धर्मः"-मात्मशुद्धि के साधनवह उनका साध्य है । सुख प्रात्मा का धर्म है। शरीर का अहिंसा, समय और तपस्याए' ये धर्म ही हैं। व्यवहार में नहीं। वह सन्तोष से पैदा होता है, धन से नहीं, चेतो थर्म, महिंसा, सत्य, प्राचार्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन
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२२८, वर्ष २६, कि०६
भनेकान्त
पांच रूपों में अवतरित होता है । क्षमा, सहिष्णुता, नम्रता बादल अतीत की अपेक्षा आज अधिक घने और गहरे हैं । मादि गुण इसके परिवार हैं। धर्म व्यक्तिनिष्ठ है। धर्म इस दशा में यदि धार्मिकों ने धर्म की मौलिकता पर ध्यान का चरम लक्ष्य मोक्ष है। इसका अर्थ यह नहीं कि वर्त- न दिया तो उन्हें भयंकर विपत्तियाँ झेलनी पड़ेंगी । जनता मान जीवन में उसका कुछ फल ही सहीं होता। धर्मनिष्ठ में धर्म की प्रास्था है, धर्म बहुत प्रिय है पर रोटी का व्यक्ति अपना जीवनस्तर ऊंचा उठा सकता है। मैं उस प्रश्न मुलझाने की अोर में जो नास्तिकता का प्रचार किया जीवन स्तर को ऊँचा मानता हूँ, जो अधिक से अधिक जा रहा है, धर्म पर गूढ़ प्रहार किया जा रहा है। वह त्यागपूर्ण पीर सन्तोषमय हो। जिनकी जीवन आवश्यक- उपेक्षा की वस्तु नही है। ताएं बढ़ी नहीं है, जिन्हें योग साधन अधिक उपलब्ध हैं, मैं उह राजनीतिज्ञों को भी एक चेतावनी देता हू मैं उनका जीवन स्तर ऊँचा नहीं मानता क्योंकि वस्तुतः कि वे हिसक क्रान्ति ही सब समस्याग्रो का समुचित वे सुखी नहीं है। अधिक आवश्यकताओ में सुख कम होता माधन है. इस म्रान्ति को निकाल फेंकें। अन्यथा उन्हे
ख का मात्रा बढ़ता है। स्वयं कट परिणाम भोगना होगा। स्थायी शान्ति के अधिक आवश्यकता वाला व्यक्ति राष्ट्र या समाज के शोषक शान्ति के साधन अहिसा. क्षमता और हृदय परिवर्तन है। हुए बिना नहीं रह सकते।
हिसक क्रान्तियों से उच्छ खलता का प्रसार होता है। धर्म के विषय में मनुष्य जितना भ्रान्त है। उतना
आज के हिंसक से कल का हिंसक अधिक क्रूर होगा, सम्भवतः अन्य विषयों में नहीं है। इसलिए धर्म के कुछ
अधिक सुख लोलुप होगा। फिर कैसे शान्ति रह सकेगी अंगों का सूत्र रूप में संकलन करना उचित होगा। जो आत्मशुद्धि का साधन है, वह धर्म है। धर्मस्वरूप है
-- यह कम समझने की बात नहीं है। स्थिति चक्र परित्याग और तपस्या । धर्म व्यक्ति से पृथक् नही है। धर्म
वर्तनशील है। अहिमा हीन कोई भी बाद सुखद नही हो का आश्रय वह व्यक्ति है, जी अहिसक और सन्तुष्ट है।
सकता यह निश्चित है। वर्ग संघर्ष जैसी विकट समस्या धर्म से प्राचरण पवित्र होते है। धर्म प्रेम या स्नेह से
अहिसा और सन्तोष का समन्वय किए बिना स्थायी रूप ऊपर की वस्तु है। वह समता से प्रोत-प्रोत है। धर्म का
से सुलझ नहीं सकती। यह भी निश्चित है। हिसावादी
हिंसा छोड़ें और परिग्रहवादी अर्थ-लोभ छोडें, तभी स्थिति लक्ष्य भौतिक सुख प्राप्ति नहीं, आत्म विकास है। धर्म
साधारण ही सकती है। प्राणी मात्र को अब अहिसा प्रत्येक भौतिक कर्तव्य को सीमित करता है। धर्म परलोक
और अपरिग्रह की मर्यादा समझनी है। हिसा और परिके लिए नही जीवन के प्रत्येक क्षण को सुधारने के लिए
ग्रह का अभियान करते-करते आज का मानव थक चुका धर्म धनिक एवं उच्च वर्ग वालो के लिए ही नही अपितु
है। अब उसे विश्रान्ति की आवश्यकता है। शान्ति की सबके लिए है। धर्म सबके लिए एक है। उसमे तन-मन
इच्छा है। का भेद नही है। धर्म साधना के लिए धन की आवश्यक नहीं। शुद्ध भावन। एवं सरलता आवश्यक है। ऊपर भी
___मानव सुख का प्रार्थी है । तो आत्मा को पहिचाने ।
अशान्ति को हेतुभूत भौतिक लालसानों को त्यागे, धर्म पंक्तियों में मैंने जिस धर्म का उल्लेख किया है, वह स्थायी
का अन्वेषण करे । क्षणिक सुख-सुविधाओं के लिए शाश्वत है, उपकारी है, दीन-हीन के लिए आदरणीय है।
तत्त्व को भुला देना बुद्धिमानी नहीं है। धर्म धनी और वर्तमान का राजनीतिक जीवन अति विषाक्त है।
गरीब, मालिक और मजदूर, साम्राज्यवादी मोर साम्यउसका विष ला धर्म सब क्षेत्रो की छू रहा है। धर्म भी
वादी इन सबके लिए कल्याण का प्रशस्त पथ है, सब उससे वंचित नही है। स्वार्थ की भूमिकामों में पले जिसे
धार्मिक बनें। पौद्गलिक सुखों में प्रति आसक्त न बनें । राजनीतिकवाद धर्म का नाश करने पर तुले हुए हैं।
वह जीवन क सबसे बड़ा गूढ़ रहस्य है । भौतिक सुख समृद्धि के लिए प्रात्मा का अस्तित्व यही सत्य और सनातन तत्व है। मिटाने का दृढ़ संकल्प किए हुए है, वास्तिकता के काले
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जैन मतानुसार तप की व्याख्या
रिषभदास राँका
साधना-मार्ग में तप का बहुत अधिक महत्त्व है। अवमौर्दय-जब साधक को लगे कि अनशन करने की क्योकि शरीर को कसकर उसे आत्म-विकास का साधन आवश्यकता नहीं है और ऊनोदरी से, कम भोजन से, एक बनाने में वह प्रमुख सहायक है। तप का अर्थ शरीर-कष्ट बार खाने से काम चल सकता है तो वह ऐसा करता है। नहीं है। वही तप-साधना में सहायक होता है, जिससे यह अवमौदर्य कहलाता है। शरीर और मन की प्रसन्नता बढ़े। इसलिए तप के भेदो वृत्ति-परिसंख्या--भोजन स्वादिष्ट हो, बढ़िया हो, को जानना जरूरी है। तप दो प्रकार का है-बाह्य और गरिष्ठ हो तो जीभ घर नियन्त्रण रखना कठिन हो जाता प्राभ्यन्तर। बाह्य तप के छह भेद है- अनशन, अव- है। लालसा बढ़ जाती है और तब भोजन में अनेक पदार्थ मौदर्य, बत्ति-परिसंख्या, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन शामिल ही जाते है। इस वृत्ति पर नियन्त्रण रखने के पौर कायक्लेशं । आभ्यान्तर तप के छह भेद है-प्राय लिए कहा गया है कि खाद्य पदार्थों की संख्या तथा परिश्चित्त, विनय, वैयावत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान। माण तय करना चाहिए। साधक कम से कम वस्तुओं को
ध्येय की प्राप्ति तथा वासनाओं को क्षीण करने के रखने प्रयत्न करता है, जरूरत से ज्यादह चीजो का लालच सभी प्रयत्नों को तप कहते है। ये प्रयत्न तन और मन छोडता है। दोनों से किये जाते हैं। यदि मन का साथ मिले बिना रस परित्याग-साधक की चर्या कम से कम आहार शरीर से किया जाने वाला तप देह-दण्ड या काय-क्लेश के और कम से कम पदार्थों से चलनी चाहिए। साधना मे स्वाद सिवा कुछ न होगा, इसलिए शारीरिक या बाह्य तपश्चर्या भी बहुत बाधा पहुंचाता है, इसलिए तपश्चर्या मे रस त्याग से मानसिक या पाभ्यन्तर तप का अधिक महत्त्व है। का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जिससे विकार बढते हो, इंद्रियाँ लेकिन बाह्य तप भी आवश्यक होता है।
प्रबल होती हों, वैसा आहार न करना चाहिए। छह अनशन-बिना आहार के शरीर टिक नही सकता। प्रकार का तप है । इससे विषयों के सेवन का रस भी कम शरीर का सन्तुलन बिगड़ने न पाये और वह कर्म करने होता है। योग्य अप्रमादी बना रहे, इस दृष्टि से बीच-बीच मे शरीर विविक्त शय्यासन-तपस्या में स्थान भी वाधक को आहार न देना अथवा उपवास रखना आवश्यक है। होता है । यानी पास-पास का वातावरण और परिस्थिति उपवास का अर्थ है आत्मा के निकट वास करना। यानी महायक होनी चाहिए। साधक एकान्त मे रह सके तो इस नाशवान् शरीर से भिन्न सर्वशक्तिमान और अमर अच्छा। कोलाहल पूर्ण, अस्वस्थ स्थान तथा जहाँ तरहमात्मा का अनुभव करना। जब ऐसा लगे कि शरीर निरु- तरह की बाधाएँ बड़ी हों ऐसा स्थान तपम्वी के लिए पयोगी और भार रूप हो गया है तब उसके त्याग के लिए अनुकूल नहीं होता । एकान्त, पहाड, सुनसान, पेड़ के नीचे अनशन किया जाता है। इन सब बातों का एक ही उद्देश्य साधना तेजी से होती है। अधिक नींद भी साधना में है कि हम शरीर को नश्वरता और आत्मा मी अमरता बाधक है। को समझे और उसका विकास करें। अनशन या उपवास
काय क्लेश--ठण्ड में ठण्ड का, गर्मी में गर्मी का उपका अर्थ केवल भोजन का त्याग ही नहीं है। शरीर को द्रव न हो, इसलिए शरीर को विविध आसनों द्वारा सहनविश्राम देकर उसे अधिक सेवाक्षम बनाना भी आवश्यक शील बनाए बिना बेसे प्रसंग आ पड़ने पर साधक विचलित है। स्वास्थ्य ठीक रखना साधक का का कर्तव्य भी है। हो जाता है। अतः शरीर को कष्ट सहने के योग बनाने
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२३०, वर्ष २६, कि०६
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के प्रयत्न का भी साधना में महत्त्वपूर्ण स्थान है। शरीर से दोष हो ही जाते है। व्रत का भंग हो ही जाता है। की नियन्त्रण में रखने तथा इधर-उधर के प्रलोभनों या संकल्पों में ढिलाई आ जाती है। लेकिन साधक इससे प्रमाद में न डूबने देने के लिए काया को कष्ट में डालना घबराता नही और अनशन आदि करके दोष का निवारण उचित ही है। यह एक प्रकार का प्राध्यात्मिक व्यापार ही करता है। संकल्पों को ताजा करता है। प्रायश्चित्त से है। इसे काय योग भी कह सकते है।
चित्त शुद्धि होती है और भूलों से बचाव होता है। प्राभ्यन्तर तप
विनय-विनय को मोक्ष का मूल कहा गया है ।
पास विकास में प्राय- अपने से बड़े, ज्ञानी, श्रेष्ठ और तपस्वी के प्रति विनय श्चित्त का बहुत महत्त्व है। श्रमण परम्परा मे इस पर रखे बिना या उनके लिए समर्पित हुए बिना साधक का बहुत जोर दिया गया है। भगवान महावीर ने तो प्राय- विकास असम्भव है। गुरु के बिना ज्ञान अंधकार के श्चित का दैनिक कार्यों में जोड़कर एक प्रकार से उसे समान है। गुणियों के प्रति प्रादर रखना विनय है। जीवन का अंग ही बना दिया है। हम जो कुछ करते है।
* महावीर ने साधना मार्ग में व्यक्ति की अपेक्षा गुण पर जोर वह सावधानी रखने के बाद भी एकदम शद्ध और निर्दोष दिया गया है । गुण ही पूज्य हैं, जाति, कुल आदि नहीं। नहीं होता, गलतियां हो ही जाती है । गलतियाँ अज्ञान से
इसीलिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र के विनय भी बताए गए भी होतो है, स्वभाव दोष से भी होती है और प्रमाद से
है, सतत ज्ञान प्राप्ति, अभ्यास और स्मरण ज्ञान का सच्चा भी होती है। भविष्य में ऐसी गलतियों से बचने के लिए
विनय है। दृढ़ता व श्रद्धा से ही जीवन में दृढ़ता और उनकी आलोचना करना, कारण को जानने और उससे
शुद्धता आती है । शंकानों का निवारण ग्रन्थो या ज्ञानियों बचने का प्रयत्न करना उपयोगी है।
से कर लेना चाहिए। इस तरह तत्त्व की निष्ठा को दृढ़ गलती हो जाने पर उसके बारे में अनुताप करके पुन ।
रखने का प्रयत्न दर्शन विनय है और तदनुकूल आचरण
या प्रयत्न ही चारित्र विनय है। वैसी गलती न होने देने का सकल्प करना और सावधानी
जो साधक नम्र होता है, उसको अपनी अपूर्णतामों रखना साधक को आगे बढ़ने में सहायक है। जो व्यक्ति
का भान रहता है। जब साधक में यह अहंकार पैदा हो भूलों से सबक लेता है, उसका निश्चय से विकास होता
जाता है कि वह सब कुछ जानता है, उसने सम्पूर्ण ज्ञान
प्राप्त कर लिया है। तब उसकी प्रगति रुक जाती है। ___ जो व्यक्ति या साधक अपनी चर्या में नियमित रहता
उसे कोई नहीं चाहता । इसलिए साधक को अहंकार छोड़ है, उससे गलतियां बहुत कम होती है। आहार-विहार
कर ज्ञान प्राप्ति के लिए और चारित्र को शुद्ध, उन्नत और प्राचार-विचार का निश्चित और नियमित रहना
बनाने के लिए विनय को बढ़ाना चाहिए। अपने से बड़ों अत्यन्त आवश्यक है। यह सब विवेक से ही सम्भव है। के प्रति आदर रखना उपचार-विनय है। भूल से बचने के लिए विवेक बहुत बड़ा सहारा है।
बयावृत्य-सेवा वैयावृत्य । शरीर को सेवा या सहा। साधक साधना की दिशा में तब तक प्रगति नही कर यता की जरूरत रहती है। यह अभिमान मिथ्या है कि सकता, जब तक वह शरीर और शरीर सम्बन्धी व्यापारो किसी को सेवा और सहायता की जरूरत नहीं। साधक से आसक्ति नही हटा लेता । शरीर, मन पोर इन्द्रियो की अपनी आवश्यकताए कम से कम कर लेते है, फिर भी प्रवृत्तियों तो चालू ही रहती हैं, लेकिन इनसे प्रात्मा को कुछ न कुछ सेवा तो शरीर निर्वाह के लिए लेनी ही पड़ती हटा कर प्रात्म-चिन्तन का अभ्यास करना चाहिए। जब है। वास्तव में मानव शरीर ही सेवा से प्रोत-प्रोत है । भी कोई बुरे विकार या स्वप्न आदि आ जायें, तब उन जब तक शरीर है तब तक सेवा का लेन-देन चलता ही दोषों के निवारण के लिए ध्यान करना प्रायश्चित्त कह रहता है, जब कोई सेवा' में प्रमाद करता है वा अपनी लाता है। ..
सुखासक्ति में फंस जाता है तब उसमें कर्कशता, कठोरता प्रयत्न करते रहने और अप्रमत्त रहने पर भी साधक आ जाती है और किसी न किसी पर उसका बोझ पड़ता
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जैन मतानुसार तप की ग्याल्या
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है। साधक हो या गृहस्थ, सेवा की सबको जरूरत है। किसी विषय का ध्यान या चिन्तन बह करता ही रहता सेवा पारस्परिकता का धर्म है। इसलिए साधकों के लिए है। इस प्रकार ध्यान के शुभ और अशुभ दो भेद हो जाते भी कहा गया है कि उन्हें अपने से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ प्राचार्यों हैं। जिस ध्यान से साधक का कल्याण होता है, साधना उपाध्यायों, तपस्वियों की, बीमार-दुर्बल, ग्लान, बाल- प्रगति होती है वह शुभ है और जो ध्यान साधक को साधुनों की समान और नीचे की श्रेणी के साधुओं की, नीचे गिराता है उसे अशुभ कहते है। मार्त ध्यान और संध, कल, गण, मनोज्ञों की सेवा सुश्रुषा करनी चाहिए। रौद्र ध्यान प्रशुभ है। वैयावत्य के दस भेद माने गए है, लेकिन भाव यही है कि प्रातं ध्यान-संसार मे अनिष्ट योग, इष्ट वियोग, जिसको जैसी सेवा की जरूरत हो वैसी उसकी सेवा होनी बीमारी तथा किसी वस्तु की प्राप्ति की अभिलाषा प्रायः चाहिए। सेवा में अनासक्ति हो और अपनी मर्यादा का सब मे रहती है और उसके लिए लोग चिन्तित भी रहते भाव भी हो।
हैं। चित्त की ब्याकुलता या आकुलता ही प्रार्त ध्यान है । स्वाध्याय—स्वाध्याय का अर्थ है जिज्ञासा पूर्वक ज्ञान यह मनुष्य को अशुद्धि की ओर ले जाता है-नीचे गिरता की उपासना, चिन्तन । स्वाध्याय से ज्ञान बढ़ता है। है। प्रयत्नों के वावजुद भी अनिष्ट योग, इष्ट विवोग, आत्म-शक्ति बढती है और चारित्र निर्दोष होता है। बीमारी पाती ही है। इसे सर्वथा टालना सम्भव नहीं है। स्वाध्याय के पाँच प्रकार है। १. अनुभवियों के ग्रन्थो लेकिन विवेकपूर्ण प्रसंगों पर व्याकुल न होना और धीरज को या अर्थों को पढ़ना, .२. अधिक जानकारी से पूछना, पूर्वक सहन करना कर्तव्य है। अपनी पाक्ति को ऐसे ३. पढ़े हुए या सीखे हुए पाठ का बार-बार शुद्धता से विषयों में न लगाकर विकास की ओर ले जाने वाले उच्चारण करना और ५. धर्म का उपदेश करना । ज्ञान विषयों पर अपने चित्त को लगाना इष्ट है।। प्राप्ति करने, उसे निशंक बनाने, उदात्त और परिपक्व अपने को तथा दूसरों की पीड़ा पहुंचाने के लिए बनाने के लिए स्वाध्याय का बहुत महत्त्व है। स्वाध्याय चिन्तन करना, तरह-तरह की योजनाएँ सोचते रहना और से तेजस्विता तथा अनासक्ति पाती है।
चिन्ता में डूबे रहना पार्न ध्यान है । यह दुःख का हेतु है। व्युत्सर्ग-अहंकार आदि होने पर, खेत, धन, सपत्ति, इस ता त्याग हा दना चाहिए। कुटम्ब, परिवार की आसक्ति का त्याग बाह्य व्युत्सर्ग है।
रौद्र ध्यान-हिंसा, असत्य, चोरी तथा परिग्रह के राग-द्वेष, क्रोधादि विकारों का त्याग आभ्यन्तर व्युत्सर्ग १
लिए सतत चिन्ता करना रौद्र ध्यान है। रौद्र ध्यान का है। चित्त शुद्धि के लिए सब तरह की उपाधियो का त्याग
मूल आकार क्रूरता है। अपने स्वार्थ के लिए दूसरे का आवश्यक है। साधक सुबह-शाम, ममता-त्याग का प्रयत्न
अनिष्ट चिन्तन, दूसरों को फंसाने के लिए असत्य या और चिन्तन करता है।
बेईमानी के तरीके सोचना, दूसरे के घन के अपहरण के ध्यान-कर्म निर्जरा के लिए ध्यान का बहुत महत्व
मार्ग पर विचार करना तथा अपने परिग्रह की रक्षा की है । साध्य की प्राप्ति समता द्वारा ही हती है। ध्यान के चिन्ता करना, यह सब रोद्र ध्यान है। इससे मनुष्य नीचे बिना समता सम्भव नहीं। समता ध्यान से ही टिकती है, गिरता है। उसकी अवगति होती है और वह दुखी बनता बिना समता के साधक ध्यान का अधिकारी नहीं। इस है। इसलिए रौद्र ध्यान हे। कहा गया है, अनिष्ट माना तरह ध्यान और सम भाव एक दूसरे के पोषक है । ध्यान गया है। से प्रात्मा की शुद्धि भी होती है, जिससे कर्मों का क्षय जो ध्यान मनुष्य को ऊँचा उठाते हैं, साध्य तक पहहोता है और साधक "मैं" पन से ऊपर उठकर सबका चाते हैं. वे है धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान । हो जाता है।
धर्म ध्यान-जो ध्यान समता को बढ़ाने और उसे ध्यान का अर्थ है चित्त को किसी भी विषय पर दूर करने के लिए किया जाता है वह साधक की साध्य एकाग्र करना। यों चित्त खाली नही रहता, किसी न की प्राप्ति में सहायक होता है। इसलिए साधक.को राग
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द्वेष से ऊपर उठकर वीतरागी महान् विषयों के अनुभव का विचार करता है, उसकी गहराई में जाकर पुदगल युक्त बचनों का ध्यान करना चाहिए, जिससे साधना में तथा चेतन द्रव्य के सम्बन्धों का भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों सहायता लिले ।
से विचार करता है तब उसके चरित्र में दढ़ता आती है। ___साधक को अपने दोषों यानी कमजोरियों के स्वरूप यानी चारित्र मोहनीय कार्यों का नाश होता है, सत्याको समझकर उन्हें दूर करने का चिन्तन करना चाहिए। चरण में दृढ़ता पाती है। राग-द्वेषादि कषायों के कारण ही तो सभी बाधाएँ खड़ी यद्यपि जड़ चेतन द्रव्य पृथक् है, तथापि सयोग से होती हैं। समता में बाधक परिस्थिति पर विचार कर मिल जाते है। इनमें से किसी एक तत्त्व का अवलम्बन उन्हें दूर करने का चिन्तन करना चाहिए। असत्य मार्ग लेकर उसके किसी एक परिणाम पर चित्त को निश्चल पर किस तरह चला जा सकता है, इसका चिन्तन करना करने से ध्यान मे दृढ़ता आती है। अनेक विषयों की ओर चाहिए, ताकि दुख से बचा जा सके। पाप कर्मों से निवृत्त भड़कने बाले मन को किसी एक विषय पर के हित करने हुआ जा सके।
से जैसे जलते हुये चूल्हे मे से ईधन निकाल लेने पर आग किस कार्य का क्या फल मिलता है, इस पर विचार वुझ जाती है, वैसे ही मन चञ्चलता के नष्ट हो जाने से करना भी शुद्धि की पोर ले जाने में सहायक है। बुराई
निष्कम्प बन जाता है। इससे प्रात्मा के ज्ञान में बाधा
न का परिणाम भोगना ही पड़ता है। इस तरह के मंथन से पहुचाने वाले सब कर्मो का विलय होकर ज्ञान का प्रकाश साधक बुराई से छुटकर शुद्ध होता है। कई लोग जन्म फैल जाता है और साधक सर्वज्ञता को प्राप्त होता है। से ही नीरोग, बुद्धिमान और तेजस्वी होते है और कई जो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान, जो बन्ध में मुक्ति बीमार, दुखी, बुद्धिहीन । यह सब शुभ-अशुभ कृत्यो का दिलाने में सहायक होते है। तभी किये जा सकते है, परिणाम है। संसार के स्वरूप का, उसकी विकलता, जब मन शरीर सुदृढ और नीरोग हो। व्यापकता, स्थिति तथा विनाशशीलता का चिन्तन तथा कहा गया है कि धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के उसके विविध द्रव्यों की परिवर्तनशीलता जान लेने पर लिए वज वृषभनाराच संहनन जेसा बलिष्ठ शरीर पावमनुष्य सहज ही उसके प्रति अनासक्त होता जाता है और श्यक है। स्वस्थ शरीर के बिना मन स्वस्थ नहीं होता व्याकुल नहीं होता।
और स्वस्थ मन के बिना अच्छा ध्यान नहीं हो सकता। शुक्ल ध्यान-जब साधक जड़ और चेतन के भेद
(पृष्ठ २२५ का शेषांस)
सफलतापूर्वक सम्पादन किया। उन्होने स्वयं भी 'हिन्दी याधीजी के असहयोग आन्दोलन आदि कार्यक्रमो को गल्प' नामक पत्र निकाला। ६० वर्ष की आयु में १२ देश की आजादी के लिए उठाया जाने वाला कदम सम- दिसम्बर १९६१ को उनका देहान्त हो गया।" झते हुए भी दीवान रूपकिशोर राजनीति की ओर दीवान रूपकिशोर की तरह गत १०० वर्षों में ऐसे उन्मुख न हो सके । उन्होंने अपना सपूर्ण समय साहित्य की कई जैन साहित्यकार हो गए और अभी भी विद्यमान हैं गतिविधियों तक ही सीमित रक्खा। जब भारत स्वाधीन कि जिन्होंने केवल जैन सम्बन्धी ग्रन्थ ही लिखकर उपहो गया और जमीदारी प्रथा समाप्त कर दी गई, तब वह न्यास, कहानी आदि सार्वजनिक साहित्य भी विशेषरूप मे विजयगढ़ से अपने पुत्रों के पास दिल्ली चले पाये और लिखा है एवं लिख रहे है। जैन समाज के लिए यह एक अन्तिम समय तक दिल्ली में ही रहे ।
उल्लेखनीय बात होगी कि जैन साहित्यकार केवल जैन दीवान रूपकिशोर ने चार पत्रों का सम्पादन भी धर्म सम्बन्धी रचना हचना ही नही करते पर सर्वजनोपकिया। बिजनौर से प्रकाशित 'वीर' विजयगढ से, 'महा- योगी साहिन्य का भी प्रचुर परिमाण सर्जन करते रहे है। वीर' और हाथरस से निकलने वाले 'मार्तण्ड' का उन्होंने
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पुण्यतीर्थ पपौरा (धारावाहिक)
-सुषेश
होगा? पाता कवि सोच नहीं ॥८॥ उत्तर में हिम गिरि श्रेणी तो, मध्य भाग में विन्ध्य शिखर । हैं हिम के होरक हार उधर, तो उज्ज्वल निर्भर धार इधर ॥॥
-:प्रथम सर्ग:भारत तो पावन है ही पर, पावन इस का हर कण-कण है। इस में सुर तक को आकर्षित, करने वाला आकर्षण है।। १ ।।. लगता त्रिभुवन की श्री ही, स्वयमेव हुई एकत्र यहाँ । तब ही तो अनुपम सुषमा के, दर्शन होते तो सर्वत्र यहाँ ॥२॥. लगते प्रसून तो सुन्दर ही, पर सुन्दर लगते कण्टक भी। निर्भर तो रसमय हैं ही पर, रसमय इस के प्रस्तर तक भी ।। ३ ।। वधुएं तो मुस्काती ही पर, हर शिला यहाँ मुस्काती है। चिड़ियां तो गाती ही हैं पर, हर मारुत लहरी गाती है ।। ४ ।। स्वर्गीय छटा दर्शाते हैं, नित सध्या और प्रातःकाल यहाँ । निज निधि विखेरते शरद शिशिर, प्रातप और वर्षा काल यहाँ ।। ५ ।। प्राकृतिक दृश्य हैं दर्शनीय, गिरि शिखरों के नद कुलों के। है कहीं लताओं के मण्डप, उद्यान कहीं तो फूलों के ॥ ६ ॥ यों इस भारत की वसुधा यह, सुषमा का शान्ति निकेतन है। जो हमको देख न मोहित हो, ऐसा भी कौन सचेतन है ।। ७ ।। भूतल का स्वर्ग इसे कहने, में कवि को कुछ संकोच नहीं। इस से सुन्दर क्या स्वर्गों में,
यह विध्याचल ही दूर-दूर, तक फैला हुआ दिखाता है। इस के ही कारण यह प्रदेश, बन्देल खण्ड कहलाता है ।। १०॥ यह वीर भूमि है वीरों ने, निज विक्रम यही दिखाया था। पाल्हा ऊदल ने परि दल की, सेना को यहीं छकाया था ।। ११ ।। जन्मे थे मधुकर शाह यहीं, जिन ने निज पान दिखायी थी। 'अकबर' का आदेश भंग, कर अपनी टेक निभायी थी॥ १२ ॥ हरदौल यही पर हुए जिन्होंने, पिया विहँसते हुए गरल । अति कठिन मृत्यु प्रालिगन भी, माना था जिस ने कार्य सरल ॥ १३ ।। ये छत्रसाल भी यहीं हुए, गौरवमय जिन की गाथा है। प्रत्येक वीरता का प्रेमी, जिन को नत करता माथा है ।। १४ ।। लक्ष्मी बाई भी यहीं हुई, भाये जिसको शृंगार नहीं। जिसने निज रिपु षों के आगे, की कभी हार स्वीकार नहीं ।। १५ ।। यों जाने कितने वीर हुए, जो चले सदा अंगारों पर।
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जो हो समत्त सदा झूमे, तलवारों की झंकारों पर ।। १६ ॥ बुन्देल खण्ड उन वीरों से, है रहा कभी कंगाल नहीं। जिन ने निज अन्तिम श्वासों तक, गलने दो रिपु की दाल नहीं ॥ १७ ।। जिन को वीरत्व कथाएं हैं, प्रचलित नगरों में गाँवों में । भर देता जिसका नाम मात्र, वीरत्व हृदय के भावों में ॥ १८॥ अब तब भी गाते जाते हैं, गायक जिन के यश गीत नये । कवि जिन को केन्द्र बना रचते, जाते हैं काव्य पुनीत नये ।। १६ ।। यों यह क्रीड़ा स्थल दीर्घ काल, से रहा मनस्वी गुणियों का। पर साथ-साथ ही तपो भूमि, भी रहा तपस्वी मुनियों का ।। २० ॥ इसने ऋषियों को तप करते, देखा है सदा दिगन्तों ने। इसके कितने ही तपोवनों, में ध्यान लगाया सन्तों ने ।। २१॥ साक्षी हैं इसके विंध्याचल, के जाने कितने विपिन सघन । जिन की एकान्त गुफाओं में, है किया उन्होंने प्रात्म मनन ।। २२ ॥ इसके कण-कण भी किए गए, हैं पावन उनके चरणों से। जो थे छुटकारा चाह रहे, वसु कर्मों के प्रावरणों से ।। २३ ॥ जो कर्म निर्जरा करने को, निर्जन में यहाँ विचरते थे। निर्मित कर तप का हवन कुण्ड, कर्मों का स्वाहा करते थे ॥ २४ ॥ जिन ने निखारा था अपना, श्रद्धान, ज्ञान, आचार स्वयम् ।
जिन में विकास पा हुए सभी, ये तीनों एकाकार स्वयम् ॥ २५॥ जिन ने इस भौतिकवादी युग, में था अध्यात्म प्रचार किया। देकर उपदेश अहिंसा का, सब में करुणा संचार किया ।। २६ ।। जिन ने निज चिंतन से सारे, जग का कल्याण विचारा था । तुम जियो सभी को जीने दो, जिन का यह पावन नारा था ॥ २७ ॥ संसार हुआ लाभान्वित था, जिन के आदर्श विचारों से । था पारस्परिक विरोध मिटे, जिन के पावन उद्गारों से ।। २८ ।। जिन के समीप आ गाय सदृश, भोले बन जाते चीते थे। जिन के प्रभाव से सिंह धेनु, जल एक घाट में पीते थे। अतएव यहाँ बहुतायत से, पुण्य स्थल हैं प्राचीन अभी। जो दीर्घ काल से खड़े हुए, हो निज महिमा में लीन अभी ।। जिन की कि वंदना करने से, भक्तों को मिलता चैन सदा । जिन को निहार कर ही सार्थक, समझा करते वे बैन सदा ।। मन-मोहित करने का इतना, बल रखती जिन की सौम्य छटा। लगता है वहाँ पहुँचने पर, जाये न वहाँ से शीघ्र हटा॥ यद्यपि जिन के परिपूर्ण कथन, में अक्षम है ये छन्द सभी। पर कवि न निराशा से करता, निज लौह लेखनी बन्द अभी ।। जितना उससे बन सकता है, वह उतना मात्र जताता है।
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खजुराहो की अद्वितीय जैन प्रतिमायें
शिवकुमार नामदेव
मध्यप्रदेश का प्रसिद्ध कलातीर्थ खजुराहो चन्देल आयुधों से युक्त, विभिन्न वाहनों पर प्रारूढ़ जैन शासन नरेशों की धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है। यह देवी-देवताओं की मूर्तियाँ है। सभी प्रतिमायें प्रतिशास्त्रीय नगर पन्ना से २५ मील उत्तर एवं छतरपुर से २७ मील दृष्टिकोण से निर्मित की गई है। पूर्व तथा महोबा से २४ मील दक्षिण में स्थित है। खजु- जैन देवी-देवताओं की प्रतिमाओं के अतिरिक्त हिन्दू राहो मे चन्देलों की कृतियों की कलाराशि उपलब्ध है। धर्म की रामचरित से सम्बन्धित मूर्तियो में त्रिभंगी मुद्रा यहाँ लगभग ३० मन्दिर है जो शिव, विष्णु तथा जैन मे राम एवं सीता का चित्रण है। पार्श्व में राम, कृष्ण, तीर्थङ्करो की उपासना मे निर्मित हुए है। इन देवालयों हनुमान जी को भी अंकित किया गया है। इसके अतिको हम ९५० से १०५० ई. के मध्य रख सकते है।
रिक्त सीता जी को अशोक वाटिका मे दिखाया गया है। खजुराहो देवालयो का पूर्वी समूह जैन देवालयों का भित्ति का दूसरा पट्ट भी अलंकृत है। ऊपर के पट्ट समूह कहलाता है। इन देवालयों में पार्श्वनाथ मन्दिर, मे विद्याधर युगल पुष्पमाला लिए हुए तथा वाद्य बजाते प्रादिनाथ मन्दिर, घण्टाई मन्दिर प्रादि अपनी मनोहारी हुए गंधर्व एव किन्नरों का अंकन है। जंघा मे ऊपर और भव्यतम कलाराशियों से युक्त है।
दिक्पाल, धनुषधारी एवं चारभुजी देवियों का सुन्दर इस समूह के विशालतम एवं रमणीक जैन मन्दिर अकन है। पार्श्वनाथ का है। इस देवालय के भीतर और तीन बाह्य भित्ति तथा प्रदक्षिणा पथ के प्रतिमा पट्टों पर
आगार है। इस देवालय की वाह्य भित्ति पर चतुर्दिक अङ्कित ये सौन्दर्यमयी प्रतिमायें उस युग के कलाकारों के एक के ऊपर एक तीन पट्टों में विभिन्न मूर्तियो का अंकन सधे हुए हाथों की यशोगाथा, छेनियों के संयम तथा है। प्रथम पंक्ति मे तीर्थङ्कर प्रतिमानों के अतिरिक्त उनके सूझ-बुझ एवं परिष्कृत एकाग्र मन की अमिट कुबेर, द्वारपाल, गजारूढ़ एव अश्वारूढ जैन शासन देव- तस्वीर है। तामों का अंकन है। प्रियतम के पत्र को पढने मे अति- इस मन्दिर की कलाकारिता से प्रभावित होकर लीन स्त्री प्रतिमा, पर से कांटे को निकालती हुई, नेत्र में प्रसिद्ध कला मर्मज्ञ डा० अर्ग्युसन महोदय ने कहा है कि अंजन प्रांजती हुई, शिशु को स्तनपान का सेवन कराती सम्पूर्ण मन्दिर की रचना इतनी दक्षता के साथ हुई है हुई माता एवं पाद मे नृत्य हेतु नुपुरो को बांधती हुई कि सम्भवतः हिन्दू देवालय की स्थापत्य के दृष्टिकोण से बालाओं की मूर्तियां भी दर्शनीय है। इन पट्टों पर अनेक इनकी तुलना में नहीं है। लिखने को तो है बहुत किन्तु,
देवालय के मण्डप के ऊपर बाह्म और देव-देवियों थोड़े में सार बताता है ।।
तथा अप्सरानों की प्रतिमाओं की पंक्ति तीनों भोर बनी वह वर्णन अपनी ही मति के,
हुई है । जिसमें एक स्नान से निवृत्त बाला को अपने भीगे अनुरूप किया अब जाता है।
हुए केश से जल बिन्दुओं को अलग करते हुए दिखाया मन के भावों को भाषा का,
गया है । हंस उस बाला की केशराशि से टपकते हुए जल यह रूप दिया अब जाता है।
बिन्दु को मोती समझकर झपटते हुए प्रदर्शित किया है। (क्रमशः) कलाकारों की सूझ-बूझ एवं सूक्ष्म छनियों से निर्मित इन
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प्रतिमानों को देखकर पार्यचकित हो जाना स्वाभाविक अकन केवल वाह्य भाग पर ही प्राप्त होता है। मू ही है। अन्य मूर्तियों में मकरवाहिनी गंगा एवं कर्मवा- एक पर एक तीन कतारों में अकित हैं। उर्ध्व भाग हिनी यमुना के साथ चतुर्भुज द्वारपालों का अंकन है। लघु कतार में गंधर्व, किन्नर एवं विद्याधर तथा शेष गंगा एवं यमुना की प्रतिमानों के ऊपर की पंक्ति में कतारों में शासन देव, अप्सराओं आदि की मूर्तियां तोरण तक गंधर्व, यक्ष आदि की प्रतिमायें हैं। द्वार के प्रतिमाओं की इस बीच की कतारों में देव कुलि ऊपरी तोरण पर द्वादशभुजी चक्रेश्वरी एवं दोनों पाव निर्मित कर शासन देवियों को ललितासन मुद्रा में प्र पर जिन शासन देवियों की मूर्तियां है। जो दोनो पोर किया गया है। नवगृहों से आवेष्टित है। मुख्य तोरण के ऊपर शीर्ष तोरण में युगादि देव एवं दो अन्य तीर्थङ्करों की प्रति
जैन धर्म के वाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ की । मायें हैं। इसके अतिरिक्त दो अर्हत प्रतिमाओं एवं साधुओं
अम्बिका सिंहारूढ़ आम्र वृक्ष के नीचे आम्र मंजरी ध का अंकन भी है।
किये हुए शिशु को स्तनपान कराती हुई दिखाई गई
तीर्थकर की मां एवं मां के सोलह स्वप्नों का अ प्रादिकाल देवालय की बाह्य भित्ति एवं शान्तिनाथ
यहाँ पर दिया हुआ है। इसी देवालय में जैन घर के देवालयो की कला भी उत्तम कोटि की है। शान्ति
प्रथम तीर्थकर भगवान आदिनाथ अथवा ऋषभनाथ नाथ देवालय के प्रांगन मे धरणेन्द्र एवं पद्मावती की एक
प्रतिमा है। सुन्दर युगल प्रतिमा प्रतिष्ठित है। देवालय की भित्त पर देवी-देवताओं तथा अप्सराओं की कृतियों के साथ व्याघ्र
शान्तिनाथ मन्दिर मे मूलनायक सोलहवें तीर्थ की मतियाँ भी बनी हुई है। सिंहाकृति से मिलने-जलते भगवान शान्तिनाथ की विशाल प्रतिमा है । शान्ति इस जानवर का प्रतीक रूप मे वहतायत से अंकन हमा की १२' ऊँची यह प्रतिमा कायोत्सर्ग मुद्रा में है। मं है। प्रदक्षिणा पद की भित्ति पर भिन्न-भिन्न जिन शासन
के आँगन में वाम पार्व की ओर दीवाल पर २३वें तं देव एवं देविवों, गंधर्वो, किन्नरों एवं अप्सरानों की सौंदर्य- कर पार्श्वनाथ के यक्ष एवं यक्षिणी धरणेन्द्र एव पद्मा मयी मूर्तियाँ खचित है। बाहबली स्वामी की भी यहाँ की एक आकर्षक एव सौन्दर्यमयी प्रतिमा है। इस प्रति एक प्रतिमा अंकित है। इन प्रतिमाओं के अतिरिक्त में यक्ष दम्पत्ति को एक आसन पर ललितासन में अ अलसित वदन शृंगादि का, कामिनी और सूर-मन्दरियों दित बैठे हुए दिखाया गया है। इनके हाथों में श्री की मद्रायें विशेष आकर्षक है। निकट ही एक नाई के है। देवी के हाथ में एक छोटा शिशु भी विखाया । द्वारा एक सुन्दरी के पैर से कांटे को निकालते हुए दिख- है। लाया गया है।
भगवान शान्तिनाथ की मूर्ति के परिकर मे द गर्भगृह में भीतरी पट की ओर गंगा-यमुना एवं द्वार
पार्श्व में पाश्वनाथ की कायोत्सर्ग प्रतिमाये है। पा पाल प्रादि है। द्वार तोरण पर ललाट बिम्ब में भगवान
नाथ के अतिरिक्त अन्य तीर्थकरों को दस प्रतिमायें । चन्द्रप्रभु है। जिनके दोनों पार्श्व पर कायोत्सर्ग तीर्थकर
उत्कीर्ण है। नीचे सनत्कुमार एवं महेन्द्र नामक । की प्रासन मूर्तियां है। उनके मध्य में नवग्रह एवं चमर-
चामर धारण किये हुए विखाये गये है।
चामर धारिणी, यक्षियों के बीच तीर्थंकरों की प्रतिमायें है जिनमें खजुराहो का जैन देवालय जिसे घण्टई मन्दिर : से ५ पद्मासन एवं ६ कायोत्सर्ग आसन में है। वेदिका जाता है खण्डहर अवस्था में है। इसमें तीर्थकर मूर्ति पर दोनों पाव में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतिमायें है। शासन देवियां, विद्याधर एवं नवगृहों आदि की मूर्ति
आदिनाथ देवालय में भित्तियों पर मूर्तियों का का सुन्दर मंकन है ।
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जैनधर्म संसार की दृष्टि में
मैं विश्वास के साथ यह बात कहूंगा कि महावीर भावना अहिंसा और प्रेम के आधार द्वारा प्रकट करना यह स्वामी का नाम इस समय यदि किसी सिद्धान्त के लिए "श्री महावीर" का उद्देश्य समझना है। पूजा जाता है तो वह अहिंसा है। अहिंसा तत्व को यदि
- -श्री जी.वी. मावलंकर प्रेसीडेंट किसी ने अधिक से अधिक विकसित किया है तो वे अहिंसा और सर्व-धर्म समभाव जैनधर्म के मुख्य महावीर स्वामी थे।
सिद्धान्त हैं। -स्व० महात्मा गांधी
-मेजर जनरल रायबहादुर ठा० अमरसिंह जैनों का अर्थ है संयम और अहिंसा। जहा अहिसा है वहां द्वेषभाव नहीं रह सकता। दुनिया को यह पाठ अाजकल के बिगड़े हुए वातावरण में जबकि जातीय पढ़ाने की जवाबदारी आज नहीं तो कल अहिंसात्मक भावनायें अपना भयंकर रूप धारण कर देश को हिंसा संस्कृति के ठेकेदार बनने वाले जैनियों को ही लेनी पड़ेगी। की ओर ले जा रही है तब भ. महावीर की महिंसा सर्व
-सरदार वल्लभभाई पटेल धर्म की एकता का पाठ पढ़ाती है। हिन्दु संस्कृति भारतीय संस्कृति का एक अंश है, और
-श्री पं० देवीशंकर जी तिवारी जैन तथा बौद्ध यद्यपि पूर्णतया भारतीय है परन्तु हिन्दू जैन धर्म के आदर्शों का प्रचार करना यह मानव नही हैं।
मात्र का उद्देश्य होना चाहिए। -पं. जवाहरलाल जी नेहरू (डिस्कवरी आफ इडिया)
-सर टी. टी. कृष्णमाचारी श्री महावीर जी के उपदेशों पर अमल करने से ही It is impossible to find a beginning for वास्तविक शान्ति प्राप्त हो मकती है। इस महापुरुष के Jainism. Jainism thus appears as the earliest बताये हुए पथ का अनुसरण कर हम शांति लाभ कर faith of India. सकते है। आज के संघर्षशील और अशात संसार से हम In, The short studies In Science of Comसाधु पुरुष के उपदेशों पर ही चलकर सुख शांति प्राप्त prative Religious. By G. J. R. Furlong. कर सकते हैं।
The names Rishabha, neami etc are wel.
known in Vedic Literature. The members of समोर साना
साना Jains order are known as Nirgranthas. वे २४वें अवतार थे, इनके पहिले ऋषभ, नेमि, पाव In Historical Gleaninys bp Dr. Bimalcharan. प्रादि नाम के २३ अवतार और हुए हैं, जो कि जैनधर्म जैनधर्म भारत का एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि को प्रकाश में लाये थे, इस प्रकार इन २३ अवतारों के जिसको उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना एक बहत पहिले भी जैनधर्म था, इससे जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध ही दुर्लभ बात है। होती है।
-मि० कन्लोमल जी एम. ए. सेशन जज -स्व. लोकमान्य तिलक पार्श्वनाथ जी जैनधर्म के आदि प्रचारक नहीं थे, महावीर का सन्देश हृदय में भ्रातृभाव पैदा करता है। इसका प्रचार ऋषभदेव जी ने किया था। -हिज एक्सलसी मर अकबर हैदरी गवर्नर, प्रासाम
-श्री वरदकांत जी एम. ए. मानवता की बुनियाद पर स्थित हुई विश्वधर्म- सबसे पहिले भारत में ऋषभदेव नामक महर्षि उत्पन्न
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२३८, वर्ष २६, कि०६
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हुए, ये भद्रपरिणामी पहिले तीर्थंकर थे।
ऐतिहासिक सामग्री से सिद्ध हसा कि आज से ५ -श्री तुकाराम कृष्ण जी शर्मा लठ्ठ हजार वर्ष पहिले भी जैनधर्म की सत्ता थी। ___B.A. P. Hd. M. R.A S. Etc.
--डा. प्राणनाथ इतिहासज्ञ ईया द्वेषके कारण धर्म प्रचारक वाली विपत्ति के रहते
महाभारी प्रभाव वारे परम सुहृत् भगवान ऋषभदेव हुए भी जैनशास्त्र कभी पराजित न होकर सर्वत्र विजयी जी महाशील वारे सब कर्म से विरक्त महामुनि को भक्तिहोता रहा है। अहंत परमेश्वर का वर्णन वेदों में पाया ज्ञान वैराग्य लक्षणयुक्त परमहंस के धर्म की शिक्षा करते जाता है।
भये।
-भागवत स्कन्ध ५ ० ५ --स्वामी विरुपाक्षवडियर एम. ए.
शुकदेव जी कहते है कि भगवान ने अनेक अवतार जैनधर्म सर्वथा स्वतन्त्र है, मेरा विश्वास है कि वह
धारण किये, परन्तु जैसा संसार के मनुष्य कर्म करते है किसी का अनुकरण नहीं है।
वसा किया। किन्तु ऋषभदेव जी ने जगत को मोक्षमार्ग -डा. हर्मन जेकोबी, एम. ए. पी-एच. डी.
दिखाया, और खुद मोक्ष गये। इसीलिए मैंने ऋषभदेव जैनियों के २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक महा
को नमस्कार किया है। -भागवत् भाषाटीका पृ. ३७२ पुरुष माने गये हैं।
--डा० फुहार
स्वस्ति नस्ताक्ष्यो अरिष्ट नेमिः स्वस्ति! वृहस्पतिर्दधातु ॥ अच्छी तरह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्ध
-यजु० अ० २५ मत्र १६ धर्म की शाखा नहीं है।
ऋषभं मा समानानां सयज्ञलानां विषा सहिम् । -अंबुजाक्ष सरकार एम. ए. बी. एल.
हन्तारं शत्रूणां कृषि, विराज गोपितं गवाम् ।। जैन बौद्ध एक नहीं है हमेशा से भिन्न चले आये है।
-ऋषभदेव अ०८ मंत्र ८ मूत्र २४ राजा शिवप्रसाद जी "सितारे हिन्द"
जैनधर्म विज्ञान के आधार पर है, विज्ञान का उत्तरीयह भी निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि बौद्धधर्म के
तर विकास विज्ञान को जैन दर्शन के समीप लाता जा सस्थापक गौतम बुद्ध के पहिले जैनियो के २३ तीर्थकर
रहा है।
-डा. एल. टसी टौरी, इटली और हो चुके है।
महावीर जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे, किन्तु उन्होंने -इम्पीरियल गजेटियर आफ इण्डिया पृ. ५४
उसका पुनरुद्धार किया है। वे संस्थापक की बजाय सुधायह बात निश्चित है कि जैनमत बौद्धमत से पुराना है।
रक थे।
-इवर्टवारन, इंगलैन्ड -मिस्टर टी. डब्ल्यू रईस डेविड
मैं आशा करता हूं कि वर्तमान संसार भगवान महास्याद्वाद जैनधर्म का अभेद्य किला है, उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के मायामय गोले प्रवेश नहीं कर सकते।
वीर के आदर्शों पर चल कर आपस में बंधुत्व और समामुझे तो इस बात में किसी तरह का उज्र नहीं कि जन
नता का भाव स्थापित करेगा। डा. सतकौड़ी मुकर्जी धर्म वेदान्त आदि दर्शनो से पूर्व का है।
साहित्य का शृंगार तो वह नैसर्गिक भाषा है, जिस -पं० राममिश्र जी प्राचार्य रामानुज सम्प्रदाय
भाषा मे भ० महावीर ने आशीर्वाद दिया था।
-~-डा. कालिदास नाग नेमिनाथ श्री कृष्ण के भाई थे।
-श्रीयुत् वरवं
भ. महावीर द्वारा प्रचारित सत्य और अहिंसा के एकाकी निस्पृहः शातः, पाणिपात्रो दिगम्बरः ।
पालन से ही संसार संघर्ष और हिसा से अपनी सुरक्षा कदा शभो ! भविष्यामि, कर्म निर्मूलनक्षमम् ॥
कर सकता है। --भर्तृहरि
-डा. श्यामाप्रसाद मुकर्जी, अध्यक्ष हिन्दु महासभा नाहं रामो न मे वाछा, भावेषु न च मे मनः ।
जैन संस्कृति मनुष्य संस्कृति है, जैन दर्शन मनुष्य शान्तिमासितुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ दर्शन ही है। जिन 'देवता' नहीं थे, किन्तु मनुष्य थे। -योगवशिष्ठ, गीता
-प्रो० हरिसत्य भट्टाचार्य
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साहित्य-समीक्षा
१. पं० टोडरमल व्यक्तित्व और कृतित्व-ले० डा. प्रस्तुत ग्रन्थ में टोडरमल जी की कृतियों के सम्बन्ध हकमचन्द शास्त्री, प्रकाशक मंत्री टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से अच्छा प्रकाश डाला है और उन ग्रन्थों की भाषा शैली ए-४, बापूनगर, जयपुर । पृष्ठ संख्या ३६८ मूल्य "। पर भी प्रकाश डालने का यत्ल किया है। उन्होंने इस
प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय उसके नाम से ही स्पष्ट है। ग्रन्थ का को सर्वाङ्ग सुन्दर बनाने का प्रयास किया है। यह एक थीसिस ग्रन्थ है, जिस पर लेखक को इन्दौर इसके लिए लेखक महोदय धन्यवाद के पात्र हैं। राममल्ल विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की डिगरी प्राप्त हुई है। जी का उक्त चर्चा भी भवन से प्रकाशित होना चाहिए। इस ग्रन्थ से टोडरमल जी के सम्बन्ध में अनेक तथ्य साथ ही टोडरमल की गोम्मटसार टीका का अच्छा संशोप्रकाश में आये हैं। उनसे इस ग्रन्थ की महत्ता बढ़ गई धित सम्पादित संस्करण प्रकाशित करने की मावश्यकता है। सबसे पहले पं० टोडरमल जी का परिचय इन पंक्तियों हैं। क्योंकि वह अप्राप्य है, प्राशा ही नहीं विश्वास है कि में लेखक ने सन् १९४४ में अनेकान्त में प्रकाशित किया गोदिका जी इस ओर अपना ध्यान देगे। ग्रंथ मंगाकर था। जब जयपुर में एक महीना ठहर कर स्व०प० चैन- पढ़ना चाहिए । प्रकाशन सुन्दर है। सुखदास जी और महावीर तीर्थक्षेत्र के मंत्री रामचन्द्र जी २. पं० दौलतराम व्यक्तित्व और कृतित्व-सम्पादक खिन्दुका के सौजन्य से भामेर का शास्त्र भडार जयपुर डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल शास्त्री जयपुर, प्रकाशक लाया था। और उनसे १० ग्रन्थो की प्रशस्तिया तथा सोहनलाल सोगाणी, मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी जी महाअनेक ऐतिहासिक नोट्स लिये थे। पं० चैनसुखदास जी वीर जी, महावीर भवन जयपुर, पृष्ठ संख्या ३१० मूल्य और जयपुर के अन्य विद्वानों का यह विचार का कि प० दश रुपया। टोडरमल जी २७-२८ वर्ष की अवस्था में ही शहीद हुए इस ग्रन्थ का विषय भी उसके नाम से प्रकट है। इसमें है। पर मेरा सुदृढ़ विचार था कि उनकी प्रायु लगभग प० दौलतराम जी कासलीवालका सांगोपांग परिचय दिया ५० वर्ष की होनी चाहिए; क्योकि उनकी सं० १८११
गया है। साथ में उनकी पद्यबद्ध मौलिक कृतियों का की रहस्यपूर्ण चिट्ठी में जो मुलतान के अध्यात्म रसिक प्रकाशन भी किया है, और शेष अन्य टीका जिनग्रन्थो का लोगों के प्रश्नों के उत्तर में अध्यात्म चर्चा के गूढ़ रहस्य
भी परिचय दिया गया है। इससे यह ग्रन्थ दौलतराम जी को अनेक दष्टान्तों तथा वस्तु वत्व के विचारों द्वारा के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचायक है। • व्यक्त किया था। उस कोटि के प्राध्यात्मिक विचार अल्प- डा० कासलीवाल ने कवि की १८ रचनामों का परिवय में होना सम्भव नहीं है, वे प्रौढावस्था के विचार है। चय दिया है। इससे पंडित जी की राज्यकार्य का संचालन लेखक ने रामकरण जी के चर्चा ग्रंथ के पृ० १७३ के करते हए साहित्य निर्माण की अभिरुचि और लगन का माधार पर उनकी प्रायु संतालीस वर्ष पूर्ण करने का आभास मिलता है। जब वे जयपुर से प्रागरा गये, तब उल्लेख किया है। इससे हमारी उक्त कल्पना की पुष्टि उन्हे जैनधर्म परिज्ञान नहीं था। किन्तु प्रागरा की अध्याही नही हई, किन्तु भ्रान्त धारणा का निराकरण भी हो म शैली के विद्वान ऋषभदास जी के उपदेश से उनकी गया है। लेखक ने इस शोध प्रबन्ध द्वारा टोडरमलस्मारक जैनधर्म की ओर प्रतीति हुई। और उन्होंने रामचन्द्र भवन की महत्ता को प्रकट कर दिया है। और इससे ममक्ष के पुण्यास्रव कथाकोश की रचना सं० १७७७ में भवन निर्माता गोदिका जी की भावना को सफलता सम्पन्न की। उसके बाद उनकी जैनधर्म की श्रद्धा में मिली है।
दृढ़ता और जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों का मनन एवं परि
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२४०, वर्ष २६, कि०६
अनेकान्त
शोलन से ज्ञान की वृद्धि हुई और उन्होंने मौलिक और सुन्दर और भारतीय ज्ञानपीठ के अनुरूप हुआ है । प्रत्येक टीका ग्रन्थों की रचना की, वह उनकी धार्मिक लगन का लायब्ररी में इसका संग्रह होना चाहिए । ही परिणाम है। इतना ही किन्तु उन्होंने उदयपुर में रह- सोश के मंकलनकर्ता जिनेन्द्रवर्णी और भारतीय कर वहां के निवासियों में अपने प्रवचनों द्वारा धामिक ज्ञानपीठ के संचालक गण इस सन्दरतम कृति के प्रकाशन संस्कारों को जागृत किया। लोगों की धामिक भावनाओं के लिए धन्यवाद के पात्र हैं। को बढ़ाया, और जैनधर्म का प्रसार किया।
-परमानन्द शास्त्री डा. कासलीवाल का यह प्रयल प्रशंसनीय है। क्षेत्र कमेटी को इस कार्य में गति प्रदान करना चाहिए । और ३. महावीर व्यक्तित्व, उपदेश और प्राचार मार्गपच्चीससौवें महावीर निर्वाण महोत्सव के शुभ अवसर पर प्रकाशन-भारत जैन महामण्डल, भारत इंशुरेंस बिल्डिंग किसी प्रकाशित रचना को प्रकाशित करना चाहिए। दूसरा मंजिल 15 A, हानिमन सर्कल फोर्ट वम्बई-१, ग्रन्थ का प्रकाशन सुन्दर है। स्वाध्यायी जनों को उसे मूल्य तीन रुपये। मंगा कर अवश्य पढ़ना चाहिए।
प्रस्तुत पुस्तक जैन समाज के प्रसिद्ध विद्वान श्रीरिषभदास ३. जैन सिद्धान्तकोश भाग चौथा-क्षुल्लक जिनेन्द्र रांका द्वारा लिखी गई है। भाकर्षक एवं इसका प्रावरण वर्णी प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी ४ बड़ा णमोकार मंत्रके पदों द्वारा कलात्मक ढंगसे बनाये गये भगसाइज पृष्ठ संख्या ५४० सजिल्द प्रति का मूल्य ५०) वान महावीर के चित्र से शोभित है। पुस्तक के प्रारम्भ रुपया।
में प्राचार्य तुलसी द्वारा 'दो बोल' के अन्तर्गत पुस्तक एवं प्रस्तुत विशाल कोश चार भागों मे पूर्ण हुआ है। लेखक का संक्षिप्त परिचय दिया गया है। यह विश्वकोश के समकक्ष का कोश है, जिसमे जैन शब्दो विद्वान लेखक ने प्रागैतिहासिक श्रमण संस्कृति का का चयन प्रकारादि क्रम से किया गया है । जैन तत्त्वज्ञान, अनेक उदाहरणो एवं प्रमाणों द्वारा शोषपूर्ण इतिहास माचार, शास्त्र, भूगोल, कर्मसिद्धान्त, पौराणिक व्यक्ति,
प्रस्तुत करने के बाद तीर्थकर वर्धमान का विस्तृत परिराजवंश, पागमशास्त्र प्रादि छह हजार शब्दों और इक्कीस
चय दिया है। इसके बाद सर्वजन हितकारी भगवान हजार विषयो का विवेचन किया गया है। विषय विवेचन
महावीर के उपदेशों का बड़े ही सरल ढग से प्रतिपादन को रेखा चित्रों, सारणियों और सादे एवं रंगीन चित्रों
किया है। आवश्यकतानुसार जैन प्रामाणिक ग्रन्थों के द्वारा स्पष्ट करने का भी प्रयत्न किया गया है। जैन
उद्धरण भी दिये गये है। पाठक चाहे जैन हो या अर्जन, सिद्धान्त का तो यह प्रागार ही है। इसके अध्ययन करने
भगवान महावीर के महान् सिद्धान्तो का परिचय प्रस्तुत से जैन सिद्धान्त के पारिभाषिक शब्दो का ही केवल ज्ञान
पुस्तक द्वारा बड़े ही सुबोध ढग से प्राप्त कर सकता है। नही होता, प्रत्युत उनके भेद प्रभेदों का मी परिज्ञान हो जाता है । यह कोश जिनेन्द्र वर्णी के १७ वर्षों का अथक पुस्तक मे जहा अनेक अच्छाइयां है वहां कुछ न्यूनश्रम का परिणाम है। इसके संकलन करने में उन्होंने ताएं भी नजर आई । पुस्तक का मूल्य कुछ अधिक है। कितना श्रम किया है, यह भुक्तभोगी ही जान सकता है। यदि मूल्य कम रखा जाता तो सर्वसाधारण के लिए यह प्रत्येक स्वाध्याय प्रेमी के लिए इसका वाचन उपयोगी है। और उपयोगी भी हो सकती थी। प्रूफ एवं प्रतिलिपि कोश में यदि ऐतिहाशिक विषय न दिया जाता तो अच्छा सम्बन्धी अशुद्धियां भी कुछ रह गई है। जैसे पृष्ठ १०३ होता । कोश अपने वैशिष्टय को लिए हुए है। लोक- पर प्रथम अनुच्छेद की अन्तिम पंक्ति में प्रायश्चित के स्वर्ग नरक मादि का चित्रो द्वारा विषय स्पष्ट किया गया स्थान पर व्युत्सर्ग छप गया है। है। प्रस्तुत भाग में श से ह तक के व्यंजन भाग का पुस्तक उपादेय एवं संग्रहणीय है। निरूपण है । इस विशाल काय महत्त्वपूर्ण कोश का मुद्रण
-प्रकाशचन्द्र जैन
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जैन तत्त्वमीमांसा की मीमांसा भाग १ - लेखक पं० बंशीधर जी व्याकरणाचार्य, बीना, प्रकाशक दि० जैन संस्कृति सेवक समाज ( बरैया ग्रन्थमाला), पृ० २२+० + ३८५, साइज २०X३० क्राउन १६ पेजी मूल्य चार रुपये ।
जैसा कि प्रस्तुत पुस्तक का नाम है, वह श्रीमान् पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री के द्वारा लिखी गई 'जैन तत्वमीमांसा' की समीक्षा के रूप में लिखी गई है। पुस्तक मे समीक्षा को आधार बनाकर यद्यपि साधारणरूप मे निमित्त-नमित्तिकभाव की विशेष चर्चा की गई है, फिर भी यथाप्रसंग उसमे तत्त्वविचार भी विस्तार से किया गया है । जैसे ज्ञान-दर्शन, प्रत्यक्ष-परोक्ष, भव्यव प्रभव्यव, जीवो व पुदगलो की बद्ध-स्पृष्टता, निश्चय व्यवहार तथा द्वव्यानुयोगादि की स्थिति का विश्लेषण । इस प्रकार प्रस्तुत पुस्तक मे यथाप्रसंग कई महत्वपूर्ण दिपयों की चर्चा की गई है, अत वह तत्वाधो के लिए अवश्य पठनीय है। उस्त दोनो पुस्तकों के लेखक समाज के माने हुए विद्वान् है । सोनगढ़ की तत्त्वव्यवस्था का प्रचार होनेपर दोनो विद्वानो
में मतभेद हुआ है। चिन्तनशील विद्वानों को जैनतत्वमीमांसा और जनतत्त्वमीमासा की मीमांसा इन दोनों ही पुस्तकों को वीतरागभाव से पढ़कर तत्त्व का निर्णय करना चाहिये । पुस्तक के लेखक व प्रकाशक को साधुवाद है ।
जैनदर्शन में कार्य कारणभाव और कारक व्यवस्था लेखक व प्रकाशक उपर्युक्त प्राकार २०X३० काउन १६ पेजी, पृष्ठ संख्या लगभग १५० मूल्य १-६० पैसा
प्रस्तुत पुस्तक में कर्ता-कर्म आदि छह कारकों का विचार करते हुए कार्य कारणभाव का अच्छा विवेचन किया गया है । प्रसंगवश निमित्त व उपादान की चर्चा करते हुए निमित्त की सार्थकता सिद्ध की गई है। साथ ही स्वप्रत्यय कार्य कौन है व स्व-परप्रत्यय कार्य कौन हैं, इनका विश्लेषण करते हुए उपादान- उपादेयभावरूप कार्यकारणभाव व निमित्तनैमित्तिकभावरूप कार्य-कारणभाव इस प्रकार कार्य कारणभाव को दो भेदो मे विभक्त किया गया है । पुस्तक उपयोगी व पठनीय है। उसके लेखक व प्रकाशक धन्यवादाह है ।
- बालचन्द्र शास्त्री
आवश्यक सूचना
अनेकान्त शोध पत्रिका आपके पास नियमित रूप से पहुँच रही है। म्राशा है आपको इसकी सामग्री रोचक एवं उपयोगी लगती होगी। यदि इसकी विषय सामग्री के स्तर तथा उपयोग को ऊंचा उठाने के लिए आप अपना सुझाव भेजें तो हम उसका सहर्ष स्वागत करेंगे।
जिन ग्राहकों का हमें पिछला वार्षिक चन्दा प्राप्त नहीं हुआ है, उन्हें हम यह अंक वी० पी० द्वारा भेज रहे हैं। माशा है आप बी० पी० छुड़ा कर हमें सहयोग प्रदान करेंगे।
- सम्पादक
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R. N. 10591/82
वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन
पुरातन जनवाक्य-सूची : प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादि ग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेपणापूर्ण महत्त्व को ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए., डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा० ए. एन. उपाध्ये एम. ए., डी. लिट. की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द । १५.०० प्राप्तपरीक्षा : श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द ।
८-०० स्वयम्भूस्तोत्र : समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।
२.०० स्तुतिविद्या : स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने को कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्त्व की प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-सहित ।
१-५० प्रध्यात्मकमलमार्तण्ड : पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर आध्यात्मिक रचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित पुक्त्यनुशासन : तत्त्वज्ञान में परिपूर्ण, समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही
हुआ था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । ... १२५ श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र : प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्त्व को स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । शासनचतुस्त्रिशिका : (तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वीं ताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित समीचीन धर्मशास्त्र : स्वामी समन्तभद्र का गृहस्याचार-विषयक प्रत्युतम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर
जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द । जैन ग्रन्थ-प्रशस्ति स ग्रह भा०१ : सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थो की प्रशस्तियों का मगलाचरण
सहित अपूर्व सग्रह, उपयोगी ११ परिशिष्टो और पं० परमानन्द शास्त्रो की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना में प्रल कृत, सजिल्द । ...
४.०० समाधितन्त्र और इष्टोपदेश : अध्यात्म कृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित
४.०० प्रनित्यभावना : प्रा० पद्मनन्दी की महत्त्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित तत्वार्थसूत्र : (प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तारथी के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त ।
२५ श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ।
...
१-२५ महावीर का सर्वोदय तीर्थ, समन्तभद्र विचार-दीपिका, महावीर पूजा बाहुबली पूजा प्रत्येक का मूल्य अध्यात्मरहस्य : पं० पाशाघर की सुन्दर कृति, मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । जनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० २ : अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियो का महत्त्वपूर्ण सग्रह । पचपन
ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । सं. पं० परमानन्द शास्त्री। सजिल्द। १२.०० भ्याय-वीपिका : प्रा. अभिनव धर्मभूषण की कृति का प्रो० डा० दरबारीलालजी न्यायाचार्य द्वारा स० अनु०। ७.०० जन साहित्य पोर इतिहास पर विशद प्रकाश : पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्य कसायपाहुडसुत्त : मूल ग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री
यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे । सम्पादक पं हीरालालजी सिवान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में । पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द ।
२०-०. Reality : मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अंग्रेजी में पनुवाद बडे पाकार के ३००१. पक्की जिल्द न निबन्धरत्नावली : श्री मिलापचन्द्र तथा रतनलाल कटारिया
प्रकाशक-बीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित ।
६.००
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