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ॐ अहम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
वर्ष २६ किरण २
। ॥
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर-निर्वाण मवत् २४६६, वि० स० २०३०
मई-जून
१६७३
शान्तिनाथ-स्तोत्र न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन पादद्वयं ते प्रजाः । हेतुस्तत्र विचित्रदुःख-निचयः संसार-घोरार्णवः ।। अत्यन्त स्फुरदुग्ररश्मि-निकर-व्याकीर्ण-भूमण्डलो ग्रंष्मः कारयतीन्दु-पाद-सलिल-च्छायानुरागं रविः ।
-शान्ति भक्ति, प्राचार्य पूज्यपाद -हे भगवन् ! मनुष्य स्नेहवश आपके चरणों की शरण में नहीं जाते । किन्तु ससार रूप यह भयानक समुद्र नाना प्रकार के दुःखां का आगार है, इसी कारण से मनुष्य अापकी चरण-शरण में जाते है। जिस प्रकार ग्राम ऋतु के सूर्य की भयानक तपती हुई किना से व्याकुल हुया भूमण्डल चन्द्र-किरण, जल और छाया से अनुराग करता है।
अर्थात् मनुप्यो को वस्तुतः जिस प्रकार चन्द्रमा को किरणों, जल और वक्षो को छाया में प्रेम नहीं है, किन्तु मनुष्य जब ग्रीष्म ऋतु म मूर्य को झुलसाने वालो धप मे व्याकुल हो जाते है, तो शान्ति प्राप्त करने के लिए वे कही पेड़ को शीतल छाया में बैठ जाते है अथवा शीतल जल में स्नान करते है अथवा उन्हे चन्द्रमा को शोतल किरणो में शान्ति प्राप्त होती है। इसी प्रकार हे भगवन ! भक्त जनो को आपसे प्रेम नही है, किन्तु ससार में उन्हे नाना प्रकार के दु.ख है, उनगे वे व्याकुल हैं। इसलिए वे आपकी शरण में आते है, जिससे उन्हे शान्ति प्राप्त हो सके। और वास्तव में ही प्रापकी शरण में आने से उन्हें शान्ति प्राप्त होती है।