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________________ भारतीय परम्परा में अरहंत की प्राचीनता मुनिराज श्री विद्यानन्द जी महाराज कन्नड़ 'अरहत' भारतीय परम्परा में परमाराध्य देव है। मागधी अलहंत, अलिहत । वर्तमान इतिहास मे इनका जैन धर्मावलम्बियो से अवि अपभ्रश अलहतु, अलिहतु। च्छिन्न एवं घनिष्ट सम्बन्ध रह गया है। अनादि निधन अमहत, अरुह । एव प्राचीन नमस्कार मत्र मे और प्राचीन-अर्वाचीन दल परहत शब्द का अस्तित्व भारत के प्राचीनतम माने गत धार्मिक ग्रन्थो-वेदो-पुराणो अादि मे अरहतो को जाने वाले साहित्य में कहाँ-कहाँ उपलब्ध है, इसकी भक्ति-भावपूर्वक स्मरण और नमन किया गया है । अरहत नालिका तो बहुत बड़ी है, फिर भी यहाँ उसके सकेत का स्मरण मात्र सर्व पापो से निवृत्ति में कारण है और मात्र हेतु कुछ उद्धरण दिया जाना उपयुक्त है। इसके इमीलिए प्रत्येक प्रबुद्ध मनीषी प्रात में साय तक प्रत्येक सिवाय जैन वाड्मय तो इसका अमीम भडार है ---उसमे शुभकार्य के प्रारम्भ मे 'णमो अरहताण' प्रभृनि मत्र तो पदे-पदे अरहत के गुण, उनकी महिमा प्रादि मिलते है। बोलना अपना कर्तव्य समझता है । 'अरहत' शब्द प्रकृति प्रदत्त-प्राकृत है, इमको सस्कृत मे अहंन कहा जाता है श्रमण-सस्कृति के प्रमग में पृष्ठ ५७ पर प्राचार्य और इसकी निष्पत्ति 'ग्रह प्रशसायाम्' धातु से की जाती विनोबा भावे के उद्गार छपे है। जैन धर्म की प्राचीनता है। पाणिनि के सूत्र 'अर्ह प्रशमायाम्' मे शतृ प्रत्यय और सिद्ध करते हुए उन्होने कहा है-- "ऋग्वेद में भगवान की 'उगिदचा सर्वनाम स्थाने धातो' से नुम् होने पर 'अर्हत्' । प्रार्थना में एक जगह कहा है-- 'अहन् इद दयसे विश्व'अर्हन्त' आदि रूप बनते है। मम्बम'---२-३३-१० है अर्हन् । तुम इस तुच्छ दुनिया प्राकृत भाषा में शतृ प्रत्यय के स्थान पर 'न्त' प्रत्यय पर दया करते हो। इसमे ग्रहत् और दया दोनो जैनो के होकर अरहत रूप बनता है। कीं-कही 'ह श्री ही क्रीत प्यारे शब्द है। मेरी तो मान्यता है कि जितना हिन्दुधर्म क्लान्त क्लेश ग्लान स्वप्न-म्पर्श हपहिंगपु' हैम सूत्र से प्राचीन है, शायद उतना ही जैन धर्म प्राचीन है।" इकार हो जाता है और कही प्राकृत परम्परा के अनुसार ऋग्वेद का उपर्युक्त अविकल मत्र इस प्रकार है---- प्रकार का आगम हो जाता है इस प्रकार अरिहत और 'प्रहन विभषि सायकानि । अरहत ये दा रूप बनते है। प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इसका धन्वाह न्निकं धजतं विश्वरूपम् ॥ एक रूप 'अम्ह' भी प्रयुक्त किया है, यथा--'अरूहासिद्धा अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्बं । इरिया' [मो० पा० ६।१०४) सभवत यह तमिल भाषा न वा ओ जीयो रुद्र त्वदन्यदस्ति ।।'--२-३३-१० से प्रभावित है। अन्य भाषाओं में भी इस अरहत शब्द की व्यापकता रही है और उनमें इसके रूपान्तर मिलते जैन ग्राचार्य श्री नेमिचन्द्र के प्रतिष्ठा तिलक से उक्त है। यथा-- मत्र की शब्द एव भावावलियाँ पूरा-पूरा मेल खाती है। प्राकृत अरहत, अरिहन । प्राचार्य नेमिचन्द्र जी के शब्दो मे उक्त मंत्र का विस्तार गालि ग्ररहन्त। इस प्रकार है - सम्वृत 'अहन विभषि मोहारि विध्वंसि नय सायकान् । शौसेनी और तमिल माह । अनेकान्तयोति निर्बाध प्रमाणोदार धन्य च ।।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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