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________________ भारतीय-परम्परा में परहंत की प्राचीनता ततस्त्वमेव देवासि युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक् । बागहमिहिर सहिता, योगवासिष्ठ, वायु पुराण तथा दृष्टेष्ट बाधितेष्टाः स्युः सर्वथैकान्तवादिनः ॥ ब्रह्मसूत्र शाकरभाष्य मे भी अर्हत एवं प्राईत मत का अर्हन्निष्कमि वात्मानं बहिरन्तर्मलक्षयम् । उल्लेख मिलता है-- विश्वरूपं च विश्वार्थ वेदिनं लभसे सदा ।। 'दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽहंतां देवः ।'-५ प्रहन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम् । 'वेदान्ताहत सांख्य सौगत गुरू व्यक्षारि सूक्तादशो।" 'न सुरासुर संघातं मोक्ष मार्गोपदेशनात् । 'ब्राह्म शैवं वैष्णवं च सौरं शाक्तं तथाऽहंतम् ।'ब्रह्मासुरजयी वान्यो देव रुद्रस्त्वदस्ति न ॥' 'शरीर परिगाणो हि जीव इत्याहता मन्यन्ते ।- प्रतिष्ठातिलक ३१७४-७८ शाश्वत कोप तथा शारदीय नाममाला में अर्हत् शब्द --- हे अर्हन् । आप मोह शत्रु को नष्ट करने वाले 'जिन' का पर्यायवाची कहा गया हैनय-रूपी वाों को धारण करत हो तथा अनेकान्त को 'स्यादर्हन जिन पूज्ययोः । प्रकाशित करने वाले निर्वाध प्रमाणरूप विशाल धनप के तीर्थङ्गरी जगन्नाथो जिनोऽहंन भगवान् प्रभुः।-" धारक हो । युक्ति एव शास्त्र में अविरुद्ध वचन होने के अमर कोपकार ने अर्हत् को मानने वाले लोगो को कारण आप ही हमारे पाराध्य देव हो। मर्वथा एकान्त- पाहक, ग्याद्वादिक तथा पाहत कहा है और हेमचन्द्रावादी हमारे देवता नही हो सकते, क्योकि उनका उपदेश चायं ने यथार्थ वक्ता को परमेश्वर कहा हैप्रत्यक्ष एव अनुमान से बाधित है। 'स्यात् स्याद्वादिक प्राहकः ।'-" हे अर्हन् । आप ऐसी आत्मा को धारण करते हो 'यथास्थितार्थवादी च देवोऽहंन् परमेश्वरः।-२ जो निक अर्थात् याभूपण या रत्न की भाति प्रकाशमान हनुमन्नाटककार जैन शासन श्रद्धानियो के ईश्वर को है, बाह्य और अन्त मल से रहित है और जो ममस्त ग्रहन मज्ञा देते है, यथा -- विश्व के पदार्थों को एक साथ निरन्तर जानती है । हे 'प्रहन्नित्यथ जनशासनरता ।'-" अर्हन् ! आप नर, मुर एव अमुर सभी को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हो। अत विश्व पर दयाभाव से बौद्धग्रन्थो मे बुद्ध के लिए भी अरहत शब्द का प्रयोग परिपूर्ण हो। आपसे अन्य कोई और ब्रह्म अथवा असुर किया गया है । इसमें मुख्य कारण म० बुद्ध का, नीर्थकर को जीतने वाला, बलवान् देवता नहीं है।' महावीर का ममकालीन होना है क्योकि उस काल में ऋग्वेद में अन्य स्थानो पर भी 'अर्हन्' पद का प्रयोग जिन धर्म प्रभावक रूप में विद्यमान था और जिन तथा अरहत दोनो शब्द धर्मोपदेष्टायो- इन्द्रियविजेतानो के मिलता है लिए प्रयुक्त किये जाने का चलन था। इतना ही क्यो, 'बहन देवान् यक्षि मानुषात पूर्वो अथ ।' पालि भाषा के बौद्ध अागम - (त्रिपिटक मे) धम्मपद मे 'महन्तो ये सुदानवो नरो उसामि शव सः ।' 'प्रहन्ता चित्पुरोद घंशेष देवावर्वते ।' ५. वागहमिहिर महिता ४५१५८ ऋग्वेद के उपर्युक्त उद्धरणो से सिद्ध होता है कि ६. वाल्मीकि, योगवासिष्ठ ६१७३।३४ ऋग्वेद काल में जैन धर्म विद्यमान था और जैन धर्माव ७. वायुपुगण १०४।१६ लम्बी अर्हन्त की उपासना करते थे। ८ ब्रह्ममूत्र शाकरभाष्य २।२।३३ ९. शाश्वतकोप ६४१ १. युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । -प्राप्तमीमासा ६। १० शारदीयाश्व्य नाममाला-हर्पकीर्ति ६ २. ऋग्वेद २।५।२२।४।१ ११ अमरकोष (मणिप्रभा) २०७।१८ ३ ऋग्वेद ४।३।९।५२१५ १२. हेमचन्द्र योगशास्त्र २।४ ४. ऋग्येद ६८६०५ १३. हनुमन्नाटक १।३
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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