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५२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
अरहंत वग्गो नामक एक स्वतंत्र प्रकरण भी है। धम्मपद धवला टीका मे अरहंत का 'अरिहननादरहंता..... के अनुसार अपनी जीवन यात्रा के (भावी नय की अपेक्षा) रजोहननाद्वा अरहंता अतिशय पूजार्हत्वाद्वा अरहता।'-. अन्त को प्राप्त, भावी जन्म-मरण-शोकादि रहित- मक्त के रूप मे विवेचन किया गया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द जीव अरहंत संज्ञा को पाते है । तथाहि -
बोधपाहुड मे अरहंत के गुणो का वर्णन करते हुए लिखते 'गतद्धिनो विसोकस्त्य विषयुतस्स सवधि। सव्वगन्ध पहीनस्स परिलाहो न विज्जनि ।'
'जरवाहि जम्म मरणं चउगइगमणं च पुण्ण पावं च । --धम्मपद, अरहंतवग्गो ६० हन्तूण दोष कम्मे हुउ णाणमयं च परहंतो॥'-' 'यत्थारहंतो विहरन्ति तं भूमि रामणेय्यकं ।'
अर्थात् जिन्होने जग, व्याधि, जन्म, मरण, चतुर्गति
~~वही ६८ गमन, पुण्य-पाप, इन दोषों तथा कर्मों का नाश कर दिया --जहाँ कही भी अरहंत विहार करते हे वहाँ रम- है और जो ज्ञानमय हो गये है, वे अरहन है। अरहत की णीक स्थान होता है । म० बुद्ध ने कहा था - 'भिक्षुयो। इन्ही विशेषताओं को पचाध्यायी में इस प्रकार कहा प्राचीनकाल में जो भी अरहत तथा बद्ध हए थे, उनके भी गया है-- ऐसे ही दो मुख्य अनुयायी थे, जैसे मेरे अन्यायी मारिपुत्र 'दिव्यौदारिक देहमयो धौतघातिचतुष्टयः । और मोग्गलायन है। -(गौतम पृ० १७४) ज्ञानदग्वीर्य सौख्याढयः सोऽर्हन् धर्मदेशकः ।।जैन धर्म मे पाच अवस्थाओं मे मपन्न ग्रात्मा मर्वो
उक्त मपर्ण कथन का मागश यह है कि-ममस्त त्कृष्ट एवं पूज्य मानी गई है। इनमे अरहत मर्व प्रथम है।
भारतीय माहित्य में अग्हत शब्द अतिशय पूज्य आत्मा के परहंत किसी व्यक्ति विशेष का नाम नही है। वह ना अर्थ में प्रयक्त हमा है। वेद-कान में लेकर अद्यावधि आध्यात्मिक गुणो के विकास से प्राप्त होने वाला महान्
इम शब्द का महत्व रहा है। जैन धर्म के चतु शरण पाठ मङ्गलमय पद है । जैन आगमो में चार घातिया कर्मों पर
मे अग्हत को ही प्रमुखता दी गई है-- विजय प्राप्त करने वालो और अनन्त चतुष्टय प्राप्त करने वालो को अरहंत नाम से कहा जाता है, ये जीवनमुक्त
चत्तारि सरणं पवज्जामि । अरहते सरणं पवज्जामि, होते है, ससार की प्राधि-व्याधि और उपाधियो से दूर सिद्ध सरण पवज्जामि, साहू सरण प
सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिऔर बहुत दूर।
पण्णत्तं धम्म सरणं पवज्जामि।' 'ण? चबुधाइ कम्मो सणसुहणाण वीरिय मईयो। - सुह देह त्यो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिज्जो ॥' १ नोध पाहुट ३०
---नेमिचन्द्र सिद्धान्त चनवी द्रव्य मग्रह ५० २ पचाध्यायी श६०७
जैन चित्रकला जैन चित्रकला को ऐतिहासिक उपलब्धि ७वीं शताब्दी से है, जिसके प्रमाण सम्राट हर्ष के समकालीन पल्लव राज महेन्द्रवर्मन (७वीं शताब्दी) के समय में निर्मित सित्तन्नवासल गुफा की पांच जिन-मतियाँ हैं। समग्र भारतीय चित्रशलियों में १५वीं सदी से पूर्व जितने भी चित्र प्राप्त हैं, उन सबमें मुख्यता और प्राचीनता जैन चित्रों की है। ये चित्र दिगम्बर जैनियों से सम्बद्ध है, जिन्हें अपने सम्प्रदाय के ग्रन्थों को चित्रित कराने एव करने का बड़ा शौक था।
----भारतीय चित्रकला, वाचस्पति गरोला, पृ० १३८