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________________ ३६, वर्ष २६, कि. १ अनेकान्त बेहावस्था पुनयव न स्यात् ध्यानोपरोधिनी। भावनामो के स्वरूप का भी यहा पृथक पृथक निर्देश तस्वस्थो मनिायेत् स्थित्वाऽऽसिस्वाषिशय्य वा किया गया है। प्रा. पु. २१-७५. इस कथन का माधार भी ध्यानशतक रहा है। वहां धर्मध्यान के बारह अधिकारो मे प्रथम अधिकार भावना सम्बासु वट्टमाणा मुणमो जं देस-काल-चेट्टासु । ही है। इस प्रसंग मे निम्न गाथा व श्लोक का मिलान बरकेबलाइलाभं पत्ता बहुसो समियपावा ॥ कीजिए ध्या. श. ४०. पुवकयम्भासो भावणाहि माणस्स जोग्गयमवेद। यह श-काल-चेष्टासु सस्वेव समाहिताः। साम्रो य णाण-वंसण-चरित्त-बेग्गजणियाम्रो॥ सिया: सिरपन्ति सेत्स्यन्ति नात्र तम्नियमोऽस्स्यतः ।। ध्या. श. ३०. प्रा. पु. २१-८२. भावनाभिरसमढो मुनिनिस्थिरीभवेत् । मादिपुराणगत इन तीनों श्लोको मे ध्यानशतक की ज्ञान-दर्शन-चारित्र-वैराग्योपगताश्च ता: ॥ गाथानों का भाव तो पूर्णतया निहित है ही, साथ ही प्रा. पु. २१-६५. उनके शब्दों के संस्कृत रूपान्तर भी प्रायः जैसे के तैसे इसी प्रसंग मे प्रादिपुराण मे वाचना, पृच्छना, अनुलिए गये हैं। प्रेक्षण, परिवर्तन और सद्धर्मदेशन इनको ज्ञानभावना इस प्रकार परिकर्म की प्ररूपणा के बाद यहां ध्याता कहा गया है। ध्यानशतककार ने इन्हे धर्मध्यान के का लक्षण, ध्येय, ध्यान और फल; इन चार के कहने की मालम्बनरूप से ग्रहण किया है। प्रतिज्ञा की गई है और तदनुसार प्रागे क्रम से उनकी दिखलाते हुए ध्यानशतक मे यह कहा गया है कि जान प्ररूपणा भी की गई है। विषय में किया जाने वाला नित्य अभ्यास मन के धारण ध्येय की प्ररूपणा के बाद ध्यान का कथन करते हुए -अशुभ ब्यापार से रोककर उसके प्रवस्थान-को तथा यहां यह कहा गया है कि एक वस्तुविषयक प्रशस्त प्रणि- सूत्र व पर्थ की विशुद्धि को भी करता है। जिसने ज्ञान के धान का नाम ध्यान है, जो धर्म्य पौर शुक्ल के भेद से दो प्राश्रय से जीव-जीवादि सम्बन्धी गुणो की यथार्थता को प्रकार का है। यह प्रशस्त प्रणिधानरूप ध्यान मुक्ति का जान लिया है वह अतिशय स्थिरबुद्धि होकर ध्यान करता कारण है। यह कथन यद्यपि सामान्य ध्यान के पाश्रय से किया धर्मध्यान गया है, फिर भी जैसा कि पाठक ऊपर देख चुके है, ध्यानशतक मे धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए उस उसमे जो देश, काल और प्रासन प्रादि की प्ररूपणा की पर पारूढ़ होने के पूर्व मुनि को किन-किन बातों का वह ध्यानशतक के धर्मध्यान प्रकरण से काफी जान लेना आवश्यक है, इसका निर्देश करते हुए इन बारह प्रभावित है। अधिकारो की सूचना की गई है-१ भावना, २ देश, पूर्वोक्त ध्याता की प्ररूपणा में यहा यह कहा गया है ३ काल, ४ पासनविशेष, ५ मालम्बन, ६ कम या. कि जिन ज्ञान-वैराग्य भावनाओं का पूर्व मे कभी चिन्तन तव्य, ८ ध्याता, ६ अनुप्रेक्षा, १० लेश्या, ११ लिग और नहीं किया है उनका चिन्तन करने वाला मुनि ध्यान मे १२ फल । वे भावनाये ये है-ज्ञानभावना, दर्शन- इनमे से पादिपुराण में सामान्य ध्यान के परिकर्म के भाबना, चारित्रभाबना और वैराग्यभावना। इन चारों ३. प्रा. पु. २१, ६४-६६. १. जैसे-ध्याता ८५-१०३, ध्येय १०४-३१, ध्यान ४. प्रा. पु. २१-६६. १३२, फल-धर्मध्यान १६२-६३, शुक्ल १८६. ५. ध्या. श. ४२. •रमा. पु. २१-१३२० ६. ध्या. श. ३१.
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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