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________________ प्राबिपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव x प्रसंग में, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। देश', जीवादि तत्वो और बी.समो एव वातबलयो पादि काल'.मासनविशेष' और पालम्बन' की प्ररूपणा की गई को चिन्तनीय कहा गया है। साथ ही वहां यह भी कहा है जो ध्यानशतक से बहुत कुछ प्रभावित है। है कि जीव भेदों एवं उनके गुणों का चिन्तन करते ध्यातव्य की प्ररूपणा करते हा ध्यानशतक में ध्यान राज का जो प्रपने ही पूर्वकृत कर्म के प्रभाव से ससारके विषयभूत (ध्येयभूत) प्राज्ञा, अपाय, विपाक और समुद्र में परिभ्रमण हो रहा है उसका तथा उससे पार द्रव्यों के लक्षण-संस्थानादि इन चार की प्ररूपणा की होने के उपाय का भी विचार करना चाहिए। तुलना के रूप में निम्न गाथायें व श्लोक द्रष्टव्य हैध्यातव्य या ध्येय के भेद से जो धर्मध्यान के माज्ञा- खिह-वलय-दीक-सागर करय-विमाण-नपणाइसठाण । विचय, अपायविचय, विपाकविचय और सस्थानविचय ये निययं लोगट्टिइविहाणं ॥ चार भेद निष्पन्न होते है उनकी प्ररूपणा आदिपुराण मे ध्या. श. ५४. भी यथाक्रम से की गई है। द्वीपाब्धि-बलयानद्रीन सरितश्च सरांसि च । ____ ध्यानशतक मे प्राज्ञा को विशेषता को प्रगट करते विमान-भवन-व्यन्तरावास-नरकक्षितीः ॥ हुए जो अनेक विशेषण दिये गये है उनमें से अनादि प्रा. पु. २१-१४६. निधना, भूतहिता, अमिता, अजिता (अजय्या) पोर X महानुभावा; इन विशेषणों का उपयोग प्रादिपुराण में भी तस्स य सकम्मजणिय जम्माइजल कसाय-पायालं। किया गया है। वसणसय-सावयमणं मोहावत्त महाभीम ।। ध्यातव्य के चतुर्थ नद (सस्थान) की प्ररूपणा करते ध्या. श. ५६. हए ध्यानशतक में द्रव्यो के लक्षण, सस्थान, भासन तेषां स्वकृतकर्मानुभावोत्थमतिदुस्तरम् । (माधार), विधान (भेद) और मान (प्रमाण) को तथा भवाब्धि व्यसनावतं दोष-यादःकुलाकुलम् ॥ उत्पादादि पर्यायों के साथ पचास्तिकायस्वरूप लोक, तद् प्रा. पु. २१-१५२. गत पृथिवियों, वातवलयो एव द्वीप-समुद्रादिकों को चिन्त x नीय (ध्येय) बतलाया है। इसके अतिरिक्त उपयोगादि कि बहुणा सव्वं चिय जीवाइपयस्थ वित्थरोपेयं । स्वरूप जीव व उसके कर्मजनित ससाररूप समुद्र को सवनयसमूहमयं माएज्जा समयसम्भाव।। दिखलाते हुए उससे पार होने के उपाय का भी विचार ध्या. श. ६२. करने की प्रेरणा की गई है। किमत्र बहुनोक्तेन सर्वोऽप्यागमविस्तरः। इसी प्रकार प्रादिपुराण में भी संस्थानविचय नामक नयभङ्गशताकीर्णो ध्येयोऽध्यात्मविशुद्धये ॥ चतुर्थ धर्मध्यान की प्ररूपणा करते हुए लोक के प्राकार, मागे प्रादिपुराण मे उक्त धर्मध्यान के काल व स्वामी १. मा. पु. २१, ५७-५८ व ७६.८०. का निर्देश करते हुए कहा गया है कि उसका प्रवस्थान २. वही २१, २१-८३. अन्तर्मुहूर्त काल रहता है तथा वह अप्रमत्त दशा का ३. वही २१,५६-७५. मालम्बन लेकर अप्रमतों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होता ४. वही २१.८७ है। इसके अतिरिक्त उसकी स्थिति मागमपरम्परा के ५. ध्या. श.-प्राज्ञा ४५.४६, अपाय ५०, कर्मविपाक अनुसार सम्यग्दृष्टियो मे और शेष सयतासंयत व प्रमत्त५१, संस्थान ५२-६०. संयतों में भी जानना चाहिए। साथ ही उसे प्रकृष्ट शुद्धि ६. प्रा. पु.-प्राज्ञा २१, १३५.४१, अपाय १४१-४२, को प्राप्त तीन लेश्यामों से वृद्धिंगत बतलाया गया है। विपाक १४३.४७, सस्थान १४८.५४. ७. न्या. श. ४५-४६, मा.पु. २१,१३७-३८. ८. मा. पु. २१, १५५-५६.
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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