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३८, वर्ष २६, कि० १
अनेकान्त
तदनन्तर यहाँ धर्म ध्यान से सम्बद्ध क्षायोपशमिक उठायी गई है कि धर्मध्यान अप्रमत्तसंयत के होता? भाव का निर्देश करते हुए उसके प्रभ्यन्तर और बाह्य इसका निराकरण करते हुए वहां यह कहा गया है कि चिहों की सूचना की गई है। फल इसका पाप कर्मों की ऐसा मानने पर इससे पूर्व के प्रसंयतसम्यग्दृष्टि, संयता. निर्जरा और पूण्योदय से देवसुख की प्राप्ति बतलाया संयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानों में उसके प्रभाव का गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि उसका प्रसंग प्राप्त होगा। भागे पुनः यह दूसरी शंका उठायी साक्षात् फल स्वर्ग की प्राप्ति और पारम्परित मोक्ष की गयी है कि वह उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थानों में प्राप्ति है। इस ध्यान से च्युत होने पर मुनि को अनु- होता है ? इसका भी निराकरण करते हुए वहां कहा प्रेक्षामों के साथ भावनामों का चिन्तन करना चाहिए, गया है कि यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर जिससे संसार का प्रभाव किया जा सके।
उक्त दोनों गुणस्थानों में जो शुक्लध्यान होता है उसके
उक्त दोनों ध्यानशतक मे जिन १२ अधिकारो के द्वारा धर्म. मभाव का प्रसंग प्राप्त होगा। यदि इन दोनों गुणस्थानो मे ध्यान की प्ररूपणा की गई है उनमे धर्मध्यान के स्वामी, वयं मोर शुक्ल इन दोनों ही ध्यानों को स्वीकार किया लेश्या और फल प्रादि का विवेचन यथावसर किया ही जाय तो यह उचित नहीं होगा, क्योकि पार्ष (भागम) गया है। स्वामी के विषय में प्रकृत दोनों ग्रन्थों में कुछ में धर्म्यध्यान को उपशम मोर क्षपक इन दोनों ही श्रेणियो मतभेद दृष्टिगोचर होता है । यथा
में नहीं माना गया है तथा उसे वहाँ पूर्व के प्रसयतसम्यध्यानशतक मे धर्मध्यान के ध्याता कौन होते है, राष्ट मादि गुणस्थाना म स्वाकार किया गया ह। वह इसका विचार करते हुए कहा गया है कि सब प्रमादो से पार्ष कोनसा रहा है, यह यहाँ स्पष्ट नहीं है। रहित मुनि तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह उसके
शुक्लध्यान ध्याता कहे गये है। उपशान्तमोह मोर क्षीणमोह का शुक्लध्यान का निरूपण करते हुए प्रादिपुराण में अर्थ हरिभद्रसूरि ने उसकी टीका मे उपशामक निर्ग्रन्थ उसके माम्नाय के अनुसार शुक्ल और परमशुक्ल ये दो मौर क्षपक निम्रन्थ किया है। अभिप्राय यह प्रतीत होता भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें छपस्थों के शुक्ल और है कि वह धर्मध्यान सातवें अप्रमत्तसयत गुणस्थान से केवलियों के परमशुक्ल कहा गया है। इन भेदों का बारहवे क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है।
संकेत ध्यानशतक में भी उपलब्ध होता है, पर वहां परम परन्तु आदिपुराण मे, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका शुक्ल से समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती नाम का चतुर्थ शुक्ल है, उक्त धर्मध्यान के स्वामित्व का विचार करते हुए उसे ध्यान ही प्रभीष्ट रहा दिखता है। चोथे असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से सातवे अप्रमत्तसयत प्रागे दोनों प्रन्थों मे जो शुक्लध्यान के पृथक्त्व. गुणस्थान तक ही बतलाया गया है।
बितर्क सविचार प्रादि चार भेदों का निरूपण किया गया यह मान्यता तत्त्वार्थवार्तिक का अनुसरण करने वाली है सह बहुत कुछ समानता रखता है। है, तत्त्वार्थवार्तिककार के सामने यह पूर्वोक्त मान्यता रही ध्यानशतक मे शुक्लध्यानविषयक क्रम का निरूपण है कि वह धर्मध्यान प्रप्रमत्तसंयत के तथा उपशान्तमोह करते हए एक उदाहरण यह दिया गया है कि जिस प्रकार मोर क्षीणमोह के होता है। इसीलिए वहां यह शंका सब शरीर में व्याप्त विष को मन्त्र के द्वारा क्रम से हीन १. प्रा. पु. २१, १५७-६४.
करते हुए डकस्थान में रोक दिया जाता है और २. ध्या. श. ६३.
तत्पश्चात् प्रधानतर मन्त्र के योग से उसे डक से भो ३. मा. पु. २१, १५५-५६.
हटा दिया जाता है, उसी प्रकार तीनों लोकों को विषय ४. पाजामाय-विपाक-सस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंय- ५. त. वा. ६, ३६, १३-१५. तस्य । उपशाम्त-क्षीणकषाययोश्च ।
६. प्रा. पु. २१-१६७. त. सू. (श्वे.) ६, ३७-३८. ७. ध्या. श. ८६.