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________________ माविपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतकका प्रभाव तदनन्तर प्रादिपुराण में सामान्य ध्यान से सम्बद्ध हिंसानन्द मादि चार भेदो का नामनिर्देश करते हुए यह कुछ प्रासंगिक चर्चा करते हुए (११.२६) मागे कहा गया कहा गया है कि वह प्रकृष्टतर तीन दुर्लेश्यापों प्रभाव से है कि ध्यान प्रशस्त और प्रशस्त के भेद से दो प्रकार वृद्धिगत होकर छठे गुणस्थान से पूर्व पाच गुणस्थानों में का माना गया है, इसका कारण शुभ व अशुभ पभिप्राय सम्भव है व अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। मनन्तर उसके (चिन्तन) है। उक्त प्रशस्त और मप्रशस्त ध्यानी में उक्त चार भेदों का स्वरूप बतलाकर उसके परिचायक प्रत्येक दो दो प्रकार का है। इस प्रकार से ध्यान चार लिंगों व फल का निर्देश किया गया है। हिसानन्द के प्रकार का कहा गया है-मातं, रोद्र (ये दो मप्रशस्त), प्रसग में उसके लिए सिक्थ्य मत्स्य पोर भरविन्द नामक धर्म और शक्ल (ये दो प्रशस्त)। इनमें मादि के दो- विद्याधर राजा का उदाहरण दिया गया है। प्रार्त और रौद्र-संसारवघंक होने से हेय तथा माविपुराण में कुछ विशेष कयन अन्तिम दो-धर्म और शुक्ल-योगी जनो के लिए उपा- तदनन्तर यहा यह कहा गया है कि अनादि वासना देय हैं। के निमित्त से ये दोनों अप्रशस्त ध्यान विना ही प्रयत्न के प्राध्यान होते हैं। इन दोनों ध्यानों को छोड़कर मुनिजन अन्तिम मागे ध्यानशतक में चार प्रकार के प्रार्तध्यान का दो (धर्म व शुक्ल) ध्यानो का अभ्यास करते है। उत्तम स्वरूप दिखलाते हुए वह किसके होता है, किसके नहीं ध्यान की सिद्धि के लिए यहां सामान्य ध्यान की अपेक्षा होता है, तथा उसका फल क्या है। इसका निर्देश करते उसका कुछ परिकम' (देश, काल एवं मासन मादिरूप हा उसके विषय मे कुछ शका-समाधान भी किया गया कुछ विशेष सामग्री) अभीष्ट बतलाया है। है। तत्पश्चात् उक्त मार्तध्यान मे सम्भव लेश्या, उसके यह परिकर्म का विवेचन यद्यपि यहा सामान्य ध्यान ज्ञापक देत और गुणस्थान के अनुसार स्वामी का भी को लक्ष्य में रखकर किया गया है, फिर भी इस प्रसंग में उल्लेख किया गया है। कुछ ऐसा भी कथन किया गया है जो ध्यानशतक में इसी प्रकार प्रादिपुराण में भी उक्त चार प्रकार के धर्मध्यान के प्रकरण में उपलब्ध होता है व जिससे वह प्रातध्यान के स्वरूप को प्रगट करते हुए उसके स्वामी, विशेष प्रभावित भी है। उदाहरणार्थ दोनो ग्रन्थो के इन लेश्या, काल, पालम्बन, भाव, फल और परिचायक लिंगो पद्यो का मिलान किया जा सकता हैका निर्देश किया गया है। निच्च चिय जवा-पसू-नपुसग-कुसोलज्जियं बाणो। रौद्रध्यान ठाणं वियण भणिय विसेसमो झाणकालमि ॥ प्रार्तध्यान के पश्चात् ध्यानशतक मे रौद्रध्यान के ध्यानशतक ३५. स्वरूप को बतला कर वह किस प्रकार के जीव के होता स्त्री-पशु-क्लीब-संसक्तरहितं विजनं मुनेः । है, उसके रहते हुए लेश्यायें कौन सी सम्भव हैं, तथा उसके सर्वदेवोचित स्थान ध्यानकाले विशेषतः ।। परिचायक लिंग कौन से है। इसका विवेचन किया गया घा. पु. २१-७७. x जच्चिय वेहावत्या जिया ण झाणोवरोहिणी होह। प्रादिपुराण मे भी रोद्रध्यान का विचार करते हुए झाइज्जा तववत्यो ठिमो निसष्णो निवण्णो बा। प्रथमत: उसके निस्तार्थ (प्राणिनां रोदनाद् रुद्रः, तत्र ध्या. श. ३६. भवं रौद्रम्) को प्रगट किया गया है। तत्पश्चात् उसके ५. मा. पु. २१, ४२-५३. १. प्रादिपुराण २१, ११-२६. ६. ध्यान के परिकर्म का विचार तत्त्वार्थवातिक (8, २. ध्यानशतक ६-१८. ४४) और भगवती पाराषना (१७०६-७) में भी ३. प्रा. पु. २१, ३१-४१. किया गया है। ४. ध्यानशतक १६-२७. ७. पा.पु. २१,५४-८४.
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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