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________________ आदिपुराणगत ध्यानप्रकरण पर ध्यानशतक का प्रभाव पं. बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री राजा श्रेणिक के प्रश्न पर गौतम गणधर ने जो उसके लिए ध्यान का व्याख्यान किया था उसकी चर्चा करते हुए प्रादिपुराण के २१ वें पर्व में ध्यान का विस्तार से निरूपण किया गया है। वहां जिस शैली से ध्यान का विवेचन किया गया है उस पर ध्यानशतक का प्रभाव अधिक रहा दिखता है'। इतना ही नहीं, जैसा कि भागे आप देखेंगे, धादिपुराणगत कुछ श्लोक तो ध्यानाक की गाथाओं के छायानुवाद जैसे दिखते हैं । विषयविवेचन की शैली ध्यानशतक में मंगल के बाद ध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जो स्थिर म्रध्यवसान या मन को एकाग्रता है उसका नाम ध्यान है । उसको छोड़कर जो अवस्थित पिस है वह भावना, अनुप्रेक्षा पोर चिन्ता के भेद से तीन प्रकार का है। एक वस्तु मे चित्त के भवस्थानरूप ध्यान अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है मौर बह छद्मस्थों के होता है। जिनों का सयोग और प्रयोग १. षट्खण्डागम के ऊपर घवला टीका के रचयिता आचार्य वीरसेन स्वामी के समक्ष भी प्रकृत ध्यानशतक रहा है और उन्होंने उसके वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत कर्म-अनुयोगद्वार मे तपःकर्म का व्याख्यान करते हुए यथावसर उसकी ४०-५० गाथाओं को भी उद्धृत किया है (देखिये 'ध्यानशतक : एक परिचय' शीर्षक लेख - अनेकान्त वर्ष २४, किरण ६ १० २७१-७७ ) ; इसलिए यद्यपि यह कहा जा सकता है कि सम्भव है घवला पर से हो ग्रा० जिनसेन स्वामी ने मादिपुराण में उस प्रकार से ध्यान का विवेचन किया हो; फिर भी श्रातं प्रोर रौद्र ध्यानों के विवे चन पर भी, जो धवला में नहीं है, ध्यानशतक का प्रभाव रहा है। यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रा. जिनसेन प्रा. वीरसेन स्वामी के शिष्य रहे है । ' देवलियों का ध्यान योगों के निरोधस्वरूप है । अन्तर्मुहूर्त के पश्चात चिन्ता अथवा ध्यानान्तर अनुप्रेक्षा मौर भावनारूप चिन्तन होता है। इस प्रकार से बहुत वस्तुओं में संक्रमण के होने पर ध्यान का प्रवाह चलता रहता है। - -- यही बात धादिपुराण में भी बेगिक के प्रश्न के उत्तरस्वरूप गौतम गणधर के द्वारा इस प्रकार कहलायी गई है -- एक वस्तु में एकाग्रता रूप से जो चिन्ता का निरोध होता है उसे ध्यान कहा जाता है और वह जिसके वर्षभनाराचसंहनन होता है उसके काल तक हो होता है । जो स्थिर अध्यवसान है उसका नाम ध्यान है मोर जो चलाचल चित्त है -चित्त की अस्थिरता हैउसका नाम अनुप्रेक्षा, चिन्ता प्रथवा भावना है। पूर्वोक्त लक्षणरूप वह ध्यान छद्यस्थों के होता है तथा विश्वदृश्वासर्वज्ञ जिनों के - योगास्रव का जो निरोष होता है उसे उपचार से ध्यान माना गया है'। समानता के लिए निम्न पद्य देखिये जं चिरममबसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं । तं होज्न भावना वा प्रणुपेहा वा ग्रहव चिता ॥ ध्यानशतक २. स्थिरमध्यवसानं यत् तद् ध्यानं यच्चलाचनम् । सानुप्रेक्षाथवा चिन्ता भावना चित्तमेव वा ॥ श्रादिपुराण २१- ६. ध्यान के भेद पश्चात् ध्यानशतक में ध्यान के प्रातं, रौद्र, धमं मोर शुक्ल इन चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमे प्रतिम दो ध्यानों को धर्म धौर शुक्ल को निर्वाण का साधक तथा भार्त मोर रोद्र ध्यानों को ससार का कारण बतलाया गया है । २. ध्यानशतक २-४. ३. श्रादिपुराण २१, ८-१०. ४. ध्यानशतक ५.
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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