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६६, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
गया। प्राचार्य यतिवृषभ 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रंथ में भगवान भगवान का आहार समाप्त हुआ। देवों ने पाकर के ज्ञान कल्याणक का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहते उसका सम्मान किया। उन्होंने पंचाश्चर्य किये-अाकाश
से रत्न वर्षा हुई, पुष्प वृष्टि हुई, देवों ने दुन्दुभी घोष बहसाह सुक्क बसमी चेतारिक्खे मणोहरुज्जाणे । किये, शीतल सुरभित पबन बहने लगी और आकाश मे प्रवरण्हे उप्पणं पउमप्पह जिणरिदस्स ॥४॥६८३ खड़े हुए देव जयजयकार कर रहे थे, 'धन्य यह दान, धन्य
- पद्मप्रभ जिनेश्वर को वैशाख शुक्ला दसमी के यह पात्र और धन्य यह दाता ।' अपराण्ह काल में चित्रा नक्षत्र के रहते मनोहर उद्यान में प्रभु पाहार के पश्चात् वन की ओर चले गये, भक्त केवलज्ञाम उत्पन्न हुआ।
चन्दना जाते हुए प्रभु को निनिमेष दृष्टि से देखती रही । । उसी समय इन्द्रों और देवों ने प्राकर उनकी पूजा कौशाम्बी के नागरिक आकर चन्दना के पुण्य की सराहना की । कुवेर ने समवसरण की रचना की और भगबान ने कर रहे थे। यह पुण्य-चर्चा राजमहलो मे भी पहुची। इसी बन मे-पभोसा गिरि मे धर्म-चक्र प्रवर्तन किया। कौशाम्बी नरेश शतानीक की पटरानी मृगावती ने सुना
यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना उस समय घटित हुई, तो वह उस महिमामयी भाग्यवती नारी के दर्शन करने जब भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्ति से पूर्व यहाँ पधारे। के लिए राजकुमार उदयन के साथ स्वय पाई। किन्तु वे पारणा के लिए नगर मे पधारे। संयोगवश उस समय उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्यमिश्रित हर्ष हा कि वह भारत के सर्वाधिक शक्तिशाली गणराज्य वैशाली के अधि- नारी और कोई नही; उसकी छोटी बहिन है । वह अपनो पति चेटक की पुत्री कुमारी चन्दना (चन्दनवाला) दुर्भाग्य प्रिय बहिन को बडे आदरपूर्वक महलो मे लिवा ले गई। के चक्र मे पडकर सेठ वषभसन की सेठानी द्वारा बधन किन्तु चन्दना अपनी इस अल्प वय मे ही कर्म के जिन कर में पड़ी हुई थी। झूठे सापत्न्य द्वेष से सेठानी ने उसे जजीरो हाथो मे पडकर नाना प्रकार की लाच्छनाप्रो और ब्यमें बाध रक्खा था। चन्दना ने ज्यों ही प्रभु महावीर को थानो का अनुभव कर चुकी थी, उससे उसके मन मे देखा तो उसके सारे बन्धन खुल गये। सेठानी ने उसे संसार के प्रति प्रबल निर्वेद पनप रहा था । उसके बधुजन निराभरण कर रखा था, उसे खाने के लिए काजी मिश्रित पाकर उसे लिवा ले गये। लेकिन उसका वैराग्य पकता कोदो का भात मिट्टी के सकोरे मे दे रक्खा था । भगवान ही गया और एक दिन चन्दना घरबार और राज सुखों के दर्शन करते ही उसका कोमल शरीर बहमूल्य वस्त्रा- का परित्याग करके भगवान महावीर की शरण मे जा भूषणों ने सुशोभित होने लगा । उसके शील के माहात्म्य पहुची और आर्यिका दीक्षा ले ली। अपने तप और कठोर से उसका मिट्टी का सकोरा सोने का हो गया और कोदो __ साधना के बल पर वह भगवान महावीर की ३,६००० का भात शाली चावलों का भात बन गया। किन्तु चदना प्रायिकानो के सघ की सर्वप्रमुख गणिनी के पद पर प्रतिको तो इस सबकी ओर ध्यान देने का अवकाश ही कहाँ ष्ठित हुई। था। वह तो प्रभु की भक्ति में लीन थी। जगद्गुरु भगवान महावीर अपने जीवन काल में कई बार त्रिलोकीनाथ प्रभु उसके द्वार पर आहार के लिए आये कौशाम्बी पधारे और वहाँ उनका समवसरण लगा। थे। उसके हृदय का सम्पूर्ण रस ही भक्ति बन गया था। तत्कालीन इतिहास--जैन ग्रन्थो से ज्ञात होता है कि वह भगवान के चरणों में झुकी और नवधा भक्तिपूर्वक ईसा पूर्व ७वी शताब्दी में जो सोलह बड़े जनाद थे, उनमे उसने भगवान को पड़गाया। आज उसके हृदय में कितना एक वत्स देश भी था, जिसकी राजधानी कौशाम्बी थी। हर्ष था ! वह अपने सारे शोक-सन्तापों को भूल गई। गंगा जी की बाढ़ के कारण जब हस्तिनापूर का विनाश आज उसके हाथों से तीर्थङ्कर भगवान ने आहार लिया हो गया, उसके बाद चन्द्रवंशी नेमिचक्र ने कौशाम्बी को या। इससे बड़ा पुण्य संसार में क्या कोई दूसरा हो अपनी राजधानी बनाया था। उनके वश ने यहाँ वाईस सकता है।
पीढ़ी तक राज्य किया।