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वैराग्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
संकलनकर्ता--श्री पं० वंशीधर शास्त्री 'भनेकान्त' के वर्ष २५ किरण ६ में सात अनुप्रेक्षाएं दी गई थीं। बाबू पानालाल जी अग्रवाल बेहली की कृपा से कुछ अन्य विद्वान् कवियों की अनुप्रेक्षायें उपलब्ध हुई हैं। उन्हें यहाँ साभार दिया जा रहा है। इससे ज्ञात होता है कि जैनों में अनुप्रेक्षा-साहित्य का भण्डार प्रत्यन्त समृद्ध और समुन्नत है। ये अनुप्रेक्षाये प्रसाम्प्रदायिक और लोक-कल्याण की भावना से निबद्ध की गई है। अतः यह साहित्य सार्वजनीन और सार्वत्रिक है। यदि अनुसन्धान किया जाय तो जैन शास्त्र भण्डारों में प्रभो अन्य अनेक कवियों द्वारा विरचित अनुप्रेक्षा-साहित्य उपलब्ध हो सकता है। यह सम्पूर्ण साहित्य प्रकाशित करने की आवश्यकता है।
-संपादक कविवर रूपचन्वकृत बारह भावना (पंचमगल पाठ से) ब्यौहारै परमेठी जाप भव तन भोग विरत्त कदाचित चित्तए
निश्चै सरण प्रापको आप ।। धन जोवन पिय पुत्त कलत्त अनित्त ए।
संसार-सूर कहावै जो सिर देय कोउ न सरन मरन दिन दूख चहँ गति भयौं
खेत तजै सो अपयश लेय । सुख दुख एकहि भोगत जिय विधिवसि पयौं ।
इस अनुसार जगत की रीत पयौं विधिवसि पान चेतन आन जड़ जु कलेवरो।
सब प्रसार सब ही विपरीत ।। तन असुचि परतें होय आस्रव परिहरते सरो। एकत्त्व-तान काल इस त्रिभुवन माहि निर्जरा तप बल होय समकित
जोव सघाती कोई नाहि । बिन सदा त्रिभुवन भम्यो।
एकाको सुख दुख सब सहै दुर्लभ विवेक विना न कबहूँ परम धरम विपं रम्यो॥
पाप पुन्न करनी फल लहै ।।
अन्यत्त्व-जितने जग सजोगी भाव प्राचार्य उमास्वामी कृत तत्वार्थ सूत्र
ते सब जिय सों भिन्न सुभाव । 'स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषह जय-चारित्र ।। निज सजोग नही पर सोय 'अनित्याशरण ससारकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवरावर
पुत्र सुजन पर क्यो नहि होय ।। निर्जरा लोक बोधिदुर्लभ धर्म स्वाख्यात तत्त्वानु- अशुचि-अशुचि अस्थि पिजर तन येह चिन्तनमनुप्रेक्षा ।।६७
चाम वसन बेढो घिन गेह ।
चेतन चिरा तहाँ नित रहै कविवर भूधरदासकृत बारह भावना (पार्श्वपुराण से)
सो विन ज्ञान गिलानि न गहै ।। अनित्य-द्रव्य सुभाव विना जग माहि
प्रास्रव-मिथ्या अविरत योग कसाय पर ये रूप कछू थिर नाहि ।
ये प्रास्रव कारण समुदाय । तन धन प्रादिक दीर्षे जेह
आस्रव कर्मबन्ध को हेत काल प्रगन सब ईधन तेह ।।
बन्ध चतुर्गति के दुख देत । प्रशरण-भव वन भमत निरंतर जीव
संवर-समिति गुप्ति अनुपेहा धर्म याहि न कोई सरण सदीव ।
सहन परीषह संजय पर्म ।