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७२, वर्ष २६, कि० २
मालूम पड़ती है। यहाँ पर एक पायागपट्ट भी उपलब्ध बन गया है और वह मूर्ति मन्दिर मे रख दी गई है । यह हुना था, जो इस प्रकार पढ़ा गया है
मूर्ति ई० सन् से पूर्व की प्रतीत होती है। सिद्धं राशो शिवमित्रस्य संवघटे... रव माहकिय... इसी प्रकार शहजादपुर में एक जैन मन्दिर है। एक स्थविरस बलदासस निवर्तन श......शिवनंदिस अन्तेवा- अनुश्रुति के अनुसार प्राचीन काल मे यहाँ दो सौ जैन सिस शिवपालित पायागपट्टो थापयति प्ररहत पूजाये। मन्दिर थे। किन्तु अब वहाँ एक भी जन का घर नही
अर्थात् सिद्ध राजा शिवमित्र के राज्य के बारहवें वर्ष रहा । यह स्थान भरवारी से सत्रह मील दूर है। कविवर में स्थविर बलदास के उपदेश से शिवनन्दी के शिष्य शिव- विनोदीलाल इसी स्थान के निवासी थे । वनारसी विलास पालित ने परहन्त पूजा के लिए प्रायागपट्र स्थापित किया। में भी इन कविवर की चर्चा पाई है। इनकी कई रचनाएँ
मासपास के जन मन्दिर-यह क्षेत्र शताब्दियों तक अब तक मिलती है, जैसे तीन लोक का पाठ, नेमिनाथ जेन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा है। अतः यहाँ अासपास मे का विवाह आदि । जैन पुरातत्व सम्बन्धी सामग्री और मूर्तियां बहुतायत से दानानगर में भी एक प्राचीन मन्दिर है। मिलती हैं । वर्षा के प्रारम्भ मे खेतो मे हल चलाते समय पाली में एक प्राचीन मन्दिर था। किन्तु यमुना की बहुधा जैन मूर्तियां निकलती है। इसी प्रकार की एक वाढ़ मे वह बह गया। उसके भग्नावशेष बचे है। नया मूर्ति चम्पहा बाजार मे देखी जो एक खेत मे से निकली मन्दिर बन गया है। प्रतिमायें अत्यन्त प्राचीन है। थी। यह मूति खण्डित है। घुटनो के नीचे का भाग टूट वार्षिक मेला--क्षेत्र पर वार्षिक उत्सव चैत सुदी गया है। यह सर्वतोभद्रिका है। अब यहाँ जैन मन्दिर भी पूर्णमासी को होता है।
नाथ निरजन पावे प्रवधु क्या सोवे तन मठ में, जाग विलोकन घट में ॥०॥ तन मठ की परतीत न कोहि परे एक पल में। हलचल मेट खबर ले घट की, चिन्हे रमता जल मे ॥०॥१॥ मठ में पंचभूत का वासा, सासा धूत खवीसा । छिन-छिन तोही छलन कू चाहै, समझे न बौरा सीसा ॥०॥२॥ सिर पर पंच बसे परमेश्वर, घट में सूछम वारी । पाप अभ्यास लख कोई विरला, निरखे धू को तारी ॥०॥३॥ मात्रा मारी प्रासन घर घट में, अजपाजाप जपावे । प्रानन्दघन चेतनमय मरति, नाथ निरंजन पावे ॥१०॥४॥
-मानन्दघन अर्थ-हे अवधूत आत्मन् ! तू इस शरीरसूपी मठ में अभी तक ममत्व निद्रा मे क्यों सो रहा है ? प्रात्मा के शुद्ध उपयोग को जगाकर प्रात्म-स्वरूप को देख । शरीर रूपी यह मठ क्षणिक है, इसका विश्वास मत कर । क्षण भर में यह नष्ट हो जायगा । तू रागवेष के संकल्प-विकल्प छोड़कर अपने शुद्ध स्वरूप की खबर ले। आत्मा रूप घट मे समतारूप जल भरा हुआ है। इस मठ में पांच भूतो का निवास है और श्वासोच्छ्वास रूप धूर्त घुस कर बैठे है। ये तुम्हें क्षण-क्षण में छलने मे लगे हुए है। इस तथ्य को मूर्ख शिष्य समझ नहीं पा रहा। तेरे सिर पर पंच परमेष्ठी रहते है और तेरे अन्दर पंच परमेष्ठी रूप पात्मा है। किन्तु इस एकत्व विभक्त आत्मा को निरन्तर अभ्यास द्वारा ध्रुवतारे के समान कोई विरला ही अनुभव कर पाता है। जो समस्त इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके घर में स्थिर उपयोग रूप आसन लगा कर प्रात्मा के शुद्धोपयोग का जाप जपता है, उसका अनुभव करता है, मानन्दपन कहते हैं, वह सम्यग्दृष्टि जीव सच्चिदानन्द स्वरूप अपने भीतर के परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।