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________________ २८ ] * अनेकान्त - संवर-सम्यक् ज्ञान और प्रात्म संयम से नये कर्मो कता है तो जैन धर्म नास्तिक है, परन्तु 'ईश्वर की सत्ता' का प्रवेश रोकमा। . पस्वीकार करना नास्तिकता नहीं है, क्योकि यदि ऐसा निर्जर-संचित कर्मों का नाश होना अथवा झड़ना। होता तो सांख्य तथा मीमांसा दर्शन षष्ठ दर्शनों के अन्तर यह संवर के बाद स्वतः होता है, परन्तु गत नही पाते जो कि प्रास्तिक दर्शन कहे जाते है। इसमें भी जीव अपनी साधना द्वारा शीघ्रता ईश्वरवानी दर्शन प्राय: ईश्वर पर मानवस्व का आरोप कर ला सकता है। देते है । वे ईश्वर को नीचे मनुष्य के 'तर पर ले पाते है। मोक्ष-जीव भोर कर्म के सम्बन्ध का विच्छेव हो इसके विपरीत जैन धर्म मनुष्य (नीर्थङ्कर) को ही तब जाना। ईश्वर के रूप में देखता है, जब उसकी सहज शक्तियां उसी यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि बन्धकी की साधना द्वारा पूर्ण विकास की अवस्था में होती है। प्रक्रिया में कम स्वत: प्रवृत्त होता है, न कि ईश्वर की यहाँ पर जीव के सर्वोत्तम स्वरूप के लिए ही एक दुसरा इच्छा से-जैसा कि हिन्दू धर्म मानता है। कर्म के द्वारा शब्द है । वह है तीर्थङ्कर । प्रादर्श ही मनुष्य ही मनुष्य का बंधने की यह प्रक्रिया दो प्रकार से होती है: प्रादर्श है और उसकी सिद्धि की एकमात्र साधना यह है (१) परम सत्य का प्रज्ञान कि हम पादर्श मनुष्यो को उदाहरण के रूप में अपने सामने (२) मनोवेग रखे तथा उसी तरह प्रयत्न करे जिस तरह अन्य जीवों ने सर्वप्रथम सन्यासी अपनी योग-साधना के द्वारा नये किया था। ऐसा प्रादर्श हमें पूरी माशा और प्रोत्साहन कर्मों का संवर करता है, तब पूर्व कर्मों का निर्जर अपने देता है; क्योंकि जो एक जीव कर चुका है तो दूसरा जीव प्राप होने लगता है । जब पूर्व कर्मों का पूर्ण रूप से निर्जर भी कर सकता है। साधना का केवल इतना ही महत्त्व हो जाता है, तब जीव मोक्षावस्था को प्राप्त हो जाता है। नहीं है कि मन, राग-द्वेष, ज्ञानेन्द्रियो तथा कर्मेन्द्रियों का कभी कभी लोग जैन धर्म को नास्तिक धर्म कहते है, नियन्त्रण अर्थात् केवल इन्द्रिय-वृत्तियों का निरोध ही नहीं जो उचित नहीं है । जैन धर्म को नास्तिक धर्म कहना एक है, वरन् उनकी कुप्रवृत्तियो का दमन कर उन्हें विवेक के प्रकार से हास्यास्पद सा है। यदि नास्तिक का अर्थ-वह मार्ग पर लगाना भी है। पाधुनिक युग में जो कलह और धर्म या दर्शन जो 'प्रात्मा के अस्तित्व', नैतिक चरित्र, पुन- द्वेष है उसका एकमात्र कारण यह है कि हम अपने जन्म में विश्वास नही करना है तो केवल चार्वाक' नातिक कुप्रवृत्तियों का दमन नहीं कर पा रहे है। इस प्रकार जैन है। जैन धर्म, बौद्ध धर्म से भी अधिक प्राध्यात्मिक तथा धर्म हमारे सामने एक नया प्रादर्श रखता है, जो प्राज के नैतिक है। यदि 'ईश्वर की सत्ता अस्वीकार करना नास्ति- युग के लिए बहुत कल्याशकारी है।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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