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________________ * अनेकान्त . [ २७ भारतीय दर्शन में जितनी कठोर साधना जैन धर्म की है ३त्रह्मचर्य-वीर्य स्खलन होना। उतनी कठोर अन्य धर्मों की नही। अनेक दार्शनिकों की ४-प्रस्तेय-मोरी न करना अर्थात किसी की कोई वस्तु शरद जैन दर्शन भी न केवल ज्ञान पर जोर देता है, बल्कि बिना पूछेन लेना। प्राचरण और ज्ञान दोनों पर ही जोर देता है। इसके ५--प्रपरिग्रह-संसार का त्याग अथवा संसार की वस्तुओं अतिरिक्त य, प्रास्था की आवश्यकता बतलाता है। जैन में मोहन रखना। धर्म में सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक् चरित्र को उपरोक्त साधनाये सन्यासियों के लिये हैं, जिनका बड़ी 'विरत्न' अर्थात् जीवन की तीन बहुमूल्य साधना बताया कठोरता के साथ पालन किया जाता है। गृहस्थ के लिये गया है। भी पाच प्रकार की साधना है:सम्यक वर्शन-जैन तीर्थरों पयवा जैन शाखों और १-अहिंसा-बो पहले कहा गया है। उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास । २-सत्यसम्यक ज्ञान-जैन धर्म पोर दर्शन का ज्ञान । ३-अस्तेयसम्यक् चरित्र-चो सही जाना जा चुका है और ४-संयम-धर्य प्रयवा अपनी इन्द्रियों को अपने वश में माना जा चुका है, उसको अपने रखना। चारित्र में परिणत करना। ५-सन्तोष -अपनी प्रावश्यकताबों को कठोरता के साथ इसमें पहला स्थान सम्यक् दर्शन को दिया गया है। सीमित रखना। क्योकि संशय, जो प्राध्यात्मिक विकास में बाधक होता है, जैन धर्म मनुष्य को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता देने में हर वह बिना श्रद्धा के दूर नही हो सकता। गीता में भी कहा अन्य धर्मों से बढ़कर है। जो कुछ कर्म हम करते हैं और गया है कि साधन रहित मनुष्य के अन्त:करण मे श्रेष्ठ उनके जो फल हैं, उनके बीच कोई हस्तक्षेप नही कर बुद्धि नहीं होती और उस पुरुष के मन्तःकरण में भास्तिक सकता । एक बार कर लिये जाने के बाद कर्म हमारे ईश्वर भाव भी नही होता और बिना मास्तिक भाव वाले पुरुष बन जाते हैं और उनके फल भोगने ही पड़ेगे। मेरा स्वाको शान्ति भी नहीं मिलती। फिर शान्तिरहित पुरुष को तन्त्र्य जितना बड़ा है उतना ही बड़ा मेरा दायित्व भी है। सुख कैसे प्राप्त हो सकता है। मैं स्वेच्छानुसार चल सकता हूँ, परन्तु मेरा चुनाव अन्यथा स्वयं भगवान् महावीर कहते हैं: नही हो सकता और उसके परिणामों से (कर्मफल से) मैं 'रणारणं पयासमं, सोहम्रो तवो, सयमो यगुत्तिमरो। बच नहीं सकता। इन परिणामों से बचने का एकमात्र अर्थात् ज्ञान प्रकाशक है, चित्त शोधन करता है और उपाय है-नीति धर्म और साधना। जो हम रे पूर्व कर्म सयम रक्षा करता है। जैन धर्म में कर्म बन्ध को रोकने हैं। उनका फल तो हमे भोगना ही पडेगा, परन्तु अब भी पौर उनको (पूर्व कर्म) नष्ट करने का उपाय शुद्ध पाचरण हम अपने पूर्व कर्मों का नाश करके कर्म बन्धन से छुटसयम और तप है। जैन धर्म में प्राचरण पाँच प्रकार के कारा पा सकते है। जीव जिस तरह अपने कर्मों द्वारा बताये गये हैं: बन्धन में पड़ा है, उसी प्रकार अपने कर्मों द्वारा मुक्त भी १-अहिंसा-किसी भी प्राणी को मन, कर्म और वाणी हो सकता है। जीव किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? जीव से हानि न पहुँचामा। इस प्रकार मुक्त हो सकता है:२-सत्य-भूठ न बोलना पर्यात ज्यों का त्यों कह देना। माधव-कुछ मानसिक हेमों से समीपवर्ती कर्म १-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः तत्वार्य। पुद्गल का जीव को मोर माना। बन्ध-कर्म का पूर्ण रूप से बीब के अन्दर प्रवेश हो २-गीता-२/६६ बाना। १-०जन वर्शन का जीवन सूत्र
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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