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* अनेकान्त -
[ ४७ मनुमान दो प्रमाण मानते है । रामानुजीय दर्शनशास्त्र वेत्ता किया गया है। जो जान प्रत्यक्ष नहीं है वह परोक्ष कहप्रमाणो की मख्या में प्रागम को और जोड़ते हुए प्रत्यक्ष, लाता है। स्मृति (स्मरण), प्रत्यभिज्ञा (वस्तु की पहिच न) अनुमान और प्रागम इस प्रकार प्रमाण के तीन भेद स्वी. तर्क (विशेष सम्बन्ध का ज्ञान), अनुमान, प्रागम ये सभी कार करते है। नैयायिक चार प्रमाण मानते हैं-प्रत्यक्ष, परोक्ष हैं। भारतीय कुछ दर्शनशासम्मृति को प्रमाण रूप अनुमान, आगम और उपमान । प्रभाकर मतावलम्बी इस मे स्वीकार नही करते परन्तु जैनों के अनुसार स्मृति को सूची में अर्यापत्ति को और जोड कर प्रमाणो की संख्या भी प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि यह भी उतनी यथार्थ पाँच तक पहुंचा देते हैं। भट्ट मिन्तानामारी प्रमाणो की होती है जितने कि दूसरे प्रकार के ज्ञान । स्मृति केवल सरूपा ६ मानते हैं क्योंकि वे ऊपर की सूची में एक नया पूर्वानुभूत्त वस्तु का प्रभाव मात्र नहीं है कि यह पूर्वानुप्रमाण अनुपलब्धि और जोड देते हैं । पौराणिक पाठ भूत वस्तु का ज्ञान है। यह भूतकाल को निश्चित घोषणा प्रमाण मानते है क्योकि वे ऐतिह्य पोर सम्भव को भी है। प्रत्यभिज्ञान या पहिचान की एक प्रकार का प्रामाणिक प्रमाण के अन्तर्गत ही गिनते है। परन्तु जैन सिद्ध न्त के ज्ञान है। यह एक मिला-जुला ज्ञान है। यह न तो पूर्ण, अनुसार प्रमाण दो ही हैं-प्रत्यक्ष और परोक्ष। प्रत्यक्ष स्मृति है और न पूर्ण ज्ञान है। यह प्रत्यक्ष ज्ञान और को छोडकर शेष सभी प्रमाण परोक्ष के अन्दर ही मित स्मृति से बना हुआ ऐसा ज्ञान है। यह एक नया शान है हो जाते है।
जिसे ज्ञान या स्मृति मे नही मिलाया जा सकता है। यह प्रत्यक्ष क्या है? यह वह ज्ञान है जो विशद अर्थात वस्तु का स्मृति मोर प्रत्यक्ष जान द्वारा निश्चय है। दवदत्त स्वच्छ होता है। प्रत्यक्ष प्रमाण बिल्कुल सीधा और तत्काल जो हमारे सामने है, उसे हमने पहले देखे गये पूर्वकाल के वस्तु को जानता है। वह किसी अन्य प्रकार के ज्ञान पर
जा। किसी कार के जान पर स्मरण के द्वारा ही पहिचाना है। इस ज्ञान का रूप, “यह प्राधारित नही होता है। यह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है- वसा है, या यह नहीं है, "यह उससे भिन्न है' "यह उमी (१) मुख्य अर्थात् प्रारम्भिक (२) साव्यावहारिक अर्थात का प्रतिरूप है" भादि, इस प्रकार का होता है। नैयायिक प्रयोगात्मक । पहला अर्थात मुख्य प्रत्यक्ष पूर्णतया इन्द्रियों जिसे उपमान मानते है वह भी एक प्रकार की पहिचान
और मन से स्वतन्त्र होता है, जबकि दूसरा उनकी सहा- ही है। इसलिये जैनियो ने उपमान को प्रलग प्रमाण स्वीयता ग्रहण करता है। यह व्यावहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय कार नही किया है। ग्राह्य ज्ञन और मनोग्राह्य ज्ञान के भेद मे दो प्रकार का तर्क या ऊहा व्याप्ति का ज्ञान है। यह किसी वस्तु की है। इन्द्रिय ग्राह्य ज्ञान ४ प्रकार का है। अवग्रह, ईहा, उपस्थिति या अनुपस्थिति दूसरी वस्तु के सम्बन्ध में इस अवाय और धारणा। सम्भवत: ये भेद ज्ञान के निश्चय के प्रकार का रूप ग्रहण करती है-यदि यह है, वह है यदि चार स्तरो को बताते हैं। अवग्रह ज्ञान वह है जो वस्तु को यह नही सो वह नहीं है। यह सहभाव या कर्मभाव का बिना किसी विशेषता बताये जैसा का तैसा ग्रहण करे। अविनाभाव सम्बन्ध है। यह सहभाव का पविनाभाव ईका ज्ञान व है जो बतु को और विशेष प्रौर निश्चित सम्बन्ध किसी तत्व में और इसकी उपाधियों में, कुछ वरणों रूप से जानने की चेत करे। पवाय वह है जो वतु के मे और कुछ म्वादो मे, मिसपा पौर वृक्ष में पाया जाता प्रतिबिम्ब के द्वारा वस्तु की पूर्णता, अपूरणता, गुण और है। कमभाव का प्रविन भाव सम्बन्ध दिन और रात में, दोषो के स्वरूप को जान ले। धारणा वस्तु को अन्तिम सूर्यास्त और तारो के उदय में, नदी की बाढ पौर वर्षा में, (पूर्ण पहिचान है क्योंकि यह मस्तिष्क में वस्तु के पूर्व कारण और उसके प्रभाव में पाया जाता है।
रूप को मस्तिष्क में जमा देती है। अन्तीन्द्रिय ज्ञान वह अनुमान किसी वस्तु का वह मुख्य ज्ञान कहलाता है • ज्ञान है जो सर्वज्ञ अपने पात्मानुभव के द्वारा बिना किसी जो साधन या कारण के द्वारा होता है। यथार्थ साधन वही वस्तु को सहायता के जानता है ।
समझा जायेगा जो साध्य से अभिन्नता से सम्बद्ध हो । तृतीय परिच्छेद मे परोक्ष ज्ञान के सम्बन्ध में विचार इसके बाद इस परिच्छेद मे साध्य-पक्ष की परिभाषा,