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________________ * अनेकान्त . राज्य में स्थित श्रवणबेल गोला चले गये। वहां उन्होने स्वरूप की जिज्ञासा मे होता है । यह जिज्ञासा मात्र बौद्धिक तत्कालीन जैन गुरु कम्बय्य स्वामी के चरणो मे बैठकर उत्सुकता के मन्तोष के लिए नही है परन्तु अन्य भारतीय जैन धर्म के अनेक ग्रन्थों का अध्ययन किया। उन्हें ऐसा दर्शन शास्त्रो की भांति विशेष उद्देश्य लिये हुए है। प्रतीत हुअा कि तर्कशास्त्र के अध्ययन किये बिना इन धर्म यह प्रमाण ही है जिसके द्वारा वास्तविकता के स्वरूप ग्रन्थो पर पूर्ण पधिकार प्राप्त नही किया जा सकता। का ज्ञान होता है और प्रमाण ही वह सच्चा ज्ञान है जो न्याय पढ़ने की उनमें तीव्र उत्कण्ठा थी। ठीक उसी समय प्रज्ञान को दूर करके हमे जीवन चरम उद्देश्य की प्राप्ति मंसूर के एक ब्रह्ममूरि पण्डित नामक विद्वान् जिनका कि की दिशा में ले जाता है। यदि हमें जीवन में सफल होना उस समय के मैसूर के राजा श्रीकृष्ण राजा वोदेयर तृतीय है तथा अपने समस्त कि ग-कलापो का सफल परिणाम पर बहुत प्रभाव था, मठ के स्वामी जी के दर्शनार्थ श्रवण प्राप्त करना है तो प्रमाण के स्वरूप के सम्बन्ध में जिज्ञासा बेल गोला पधारे। स्वामी जी की छत्रछाया में अध्ययन प्रत्यावश्यक है। करते हुए जिनय्या पर ब्रह्मसूरि पण्डित की कृपारष्टि हुई। प्रमाण क्या है ? इसका स्वरूप दर्शनशास्त्र की प्रक वे जिनय्या के व्यक्तित्व तथा विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए शाख के द्वारा भिन्न-भिन्न बताया गया है । न्याय, वैशेषिक कि उन्होंने उसे सर जाने की सलाह दे दी। जिनय्या ने मीमासा, सांख्य, बुद्ध और वेदान्त के सिद्धान्तो पर विचार कहा कि यदि उसके लिये तकशास्त्र के अध्यापन का विशेष करने तथा उनका खण्डन करने के बाद लेखक ने जैन प्रबन्ध किया जाये तो वह मैसूर जा सकता है। ब्रह्ममूरि सिद्धान्त स्पष्ट किया है कि प्रमाण वह है जिसके द्वारा न पण्डित ने जिनय्या की इस बात को स्वीकार किया तथा वे जानी गई वस्तुप्रो का निश्चित ज्ञान प्राप्त हो जाये । प्रमाण उसे मैसूर ले प्राये। वहां उन्होंने इसको तर्कशास्त्र की उच्च स्वयं प्रकाशित है तथा यह एक पोर तो दीपक की तरह शिक्षा प्रदान करने का प्रबन्ध कर दिया। कुछ ही दिन स्वय को प्रकाशित करता है, दूसरी ओर यह उपस्थित बीते थे कि श्रवणबेल गोला मठ के स्वामी जी का देहाव. विषयों को भी प्रकाशित करता है । इसकी सत्यता स्वाभा. सान हो गया। ब्रह्ममूरि पण्डित ने यह अनुभव किया कि विक है। इसे अपनी सत्यता सिद्ध करने के लिये किसी जिनय्या ने संस्कृत भाषा को विभिन्न शाखाप्रो में प्रवीणता बाहरी व तु की सहायता की आवश्यकता नहीं है। यह प्राप्त कर ली है प्रतएव यही एकमात्र सुयोग्य व्यक्ति है जो केवल कोई प्रस्तुतीकरण मात्र नहीं है, न ही कोई धु धला श्रवणबेल गोला के मठ की गद्दो को सभाल सकता है। भाव है किन्तु सविकल्पक, व्यवसायात्मक अथवा निश्चायक इसीलिए उन्होने इन्हें श्रवणबेल गोला के मठ की गद्दी के है। यह वस्तु का 'यह' जैसा निश्चित ज्ञान है, 'वह' जैसा लिये चुन लिया तथा महाराजा की प्राज्ञा से उन्हें गद्दी का नही । यह प्रमाण, जो स्वयं तो जाम है, एक दूसरे ज्ञान के प्रधान नियुक्त कर दिया। तभी से जिनय्या मभिनव चारु. अंश प्रमा को भी जन्म देता है। यह प्रमा का जनक प्रमाण कोति पण्डिताचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ । अनुम न है है, प्रमा का कारण प्रमाण नही है। इसीलिए प्रमाण को कि इनका काल सन् १७६० और १८६० के बीच मे रहा कारण, कारक साकल्प, इन्द्रिय, सन्निकर्ष, इन्द्रियावृत्ति होगा। अथवा ज्ञात व्यापार मानना ठीक नही है । इस ज्ञान का इनकी प्रस्तुत रचना ६ विभागों में विभक्त है । प्रत्येक विषय न तो विशेष है पोर न सामान्य है बल्कि सामान्य विभाग में किसी एक प्रमुख विषय की विस्तृत व्याख्या की विशिष्टात्मक है। इसकी स्थापना चौथे परिच्छेद मे दूसरे गई है । इन विभागो का नाम इन्होंने परिच्छेद दिया है दर्शनो के विचारो का खण्डन करने के पश्चात की गई है। जैसा कि प्रभाचन्द्र ने अपनी कृति प्रमेय कमल मार्तण्ड में द्वितीय परिच्छेद में भारतीय दर्शन शास्त्रो में प्रतिपाकिया है। परन्तु परीक्षामख सत्र में तथा इसकी टीका दित प्रमाणो की संख्या के विषय मे भनेक विचारो का अनन्तवीर्य की प्रमेय रत्नमाला में इन विभागों का नाम वर्णन किया गया है । चार्वाकों के अनुसार केवल प्रत्यक्ष ममुह श किया गया है। पुस्तक का उद्घाटन प्रमाण के ही एकमात्र प्रमाण है। वोट दर्शन शास्त्री प्रत्यक्ष और
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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