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२०४ वर्ष २६, कि० ४.५
अनेकान्त
भगवान का वहाँ से विहार हो गया, तब सबने मिलकर एक राज्य के रूप में इसका अस्तित्व गुप्त-शासन प्रभु की स्मृति सुरक्षित रखने के लिये वहाँ एक विशाल काल में समाप्त हो गया। उससे पूर्व एक राज्य की मन्दिर का निर्माण कराया।
राजधानी के रूप में इसकी ख्वाति रही। यहाँ अनेक यहाँ क्षेत्र से दो मील दूर एक प्राचीन किला है, जिसे मित्रवशीय राजाओ के सिक्के मिले है। इनमें कई राजा महाभारत कालीन कहा जाता है। इस किले के निकट ही जैनधर्मानुयायी थे। कटारीखेडा नामक टीले से एक प्राचीन स्तम्भ मिला है। किला--यहाँ मीलो मे प्राचीन खण्डहर विखरे पड़े है । उस स्तम्भ पर एक लेख है। इसमे महाचार्य इन्द्रनन्दि के यहां दो टीले विशेष उल्लेखनीय है। एक टीले का नाम शिष्य महादरि के द्वारा पार्श्वपति (पार्श्वनाथ) के मन्दिर ऐचुली-उत्तरिणी है और दूसरा टीलारोंचभा कहलाता है। में दान देने का उल्लंग्व है। यह लेख पार्श्वनाथ मन्दिर के ऐचुभा टीले पर एक विशाल और ऊंची कुर्मी पर भूरे निकट ही मिला है। इस टीले और किले से कई जैन बलुई पाषाण का सात फुट ऊँचा एक पापाण स्तम्भ है। मूर्तियां मिली है और कई मूतियो को ग्रामीण लोग ग्राम नीचे का भाग पौने तीन फूट तक चौकोर है। फिर पौने देवता मानकर अब भी पूजते है । संभव है, वर्तमान मे जो तीन फुट छह पहलू है। इसके ऊपर का भाग गोल है। पार्श्वनाथ-मन्दिर है, यह नवीन मन्दिर हो और जिस कहते है, इसके ऊपर के दो भाग गिर गये है। इसका स्थान पर किले और टीले से प्राचीन जैन मूर्तियाँ निकली ऊपर का भाग देखने से ऐसा लगता है कि यह अवश्य ही हैं, वहां प्राचीन मंदिर रहा हो। यदि यहां के टीलो और टूट कर गिरा होगा। अधिक सभावना ऐसी लगती है कि खण्डहरो की जो मीलो में फैले हए है खुदाई की जाये, तो यह तोड़ा गया हो। ऊपर का भग्न भाग नीचे पडा हा गहराई में पार्श्वनाथ कालीन जैन मन्दिर के चिन्ह और है। इसकी आकृति तथा उमटीले की स्थिति सेसा मूर्तियाँ मिल जाय।
प्रतीत होता है कि यह मानस्तम्भ रहा होगा। जन
साधारण में वहाँ ऐसी भी किम्बदन्ती सुनाई दी कि यहाँ यह मन्दिर गुप्त काल तक तो अवश्य था। शिला
प्राचीन काल में कोई सहस्रऋट चैत्यालय था। इस किम्बलेखो आदि से इसकी पुष्टि होती है। गुप्त काल के
दन्ती में हमे निश्चय ही कुछ तथ्य दिग्बाई पटता है। पश्चाद्वर्ती इतिहास में इसके सम्बन्ध में कोई मूत्र उपलब्ध
यहाँ से अनेक जैन मूर्तिया खुदाई मे उपलब्ध हुई है। नहीं होता। किन्तु यह तो असदिग्ध सत्य है कि परवर्ती काल में भी शताब्दियो तक यह स्थान जैन धर्म का एक
मभवतः यहाँ प्राचीन काल में अनेक जिन मदिर और
स्तूप रहे होगे। विशाल केन्द्र रहा । इस काल में यहां पापाण की अनेको
कुछ लोग अज्ञानतावश इस पापाण-स्तम्भ को 'भीम जन प्रतिमानो का निर्माण हुआ। ऐसी अनेका प्रतिमाये,
की गदा' कहते है। हम प्रकार के प्रति प्राचीन पाषाण स्तूपों के अवशेष, मिट्टी की मतियो और कला की अन्य
स्तम्भो के साथ भीम का सम्बन्ध जोड़ने की एक परम्परा वस्तुएँ प्राप्त हुई है। यहाँ यह उल्लेख याग्य है कि ये
सी पड़ गई है। देवरिया जिले के ककुभ ग्राम (वर्तमान सभी प्रतिमाये दिगम्बर परम्पग की है। यहाँ श्वेताम्बर
कहाऊँ गांव) में गुप्त काल का एक मान स्तम्भ पाषाण परम्परा की एक भी प्रतिमा न मिलने का कारण यही
निर्मित है। उसके अधोभाग में भगवान पार्श्वनाथ की प्रतीत होता है कि यहां पाश्र्वनाथ-काल में दिगम्बर .
कायोत्सर्गासन प्रतिमा है और शीर्पभाग पर चार तीर्थकर परम्परा की ही मान्यता प्रभाव और प्रचलन रहा है। प्रतिमायें विराजमान है। मध्य भाग में ब्राह्मी लिपि में
प्राचीन अहिच्छत्र एक विशाल नगरी थी उसके एक शिलालेख है, जिसमे इस मानस्तम्भ की प्रतिष्ठा का भग्नावशेष आज रामनगर के चारो ओर फर्लागो मे उल्लेख है। इतना होने पर भी लोग इसे 'भीम की लाट' बिखरे पड़े हैं । चीनी यात्री ह्वेन्त्सांग के अनुसार इस नगर कहते है। का विस्तार उस समय तीन मील मे था। तथा यहाँ इसी प्रकार ऐचमा टीले के इस पाषाण-स्तम्भ को भनेकों स्तूप भी बने हुए थे।
कुछ लोग 'भीम की गदा' कहते सुने जाते है। इससे