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अहिच्छत्र
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सम्बन्धित एक कहानी भी ग्रामीण जनता में प्रचलित है वेदी के नीचे सामने वाले भाग में सिंह आमने-सामने मख कि अपने अज्ञातवास में पाण्डवों ने इस नगर के एक किये हुए बैठे है। ब्राह्मण के घर वास किया था। उस समय भीम ने अपनी प्रतिमा के आगे चरण विराजमान है। चरणों का यह गदा यहां स्थापित कर दी थी। अस्तु ।
आकार १ फुट'X|| इंच है। चरणों पर निम्नलिखित यहाँ एक जनमूर्ति का सिर भी मिला था जो क्षेत्र लेख उत्कीर्ण हैके फाटक के बाहर विद्यमान है। पहले इस टीले के नीचे श्री मुलस नन्द्याम्नाये बलात्कार गणे कुन्द कुदाशिव गगा नदी बहती थी। अब तो उमकी रेखा मात्र अब चार्यन्वय दिगम्बराम्नाये अहिच्छत्रनगरे श्री पालिन शिष्ट है।
चरणा. प्रतिष्ठापिता । श्रीरस्तु। यह परकोटा तीन मील के घेरे में था। कहा जाता प्रतिमा का निर्माण-काल १०११ वी शताब्दी अनमान है कि अपने वैभव-काल में अहिच्छत्र नगर ४८ मील की किया जाता है। परिधि मे था। आज के प्रावला, वजीरगज, रहतुझ्या इम वेदी के ऊपर लघु शिखर है। जहाँ अनेको प्राचीन मतियाँ और सिक्के प्राप्त हुए है इस बेदी से आगे दाई ओर दूसरे कमरे में वेदी में पहले इमी नगर में सम्मिलित थे। इस नगर का मन्य मूलनायक पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण पदमासन पर दरवाजा पश्चिम में वर्तमान सपनी बताया जाता है। १०इच अवगाहना की अत्यन्त मनोहर प्रतिमा है। यहाँ के भग्नावशेपो मे १८ इंच तक की इंट मिनती प्रतिमा के सिह पर सप्त फणावलि का मण्डल है।
भामण्डल के स्थान पर कमल की सात लम्बायमान पत्तियाँ क्षेत्र-दर्शन-सडक से कुछ फुट की ऊंची चौकी पर
और उनके ऊपर निकली हुई वाई ओर को झुकी पुष्प क्षेत्र का मुख्य द्वार है । फाटक के बाई पोर वाहर उस
कलिका है। पत्तियो और कली का प्रकन जितना कला भग्न मति के सिर के दर्शन होते हैं जो किले से लाकर
पूर्ण है, उतना ही अलकरणमय है । इससे मूर्ति की मज्जा
गत विशेषता मे अभिवृद्धि ही हुई। अलकरण का यह यहाँ दीवार मे एक पाले में रख दिया गया है। फाटक में प्रवेश करने पर चारों ओर विशाल धर्मशाला है। रूप अद्भुत बार अदृष्टपूर्व है। बीच में एक पक्का कुआ है।
मति के नीचे मिहासन पीठ के सामने वाले भाग मे बाई और मन्दिर का द्वार है। द्वार में प्रवेश करते २४ तीर्थकर कर प्रतिमायें उत्कीर्ण है। ही क्षेत्र का कार्यालय मिलता है। फिर खूब लबा चौडा इस प्रतिमा के वाई और श्वेत पाषाण को १० डच सहन है। सामने बाई पोर एक छोटे से गर्भगृह में वेदी ऊंची पद्मामन पार्वनाथ प्रतिमा है। है. जिसमें 'तिखाल वाले वावा' (भगवान पार्श्वनाथ की इसमे आगे दाई और एक गर्भगह में दो देवियाँ है। प्रतिमा) विराजमान है। पार्श्वनाथ की यह मातिशय जिनमे प्राधुनिक प्रतिमायें विराजमान है। उनमें विशेष प्रतिमा हरितपन्ना की पद्मासन मुद्रा में विराज उल्लेख योग्य कोई प्रतिमा नही है। मान है। इसकी अवगाहना ॥ इच है। प्रतिमा अत्यन्त अन्तिम पाँचवी वेदी मे तीन प्रतिमायें विशेष रूप से सौम्य और प्रभावक है। इसके दर्शन करते ही मन में उल्लेखनीय है । लगभग २० वर्ष पहले वूदी (राजस्थान) भक्ति की तरंगें स्वतः प्रस्फुरित होने लगती है। अनेक में भूगर्भ से कुछ प्रतिमायें प्राप्त हुई थी। उनमे से तीन भक्त जन अपनी मनोकामनायें लेकर यहा पाते है और प्रतिमायें लाकर यहाँ विराजमान कर दी गई थीं। इनमे अपने विश्वास के अनुरूप सफल मनोरथ होकर लौटते है। तीनो का रग हल्का कत्थई है और तीनों शिलपट्ट पर इस प्रतिमा के पाद पीठ पर कोई लेख नहीं है। सर्प का उत्कीर्ण है। बायें से दाई ओर को प्रथम शिलाफलक का लांछन अवश्य अंकित है और सिर पर फण-मण्डल है। आकार ३॥ फुट है। बीच मे फणालंकृत पाश्वनाथ तीर्थ