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२०६, वर्ष २६, कि० ४-५
अनेकान्त
कर की खड्गासन प्रतिमा है। इसके परिकर में नीचे एक में है। पाद पीठ पर लेख या लांछन भी नहीं है। इस यक्ष और दो यक्षी है जो चरवाहक है। उनके ऊपर प्रकार की शैली गुप्त काल से निकट गुप्तोत्तर काल में कायोत्सर्ग मुद्रा में १० इंच आकार की एक तीर्थंकर प्राप्त होती है । अर्थात चौथी-पांचवीं शताब्दी से आठवींप्रतिमा है । तथा उसके ऊपर ७ इंच अवगाहना की एक नौमी शताब्दी तक मूर्ति-कला की शैली उपर्युक्त प्रकार की पद्मासन प्रतिमा अंकित है। इसी प्रकार दाई और भी रही है। इस आधार पर इन मूर्तियों का अनुमानित दो प्रतिमायें हैं। यह शिलाफलक पंच बालयति का कह- निर्माण काल यही माना जा सकता है। लाता है । पाषाण बलुगाई है लेग या लांछन नहीं है। धर्मशाला के मुख्य द्वार के सामने का मैदान में भी
मध्य में हल्के कत्थई रंग की पद्मासन पार्श्वनाथ सड़क के दूसरी ओर मन्दिर का है। इस सड़क पर कुछ प्रतिमा है ऊपर सर्पफण है। अवगाहना २, फुट है। आगे चलने पर वह विशाल पक्का कुआं या वापिका है, सिंहासन में सामने दो सिंह जिह्वा निकाले हए बैठे है। जिसके जल की ख्याति पूर्व काल में दूर दूर तक थी और जो कर्म शत्रुओं के भयानक रूप के प्रतीक है। किन्तु जिसकी प्रशंसा प्राचार्य जिनप्रभ सूरि ने भी-'विविध चरण तले बैठने का अभिप्राय है कि तीर्थङ्कर ने अपने तीर्थ कल्प' में चौदहवी शताब्दी में की थी। भयानक कर्म शत्रुओं को चरणों के नीचे दबा कर कुचल
मन्दिर के निकट ही रामनगर गांव है। गांव में भी दिया है। यक्षी पद्मावती एक बच्चे को छाती से चिपटाए हुए
एक शिखरबन्द मन्दिर है। इस मन्दिर में फणफण्डित
भगवान पार्श्वनाथ की श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। है, जो उस देवी के अपार वात्सल्य का सूचक है। भग
इसकी अवगाहना ४ फुट है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। वान के सिरो पार्श्व में दोनों ओर गज उत्कीर्ण है, जो
फणावलि मे 'अन्यथानुपन्नत्वं' श्लोक भी लिखा हुआ है। गज लक्ष्मी के प्रतीक है। उनसे कुछ ऊपर इन्द्र हाथों में
इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वीर सं० २४८१ वैशाख शुक्ला ७ स्वर्ण कलश लिए क्षीरसागर के पावन जल से भगवान का
गुरुवार को श्री महावीर में हुई थी। अभिषेक करते प्रतीत होते है । फण के ऊपर त्रिछत्र है। उसके दोनों ओर शीर्ष कोने पर देव कुलिकायें बनी हुई मूलनायक के अतिरिक्त २ पाषाण की और २ धातु है। अलंकरण साधारण ही है किन्तु इसमें कला की जो की प्रतिमायें है। अभिव्यंजना हुई है, वह दर्शक को वरवस अपनी ओर पहले इस मन्दिर के स्थान पर पद्मावती पुरवाल आकर्षित कर लेती है।
पंचायत की ओर ला. हीरालाल जी सर्राफ एटा तथा अन्तिम प्रतिमा खड्गासन है। अवगाहना ३॥ फूट पं० चंपालाल जी पेंठत निवासी का बनवाया हुआ मन्दिर है। अधोभाग में दोनों ओर इन्द्र और इन्द्राणी चमर लिए था। फिर उसके स्थान पर समस्त दिबम्बर समाज की हुए है। मध्य मे यक्ष-यक्षी विनत मुद्रा में बैठे है । मूर्ति ओर से यह मन्दिर बनाया गया। के सिरे के दोनों ओर विमानचारी देव । एक विमान में मन्दिर के बाहर उत्तर की ओर आचार्य पात्रकेशरी देव और देवी है। दूसरे में एक देव है। छत्र के एक प्रोर के चरण बने हए है । चरणों की लम्बाई ११" है। हाथी का अंकन है। भामण्डल और छत्रत्रयी है ।
ऐसा विश्वास है कि प्राचार्य पात्रकेशरी इसी स्थान इन तीनों प्रतिमाओं का निर्माण उस युग में किया पर बने हुए मन्दिर में में देवी पद्मावती द्वारा प्रतिबोध गया लगता है, जब प्रतिमानों में प्रलंकरण और सज्जा पाकर जैनधर्म में दीक्षित हुए थे। का विकास प्रारम्भिक दशा में था। यह भी उल्लेख योग्य वार्षिक मेला-क्षेत्र का वार्षिक मेला चैत्र कृष्णा है कि इन प्रतिमानों पर श्रीवत्स लांछन भी लघु आकार अष्टमी से चैत्र कृष्णा त्रयोदशी तक होता है ।