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________________ . अनेकान्त . तथा उसके उपरान्त अन्य जन्म का प्रतिसन्धान न होने से है। उनके अनुसार निर्वाण न तो छोड़ा जा सकता है निरूपविशेष निर्वाण की प्राप्ति होती है। इसके साभ से (माहीणम्), न तो प्राप्त किया जा सकता है (असम्प्राप्तम्) भवचक्र की शृङ्खला सदा के लिये बट जाती है अर्थात् यह निर्वाण न उच्छेद है और न शाश्वत है। उनका कहना है जो कहा गया था कि "कर्म वासनायें दो ग्राहों की वासना कि इसका न तो निरोष (अनिरुद्धम्) होता है और न ही से युक्त होकर पूर्व विपाक के क्षीण होने पर अन्य विपाक यह उत्पन्न होता है। को उत्पन्न करती "-वह क्रम यहाँ भाकर समाप्त हो प्राचार्य चन्द्रकीति ने नागार्जुन की 'माध्यमिकजाता है।" कारिका' पर 'प्रसन्नपदा' नाम की सुन्दर व्याख्या की है। पर इस पवस्था की प्राप्ति कैसे होती है ? इस सम्बन्ध इस सम्बन्ध में वह अपनी टीका में पूर्वपक्ष को प्रस्तुत में कहा जाता है कि जब भद्वत लक्षण वाली विज्ञप्तिमत्रिता करते हुए कहते हैं कि यदि निर्वाण में रागादि के समान में योगी का चिस स्थित हो जाता है तो सारी विकला (कुछ भी) प्रहाण नही होता और न ही इसमें श्रामण्यफल वासनाये प्रहीण हो जाती है तथा चित्त स्वचित्त धर्मता में के समान (कुछ भी। प्राप्त होता है और न ही इसमें स्कन्ध स्थित हो जाता है। इस अवस्था में क्लेशावरण तथा पादि के समान कोई उच्छेद होता है और न ही इसमें ज्ञेयावरण नामक दो दौष्ठुल्य नष्ट हो जाते है तथा इनकी प्रशून्यत्व के समान कोई नित्यत्व है तथा स्वभाव से वह हानि से प्राश्रय परावृत्ति हो जाती है। यह पाश्रय प्रनिरुद्ध पनुत्पन्न, सर्वप्रपञ्चों का उपशम कहा गया है तो परावृत्ति ही प्रालय विज्ञान की परम विशुद्ध रूप विमल ऐसी निष्प्रपञ्च अवस्था में क्लेश कल्पना कैसे की जा सकती विज्ञान में परिणति है। इसी को व्यक्त करते हुए कहा है जिनका (क्लेशों का) प्रहाण निर्वाण है अथवा वहाँ गया है कि स्कन्ध कल्पना क्या हो सकती है जिसमें स्कन्धों का निरोष स एवानात्रवो चातुरचिन्त्यः कुशलो ध्र वः । हो। जब तक ऐसी कल्पनायें हैं तब तक निर्वाण की प्राप्ति सुखो विमुक्तिकायोऽसौ धर्माख्योऽयं महामुनेः ॥ कैसे हो सकती है क्योंकि सब प्रकार के प्रपञ्चों के दूर पर्यात् वही मनास्रव घातु है जो पचिन्त्य, कुशल धव, होने से ही उसका अधिगम होता है प्रथवा यदि कोई कहे सुख स्वरूप तथा (बोषिसत्त्व का) विमुक्तिकाय तथा महा कि यद्यपि निर्वाण में क्लेश या स्कन्ध नहीं है तो भी ये मुनि बुद्ध का धमकाय है। सखार के परित्याग से, क्लशा निर्वाण के पहिले होते हैं इसलिये उनके विनाश से निर्वाण का प्रभाव हो जाने से, सभी धर्मों में विभुत्व की प्राप्ति होता है। होने से धर्मकाय कहलाता है। संक्षेप में यही योगा. चारियों की निर्वाण या विमुक्ति की कल्पना है। पाचार्य चन्द्रकीर्ति इसका उत्तर देते हैं कि यह सब माध्यमिक मत में निर्वाण : मिथ्याग्राह है क्योंकि यदि निर्वाण के पहले स्कन्ध प्रादि पाचार्य नागार्जुन ने, जो माध्यमिक सम्प्रदाय के स्वभावतः सत्य होते तो उनका न होना (प्रभाव) सम्भव नही। इसलिए निर्वाण के अभिलाषी को इस प्रकार की अग्रणी प्राचार्य हैं. अपनी प्रसिद्ध कृति 'मध्यमक शास' कल्पना नहीं करनी चाहिए। वास्तव में निर्वाण और (माध्यमिक-कारिका) में निर्वाण की विशदतया परीक्षा की संसार जो दो सीमायें (कोटियां) है उन दोनों में सुसूक्ष्म १-बहो पृष्ठ ८८ २-० विशि० का० २८ १-०म० शा प्रकरण २५ ३-वही का० २६ ४-बही का० ३० २-प्रमहोणमसम्प्राधमनुचित्रमशाश्वतम् । ५-संसारपरित्यागात् पवनुपसंक्लेशत्वात् सर्वधर्मविभुत्व. अनिवड मनुत्पासमेतनिरिणमुख्यते ॥ लामतन धर्मकाय इत्पुण्यते । -विज्ञप्तिमा० पृ.१०२ -म०मा० २५/३
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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