SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 132
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०] अन्तर भी नहीं है।' इसलिये निर्वाण में न तो किसी बीज का प्रहारा होता है और न ही निरोध होता है। वास्तव में निर्वाण कल्पनाओं का पूर्ण रूप से निरवशेष क्षय है। भगवान् ने 'समाधिराजसूत्र' में कहा है कि धर्मो की (द्रव्य सत्की) निवृत्ति नहीं होती और जो धर्म नहीं हैं (द्रव्य) वे कदापि होते ही नहीं है। प्रतः जो पस्ति नास्ति की कल्पना में लगे है उनका दुःख कभी भी शान्त नहीं हो सकता । समाधिराज की इस गाथा का अर्थ श्राचार्यं चन्द्रकीति बतलाते हैं कि निवृत्ति में प्रर्थात् निरु पविशेष निर्धारण में धर्मक्लेश, कर्म, जन्म, लक्षणों वाले धर्मों या स्कन्धों का सर्वथा प्रभाव होने से धर्मों का अस्तित्व प्रसिद्ध होता है। यह सब निकायों का मत है ( एवं च सर्वबादीनामभिमतम् ) और के धर्म निर्वाण में ही नहीं जैसे प्रदीप के जलने पर अन्धकार में रज्जु में प्रतिभासित सर्प का भय दूर हो जाता है । तत्वतः वे वस्तु हैं ही नहीं । उसी प्रकार क्लेश कर्म जन्म वाले धर्म किसी समय इस सांसारिक अवस्था में भी तत्वतः विद्यमान नहीं हैं। अन्धकार भवस्था में भी स्वरूपतः रज्जु में सर्प नहीं है जैसे कि areafter ai at rधकार या प्रकाश में शरीर या चक्षु से ग्रहण किया जाता है उसी प्रकार इसको ग्रहण नही किया गया है । यदि कोई पूछे कि तो फिर संसार क्या है तो इसका उत्तर यह है कि सत्-ग्रह से ग्रसित बाल जन को प्रसत् भावों में सत् भाव की प्रतीति ही संसार है, जैसे तैमरिक दोष वाले को असत् केश, मच्छर प्रादि देखने में भाते हैं उसी प्रकार उसे यह संसार नजर धाता है । चाचार्य नागार्जुन कहते हैं कि यदि निर्वाण को भाव रूप माना जायेगा तो निर्धारण में जरा मरण का प्रसङ्ग आ जायेगा क्योंकि कोई भी भाव बिना जरामरण लक्षण के नहीं होता है। इस पर प्राचार्य चन्द्रकीर्ति टीका करते हुए निकायान्तरों के मत रखते हैं। कुछ एक भाववादी जो -नियखिस्य च या कोटि कोटि सस्य व न तयोरन्तरं किचित्सूक्ष्ममपि विद्यते ।। -म. शा. २५/२० पृष्ठ २२८, २३५ अनेकान्त • २- ३० म. शा. पृष्ठ रएक ३-यही निर्वाण में माक का अभिनिवेश करते हैं के कहते हैं कि निर्वाण जलप्रवाह के रोकने वाले सेतु की तरह कर्म से उत्पन्नसन्तानप्रवृत्ति का निर्मित रोष (रोकना) करने arer निरोधात्मक पदार्थ है । कोई भी प्रभावात्मक (विद्यमान स्वभाव कामा) धर्म ऐसा काय ( रोष कार्य) करता हुआ दिखाई नही देता । घतः उन निकायों के अनुसार निर्वारण भावरूप है । अचार्य चन्द्रकीति इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि (सूत्रों में बुद्ध द्वारा) निर्धारण को नन्दोराग सहगत तृष्णा का क्षय बतलाया गया है । अब यह जो लयमात्र है सो 'भाव' कैसे हो सकता है तथा यह भी जो कहा गया है कि "बस की विमुक्ति दीपक के चुभने के समान है" (प्रोत स्येव निर्वाणं विमोक्षस्तस्य चेतसः ) " । उसमें दीपक का बुझना (निवृत्ति) भाव नही कहा जा सकता । पूर्वपक्ष का कहना है कि यहाँ तृष्णा का अय तृष्णा क्षय नही है किन्तु निर्वाण में तृष्णा का क्षय होता है । प्रदीप का तो केवल दृष्टान्त मात्र दिया गया है। इसमें की जिसके होने पर (तृष्णाक्षय होने पर) चित्त का विमोक्ष होता है, यह जानना चाहिये । प्राचार्य मानकदियों का उत्तर देते हुए कहते हैं कि 'निर्वाण' भाव हो हो नही सकता क्योकि ऐसा होने पर जरामरण लक्षण का प्रसङ्ग प्रायेगा। जो कुछ भाव है (जो सदुवस्तु है, उत्पन्न है) उसका जरामरण श्रवश्यमाको है। फिर उसका निर्वाण नही हो सकता जैसे विज्ञान ( प्रतिसन्धि जन्म) का जरामरण अवश्यम्भावी है । भाव के साथ जरामरण लक्षरण के प्रव्यभिचारित्व को स्पष्ट करते हुए प्राचार्य कहते हैं कि ऐसा कोई भाव नही है जो जरामरण से विरहित हो पोर जरामरस विरहित मान तो प्रकाश कुसुम की तरह होता ही नहीं । भाव का निरीक्षण करते हुए कार्य नागार्जुन कहते हैं कि यदि निर्वाण को प्राप भाव मानेंगे तो वह संस्कृत हो जावेगा क्योंकि कोई भी ऐसा भाव नहीं जो संस्कृत है।* १-३० मा. शा. पृष्ठ २२६ २ यदि निर्वाणं निर्वाण संस्कृतं म नासंस्कृतो हि विद्यते कश्चन M मा. २५/५ पृष्ठ २३०
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy