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स्याद्वाद एक अध्ययन :
रामजी, एम० ए०
जैन न्याय की सबसे बड़ी देन भारतीय नैयायिक विचार को उनका 'स्याद्वाद' संबंधी सिद्धांत है। उसमें सविकल्प मानवीय ज्ञान की अल्पता की अनुभूति कुट-कूट कर भरी है, साथ ही समन्वयवाद की भी । स्याद्वाद, दो शब्दों के योग से बना है । स्यात् + वादस्याद्वाद । सामान्य अर्थ में स्पात् शब्द का अर्थ शायद, किचित् तथा सम्भावना प्रादि से लिया जाता है। वास्तव मे सम्भावना के शाब्दिक अर्थ के रूप मे स्याद्वाद का प्रयोग नही किया जाता । सम्भावना के द्वारा सन्देहवाद का भी बोध होता है, किन्तु जैन दर्शन को हम सन्देहवादी नही कह सकते; क्योंकि शेष ज्ञान को सिखानेवाला कभी सन्देह को सिखाएगा, यह सम्भव नही है । हमारी समझ मे अशेष ज्ञान केवल ज्ञान को दिखाने का प्रयत्न, इस सिद्धांत में किया गया है। कभी-कभी स्यात् शब्द का अनुवाद 'किस प्रकार किया जाता है जिससे अज्ञेयवाद का बोध होता है, किन्तु यह मत अज्ञेयवादी नहीं है। स्यादवाद शब्द का प्रयोग सापेक्षता के रूप मे किया गया है और स्यादवाद का उचित अनुवाद सापेक्षवाद (Theory of Relativity) ही हो सकता है, इसलिए सापेक्षाबाद भी कहा जाता है। स्वाद्वाद अनेकान्तवाद के ऊपर आधारित है यह एक प्रकार से जैन दर्शन का प्रमुख सिद्धांत है, जिसके द्वारा जैन दार्शनिकों की उदारता का पता लगता है। प्रत इस सिद्धात का जैन दर्शन में अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है स्याद्वाद को स्यादवादमन्जरी मे इस प्रकार परिभाषित किया गया है, स्यादवाद नेवान्तवादो नित्यानित्यादयनेकध मंशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति" अर्थात् ग्यादवाद अनेकान्तवाद को कहते है; जिसके अनुसार एक ही वस्तु मे नित्यता मनित्यता आदि नेक धर्मो की उपस्थिति मानी जाती है और प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक मानी जाती है।' The judgement
१. धनन्त धर्मक वस्तु पदर्शनसमुच्चय, पुष्ट-५५४
about an object possessing many characteristics is called Syadvada जैन दार्शनिकों का मत है किं किसी भी यस्तु के पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए, उस वस्तु के सभी सम्बन्धो का ज्ञान प्राप्त करना होगा। सम्बन्ध केवल भावात्कक ही नही होता प्रभावात्मक भी होता है । इसलिए वस्तु के ज्ञान के लिए सभी सम्बन्धों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। इसलिए एक वस्तु को समझने के लिए विश्व की सभी वस्तुओं को भली भांति समझना पड़ेगा |
एकोभावः सर्वया पेन दृष्टः । सर्वभावाः सर्वथा तेन दृष्टाः ॥ सर्वभावाः सर्वथा येन दृष्टाः । एकोभाव: सर्वथा तेन पृष्टः ॥
अर्थात् जो व्यक्ति एक वस्तु को सभी प्रकार से समझ लेता है, वह सभी वस्तुओं को सभी प्रकार से समझ सकता है | यदि सभी वस्तुनो को समझ लिया गया है। तो, एक वस्तु को भलीभांति समझा जा सकता है ।
इस प्रकार जैन दर्शन का विचार है कि एक वस्तु को देखने की अनेक दृष्टिया हो सकती है, किन्तु सम्पूर्ण सत्य क्या है, इसको देखने के लिए सब दृष्टियो का सश्लेषण आवश्यक है। यही तात्पर्य प्रनेकान्तवाद को 'सम्पूर्ण आदेश' या 'सफल प्रदेश' कहने का है । सब कुछ यहा संसार मे 'विकल' ही विकल देश है, सविकल्पक खण्ड-खण्ड है । सकल प्रदेश यहां एक दृष्टियों के मिलाने से बनता है जिसका अनेकात प्रतीक है। किसी वस्तु की सत्ता या सत्ता के विषय मे हम केवल यही कह सकते $:
अपने
(१) स्पादास्ति प्राक्षिक रूप में पड़ा सत्य है । उपादान, स्थान, समय और स्वरूप के २. भरतसिंह उपाध्याय बीट दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन भाग-२ पुष्ट-८४०,