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________________ २१४ वर्ष २६, कि. अनेकान्त दृष्टिकोण से घड़ा विद्यमान है अर्थात् अपना अस्तित्व साथ ही साथ यह मिट्टी का घड़ा है सोने का घड़ा नहीं है रखता है। मिट्टी से बना हुमा घड़ा, इस समय मेरे पास इसका भी प्रतिपादन करते है। विद्यमान है । जो अमुक प्राकार व माप का है। जैन दार्शनिकों का ऐसा विचार है कि यहां जो सामने (२) स्यान्नास्ति-प्रापेक्षिक रूप में बड़ा असत्य है। काला घड़ा है वह स्थान, समय विशेष स्वरूप व उपादान अपने उत्पादान, स्थान, समय और स्वरूप के दृष्टिकोण विशेष के कारण सत्य है और अपने स्थान विशेष, समयसे घड़ा विद्यमान नही है, अर्थात् वह अपना अस्तित्व विशेष, स्वरूप विशेष व उपादान विशेष के कारण असत्य नहीं रखता है । सोने बना हुमा घड़ा इस समय मेरे भी है । अर्थात् दोनों है इसलिए जब हम घड़ा कहें तो पास विद्यमान नहीं है ; जो अमुक प्राकार व माप का हो। पहले उसमें स्याद् शब्द का प्रयोग करें। (३) स्यादस्तिनास्ति-प्रापेक्षिक रूप में घड़ा जन दार्शनिकों का कहना है कि विचारों को दोष मत्य है और असत्य है, दोनो है। अपने विशेष अर्थ में रहित बनाने के लिए स्यात् शब्द का प्रयोग घड़ा है, और एक दूसरे विशेष अर्थ में घड़ा नहीं है । हम करना चाहिए। सरल भाषा मे अगर किसी को यहा कह सकते है कि विशेष अर्थ मे घड़ा है और एक काना कहना हो तो, उसको काना कहने की अपेक्षा विशेष अर्थ में घड़ा नहीं है। "भाई सम्पूर्ण देखने के लिए दो प्रांखों के तेज (४) स्याद् प्रवक्तव्यं-मापेक्षिक रूप में घड़ाप्रवक्त- की आवश्यकता है।" ऐसा कहना ही स्याद्वाद है। व्यनीय है (Indiscribable) जबकि ऊपर हमने कहा जैन दर्शन का स्याद्वाद सभी दार्शनिक सिद्धांतों को कि रतु विशेष के रूप में घड़ा है और वस्तु विशेष के प म घड़ा ह ार वस्तु विशष क अपने में समेटे हुए है, इसी कारण यह स्याद्वाद का रूप में घड़ा नहीं है, तो यह सब कथन एक साथ करना सिद्धांत सभी दार्शनिकों को मान्य भी है। लेकिन जैन सम्भव नहा ह । इसालए वस्तु प्रवणनाय ह । जबाक घड़ दर्शन का स्याद्याद, जो समन्वयवाद, जो समन्वयात्मक में इसके अपने विशेष रूप मे है और विशेष वस्तु के रूप दष्टि कोण रखता है वह शंकर के अद्वैत वेदान्त के में नही है, तो भी हम से उस वणित नही कर सकते। समन्वयात्मक दृष्टिकोण से भिन्न है। जैन दर्शन का ५) स्यादस्ति च प्रवक्तव्यं-आपेक्षिक में घड़ा स्याद्वाद भौतिक समन्वयात्मक है; जबकि शकर सत भी है और प्रवक्तव्यनीय भी है । भावात्मक दृष्टि- का प्रदवंतवाद प्राध्यात्मिक समन्वयात्मक है । जैन दर्शन कोण से वरतु है भोर नही भी है और हम उसका वर्णन स्याद्वाद की वात तो करता है, लेकिन पूर्णज्ञान को भी नही कर सकते । यहां पर हम उस घड़े की सत्ता और कौन निर्धारित करेगा, इसके उत्तर में वह सबको समान अनिर्वचनीयता दोनों को एक साथ परिलक्षित करते है। दर्जे पर रखता हैं। जबकि शंकराचार्य उस सामान्य से (६) स्यान्नास्ति च प्रवक्तव्यं-प्रापेक्षित रूप में जाकर वहा को स्थापित करते है। जैन दार्शनिक यह पडा प्रसत है और प्रवक्तव्यनीय भी है। यहां पर, प्रांतिक जान को पर्णज्ञान कहते हैं, तो यह प्रभावात्मक वस्तु के दृष्टिकोण से पीर इसके साथ ही धर्मनिष्ठा है। यहीं पर दर्शन के विचार की उदारता साथ वस्तु विशेष केदृष्टिकोण से वह घड़ा नहीं है । यहा में विश्व में सबसे अधिक मशहर है। सच्चे एवं महान पर हम उस घड़े की प्रसत्ता और अनिर्वचनीयता को दार्शनिक की परीक्षा अनुयायियों की संख्या के बल पर परिलक्षित करते है। तथा उदारता पर निर्भर है।' इस संसार कोई भी (७) स्याबस्ति - नास्ति प्रवक्तव्यं-मापेक्षिक तथा बात झूठी नहीं है, सबको समझने की सच्ची दृष्टि होनी रूप में घड़ा सत्य, असत्य और प्रवक्तव्यनीय है। अपने से विशेष अर्थ में और भावात्मक दृष्टिकोण से मोर साथ चाहिए, वह झूठी न हो। अगर दृष्टि ही झूठी हो तो । सृष्टि की कोई भी चीज सच्ची नहीं है।' ही साथ स्थानविशेष व समय विशेष के कारण बड़ा है, नहीं भी है और पनिवंचनीय भी । यहाँ पर हम एक घड़े ३. सूरीश्वर जी, जैन दर्शन की रूप रेखा, पृष्ठ-३३ की अनिर्वचनीयता का प्रतिपादन करते हैं और इसके ४. " " पृष्ठ-३८
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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