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________________ ८ वर्ष २६, कि० २ -प्राचार्य । क्या मेरी कामना की वेस यो ही मुर्मा सम से बेसुध । शरीर पर वामी चह गई, वालियों मे सर्प जायगी। पाप पर देश को अभिमान है। प्रापके हाथो प्रा डटे। वे फन फैलाये इस महायोगी को पाश्चर्य मुक्रा की कला युग-युगों तक आपकी कीर्ति-गाथायें कहती हमें निहार रहे है । मिट्टी मे माधवी लतायें जिकमर्न लगी। रहेगी। किन्तु क्या आप भी मेरे भावलोक के उस प्रभु ने नॉषों को लपेटती हुई महाबली की भुजामों को भी को कोई रूप नही दे सकते। क्या मेरा सपना पूर्ण नही लपेट रही है। कामदेव का मनोहर रूम है। मुख पर होगा ? क्या कोई भी प्राशा शेष नहीं है ?' असीम शाति और सौम्यता है, सहज मुस्कान भी है कितु जकणाचार्य सुनकर चिन्तामन्न हो गये—क्या रूप विराग भी अंकित है। हो सकता है भावलोक की उस प्रतिमा का। किन्तु कोई शिल्पकार भावधारा मे बहने लगा । प्रभु के इस स्पष्ट रूप मन मे न उभर सका। सभी उनके मन में एक त्रिभुबन मोहन रूप के आगे बह लोट गया। भक्ति के 'क्षीण-सा प्रकाश हुना। मुख पर प्रकाश की रेखाये अतिरेक मे उसकी प्रांखो से लाभुधास बहने लगी। वह उभरी । वे विमय से बोले-'देव | मिराश न हो । प्राशा यो कितनी देर मश्रुधारा बहाता रहा, इसकी उसे कुछ सुध की ज्योति प्रभी क्षीण नही हई। एक कलाविद् प्रभी नही । किन्तु जब उसकी तन्द्रा टूटी तो चकित नेत्रों से शेष है, जो आपकी कल्पना को मूर्तिमान कर सकता है।' चारो ओर निहारने लगा-कहाँ हो प्रभु । चामुण्डलय के मन मे आशा का सचार हुआ । वे तभी उसे अपने दायित्व का स्मरण हुमा और उसने भातुरता से बोले---'कौम है वह महाभाग ?' एक मोडल तैयार किया । भाव लोक मे प्रभु का जो रूप 'वे है जिनपुर के प्राचार्य अरिहनेमि । वे अवश्य उभरा था, उसे ही उसने आकार प्रदान किया था। जिस पापकी कामना को साकार कर सकेंगे।' समय चामुण्खरस्य ने :मोडल देखा तो सर्ष से उन्मत्त होकर अविलम्ब बहुमूल्य उपहारो के साथ राजदूत दौड़ाये वे चिल्लाये-ये ही थे प्रभु, जिनके दर्शन मैने कल्पना मे गये। उन्होने शिल्पकार अरिहनेमि को राजाज्ञा सुमाई किये थे । वही रूप, वही सौन्दर्य, नही मधुर मुसकान । और उपहार रखकर बड़े अनुनय के साथ चलने का अनु आचार्य ! मेरे सपनों को तुमने सही रूप दिया है । तुम्ही रोध किया। अरिहनेमि ने उपहार तो स्वीकार नही मेरी कामना को साकार कर सकते हो । राजकोष लुटा किये, किन्तु वह राजदूत के साथ चल अबश्य दिया । दूगा इसके लिए। तुम्हे रत्न-स्वर्ण से मालामाल कर दूंगा। लौटे हुए उपहार देखकर राज्य के प्रधानामात्य और न जाने हर्ष मे वे क्या-क्या कहते । किन्तु मुक्त ने सेनापति चामण्डराय के मन मे क्षोभ की कड़ाहट फैल बाधा देते हुए कहा---'देव ! संयत हों। अविक्रम सिमा गई। किन्तु सामने खड़े हुए युवक शिल्पकार की विनय हो । जो आपके प्रभु है, वे मेरे भी अराध्य है। उनके और शालीनता देखकर क्षोभ दूर हो गया। उन्होंने सम्- लिये मैं क्या मूल्य लूंगा! चित पादर करके शिल्पकार को अपनी कामना बताई चामुण्डराय संयत होकर बोले-'प्राचार्य ! मूल्य प्रभु मौर भावलोक में देखी हुई मूर्ति का मौडल बनाने का का नही, कला का तो होगा ही।' अनुरोध किया। युवक शिल्पी सुनकर हैरान नही हुअा। 'नही देव ! कला का मूल्य रत्न-स्वर्ग नहीं होता। वह जाकर एकान्त मे बैठ गया। वह मन की सम्पूर्ण कला का वास्तविक मूल्य स्वान्तःसुख है । उसी के लिये एकाग्रता से, भक्तिनिष्ठा से भगवान बाहुबली की उस मैं कला की आराधना करता हूँ। जीवन के लिये काला छवि की कल्पना करने लगा, जो सम्राट् भरत की भक्ति नहीं है, किन्तु कला के लिये ही मेरा जीवन है । वह मेरी ने सृजन की थी। दृश्य उभरा-राज्य से विरक्त वाहु- साधना है और वही मेरी सिद्धि है।' बली धोर तपस्या में लीन है । अंतर्बाह्य परिग्रह से रहित, चामुण्डराय को प्राज एक सच्चे कलाविद् के फर्शन निर्विकार । अर्धोन्मीलित नयन, नासाग्र दृष्टि । दिनों हुये थे। श्रद्धा से उनका मस्तक उस कला तपस्वी के-मागे की क्या गिनती, महीनों बीत गये, किंतु ध्यानलीन खड़े हैं झुक गया।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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