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________________ कलाकार की साधना १७ यो कह कर वीर मार्तण्ड चामुण्डराय वेदना से कराह स्निग्ध प्रभा विकीर्ण हो रही है। जल, थल सब उस प्रभा उठे । प्राचार्य ने बड़ी ममता से उनके सिर पर हाथ फेरा मे नहा रहे है । दिव्य पुरुष ने पाशीर्वाद की मुद्रा में एक और माश्वासन भरे स्वर मे बोले--'पुत्र | करुणा सिधु हाथ उठाया और वोला-'भक्तवर ! मै तुझ पर प्रसम्न बाहुबली शक्ति से नही, भक्ति से प्रसन्न होते है। भक्ति हूँ। तू चिन्ता त्याग और स्वर्ण धनुष पर स्वर्ण बाण चढ़ा हो तो वे अवश्य दर्शन देंगे।' कर सामने दोडवेट्ट पर्वत पर सन्धान कर । वाण जहाँ 'ठीक कह रहे है प्रभु ! बिषाद और चिन्ता की। गिरेगा, वही पर महाप्रभु बाहुबली प्रगट होगे । तेरी माता अँधियारी में मझे कुछ नही सूझ रहा था। आपने मझे का प्रण पूरा होगा और तेरी चिन्ता का अन्त होगा।' राह दिखाई है। किन्तु भक्ति के साथ-साथ क्या कोई युक्ति चामुण्डराय की निद्रा भंग हुई। उन्होंने नेत्र पसार नही, जिससे मुझे इस चिन्ता से मुक्ति मिल सके' प्राश्वा- कर देखा किन्तु वहाँ कोई न था। दिव्य पुरुष अन्तर्धान सन पाकर बड़े उत्साह ने सेनापति बोले । हो गया था। उनके निकट केवल ध्यानलीन गुरु थे। निमित्त ज्ञानी प्राचार्य सुनकर मुस्कराये, मानो कुन्द भक्ति से उन्होने गुरुपो को नमस्कार किया। कली पर शुभ्र चाँदनी विखर गई । वे कहने लगे--- 'वत्स । उन्ही करुणामय प्रभु का ध्यान करो । युक्ति भी वे ही चामुण्डराय ने राजदूतो को भेजकर देश और विदेश बतायेंगे। वे करुणा के प्रागार है। उनकी करुणा का से प्रख्यात मूर्तिकारो और शिल्पियो को बुलाया। जकणाकोई अन्त नही है। लगता है, अब तुम्हारी चिन्ता का चार्य, आदिराजय्य, देवण्णा, नेमिनाथ, ऐण्टोनियो प्रादि अन्त होने वाला है। कितने ही शिल्पकला में पारगत कलाकार आये । वहाँ चामुण्डराय कुछ कह पाते, उससे पूर्व ही प्राचार्यद्वय कलाविदो का मेला लग गया । वामुण्डराय ने उन्हे एकत्रित ध्यानमन्न हो गये। किन्तु गुरुदेव के वचनो से शिष्य का करके अपनी इच्छा व्यक्त की --"विज्ञजनो। आप लोग हृदय प्राशा और भक्ति से भर गया। उनके मानस नेत्रो शिल्प बिधान के निष्णात प्राचार्य है। पापकी कला मे पोदनपुर के महायोगी बाहुबली का चित्र नाचने लगा। कठोर पाषाणो मे मुखरित हुई है । प्रापकी कला ने जीवत उन्होने भक्ति प्लावित हृदय से उन्हें भाव नमस्कार काव्यो की सृष्टि की है। मेरी हादिक इच्छा है कि इस किया। चिन्ता का ज्वार उतर गया और उनके मन मे युग के प्रथम सिद्ध भगवान् बाहुबली की वह मूर्ति प्रापकी वह रूप उभर आया, जब चक्रवर्ती भरत महामुनि बाहु- दिव्य कला से नि:सृत हो, जिसकी रचना प्रथम चक्रवर्ती बली के चरणो का भक्ति विलल नेत्रो से बरसते आसुओ महाभाग भरत ने कराई थी और जिसके दर्शन मुझे भाव से प्रक्षालन कर रहे है और आत्मा के सहज प्रानन्द मे लोक मे हुए है। राज्य का सम्पूर्ण कोष और समूचे लीन बाहुबली स्वामी के नेत्रो से निकलने वाले प्रानन्दा- साधन इसके लिए प्रस्तुत है। आप लोग अपने मोडल श्रमों की बूदे चक्रवर्ती के सिर पर गिर कर मानो उनका प्रस्तुत करें। इसके लिए एक सप्ताह का समय निर्धारित राज्याभिषेक कर रही है। किया जाता है । जिनका मोडल सर्वश्रेष्ठ होगा, उन्हें इस इस भाव धारा में बहते हुए चामुण्डराय को बाह्य विग्रह के निर्माण का भार सोपा जायगा और निर्माण जगत का बोध ही नही रहा । भाव लोक में विचरण होने पर राज्य की ओर से विपुल पुरस्कार और समचित करते हुए उन्हें लगा कि बाहुबली भगवान् के चरणो मे सम्मान दिया जायगा । सम्राट भरत नही, वे स्वयं लोट रहे है और भगवान् जन कलाविदो ने मोडल बनाये एक से एक सुन्दर, किन्तु पर अपनी सहज करुणा का दान कर रहे है। इस भाव चामुण्डराय के भावलोक की उस दिव्य प्रतिमा के अनुरूप मूर्छा में उन्हें कब निद्रा पा गई, इसका उन्हें पता ही एक भी मोडल नही था। कलाकारो के इस निष्फल प्रयास नहीं चला। किन्तु निद्रित अवस्था मे उन्हे स्वप्न में पर वे खिन्न हो गये। उन्होने उस युग के सर्वश्रेष्ठ शिल्पदिखाई पड़ा-कोई दिव्य पुरुष खड़ा है। उसके शरीर से कार जकणाचार्य को बुलाकर बड़े विषादपूर्ण स्वर में कहा
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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