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८६, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
थी। प्राचार्य की दृष्टि उस पर पड़ी। वे बोले-'भद्र ! जकणाचार्य उस युवक शिल्पकार की विनय और कुछ कहना है ?'
शालीनता से बड़े प्रभावित हुए। वे बोले-भद्र ! तुमने युवक बोला-'अविनय क्षमा करें आचार्य ! मेरे मेरा दम्भ चूर-चूर कर दिया। शिल्प विधान एक महाविनम्र मत मे शिला निर्दोष नहीं है, इसलिये इससे जो सागर है । मै अपने आपको इस महासागर का पारगामी विग्रह बनेगा, वह शिल्प-विधान के अनुसार निर्दोष नहीं ' तैराक समझता था। किन्तु तुम्हारा ज्ञान विशाल है। सब बन पायगा।'
कोई सुनें । आज से जकण प्राचार्य नहीं है, अरिहनेमि युवक की बात सुनकर सारे उपस्थित शिल्पी-समाज आचार्य है। यदि कभी सुयोग मिला तो प्राचार्य अरिहमें हलका सा कोलाहल होने लगा। सबके मुखो पर नेमि की किसी कृति के चरणो मे मै भी कोई छोटी-मोटी तिरस्कार के भाव उभर पाये। प्राचार्य के अपमान से रचना करूगा, जिससे मेरी आज की घोषणा पर इतिहास कुछ लोग इस दुस्साहसी युवक के प्रति रोषपूर्ण भाषा की मुहर लग जाय ।
किन्त प्राचार्य ने मकेत से सबको शान्त सभी शिल्पकारो ने शिल्पाचार्य अरिहनेमि का जयकरते हुए पूछा-'भद्र ! इस शिला मे क्या दोष है. नाद्र किया।
( २ ) क्या तुम बता सकते हो?'
___ गगवाडी के गगवशीय प्रतापी नरेश राचमल्ल के 'अवश्य । प्राचार्यपाद ने जिम शिला का चयन किया
सेनापति वीरवर चामण्डराय चन्द्रगिरि पर्वत पर चिन्ताहै, उसके भीतर एक जीवित मेढक है । इस प्रकार की
मग्न बैठे थे। उनके निकट ही उनके दीक्षा गुरु प्राचार्य शिला देव-विग्रह के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । यदि मेरे
अजितसेन और गुरुवर भट्टारक नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कथन मे कोई सन्देह है तो प्राचार्य इमकी परीक्षा कर सकते
बैठे हुए अपने शिष्य के चिन्ताम्लान मग्न को देख है' युवक ने अत्यन्त निर्भीकतापूर्वक उत्तर दिया ।
रहे थे। प्राचार्यद्वय अपने विनीत शिष्य के हृदय मे युवक का यह अद्भुत उत्तर मुनकर कुछ के मुग्व तिर
चिन्ता के उठने वाले तूफान से अपरिचित नही थे। तभी स्कार से विकृत हो गये, किसी के मुख पर व्यग्य भरा प्राचार्य प्रजितन
आचार्य अजितसेन बड़े वात्सल्य के साथ बोले-'वत्स ! हास्य उभर आया। प्राचार्य के मुख पर भी एक क्षण का चिन्ता करने से भगवान बाहबली के दर्शन नहीं हो सकेंगे। यवक के प्रौढत्य से विकार की रेषायें खिच गई । किन्तु धर्म की साधना पार्तध्यान से कभी नहीं होती।' उन्होने अपने पाप पर सयम रक्ग्वा और उस उद्धत युवक
चामुण्डराय ने करुण दृष्टि से गुरु की पोर देखा। को उचित शिक्षा देने के लिए युवक के द्वारा निदिष्ट स्थान
उनकी दृष्टि अत्यन्त म्लान थी। वे बड़े निराशा भरे स्वर
उनकी दृष्टि अत्यन्त म्लान थी। पर शिला को भंग किया। किन्तु सभी स्तब्ध रह गये,
मे बोले- 'गुरुदेव ! चिन्ता के अतिरिक्त शेष ही क्या बचा जब शिला टूटते ही एक जीवित मेढक फदक कर निकला।
है । इतने दिन गोम्मटेश्वर की तलाश करते हुए बीत गये, अब तिरस्कार और रोष के स्थान पर सबके मुख पर
किन्तु कुछ पता नहीं चल पाया। मेरी माता गोम्मटेश्वर आश्चर्य के भाव थे और उस जादूगर युवक ने क्षण भर मे
के दर्शनों के बिना ही प्राण त्याग देगी ! मैं उनकी इस सबका आदर प्राप्त कर लिया था।
एकमात्र इच्छा की पूर्ति न कर सका । मैंने युद्ध में प्रतापी प्राचार्य भी हैरान थे उसके शिल्प-ज्ञान की गहराई
पल्लववंशी नोलम्बनरेश को परास्त किया। उछंगी के मजेय पर । उन्होंने पूछा-'अद्भुत जान पड़ते हो तुम । युवक !
दुर्ग को धराशायी किया। बज्जलदेव ने मेरी तलवार का क्या नाम है तुम्हारा ?'
लोहा माना । वागेपुर के त्रिभुवनवीर को मार कर मैंने प्राचार्य के इस प्रश्न मे ममता और पादर के भाव
अपने भाई की हत्या का बदला चुकाया। किन्तु आज मेरी ये । युवक ने बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया- 'मुझे भजामो की वह शक्ति और मेरे इन दुर्दम वीरों का बल अरिहनेमि कहते है । गुरुपाद का अनुगत शिष्य बनने की
भी मेरी पूज्य माता का प्रादेश पूरा करने में असफल मेरी कामना है । आर्य मुझ पर प्रसन्न हों।'