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कलाकार की साधना
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के आगे प्रभु खडे हुए है । मेरी कामना है कि इस युग के भट्टारक नेमिचन्द्र के तत्वावधान में शुभ लग्न, शुभ प्रथम कामदेव उन प्रभु की मूर्ति उन जैसी त्रिभुवन मोहन मुहूर्त में भूमि-शुद्धि की गई । किन्तु जब शिला के पूजन- हो । वे प्रभु मुझे इसी पर्वत मे से प्रकट होने का आदेश दे विधान का अवसर आया तो एक वाधा आ गई । जकणा- रहे है।' चार्य ने सुझाव दिया कि विग्रह के लिये पहले एक धिशाल शिल्पाचार्य की वाणी मे संकल्प की दृढता थी, भक्ति शिला की खोज होनी चाहिये । उसी का पूजन होना श्रेष्ठ की मुखरता थी और तर्क की तीक्ष्णता थी। उनका मुख रहेगा । अन्य कलाकारो ने भी इस सुझाव का समर्थन एक दिव्य आभा से प्रदीप्त था । ऐसा लगता था, मानो किया। चामुण्डराय ने अरिहनेमि की ओर देखा- स्वप्न लोक का देव पुरुष ही उनके मुख से बोल रहा है। 'प्राचार्य का इस विषय मे क्या अभिमत है ? अरिहनेमि गभीरता से बोले-'आर्य । यह तो
चामुण्डराय को लगा कि स्वप्न मे उन्हे जिस देव निर्णीत विषय है। आपके स्वप्न मे देव पुरुष ने वाण-सधान
पुरुष ने दर्शन देकर आदेश दिया था, वह अन्य कोई नही,
पुरुष न का आदेश दिया था। प्रत वाण जिस स्थान पर गिरा
स्वय शिल्पाचार्य अरिहनेमि ही थे । उनका निर्णय ही
र था, विग्रह वही स्थापित होगा और पूजन-विधान भी उसी देव पुरुष का आदेश था । उन्होने शिल्पाचार्य की बात स्थान का होना चाहिये।
समर्थन किया। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने भी इसे स्वीकार जकणाचार्य बोले-.--'शिल्पिवयं । यह सत्य है कि
किया । अपने युग मे द्रविड और होयसल कला के सर्व पूजन-विधान उस स्थान का होना च हिये । किन्तु विग्रह
श्रेष्ठ शिल्पकार प्राचार्य जकण ने गहराई से इस पर के लिये शिला की खोज होना तो आवश्यक है । विग्रह
विचार किया । अन्त म बोले-'प्राचार्य प्ररिहनेमि ! तैयार होने पर उसकी स्थापना उसी स्थान पर कर दी
प्रापका निर्णय साधु है । देव पुरुप की भी यही इच्छा है। जायगी।' अनुभवी जकणाचार्य की बात तसगत थी। एक बार मापने विग्रह के लिये मेरी पसन्द की हुई शिला सभी ने उसे स्वीकार किया । किन्तु अरिहनेमि के मुख
को सदोप सिद्ध किया था और उसमे एक जीवित मेढक पर असहमति के भाव देखकर सब उनके मन की अोर निकाल कर मूर्ति कला सम्बन्धी मरे ज्ञान के मदको चर. देखने लगे। सब शिल्पाचायं उनके मन के भाव और उनकी चूर किया था, मै तभी से आपको अपना गुरु मानने लगा योजना जानने को उत्सुक थे । क्षण भर विचार करके हूँ। इस युग में इम कला के पाप पारगामी प्राचार्य है। अरिहनेमि बोले-'प्रार्य । वाण जहाँ गिरा प्रभ दर्शन आपकी मूक्ष्म दृष्टि को कोई चुनौती दे सके, ऐमा कलाभी वही देंगे। करुणामय प्रभु इसी पर्वत को भेद कर प्रकट विद् मेरी दृष्टि में नहीं पाया । अापकी योजना निर्दोष होंगे।'
है । मुझे अापका निर्णय स्वीकार है ।' 'तब क्या आपकी योजना सारे पर्वत को तराशने की जब स्वय जकणाचार्य ने अरिहनमि की योजना का है ? यह कार्य तो बड़ा श्रमसाध्य होगा । इसमे समय भी समर्थन कर दिया तब सभी शिल्पका ने उसके आगे अधिक लगेगा । क्यो न कोई पवित्र शिला ही इसके लिये अपना मस्तक झुका दिया। निर्णय सर्वसम्मत था। प्रत तलाश की जाय ?
भट्टारक नेमिचन्द्र के आदेश से जहाँ वाण गिरा था, उसी ___ 'पार्य श्रेष्ठ ! जिस पर्वत पर अनेक श्रमणो ने तपस्या शिला का पूजन किया गया। तभी प्ररिहनेमि प्राचार्य की है. उससे अधिक पवित्र स्थान और कौन सा होगा! नेमिचन्द्र के सन्मुख हाथ जोड़कर खडे हो गये । प्राचार्य फिर विग्रह या विग्रह का ढोल इतने ऊचे पर्वत के ऊपर ने जिज्ञासा से शिल्पाचार्य की ओर देखा। गिल्पाचार्य ले जाना कितना कष्टसाध्य होगा। प्राप यह सोचिये। अत्यन्त विनय से बोले-'प्रभु ! मझे प्रागीर्वाद दें कि मैं अत: इस पर्वत को तराश कर ही महाबाहु बाहुबली स्वामी प्रभु वाहुबली के समान ही उनकी त्रिलोकसुन्दर मूति की मूर्ति का निर्माण करना समुचित होगा । मेरी आखो बनाने में सफल हो सकूँ। भगवान मुझे ब्रह्मचर्य व्रत दे ।