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________________ १०, वर्ष २६, कि०२ अनेकान्त सिद्धांतचक्रवर्ती प्राचार्य सुनकर अत्यन्त पाल्हादित में अपार वैराग्य उत्पन्न हो रहा है। किन्तु इससे उनके हये । उन्होने आशीर्वाद दिया-'तुमने ब्रह्मचर्य व्रत का मन मे पाकुलता नही, अखण्ड शान्ति विराजमान है और सकल्प करके शास्त्रानुमोदित पद्धति का ही पालन किया वह मुख पर भी स्पष्ट अकित है। है । मूर्ति मे अतिशय तभी प्रगट होता है, जब शिला भगवान् का मुख प्रगट होते ही चामुण्डराय की मां निर्दोष हो, मूर्तिकार ब्रह्मचर्य व्रत पूर्वक और निर्लोभ वृत्ति ने उन्हे नमस्कार दिया। उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी से मूर्ति निर्माण करे, और प्रतिष्ठाकारक एव प्रतिष्ठाचार्य थी। उनके प्राज्ञाकारी पुत्र ने अन्न त्याग करने वाली के मन में अहंकार णौर धन लिप्सा न हो। केवल वाह्य अपनी माता को राजकीय समारोह में भोजन कराकर क्रियाकाण्डो से ही पाषाण भगवान नहीं बनते । बलात् अपने जीवन को कृतकृत्य माना । सारा राज्य उल्लास से भगवान बना भी दें तो उससे जीवो का कल्याण नही विभोर हो उठा। होता। भगवान के बिम्ब मे भगवान् का सा चमत्कार पाता है मूर्तिकार, प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य की प्राचार्य अरिहनेमि मूर्ति-निर्माण मे तन्मय थे । काल तपःपूत साधना और मनःशुद्धि में । तुम जिस बिम्ब का का रथ द्रुतगति से उडा जा रहा था, किन्तु प्राचार्य को निर्माण करना चाहते हो, वह लोक का अप्रतिम, अद्भुत इसका कोई ज्ञान नहीं था। मुख के बाद त्रिपावली वेष्टित और सर्वश्रेष्ठ विम्ब हो, यह मेरा आशीर्वाद है।' ग्रीवा उभरी, श्रीवत्स लाछन मडित विशाल वक्ष और वातावरण प्रानन्द और उत्साह से भर गया। चन्दन माधवी लता मण्डित पाजानु बाह प्रगट हई।। और नारियल के वक्ष झूम उठे। मलयगिरि की शीतल हथौड़े और छनी के जादू से जघाये दिखाई पड़ी जो पवन ने चारो ओर सुरभि फैला दी । सबके मन जडता और माधवी लतायो से सुशोभित थी। अवसाद से मुक्त होकर उल्लास से तरगित हो गये। ऐसे ज्यो ज्यो विग्रह उभरने लगा, शिल्पाचार्य के नेत्रो मे हर्ष तरंगित वातावरण मे चामुण्डगय भी अपने आपको दिव्य ज्योति प्रस्फुटित होने लगी। वह नित्यप्रति अपने रोक न सके । वे अपने गुरु के चरणों मे झुककर निवेदन आराध्य प्रभु के महिमान्वित रूप के आगे अपनी भक्ति करने लगे-'भगवन् ! मुझे भी ब्रह्मचर्य व्रत का नियम के अाँसुप्रो का अर्घ्य चढाने लगा। वह अहर्निश काम देकर अनुगृहीत करें।' हर्ष से उनके कपोलों पर अश्रुविन्दु करता रहता । जब थक जाता तो प्रभु की छवि निहारने बहने लगे। गुरु ने मयूरपिच्छिका उठाकर उन्हें आशीर्वाद लगता । उसकी पत्नी भोजन लाती और वह भोजन या दिया और शिला का पूजन कराया । पत्नी की ओर देखे बिना बायें हाथ से भोजन करता, अरिहनेमि के निर्देशन मे शताधिक शिल्पी पर्वत को किन्तु तब भी उसका दाया हाथ निर्माण में लगा रहता। तराशने में जुट पडे । विस्तृत पर्वत की छाती छिल-छिल पत्नी अपनी इस चिर उपेक्षा के कारण क्षोभ मे भर कर लम्वायमान ढोल बनने लगा। अरिहनेमि के छैनी- उठी । एक दिन उसने चामुण्डराय की पत्नी अजिता देवी हथौडे के जादू से कठोर शिला की पपड़ियाँ उतरने लगीं से शिकायत की--'देवी ! आर्यपुत्र को मेरे प्रति कोई और उममें से आकार उभरने लगा। शीश पर घुधराले स्नेह नहीं रह गया है। इस मूति ने उन्हें मुझसे विलग कुन्तल उभरे । फिर प्रभु का मुख प्रगट हुअा। कामदेव कर दिया है।' ध्यानमुद्रा मे है। नेत्र अर्धनिमीलित है। होठों पर सुनकर अजिता देवी को बड़ा विस्मय हुआ। वे मुसकराहट भी है और कुछ वितृष्णा मिश्रित विराग के बोली- 'भद्रे ! विश्वास नही होता मुझे। अभी प्राचार्यभाव भी है, मानो प्रभु बाहुवली ससारी जनो पर मुस- पाद की अवस्था ही क्या है ?' करा कर अपनी अनन्त कम्णा की वर्षा कर रहे है। अवस्था की बात नही है देवी ! बात उनकी मनोसाथ ही अनादिकाल की अपनी अतृप्त भोगाकाक्षा से दशा की है। आजकल वे दिन में केवल एक बार भोजन वितृष्णा हो रही है और ससार, शरीर एवं भोगो से मन करते हैं । मध्यान्ह मे मैं स्वयं भोजन लेकर उनके पास
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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