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________________ तीर्थंकर और प्रतीक-पूजा पं० बलभद्र जैन जन-मानस मे तीर्थकरों के लोकोत्तर व्यक्तित्व की प्रतीक दो प्रकार के रहे-अतदाकार और तदाकार। छाप बहुत गहरी रही है। उन्होने जन-जन के कल्याण ये दोनों ही प्रतीक अविद्यमान तीर्थङ्करो की स्मृति का और उपकार के लिए जो कुछ किया, उस अनुग्रह को पुनर्नवीकरण करते थे और जन-मानस में तीर्थवरो के जनता ने बड़ी श्रद्धा के साथ स्वीकार किया। जब जो आदर्श की प्रेरणा जागृत करते थे। इन दोनो प्रकार के तीर्थङ्कर विद्यमान थे, उनकी भक्ति, पूजा और उपदेश प्रतीको मे भी शायद अतदाकार प्रतीको की मान्यता सर्वश्रवण करने के लिए जनता का प्रत्येक वर्ग उनके चरण- प्रथम प्रचलित हुई। ऐस। विश्वास करने के कुछ प्रबल सान्निध्य मे पहुंचता था और वहाँ जाकर अपने हृदय की कारण है। सर्वप्रथम प्राधार मनोवैज्ञानिक है । मानव की भक्ति का अर्घ्य उनके चरणो मे समर्पित करके अपने बद्धि का विकाम क्रमिक रूप से ही हमा है । प्रतीकों का आपको धन्य मानता था। किन्तु जब उम तीर्थडर का जो रूप वर्तमान में है, वह सदा काल से नहीं रहा। हम निर्वाण हो गया, तब जनता का मानस उनके प्रभाव को आगे चलकर देखेंगे कि तदाकार मूर्ति-शिल्प में समय, तीव्रता के माथ अनुभव करता और अपनी भक्ति के पप्प बातावरण और वद्धि-विकाम का कितना योगदान रहा ममर्पित करने को प्राकुल हो उठता था। जनता के मानस है। अतदाकार प्रतीक मे ही तदाकार प्रतीक की कल्पना की इसी तीव्र अनुभूति ने प्रतीक-पूजा की पद्धति को जन्म का जन्म सम्भव हो सकता है। दूसरा प्रबल कारण है दिया। पुरातत्त्विाक साक्ष्य । पुगतात्त्विक साक्ष्य के आधार पर जाती हैं, किन्तु कभी एकबार भी उन्होने मेरी ओर वे अपने प्रतापी पति से भी शिकायत करने पहुंची किन्तु दृष्टि उठाकर नहीं देखा। और तो क्या, भोजन करते- पति ने उत्तर दिया-देवी । जिन्हे अपने भोजन तक की करते भी वे अपने काम में लगे रहते है।' भी सुघ नही है, बे महान् साधक हे । तुम्हे उनके व्यवहार रानी को प्राचार्य-पत्नी की बात पर विश्वास नही पर विन्न या क्षुब्ब नही होना चाहिए, उस पर तो तुम्हे हो सका और निश्चय हुआ कि कल तुम्हारे स्थान पर मै गर्व होना चाहिए। उनकी साधना से जो कृति निष्पन्न भोजन की थाली लेकर जाऊंगी। होगी, वह संसार मे अप्रतिम होगी। तुम्हे तो जाकर निश्चयानुसार दूसरे दिन रानी अजिता देवी भोजन अपने क्षोभ के लिए उनसे क्षमा मांगनी चाहिए।' लेकर पहुँची। वे कुछ क्षणों तक वहां खडी रही, फिर अजिता देवी का क्षोभ गल गया। वे श्रद्धा लेकर उन्होंने थाली प्रागे को सरका दी। किन्तु आचार्य ने प्राचार्य के चरणो मे पहुँची। उन्होने जाकर देखाएक बार भी दृष्टि उठाकर न रानी की ओर ही देखा प्राचार्य गोम्मटेश्वर को अपलक निहार रहे है। पाषाण और न भोजन की थाली को ही। रानी इस असह्य के प्रभु के समान आचार्य भी मानो पाषाण हो गये है। उपेक्षा से क्षुब्ध हो गई और मन मे तिक्तता लिये वे सीधे रानी ने निवेदन किया, क्षमा-याचना की, किन्तु आचार्य अपने आवास मे पहुँची। यह अपमान साधारण न था। अपने प्रभु की मोहिनी मे मानो सज्ञाहीन होकर बैठे थे। रहरहकर उनके मन मे अपमान के कॉटें चुभने लगते। करुणामय प्रभु अपने भक्त पर मधुर मुस्कान विखेरते हुए वे किसी प्रकार भी अपने मन को सान्त्वना न दे सकीं। अनन्त करुणा की वर्षा कर रहे थे। [ ६१ )
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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