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१२, वर्ष २६, कि० २
अनेकान्त
माना गया है कि तदाकार प्रतीक के रूप (मन्दिर और मूर्तियों, सिक्कों, मुद्रामो आदि पर देवायतनों का अंकन मूर्ति के रूप मे) बहुत अधिक प्राचीन नहीं है और वे हमे मिलता है । उससे ही ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में मंदिरों ईसा पूर्व की सात-आठ शताब्दियो से पूर्व काल तक नही का रूप अत्यन्त सादा था। कालान्तर में कलात्मक रुचि ले जाते, जबकि अतदाकार प्रतीक इससे पूर्व के भी उप- मे अभिवृद्धि के साथ-साथ देवायतों के स्वरूप में विकास लब्ध होते है। यदि हडप्पा काल की शिरहीन ध्यानमग्न होता गया। मूर्ति स्थापना के स्थान पर गर्भगृह को परिमूर्ति को निर्विवाद रूप से तीर्थङ्कर प्रतिमा होने की स्वी- वेष्टित करने के अतिरिक्त उसके बाहर चारो ओर प्रदकृति हो जातो है तो तदाकार प्रतीक का काल ईसा पूर्व क्षिणा पथ का निर्माण हुआ । गर्भगृह के बाहर आच्छादित तीन सहस्राब्दी स्वीकार किया जा सकता है। किन्तु प्रवेश द्वार या मुख्य मण्डप का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे इसके साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि उस काल मे गर्भगृह के ऊपर शिखर तथा बाहर मण्डप, अर्धमण्डप, भी तदाकार प्रतीको का बाहुल्य नही था । एक शिरोहीन महामण्डप आदि का विधान हुआ । गुप्त काल में पाकर मूर्ति तथा कुछ मुद्रामो पर प्रकित ध्यानलीन योगी जिन के मन्दिर शिल्प और मूर्ति-शिल्प के शास्त्रों की रचना भी रूपाङ्कन के अतिरिक्त उस काल में विशेष कुछ नही होने लगी, जिनके पाधार पर मन्दिर और मूर्तियो की मिला। ऐसी स्थिति में यह भी विचारणीय है कि हडप्पा रचना सुनियोजित ढग से होने लगी। संस्कृति अथवा सिन्धु सभ्यता के काल से मौर्य काल तक
मन्दिर निर्माण को पृष्ठभूमि के लम्बे अन्तराल मे तदाकार प्रतीक विधा की कोई कला
प्रागैतिहासिक काल के पूर्व पाषाण युग मे, जिसे जैन वस्तु क्यो नही मिली ? इसका एक ही बुद्धिसगत कारण
शास्त्रो में भोगभूमि बताया है, मानव अपनी जीवन-रक्षा हो सकता है कि तदाकार प्रतीक-विधान का विकास तब
के लिये वृक्षो पर निर्भर था। वृक्षो के नीचे रहता था, तक नही हो पाया और उसने पर्याप्त समय लिया।
वृक्षों से ही अपने जीवन की सम्पूर्ण आवश्यकताओं की जैन धर्म के अतदाकार प्रतीको मे स्तूप, त्रिरत्न, चैत्य- पूर्ति करता था। कुलकरों के काल मे मानव की बुद्धि का स्तम्भ, चैत्य वृक्ष, पूर्ण घट, शराब सम्पट, पुष्पमाला, विकास हा और उस काल में मानव को जीवन रक्षा के पुष्प पडलक, आदि मुख्य है। अष्ट मगल द्रब्य-यथा लिये संघर्ष करना पड़ा। अतः जीवन-रक्षा के कुछ उपाय स्वस्तिक, धर्मचक्र, नन्द्यावर्त, वर्धमानक्य, श्रीवत्स, मीन- ढूढने को वाध्य होना पड़ा। छुटपुट रहने के स्थान पर युगल, पद्म और दर्पण-तथा तीर्थ दुरो के लाछन भी कवीलो के रूप में रहने की पद्धति अपनाई गई। किन्तु अतदाकार प्रतीको में माने गये है। अष्ट प्रातिहार्य एवं इस काल में भी वृक्षों की निर्भरता समाप्त नहीं हुई, बल्कि
आयागपट्ट भी महत्त्वपूर्ण प्रतीक माने गये है। कला के प्रार- वृक्षों के कारण कवीलों मे पारस्परिक संघर्ष भी होने म्भिक काल मे इन अतदाकार प्रतीको का पर्याप्त प्रचलन लगे। प्रकृति मे तेजी से परिवर्तन हो रहे थे। वृक्ष घट
__ रहे थे, मानव की आवश्यकतायें बढ़ रही थी। कुलकरों किन्तु जैसे-जैसे कला-बोध विकसित हुआ, त्यों-त्यो ने वृक्षों का विभाजन और सीमांकन कर दिया। किन्तु प्रतीक की तदाकारता को अधिक महत्त्व मिलने लगा। फल वाले वृक्षों की संख्या कम होते जाने से जीवन-यापन इसी काल मे तीर्थरो की तदाकार मूर्तियों का निर्माण की ममम्या उठ खडी हई। बन्य पशुओं से रक्षा के लिए होने लगा। प्रारम्भ में प्रकृत भूमि से कुछ ऊंचे स्थान पर सुरक्षित आवास की आवश्यकता भी अनुभब की जाने देव-मूर्ति स्थापित की जाती थी। उसके चारो ओर वेदिका लगी। (बाड़े) का निर्माण होता था। धीरे-धीरे वेदिका को तब ऋषभदेव का काल पाया। इसे नागरिक ऊपर से प्रापछादित किया जाने लगा। यही देवायतन, सभ्यता का काल कहा जा सकता है। इस काल में देवालयमा मन्दिर कहे जाने लगे। प्रारम्भ मे देवायतन । तीर्यकर ऋषभदेव ने जीवन-निर्वाह के लिए कर्म करने की सीधे-सादे रूप मे बनाये जाते थे। पुरातत्त्वावशेषो मे कई प्रेरणा दी और मानव समाज को असि, मसि, कृषि, विद्या,