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________________ ड्रोन विरि-यक्षेत्र सन्ध्या तक कपिल भूखा रहा। भूख के मारे गुस्से में मरा हुआ वह घर लौटा और धरनी स्त्री को डाटते हुए कहने लगा- 'दुष्टे ! तुझसे रोटी लाने को कह गया था। तू फिर भी रोटी नहीं लाई । मैं सारे दिन भूखा मरता रहा ।' स्त्री भयाक्रान्त होकर बोली- "मैं तो रोटी लेकर गई थी, किन्तु तुम वहाँ मिले ही नहीं। मैंने वहाँ लड़े नंगे बाबा से भी पूछा, लेकिन उसने भी कोई जवाब नहीं दिया तो मैं क्या करती, लोट प्राई स्त्री की बात सुनकर प्रज्ञ कपिल को साधु पर क्रोध श्राया और विचारने लगा-सारा दोष उस साधु का है। उसी के कारण मुझे भूखा रहना पड़ा। धतः उसे इसका पाठ पढ़ाना चाहिए। यह विचार कर वह फटे-पुराने कपड़े, तेल और भाग लेकर फिर खेत में पहुँचा। उसने सिर से पैर तक मुनिराज के शरीर पर विष लपेटकर मौर उन पर तेल छिड़क कर भाग लगा दी । प्राग लगते ही मुनिराज का शरीर जलने लगा। किन्तु वे भात्म ध्यान में लीन थे। उन्हें बाह्य शरीर का लक्ष्य ही नहीं था । वे शुद्ध भावों में लीन रहकर शुक्ल ध्यान में पहुँच गये । तभी उन्हें लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान प्रकट हो गया । चारों निकाय के देव गुरुदत्त मुनिराज के केवलज्ञान की पूजा के लिए वहाँ आये। योगीश्वर गुरुदत्त का यह चमत्कार पर प्रभाव देखकर कपिल ब्राह्मण भय से कापता हुआ उनके चरणों में जा गिरा मोर क्षमा-याचना करने लगा। वीतराग भगवान् को न तो उसके अपराध पर रोष हो था और न उसकी क्षमा-याचना पर हर्ष वे तो रोष हर्ष धादि से ऊपर थे। फिर कपिल ने भगवान् केवली के मुख से उपदेश सुनकर जन्म-जन्मान्तरों का र त्याग कर उन्ही के चरणों में दीक्षा ले ली। विचारणीय प्रश्न - इस कथानक में तीन बातें विचारणीय है । एक तो यह कि गुरुदत्त केवली किस स्थान से मुक्त हुए। इस कथानक में इस बात का कोई उल्लेख नही किया गया। दूसरी यह कि इस कथानक में द्रोणीमान या द्रोणगिरि को ठोनिमा पर्वत कहा है तथा उसका उल्लेख चन्द्रपुरी के सन्दर्भ में इस प्रकार किया गया है ४३ माटवेशामिषे देथे बादलोक घनान्विते । पूर्वोत्तरविद्याभागे तोणिमभूधरस्य च ॥ ब्रासीद्रपुरी रम्याकुल बहुलोमाको नान्यसमन्विता ।। - हरिषेण-कथाकोश, कथा १३६ श्लोक ४५-४६ । इसमें चन्द्रपुरी का वर्णन करते हुए उसे लाटदेश में और तोणिमान् पर्वत की पूर्वोत्तर दिशा (ईशानकोण) में बताया है। इससे ऐसा मामास मिलता है कि तोणिमान् पर्वत लाटदेश में था । इस कथानक से एक नया प्रश्न भी उभरता है। वह यह कि उनको केवलज्ञान भी द्रोणीमान् (तोणीमान्) पर्वत पर नहीं हुआ था, वह चन्द्रपुरी नगरी के बाहर खेतों में हुधा था । इन तीन प्रश्नों का समाधान मिलना त्या भगवती प्राराधना से उसका सामंजस्य स्थापित होना अत्यन्त मावश्यक है। भगवती धाराधना के धनुसार द्रोणिमान् पर्वत के ऊपर जलते हुए गुरुदत्त मुनि ने उत्तमार्थ प्राप्त किया। प्राराधनासार मे भी इसी प्राशय की पुष्टि की गई है। इसमें भी द्रोणीमान् पर्वत के ऊपर अग्नि लगने पर उन्होंने धारमप्रयोजन की सिद्धि बताई है। कथाकोश ग्रन्थो में द्रोणीमान् पर्वत के ऊपर तो उपसर्ग होने का प्राय: उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु उस पर्वत के निकट किसी स्थान पर यह भयंकर उपसर्ग हुमा, ऐसा प्रतीत होता है। निर्वाण-काण्ड मे द्रोणगिरि के शिखर से गुरुदत्त मुनि के निर्वाण प्राप्त करने का उल्लेख है। इसमें उपसर्ग होने का कोई उल्लेख नहीं किया गया। इससे स्पष्ट है कि उपसर्ग के तत्काल बाद ही गुरुदत को निर्वाण प्राप्त नहीं हुप्रा । उपसर्ग द्रोणगिरि पर नहीं हुआ। किन्तु उपसर्ग के पश्चात् उन्हें केवलज्ञान हुआ घोर निर्वाण द्रोणगिरि पर हुम्रा भगवती द्वाराधना और द्वाराधनासार (मा. ५०) में उपसर्ग का उल्लेख करते हुए डोकीमा पर जिस प्रारमार्थ की प्राप्ति या प्रात्मप्रयोजन की सिद्धि का उल्लेख किया गया है, उससे भाषायों का अभिप्राय केवलज्ञान की प्राप्ति के ही है। जैसा कि कथाको ग्रन्थों से भो समर्थन प्राप्त होता है। हरिषेण कथाकोब में पन्द्रपुरी के निकट जिस स्थान पर यह घटना घटो वह लगता है,
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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