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________________ ४, बर्ष २६ कि.. द्रोणगिरि के निकट ही था। इसलिए उसे द्रोणगिरि की जिसे सिद्धक्षेत्र के रूप में मान्यता और जनता की रक्षा उपत्यका न लिखकर द्रोणगिरि ही लिख दिया। निर्वाण प्राप्त है वह तीर्थक्षेत्र तो है ही। विशेषतः उस स्थिति में काण्ड की स्पष्ट सूचना से हरिषेण कयाकोश की प्रधूरी जब कि किसी दूसरे द्रोणगिरि की सम्भावना प्रसिद्ध है। सूचना की पूर्ति हो जाती है। वह यह कि गुरुदत्त की प्रतः वर्तमान द्रोणगिरि ही सिद्धक्षेत्र है, यह मान लेना मुक्ति द्रोणगिरि पर हुई। पड़ता है। अब सबसे अधिक विचारणीय समस्या रह जाती है क्षेत्र-वर्शन-द्रोणगिरि की तलहटी में सेंधपा गांव कि द्रोणगिरि कहाँ पर था ? हरिषेण की सूचनानुसार वह बसा हुमा है। गांव में एक मन्दिर है। जिसमें मादिनाथ लाटदेश में था। यदि तोणीमान को चन्द्रपुरी के निकट भगवान की मूलनायक भव्य प्रतिमा विराजमान है । यहीं न मानकर उससे अत्यधिक दूर खीचने का प्रयत्न करें तो दोमजिली दो जैन धर्मशालायें बनी हुई हैं । धर्मशाला से सहज ही प्रश्न उठ सकता है कि फिर द्रोणगिरि का दक्षिण की ओर दो फलांग दूर पर्वत है। पर्वत के दायें उल्लेख वहाँ करने की मावश्यकता क्या थी? मोर उस भोर बायें बाजू से कठिन मोर श्यामली नदियाँ सदा स्थिति में भगवती मारापना प्रादि ग्रन्थों के वर्णन की प्रवाहित रहती है । ऐसा प्रतीत होता है. मानो ये सदा. संगति किस प्रकार बैठाई जा सकेगी? एक कल्पना यह भी नीरा पार्वत्य सरिताएं इस सिद्धक्षेत्र के चरणों को पखार हो सकती है कि तोणिमान् पर्वत द्रोणीमान् या द्रोणगिरिसे रही हों । पर्वत विशेष ऊचा नही है। पर्वत पर जाने के लिए २३२ पक्की सीढ़ियाँ बनी हुई है। चारों ओर वृक्षों, भिन्न था। किन्तु इस कल्पना के मानने पर गुरुदत्त मुनि दो वनस्पतियो भौर लता-गुल्मो ने मिलकर क्षेत्र पर सौन्दर्यमानने पड़ेंगे। फिर तोणिमान् पर घटित घटना का उप राशि विखेर दी है। योग द्रोणीमान् पर्वत के लिए नहीं हो सकेगा। इसलिए पर्वत के ऊपर कुल २८ जिनालय बने हुए हैं । इनमें यह मानने से कोई हानि नही है कि द्रोणगिरि के कई नाम थे। उसे द्रोणगिरि के अतिरिक्त द्रोणाचल, द्रोणी तिगोड़ा वालो का मन्दिर सबसे प्राचीन है। इसे ही बहा मन्दिर कहा जाता है । इसमे भगवान मादिनाथ की एक मान् भोर तोणिमान् भी कहते हैं। सातिशय प्रतिमा संवत् १५४६ की विराजमान है। किन्तु कठिनाई यह रह जाती है कि लाटदेश (गुज सम्मेदशिखर जी के समान यहाँ पर भी चन्द्रप्रभ टोंक, रात) में किसी द्रोणगिरि के होने की कोई सूचना नहीं मादिनाथ टोंक प्रादि टोके हैं। यही १३ फुट ऊंची एक है। किसी प्राचीन स्थल-कोश से भी इसका समर्थन नहीं प्रतिमा का भी निर्माण हुप्रा है।। होता । बर्तमान मे जहाँ द्रोणगिरि (छतरपुर के निकट) अन्तिम मन्दिर पाश्र्वनाथ स्वामी का है। नीचे ३ माना जाता है, उसके निकट फसहोड़ी गांव का पता गज ऊँची १॥ गज चौड़ी और ४.५ गज लम्बी एक गुफा सरकारी कागजों से भी नही लगता। फलहोड़ी और बनी हई है। इस गुफा के सम्बन्ध में विचित्र प्रकार की फलीपी की किञ्चित् समानता के कारण फसहोड़ी की विविध किंवदन्तियां प्रचलित हैं। एक किंवदन्ती यह है कि पहचान फलोधी से करके उसको द्रोणगिरि के साथ सेंधपा गांव का रहने वाला एक भील प्रतिदिन इस गुफा सम्बद्ध करना, द्राविडी-प्राणायाम के अतिरिक्त कुछ भी में जाया करता था और कमल का एक सुन्दर फूल लाया नहीं है। किन्तु कुछ शताब्दियों से तो द्रोणमिरि (छतरपुर करता था। उसका कहना था कि गुफा के अन्त मे दीवाल के निकट वाला) तीर्थ क्षेत्र माना ही जाता रहा है। में एक छोटा छिद्र है। उसमें हाथ डालकर वह फूल तोड़ सम्भव है. वहाँ पर मन्दिर बनाने वालों को मान्यता- कर लाता था। उस छिद्र के दूसरी पोर एक विकास विषयक परम्परा का समर्थन मिला हो । जलाशय है। उसमें कमल खिले हुए हैं। वही पलोकिक सभी सम्भावनामों और फलितार्यों पर विचार करने प्रभा-पुंज है। बिलकुल इसी प्रकार की किवदन्ती मामी. के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि शताब्दियों से तुंगो क्षेत्र पर भी प्रचलित है।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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