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________________ ४२, अनेकान्त वर्ष २६ कि.. सागरसेन नामक मुनिराज को देखा । राजा प्रनम्तवीयं पूर्वोत्तर दिशा में स्थित चन्द्रपुरी नगरीके राजा चन्द्रकीर्ति उनके निकट प्राया और दर्शन वन्दन करके उनके पास बंठ से उसकी छोटी कन्या अभयमती मांगी। किन्तु राजा ने गया। उसने मुनिराज से प्रश्न किपा-भगवन् ! मेरे अपनी कन्या का विवाह गुरुदत्त के साथ करने से इन्कार पिता मरकर किस गति में उत्पन्न हुए हैं ? मुनिराज कर दिया। इससे रुष्ट होकर गुरुदत्त ने चन्द्रकीति पर बोले-वापी में जब तेरा पिता रानियों के साथ जल प्राक्रमण कर दिया। पन्त में चन्द्रकीर्ति को बाध्य होकर क्रीडा कर रहा था, तभी विद्युदंष्ट्र विद्याधर ने शिला से अपनी पुत्री का विवाह गुरुदत्त के साथ करना पड़ा। वापी को ढक दिया, जिससे मरकर वह वहीं निकट ही गुरुदत्त कुछ समय वहीं ठहर गया। सांप हुमा है। तू जा पोर उससे कहना-'उपरिचर' तू एक दिन ग्राम के कुछ लोग गुरुदत्त नरेश के पास साधू के निकट जा। तेरी बात सुनकर वह बिल से बाहर माये और हाथ जोड़कर कहने लगे-"देव ! द्रोणीमान् निकलकर धर्म ग्रहण करेगा। पर्वत पर एक व्याघ्र ने बड़ा उत्पात कर रखा है। उसने मुनिराज के वचन सुनकर राजा मनम्तवीयं बिल के हमारे न केवल गोकुल को, भपितु कई मनुष्यो को भी खा निकट आकर मुनिराज के कहे अनुसार बोला। उसकी लिया है। पाप हमारी रक्षा करें।" प्रजा की करुण बात सुनकर वह सर्प मुनिराज के समीप गया। मुनि ने पुकार सुनकर राजा गुरुदत्त संनिकों को लेकर द्रोणीमान उसे उपदेश दिया। उपदेश सुनकर सर्प को जाति-स्मरण पर्वत पर पहुँचा। सेना के कलकल शब्द से घबडाकर शाम हो गया। उसने अपनी मायु मल्प जानकर हृदय से वह सिंह एक गुफा में घुस गया। उसके मारने का अन्य धर्म ग्रहण कर लिया और कुछ दिनों बाद अनशन करते कोई उपाय न देखकर सैनिकों ने गुफा में ईधन इकट्ठा हुए उसकी मृत्यु हो गई। शुभ भावो से मरकर वह करके उसमें भाग लगा दी। सिंह धुएं और प्राग के नागकुमार जाति का देव हुमा । प्रवधिज्ञान से अपने पूर्व कारण उसी गुफामें मर गया और मरकर चन्द्रपुरी मे भवभव जानकर वह देव अनन्तवीर्य के पास पाया। देव के वचन सुनकर मनन्तवीर्य को वैराग्य हो गया। वह अपने धर्म नामक ब्राह्मण के घर में कपिल नामक पुत्र हुमा । सुवासु नामक पुत्र को राज्य देकर सागरसेन मुनि के राजा गुरुदत्त अपनी पत्नी को लेकर सैनिकों के साथ समीप निर्गन्य मुनि बन गया और घोर तपस्या दारा हस्तिनापुर लोट माया पौर राज्य शासन करने लगा। कर्मों का नाश करके मुक्त परमात्मा बन गया। एक बार सात सौ मुनियों के साथ प्राचार्य श्रुतसागर नागकुमार देव सुमेरु पर्वत मादि पर जाकर जिनालयों नगर के निकट पधारे। उनके उपदेश को सुनकर राजा कीaaaavaran हिसार और रानी दीनों ने दीक्षा ले ली। एक दिन मुनि गुरुदत्त हुए उसे विद्युद्दष्ट्र विद्याधर दिखाई पड़ा। पूर्वजन्म की विहार करते हुए द्रोणीमान् पर्वत के निकटस्थ चन्द्रपुरी घटना का स्मरण पाते ही उसे भयायक कोष माया पौर नगरी के बाहर ध्यान लगाये खड़े थे। कपिल अपनी उसे मय स्त्री के समुद्र में ले जाकर वो दिया। विद्यद. स्त्री से मध्याह्न बेला में भोजन के लिए कहकर खेत दंष्ट्र प्रशभ परिणामों से मरकर प्रथम नरक में नारकी जोतने चला गया। उसी खेत में गुरुदत्त मुनि ध्यानारूढ़ बना । वहाँ से पायु पूर्ण होने पर वह द्रोणगिरि पर सिंह थे। वह खेत पानी से भरा होने के कारण जोतने लायक हमा। नहीं था। प्रतः वह दूसरे खेत को जोतने चला गया । नागकुमार मरकर हस्तिनापुर-नरेश विजयदत्त की पौर मुनि से कहता गया कि 'स्त्री भोजन लेकर प्रावेगी, विजया रानी से गुरुदत्त नामक पुत्र हमा। जब वह यौवन उसमे कह देना कि मैं दूसरे खेत पर गया है।' उसकी प्रवस्था को प्राप्त हुमा तो पिता गुरुदत्त का राज्याभिषेक स्त्री मध्याह्न में भोजन लेकर पाई मौर वहाँ पति को करके मुनि बन गये। गुरुदत्त मानन्दपूर्वक राज्य शासन न पाकर उसने मुनि से पूछा। किन्तु मुनि ने कोई उत्तर करने लगा। एक बार उसने लाटदेश में द्रोणागिरि को नहीं दिया तो वह घर लौट गई।
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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