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वैराग्योत्पाविका अनुप्रेक्षा
तथा-तथाही उसके समीप में
अवश्य पाती शुभ मोक्ष इंदिरा ।७२ सभी सुखों की खनि ख्यात निर्जरा विमुक्ति-योषा-प्रद ज्ञात निर्जरा, विकर्म-यामा-कृत प्रात निर्जरा
सु-ध्यान-भू में अवदात निर्जरा ७३ लोक -सलिल से, महि से, नभ से तथा
अनिल से जग पावक से बना, भुवन सप्त अधोपरि राजते
सदन के सु-मनोहर खंड-से ।७४ यथा अधोलोक, तथैव अध्रि है यथैव है मध्य तथैव नाभि है, यथैव है उर्ध्व तथैव शोर्ष है यथैव ब्रह्माण्ड तथैव पिण्ड है ।७५ त्रिलोक है, या जग सप्तलोक है, अनन्त है ससृति या कि सात है, दिनेश राकापति भी न जानते
समस्त तारे अनभिज्ञ-भेद है।७६ निधान है स्वर्ग अनन्त सौख्य का, विधान है नारक कोटि दुःख का इसीलिए सात्त्विक धर्म ग्रथ में प्रशंसनीया अपवर्ग साधना ७७ सभी नगों की गणना असार है, नदी-नदों का कहना निरर्थ है, अयुक्त है सागर-मंथना अतः
स-सार है केवल ज्ञानभावना ।७८ बोधिदुर्लभ-परम दुर्लभ संभव लोक में,
विदित है नर-योनि सुदुर्लभा, .. अति अलभ्य शुभा गति धर्म की बहु अलभ्य महापद बोधि का ।७६ चतुर्विधा जो गतियाँ कही गई, सुदुर्लभा है प्रथमा दशा उन्हें; प्रसिद्ध जो मानव योनि नाम से
अलभ्य, चिंतामणि ज्यों समुद्र में 1८० सुदुर्लभा भी यह आर्य भूमि है अलभ्य उत्पत्ति मनुष्य की यहाँ,
सुदुर्लभा उत्तम वंश प्राप्ति भी, सुदुर्लभा दीर्घ मनुष्य प्रायु है ।८१
अलभ्य पंचेन्द्रिय-पूर्णता यहाँ, सुदुर्लभा निर्मल बुद्धि प्राप्ति भी; अलभ्य है मंदकषाय भावना सदुर्लभा मुक्ति-प्रदा विभावना।८२ तथा मही-मध्य अलभ्य श्रेष्ठता अलभ्य है धार्मिकता मनुष्य को, अलभ्य है सम्यक दर्श आत्म को विशुद्धि, विज्ञान चरित्र आदि भी।८३
इसीलिए धर्म महान श्रेष्ठ है इसीलिए कर्मप्रधान विश्व भी लगे हुए मानव धर्म-कर्म में विचारते केवल ज्ञान मर्म हैं।८४ विमुक्ति पाना इस जन्म मृत्यु से महान निःश्रेयस ख्यात विश्व में, सदैव श्रेयास स्वधर्म भावना,
तथैव प्रेयांस जिनेन्द्र वदना।८५ धर्म- शिथिल जीव निकाल भवाब्धि से
अमित अर्हत् का पद दे; वही; विदित है प्रभुता प्रभु धर्म की विपुल मुक्ति प्रदायिनि लोक में ८६ क्षमा-दया, सयम, सत्य-शौच से, तपार्जव त्याग-विराग भाव से, कि युक्त जो मार्दव, ब्रह्मचर्य से दशांग शोभी जिन-धर्म रूप है।८७ स्वधर्म धर्मी यदि पालता रहे, अ-कर्म कर्मी यदि घालता रहे, अवश्य ही हो उसको अवाप्त तो विमुक्ति-दात्री सुख-संपदा सदा।८८ स्वधर्म ही श्रेय सभी प्रकार से विधर्म ही हेय मुमुक्षु के लिए, न इन्दिरा ही मिलती उसे, अहो !
अवाप्त होती जिनधर्म संपदा । अलभ्य जो संपति है त्रिलोक में, न भाग्य आमंत्रित जो हुई कभी,