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कवि वर्द्धमान भट्टारक
पं० परमानन्द जी शास्त्री
ये मूल संघ बलात्कार गण और भारती गच्छ के विद्वान् थे । इनकी उपाधि 'परवादि पंचानन' थी । वरांग aft की प्रशस्ति में कवि ने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है :
स्वस्ति श्रीमूलसंघे भुवि विदितगणे श्रीबलात्कारसंज्ञे । श्रीभारत्यात्य गच्छे सकलगुणविधिर्वर्द्धमानाभिधानः ॥ प्रासीद् भट्टारकोsit सुचरितमकरोच्छ्रीवराङ्गस्य राशो । भव्यधेसि तम्बद् भुवि चरितमिदं वर्ततामार्कतारम् ॥ - वरांगचरित १३-८७ । वर्द्धमान नाम के दो विद्वानों का उल्लेख मिलता है । उनमें एक वर्द्धमान न्यायदीपिका के कर्ता धर्मभूषण के गुरु थे और 'दशभक्त्यादि महाशास्त्र' के भी कर्ता थे और दूसरे वर्द्धमान हूमच शिलालेख के रचयिता है। इनका समय १५३० ई० के लगभग है। बिजयनगर के शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई० ) में उत्कीर्ण शिलालेख
अवश्य होती वह स्वीय योषिता, जिनेन्द्र के धर्म प्रभाव से सदा ॥६० सदा सवित्री-सविता स्वधर्म है, स्वधर्म भ्राता, स्व-सखा स्वधर्म है, स्वधर्म विद्याधन भी स्वधर्म है स्वधर्म सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ है । ६१ स्वधर्म चिन्तामणि कल्पवृक्ष हैं स्वधर्म संपूजित कामधेनु भी, स्वधर्म ही भूगत स्वर्गलोक में, स्वधर्म ही श्रेय, विधर्म हेय है । ६२ अतः करो पालन नित्य धर्म का पदाब्ज - प्रक्षालन सत्यधर्म का, न प्राप्त होती जिसके बिना कभी · मनुष्य को केवल-ज्ञान- कल्पना ॥६३
भट्टारक धर्म भूषण के पट्टधर और सिंहनन्दी योगीन्द्र के चरणकमलों के अमर वर्द्धमान मुनि थे। उनके शिष्य धर्मभूषण हुए। जैसा कि उसके निम्न पद्यों से प्रकट
पट्टे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमान मुनीश्वरः । श्रीसिंहनन्दि योगीन्द्रचरणाम्भोज षट्पदः ॥ १२ शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धमं भूषणदेशिकः । भट्टाएक मुनिः श्रीमान् शस्यत्रयविवर्जितः ॥ १३ इनके समय में शक सं० १३०७ (सन् १३८५ ई० ) की फाल्गुन कृष्णा द्वितीया को राजा हरिहर के मन्त्री चैत्र दण्डनायक के पुत्र इरुगप्प ने बिजयनगर में कुन्थुनाथ का मन्दिर बनवाया था ।
दशभक्त्यादि शास्त्र के निम्न पद्य में उल्लिखित विजयनगर नरेश प्रथम देवराज राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि से विभूषित थे । इनका राज्य सम्भवतः सन् १४१८ ई० तक रहा है और द्वितीय देवराज का समय सन् १४१९ से १४४६ ई० तक माना जाता है ।
राजाधिराजपरमेश्वरदेव राय, भूपाल मौलिलसप्रिसरोजयुग्मः । श्रीवर्द्धमानमुनिवल्लभमोदय मुख्यः, श्रीधर्मभूषण सुखी जयति क्षमात्यः ॥
भट्टारक धर्मभूषण ने व्यायदीपिका की अन्तिम प्रशस्ति में और पुष्पिका में भट्टारक वर्द्धमान का उल्लेख किया है :--
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१. तस्य श्री चैत्रदण्डाधिनायकस्योज्जितश्रियः । 'प्रासीदिरुगदण्डेशो नन्दनो लोकनन्दनः ॥ २१ X पुरे चारुशिलामयम् । चैत्यालयमचीकरत् ॥ २८ -- विजय नगर शि० नं० २
X तस्मिन्निरुगवण्डेशः श्री कुम्युजिननाथस्य
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