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७८, वर्ष २६, कि०२
अनेकान्त
इसीलिए क्यों अपवित्र देह से करो न संपन्न स्व-धर्म-साधना ।५४ अनित्य देह स्थित नित्य जीव है करे न निश्रेयस प्राप्ति कार्य क्यों? अवस्थिता केवलज्ञान में सदा
नितान्त ही मुक्ति महा पवित्र है ।५५ प्रास्रव-- सलिल आस्रव हो जिस रूप में
विगत नीर कभी बनता नही; इस प्रकार सकर्म मनुष्य को कब अवाप्त हुई गति निर्जरा? ।५६ स-राग आत्म स्थित राग-भाव से समागता पुद्गल राशि कर्म हो, शरीर में आगत दुःखदायिनी प्रसिद्ध है आस्रव नाम से सदा ।५७
स-छिद्र जैसे जलयान में जभी प्रविष्ट होता जल डूबती तरी; तथैव कर्मागम से मनुष्य का
अवश्य होता विनिपात अत में ।५८ अतः सुनो प्रास्रव-हेतु भी जिन्हे महान ही दुष्कर नाशना हमें; प्रमाद-उत्पन्न अनर्थ मूल जो प्रसिद्ध मिथ्यात्व समस्त भूमि में ।५६
कहा गया पंच प्रकार का वही, प्रधान है आस्रव हेतु कर्म का, प्रसिद्ध जो द्वादश भाँति की यहाँ
अनथिनी घोर विराग-हीनता ।६० प्रमाद जो पंचदशी विभक्ति का तृतीय है हेतु, चतुर्थ और भी-- सभी कषाएं सब दुष्ट योग जो न दूर होते शतशः प्रयत्न से ।६१
उन्हें सदा सम्यक् ज्ञान-हेति से विनाशना ही ध्रुव वीर-धर्म है, सुदीर्घ कर्मास्रवद्वार ज्ञान से . न बंद जो है करता प्रयत्न से।६२ न पाप से मुक्ति मिली कभी उसे न पा सका केवल-ज्ञान-लाभ सो,
मनुष्य कर्मास्रव रोकता तभी
विमुक्ति रत्न-त्रय से समेटता ।६३ संवर - मनुज योग-तपादिक यत्न से
निगम आगम के स्थिर जान से कर निराश्रित प्रास्रव कर्म का
स-मुद रत्नत्रयी फल भोगते ।६४ मुनीश योग-व्रत-गुप्ति आदि में स-यत्न कर्मास्रव द्वार रोकते; वही क्रिया संवर नाम धारिणी विमुक्ति संपादन में अमोघ है।६५
चरित्र जो तेरह भाँति का, तथा स्वधर्म, जो एक-नव प्रकार का प्रसिद्ध जो बारह भावना यहाँ परीषहाघातक हेतु ख्यात जो ।६६ विशुद्ध सामायिक पाँच भाँति का विमर्श जो उत्तम ज्ञान-ध्यान का, यही सभी सत्तम हेतु जानिए अमोघ कर्मास्रव के निरोध में ।६७ मुनीश, जो संवर-दत्त चित्त हैं, प्रकाशिता है जिनकी गुणावली, वही मही के चल धर्म वृक्ष हैं
तथा उन्ही के अवदात ध्यान है।६८ द्विविध कर्म-विनाश-प्रवृत्ति का सुफल है वह सपति-प्राप्ति जो, न मिलती इस भूतल में उसे
कर न जो सकता प्रभु-भक्ति है।६६ निर्जरा--अतीत से संचित कर्म राशि का
विनाश होना अविपाक निर्जरा; कही गयी सिद्ध मुनीन्द्र से सदा अवश्य ही संग्रहणीय साधना ।७० स्वभाव से ही वह, जो मनुष्य के स्वतत्र कर्मोदय-काल में उठे, सदा परित्याग करे स-यत्न सो विकार-युक्ता सविपाक निर्जरा ७१
यथा-यथा योग तपादि यत्न से करे यती नित्य स्व-कर्म निर्जरा,