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________________ वैराग्योत्पाविषय अनुप्रेक्षा इसीलिए पुद्गल-पाप-बंध से अवश्य पाता नरकाधिकार है।३६ परन्तु जो मानव मुक्त संग हो लगे हुए सम्यक् दर्शनादि में, व्यतीत भू में करते स्वकर्म है, कहे गये केवलज्ञान संयमी ।३७ प्रसंग भू में करते व्रतादि हैं प्रसंग सारे तप जाप साधते, बही महा विज्ञ मनुष्य अंत में, अतीव पाते सुख पुण्य बंध से ।३८ विभूतियाँ जो सुर-लोक-सिद्ध है महान निःश्रेयस सपदा तथा विशुद्ध कैवल्य-प्रदा त्रिलोक में अवाप्त होती गतियाँ विदग्ध को।३६ मनुष्य रत्न-त्रय से अवश्य ही विनाशता कर्म-अकर्म भावना, सदैव एकत्व प्रधान भाव ही प्रभावशाली अपवर्ग हेतु है ।४० अन्यत्त्व-मनुज है प्रकृतिस्थ अवश्य, पै इतर है जग प्रात्म स्वरूप से, जगत है जड़, चेतन जीव है। परम पुद्गल तत्त्व अतत्त्व है।४१ मनुष्य ! तू अन्य समस्त जीव से स्वकर्म से भी अतिरिक्त है सदा, पदार्थ सारे महि-नाक-पाक के सखे ! असबद्ध त्वदीय प्राण से ।४२ सदैव कर्मोदय से मनुष्य को अवाप्त होते जग-जाति-बंधु हैं, पिता तथा पुत्र कलत्र मित्र भी न साथ जाते, रहते न संग में ।४३ शरीर ही, जो निज अंतरंग-सा, न साथ देता जब है। मनुष्य का, कहें कथा क्या बहिरंग-वतिनी कुरूंग-नेत्रा त्रिनता कलत्र की।४४ स्वचित्त, जो पुद्गल-कर्म जन्य है, स्व-चित्त-संकल्प-विकल्प-युक्त जो, तथैव वाचा युग भाँति की, सखे ! विभिन्न है निश्चय जीव तत्स्व से।४५ मनुष्य के कर्म विभिन्न जीव से, विभिन्न ही हैं परिणाम कर्म के, सभी नरों के सुख-दुःख आदि भी विभिन्न हैं प्रात्म स्वरूप से सभी।४६ विभिन्न है ज्ञान स्वरूप जीव से, स्व-कर्म की साधन मात्र इन्द्रियाँ, विभिन्न है सम्यक् राग द्वेष भी विकर्म सारे अथवा अ-कर्म भी।४७ अतः करो यत्न समेत भावना शरीर द्वारा उस प्रात्म तत्त्व की, अनादि, अक्षय्य अनंत जो सदा निरीह निर्धारित निविकार जो।४८ अशुचि-अशुचिपूर्ण शरीर मनुष्य का, विदित जो मल-मूत्र प्रवाल है, अगरु से न तु चदन-लेप से विमलतामय भासित हो सका ।४६ शरीर है निर्मित सप्तधातु से, निधान है जो मल-मूत्र प्रादि का; स-मोह सेवा इसकी प्रकार्य है सु-बुद्धि-संबोधित ज्ञानवान से १५० यहाँ बुभुक्षा जलती प्रकोप से: यहाँ पिपासा जलती प्रदाह से, विनाशती यौवन अग्नि काम की जरा न जाती जब पाचुकी यहाँ ।५१ शरीर ही है बिल काम सर्प की, यही कुटी निश्चित रागद्वेष की, कुगधिता है स्वयमेव ही नही, वरन बनाती शुचि हीन वस्त्र भी।५२ शरीर चाहे अप्ति हृष्ट पुष्ट हो तथैव हो सुन्दर शौर्यवान या परन्तु होता परिणाम में सदा अभूरि मुष्टिगत-भस्म तुल्य ही।५३ शरीर का पालन रोग मूल है, शरीर का पोषण योग दातृ है,'
SR No.538026
Book TitleAnekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1973
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size14 MB
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