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७६, वर्ष २६, कि०२
प्रदेकान्त
जिनेन्द्र-पूजा, तप, दान जाप ही अजस्र रत्नत्रय प्रेय हैं उसे ।१८ जिनेन्द्र के ही उपदेश गेय हैं, मुनीन्द्र के ही पद पद्म ध्येय हैं, जिनेन्द्र सिद्धांत सदैव श्रेय हैं,
अत: धरो ध्यान मुनीन्द्र मार्ग का ।१६ सदैव मोक्षप्रद जैन धर्म है तथैव रत्नत्रय-साध्य मोक्ष है, वितान है मोक्ष अनंत सौख्य का प्रतान है सौख्य अनादि शक्ति का ।२०
मनुष्य जो केवल ज्ञानदेव को विहाय सेते सुर नाम मात्र के, सदैव पाते गति दुर्दशामयी न मुक्त होते भव-रोग-दोष से ।२१ अमोघ रत्नत्रय के प्रभाव से अवाप्त होती वह मुक्ति जीव को, अनंत आनंद समुद्र रूपिणी
प्रसिद्ध है जो जिन धर्म शास्त्र में ।२२ संसार-मनुज को भव दो, मृत एक है
अपर में न तु संभव शक्ति ही, भटकता युग संसृति मध्य में शरण-हीन अनाहत जन्तु-सा ।२३ अनादि है विश्व, अनंत लोक है (सुना गया भव्य-प्रभव्य जीव से) विमूढ को जो सुख-दुःख-पूर्ण है नितान्त दुःखाश्रय विज्ञ मानते ।२४ विमूढ़ पाते सुख भोग में सदा नविज्ञ होते विषयादि लुब्ध हैं, प्रतीति सारे भव-रोग की अहो ! निकृष्ट होती नरकादि हेतु है ।२५ मनुष्य के कर्म शरीर धर्म भी यहाँ न ऐसे जिनको यथार्थ ही, किए नही व्यक्त गहीत जीव ने प्रसिद्ध ऐसा यह द्रव्य लोक है।२६ प्रदेश ऐसा इस लोक में नहीं न जीव उत्पन्न हुए, मरे जहाँ,
सुविज्ञ प्राणी-गण मे इसीलिये प्रसिद्ध प्रामाणिक क्षेत्र लोक है ।२७ न काल ऐसा इह लोक में बचा न जीव उत्पन्न हुए, मरे जहाँ । इसीलिए विज्ञ समाज में यहाँ,
प्रसिद्ध वैज्ञानिक काल लोक है ।२८ न योनि ऐसी इस भूमि में बची जिसे न संप्राप्त हझा स्व जीव हो, अतः जिसे पडित विश्व मानते, प्रसिद्ध भू में भवलोक है वही ।२६
सदैव प्राणी भ्रमते त्रिलोक में स्वकर्म मिथ्यात्त्व समेत पालते, समेटते अजित पाप पुंज हैं,
प्रभावशाली यह भाव लोक है ।३० विमुक्तिदाता जिन-धर्म-श्रेष्ठ है अतः करो पालन यत्न से इसे अनूप रत्नत्रय रूप मोक्ष का
निधान है केवलज्ञान सर्वशः ।३१ एकत्त्व--सुहृद संग सदा रहना हमें
वितरता बल बुद्धि विवेक है, पर असंग-प्रसंग परेश का बिदित प्रात्म समुन्नत हेतु है ।३२ सदैव प्राणी इस मर्त्यलोक मे रहा अकेला, रहता असंग है; रहा करेगा यह संगहीन ही प्रसंग होगा इसका न अन्य से ।३३ असग लेता नर जन्म विश्व में प्रसंग ही है मरता पुनः पुनः, सदा अकेला सुख-दुःख भोगता न अन्य साझी उसका त्रिलोक में ।३४ अ-संग ही सौख्यद भोग भोगता प्रसंग ही दुःखद रोग भोगता, सदैव प्राणी यमराज संग में प्रसंग जाता, फिरता प्रसंग है ।३५
सदा अकेला करता कुकर्म है कुटुम्ब के पालन हेतु विश्व में,