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वैरान्योत्पादिका अनुप्रेक्षा
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महाकवि अनूप (वर्द्धमान महाकाव्य से) अनित्य-मनुष्य का जीवन मृत्यु से घिरा
युव-अवस्था परिणाम में जरा, शरीर है प्रालय रोग-सर्प का अनित्य है इन्द्रिय सौख्य-सम्पदा ।१ स्वकर्म के ही परिपाक से सदा मनुष्य के कीलित जन्म मृत्यु है, मनुष्य ही क्या सब जीव मात्र में
अनित्यता है, क्षति है, निपात है।२ जगत्रयी की सव मौख्य संपदा विनप्ट होती दिन चार-पाँच में, कही अभी या कल, या परश्व ही समस्त भू की मिटती यथार्थता ।३
मनुष्य से, जिनके निमेष से अशेष होते प्रलयोदयादि हैं, रहे न वे भी इस जीवलोक में
पुनः कथा क्या कृमि कीट की कहे ।४ समुद्र के बुद्बुद तुल्य शीघ्र ही विनष्ट होते जब लक्ष इन्द्र भी, हमें कहाँ जीवन दीर्घ प्राप्त हो खड़ा महा काल समक्ष ही सदा ।५ विनष्ट होती अचला धरा जहाँ विशीर्ण होते हिमवान विन्ध्य भी, विहीन होते जल से समुद्र हैं
पुनः कथा क्या नरदेह की कहे ।६ हमें मही में जितने पिता मिले मिले यहाँ पै जितने स्वबंधु भी, न भूमि में हैं उतने कणांशु या भू-चक्र में है उतने न ऋक्ष भी।७ मनुष्य अव्यक्त स्वजन्म पूर्व में तथैव हैं वे सब व्यक्त मध्य में, पुनश्च अव्यक्त विनाश के परे
अतः वृथा है परिदेवना सभी। सुपुत्र, पत्नी, धन, कीर्ति जीव को प्रमोद देते यह बात सत्य है,
परन्तु हा ! जीवन तो मनुष्य का प्रमत्त-नारी-दगपांग-लोल है।
सहस्र माता, शत कोटि पुत्र भी, पिता असख्यात कलत्र मित्र भी, अनंत उत्पन्न हुए, जिए, मरे, न मैं किसी का, वह भी न मामकी ।१० यथैव भू की हरिता तृणावली स-हर्ष खाते बलि-जीव जन्तु हैं, तथैव भूला यम यातना, अहो ! मनुष्य भारी भ्रम भोग भोगता ।११
प्रसन्न होते मति-मंद द्रव्य से तथैव रोते बन रंक अत में, विवेक द्वारा यदि वे विलोकले, '
अतथ्य सपत्ति, विपत्ति भी वृथा ।१२ समुच्च बातायन गोपुरादि से सुसज्जिता तुग-शिखर हवेलियाँ; बिनष्ट होतो क्षण एक में, तदा कहो, कहें क्या, नरदेह की कथा ।१३ सरोज-पत्रस्थित नीर बुन्द सी मनुष्य की आयु अतीव चंचला, अवश्य ही दंशित व्याधि व्याल से दशा महाशोक हता त्रिलोक की।१४ मनोहरा स्त्री, अनुकूल मित्र भी, महासुधी बांधव योग्य भत्य मी, गजेन्द्र बाजी सव नाशवान हैं नरेन्द्र मंत्री सब ह्रासवान हैं ।१५ इसीलिए जीव सुधी वरण्य जो प्रवृत्त होते जिन-धर्म-मार्ग में, न विश्व में सतत सौख्य लाभ है
अतः विचिन्त्या परमार्थ-साधना ।१६ अशरण-जिस प्रकार फसा हरि दष्ट्र में
अवल बालक युक्ति विहीन हो, उस प्रकार बंधा नर विश्व में शरण पा सकता न अधर्म को ।१७
अतः सुधी मानव को त्रिलोक में शरण्य अर्हन्त पदाब्ज हैं सदा,